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Friday, November 2, 2012

Fwd: [New post] विचार : लूट-तंत्र में बदलता लोकतंत्र



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/30
Subject: [New post] विचार : लूट-तंत्र में बदलता लोकतंत्र
To: palashbiswaskl@gmail.com


समयांतर डैस्क posted: "यह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय की बात है। उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में दो लोग का"

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विचार : लूट-तंत्र में बदलता लोकतंत्र

by समयांतर डैस्क

brijesh-mishra-nk-singhयह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय की बात है। उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में दो लोग काफी ताकतवर थे और नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। इनमें एक थे वाजपेयी के बहुत ही विश्वासपात्र ब्रजेश मिश्र (जो उस समय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे) और दूसरे थे पीएमओ में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी (आर्थिक मामले) एन.के. सिंह। ये दोनों औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए तत्पर रहते थे। उस समय सत्ता के गलियारों में इन दोनों की ताकत की चर्चा रहती थी। पर प्रामाणिक तौर पर इसका खुलासा आउटलुक अंग्रेजी पत्रिका के पांच मार्च 2001 के अंक में वित्त मंत्रालय में सचिव (आर्थिक मामले) रहे डॉ. ईएएस सरमा ने किया था। अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- ''बहुत सारे औद्योगिक घराने और लॉबिंग करने वाले लाभ प्राप्त करने के वास्ते छूटों और अन्य चीजों के लिए सरकार पर निर्भर रहते हैं। जब मंत्रालयों और प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिकाएं और जवाबदेही धूमिल हो जाती है, जैसा कि अब हो रहा है (उस समय वाजपेयी की सरकार थी), लॉबिंग एक तरह से रोज का नियम बन जाती है।... जहां तक ब्रजेश मिश्र और एन.के. सिंह का सवाल है तो ये दोनों मुख्य पदाधिकारी हैं और नीतियों को प्रभावित करने की हैसियत में हैं।... रिलायंस के हिरमा प्रोजेक्ट के मामले में परियोजना के अनुकूल और गारंटी सहित जल्द से जल्द स्वीकृतियां दिलाने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय अनावश्यक दिलचस्पी लेता रहा है। हिरमा प्रोजेक्ट में बीस हजार करोड़ का निवेश शामिल है। यदि सरकार काउंटर गारंटी देती है तो यह रिलायंस को अगले बीस साल तक एक निश्चित बड़ी रकम लौटाने के समान होगा।...बिजनेस लॉबिंग जैसे रिलायंस, एस्सार और हिंदूजा ने पीएमओ पर जोर लगाना शुरू कर दिया है और यह वांछित प्रवृत्ति नहीं है।... जो लोग सत्ता में हैं हिंदूजा बंधु उनके बहुत ही करीब हैं। हिंदूजा इतने ताकतवर थे कि अपनी पहल पर कैबिनेट की बैठकें बुला सकते थे।''

यह पीएमओ का ग्यारह साल पुराना परिदृश्य है। जो वक्त के साथ और भी बदरंग होता चला गया है। हमारी सरकारों का वास्तविक चरित्र कैसा है, सरमा की उपरोक्त बातों से साफ हो जाता है। कॉरपोरेट घरानों और मंत्रियों-नेताओं का एक ऐसा नापाक गठजोड़ (जिसकी दीवार किसी भी उच्चतम श्रेणी के ईंट-गारे से हजारों गुना ज्यादा मजबूत है) बना हुआ है जिसने भारत को एक 'बनाना रिपब्लिक' में तब्दील कर दिया है। राजनीतिक विज्ञान में 'बनॉना रिपब्लिक' एक ऐसे देश को कहा जाता है जो प्राइमरी-सेक्टर प्रोडक्शन पर निर्भर है, जिस पर धनिकतंत्र शासन करता है और जो राजनीतिक-आर्थिक ऑलिगार्की (सीमित लोगों में निहित सत्ता वाला शासन) के माध्यम से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का इस्तेमाल करता है।

