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Wednesday, November 14, 2012

म्यांमार में लोकतंत्र बहाली की कोशिश और भारत में?

 म्यांमार में लोकतंत्र बहाली की कोशिश और भारत में?

रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के बारे में सू की की खामोशी ने भारत में दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवाद का हौसला बुलंद किया है, जिसने गुजरात के वधस्थल के विस्तार की ​​योजना के तहत असम को नया प्रयोगशाला बना दिया है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा अभियान के तहत सामाजिक समरसता के छलावा  के तहत हिंदुत्व की ताकतें  अनुसूचितों  और पिछड़ों को हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील करके भारत को हिंदू कारपोरेट राष्ट्र बनाने के एजंडे पर काम​​ कर रहीं हैं। राष्ट्रध्यक्ष को राजधर्म हिंदुत्व का सर्वोच्च संरक्षक बनाने का अभियान तो पहले की कामयाब हो गया,जबकि भारतीय राष्ट्रपति के हिंदू ब्राह्मण होने को रोज महिमामंडित किया जाता है और उनके दैनिक कर्मकांड का पर्चार प्रसार किया जा रहा है।म्यांमार में मुसलमानों के साथ जो हो रहा है, सू की उसके खिलाफ अपना जुबान बंद रखे तो उनकी इस यात्रा से भारत में दक्षिण पंथ का विजय अभियान और तेज होगा, इसका ​​भारी  अंदेशा है।

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

म्यांमार में लोकतंत्र बहाली की कोशिश और भारत में?म्यांमार के बारे में हम भारतीय बहुत कम जानते हैं। इस हकीकत की हमने लगातार उपेक्षा की कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बर्मा के ​​साथ हमारी साझा विरासत है। कम से कम आजाद हिंद फौज और नेताजी सुबाष चंद्र बोस की बदौलत।इतिहास में तीन क्रमिक बर्मी युद्ध हुए और 1886 ई. में पूरा देश ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। किन्तु 1935 ई. के भारतीय शासन विधान के अंतर्गत म्यांमार को भारत से अलग कर दिया गया। 1947 ई. से भारत और म्यांमार दो स्वाधीन पड़ोसी मित्र बन गये। सू की की भारत यात्र इस नजरिये से बेहद महत्वपूर्ण है। दूसरी ओर, म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के लिए उनके आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में भारत में लोकतंत्र की दशा और दिशा पर ​​सोचने का भी यह उत्तम अवसर है।एक तरफ भारत की राजनीति सिरे से भ्रष्ट हो गयी है और कारपोरेट इंडिया सरकार चला रही है। विकास गाथा के बहाने पूंजीपतियों को लगातार छूट दी जारही है। बहुसंख्य जनता के जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता के हक हकूक छीनकर​ ​ संसाधनों की खुली लूट खसोट के लिए लोकतंत्र, संसद और संविधान की जैसे हत्या हो रही है, इस मामले में म्यामार की जनता से हम किसी मामले में बेहतर हैं, ऐसा कहा नहीं जा सकता।दूसरी तरफ, संविधान के तहत नागरिकों को दिये गये मौलिक अधिकार, बहिष्कृत समुदायों के लिए संवैधानिक कवच और बहुलतावाले देश के वैविध्यपूर्म चरित्र के खत्म करने के लिए धर्म राष्ट्रवाद का उन्माद। पुरोहित तंत्र हमेशा पवित्र संदर्भों का उद्धरण देकर सत्तावर्ग के हितों की प्रतिरोधविहीन सुरक्षा का इंतजाम करता रहा है। अब विश्वभर में जब धर्म राष्ट्रवाद मुंह की खा रहा है, वहीं भारत में हम कारपोरेट राज के विकल्प बतौर धर्मराष्ट्रवाद को चुनने के करीब है। गुजरात नरसंहार के बावजूद वहां केशरिया लहरा रहा है और जनसंहार के महानायक नरेंद्र मोदी आज की तारीख में प्रधानमंत्रित्व के सबसे बड़े दावेदार हैं। मीडिया में पवित्र उद्धरणों का साइक्लोन है। सोसल मीडिया में भी हिंदुत्व का ही जयजयकार। खुलेआम देश के संविधान को बदलकर मनुस्मृति और दूसरी स्मृतियों के मुताबिक शासन चलाने की बात की ​​जा रही है। कानून के राज के बदले सामंती मूल्यों के पुनरुत्थान, वैदिकी साहित्य के संदर्भ और नरसंहार संस्कृति के पक्ष में अभियान चल​ ​ रहा है। सू की का भारत आना इस सिलसिले में अपने गिरेबां में झांकने का बेहतरीन मौका है। राजनीति ने मानसून सत्र को खत्म करके कारपोरेट नीति निर्धारण एकतरफा करते हुए जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया है, तो संसद के शीतकालीन सत्र में पिर वही तमाशा दोहराया जाने वाला है।

रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के बारे में सू की की खामोशी ने भारत में दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवाद का हौसला बुलंद किया है, जिसने गुजरात के वधस्थल के विस्तार की ​​योजना के तहत असम को नया प्रयोगशाला बना दिया है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा अभियान के तहत सामाजिक समरसता के छलावा  के तहत हिंदुत्व की ताकतें  अनुसूचितों  और पिछड़ों को हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील करके भारत को हिंदू कारपोरेट राष्ट्र बनाने के एजंडे पर काम​​ कर रहीं हैं। राष्ट्रध्यक्ष को राजधर्म हिंदुत्व का सर्वोच्च संरक्षक बनाने का अभियान तो पहले की कामयाब हो गया,जबकि भारतीय राष्ट्रपति के हिंदू ब्राह्मण होने को रोज महिमामंडित किया जाता है और उनके दैनिक कर्मकांड का पर्चार प्रसार किया जा रहा है।म्यांमार में मुसलमानों के साथ जो हो रहा है, सू की उसके खिलाफ अपना जुबान बंद रखे तो उनकी इस यात्रा से भारत में दक्षिण पंथ का विजय अभियान और तेज होगा, इसका ​​भारी  अंदेशा है।18 अगस्त 2012 को म्यांमार सरकार ने हिंसा में मुसलमानों के जनसंहार की जांच की घोषणा कर दी है। प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, जांच, 27 सदस्यीय आयोग करेगा जो अगले महीने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा। यह घोषणा म्यांमार के राष्ट्रपति थीन सेन ने की। म्यांमार में मुसलमानों की हत्या पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय चिंतित है। सरकार और सेनाओं पर पक्षपात का आरोप लग रहा है और संयुक्त राष्ट्र से दखल देने की मांग की गई है। अमेरिका ने वित्तीय मदद की पेशकश की है।

