निवेशकों की पहली पसंद उग्र हिंदुत्व, बाजार के लिए पूरे देश को अब गुजरात बनाने की तैयारी!
पहले चरण के आर्थिक सुधारों का इतिहास उग्र धर्मोन्माद की कथा है, तो जाहिर है कि दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के लिए फिर इतिहास दुहराया जाना है। आडवाणी की रथयात्रा ने बाजार का अश्वमेध शुरू किया तो फिर भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में बुरीतरह फंसे भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की जगह फिर लौहपुरूष लालकृष्ण आडवाणी संघ परिवार की राजनैतिक कमान संभालने जा रहे हैं। नरेंद्र मोदी तो संघ परिवार की ओर से प्रधानमंत्रित्व का सबसे उजला चेहरा पेश है ही, जिसे अब अमेरिका, इजराइल और इंग्लैंड का अनुमोदन भी मिल गया है। इस मिशन को कामयाब बनाने में बाजार और मीडिया की तमाम ताकतें एकजुट हैं।बाजार को नैतिकता की कितनी परवाह है? ।बाजार की ही महिमा अपरंपार है कि जहां हर युवती के लिए उसकी वर्जिनिटी जिंदगी से भी कीमती चीज होती है, वहीं एक युवती ने खुलेआम इसका सौदा किया है। उसने चैरिटी के लिए अपनी वर्जिनिटी की बोली लगाई है। मजे की बात यह है कि इस नीलामी में एक भारतीय ने जापानी व्यक्ति को तगड़ी चुनौती पेश की है। मगर बाजी जापानी व्यक्ति के हाथ ही लगी।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
खुले बाजार की व्यवस्था में नैतिकता गैरप्रासंगिक है। नैतिकता सिखाने वाले धर्म भी दरअसल एक अर्थव्यवस्था है। बहिष्कार, अलगाव और नरसंहार की अर्तव्यवस्था। इसलिए अनुदार, सांप्रदायिक धर्मांध राष्ट्रवाद खुले बाजार के लिए सर्वोत्तम परिवेश का निर्माण करता है।पहले चरण के आर्थिक सुधारों का इतिहास उग्र धर्मोन्माद की कथा है, तो जाहिर है कि दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के लिए फिर इतिहास दुहराया जाना है। आडवाणी की रथयात्रा ने बाजार का अश्वमेध शुरू किया तो फिर भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में बुरीतरह फंसे भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की जगह फिर लौहपुरूष लालकृष्ण आडवाणी संघ परिवार की राजनैतिक कमान संभालने जा रहे हैं। इसी बीच पता चला है कि निवेशकों की पहली पसंद उग्र हिंदुत्व है। बाजार के लिए पूरे देश को अब गुजरात बनाने की तैयारी है। कांग्रेस के फ्लाप शो के मुकाबले मीडिया और कारपोरेट इंडिया ने भ्रष्टाचार विरोधी बवंडर खड़ा करके दुबारा आडवाणी की ताजपोशी का रास्ता साफ कर दिया है। नरेंद्र मोदी तो संघ परिवार की ओर से प्रधानमंत्रित्व का सबसे उजला चेहरा पेश है ही, जिसे अब अमेरिका, इजराइल और इंग्लैंड का अनुमोदन भी मिल गया है। इस मिशन को कामयाब बनाने में बाजार और मीडिया की तमाम ताकतें एकजुट हैं।बाबरी विध्वंस के लिए कुख्यात कल्याण सिंह की भी भाजपा मे वापसी तय है। उमा भारती की घर वापसी हो चुकी है। अटल बिहारी वाजपेयी मार्का उदारता और धर्मनिरपेक्षता का चोला उतारकर संघ परिवार भाजपा की नये सिरे से उग्र हिंदुत्व ब्रांडिंग में लगी है।असम का ट्रेलर चल ही चुका है।कास खबर यह है कि गुजरात में विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार के संबंधों में अटकलों पर विराम लगाते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शुक्रवार को कहा कि अपनी पूर्व की व्यस्तताओं के मद्देनजर वह चुनाव प्रचार करने गुजरात नहीं जा पायेंगे।जाहिर है कि सत्ता में भागेदारी भारी बला है। राजग के वर्तमान और भावी सहयोगियों ने भी उग्र हिंदुत्व का दामन थाम लेने में बेहतर भविष्य देख रहे हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस तथा देशव्यापी सांप्रदायिक दंगों के बाद मिली चुनावी सफलता के कारण इस स्व-आविष्कारित हिंदुत्व को उग्र हिंदुत्व के नाम से मान्यता प्रदान कर दी गई तथा इसे सत्ता प्राप्ति का मूल मंत्र मान लिया गया ।असल में, भाजपा जिस उग्र हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वैचारिकी पर आधारित राजनीति करती है, उसमें उसके पास दागियों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुखौटे के पीछे छुपाने की अवसरवादी सुविधा है।