दरअसल भारत में जहां भी कोयला, लौह अयस्क, बॉक्साइट और अन्य प्राकृतिक संसाधन भरपूर मात्रा हैं वहां सरकारों की मदद से कॉरपोरेट घराने किसी भी तरह से अधिक मुनाफा कमाने के लिए इनका अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों और राष्ट्रीय संपदाओं की लूट के लिए होड़ मची है। सरकारों में अपने प्रभाव के बल पर जो जितना हथिया सकता है उतना हथिया रहा है। कॉरपोरेट घरानों के लिए नीतियों को इस तरह से बदला जाता है जिससे उन्हें हर हाल में छप्पर फाड़ मुनाफा (विंडफॉल गेन्स) हो।

इसका एक उदाहरण कांग्रेस के युवा सांसद नवीन जिंदल की कंपनी जिंदल पावर लिमिटेड (जेपीएल) है, जो कि जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड (जेएसपीएल) की सब्सिडरी कंपनी है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में इसका कोयला आधारित पावर प्लांट है। यह भारत का पहला ऐसा प्रोजेक्ट है जिसका 'मर्चेंट पावर' के आधार पर परिचालन होता है। इसका अर्थ यह है कि यह उन दूसरे प्रोजेक्टों जैसा नहीं है जो कि राज्य सरकारों के साथ दीर्घावधि के बिजली खरीद समझौते के जरिए निश्चित शुल्कों से बंधे होते हैं। जेपीएल बाजार में किसी भी खरीददार को हाजिर दर (स्पॉट रेट) पर बिजली बेचने के लिए स्वतंत्र है। कंपनी का एक हजार मेगावाट का प्लांट 2008 में पूर्णतया परिचालन होने लगा था। अगले साल के दौरान कंपनी ने छह रुपए प्रति यूनिट से अधिक की औसत कीमत पर बिजली बेची। इसने वर्ष 2010 तक बहुत अधिक प्राप्ति से न केवल अपनी चालू लागत को पा लिया बल्कि 4338 करोड़ के निवेश को भी पूरा कर दिया। इंफ्रास्ट्रक्चर विशेषज्ञों के अनुसार पावर प्रोजेक्टों में पूंजी निवेश के लिए व्यय ऋण को चुकाने में पांच से सात साल लग जाते हैं। हालांकि इस प्रोजेक्ट में ऐसा कुछ नहीं है। रिसर्च फर्म मोतीलाल ओसवाल की जुलाई 2011 की रिपोर्ट में कहा गया है कि ''अपने परिचालन के दो साल के भीतर ही जिंदल पावर कम लागत के कारण अत्यधिक धनापूर्ति की वजह से ऋणमुक्त हो गई।'' कम लागत का सबसे बड़ा कारक यह था कि इसे केवल दस किलोमीटर दूर केप्टिव कोयला खान- संयुक्त आरक्षित कोयला 24 करोड़ 60 लाख टन- से सस्ता कोयला मिलना था। (सीक्रेट ऑफ जिंदल्स सक्सेस : चीप कोल, कॉस्टली पावर, सुप्रिया शर्मा, संडे टाइम्स 9 सितंबर 2012)।

