खुला बाजार और बंद दिमाग
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Tuesday, 11 December 2012 10:43 |
कुमार प्रशांत जनसत्ता 11 दिसंबर, 2012: लंबे समय से देश के किसी भी गहरे सवाल पर, कोई भी सार्थक बहस करने में असमर्थ लोकसभा-राज्यसभा के सदस्यों के बीच दो दिन की भाषणबाजी के बाद यह फैसला हो गया कि भारत का खुदरा बाजार विदेशी पूंजी और विदेशी माल के लिए खोल दिया जाएगा। अरविंद केजरीवाल पूछते हैं कि भाई, जो खुदरा बाजार में अपना माल लेकर बैठता है और जो खरामां-खरामां उससे खरीदारी करने जाता है, क्या इस बारे में उससे भी कुछ पूछा गया? पूछा जाना नहीं चाहिए था? केजरीवाल के ऐसा पूछने पर जावेद अख्तर जवाब देते हैं कि भाई, आपकी तो यह बड़ी विचित्र पेशकश है! क्या बाजार के दुकानदार से और उसके खरीदार से पूछ कर अब यह देश चलेगा? अगर ऐसा होगा तो देश बचेगा क्या? क्योंकि तब वह अपनी तरह से देश चलाना चाहेगा और मैं अपनी तरह से; और नतीजा यह आएगा कि देश चलेगा ही नहीं! बकौल जावेद अख्तर, केजरीवाल की बात उनकी समझ में ही नहीं आती है। इसलिए वे सलाह देते हैं कि अरे भाई, संसद में बैठे लोग सही हैं या गलत; वे सही ढंग से चुन कर आए हैं कि गलत ढंग से और उनके फैसले का आधार देशहित है कि दलहित, यह सब जब देखना होगा तब हम देख लेंगे। अभी तो हम इतना ही देखेंगे कि ये सारे लोग जनता द्वारा चुन कर भेजे गए हैं तो इन्हें ही हक है कि ये जनता के नाम पर फैसले करें! जावेद अख्तर यह भी कहते हैं कि देश की न्यायपालिका ठीकठाक चल रही है, कानून बन रहे हैं, उन पर अमल हो रहा है। सब कुछ रास्ते पर है, फिर रास्ता बदलने की बात क्यों करते हो? तो जावेद अख्तर जैसे साहबों की रजामंदी से, राज्यसभा में अल्पमत में पड़ी सरकार ने लोकसभा में तिकड़म से अपना बहुमत दिखा दिया- देखिए, देश ऐसे चलता है! दो सबसे अच्छे भाषण हुए- लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने वह सब कुछ कहा जो खुदरा व्यापार को निहत्था करने के विरुद्ध कहा जा सकता है और कहा जाना चाहिए। दोनों की बातों में शब्द बड़े थे, ढंग जोरदार था, लेकिन विश्वसनीयता शून्य थी! आप क्या कह रहे हैं इससे ज्यादा गहरी बात यह है कि आप कौन हैं कि जो यह कह रहे हैं? क्या यह भी (या कि यही!) सच नहीं है कि अगर सुषमा स्वराज और अरुण जेटली विपक्ष में नहीं बल्कि सत्तापक्ष के पाले में होते तो उनकी बातें ऐसी न होतीं! लेकिन जावेद अख्तर साहब कहते हैं कि देश तो भाई ऐसे ही चलता है! आर्थिक मंदी के पहले धक्के को हमने पश्चिम की तुलना में बेहतर ढंग से संभाल लिया था तो इसके पीछे किसी बड़े अर्थशास्त्री का बारीक सोच नहीं था। वह इसलिए संभव हुआ था कि तब भी छोटी-छोटी पूंजी वाले लोगों की बहुसंख्या हमारे बाजार में खरीद-बिक्री कर रही थी और आज भी कर रही है। उसे कोई एक वालमार्ट नियंत्रित नहीं कर रहा था कि जिसके एक घोटाले से बाजार का पूंजी-संतुलन बिगड़ जाए। यहां अमेरिकी मॉडल के दानवाकार बैंक और बीमा कंपनियां नहीं हैं कि जो इसकी टोपी उसके सिर, उसकी टोपी इसके सिर का क्रूर मसखरापन दिखाते हुए देश का सिर ही काट ले जाएं! यहां सोवियत मॉडल का शासकीय ढांचा भी नहीं है जो हर वक्त, हर दिन लोगों की गर्दन पर सवार रहता था और उन्हें भयभीत कर, उनसे हार्दिक समर्थन की आशा रखता था। भय से प्रीति