सवर्ण अकादमी
सवर्ण अकादमी
Sunday, 04 November 2012 13:34 |
रत्न कुमार सांभरिया जनसत्ता 4 नवंबर, 2012: देश की दूसरी अकादमियों की तरह राजस्थान साहित्य अकादमी का उद्देश्य भी प्रदेश में साहित्य और संस्कृति का उत्थान करना है। इसी मकसद से सरकार ने 28 जनवरी, 1958 को उदयपुर में इसकी स्थापना की। नवंबर, 1962 को इसे स्वायत्तता दी गई। इस संस्था का इतिहास देखें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। सरकारी तौर पर अब तक अकादमी के सोलह अध्यक्ष रह चुके हैं। इनमें से ग्यारह केवल ब्राह्मण जाति के नियुक्त हुए। अन्य पांच दूसरी सवर्ण जातियों के रहे हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के किसी भी साहित्यकार को अध्यक्ष नियुक्त नहीं किया गया। अकादमी की स्थापना के समय पं. जनार्दनराय नागर इसके अध्यक्ष नियुक्त किए गए। वर्तमान अध्यक्ष पं. वेद व्यास 29 नवंबर, 2011 से इसकी जिम्मेदारी संभाले हुए हैं। वे तीसरी बार इस अकादमी के अध्यक्ष बने हैं। वे जब-जब अध्यक्ष बने, उनके जातिवाद की धार तीखी होती गई। अकादमी द्वारा सन 1958-59 से सुधींद्र (काव्य), रांगेय राघव (कथा, उपन्यास), देवीलाल सामर (नाटक), देवराज उपाध्याय (निबंध, आलोचना) और सन 1959-60 से मीरां (शीर्ष), फिर 1960-61 से शंभूदयाल सक्सेना (बाल साहित्य), कन्हैयालाल सहल (विभिन्न विधाएं) और सुमनेश जोशी (प्रथम प्रकाशित कृति) पुरस्कार दिए जाते हैं। अब तक कुल दो सौ इकतालीस साहित्यकारों को इन पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। एक या दो अपवादों को छोड़ कर दलित-आदिवासी साहित्यकारों को ये पुरस्कार नहीं मिले। जबकि इन दोनों वर्गों के लेखकों की प्रविष्टियां बहुतायत में पहुंचती हैं। कारण खोजने पर एक बड़ा भेदभाव नजर आता है। अकादमी की 'सरस्वती सभा' में इक्कीस सदस्य होते हैं। मगर आज तक यह 'सवर्ण सभा' ही रही है। इसमें दलित-आदिवासियों का कभी प्रवेश नहीं हो सका। बस, अंतर इतना है कि इसके लिए कोई निषेध पट््िटका नहीं लगी है। 'सरस्वती सभा' ही पुरस्कार निर्णायक समितियों का चयन करती है। इन समितियों में सभी गैर-दलित और गैर-आदिवासी ही होते हैं। दलित विरोधी मानसिकता के चलते श्रेष्ठ रचनाएं छूट जाती हैं, रचनाकार चुन लिया जाता है। 'अमृत सम्मान' अकादमी के उद्देश्यों में नहीं आते। मगर वेद व्यास जब दूसरी बार इस अकादमी के अध्यक्ष बने तो उन्होंने तमाम उद्देश्यों और नियम-कायदों को नजरअंदाज कर 2002-03 में पहली बार अमृत सम्मान शुरू कराए। मूल रूप से इसमें उनका जाति पोषण निहित था। प्रदेश के बीस विद्वान इस सम्मान से समादृत हुए। मगर एक भी दलित को शाल ओढ़ाने योग्य नहीं समझा गया। तीसरी बार अध्यक्ष बनने पर उन्होंने 28 जनवरी, 2012 को फिर अमृत सम्मान दिलवाए। सरकार के लाखों रुपए खर्च हुए। पहले दिए गए अमृत सम्मान की तरह इस बार भी प्रविष्टियां तक आमंत्रित करने की जरूरत नहीं समझी गई। तेरह व्यक्तियों को ग्यारह-ग्यारह हजार रुपए नकद, कीमती शॉल और स्मृति चिह्न दिए गए। अतिथियों के यात्रा व्यय और ठहरने की माकूल व्यवस्था हुई। सम्मानित हुए तेरह लोगों में से दस वेद व्यास की जाति-बिरादरी के ब्राह्मण हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के एक भी विद्वान को यह सम्मान नहीं दिया गया। जबकि प्रदेश की कुल साढ़े छह करोड़ की जनसंख्या में इन वर्गों की आबादी दो करोड़ है। इनमें भी विद्वानों की एक लंबी सूची