naveen-jindal-on-the-backfootइसका एक और उदाहरण कोयला ब्लाकों के आवंटन में कैग की रिपोर्ट से भी साफ हो जाता है। कोल ब्लॉक आवंटन में सबसे अधिक लाभान्वित होने वालों में अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस पावर लिमिटेड (आरपीएल) भी है। ऊर्जा और कोयला मंत्रालयों की जबरदस्त खिंचाई करते हुए कैग ने कहा कि आरपीएल को उसके चार हजार मेगावाट के सासन मेगा पावर प्रोजेक्ट के लिए बोली (बिड्स) लगाने से पूर्व छूटें दी गईं। कैग का कहना है कि यह बोली की प्रक्रिया को दूषित करना ही नहीं है बल्कि डेवलेपर को 29,033 करोड़ रुपए का 'अनुचित लाभ' प्रदान करना है। दरअसल कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के मामले में पार्टी लाइन और विचारधारा सब धूमिल हो जाती है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (भाजपा नेता) ने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया था कि सासन प्लांट के कैप्टिव ब्लॉकों से अधिशेष कोयला के इस्तेमाल की आरपीएल को अनुमति दे दी जाए। कोयला ब्लॉकों के आवंटन के इस काले धंधे में लाभ पाने वाली कंपनियों में से कुछ के नाम हैं- टाटा ग्रुप, रिलायंस पावर, जिंदल पावर एंड स्टील, अभिजित ग्रुप, भूषण ग्रुप, इलेक्ट्रोस्टील, आधुनिक ग्रुप, एसआर रूंगटा ग्रुप, सज्जन जिंदल, गोदावरी इस्पात, ओपी जिंदल ग्रुप, जयप्रकाश गौड़, गोयनका ग्रुप। कोयला घोटाले में भी केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों की संलिप्तता का आए दिन खुलासा हो रहा है। इसमें केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय, कांग्रेस सांसद विजय दर्डा (उनके भाई राजेन्द्र दर्डा महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं), केंद्रीय राज्य मंत्री जगत्रकशाकन (द्रमुक) और राजद के प्रेम गुप्ता (यूपीए की पिछली सरकार में कॉरपोरेट मामलों के मंत्री थे) का नाम सामने आया है। इसके अलावा केंद्र में मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल और सुशील कुमार शिंदे पर भी आरोप लग रहे हैं। इनके अलावा पूर्व कोयला मंत्री संतोष बरगोदिया ने अपने भाई को किस तरह से खनन का ठेका दिलाया यह भी मीडिया रिपोर्टों में सामने आया है। लेकिन इन सब के अलावा यह 'अजब संयोग' है कि कोयला ब्लॉकों के आवंटन के इस मामले के तार सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय तक जुड़ते हैं। जैसा कि कैग ने कहा है कि इससे सरकारी खजाने का 1.86 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। प्रधानमंत्री कार्यालय का एक पत्र साफ दर्शाता है कि यह पीएमओ ही था जिसने कोयला मंत्रालय द्वारा जाहिर की गई चिंताओं के बावजूद स्क्रीनिंग कमेटी की प्रक्रिया के जरिए कोयला ब्लॉकों के आवंटन की विवादास्पद पद्धति को अपनाया। (टाइम्स नाउ टीवी चैनल)। उस समय कोयला मंत्रालय का प्रभार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था।

मनमोहन सिंह ने जब 90 के दशक के शुरू में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की तो उस समय कहा गया था कि देश की आर्थिक तरक्की के लिए लाइसेंस राज को समाप्त किया जाना जरूरी है। यह भी कहा गया था कि सबको बराबर का मौका मिलना चाहिए और बिजनेस के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी माहौल बनाया जाएगा। इसी के तहत 1993 में कोल माइंस (नेशनलाइजेशन) एक्ट 1973 में संशोधन करके निजी कंपनियों के कैप्टिव इस्तेमाल के लिए कोयला ब्लॉकों का आवंटन का रास्ता खोला गया था। लेकिन जब 2005 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पारदर्शी तरीके से प्रतिस्पर्धी बोली की बजाय अपारदर्शी रास्ता अपनाया।

हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने यह कोयला आवंटन में ही नहीं किया बल्कि गोवा में लौह अयस्क के खनन के मामले में भी 'रिकार्ड' कायम किया। जस्टिस एमबी शाह आयोग की रिपोर्ट के अनुसार गोवा में वर्ष 2006 से 2011 के बीच गैरकानूनी खनन से 34,935 करोड़ का नुकसान हुआ। शाह आयोग ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को इस बात के लिए दोषी ठहराया है कि उसने नियमों और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नजरअंदाज करते हुए हरी झंडी दी जिसने कि गोवा में लौह अयस्क के अनियंत्रित खनन का रास्ता साफ किया। लौह अयस्क के खनन को यह मंजूरी उस समय दी गई थी जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का भी प्रभार था। गोवा में 11 हजार हेक्टेयर वन भूमि का खनन के लिए इस्तेमाल किया गया। गोवा में भी खनन घोटाले में राज्य के दो पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री और कई नेता शामिल हैं। लौह अयस्क के गैर कानूनी तरीके से खनन और उसके अवैध निर्यात का एक बड़ा केंद्र बेल्लारी भी है। जहां रेड्डी बंधुओं (जी जनार्दन रेड्डी, जी करुणाकर रेड्डी और जी सोमशेखर रेड्डी) का एकछत्र राज चलता है। ये रेड्डी बंधु इतने ताकतवर हैं कि राज्य में सरकार बनवाने और उसे गिराने तक की हैसियत रखते हैं। रेड्डी बंधु 1999 में लोकसभा चुनाव के दौरान उस समय चर्चा में आए थे जब उन्होंने बेल्लारी सीट से सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव में खड़ी भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज के समर्थन में काम किया था। जी करुणाकर रेड्डी 14वीं लोकसभा में बेल्लारी संसदीय क्षेत्र से भाजपा के सांसद थे। जी जनार्दन रेड्डी कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार में राजस्व मंत्री थे। इसी महीने सात सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार को इस बात के लिए कड़ी फटकार लगाई कि उसने गैर कानूनी तरीके से खनन किए गए 50.79 लाख टन लौह अयस्क को गोवा के बेलकरी पोर्ट के जरिए निर्यात करने दिया। अवैध तरीके से खनन किया गया यह लौह अयस्क बेल्लारी से चार सौ किलोमीटर दूर बेलकरी पोर्ट ले जाया गया था। कर्नाटक के लोकायुक्त का आकलन था कि 2006-07 और 2010 के बीच गैरकानूनी तरीके से लौह अयस्क के निर्यात से राज्य को 12,228 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

भारत में यह सब क्रोनी कैपिटलिज्म (अपने अंतरंग मित्रों, करीबियों और खास लोगों को फायदा पहुंचाने का पूंजीवाद) के साथ-साथ पूंजीवाद के साम्राज्य के आक्रामक अभियान का हिस्सा है। कॉरपोरेट घरानों और क्रोनी कैपिटलिज्म के इस अभियान में सरकारों के अंदर बहुत सारे उनके अंतरंग मित्र भी शामिल हैं। नीरा राडिया (जो कि बड़े औद्योगिक घरानों के लिए सत्ता के भीतर लॉबिंग का काम करती थी) कांड के खुलासे में हम देख चुके हैं कि महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों का मंत्री कौन होगा यह काम भी अब कॉरपोरेट घराने ही करते हैं। टू जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस आवंटन घोटाला (1.72 लाख करोड़ रुपए का) इसका एक बड़ा उदाहरण है। पेट्रोलियम मंत्रालय ने मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज को कृष्णा-गोदावरी गैस बेसिन में किस तरह से लाभ पहुंचाया, इसका आरोप कैग ने अपनी रिपोर्ट में लगाया है।

लेकिन मामला अब सिर्फ लॉबिंग और लॉबिंग करने वालों और बिजनेस घरानों द्वारा राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे तक ही सीमित नहीं है। पूरा परिदृश्य अब बदल चुका है। अब एक तरह से सरकारों का ही कॉरपोरेटीकरण हो रहा है। सरकारों के मुखिया जनता के प्रतिनिधि की जगह कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) ज्यादा नजर आने लगे हैं। सत्ता के गलियारों में दलाल और मध्यस्थ तो अपनी तरह से सक्रिय हैं ही, लेकिन अब बड़ी-बड़ी कंपनियों ने एक काम यह किया है कि वे अब अपने नुमाइंदों को राज्यसभा में भी भेज रहे हैं। इसका एक फायदा यह होता है कि कंपनी का आदमी जब सांसद हो जाता है तो सत्ता के भीतर बहुत सारी जगहों पर उसकी पहुंच आसान हो जाती है। एक सांसद होने के नाते वह कई समितियों में पहुंच जाता है। मंत्रियों से मुलाकात करने पर कोई शक की निगाह से भी नहीं देखता। कुछ उद्योगपति तो खुद ही किसी भी पार्टी के टिकट से राज्यसभा पहुंच जाते हैं। अनिल अंबानी और उनके बड़े भाई मुकेश अंबानी की सत्ता से बहुत ही करीबी कोई छुपी हुई बात नहीं है। अनिल अंबानी तो राममनोहर लोहिया के समाजवाद को आगे बढ़ाने वाले मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी से राज्यसभा पहुंचे थे।

