सुनील जनसत्ता 3 नवंबर, 2012: अक्तूबर माह में करीब तीस हजार गरीबों का जमीन की मांग को लेकर ग्वालियर से दिल्ली की ओर पैदल कूच करना अपने-आप में एक बड़ी घटना थी। इससे मालूम होता है कि देश में जमीन, गरीबी और बेरोजगारी की समस्या कितनी गंभीर है। मगर इस विशाल पदयात्रा का बिना किसी ठोस नतीजे के आधे रास्ते में आगरा में समाप्त हो जाना भी एक ऐसी घटना है, जिससे कुछ सबक मिलते हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और एकता परिषद के अध्यक्ष पीवी राजगोपाल के बीच जिस समझौते पर ग्यारह अक्तूबर को आगरा में दस्तखत हुए, उसकी एकमात्र ठोस चीज हर गरीब ग्रामीण भूमिहीन को मकान बनाने के लिए दस सेंट की जमीन का आश्वासन है। मगर इस पर अमल राज्य सरकारों पर निर्भर करता है। 'गरीब' की परिभाषा क्या होगी, मोंटेक सिंह अहलूवालिया की बदौलत यह एक बड़ा सवाल अपनी जगह है ही। इंदिरा आवास योजना का बजट दुगुना करने की घोषणा भी की गई है। लेकिन पदयात्रा के लोगों की प्रतिक्रियाओं से मालूम होता है कि ज्यादातर लोग इस यात्रा में खेती की जमीन की मांग लेकर आए थे और उन्हें निराशा हाथ लगी है। जयराम रमेश की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स या समिति बनाने की घोषणा हुई। पर कोई गांरटी नहीं है कि इसका हश्र भी वही नहीं होगा, जो 2007 में इसी तरह की विशाल पदयात्रा के बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बनी समिति का हुआ था। उसकी एक ही बैठक हुई और पांच साल में उसने रत्ती भर काम नहीं किया। दरअसल, कोई समिति या आयोग बना कर या कोई आधा-अधूरा कानून बना कर बढ़ते जन-असंतोष को शांत कर देना और जनांदोलनों को भ्रमित कर देना शासकों की पुरानी चाल है। अच्छी रपट आ भी जाती है, तो उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। स्वयं एकता परिषद को इसका अच्छा अनुभव है। मध्यप्रदेश के पिछले कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एकता परिषद की मांग पर राज्य स्तर पर ही नहीं, जिले स्तर पर भी जमीन के सवाल पर टास्क फोर्स बना दी थी। पर इनसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। इसके बावजूद एकता परिषद मध्यप्रदेश में हर विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेसी या भाजपाई मुख्यमंत्री को अपने सम्मेलन में आमंत्रित करती रही और उनकी घोषणाओं के बदले प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से चुनावी समर्थन देती रही। जमीन का सवाल इस देश में आंदोलन और संघर्ष का एक बड़ा मुद््दा रहा है। कम्युनिस्टों और नक्सलियों से लेकर समाजवादियों, जेपीवादियों, गांधीवादियों, विनोबावादियों और एनजीओ तक ने इस मुद््दे को लेकर कई मुहिम चलाई हैं और शानदार संघर्ष किए हैं। कम से कम दो पहलू ऐसे हैं जिन्होंने इस समस्या को और जटिल बनाया है, पर जिनकी ओर ज्यादा ध्यान नहीं गया है। एक तो बड़े पैमाने पर जमीन बांधों, कारखानों, खदानों, राजमार्गों, शहरी परियोजनाओं, राष्ट्रीय उद्यानों-अभयारण्यों, फायरिंग रेंजों और अन्य सरकारी परियोजनाओं के लिए ली जा रही है। पिछले दो दशक से इसमें काफी तेजी आ गई है। अंदाजा है कि दस से पंद्रह फीसद कृषिभूमि इस तरह से किसानों और गांववासियों के हाथ से निकल चुकी है। भूमि से विस्थापन पिछले कुछ समय से जमीनी संघर्षों का सबसे बड़ा मुद््दा बन गया है। अब ज्यादातर भूमि छीनने का काम देशी-विदेशी कंपनियां या उनके लिए सरकारें कर रही हैं। अंबानी, टाटा, जेपी समूह या डीएलएफ देश के सबसे बड़े जमींदार बन गए हैं। शहरी अमीरों ने भी पिछले समय में बड़े पैमाने पर जमीन खरीदना शुरू किया है। इससे उनके दो मकसद पूरे होते हैं। खेती