जिसका आधार ही कमजोर हो
जिसका आधार ही कमजोर हो
Saturday, 08 December 2012 12:17 |
अरविंद मोहन जनसत्ता 8 दिसंबर, 2012: नीतिगत शैथिल्य का लंबा दौर झेलने के बाद सरकार और कांग्रेस पार्टी में जबर्दस्त तेजी देखी जा रही है। जिन कामों से सरकार की तेजी जाहिर होती है उनमें नगदी हस्तांतरण की ताजा घोषित योजना भी है। इस घोषणा के बाद से सरकारी पक्ष के लोग कुछ इस तरह व्यवहार कर रहे हैं मानो अगले चुनाव की कुंजी उनके हाथ आ गई है। अब यह भ्रम है या सच्चाई, यह तो भविष्य बताएगा, पर इतना तय है कि जिस ब्राजील और लुला की तर्ज पर इसे शुरू किया गया है, वहां और भारत की स्थितियों में बहुत फर्क है। अपने यहां गरीब, गरीबी और गरीबी रेखा को लेकर जैसी अराजकता है और सरकारी पक्ष जिस ढिठाई से गरीबी रेखा की बहस को चलाता रहा है उससे साफ है कि गरीबों और सामाजिक सुरक्षा के लिए कुछ भी ठोस करने की जगह चुनाव जीतना ही मुख्य लक्ष्य है। अभी अपने यहां गरीबी की परिभाषा को लेकर ही बहस है तो उस आधार पर सरकार की तरफ से चलने वाली यह योजना कितनी कामयाब होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। पर सरकार इस पर विचार करने की जगह अब पूरी तरह चुनावी मूड में आ गई है। विपक्ष अगर इस योजना को वोट खरीद योजना बता रहा है तो यह कोई हैरानी की बात नहीं है। निश्चित रूप से सरकार को, खासकर कल्याणकारी राज्य वाली शासन व्यवस्था को गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों के लिए काम करना ही चाहिए। ब्राजील के जिस प्रयोग की सफलता से सरकार की मौजूदा योजना प्रेरित है वह अनेक प्रयोगों की विफलता के बाद एक नए प्रयोग की सफलता है। अपने यहां की स्थितियां अलग हैं और यह योजना सदिच्छा की जगह सरकार द्वारा सबसिडी के सवाल पर हाथ खड़े करने जैसी ही है। लेकिन सिर्फ घी चटाने से कोई पहलवान नहीं बनता। अगर जचगी के वक्त किसी औरत को आप पांच सौ नहीं, हजार-दो हजार रुपए भी पकड़ा दें तो क्या होगा! उसे तो उस वक्त अस्पताल की सुविधा और डॉक्टरी सहायता का भरोसा होना चाहिए। अभी यूपीए के सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम पूरी तरह जमीन पर उतरें और उनकी गड़बड़ियों को दूर किया जाए, इससे पहले ही सरकार इस जिम्मेवारी से हाथ खींचती नजर आने लगी है। सरकार राजीव गांधी के इस कथन से ज्यादा प्रभावित लगती है कि दिल्ली से चला एक रुपया गांव पहुंचते-पहुंचते पंद्रह पैसे ही रह जाता है। आज भी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर खर्च हो रहे धन की बर्बादी का शोर काफी मचता रहा है। पर सरकार को इस बर्बादी की चिंता थी या अगले चुनाव की, यह कहना मुश्किल नहीं है। बिना विचार किए, बगैर तैयारी के, कुछ राज्यों के कुछ जिलों में कुछ खास तरह की सबसिडी को सीधे गरीबों के खाते में डालने की योजना को बजट के समय से क्यों लागू नहीं किया गया या तीन महीने बाद पेश होने वाले बजट तक क्यों नहीं इंतजार कर लिया गया- यह चुनाव के अलावा किसी और कारण से नहीं समझा जा सकता। अगर योजना का लिटमस टेस्ट सफल रहा तो अगले बजट से इसे व्यापक किया जाएगा और फिर चुनाव वाले बजट