आंग सान सू की म्यांमार (बर्मा) में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रही प्रमुख राजनेता हैं। १९ जून१९४५ को रंगून में जन्मी आंग सान लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई प्रधानमंत्री, प्रमुख विपक्षी नेता और म्यांमार की नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी की नेता हैं। आंग सान को १९९० में राफ्तो पुरस्कार व विचारों की स्वतंत्रता के लिए सखारोव पुरस्कार से और १९९१ में नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया है। १९९२ में इन्हें अंतर्राष्ट्रीय सामंजस्य के लिए भारत सरकार द्वारा जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लोकतंत्र के लिए आंग सान के संघर्ष का प्रतीक बर्मा में पिछले २० वर्ष में कैद में बिताए गए १४ साल गवाह हैं। बर्मा की सैनिक सरकार ने उन्हें पिछले कई वर्षों से घर पर नजरबंद रखा हुआ था। इन्हें १३ नवंबर २०१० को रिहा किया गया है।

भारत में इस्लाम और बौद्धधर्म के अनुयायियों को  आपस में भिड़ाने की रणनीति ्मल में लायी जा रही है। जबति दोनों धर्मों के अनुयायी मूलनिवासी बहुसंख्य बहुजन बिरादरी से है। संघ परिवार इस विस्फोटक हालात से उत्साहित है क्योंकि इससे भारत में बहुजन समाज के निर्माण की संभावना हमेशा की तरह खत्म हो जाने के आसार है।इसी मुद्दे पर मुंबई में जो हिंसा हुई और उसके जवाब में राज ठाकरे ने न सिर्फ मुसलमानों बल्कि उत्तर  भारतीयों के खिलाफ हिंदुत्व परिवार के समर्थन से अभियान चलाया हुआ है,उससे स्थिति की गंबीरता को समझा जा सकता है।दक्षिणपंथ का सबसे बड़ा हथियार  अगर धर्मोन्माद है तो इसे तूफानी बनाने में अलगाववाद सबसे कारगर तंत्र है। असम समेत समेत ​ पूर्वोत्तर में हम इसका नतीजा देख रहे हैं।म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता अंग सान सू की से बदले राजनीतिक परिदृश्य में मेल जोल कराने वाली भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है। उन्होंने देश के बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यक समूह के लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाने पर जोर देने को कहा है। राष्ट्रपति थेन सेन देश के जातीय अल्पसंख्यकों के साथ लंबे समय से चल रहे सशस्त्र विवाद को समाप्त करने के लिए सकारात्मक कदम उठा रहे हैं।

उर्दू के मशहूर अखबार में प्रकाशित एक लेख में दिल्ली के कुछ मुस्लिम नौजवानों ने कथित तौर पर बौद्ध धर्म के अनुयाईयों की दुकानों के बहिष्कार और दिल्ली में मजनूं का टीला स्थित बौद्ध मोनास्ट्री मार्केट से कुछ भी ख़रीदारी न करने की अपील की है। इस अभियान को वो लोग एक दूसरे को एसएमएस और ई-मेल के द्वारा चला रहे हैं (सहाफत, दिल्ली, 16 अगस्त, 2012)। इन लोगों का मानना ​​है कि बौद्ध धर्म को मानने वाली होने के कारण म्यांमार की सरकार मुसलमानों की स्थिति बेहतर करने के लिए जानबूझ कर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है।लखनऊ और इलाहाबाद में लोग सड़कों पर निकल आए और उनका विरोध हिंसक हो गया। इन लोगों ने वाहनों को नुक्सान पहुंचाया, लोगों से मारपीट की और मीडिया वालों के कैमरे तोड़ दिए। लखनऊ में बुधवार पार्क में लगी बुद्ध की मूर्ति इन शरारती तत्वों का निशाना बनी, जो स्वयं को मुसलमान कहते हैं। उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं कि महात्मा बुद्ध इस दुनिया में अल्लाह की ओर से भेजे गए सभी नबियों (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) में से एक हो सकते हैं, इस तरह नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से किसी तरह कम नहीं हैं। इन लोगों ने मूर्ति की शक्ल बिगाड़ने की कोशिश की लेकिन वो इसमें नाकाम रहे।इलाहाबाद और कानपुर में भी यही कहानी दोहराई गई। पुलिस की उचित रूप से कड़ी कार्रवाई के कारण हालात काबू में लाया गया।

म्यांमार के रखाईन राज्य में जून के शुरुआती दिनों में शुरू हुई ये सांप्रदायिक हिंसा न केवल इसके आस पास के क्षेत्रों को बल्कि लोगों के मन को प्रभावित कर रही है। प्रदेश के बौद्ध रखाईन बहुमत अक्सर रोहिंग्या मुसलमानों के साथ मुठभेड़ करते रहते हैं, जिन्हें बंगाली कहा जाता है और उन्हें साथी जातीय समुदाय नहीं माना जाता है।


स्वागत है प्रिय आंग सान सू की!

भारत पहुंची सू की 18 नवंबर तक भारत में रहेंगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बुधवार को म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की से मुलाकात की और म्यांमार में राष्ट्रीय सुलह व लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया पर चर्चा की। आधिकारिक सूत्रों ने कहा कि मनमोहन सिंह और सू की के बीच बातचीत आधा घंटा चली। इसके पहले दोनों ने बगैर सहयोगियों के मुलाकात की। सू की का नई दिल्ली में स्वागत करने पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए मनमोहन सिंह ने जवाहरलाल नेहरू व्याख्यान देने का निमंत्रण स्वीकार करने के लिए उन्हें धन्यवाद दिया।वह म्यांमार में लोकतांत्रिक और बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली लागू करने की कवायद में जुटी हुई हैं। सू ची संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के न्योते पर भारत आई हैं।


