अज्ञानता का बवंडर
अज्ञानता का बवंडर
Sunday, 09 December 2012 12:56 |
बेबी कुमारी जनसत्ता 9 दिसंबर, 2012: शंकर शरण के लेख 'हिंदू विवाह और गोत्र' (12 नवंबर) की शुरुआत भारतीय न्याय व्यवस्था में हिंदू धर्मशास्त्रों को जगह न देने की बात से होती है। आगे की संदर्भ-यात्रा में वे खाप पंचायतों और ऐसी अन्य संस्थाओं को हिंदू दृष्टि से देखने पर जोर देते हैं। हमारे समाज में मौजूद खाप पंचायतों और ऐसी तमाम संस्थाओं का सच हर संवेदनशील और जागरूक नागरिक जानता है। लेख का आरंभ दया-मिश्रित दुख से होता है कि इस देश के न्यायविदों और बुद्धिजीवियों को 'अपनी विधि-परंपरा' की जानकारी नहीं है। शंकर शरण जिस विधि परंपरा को बार-बार 'एंग्लो-सैक्शन' कह रहे हैं, वह दरअसल 'एंग्लो-सैक्सन' है। जिन जर्मेनिक कबीलों ने इंग्लैंड को बसाया उनका नाम 'सैक्सन' था, ठीक उसी तरह जैसे फ्रांस को बसाने वालों में 'नॉर्मन' कबीला प्रमुख था। जहां तक भारत के न्यायविदों और बुद्धिजीवियों को यहां की विधि परंपरा की जानकारी न होने की बात है, इस पर इतना कहना पर्याप्त होगा कि इन न्यायविदों और बुद्धिजीवियों से असहमत होना एक बात है, लेकिन यह दावा करना कि उन्हें हिंदू ग्रंथों की कोई जानकारी नहीं है, अहमकाना है। शंकर शरण का यह कहना सही है कि भारतीय संविधान ब्रिटिश सरकार के 1935 के इंडिया एक्ट का ही संशोधित रूप है, लेकिन यह कहना कि भारतीय न्याय प्रणाली में भारतीय धर्मशास्त्रों को शामिल नहीं किया गया, ऐतिहासिक तथ्यों को नकारना है। वास्तव में अंग्रेजों ने अपनी विधि-व्यवस्था को भारत में दो प्रमुख हिस्सों में बांटा- पहला, नागरिक कानून, जो कि सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होता था, और दूसरा, पर्सनल लॉ, जो कि किसी भी व्यक्ति के धर्म और संप्रदाय के अनुसार लागू होता था। पहले में संपत्ति, अपराध और दंड तथा राज्य से नागरिक के संबंध आते थे, जबकि पर्सनल लॉ में विवाह, तलाक आदि जैसे व्यक्तिगत मुद्दे। अंग्रेज जब भारत आए तो शुरू में हुए प्रतिरोध से ही वे समझ गए थे कि भारतीय जनता पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जरूरी है कि साम्राज्यवादी औपनिवेशिक लूट को जारी रखते हुए, उनके व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन के नियमों के साथ छेड़छाड़ न्यूनतम हद तक हो। इसी सोच के तहत उन्होंने अपने कुछ बुद्धिजीवियों को इस काम में लगाया कि वे हिंदू, इस्लामिक, बौद्ध आदि धर्मग्रंथों का अनुवाद करें, भारतीय लोक परंपराओं का अध्ययन करें और प्रशासकों को इनसे परिचित कराएं। 'सूचना और ज्ञान ही शक्ति है' और 'भारत पर शासन करने के लिए भारत को जानो' का नारा अंग्रेज प्रशासकों का सूत्र वाक्य बन गया। ब्रिटिश सरकार ने भारत में अपनी शासन व्यवस्था कायम करने के लिए यहां की संस्कृति का व्यापक स्तर पर अध्ययन करना शुरू किया। यह लोगों की मानसिकता तक पहुंचने का बड़ा प्रभावी और कारगर रास्ता था। उन्होंने धार्मिक ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद किया। 1772 में एंग्लो-हिंदू लॉ बना। इसी समय गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के न्यायिक प्रशासन संबंधी रूपरेखा (प्लान फॉर दी एडमिनिस्ट्रेशन आॅफ जस्टिस) में कहा गया कि सभी ऐसे मामले जो उत्तराधिकार, विवाह, जाति और धार्मिक अनुष्ठानों और संस्थानों से संबद्ध होंगे उन पर मुसलमानों के लिए कुरान के नियम और हिंदुओं के लिए शास्त्रों के नियम लागू होंगे। 1772 से 1864 तक अदालतों में पंडितों और मौलवियों को रखा जाता रहा ताकि उनसे परामर्श लिए जाते रहें और जनता में असंतोष न फैले। आजादी के बाद भी हिंदू और मुसलिम पर्सनल लॉ का अस्तित्व बना हुआ है और शादी और तलाक जैसे मसलों पर पूंजीवादी 'तर्कसंगत' राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम है। जिस तथाकथित 'अपनी विधि-परंपरा' की बात शंकर शरण कर रहे हैं वह क्लासिकीय हिंदू लॉ है, जो हमेशा अपने व्यवहार में विविध और विभिन्न जातियों, व्यावसायिक समूहों और जगहों के अनुसार बदलता रहा है। इसका सामान्य स्रोत सामुदायिक है, इसलिए यह विकेंद्रीकृत भी है। ये कानून विभिन्न