के समय सभी 'गरीबों' को इसके दायरे में लाने की तैयारी है। उल्लेखनीय है कि यह सारी गिनती आकर मई, 2014 पर खत्म हो रही है, जब अगले संसदीय चुनाव होने हैं। चुनावी व्यवस्था में कोई भी सरकार चुनाव से आंख मंूद कर चले, यह जरूरी नहीं है, पर वह सरासर ऐसा ही काम करे, जिससे वोट मिले और जनता के ही धन की बर्बादी हो, यह सर्वथा अनुचित है। आखिर यह धन भी कहीं और से नहीं आ रहा है। नगदी हस्तांतरण योजना का घोषित लक्ष्य तो लाभार्थियों को फायदा देना और बिचौलिया खत्म कराना है। एक मायने में यह अच्छा उद्देश्य है। पर मुश्किल यह है कि जिन कामों में सचमुच के और घोषित बिचौलिए हैं, सरकार ने उन्हें हाथ ही नहीं लगाए हैं। देश में हर साल सबसे ज्यादा सबसिडी खाद और बीज पर दी जाती है और यह किसी किसान को न देकर खाद कंपनियों को दी जाती है। पचास हजार करोड़ रुपए कब और किस तरह बंट जाते हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। नंबर दो की सबसिडी रसोई गैस और डीजल की है। उसका क्या हाल हुआ है, हम सब देख रहे हैं। यह सही है कि उसमें काफी कालाबाजारी होती है, लेकिन जमीन से जुड़ा कोई भी आदमी बता सकता है कि रियायत देने और रोकने के सरकारी तरीके ही कालाबाजारी को और बढ़ाते हैं। छह सिलिंडर वाले फैसले के बाद मचे हाहाकार के बाद से कितने हजार करोड़ रुपए का गड़बड़ हो गया होगा, जबकि कुल सबसिडी तीस हजार करोड़ रुपए की है। इन दो बड़े मदों की चर्चा के बाद इस तथ्य का उल्लेख करना जरूरी है कि इधर हर बजट में सरकार बड़े उद्योगों को लगभग पांच लाख करोड़ रुपए का उपहार कर-रियायत के नाम पर देती जा रही है। यह सही है कि छात्रवृत्ति, पेंशन और विकलांग सहायता योजनाओं का पैसा भी समय पर और पूरा मिलने में दिक्कत आती है और इसके लिए नगदी भुगतान सबसे अच्छा विकल्प है। पर यह कुल सबसिडी का इतना छोटा हिस्सा है कि उसके लिए इतना हंगामा करने की जरूरत नहीं थी। फिर अगर सरकार के पास ऐसे लोगों के नाम-पते और बैंक के ब्योरे हैं तो बेहतर होता कि इस काम को तुरंत देश भर में लागू कर दिया जाता। और अगर सरकार के पास ये विवरण नहीं थे तो बेहतर होता कि वह पहले इन सूचनाओं को जुटाने का ही अभियान चलाती। स्पष्ट है कि जो सरकार आबादी के आंकड़ों, मरने-जीने के विवरण और इंदिरा आवास या सचमुच के शारीरिक श्रम पर आधारित मनरेगा जैसी योजनाओं के ब्योरों और गड़बड़ियों को दूर नहीं कर पाई हो, उससे हर तरह की सबसिडी को उसके असली हकदारों के खाते में पहुंचा देने की उम्मीद करना बेमानी होगा। बेहतर होता, पहले कुछ चीजों में प्रयोग किया जाता और ऐसे मामलों में सफल होने के बाद धीरे-धीरे अन्य मामलों में भी नगदी भुगतान शुरू होता, जिसकी परिणति खाद-बीज की सबसिडी को भी सीधे किसान या जरूरतमंद किसान के खाते में डाल कर होती। अभी जिन योजनाओं को नगदी भुगतान के दायरे में लाने की तैयारी है, उनमें मातृ-शिशु कल्याण के कई कार्यक्रमों का धन भी है। आंगनबाड़ी और इस तरह की योजनाएं गर्भवती औरतों से लेकर स्कूल जाने से पहले के बच्चों के पोषक आहार, अतिरिक्त पोषक आहार, रोगरोधी टीकों और बच्चों के विकास से जुड़े