का विचार बहुत खोखला है। इसलिए जो पहला मौका हाथ लगा उसी में सोवियत संघ के सर्वहारा ने अपने देश का भौगोलिक ढांचा तहस-नहस कर दिया। जावेद अख्तर जैसे लोगों की दिक्कत यहीं पर है। वे यह समझ ही नहीं पाते हैं कि शासन-प्रशासन का ढांचा भी बदलता रहता है, बदलता रहना चाहिए; और बदलाव की हर कोशिश शुरू में ऐसी ही अटपटी दिखाई देती है जैसी अभी अरविंद केजरीवाल की बातें और कोशिशें दिखाई दे रही हैं। जो अभी अटपटा है, वह गलत है, ऐसा कहेंगे तो किसी गांधी के साथ हम क्या करेंगे? और किसी जयप्रकाश के साथ, जो तमाम उम्र यही सुनते रहे कि आपकी बातें बेहद अटपटी होती हैं! और आज हम देख रहे हैं कि उनके अटपटे रास्तों पर चलने की कोशिश में से ही तमाम संभावनाएं उभर रही हैं। इसलिए ऐसा पूछना बड़ी कमजोर समझ का पता देता है कि जनता कैसे सीधे देश चला सकती है? जनता को किनारे कर अगर तंत्र देश चलाता आ रहा है तो इसे थोड़ा उलट कर भी तो देखा जा सकता है कि तंत्र की मर्यादाएं बांध कर, लोक नीचे के स्तर पर सीधे काम करे और ऊपर के स्तर पर उसकी भागीदारी हो! सारी दुनिया का लोकतंत्र तेजी से इस दिशा में जा रहा है। हम शायद इसे जल्दी साकार कर सकें क्योंकि हमारी मिट्टी में लिच्छवी गणतंत्र की खाद है, महात्मा गांधी के चिंतन और प्रयोगों का आधार है और ग्रामस्वराज्य के व्यापक आंदोलन की पृष्ठभूमि है। अब तक ऐसा नहीं हो सका है इसलिए देश में जो चल रहा है सब अच्छा ही चल रहा है और इसमें बदलाव की बात करने वाले संविधान के, संसद के विरोधी हैं ऐसा कहना ईमानदारी की बात नहीं है। जिस देश में महात्मा गांधी, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण जैसे वैकल्पिक सोच और कर्म के तीन अप्रतिम लोग पैदा हुए हैं और हमारा इतिहास आज भी जिनके जीवंत स्पर्श से स्पंदित है, उस देश का कोई समझदार आदमी यह कहे कि समाज संचालन का आज से अलग और बेहतर मॉडल हो ही नहीं सकता, तो हंसने या रोने के अलावा दूसरा रास्ता भी क्या रह जाता है! खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी और कंपनियां आएंगी तो उससे देश और समाज में काफी कुछ परिवर्तन आएगा। सड़कें बनेंगी, उत्पादों के रखरखाव के लिए बड़े-बड़े स्टोर बनेंगे, रोजगार भी पैदा होगा और उत्पादन भी बढ़ेगा, जमीन की कीमतों में बेहद उछाल आएगा जिसका फायदा किसानों को होगा, खरीददार के लिए बड़े-बड़े, भव्य मॉल बनेंगे- आज से भी बड़े और आधुनिक! ऐसा ही बहुत कुछ और भी होगा। यह लुभावनी और सुहानी तस्वीर खींची है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने, जब वे पंजाब में कृषि विश्वविद्यालय का उद्घाटन करने गए थे। यह सब होगा लेकिन प्रधानमंत्री ने नहीं बताया कि किस कीमत पर होगा। याद तो प्रधानमंत्री को भी होगा और देश को तो याद है ही कि तथाकथित विकास के कई प्रतिमान हमारे गुलाम भारत में ही बने थे। रेल भी तभी आई थी और डाक-तार की व्यवस्था ने भी तभी आकार लिया था, सड़कों का जाल भी बिछा था, हवाई जहाजों ने उड़ना शुरू किया था। खेती-किसानी से जुड़ी दूसरी कई पहलें भी तभी की हैं जिन्हें हम आज भी अंधों की तरह दोहरा रहे हैं। इसलिए सुख-सुविधा की एकांगी दृष्टि से देखें तो गुलामी और आजादी में ज्यादा फर्क नहीं नजर आएगा। फर्क नजर आता है जब आप यह आंकने की कोशिश करते हैं कि यह सब कुछ किस कीमत पर