म्यांमार जम्बूद्वीप, एशिया का एक देश है। इस देश का भारतीय नाम 'ब्रह्मदेश' है। पहले म्यांमार का नाम 'बर्मा' हुआ करता था। इसका यह नाम यहाँ बड़ी संख्या में आबाद बर्मी नस्ल के नाम पर पड़ा था। म्यांमार के उत्तर में चीन, पश्चिम में भारत, बांग्ला देश और हिन्द महासागर तथा दक्षिण-पूर्व की दिशा में इंडोनेशिया स्थित हैं। इसकी राजधानी 'नाएप्यीडॉ' और सबसे बड़ा शहर देश की भूतपूर्व राजधानी यांगून है, जिसे पहले रंगून के नाम से जाना जाता था।ब्रह्मदेश की उत्तर पश्चि्मी सीमाएं भारत के मिज़ोरम, नागालॅण्ड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और बांग्लादेश के चिटगॉव प्रांत को मिलती है।

म्यांमार भारत एवं चीन के मध्य एक अवरोधक का कार्य करता है। इस देश से भारत को पटकोई पर्वत श्रृंखला, घने जंगलों तथा बंगाल की खाड़ी ने अलग कर रखा है। म्यांमार को 'ब्रह्मा' अथवा 'पैगोडा का देश' भी कहा जाता है। यह एक स्वतंत्र देश है, जो 1937 ई. से पूर्व भारत का ही एक अंग था। म्यांमार का प्रारम्भिक इतिहास यहाँ की मूल जातियों, बर्मी व मोन के संघर्ष का इतिहास है। भारत के बौद्ध प्रचारकों के प्रयासों से यहाँ बौद्ध धर्म की स्थापना हुई थी। 1044 में इरावती डेल्टा एवं थाटोन पर राजा अणाव्रत का शासन था, जिसे 1287 ई. में कुबलाई ख़ान ने समाप्त कर दिया था।

ब्रह्मदेश का इतिहास
जनवरी, 1948 - ब्रह्मदेश (तत्कालीन ब्रह्मदेश) को आजादी मिली।
सितंबर, 1987 - मुद्रा के अवमूल्यन के चलते हजारों लोगों की बचत स्वाहा हो गई जिसके चलते सरकार विरोधी दंगे भड़के।
जुलाई, 1989 - सत्ताधारी जुंटा ने मार्शल ला की घोषणा की। नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी की नेता आंग सान सू की घर में नजरबंद।
मई, 1990 - आम चुनावों में एनएलडी की भारी जीत। जुंटा ने चुनाव के नतीजों को मानने से इन्कार किया।
अक्टूबर, 1991 - सू की को नोबेल शांति पुरस्कार।
जुलाई, 1995 - सू की की नजरबंदी से रिहाई।
मई, 2003 - जुंटा व एनएलडी समर्थकों के बीच झड़प के बाद सू की को तथाकथित सुरक्षा के लिए फिर हिरासत में ले लिया गया।
सितंबर, 2007 - बौद्ध भिक्षुओं द्वारा सत्ता विरोधी प्रदर्शन।
अप्रैल, 2008 - सरकार ने प्रस्तावित संविधान छपवाया जिसके मुताबिक एक तिहाई संसदीय सीटें सेना के हिस्से जाएंगी। सू की के किसी भी प्रकार के पद ग्रहण करने पर प्रतिबंध
मई, 2009 - जान विलियम येता नामक अमेरिकी तैरकर सू की घर पहुंचा। सरकार ने सू की पर नजरबंदी के नियम तोड़ने का आरोप लगाया।

16वीं शताब्दी में यहाँ तोउगू वंश का शासन था। 1758 ई. में रंगून को देश की राजधानी बनाया गया। 1824, 1826 और 1852 ई. में आंग्ल-बर्मा युद्ध हुए, जिसके फलस्वरूव म्यांमार को भारत में मिला लिया गया और 1885 ई. में यह भारत का एक प्रान्त बन गया। 1937 ई. में ब्रिटिश भारत से म्यांमार को पृथक कर दिया गया और द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान ने इस पर अपना आधिपत्य कर लिया। 1945 ई. में मित्र राष्ट्रों की सहायता से म्यांमार का जापान से अधिग्रहण समाप्त किया गया। 4 जनवरी, 1948 ई. को म्यांमार स्वतंत्र हुआ और 1974 ई. में म्यांमार संघ का सोशलिस्ट गणराज्य बना।

असम में ताजे दंगों की जड़ में बांग्लादेश से आई अवैध आबादी को लेकर छिड़ी बहस के बीच ही अब म्यांमार से रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों की संख्या में इजाफे का खतरा भी बढ़ गया है। खुफिया एजेंसियों ने आशंका जताई है कि बांग्लादेश द्वारा रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे बंद करने और उनके खिलाफ सख्ती बढ़ाने के बाद इनके उत्तर-पूर्व राज्यों से भारत में दाखिल होने का खतरा बढ़ गया है। मेघालय के मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने अवैध घुसपैठ के खिलाफ कमजोर इंतजामों का मुद्दा उठाकर इन चिंताओं को अधिक गहरा दिया है।

इतिहास के पन्नों को देखें तो हमें याद आता है कि 1978 और 1991-92 में सीमा पार कर आने वाले हजारों रोहिंग्या मुसलमानों को ढाका उनके देश वापस भेजने में असफल रहा। म्यांमार ने शरणार्थियों की पहचान पर सवाल उठाकर उन्हें अपने देश में वापस लेने से बार बार इन्कार करता रहा है। म्यांमार में शरणार्थियों की स्वदेश वापसी पहचान निर्धारित करने पर ज़ोर देने के कारण धीमी रही, क्योंकि उनमें से या तो कई ने सरकार से कोई पहचान बताने वाले दस्तावेज प्राप्त नहीं किया था या अपनी जान बचाने के लिए सब कुछ छोड़कर आ गए थे। रोहिंग्या मुसलमानों को 1982 के एक कानून के तहत राज्यविहीन नादरिकों के रूप में वर्गीकृत किया जाता था और म्यांमार में उनके साथ अवैध आप्रवासियों के रूप में व्यवहार किया जाता था।

म्यांमार 60 मिलियन आबादी वाला एक बहु धार्मिक देश है। यहां के 89 प्रतिशत लोग बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं। बाकी के लोग मुसलमान, ईसाई, हिंदू और बहाई धर्म के मानने वाले हैं। ब्रिटिश सरकार के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप से मुसलमानों की आबादी का बड़ा हिस्सा तत्कालीन बर्मा में गिरमिटियों के रूप में (आधिकारिक दस्तावेज के साथ मजदूरी करने वाले) प्रवेश किया था।