हैं। इनमें से सब जरूरी हैं और देश के कई राज्यों, जैसे तमिलनाडु में ठीक से लागू होने से इनका बहुत फायदा हुआ है। अब इनमें से किसे चालू रखा जाएगा और किसे हस्तांतरण के दायरे में ले लिया जाएगा इसका साफ पता अभी नहीं चल पाया है। पर इसके एक हिस्से को समाप्त करके सीधे नगदी देने की तैयारी है। जाहिर है, यह लोगों को लाभ देना या बिचौलियों को समाप्त करने से ज्यादा सरकार की विफलता की सार्वजनिक घोषणा है। सरकार से अगर यह काम नहीं हो रहा हो तो उसे हाथ झाड़ लेने की जगह अन्य एजेंसियों से या पंचायतों की मार्फत इसे लागू करने की पहल और अपनी तरफ से सख्त निगरानी करनी चाहिए थी। अस्पताल और डॉक्टर की सुविधा देना, जरूरतमंद बच्चे और मां को पौष्टिक आहार देना ज्यादा जरूरी है। हस्तांतरण से आया नगदी अगर घर वाले की शराब की खुराक बन गया तो वह अभी की 'लूट' से भी ज्यादा नुकसानदेह है। ज्यादा खतरा यही है कि यह धन इसी काम में इस्तेमाल हो। ज्यादा 'उद्यमी' ग्रामीण हुआ तो वह इसका इस्तेमाल जमीन-जत्था खरीदने में करेगा। हर हाल में यह रकम जरूरतमंद महिला और बच्चे तक नहीं पहुंचेगी। कितने घरों में महिलाओं की सुविधा के लिए शौचालय हैं, यह हम देख चुके हैं। जो किसान तत्पर हैं और अच्छी खेती करते हैं उनकी भी प्राथमिकता खेत लिखाना, आलीशान घर बनवाना होती है। बच्चे और औरतों की दुर्गति के कारण सांस्कृतिक भी हैं। और यह भी सच है कि जो सरकार अभी चलने वाली योजनाओं को लागू नहीं करा पा रही है या इसकी गड़बड़ियों को रोक पाने की जगह नगदी भुगतान करने में भरोसा कर रही है वह कल को हर घर में आए धन के दुरुपयोग को रोकने में कितनी कामयाब हो पाएगी! तो यह प्रयास धन लुटाने और वोट पाने से अलग बहुत कुछ करने नहीं जा रहा है। योजना कब और कितने जिलों में जाएगी, यह कहना मुश्किल है। सरकार हड़बड़ी में जरूर है, लेकिन यह भी साफ है कि यह काम उसके लिए मुश्किल है। जिस आधार कार्ड के जरिए वह इसे लागू करने का आधार बना रही है, वही अभी बीस करोड़ लोगों तक नहीं पहुंचा है। और जिनका आधार कार्ड बना है उनके गरीबी के ब्योरे तो उसमें गए नहीं हैं। वह शुद्ध रूप से पक्के और जैविक पहचान वाला कार्ड भर है। तो क्या सबका नया कार्ड बनेगा? और यह नगदी सबसिडी हस्तांतरण है या आधार कार्ड को व्यापक बनाने की रणनीति? कार्ड के प्रचार की बाकी योजनाएं तो फेल हो चुकी हैं। जब उससे सीधे लाभ मिलेगा तो लोग उसे बनवाने के लिए भी लाइन लगाएंगे। यह मुद्दा हो सकता है, पर दो लाख करोड़ रुपए सालाना लुटाने की योजना इतने भर के लिए नहीं बन सकती। यह निश्चित रूप से सरकार द्वारा अपनी विफलता को छिपाने और वोट खरीदने के लिए उठाया गया कदम है। यह काम प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद से आए आत्मविश्वास के बाद उठा दूसरा बड़ा कदम है। उदारीकरण के दूसरे चरण के फैसले वोट दिला ही देंगे, यह भरोसा नहीं है। लेकिन करोड़ों गरीबों को सीधे नगदी पाने का लाभ न हो, यह कोई नहीं मानता। पर इस क्रम में सरकार गरीबों के प्रति अपनी जवाबदेही से हाथ झाड़ ले, यह गलत है। |
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