parimal-nathwani-website-photoबड़े भैया मुकेश अंबानी खुद तो नहीं लेकिन अपने लोगों को राज्यसभा में भिजवाते हैं। राज्यसभा के एक सांसद हैं परिमल नाथवानी। इनका कारोबारी कार्यक्षेत्र गुजरात रहा है। नब्बे के दशक में गुजरात में रिलायंस की रिफाइनरी के लिए बड़े पैमाने पर किए गए भूमि अधिग्रहण में नाथवानी की अहम भूमिका रही है। नाथवानी गुजरात से नहीं बल्कि झारखंड से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा पहुंचे हैं। उन्हें जितवाने के लिए सभी दलों ने अपनी दलीय भावनाओं का परित्याग कर दिया था। वैसे भी राज्यसभा चुनाव में विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए झारखंड काफी बदनाम है। नाथवानी के चुनाव के दौरान भी कई तरह के आरोप लगे थे। सांसदी के अलावा नाथवानी के पास जो कारोबारी पद हैं वह कुछ इस प्रकार हैं- ग्रुप प्रेसिडेंट (कॉरपोरेट अफेयर्स), रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड चेयरमैन, रिलायंस रुरल डेवलेपमेंट ट्रस्ट। एक सांसद के बतौर वह नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति (कन्सल्टटिव कमेटी) के सदस्य हैं। साथ ही विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति के स्थायी आमंत्रित सदस्य भी हैं। उनकी वेबसाइट में उनकी फोटो के ठीक नीचे बायीं ओर रिलायंस का लोगो लगा है और उसके ठीक दायीं ओर संसद भवन का चित्र है। नाथवानी ने अपनी वेबसाइट में लिखा है कि जब उन्होंने राज्यसभा के लिए मैदान में उतरने का प्रस्ताव किया तो मुकेश अंबानी ने उन्हें प्रोत्साहित किया। नाथवानी आगे लिखते हैं कि वह किसी शब्द को कमतर नहीं कर रहे हैं जब वह यह कहते हैं वह जो कुछ भी प्राप्त कर सके हैं वह इसलिए कि उन्होंने (मुकेश अंबानी) उन पर (नाथवानी) भरोसा और समर्थन जताया था। एक और सांसद हैं डॉ. वाई.पी. त्रिवेदी। वह महाराष्ट्र से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के टिकट से निर्विरोध चुनकर राज्यसभा पहुंचे। वह रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड और रिलायंस पेट्रोलियम लिमिटेड में निदेशक हैं। अब जदयू के राज्यसभा सांसद एन.के. सिंह को ही लें, जिनका जिक्र शुरू में ईएएस सरमा के साक्षात्कार में किया गया है। एन.के. सिंह नीति संबंधी मामलों में अंग्रेजी अखबारों में कॉलम भी लिखते हैं। पुराने अफसरशाह हैं। उनकी एक उपलब्धि यह भी है कि वह रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड द्वारा प्रायोजित थिंक टैंक ऑब्जर्वर फाउंडेशन से जुड़े हैं। विजय माल्या कर्नाटक से निर्दलीय के रूप में राज्यसभा पहुंचे और उन्हें तमाम दलों का समर्थन मिला। वह नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य हैं। उनकी किंगफिशर एयरलाइंस भी चलती है। जो वित्तीय हालत पतली होने के चलते चर्चा में है। वह सरकार से आर्थिक पैकेज की मांग कर रहे थे। वह तो उन्हें नहीं मिला, लेकिन सरकार ने नागरिक उड्डयन क्षेत्र को एफडीआई का तोहफा जरूर दे दिया है। क्या इसे संयोग ही कहा जाए कि माल्या की खुद एयरलाइंस कंपनी है लेकिन फिर भी वह नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य हैं। वीडियोकोन कंपनी के मालिक वेणुगोपाल धूत के भाई राजकुमार धूत शिवसेना की ओर से राज्यसभा में सांसद हैं। राजकुमार धूत वित्त मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य हैं। यह दिलचस्प है कि जिसके जिस व्यवसाय से हित जुड़े हैं वह उस मंत्रालय की समिति का सदस्य है। राज्यसभा सांसद कंवर दीप सिंह (के.डी. सिंह) का मामला भी खासा दिलचस्प है। वह दस हजार करोड़ रुपए के स्वामित्व वाली अलकेमिस्ट समूह के मालिक हैं। वह चाहते हैं वर्ष 2020 तक उनका समूह पचास हजार करोड़ रुपए के स्वामित्व वाला हो जाए। चंडीगढ़ का यह व्यवसायी झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायकों के समर्थन से झारखंड से जीतकर राज्यसभा पहुंचा। बाद में के.डी. सिंह ने पाला बदल लिया और वह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के साथ चले गए। केडी सिंह का कारोबार फूड प्रोसेसिंग, होटल्स-रिसोर्ट, हेल्थकेयर, रेस्टोरेंट और रोड टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में है। उनके दार्जीलिंग में दो और असम में तीन चाय बागान भी हैं। वह अपनी पॉपुलर रिटेल चेन 'रिपब्लिक ऑफ चिकन' के सौ आउटलेट पूर्वी भारत में खोलना चाहते हैं। उनके साथ भी यह संयोग ही है कि वह खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय के नेशनल मीट एंड पॉलिट्री प्रोसेसिंग बोर्ड के अध्यक्ष हैं। साथ ही शहरी विकास की स्थायी समिति के सदस्य भी हैं। इसके अलावा नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य हैं। यह जो तस्वीर बन रही है क्या इसे यह माना जाए कि राज्यसभा का धीरे-धीरे कॉरपोरेटीकरण हो रहा है।