निवेश आकर्षित करने के मामले में गुजरात देश के अन्य राज्यों से आगे रहा है। उद्योग मंडल एसोचैम के सर्वेक्षण के अनुसार, जून, 2012 के अंत तक गुजरात को 14.8 लाख करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव मिले।सर्वेक्षण में कहा गया है कि गुजरात के वित्त, विनिर्माण, रीयल एस्टेट तथा सिंचाई क्षेत्र में निवेश के प्रस्ताव प्राप्त हुए हैं। एसोचैम के महासचिव डी. एस. रावत ने कहा कि निजी निवेश का प्रवाह निवेश अवसरों के आकर्षण पर निर्भर करता है। यह मुख्य रूप से मुनाफे को देखकर तय किया जाता है।एसोचैम के अध्ययन में कहा गया है कि जून, 2012 तक देश के विभिन्न राज्यों को कुल 140 लाख करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव मिले। इसमें 14.8 लाख करोड़ रुपये के साथ गुजरात की हिस्सेदारी 10.6 फीसद रही।गुजरात को मिले कुल निवेश प्रस्तावों में से 10.3 लाख करोड़ रुपये के प्रस्ताव निजी क्षेत्र को तथा 4.5 लाख करोड़ रुपये के प्रस्ताव सरकारी क्षेत्र को प्राप्त हुए हैं।दूसरी ओर, इस साल जून तक राबर्ट वाड्रा की वजह से चर्चा में आये हरियाणा में हुए कुल 4.5 लाख करोड़ रुपये निवेश में निजी क्षेत्र की भागीदारी करीब 87 प्रतिशत रही है। यह बात एसोचैम के एक विश्लेषण में सामने आई है। निजी क्षेत्र से निवेश आकर्षित करने में झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश अन्य अग्रणी राज्य हैं। इन राज्यों में होने वाले कुल निवेश में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत से अधिक होती है। भारत में हुए कुल निजी निवेश में हरियाणा की हिस्सेदारी 4.8 प्रतिशत से अधिक रही है।
गुजरात विधानसभा के चुनाव अपने दम पर लड़ने की घोषणा करनेवाले एनडीए के घटक दल जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने वड़ोदरा में आयोजित पत्रकार परिषद में केन्द्र सरकार पर कड़े प्रहार करते हुए कहा कि देश के कुल वार्षिक बजट से आधी रकम का भ्रष्टाचार हुआ है। नरेन्द्र मोदी के बारे में पूछे गए सवाल का टालते हुए शरद यादव ने कहा कि वे किसी व्यक्ति के बारे में बयानबाजी नहीं करेंगे। उन्होंने नरेन्द्र मोदी और नितिश कुमार से सम्बंधित किसी भी प्रश्नों का इंकार देते हुए स्पष्ट किया कि जेडीयू गुजरात में किसी के साथ गठबंध नहीं करेगा। उन्होंने गुजरात में आदिवासियों की स्थिति को खराब बताते हुए कहा कि जेडीयू उनके हितों को प्राथमिकता देगा।भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के आरोपों और उनके इस्तीपेâ के बारे में सवाल के जवाब में शरद यादव ने कहा कि गडकरी पहले ही स्वयं जांच की मांग कर चुके हैं और जांच शुरू भी हो चुकी है। पत्रकार परिषद में जेडीयू के गुजरात प्रभारी गिरिराज सिंघवी और झगडिया के जेडीयू विधायक छोटूभाई वसावा समेत अन्य पार्टी नेता उपस्थित रहे।
ब्रिटेन के एक प्रमुख समाचार पत्र ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ संबंध जोड़ने का निर्णय करने पर ब्रिटेन और अन्य देशों को सलाह देते हुए आज लिखा है कि उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए की पुनर्वास वर्ष 2002 के नरसंहार में आग में घी का काम करने वाले वर्चस्ववाद से प्रेरित राष्ट्रवाद जैसी चीजों के लिए लाइसेंस नहीं है। अपने संपादकीय में कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए 'द फाइनेंशियल टाइम्स' ने कहा है कि इस वक्त (मोदी के साथ काम करने के ब्रिटेन के निर्णय) पर बड़ा सवालिया निशान है । यह ऐसे वक्त पर हुआ है जब दिसंबर में गुजरात में चुनाव होने वाले हैं और उनमें मोदी के जीत की संभावनाएं प्रबल हैं। अखबार ने लिखा है कि उनकी नई अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता से मोदी का बहुमत बढ़ सकता है। पहचान भारत में वर्ष 2014 में होने वाले आम चुनावों में भी उनकी संभावनाओं को बढ़ा सकता है, जहां उन्हें संभावित प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। इस संपादकीय का शीषर्क था 'गुजरात का शर्म, पुनर्वास मोदी सरकार को दोष मुक्त नहीं करती'। अखबार ने लिखा है कि मोदी, गुजरात के मुख्यमंत्री, भारत के सबसे सक्रिय और उद्योग-समर्थकों में से एक हैं। लेकिन 10 वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनसे किनारा किया जा रहा है क्योंकि वह एक क्षेत्रीय सरकार के हिन्दू राष्ट्रवादी हैं जिसपर दंगों में लिप्त होने का आरोप है। इन दंगों में अनुमानत: 2,000 मुसलमान मारे गए थे।