व्यावसायिक समूहों, सौदागरों के मुखियों और जाति प्रधानों ने अपनी जरूरतों के अनुसार बनाए। हां, एक और बात, एंग्लो-सैक्सन लॉ के बारे में उन्होंने कहा है कि ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस आदि देशों के कानून धर्म के आधिकारिक संरक्षक हैं। विश्व इतिहास की जानकारी रखने वाला हर व्यक्ति जानता है कि यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन, प्रबोधन और उसके बाद हुई पूंजीवादी जनवादी क्रांतियों के पहले राज्य, विधि और चर्च का संगम मौजूद था, लेकिन इन क्रांतियों के बाद राज्य और विधि के कार्यों से धर्म और चर्च को पूरी तरह से काट दिया गया। यह कहना गलत होगा कि पश्चिमी देशों के कानून उन देशों के प्रमुख धर्म के संरक्षक हैं। आगे वे 'हिंदू जनता' और 'भारतीय मनीषा' के लिए परेशान नजर आते हैं। प्रश्न है कि यह 'हिंदू जनता' कौन है और 'संपूर्ण भारतीय मनीषा' किन लोगों की रही है? दरअसल, हिंदुत्व की जो अवधारणा आज है वह प्राक्-औपनिवेशिक संस्कृत साहित्य में कहीं नहीं मिलती। ब्रिटिश सरकार ने इसे जिस रूप में लिया उसी रूप में आज भी लिया जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजी भाषा में 'हिंदुत्व' या 'हिंदुइज्म' शब्द धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद के बाद आया। दरअसल, उससे भी पहले जो शब्द आया वह था 'जेण्टू', जिसे बाद में अंग्रेजों ने 'हिंदू' में बदला। यह शब्द भारत की धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराओं का सूचक था। क्या शंकर शरण आजीविकों, चार्वाक दर्शन, लोकायत दर्शन, सांख्य दर्शन को भी हिंदू परंपरा का अंग मानते हैं? अगर हां, तो उनके लिए कुछ बेहद असुविधाजनक विरोधाभास खड़े हो जाएंगे! अपनी बात को सिद्ध करने के लिए संदर्भ देना बुरी बात नहीं है, लेकिन समस्याओं के हल के लिए वर्तमान को अतीत की ओर मोड़ना अवैज्ञानिक दृष्टि है। समस्याओं को उनके ऐतिहासिक विकास के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। सगोत्रीय विवाह को खारिज करते हुए वे कुछ बातें भूल गए हैं। जैसे सात पीढ़ियों के बाद आठवीं पीढ़ी में सगोत्रीय विवाह की अनुमति, ब्रह्मा और सरस्वती प्रसंग। सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री थीं और दोनों सौ सालों तक पति-पत्नी के रूप में रहे। इनकी संतानों- स्वयंभूमरु और सतर्पा ने आपस में शादी कर ली। और 'नियोग-विधि', जिसमें पति के न रहने पर या क्लैव्य में पत्नी देवर से और उसके भी अभाव में गुरु-पुरोहित के संयोग से पुत्र प्रसव करती थी। आज चिकित्सा विज्ञान खून के रिश्तों में शादी को सही नहीं मानता तो इसका एकमात्र कारण है आनुवंशिक रोगों की समस्या। जिस समय सगोत्रीय विवाह प्रतिबंधित किए गए, लोग छोटे-छोटे समूहों में रहते थे। जीवन इतना विविध और जटिल नहीं था। आज समाज अपने विकास के चरम पर है। आज अगर कोई ऐसी बातें कहता और सोचता है तो यह उसकी बौद्धिकता पर प्रश्नचिह्न है। वास्तव में, सगोत्रीय विवाहों के एक दौर में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में निषिद्ध होने का एक कारण किसान संपत्तियों के विघटन को रोकना भी था। जिन इलाकों में छोटी, मंझोली जोतों की कृषि-अर्थव्यवस्था पैदा हुई वहां सगोत्रीय विवाहों पर रोक लगनी शुरू हुई। मगर आज भी कई क्षेत्रों में विस्तारित परिवार के भीतर सगोत्रीय विवाह को हिंदू ज्यादा पवित्र मानते हैं। विगोत्र विवाह के प्रमाण में लेखक बार-बार अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानों और इतिहासकारों का हवाला देते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि किस विद्वान या इतिहासकार ने कहां ऐसा कहा है। प्रेम या विवाह हमेशा दो व्यक्तियों का निजी मसला रहा है। खाप या ऐसी तमाम संस्थाएं रुग्ण मानसिकता और सामंती अवशेषों की पोषक हैं। पूरे हिंदू धर्म को एक एकाश्मी धर्म के रूप में प्रदर्शित करने की शंकर शरण की कोशिश अज्ञानतापूर्ण है। आज की संकटग्रस्त दुनिया में जब हमारा मुंह आगे की ओर होना चाहिए, शंकर शरण अतीत की ओर मुंह करके खड़े हैं। |
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