ऐमन रियाज़ न्यु एज इस्लाम में एकदम सही लिखा है कि म्यांमार में हाल की अशांति की शुरू राज्य में कानून लागू करने वाली एजेंसियों की ओर से बौद्ध मत को मानने वाली एक महिला के साथ बलात्कार और उसके कत्ल के लिए तीन रोहिंग्या मर्दों को हिरासत में लेने के बाद फैली। ये खबर जंगल की आग की तरह फैल गई कि रोहिंग्या लोग ही इस अपराध के लिए जिम्मेदार हैं, बौद्ध धर्म के मानने वालों ने जवाबी कार्रवाई में 10 मुसलमानों पर हमला कर उन्हें मार दिया, जो रोहिंग्या नहीं थे। इसके बाद हुई बदले की कार्रवाई में बड़ी संख्या में लोगों की जान गई, आगज़नी और लूट की कई घटनाएं हुई, इसने सरकार को अशांत क्षेत्रों में आपातकाल (इमरजेंसी) की घोषणा करने की प्रेरणा दी।

ऐमन रियाज़ न्यु एज इस्लाम में लिखा है:

वर्ग संघर्ष को मुसलमानों के द्वारा डर के मनोविज्ञान का प्रयोग कर सांप्रदायिक रूप दिया जा रहा है। मुस्लिम खुद को शिकार बताने की आदत है और इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे गैर मुसलमानों की ओर से उन पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं। इसलिए, वो तर्क देते हैं, यदि वो जवाबी कार्रवाई नहीं करते तो वो सभी देशों जहां वो अल्पसंख्यकों की तरह रह रहे हैं, वहां उन्हें अधीन बना दिया जाएगा। उनका कहना है गैर मुस्लिम बहुल देशों में उनके अधिकार का अल्लंघन किया जा रहा है, इसलिए ये उनके लिए ज़रूरी है कि वो अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करें।

शायद, ये लोग यह समझने में असमर्थ हैं कि दुनिया भर में अधिकांश मुस्लिम देश गैर मुसलमानों के अधिकारों का उल्लंघन करने के कारण प्रसिद्ध हैं। बेहतरीन उदाहरण सऊदी अरब और पाकिस्तान हो सकते हैं। सऊदी अरब में केवल दो ही विकल्प दिए जाते हैं: या तो आप एक रूढ़िवादी मुसलमान बन जाओ या एक कट्टरपंथी मुसलमान बन जाओ। कोई तीसरा विकल्प नहीं है। दरअसल ये दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जो मस्जिद के अलावा किसी और धार्मिक इमारत के निर्माण की इजाज़त नहीं देता है। ये कुरान को भी नहीं जानते हैं जो इनकी अपनी मातृभाषा में लिखी है, जो कहता है:

"और अगर खुदा लोगों को एक दूसरे से दूर दफा न करता रहता तो गिरजे और यहूदियों के इबादत ख़ाने और मजूस के इबादतख़ाने और मस्जिद जिनमें कसरत से खुदा का नाम लिया जाता है कब के कब ढहा दिए गए होते "(22:40)।

पाकिस्तान में किसी भी उच्च पद पर कभी भी कोई गैर मुस्लिम नहीं बैठा। गैर मुसलमानों, विशेष रूप से पाकिस्तान में हिंदुओं की स्थिति बेहद निराशाजनक है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वो हिंदुस्तान में रहना चाहते हों।

हिंदुस्तान में चार मुसलमान राष्ट्रपति रह चुके हैं जो हमारे राजनीतिक व्यवस्था में सबसे उच्च सरकारी पद है। बॉलीवुड पर मुसलमानों की लगभग हुकूमत रही है। मानव प्रयास के सभी क्षेत्रों में चाहे वो खेल हो या विज्ञान और प्रौद्योगिकी, मुसलमानों ने हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है। बहुत से गैर मुस्लिम देशों में जहां अल्पसंख्यकों को नाकार बनाया जा रहा है, इसके विपरीत हिंदुस्तानी मुसलमानों ने केवल अपनी योग्यता के आधार पर ही ऐसा नहीं किया है बल्कि उन्हें अवसर भी प्रदान किए गए हैं।

बोद्ध लोगों की दुकानों के बायकाट करने की बात करने वाले मुसलमानों के "तर्क" अगर इसी "तर्क" को भारतीय हिंदू मुस्लिम भाइयों पर पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ दुर्व्यवहार के विरोध के रूप में लागू करें तो कल्पना कीजिए कि क्या होगा। अगर इन्हीं मुसलमानों की "दलील" का इस्तेमाल करें तो इन लोगों को ऐसा करने का शायद 'अधिकार' है। ये निजी पसंद का मामला है। हिंदुस्तान में अगर हमारे हिंदू भाई मुसलमानों की दुकानों या बाजारों से कुछ भी नहीं लेना चाहें तो हम उन्हें न तो ऐसा न करने के लिए मजबूर कर सकते हैं और न ही इसे गैरकानूनी कह सकते हैं। केवल एक ही चीज़ है जो हम कर सकते हैं और ऐसे अवसरों या बगैर किसी अवसर के ये दावा करते रहे हैं, इस दुनिया से इस्लाम को ख़त्म करने की ये काफिरों की एक साजिश है।

हमें वास्तविक अर्थ प्राप्त करने के लिए किसी तस्वीर को विभिन्न पहलुओं से देखने की जरूरत होती है। अधिकार सबके लिए हैं, हम अधिकार को खानों में नहीं बांट सकते हैं और ये नहीं कह सकते हैं कि विशेष रूप ये सिर्फ मुसलमानों के लिए है। हम सिर्फ समान अधिकार की बात करते हैं लेकिन शायद ही कभी हम इस पर अमल करते हैं। मुसलमान, म्यांमार में मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार के खिलाफ विरोध कर रहे हैं, लेकिन मुस्लिम देशों, खासकर पाकिस्तान में हिंदू भाइयों के साथ दुर्व्यवहार के खिलाफ क्यों विरोध नहीं कर रहे हैं?

