ध्वंस की कालिख
ध्वंस की कालिख
hursday, 06 December 2012 10:57 |
हेमंत शर्मा जनसत्ता 6 दिसंबर, 2012: कुछ घटनाएं कभी नहीं भूलतीं। छह दिसंबर भी ऐसी ही कड़वी याद है। हमारी गंगा-जमुनी तहजीब पर एक जख्म। बहुलतावादी लोकतंत्र के मुंह पर ऐसी कालिख, जो बीस बरस में नहीं धुल पाई। उस रोज अयोध्या में बाबरी ढांचे की शक्ल में हमारे राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्य तोड़े गए थे। नफरत, उन्माद और सांप्रदायिकता की अफीम के हम ऐसे आदी हुए कि आज तक उससे मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। बाबरी ध्वंस के बीस बरस बाद भी क्या हमने उससे कुछ सीखा है? बीस साल में हम विध्वंस की उस साजिश का पर्दाफाश नहीं कर सके। ढांचा ढहाने के आरोप में किसी कारसेवक को सजा नहीं दे पाए। सीबीआइ की जांच भी नाकाम हुई। अब तक यही नहीं तय हो सका है कि उस उन्माद के लिए जिम्मेदार कौन था? ध्वंस की जांच के लिए बने लिब्रहान आयोग ने करोड़ों रुपए फूंक दिए, हजार पेज की रिपोर्ट दी, पर एक भी अपराधी पर अंगुली नहीं रख सका। कुछ नेताओं पर अब भी रायबरेली की विशेष अदालत में महज गवाहियां दर्ज हो रही हैं। मैंने अयोध्या आंदोलन को बहुत करीब से देखा है। एक फरवरी, 1986 को ताला खुलने से लेकर छह दिसंबर 1992 के बाबरी ध्वंस की सभी घटनाओं के दौरान अयोध्या में मौजूद रहा। बीस बरस से लगातार यह धारणा बनाने की कोशिश होती रही है कि ढांचे का गिरना हिंदू भावनाओं का विस्फोट था। किसी साजिश या षड्यंत्र का हिस्सा नहीं था। पर यह सच्चाई नहीं थी। दरअसल, जैसे आजकल संघ और भाजपा में नेतृत्व को लेकर अनबन है, वैसे ही मंदिर आंदोलन के तरीके को लेकर दोनों में असहमति थी। भाजपा नेताओं ने कल्याण सिंह की सरकार को बचाने के लिए केंद्र सरकार से एक सहमति बनाई थी कि कारसेवा प्रतीकात्मक होगी। विवादित ढांचे को सुरक्षित रखा जाएगा। वहां तक कारसेवक जाएंगे भी नहीं। आरएसएस ने भाजपा के इस समझौते को उसी तरह पंचर कर दिया जैसे लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री पद से उम्मीदवारी। संघ ने अपनी अयोध्या योजना में भाजपा को भरोसे में नहीं लिया। इसलिए ढांचे पर हमले के वक्त भाजपा नेता सन्न और अवाक थे। कल्याण सिंह भी बाद में इसी बात पर भड़के थे कि अगर यही करना था तो मुझे बता दिया होता। पूर्व नियोजित साजिश को समझने के लिए कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी है। ताला खोलने से लेकर गांव-गांव शिलापूजन तक का मंदिर आंदोलन संघ की ओर से विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल चला रहे थे। भाजपा उनका राजनीतिक चेहरा थी। मंदिर निर्माण के सारे कार्यक्रम अयोध्या में संघ के निर्देशन में चलते थे। लेकिन संघ ने आंदोलन में कभी सीधा हिस्सा नहीं लिया। छह दिसंबर को पहली बार उसने आधिकारिक तौर पर इसमें हिस्सा लिया। संघ के तीन प्रमुख नेता एचवी शेषाद्री, केसी सुदर्शन और मोरोपंत पिंगले तीन दिसंबर से ही वहां डेरा डाले हुए थे। आंदोलन के सारे सूत्र उन्हीं के पास थे। दूसरी तरफ, केंद्र सरकार कोई कड़ा फैसला न करे, राज्य की भाजपा सरकार को बर्खास्त न करे, इसलिए उसे भुलावे में रखा जाए। विवादित ढांचे को पूरी तरह अर्धसैनिक बलों या सेना के हवाले न होने दिया जाए, इसलिए संघ प्रमुख रज्जू भैया ने प्रधानमंत्री नरसिंह राव से बातचीत भी जारी रखी थी। तीन दिसंबर को प्रधानमंत्री नरसिंह राव से उनकी अंतिम बातचीत में तीन मुद्दों पर सहमति बनी। एक, कारसेवा शिलान्यास वाले चबूतरे पर होगी, जो प्रस्तावित मंदिर का सिंहद्वार था। इस प्रतीकात्मक कारसेवा में कारसेवक उस चबूतरे पर सिर्फ एक मुट्ठी बालू डालेंगे। दो, ढांचे के आसपास कोई