की आमदनी पर आयकर नहीं लगता है। इसलिए अपनी एक नंबरी आय पर कर-चोरी और दो नंबरी आमदनी को छिपाने का प्रयोजन इससे पूरा होता है। दूसरा, महंगाई और कम ब्याज दरों के चलते बचत और पूंजी निवेश के लिए सोने के साथ जमीन एक आकर्षक जरिया बन गई है। वे जमीन में सट््टात्मक निवेश भी करते हैं, यानी सस्ती खरीद कर बाद में महंगी बेच कर मुनाफा कमाते हैं। इसने जमीन की कीमतों और जमीन के अभाव को और बढ़ाया है और साधारण ग्रामीणों के लिए जमीन रखना या हासिल करना और मुश्किल बनाया है। पूर्व वित्त सचिव एसपी शुक्ला ने बताया है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1992-93 से 2002-03 के बीच देश में खेती की जमीन 12.5 करोड़ हेक्टेयर से घट कर 10.7 करोड़ हेक्टेयर रह गई, यानी करीब पंद्रह फीसद कम हो गई। वास्तविक भूमि हस्तांतरण और ज्यादा होगा। इस तरह जमीन का सवाल सीधे वैश्वीकरण की नई व्यवस्था और साम्राज्यवाद से जुड़ गया है। दूसरी बात यह है कि गांव में जमीन के लिए ललक, विवाद और संघर्ष इसलिए भी बढ़े हैं क्योंकि गांव में खेती छोड़ कर अन्य धंधे तेजी से खत्म हुए हैं और बेरोजगारी बढ़ी है। वैसे तो यह प्रक्रिया डेढ़ सौ सालों से चल रही है, पर वैश्वीकरण ने इस गति को बढ़ाया है और गांवों के अनौद्योगीकरण (औद्योगिक विनाश) को पूरा कर दिया है। तेली, कलार, बढ़ई, कुम्हार, लुहार, चर्मकार, बसोड़, बुनकर, ठठेरे, मल्लाह, गड़रिए, ग्वाले सबके पुश्तैनी धंधे चौपट हो गए हैं। या तो वे गांव से पलायन कर रहे हैं या गांव में रहने पर वे अपनी जीविका और आर्थिक सुरक्षा के लिए जमीन पर निर्भर हो गए हैं और चाहते हैं कि किसी तरह से जमीन का एक टुकड़ा उनके पास भी हो जाए। इसलिए जमीन की मांग गांव के अंदर भी बढ़ी है। शहर और गांव दोनों तरफ से जमीन की मांग बढ़ने से जमीन के दाम भी तेजी से बढ़े हैं। पूंजीवादियों, मार्क्सवादियों, आंबेडकरवादियों सबका विश्वास था कि पंूजीवाद के विकास और औद्योगीकरण के साथ गांव के बेरोजगार कारखानों में खप जाएंगे। जबकि गांधी और लोहिया का कहना था कि भारत जैसे देशों में पूंजीवाद का विकास अधकचरा और यूरोप से अलग होगा। केंद्र में और हाशिये पर पूंजीवाद का स्वरूप अलग-अलग होगा, क्योंकि केंद्र का विकास हाशिये की कीमत पर ही होता है। इसी से यह बात भी निकलती है कि जमीन की समस्या के स्थायी और संतोषजनक समाधान के लिए जरूरी है कि गांवों का पुन: औद्योगीकरण किया जाए और गांवों में खेती से इतर दूसरे रोजगार बढ़ाए जाएं। गांव के औद्योगीकरण का मतलब छोटे, कुटीर और गांव-केंद्रित उद्योगों को बढ़ावा देना होगा, क्योंकि गांव में बड़े कारखाने लगाने पर कुछ ही लग पाएंगे और वह गांव तो शहर बन जाएगा, बाकी गांवों की दुर्दशा अपनी जगह रह जाएगी। इसलिए जमीन के सवाल को आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में गांवों की बरबादी और बेरोजगारी से काट कर नहीं देखा जा सकता। इसी वजह से गांधी के लिए यह सबसे बड़ा मुद््दा था। अचरज की बात है कि स्वयं को गांधीवादी कहने के बावजूद यह मुद््दा राजगोपाल के एजेंडे में नहीं दिखाई देता। इस मुद््दे को महत्त्व देने का मतलब मौजूदा अर्थनीति-विकास नीति और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के विरोध को आंदोलन के केंद्र में रखना होगा। इसी कारण कांग्रेस या भाजपा की सरकारों से भूमि-समस्या का समाधान करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। आमतौर पर गांधीवादियों और कम्युनिस्टों ने जमीन के सवाल को गांव के अंदर ही पुनर्वितरण के सवाल के रूप में देखा है। पर इन दो पहलुओं के कारण यह ज्यादा व्यापक सवाल बन जाता है। भूमि समस्या की जड़ें पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जाति-व्यवस्था, पुरुष-सत्ता आदि कई चीजों में गुंथी हैं। दरअसल, आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन और भूमि हदबंदी के बाद और भूमि के पारिवारिक बंटवारों के कारण बहुत बड़ी जोत के मालिक काफी कम रह गए हैं। यह सही है कि इन कानूनों परपूरी तरह अमल न होने के कारण अब भी कई जगह बेनामी रूप में बड़ी जमीन के मालिक बचे हैं। उनसे जमीन लेकर और हदबंदी से निकली जमीन को बांटने की मांग बिलकुल जायज है। पर इतने मात्र से जमीन की समस्या हल नहीं होने वाली है। जमीन की समस्या को देखने का हमारा तरीका कई बार विदेशी विमर्श से प्रभावित होता है। लातिन अमेरिका, अफ्रीका आदि में अब भी जमीन का विशाल आधिपत्य कुछ ही हाथों में हैं। वहां बीस-तीस हजार एकड़ के जमींदार मिल जाएंगे। बड़े किसान का मतलब वहां पांच सौ या हजार एकड़ के किसान से होता है। उनके मुकाबले जिसे भारत में बड़ा किसान कहा जाता है, वह तो बहुत छोटा है। वह गांव में दबंग और अत्याचारी हो सकता है, पर पूरी तस्वीर में उसकी स्थिति भी काफी नीचे, तंगहाली और लाचारी की रहती है। इसलिए उसे प्रमुख खलनायक मानना एक दृष्टिदोष और गलत रणनीति है। भारत की परिस्थितियां काफी अलग हैं। यह भी सोचना चाहिए कि गांव की खेती की जमीन को गांव के सारे परिवारों में बराबर बांटने की जो मांग होती है, उसे अमल में लाया गया तो कितनी छोटी और अलाभकारी जोत रह जाएगी। गांव के एक हिस्से को गैर-खेती रोजगार में लगाए बगैर गांव का पुनर्निर्माण नहीं हो सकता। भूमि के संदर्भ में एक पूरी तरह जायज मांग अनुपस्थित जमीन-मालिकी समाप्त करने का कानून बनाने की हो सकती है। जो भी गांव से बाहर चला गया, चाहे वह भाई हो या बेटा, शहर में रहने वाला सेठ या नौकरीपेशा हो, उसे गांव में जमीन का मालिक बनने का अधिकार नहीं होना चाहिए। इससे गांव में काफी जमीन उपलब्ध हो सकेगी, सचमुच में खेती करने वाले उसके मालिक बन सकेंगे और उन्हें जमीन का किराया या बंटाई का हिस्सा नहीं देना पड़ेगा। शहर या गांव में निवास का फैसला मतदाता-सूची से हो सकता है। ऐसा कानून गांव को तोड़ेगा नहीं, बल्कि गांव की एकता बनाने में मददगार हो सकता है। अचरज की बात यह भी है कि भूमि-सुधारों की चर्चा में या किसान आंदोलनों के मांगपत्रों में अनुपस्थित जमीन-मालिकी पर पाबंदी की बात गायब रहती है। आजादी मिलने के बाद भूदान आंदोलन गांव के अंदर जमीन की समस्या को हल करने की एक कोशिश थी। विनोबा के साथ जेपी और सैकड़ों युवा इस आंदोलन में कूद पड़े। मगर जमीन की समस्या हल नहीं हुई। भूदान आंदोलन विफल रहा, क्योंकि यह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को बदले बगैर, सत्ता समीकरणों में खलल डाले बगैर, केवल हृदय-परिवर्तन से भूमि समस्या को हल करने की कोशिश थी। जयप्रकाश नारायण ने बाद में 1977 में 'सामयिक वार्ता' पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में कबूल किया कि वर्ग-संघर्ष तो होगा। गांधी की योजना में भी सत्याग्रह यानी अहिंसक संघर्ष का स्थान प्रमुख रहता था। विनोबा के एजेंडे में व्यापक बदलाव की बात फिर भी थी, पर राजगोपाल के साथ वह भी गायब है। व्यापक संदर्भों से काट कर, संघर्ष के किसी कार्यक्रम के बगैर, वे केवल पदयात्राएं करते हैं और सत्ताधीशों से उम्मीद करते हैं कि वे भूमि समस्या हल कर देंगे। गांधी से विनोबा और विनोबा से राजगोपाल तक सर्वोदय की यह यात्रा भटकती लगती है। कुल मिलाकर, जमीन के सवाल को, व्यापक संदर्भों को जमींदोज न करते हुए, नए धरातल पर खड़े होकर देखने की जरूरत है। |
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