मुसलमानों को तस्वीर का सिर्फ आधा हिस्सा यानी तस्वीर का सिर्फ अपनी ओर का हिस्सा देखने का पाबंद बनाया जा रहा है। हम मुनाफिक हैं, हम लोगों के बीच भेदभाव उनके आस्था के आधार पर करते हैं। हम तभी तक अपने अधिकारों की मांग करने का अधिकार रखते हैं जब तक कि हम दूसरों को उनके अधिकार देते हैं। धार्मिक स्वतंत्रता की हमारी बातों का कोई फायदा नहीं है जब तक कि हम दूसरों को धर्म की स्वतंत्रता नहीं देते हैं। मैं कुरान की एक आयत का हवाला देकर अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा: लकुम दीनोकुम वले यदीन (सो) तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए और मेरा धर्म मेरे लिए है"। लेकिन विडंबना ये है कि बहुत से मुसलमान इसे कुरान के सही या वैध हिस्से के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। न्यु एज इस्लाम पर अक्सर कमेंट करने वाले मोहम्मद यूनुस (न्यु एज इस्लाम के लेखक और कुरान की व्याख्या पर एक प्रसिद्ध किताब के सह-लेखक मोहम्मद यूनुस नहीं) ने हाल ही में एक पोस्ट में कहा कि "आप और जनाब यूनुस साहब (1) और अन्य कुछ दूसरे लोग जो कुछ भी व्यक्त कर रहे हैं वो मक्की आयतों पर आधारित है। दुर्भाग्य से मक्की आयतों को मदनी आयतों ने रद्द किया है। लकुम दीनोकुम वले यदीन काबिले कुबूल नहीं है क्योंकि बाद की आयतों का कहना है कि अल्लाह की नज़रों में सिर्फ काबिले कुबूल दीन इस्लाम है।

इस दुनिया में ये विचार रखने वाला मैं अकेला नहीं हूँ। मुसलमानों के अनुसार कुरान हर स्थान और समय के लिए है। इसी तरह मदनी आयतें भी हैं।"

इस तरह आप समझ सकते हैं कि हम मुसलमानों को बहुत बड़ी संख्या में समस्याओं को हल करने के लिए काफी संघर्ष करना होगा। जैसा कि इस वेबसाइट के संपादक सुल्तान शाहीन ने एक बार संयुक्त राष्ट्र के प्रतिष्ठित मंच से मुस्लिम दुनिया को बताया था, मैं उसकी व्याख्या कर रहा हूँ: "हम मुसलमानों ने लगभग एक हजार वर्षों से अपना काम नहीं किया है, हमें जरूरत है कि इस काम में हम अच्छी तरह से पूरी गंभीरता के साथ तुरंत इसमें लग जाएं।"

URL for English article:

http://www.newageislam.com/islam-and-pluralism/aiman-reyaz,-new-age-islam/some-indian-muslims'-un-islamic-appeal-to-boycott-buddhists-as-retaliation-for-rohingya-killings/d/832
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URL for Urdu article:

http://www.newageislam.com/urdu-section/ایمن-ریاض،-نیو-ایج-اسلام/کچھ-ہندوستانی-مسلمانوں-کے-ذریعہ-میانمار-کے-روہنگیا-مسلمانوں-کے-قتل-کی--جوابی-کارروائی-کے-طور-پر-بدھ-مت-کے-پیروکاروں--کے-بائیکاٹ-کی-غیر-اسلامی-اپیل/d/8332


URL for this article:
http://www.newageislam.com/hindi-section/ऐमन-रियाज़,-न्यु-एज-इस्लाम/कुछ-हिंदुस्तानी-मुसलमानों-द्वारा-म्यांमार-के-रोहिंग्या-मुसलमानों-की-हत्या-की-जवाबी-कार्रवाई-के-तौर-पर-बौद्ध-धर्म-के-अनुयाईयों-के-बहिष्कार-की-गैर-इस्लामी-अपील/d/8334


खुफिया एजेंसियों के ताजा आकलन के मुताबिक रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर बांग्लादेश व म्यांमार के बीच चल रही खींचतान के मद्देनजर भारतीय सीमाओं पर उनकी आमद का दबाव बढ़ने का खतरा है। लिहाजा म्यांमार से सटे मिजोरम, मणिपुर के सीमावर्ती इलाकों और बांग्लादेश सीमा से लगे क्षेत्रों में सख्त निगरानी जरूरी है। म्यांमार के अराकान प्रांत में मुस्लिम आबादी और बौद्ध धर्मावलंबियों के बीच जातीय संघर्ष गहराने के बाद यहां आठ लाख लोगों को नागरिकता से वंचित किया जा चुका है। इनकी बड़ी आबादी म्यांमार छोड़कर बांग्लादेश में शरण ले रही है। लेकिन हाल के दिनों में बांग्लादेश ने न केवल मदद से हाथ खींच लिए हैं बल्कि अपने यहां काम कर रहे गैर सरकारी संगठनों को भी इन शरणार्थियों की सहायता न करने का निर्देश दिया है।

रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी. रामन कहते हैं कि म्यांमार में हो रही हिंसा और बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों के खिलाफ बरती जा रही सख्ती के कारण इनका रुख स्वाभाविक तौर पर उत्तरपूर्व के सूबों की ओर होगा। ऐसे में भारत के लिए एक नया संकट खड़ा हो सकता है जो इस उत्तर पूर्व क्षेत्र में पहले से मौजूद विदेशी नागरिकों की समस्या को बढ़ा सकता है। इन चिंताओं पर मुहर लगाते हुए मेघालय के मुख्यमंत्री ने शुक्रवार को कहा कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के रास्ते अवैध तरीके से भारत में हो रही विदेशी नागरिकों की घुसपैठ बड़ा खतरा है। उन्होंने केंद्र सरकार को आगाह किया है कि जल्द कदम न उठाए गए तो हालात काबू से बाहर हो सकते हैं। संगमा ने इलाके में जम्मू-कश्मीर की तरह निगरानी इंतजाम करने की भी मांग की है। आंकड़े बताते हैं कि त्रिपुरा, असम, मिजोरम के इलाकों में बीते दस महीनों के दौरान अवैध तरीके से भारत में दाखिल हुए 150 से ज्यादा रोहिंग्या गिरफ्तार किए जा चुके हैं। गैर सरकारी अनुमानों के मुताबिक पूर्वोत्तर भारत में 40 हजार रोहिंग्या रहते हैं।
वैसे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के दिल्ली कार्यालय के मुताबिक उनके पास भारत में केवल दो हजार रोहिंग्या शरणार्थियों की जानकारी है। जो मुख्यत: जम्मू और सहारनपुर क्षेत्र में रह रहे हैं। हालांकि रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों की मौजूदगी पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण भारत के इलाके तक दर्ज की जा रही है। गत 3 अगस्त को ईरान के वाणिज्यक राजदूत ने हैदराबाद में रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को अपनी सरकार की ओर से आर्थिक सहायता राशि प्रदान की।

