अरुणा रॉय, भंवर मेघवंशी जनसत्ता 7 दिसंबर, 2012: भारत में जन-आंदोलनों की राजनीतिक पद्धति का लंबा इतिहास रहा है। लोक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध व्यवस्था-विरोधी संघर्षों के आलोक में देखा जाए तो आजादी का आंदोलन अपने आप में एक जन-आंदोलन था। महात्मा गांधी ने आजादी के बाद भी सत्ता की राजनीति का हिस्सा बनने की अपेक्षा जनहितकारी आंदोलन का ही हिस्सा बने रहना स्वीकार किया था। उन्होंने तो तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी राजनीतिक दल का बाना त्याग कर एक सामाजिक सेवा का जन-आंदोलन बनने तक की सलाह दी थी, हालांकि उसे माना नहीं गया। विनोबा का भूदान आंदोलन हो या लोक स्वातंत्र्य की रक्षा के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा चलाया गया आपातकाल विरोधी आंदोलन, जन-आंदोलनों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुए। नब्बे के दशक के दौरान भारत में जन-आंदोलनों ने फिर अपनी ऐतिहासिक भूमिकाएं निभानी शुरू कीं और इसके बाद मुख्यधारा की राजनीति और राजनीतिक विमर्श को जनता के संघर्षों, अभियानों, जन संगठनों और जन-आंदोलनों के मुद्दों ने मथना शुरू किया, जो आज तक बदस्तूर जारी है। लोकतंत्र को लोगों के हित के लिए चलाने के लिए समय-समय पर देश के अलग-अलग हिस्सों में लोगों ने अपनी आवाजें उठार्इं। आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने के बाद धीरे-धीरे 'राज्य' ने अपनी 'कल्याणकारी' भूमिका को सीमित कर दिया, जिससे कई उत्पीड़ित और सदियों से वंचित समुदाय पूरी तरह हाशिये पर पहुंच गए। मुख्यधारा की राजनीति से लोगों के मुद्दे और जनता की आवाजें गायब होती गर्इं। एक तरफ वैश्विक पूंजी ने कथित समृद्धि की चकाचौंध पैदा की तो दूसरी तरफ आम भारतीयों में दीनता और दारुणता। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाएं कथित विकास की मुख्यधारा की मार सह नहीं पाए। भूमंडलीकरण ने- जिसे अक्सर आर्थिक खुलापन कहा गया- एक ही देश में दो देश निर्मित कर दिए। आज हमारा देश स्पष्ट रूप से दो भागों में बंटा हुआ है- एक, निरंतर समृद्ध होता इंडिया, दूसरा, लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा भारत है। शायद भारत की यह नियति हो गई है कि वह इंडिया के रहमोकरम पर जिंदा रहे या विलुप्त हो जाए। ऐसे 'भारत के लोग' जिन्हें मजदूर, किसान, हमाल, मछुआरे, दलित, आदिवासी कुछ भी कह लीजिए, उनके हक में खड़े होने और उनकी पीड़ाओं को उजागर करने में जन-आंदोलनों ने महती भूमिका निभाई है। डॉ. बाबा आढव ने महाराष्ट्र में हमालों के लिए 'हमाल पंचायत' बना कर सराहनीय काम किया। वे अब बुजुर्गों के गरिमापूर्ण जीवन के लिए सब बुजुर्गों को पेंशन मिले, इसके लिए पेंशन परिषद के जरिए चल रहे आंदोलन के केंद्र में हैं। बड़े बांधों के विरुद्ध चले नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विकास की पूरी बहस को नया मोड़ दिया और विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दे को पूरी शिद्दत से उठाया। राजस्थान के ग्रामीण मजदूर किसानों ने ब्यावर के चांग गेट से सरकारी कागजों की फोटोकॉपी लेने की मांग उठाई, जो अंतत: लंबे संघर्ष के बाद आज सूचना का जन-अधिकार का कानून बन पाया है। देश भर के सैकड़ों जन समूहों ने 'काम का अधिकार' पाने के लिए लंबा आंदोलन चलाया, नतीजतन महात्मा गांधी नरेगा जैसा कानून पास हुआ और आज वह ग्रामीण भारत की जीवन-रेखा बना हुआ है। पंचायती राज उपबंध अधिनियम हो या परंपरागत वन निवासियों को भूमि देने का वनाधिकार मान्यता अधिनियम, शिक्षा का अधिकार कानून हो या अन्य कई सारे जनहितकारी कानून, ये सभी जन-आंदोलनों के निरंतर संघर्षों की बदौलत ही संभव हो पाए हैं। आज भी जन-आंदोलन देश के राजनीतिक विमर्श को अपने कई मुद्दों के जरिए