हासिल हुआ है! तब यह तीखा अहसास जागता है कि आजादी की कीमत पर अगर यह सब मिलता है तो हमें यह नहीं चाहिए। फिर गांधी के सीने में गोली लगती है, भगत सिंह फांसी का फंदा चूमते हैं। भारत के खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों के प्रवेश से अगर देश का भला-ही-भला है तो कोई बताए कि इनके अपने देशों में भी इनका विरोध क्यों होता आ रहा है? ऐसा क्यों है कि इधर आप अपना खुदरा बाजार विदेशी कंपनियों के लिए खोलते हैं और उधर उनकी सरकारें इस कदम पर खुशी जाहिर करती हैं? क्यों सरकारें इन कंपनियों का सफरमैना बन कर चलती हैं? बाजार को दलालों से मुक्ति मिले, यह आर्थिक न्याय की दिशा में कदम है। अगर वैसा नहीं होता तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह दलाली सरकार करती है या कॉरपोरेट कंपनियां या बहुराष्ट्रीय कंपनियां। यह बारीक फर्क भी समझ लेना चाहिए कि सात समंदर पार से ये कंपनियां कमाई करने आ रही हैं, अपनी जीविका कमाने नहीं। जीविका कमाने की कशमकश में तो वह खुदरा व्यापारी लगा है जो दो-चार पैसों की उलटफेर करता है और घर चलाता है। हमारा खुदरा व्यापार एक पूरी-की-पूरी सामाजिक व्यवस्था का आर्थिक ढांचा खड़ा करता है जिसमें सब कुछ स्वस्थ है, ऐसा नहीं है, लेकिन आप इसे खत्म कर जो ला रहे हैं वह तो कहीं से भी स्वस्थ नहीं है। इस नई व्यवस्था में खेती-किसानी और भी ज्यादा पर-निर्भर होगी; उत्पादों का अधिकाधिक केंद्रीकरण होगा; मूल्य-निर्धारण में सीधी मनमानी चलेगी; उत्पादों के प्रकार, गुणवत्ता आदि सब में पैसे वालों का ही ध्यान रखा जाएगा; जमीन की कीमत बहुत बढ़ेगी और उत्पादक किसानों के हाथ से निकल कर वह तेजी से व्यापारी के हाथ में जाएगी। व्यापारी खेत और जमीन में कोई अंतर नहीं करेगा, जैसे डीएलएफ या रॉबर्ट वडरा जैसों ने नहीं किया। इस तरह जो खेतिहर संस्कृति हमारे समाज का मूलाधार है, वह बिखर जाएगी। इसके एवज में हम जो पाएंगे उसमें पूंजी जोड़ने की चातुरी और क्रूरता है, समाज जोड़ने का इल्म नहीं! हम जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं लेकिन जिसे समझने और पहचानने की जहमत उठाते नहीं हैं, उसकी धुरी यह है कि वह सामाजिक व्यवस्था के टुकड़े करके नहीं चलती है। उसकी कोशिश रही है कि मनुष्यों को और उनसे मिल कर बने समाज को परिपूर्णता में देखे। इसमें इसे पूरी सफलता नहीं मिली है क्योंकि मानवीय कमजोरियां, वासनाएं आदि हमारे हिस्से में भी आई हैं। लेकिन परिपूर्णता की यह दृष्टि बहुत बड़ी उपलब्धि है जिसे बचाने और विकसित करने की जरूरत है। इसे कूड़ा समझ कर हम घर से बाहर फेंकने में लगे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि हमने इसमें से कूड़ा और कंचन अलग-अलग करने की समझ भी पैदा नहीं की है। फिर किस आधार पर यह विवेक हो कि किसे हटाने और किसे रखने की जरूरत है? आधार तो एक ही है- लोगों में इस प्रस्ताव को ले जाइए और खूब बहस होने दीजिए! ग्रामसभाओं और ग्रामपंचायतों में इस पर रायशुमारी कीजिए। समझ बनने में जितना वक्त जाएगा, वह बरबाद नहीं होगा बल्कि यह मानिए कि हमारे सयानेपन में यह निवेश हुआ। ऐसा कुछ किए बिना हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह हमारी व्यवस्था को खोखला बना रहा है। |
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