आ-जा नहीं सकेगा। तीन, किसी प्रकार की तोड़-फोड़ और हिंसा नहीं होगी और प्रतीकात्मक कारसेवा कर चुके कारसेवकों को फौरन अयोध्या से बाहर भेज दिया जाएगा। केंद्र सरकार ने संघ की इस सहमति के बाद ही उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार को अभयदान दिया था। ठीक दो रोज बाद, पांच दिसंबर को, अयोध्या के कारसेवक पुरम् में संघ कुछ दूसरी ही योजना बना रहा था। उस दिन गीता जयंती थी। द्वापर में इसी रोज महाभारत की लड़ाई हुई थी। देश भर से आए संघ के विभाग प्रचारकों और प्रांत प्रचारकों की बैठक थी। इस बैठक में संघ प्रचारकों ने पहली बार माना कि आंदोलन अब उनके हाथ में नहीं रहा। अगर हम प्रतीकात्मक कारसेवा की बात करेंगे तो कोई भी अनहोनी हो सकती है। हो सकता है, कारसेवक हिंसक हो जाएं। जिन कारसेवकों को इस नारे के साथ अयोध्या लाया गया है कि एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो, उन्हें तो मंदिर बनाना है। वे क्या जानें समझौता और कपट संधि! ढाई लाख कारसेवक अयोध्या में जमा थे। नफरत, उन्माद और जुनून से लैस उन्हें जो ट्रेनिंग दी गई थी या जिस भाषा में उन्हें समझाया गया था, उसके चलते अब पीछे हटने को नहीं कहा जा सकता था। कारसेवक मानने को तैयार नहीं थे। तो प्रचारकों की इसी बैठक में तय हुआ कि कारसेवक समूची अयोध्या को सील करें। बाहर से आने वाली सभी सड़कों पर अवरोध खड़ा किया जाए, ताकि कारसेवा के दौरान फैजाबाद में तैनात अर्धसैनिक बलों को अयोध्या आने से रोका जाए। सड़क पर बड़े-बड़े अवरोध खड़े किए गए। जब ध्वंस शुरू हुआ तो इन अवरोधों में आग लगा दी गई। इसे नियोजित साजिश नहीं तो और क्या कहेंगे! कारसेवा दोपहर सवा बारह बजे शुरू होनी थी। पर पौने बारह बजे ही दो अलग-अलग दिशाओं से कारसेवकों ने हल्ला बोल दिया। पथराव शुरू हुआ। संघ का एक गणवेशधारी स्वयंसेवक ढांचे के सामने लगे 'वाच टावर' पर चढ़ गया। वह सीटी बजा और झंडा दिखा कर ध्वंस का निर्देश देने लगा। फौरन कुछ कारसेवक कूद कर ढांचे पर चढ़ गए। वे कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। मार्गदर्शक मंडल के सदस्य रामानंदाचार्य रामानुचार्य लगातार कारसेवकों को उकसा रहे थे। पहले गुंबद के गिरने के बाद उन्होंने कहा- अभी तो यह झांकी है, मथुरा काशी बाकी है। दूसरे सदस्य आचार्य धर्मेंद्र एलान कर रहे थे कि अभी आप अयोध्या न छोड़ें, केंद्र सरकार से निपटने के लिए अयोध्या में बने रहना जरूरी है। अयोध्या में जो हो रहा था उसकी खबर बाहर न पहुंचे, इस इंतजाम में एक अलग टोली लगी थी। अयोध्या की टेलीफोन लाइनें काट दी गर्इं। रामजन्मभूमि में बने पुलिस कंट्रोल रूम के सभी संचार उपकरण उखाड़ दिए गए। यह सब कुछ ढांचे पर हमले के बीस मिनट के भीतर ही हो गया। अगर योजना पहले से नहीं बनी थी, तो कारसेवक पांच घंटे में ढांचे की एक-एक र्इंट कैसे उठा ले गए। ध्वंस के दौरान जो कारसेवक गुंबद से नीचे गिर कर घायल हो रहे थे उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए एक अलग टोली पहले से लगी थी। मैं सात घंटे लगातार ढांचे के सामने सीता रसोई में बैठा इस अपकर्म का साक्षी बनता रहा। पूरे माहौल में न भक्ति थी, न श्रद्धा। छियालीस एकड़ का पूरा इलाका नफरत, उन्माद, विक्षिप्तता और जुनून की गिरफ्त में था। पगलाई भीड़ में निर्माण की जगह विध्वंस की आतुरता थी। मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर हर कोई अमर्यादित था। मैंने पुलिस बलों का ऐसा गांधीवादी चेहरा पहली बार देखा। बेबस और अवाक। सबके मन में एक ही सवाल था, यह सब अकस्मात है या नियोजित? पर माहौल चीख-चीख कर कह रहा था कि कारसेवा के लिए रोज बदलते बयान, झूठे हलफनामे, कपट संधि करती सरकारों के लिए यह सब अकस्मात हो सकता है, पर कारसेवक तो इसी खातिर आए थे। कारसेवकों को वही करने के लिए बुलाया गया था, जो उन्होंने किया। 