गांधी और नेहरू को पाती हूं खुद के करीब

ढाई दशक बाद यहां पहुंचीं म्यांमार में लोकतंत्र का अलख जगा रहीं विपक्ष की नेता आंग सान सू की ने बुधवार को कहा कि वह महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को अपना प्रेरणास्रोत मानती हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता सू की ने यह भी कहा कि वह दोनों को अपने सबसे करीब पाती हैं। साथ ही याद दिलाई कि नेहरू और उनमें कई चीजें किस तरह समान हैं।

उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उनके आवास पर करीब आधे घंटे बातचीत की। दोनों नेताओं ने म्यांमार में लोकतंत्र बहाली की कोशिशों पर चर्चा की। प्रधानमंत्री ने सू की व वहां सत्तारूढ़ जुंटा सरकार के बीच संतुलन साधने की भी कोशिश की।

सरकारी सूत्रों के मुताबिक, मुलाकात के दौरान प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र लाने के लिए सू की और राष्ट्रपति थेन सेन की ओर से किए जा प्रयासों का स्वागत किया। भारत सू-की की मेजबानी ऐसे वक्त कर रहा है जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस सप्ताह म्यांमार पहुंच रहे हैं। नवंबर 2010 में ओबामा ने कहा था कि भारत को म्यांमार में लोकतंत्र जैसे मुद्दों पर खुलकर समर्थन में आना चाहिए। इसके बाद तत्कालीन विदेश सचिव निरुपमा राव ने सू-की से उनके घर में मुलाकात की थी। इसी साल मई में प्रधानमंत्री जब म्यांमार के राजकीय दौरे पर गए थे तो सू से भी मिले थे और उन्हें नवंबर में नेहरू स्मृति व्याख्यान देने दिल्ली आने के न्योता दिया था। सू की वहीं व्याख्यान दे रही थीं।

बुधवार को महात्मा गांधी की समाधि पर पुष्पांजलि से अपनी यात्रा की औपचारिक शुरुआत करने वाली सू-की ने कहा, 'मेरे यहां आने उद्देश्य दोनों मुल्कों के लोगों के बीच सहयोग की संभावनाएं तलाशना है।' सरकारी सूत्रों के मुताबिक प्रधानमंत्री और सू-की के बीच मुलाकात में दोनों देशों की संसद और न्यायपालिका के बीच संपर्क बढ़ाने पर रजामंदी जताई गई।

अपनी युवा अवस्था का बड़ा वक्त भारत में बिताने वाली सू-की पांच दिनी दौरे पर मंगलवार को यहां आई। यात्रा में वो दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज भी जाएंगी, जहां से 1964 में उन्होंने राजनीति शास्त्र में स्नातक डिग्री प्राप्त की थी। इसके बाद 1987 में वह भारत आई थीं लेकिन बीते 20 साल से नजरबंदी के कारण वह जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार लेने भारत नहीं आ सकीं। वह बेंगलूर में सूचना प्रौद्योगिकी केंद्रों और आंध्रप्रदेश के ग्रामीण इलाके में विकास परियोजनाओं को देखने भी जाएंगी।

नेहरू ने सू की के पिता के लिए किए थे गर्म कपड़ों के इंतजाम

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आंग सान सू की के पिता के लिए गर्म कपड़ों की व्यवस्था की थी। सू की ने बुधवार को उस वाकये को याद करते हुए कहा कि तब वह दो साल की थीं। खाकी कपड़े पहने उनके पिता जनरल आंग सान वर्ष 1947 के जनवरी में बर्मा [म्यांमार का पुराना नाम]की स्वतंत्रता के पहले चरण की वार्ता के लिए लंदन जा रहे थे तो नेहरू ने उनके लिए तत्काल दो सेट गरम कपड़े बनाने का आर्डर दे दिया था। तब वह पहनावे महत्व नहीं समझ पाई थीं, जबकि वह इंग्लैंड के इतिहास का एक सर्वाधिक ठंड वाला मौसम था।

सू की यहां विज्ञान भवन में नेहरू स्मारक व्याख्यान में कहा, 'तब मैं बच्ची थी, मेरे दिमाग में यही आया कि वह दयालु बुजुर्ग व्यक्ति हैं जिन्होंने मेरे पिता को कपड़े दिए।'

दु:ख है भारत से मुश्किल दौर में नहीं मिला साथ

म्यांमार की नेता विपक्ष आंग सान सू की बुधवार को तमाम पुरानी स्मृतियों और मीठी यादों के साथ-साथ मुश्किल दौर में नई दिल्ली से मिली नाउम्मीदी पर अपनी कसक का इजहार नहीं रोक सकी। राजधानी के विज्ञान भवन में दिए आधे घंटे के व्याख्यान के बाद आखिर में उन्होंने कह ही दिया कि 'दु:ख है कि कठिन वक्त में म्यांमार के लोगों को भारत का साथ नहीं मिल पाया।' उन्होंने भारत के साथ रिश्तों पर भरोसा जताते हुए कहा कि 'उम्मीद है कि आगे ऐसा नहीं होगा।'

लिखित भाषण के आखिर में अपनी तरफ से जोड़ते हुए कहा कि 'मेरी भारत यात्रा पर दो शब्द हर तरफ सुनने को मिल रहे हैं-अपेक्षा और निराशा। भारत से मेरी अपेक्षा और अपेक्षित समर्थन न मिलने पर निराशा। तो मैं न तो अपेक्षाओं से लदी हूं और न निराशा का कोई बोझ है। हां, इतना जरूर है कि भारत से मुश्किल के दौर में मजबूत मदद न मिलने का दु:ख है। हालांकि मुझे भारत के साथ संबंधों पर हमेशा भरोसा रहा।' इसी प्रवाह में सू की ने कहा कि अभी म्यांमार में लोकतंत्र के लिए काफी आगे जाना है। उम्मीद है भारत इसमें हमारे साथ होगा। क्योंकि देशों के रिश्ते सरकारों के मोहताज नहीं होते। सरकारें आती जाती हैं, लेकिन जनता के बीच रिश्ते स्थायी होते हैं। व्याख्यान में उनके पुराने स्कूल जीसस एंड मैरी और लेडी श्रीराम कॉलेज के छात्र भी मौजूद थे।