ऐसे नेताओं, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की लंबी फौज है जिनका राजनीति के साथ-साथ अपना कारोबार भी चल रहा है। और चल ही नहीं रहा बल्कि उनके कारोबार की ग्रोथ रेट काफी छलांगे मारती नजर आती है। प्रफुल्ल पटेल मनमोहन सरकार के करोड़पति मंत्रियों के शीर्ष की कतार में शामिल हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि उनके नागपुर और विदर्भ (जो कई वर्षों से किसानों की आत्महत्या के कारण लगातार चर्चा में बना हुआ है) के गोंदिया में कारोबारी हित हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले में जेल की हवा खा चुके कांग्रेस सांसद सुरेश कलमाड़ी साई सर्विस ग्रुप चलाते हैं, जो मारुति और बजाज के वाहनों की डीलरशिप का काम करती है। इसके अलावा महिंद्रा वाहनों की मार्केट का काम भी इस समूह के पास है। डीएमके सांसद और पूर्व दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन विवादास्पद एयरसेल-मैक्सिस सौदे में फंसे हुए हैं। उन पर आरोप है कि उन्होंने इस सौदे में मलेशियाई कंपनी से 547 करोड़ रुपए की रिश्वत ली थी। सीबीआई उनसे पूछताछ कर चुकी है। दयानिधि मारन और उनके भाई कलानिधि मारन के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। कलानिधि मारन सन नेटवर्क के निदेशक हैं। दक्षिण भारत के कद्दावर नेता एम करुणानिधि का परिवार और उनकी पार्टी द्रमुक किस तरह से सौदों की दलाली में फंसी हुई थी यह टू जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस आवंटन घोटाले के मामले में सबके सामने आ चुका है। उनके पुत्र और केंद्रीय मंत्री अझागिरि का बेटा दुरई दयानिधि के खिलाफ ग्रेनाइट के अवैध निर्यात के मामले में एफआईआर दर्ज की गई है। ताजा उदाहरण केंद्रीय मंत्री और एनसीपी के मुखिया शरद पवार के भतीजे अजित पवार (धांधली के आरोपों में घिरने के बाद 26 सितंबर को उप मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा) का है। उन पर आरोप है कि जब राज्य के जल संसाधन मंत्री थे तो उन्होंने अपने इस कार्यकाल में 2009 में आठ महीने के भीतर बीस हजार करोड़ रुपए के प्रोजेक्टों को स्वीकृति दी और यह सब विदर्भ सिंचाई विकास निगम के गवर्निंग काउंसिल की अनिवार्य मंजूरी के बिना किया गया।