है। दांतों तले अंगुली दबाने वाली बात तो यह है कि ब्राह्मणवादी वेद व्यास ने जातीय भेदभाव की यह सीरनी सहज, संवेदनशील और गांधीवादी मुख्यमंत्री के कर कमलों से एक समारोह में बंटवाई। चौंकाने वाला एक तथ्य और है। राजस्थान साहित्य अकादमी अभी तक एक सौ इक्यावन विशिष्ट साहित्यकारों को ग्यारह-ग्यारह हजार रुपए, शॉल और स्मृति चिह्न प्रदान कर सम्मानित कर चुकी है। इसमें दलित-आदिवासी साहित्यकारों की पूरी तरह उपेक्षा हुई है। इन दोनों वर्गों से एक भी साहित्यकार को यह सम्मान नहीं मिला है। अकादमी अध्यक्ष वेद व्यास और साहित्य में छत्तीस का आंकड़ा सनातन है। हैरानी की बात है कि उन्होंने खुद 2001-2002 का विशिष्ट साहित्यकार सम्मान पा लिया। इक्यावन-इक्यावन हजार रुपए के 'साहित्य मनीषी' सम्मान से सोलह विद्वानों को अकादमी सम्मानित कर चुकी है। लेकिन दलित-आदिवासी वर्ग का एक भी विद्वान इसमें शामिल नहीं है। प्रदेश के छब्बीस दिवंगत साहित्यकारों पर 'हमारे पुरोधा' ग्रंथ अकादमी ने अपनी योजना के अंतर्गत प्रकाशित किए हैं। 5 दिसंबर, 2009 को करोली के अर्जुन कवि नहीं रहे। कविता में, विशेषकर दोहावली में, अर्जुन कवि एक बड़ा नाम है। उन्होंने अपने जीवन में एक हजार दोहे लिखे। उन जैसे उद्भट और फक्कड़ कवि पर कोई पुरस्कार शुरू करना तो दूर, अकादमी ने उन पर 'हमारे पुरोधा' ग्रंथ निकालना भी मुनासिब नहीं समझा। वेद व्यास ने अकादमी के प्रथम अध्यक्ष रहे पं. जनार्दनराय नागर पर अकादमी की ओर से प्रति वर्ष एक लाख रुपए का पुरस्कार दिए जाने की घोषणा मुख्यमंत्री से करवा दी है। अर्जुन कवि का गुनाह बस यह रहा कि उन्होंने दलित घर में जन्म लिया। उदयपुर से निकलने वाली आदिवासी पत्रिका 'अरावली उद्घोष' का चौबीस वर्ष तक संपादन करने वाले बीपी वर्मा 'पथिक' का 25 जनवरी, 2012 को निधन हो गया। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने दलित आदिवासी विचार को जो मजबूती प्रदान की उसका कोई सानी नहीं है। वे दलित-आदिवासी पत्रिकारिता के स्तंभ रहे। अकादमी का ध्यान उनकी ओर इसलिए नहीं गया है कि वे अनुसूचित जनजाति के थे। अकादमी ने अपने चौवन वर्षों के कार्यकाल में प्रदेश के अट्ठासी विशिष्ट साहित्यकारों पर साहित्यकार प्रस्तुति यानी मोनोग्राफ का प्रकाशन किया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति दोनों ही वर्गों में मात्र एक साहित्यकार पर साहित्यकार प्रस्तुति-87 का प्रकाशन हुआ है। वेद व्यास ने अकादमी का बजट डेढ़ करोड़ रुपए होने की जानकारी एक कार्यक्रम में दी है। सरकारी परिपत्र और आदेश तो यह कहते हैं कि इस राशि में से अनुसूचित जाति-जनजाति के साहित्य संवर्द्धन पर उनकी आबादी के अनुपात में क्रमश: सोलह प्रतिशत और बारह प्रतिशत यानी कुल अट्ठाईस प्रतिशत व्यय हो। लेकिन अपनी दलित विरोधी अवधारणा के चलते वेद व्यास उन पर डेढ़ रुपया भी खर्च करने के इच्छुक नजर नहीं आते। अपने एक साक्षात्कार में वेद व्यास कहते हैं कि 'इस सरकार की कोई सांस्कृतिक नीति नहीं है।' और 'अशोक गहलोत राजनीतिक दृष्टि से एक कमजोर मुख्यमंत्री हैं।' यहां वे सरकार और मुख्यमंत्री दोनों को कठघरे में खड़ा करके उनके खिलाफ मोर्चा खोल कर बैठे हुए हैं। अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में जीत की उम्मीद लगाए बैठी कांग्रेस सरकार अपने नियुक्त अकादमी अध्यक्ष से हार मान बैठी है। |
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