सू की के स्वागत में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि मौजूदा समय की नामचीन शख्सियत सू की के लिए यह घर वापसी की तरह है। अंतराष्ट्रीय समझ के लिए नेहरू शांति पुरस्कार पाने के बीस साल बाद भारत आई सू की ने व्याख्यान के दौरान नेहरू की आत्मकथा व भारत एक खोज जैसी पुस्तकों से लेकर कल्हण रचित संस्कृत रचना राजतरंगिणी का भी उल्लेख किया। दो साल पहले नजरबंदी से बाहर आई सू की का बचपन नई दिल्ली में ही बीता है। मौजूदा कांग्रेस मुख्यालय 24 अकबर रोड कभी उनका घर हुआ करता था जहां भारत में तत्कालीन राजदूत अपनी मां के साथ वह रहती थीं।

कभी दिल्ली में रहकर पढ़ाई कर चुकी म्यांमार की विपक्षी नेता सू ची 1987 के बाद पहली बार इस शहर में आईं हैं. सू ची की मां नई दिल्ली में म्यामांर की राजदूत थीं. मां के साथ रहते हुए सू ची ने दिल्ली में पढ़ाई भी की है.
मंगलवार को दिल्ली पहुंची सू ची ने एक अखबार से बातचीत की. बातचीत में उन्होंने म्यांमार की दशा पर निराशा जाहिर की. म्यामांर 2010 से लोकतंत्र की राह पकड़ने की कोशिश भी कर रहा है. सैन्य शासन जुंटा धीरे धीरे देश की कमान विधायिका को देते दिखाई पड़ रहा है.  इसी साल हुए चुनावों में सू ची की पार्टी को अच्छी सफलता भी मिली. 46 सीटों के लिए हुए उपचुनावों में सू ची की पार्टी 44 जगह मैदान में उतरी और 43 सीटें जीत लीं.
अप्रैल में हुए चुनावों के महीने भर बाद भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने म्यामांर की यात्रा की. म्यांमार पर चीन के प्रभाव को देखते हुए सिंह ने व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया. भारत और म्यांमार के बीच तब 12 समझौते हुए, इनमें सुरक्षा, सीमा से सटे इलाकों में विकास, व्यापार और परिवहन के समझौते थे.
सू ची भारत के इस रुख से दुखी हैं. उनके मुताबिक भारत को म्यांमार की दिखावटी सरकार के बहकावे में नहीं आना चाहिए. भारतीय अखबार द हिंदू से बातचीत में उन्होंने कहा, "मैं निराशा के बजाए दुख शब्द का इस्तेमाल करूंगी क्योंकि भारत के साथ मेरा निजी लगाव है. दोनों देशों के बीच काफी नजदीकी है."
नोबेल शांति पुरस्कार विजेता सू ची ने कहा, "अति आशावादी न रहें, लेकिन इतना साहस अवश्य होना चाहिए जिस चीज को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, उसे प्रोत्साहित करें. अति आशा से मदद नहीं मिलती है क्योंकि ऐसे में आप गलत चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं. नजरअंदाजी ठीक नहीं है और ठीक न होना ही गलत है."
सू ची मानती है कि भारत और म्यांमार के कारोबारी रिश्ते बहुत मजबूत हो सकते हैं. उनके मुताबिक म्यांमार से सटी भारत की पूर्वी सीमा पर 'सही ढंग से निवेश' किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, "यह बात ध्यान में रखें कि हमने लोकतंत्र के रास्ते पर अभी शुरुआत ही की है और जैसा कि मैं बार बार कहती हूं यह रास्ता हमें खुद बनाना है. यह तैयार होकर हमारा इंतजार नहीं करेगा."
बुधवार को सू ची भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात करेंगी. वह जवाहर लाल नेहरू स्मारक में लोगों को संबोधित भी करेंगी. शुक्रवार को वह दिल्ली यूनिवर्सिटी की श्रीराम कॉलेज जाएंगी. सू ची ने 1964 में श्रीराम कॉलेज से राजनीति शास्त्र में स्नातक किया है. आखिरी बार वह शिमला में पढ़ाई कर रहे अपने पति से मिलने भारत आई थीं.
तब से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं. लोकतंत्र की समर्थक सू ची अब 67 साल की हो चुकी है. म्यामांर में हुए 1990 के चुनावों में 80 फीसदी सीटें जीतने के बावजूद सत्ता से दूर रखी गई सू ची 15 साल नजरबंदी में काट चुकी हैं. 2010 में नजरबंदी से आजाद हुई सू ची इन दिनों दुनिया भर के दौरे पर हैं. लोकतंत्र की राह पर चलने की कोशिश करते म्यांमार से अब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने कई प्रतिबंध हटा भी दिए हैं. अमेरिका, यूरोप, चीन और भारत के कारोबारी वहां निवेश करना चाहते हैं.
ओएसजे/एनआर (एएफपी)