और अंत में भाजपा और आरएसएस के हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी के गुजरात में क्रोनी कैपिटलिजम की बात। अदानी ग्रुप, जिसकी 40 कंपनियां है, इन दिनों गुजरात में एक सर्वव्यापी 'चमत्कार' है। गौतम अदानी (समूह के प्रबंध निदेशक) अरबपतियों की सूची में सातवें अमीर भारतीय बताए जाते हैं। 1986 तक गौतम अदानी अहमदाबाद में कपड़ा व्यापारी थे। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि वह छोटे मोटे 'आयात-निर्यात' डीलर थे। वर्ष 1993-94 में उन्होंने अमेरिकी कॉरपोरेशन कारगिल के साथ मिलकर नमक का कारोबार करने के बहाने मुंद्रा समुद्रतट पर जमीन खरीदी। नमक का यह काम वास्तव में कभी शुरू नहीं हुआ। लेकिन कुछ समय बाद अदानी पोर्ट, कंटेनर टर्मिनल, वैकअप एरिया, सड़कों और आखिर में सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के लिए भूमि अधिग्रहण करने में कामयाब हो गए। कॉरपोरेट की दुनिया में अदानी की यह उन्नति वर्ष 2011 में वाइब्रंट गुजरात समिट में महत्त्वपूर्ण रूप से चिह्नित की गई जब उन्होंने राज्य में पोर्टों, इंफ्रास्ट्रकचर और ऊर्जा संयंत्रों में 80 हजार करोड़ रुपए निवेश करने की योजना की घोषणा की। वह वाइब्रंट गुजरात समिति के मुख्य अतिथि थे। बाद में जो हुआ वह एक गाथा है कि कैसे अदानी समूह ने कच्छ में तटीय भूमि तटीय विनियमन कायदों और औद्योगिक विनियम का उल्लंघन करके हासिल की। दिसंबर 2010 में केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अधिकारियों की टीम ने मुंद्रा पोर्ट और सेज का निरीक्षण करने के दौरान पाया कि अदानियों ने खाड़ी में पानी के बहाव को रोक रखा था और मैनग्रोव के वनों को काट रखा था। टीम ने यह भी पाया कि अंत:ज्वारीय (इन्टर्टाइडल) क्षेत्र में तलकर्षण (ड्रेजिंग) डिस्पोजल पाइपलाइन बनाई गई थी। यह पोर्ट के जमीनी वाले क्षेत्र की ओर तलकर्षण (ड्रेजड) सामग्री को ले जाने के लिए थी। यह सब उस जमीन पर दावे के लिए किया गया था। जो कि तटीय विनियम जोन अधिसूचना का उल्लंघन था। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की रिपोर्ट यह भी कहती है कि उस क्षेत्र में समुद्र टाउनशिप और अस्पताल का निर्माण तटीय विनियम जोन के नियमों का उल्लंघन था। अदानी समूह को मुंद्रा तट के साठ किलोमीटर क्षेत्र में बहु-उत्पाद विशेष आर्थिक जोन को अनुमति देने का फैसला 15 जून 2005 को मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में लिया गया और तीन हजार करोड़ रुपए कीमत वाली 315 लाख स्क्वेर मीटर से ज्यादा जमीन उसके विकास के लिए मात्र 33 करोड़ रुपए में दे दी गई। औद्योगिक विकास के अति उत्साह में गुजरात सरकार ने प्रस्तावित सेज के मामले में स्टाम्प ड्यूटी और भूमि के हस्तांतरण की रजिस्ट्रेशन फीस, बिक्री कर, क्रय कर, विलासिता कर, मनोरंजन कर, साख पत्रों और अन्य करों में छूट देकर बड़े पैमाने पर कर प्रोत्साहन देने का फैसला किया। विडंबना यह है कि सेज के लिए अदानियों को इस जमीन को देने का राज्य सरकार का फैसला अपने ही पूर्व आदेश का उल्लंघन था। यह आदेश गौचर भूमि को किसी अन्य उद्देश्य के लिए हस्तांतरित करने पर रोक लगाता है। फिर भी, वर्ष 2005 में 23 गांवों की 6582 एकड़ चारागाह की भूमि अदानियों को देने के लिए गुजरात सरकार ने एक दिन 23 आदेश पारित किए। वर्ष 2009 में वाइब्रंट गुजरात समिट के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत अदानी ग्रुप को अपने सेज के लिए अगले 15 सालों के दौरान 15 हजार करोड़ रुपए के विस्तार की अनुमति दी गई। (पर्स्पेपेक्टिव्स- स्विमिंग अगेंस्ट द टाइड- ईपीडब्ल्यू, 21 जुलाई 2012)।