मथे हुए हैं, खाद्य सुरक्षा विधेयक, लक्षित सांप्रदायिक हिंसा कानून, शिकायत निवारण कानून, विसल ब्लोअर विधेयक, बीज अधिनियम आदि बहुत से विधेयक अब भी देश की औपचारिक संसद में पारित होने की प्रतीक्षा में अटके हुए हैं। संसद कभी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो कभी एफडीआइ पर गतिरोध का शिकार हो रही है। जिस संसद को जनता के हित में कानून बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी, वह हंगामों के चलते चल नहीं पा रही है और जनता ठगी-सी महसूस कर रही है। यह भी देखा गया कि जब संसद को वैश्विक पूंजी के हित में कानून बनाने होते हैं तो कुछ ही मिनटों में बड़े फैसले कर लिए जाते हैं। पक्ष-विपक्ष आदि एक ही भाषा में बोलने लगते हैं। मगर जैसे ही हाशिये पर धकेल दिए गए तबकों की भागीदारी का सवाल उठता है, मुद्दों में पेच फंसा दिया जाता है। देश की आधी आबादी के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने के लिए लाए गए तैंतीस प्रतिशत भागीदारी वाले महिला आरक्षण विधेयक का अटका रह जाना इसी दुर्भाग्य की ओर इशारा करता है। जन-आंदोलनों को मुख्यधारा राजनीति की अंतरात्मा कहा जा सकता है, क्योंकि जन-आंदोलनों ने न केवल राजनीति को लोक-सरोकारी मुद्दों के लिए प्रतिबद्ध किया, बल्कि लोकतंत्र को मजबूत करने में भी अहम भूमिका अदा की है। ओड़िशा में पॉस्को का संघर्ष हो, महाराष्ट्र में जैतापुर आंदोलन या वर्तमान में तमिलनाडु में चल रहा कुडनकुलम का जनसंघर्ष, लोगों के पक्ष में जन-आंदोलन ही खड़े दिखाई पड़ते हैं। मगर सरकारें अपने ही नागरिकों के दमन पर उतारू हो गई हैं। दुर्गम नक्सल इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं पंहुचाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को नक्सलवादी बता कर जेल में रखा गया। सीमा आजाद को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। डॉ. सुनीलम को मुलताई आंदोलन के जरिए किसानों की बात उठाने की सजा आजीवन कारावास के रूप में मिली है और झारखंड की जेल में आदिवासी अधिकारों की संघर्षशील नेत्री दयामणी बारला सलाखों के भीतर कैद हैं। राजस्थान के अन्यायपूर्ण उत्खनन के विरोधी कार्यकर्ता कैलाश मीणा गिरफ्तारी से बचने के लिए भागते फिर रहे हैं, तो कबीर कला मंच की शीतल साठे अपने तमाम सारे कलाकार साथियों के साथ भूमिगत जीवन जीने को मजबूर हैं। फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखने मात्र से दो लड़कियां गिरफ्तार कर ली जाती हैं, तो कुडनकुलम के हजारों नागरिकों पर देशद्रोही होने का मामला चलाया जाता है। ऐसे में हमारे लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता की निरंतर सीमित होती जा रही पहचान को बचाने के लिए आज देश में जन-आंदोलन ही एकमात्र उम्मीद की किरण बने हुए हैं। वे गरीबों के हर संघर्ष में साथ खड़े हैं। वे इरोम शर्मिला के आमरण अनशन से लेकर डॉ. सुनीलम और दयामणी बारला तक, खाद्य सुरक्षा और लोकपाल से लेकर महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने तक, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला जैसे वंचित और उत्पीड़ित तबकों के सबसे मुखर पैरोकार बने हुए हैं। जन-आंदोलनों ने यह साबित कर दिया है कि उनका संघर्ष चुनावी राजनीति से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है और वही मुख्यधारा राजनीति के चरित्र को पुन: लोकोन्मुखी बनाने की दिशा में कामयाब होगा। दिल्ली में देश भर के तिरपन जन संघर्षों, अभियानों और आंदोलनों द्वारा 26 से 30 नवंबर तक जंतर मंतर पर की गई 'जनसंसद' को भी जन-आंदोलनों को उसी लोक राजनीति का फलित माना जा सकता है। इस जन संसद का उद्घोष लोकतंत्र की पुनर्प्राप्ति था, जैसा कि विदित है कि 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने आजाद भारत का संविधान स्वीकार किया था, उसी ऐतिहासिक मौके पर तिरसठ वर्ष बाद संविधान को केंद्र में रख कर यह जन संसद की गई और पूछा गया कि नागरिकों को दी गई संवैधानिक गारंटी का क्या हुआ? हमारे मौलिक अधिकार हमें मिल पाए या नहीं? हमने क्यों देश की नीतियां बनाने में नीति निर्देशक तत्त्वों की अवहेलना कर दी? इतना ही नहीं, इस जन संसद ने पंूजी के हित में काम कर रहे नेताओं, जन-विरोधी नीतियों और सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाए। यह भी साबित किया कि देश के नागरिक सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष को तैयार हैं, जन-आंदोलनों की जन संसद तक की यात्रा हमारे लोकतंत्र को राह पर लाने की ही कवायद है। असल में यह असली जनतंत्र को कायम करने की दिशा में एक और समेकित प्रयास के रूप में देखी जा सकती है। देश भर के जन-आंदोलनों के सात सौ लोगों का पांच दिनों तक लगातार जंतर मंतर पर डटे रहना और देश की औपचारिक संसद को यह संदेश देना कि आप भले शोरगुल मचाओ और संसद मत चलने दो, मगर देश की साधारण जनता को लोकतंत्र और संविधान की चिंता है। वह संसदीय ढांचे को महत्त्वपूर्ण मानती है, इसलिए इस जन संसद के जरिए उन मुद्दों को उठा रही है, जिन्हें कायदे से तो चुने हुए प्रतिनिधियों को चुनी हुई संसद में उठाना चाहिए था। मगर जब औपचारिक संसदीय ढांचे विचलन और विभ्रम के शिकार हो जाते हैं तो ऐसी ही जन संसदीय जन-प्रक्रियाएं उन्हें फिर राह पर लाने का काम करती हैं। ऐसे वक्त में मात्र जनता के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि जनता खुद बोलने लगती है। यही भारत में जन-आंदोलनों की सार्थकता है कि उन्होेंने फिर से जनता को सशक्त किया और जिस सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता की उम्मीद डॉ. आंबेडकर ने संविधान लागू करते वक्त की थी, उसकी प्राप्ति के लिए फिर से कमर कसी है। इतना ही नहीं, जन संसद के दौरान देश भर के लगभग सभी नामचीन जन-संघर्षकारियों का एक मंच पर आकर जन संसद के जरिए अपने मुद्दों को उठाना और एक सामूहिक 'जन घोषणा पत्र' की उद्घोषणा करना भी महत्त्वपूर्ण रहा है। जन संसद के जन घोषणा-पत्र में उठाए गए मुद्दों ने वर्ष 2014 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों को एजेंडा प्रदान कर दिया और ताल ठोंक दी है कि हम तय करेंगे कि किन मुद्दों पर चुनाव लड़ा जाएगा? 2014 चुनाव एक लक्ष्य है, जन संसद को उसकी उलटी गिनती भी माना गया, यह केवल एक आयोजन मात्र नहीं, बल्कि ठोस कार्यक्रम भी है। और हमारी चुनी हुई संसद को चेतावनी भी कि वह जनहित के जितने भी कानून वर्तमान सत्र और शेष बचे समय के दौरान लाए और पारित करे; हवाई, भावनात्मक और विभेदकारी मुद्दों पर नहीं, जनता के बुनियादी मुद्दों को केंद्र में रख कर चुनाव में उतरें। वरना जनता उन्हें नकार देगी। इस जन संसद के जरिए हमने अपने संविधान, उसमें प्रदत्त मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्त्वों को याद किया, संविधान की प्रस्तावना को दोहराया और लोकतंत्र की पुनर्प्राप्ति के लिए एक अनूठी शपथ भी ली। जिस तरह देश भर के जन-आंदोलनकारियों से लेकर देश भर के बुद्धिजीवी, मीडियाकर्मी, पूर्व न्यायाधीश, वकील, मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी और महिला समूहों के प्रतिनिधियों ने जन संसद के जरिए दिल्ली में दस्तक दी है, वह देश की मुख्यधारा राजनीति को दिशा देने की जन-आंदोलनों की ऐतिहासिक प्रक्रिया को ही आगे बढ़ाने का कार्य प्रतीत होता है। यह स्पष्ट भी करता है कि जनता और उसके द्वारा खड़े किए गए आंदोलन देश के लोकतंत्र को फिर पटरी पर लाने में सक्षम हैं, उसके लिए चुनावी राजनीति ही एकमात्र रास्ता नहीं है। |
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