निजी ज़िंदगी

आंग सान सू १९ जून १९४५ को रंगून में पैदा हुईं थीं। इनके पिता आंग सान ने आधुनिक बर्मी सेना की स्थापना की थी और युनाईटेड किंगडम से १९४७ में बर्मा की स्वतंत्रता पर बातचीत की थी। इसी साल उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी हत्या कर दी। वह अपनी माँ, खिन कई और दो भाइयों आंग सान लिन और आंग सान ऊ के साथ रंगून में बड़ी हुई। नई बर्मी सरकार के गठन के बाद सू की की माँ खिन कई एक राजनीतिक शख्सियत के रूप में प्रसिद्ध हासिल की। उन्हें १९६० में भारत और नेपाल में बर्मा का राजदूत नियुक्त किया गया। अपनी मां के साथ रह रही आंग सान सू की ने लेडी श्रीराम कॉलेज, नई दिल्ली से १९६४ में राजनीति विज्ञान में स्नातक हुईं। सू की ने अपनी पढ़ाई सेंट ह्यूग कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में जारी रखते हुए दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र में १९६९ में डिग्री हासिल की। स्नातक करने के बाद वह न्यूयॉर्क शहर में परिवार के एक दोस्त के साथ रहते हुए संयुक्त राष्ट्र में तीन साल के लिए काम किया। १९७२ में आंग सान सू की ने तिब्बती संस्कृति के एक विद्वान और भूटान में रह रहे डॉ. माइकल ऐरिस से शादी की। अगले साल लंदन में उन्होंने अपने पहले बेटे, अलेक्जेंडर ऐरिस, को जन्म दिया। उनका दूसरा बेटा किम १९७७ में पैदा हुआ। इस के बाद उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में से १९८५ में पीएच.डी. हासिल की।
१९८८ में सू की बर्मा अपनी बीमार माँ की सेवाश्रु के लिए लौट आईं, लेकिन बाद में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। १९९५ में क्रिसमस के दौरान माइकल की बर्मा में सू की आखिरी मुलाकात साबित हुई क्योंकि इसके बाद बर्मा सरकार ने माइकल को प्रवेश के लिए वीसा देने से इंकार कर दिया। १९९७ में माइकल कोप्रोस्टेट कैंसर होना पाया गया, जिसका बाद में उपचार किया गया। इसके बाद अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ और पोप जान पाल द्वितीय द्वारा अपील किए जाने के बावजूद बर्मी सरकार ने उन्हें वीसा देने से यह कहकर इंकार कर दिया की उनके देश में उनके इलाज के लिए माकूल सुविधाएं नहीं हैं। इसके एवज में सू की को देश छोड़ने की इजाजत दे दी गई, लेकिन सू की ने देश में पुनः प्रवेश पर पाबंदी लगाए जाने की आशंका के मद्देनजर बर्मा छोड़कर नहीं गईं।
माइकल का उनके ५३ वें जन्मदिन पर देहांत हो गया। १९८९ में अपनी पत्नी की नजरबंदी के बाद से माइकल उनसे केवल पाँच बार मिले। सू की के बच्चे आज अपनी मां से अलग ब्रिटेन में रहते हैं।
२ मई २००८ को चक्रवात नरगिस के बर्मा में आए कहर की वजह से सू की का घर जीर्णशीर्ण हालात में है, यहां तक रात में उन्हें बिजली के अभाव में मोमबत्ती जलाकर रहना पड़ रहा है। उनके घर की मरम्मत के लिए अगस्त २००९ में बर्मी सरकार ने घोषणा की।

भारत से क्यों दुखी थीं सू ची?

बुधवार, 14 नवंबर, 2012 को 19:55 IST तक के समाचार

बर्मा की नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी की नेता सू ची 18 नवंबर तक भारत में रहेंगी.

बर्मा की विपक्षी नेता आंग सान सू ची ने बुधवार को भारत और यहां के लोगों से दो बातें स्पष्ट कर दीं.
एक यह कि भारत का साथ न मिलने से उन्हें बहुत दुख हुआ था. दूसरा यह कि उन्हें उम्मीद है कि बर्मा के लोकतंत्र हासिल करने के अंतिम पड़ाव में भारत उनके साथ होगा.

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भारत में कई वर्ष रहकर पढ़ाई कर चुकी सू ची 25 साल बाद भारत आई हैं.
नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी की नेता सू ची 18 नवंबर तक भारत में रहेंगी. बुधवार को दिन में वो भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिलीं.
नई दिल्ली में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जयंती के मौके पर लेक्चर देते हुए उन्होंने कहा, ''भारत आने पर मुझसे दो सवाल किए गए हैं. भारत से मुझे क्या उम्मीदें हैं और क्या मैं भारत से निराश हूँ.''
बर्मा की सैनिक सरकार से लोहा लेनेवाली सू ची ने कहा, ''हम उम्मीदें नहीं कर सकते. ऐसे ही निराशा की भी हम चाह नहीं कर सकते.''
उन्होंने कहा, ''मैं दुखी थी कि मुश्किल दौर में हम भारत से दूर हो गए थे. बल्कि भारत हमसे दूर हो गया था. लेकिन मुझे भरोसा था यहां की लोगों की दोस्ती पर. मैं मानती हूँ कि दो देशों के बीच दोस्ती वहां के लोगों की दोस्ती पर आधारित होती है न कि सरकारों पर.''
सू ची ने कहा, ''सरकारें तो आती जाती हैं और यही लोकतंत्र का नियम है. जब तक लोग एक दूसरे की इज्ज़त करते हैं और उन्हें समझते हैं, दो देशों में दोस्ती रहती है.''
भारत के लोगों पर उम्मीद जताते हुए उन्होंने कहा, ''हमने अभी लोकतंत्र पूरे तरीके से हासिल नहीं किया है. इस रास्ते के अंतिम और शायद सबसे मुश्किल चरण में भारत के लोगों से उम्मीद है कि वो हमारा साथ देंगे.''

'गांधी से प्रेरित'

"लेकिन मुझे भरोसा था यहां की लोगों की दोस्ती पर. मैं मानती हूँ कि दो देशों के बीच दोस्ती वहां के लोगों की दोस्ती पर आधारित होती है न कि सरकारों पर."

सू ची

सू ची को 1993 में जवाहरलाल नेहरू अवॉर्ड फॉर इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिंग से सम्मानित किया गया था. उस समय वो बर्मा की सैनिक सरकार द्वारा अपने घर में नज़रबंद रखी गई थीं.
अपने भाषण में उन्होंने महात्मा गांधी की तारीफ की और जवाहर लाल नेहरू की कई यादें ताज़ा की.
उन्होंने कहा, ''भारतीय नेताओं के शब्दों और कार्यों ने मुझे प्रभावित किया...हमारी लड़ाई महात्मा गांधी से प्रेरित है.''
इससे पहले जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल फंड की ओर से उनका स्वागत करते हुए सोनिया गांधी ने कहा कि यह सू ची के लिए घर वापस आने जैसा है.
सोनिया ने सू ची की तारीफ करते हुए कहा, ''महात्मा गांधी की तरह उनकी ज़िंदगी उनका संदेश है...असली ज़िंदगी वो है जिसमें बाकियों की ज़िम्मेदारी उठाने की हिम्मत है.''
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http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/11/121114_suukyi_nehru_ac.shtml

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