जिस गुजरात की आर्थिक तरक्की को लेकर पूरे देश का वातावरण गुंजायमान बना रहता है उस गुजरात की एक तस्वीर यह भी है कि यहां ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में नियमित और अनियमित मजदूरों की मजदूरी दर अन्य राज्यों के मुकाबले बहुत कम है। वर्ष 2011 की जनगणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि पीने योग्य पानी उपलब्ध कराने और स्वच्छता (सैनिटेशन) के मामले में बहुत से राज्यों से गुजरात बहुत पीछे है। 43 फीसदी ग्रामीण परिवारों को ही उनके घर के आंगन में पानी की आपूर्ति मिल पाती है और केवल 16.7 प्रतिशत परिवारों को ही नल का पानी उपलब्ध है। ग्रामीण परिवारों का पांचवा हिस्सा, खासकर महिलाएं, पानी लाने के लिए बहुत दूर-दूर तक जाती हैं। जहां तक सैनिटेशन का सवाल है तो गुजरात में 67 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास शौचालय नहीं हैं। जहां तक बीमारियों का सवाल है तो 44 प्रतिशत गांवों में पीलिया होने, 30 फीसदी गांवों में मलेरिया, 40 फीसदी गांवों में आंत्रशोध और 25 प्रतिशत में किडनी में स्टोन, त्वचा संबंधी रोग, जोड़ों में दर्द और दांतों की बीमारियों के बारंबार होने की सूचना मिलती है। (इंदिरा हिरवे, द हिंदू 27 सितंबर 2012)।

दरअसल, आर्थिक सुधारों, नवउदारीकरण की नीतियों के जरिए भारत में विकास का जो मायाजाल बुना जा रहा है उसके असली लाभार्थी मु_ी भर कॉरपोरेट घराने हैं और जिन्होंने सरकारों और नेताओं के साथ मिलकर भारत के लोकतंत्र को लूटतंत्र में तब्दील कर दिया है। इनका पूंजी का साम्राज्य प्राकृतिक संसाधनों और राष्ट्रीय संपदाओं की जबरदस्त लूट की बुनियादी पर खड़ा है।

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Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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