'ढांचे पर विजय पाने' और 'गुलामी के प्रतीक को मिटाने' के लिए ही तो वे लाए गए थे। विवादित इलाके से सटी इमारत थी मानस भवन। इसकी छत से पूरा पैंसठ एकड़ का इलाका साफ दिखता था। विश्वहिंदू परिषद ने पत्रकारों को यहीं बिठाने का इंतजाम किया था। छत पर कोई एक दर्जन विडियो कैमरे लगे थे। ऊपर से पूरा दृश्य केसरिया था। दूर-दूर तक जन सैलाब। पुलिस के साथ ही आरएसएस के गणवेशधारी स्वयंसेवक भीड़ को नियंत्रित करने की व्यवस्था में लगे थे। ग्यारह बजते-बजते कारसेवकों का सैलाब सारी पाबंदियां नकार कर बैरिकेटिंग पर दबाव बनाने लगा। मानस भवन की छत पर, जहां हम खड़े थे वहां भी, कारसेवकों ने कब्जा जमा लिया। हम नीचे उतर आए और विवादित ढांचे से कोई पचास गज दूर सीता रसोई की छत पर चले गए। यहां पुलिस का कंट्रोल रूम था। इसे मैंने सबसे सुरक्षित जगह माना था, पर कारसेवकों का सबसे पहला हमला यहीं हुआ। सीता रसोई की छत से दिख रहा था कि विवादित ढांचे के भीतर राम चबूतरे पर पूजा-अर्चना चल रही है। तभी एकाएक हडकंप मचा। शेषावतार मंदिर की तरफ से कुछ लोग ढांचे पर पत्थर फेंकने लगे। ढांचे के पीछे की तरफ से भी ऐसा हुआ। देखते-देखते भगदड़ मची। सामने की तरफ से रोकने की लाख कोशिशों के बावजूद कारसेवक कंटीली बाड़ फांद कर ढांचे की बाहरी दीवार और गुंबदों पर चढ़ गए। पूरा माहौल बदल गया। जब तक सुरक्षा बल समझते, तब तक जमा लाखों कारसेवकों का रुख ढांचे की तरफ हो गया। सरकार अयोध्या में एक बार फिर फेल हो गई। बारह बजे तक ढांचा पूरी तरह कारसेवकों के हवाले था। उन्होंने घुसते ही ढांचे के भीतर की हॉटलाइन काटी। फिर तोड़ी गई बैरिकेटिंग के लोहे की पाइप से गुंबदों पर हमला बोला गया। ऊपर गुंबदों पर होने वाले प्रहार से चिनगारियां फूट रही थीं। नीचे कारसेवकों के आक्रोश की चिंगारियों का सामना पत्रकार और फोटोग्राफर कर रहे थे। मानस भवन की छत पर पत्रकारों की पिटाई शुरू हो चुकी थी। दोपहर एक बजे तक ढांचे की बाहरी दीवार ढहाई जा चुकी थी। जिला प्रशासन ने पचास कंपनी अर्धसैनिक बलों की मांग की। वे फैजाबाद से चलीं भी, पर अयोध्या की सीमा पर कारसेवकों ने रुकावट खड़ी कर उन्हें रोक दिया। तीन बजे पुलिस कंट्रोलरूम को मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का संदेश मिला, कारसेवकों पर गोली नहीं चलेगी। गोली के अलावा उनसे निपटने के इंतजाम हों। इससे अर्धसैनिक बलों में दुविधा फैल गई। सुरक्षाबल निष्क्रिय हो गए। कारसेवकों और पुलिस का रिश्ता बदल गया। पुलिस का अहिंसक रवैया देख पूरी कारसेवा तक पुलिस और कारसेवकों के रिश्ते मित्रवत रहे। चार बज कर पचास मिनट पर आखिरी गुंबद गिरा, जिसे विहिप गर्भगृह कहती थी। पूरी रात केंद्र सरकार की संभावित कार्रवाई की सुगबुगाहट के बीच गर्भगृह पर एक चबूतरा बना कर रामलला को फिर से स्थापित कर दिया गया। रातों-रात यहां तक पहुंचने के लिए अठारह सीढियां भी बनाई गर्इं। पंद्रह गुणे पंद्रह फुट के इस चबूतरे पर तीन तरफ से पांच फुट ऊंची दीवार उठा दी गई। यानी यह सब पूर्वनियोजित था। छह दिसंबर नफरत और धार्मिक हिंसा के इतिहास से जुड़ गया। जबकि हमारी परंपरा में धार्मिक प्रतिशोध को कभी जीवन मूल्य नहीं माना गया। हमारी जड़ें परंपरा में और गहरी हैं, जिसे कोई उन्मादी भीड़ नहीं हिला सकती। भावनाओं का विस्फोट विश्वासघात से नहीं होता। क्या इस विश्वासघात से समूचे हिंदू समाज की विश्वसनीयता, वचनबद्धता और जवाबदेही को नुकसान नहीं पहुंचा? यह आत्मनिरीक्षण का दिन है। |
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