पिछले 15 साल से गुजरात में भाजपा की सरकार है और इन वर्षों में गुजरात ने आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में भारी प्रगति की है। गुजरात की सफलताएँ इतनी प्रभावशाली हैं कि सारे देश की निगाहें गुजरात पर ही जमी हुई हैं और अन्य राज्य उसे अपने लिए उदाहरण के तौर पर देख रहे हैं। मुख्य बात यह भी है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी इस महत्त्वाकांक्षा को छुपाने की रत्ती भर भी कोशिश नहीं करते कि उनकी निगाहें प्रधानमंत्री पद पर टिकी हुई हैं और वे अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने की पूरी कोशिश करेंगे।अगर नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो इसका गहरा असर न केवल भारत की घरेलू राजनीति पर पड़ेगा, बल्कि भारत की विदेशनीति भी काफ़ी बदल जाएगी। नरेन्द्र मोदी का नाम सन् 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम नरसंहार से जुड़ा हुआ है और उन्होंने आज तक इसका खंडन नहीं किया है। इसलिए नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से न सिर्फ़ भारत के अन्दर विभिन्न सम्प्रदायों के बीच आपसी सामाजिक सम्बन्ध जटिल हो जाएँगे बल्कि इस्लामी दुनिया के साथ भी भारत के आपसी सम्बन्धों पर बुरा असर पड़ेगा। यह भी माना जा रहा है कि मोदी के केन्द्र में सत्तारूढ़ होने से भारतीय-अमरीकी सम्बन्धों पर भी बुरा असर पड़ेगा। अमरीका मोदी को स्वीकार नहीं करना चाहता और कई बार उन्हें अमरीका का वीजा देने से इन्कार किया जा चुका है।
उग्र हिंदुत्व को समझने के लिए, हमें भारत में उसकी जड़ों के साथ ही उसके विदेशी संबंधों-प्रभावों की पड़ताल करनी होगी। 1930 में हिंदू राष्ट्रवाद ने 'भिन्न' लोगों को 'दुश्मनों' में रूपांतरित करने का विचार यूरोपीय फ़ासीवाद से उधार लिया। उग्र हिंदुत्व के नेताओं ने मुसोलिनी और हिटलर जैसे सर्वसत्तावादी नेताओं तथा समाज के फ़ासीवादी मॉडल की बार-बार सराहना की। यह प्रभाव अभी तक चला आ रहा है (और इसकी वजह वे सामाजिक-आर्थिक कारण हैं जो अब तक मौजूद हैं)। मजेदार बात यह है कि स्वदेशी और देशप्रेम की चिल्ल-पों मचाने वाले लोग, खुद विदेशों से राजनीतिक-और-सांगठनिक विचार लेकर आए या उनके स्पष्ट प्रभाव में रहे हैं।हिंदुत्ववादी नेताओं ने फासीवाद, मुसोलिनी और इटली की तारीफ में 1924-34 के बीच 'केसरी' में ढेरों संपादकीय व लेख प्रकाशित किए। संघ के संस्थापकों में से एक मुंजे 1931 में मुसोलिनी से मिल कर आया था। और वहीं से लौट कर "हिंदू समाज" के सैन्यीकरण का खाका तैयार किया। इस संबंध में 'इकोनॉमिकल एंड पोलिटिकल वीकली' के जनवरी 2000 अंक में मारिया कासोलारी का शोधपरक लेख प्रकाशित किया गया था, जिसमें कासोलारी ने आर्काइव/दस्तावेजों से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इस लेख में बताया गया है कि किस तरह सावरकर से लेकर गोलवलकर तक ने हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार की सराहना की थी। यह शोध हिंदुत्व बिग्रेड पर हिटलर-मुसोलिनी के स्पष्ट प्रभाव और विचारों से लेकर तौर-तरीकों घृणा फैलाने वाले प्रचार तंत्र तक में विदेशी फासिस्टों की नकल को तथ्यों सहित साबित करता है। आमतौर पर संघी संगठनों के प्रचार से भले ही यह समझा जाता है कि हिंदू महासभा और संघ करीबी नहीं रहे, विशेषकर सावरकर के समय में उन्होंने संबंद्ध विच्छेद कर दिया था; लेकिन कासोलारी ने तथ्यों-सबूतों के साथ प्रमाणित किया है कि वे कभी अलग नहीं हुए। और दोनों ही समय समय पर हिटलर द्वारा नस्लीय सफाए को जायज ठहराते रहे और भारत में भी उसी से प्रेरणा लेने की बात करते रहे।
सूत्रों के मुताबिक वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया जा सकता हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का जाना अब लगभग तय है। दूसरा कार्यकाल तो बिल्कुल नहीं, संभावना है कि पहला कार्यकाल भी पूरा न कर पाएं। दरअसल पार्टी नेतृत्व के साथ-साथ संघ को भी इसका अहसास हो गया है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर समझौता हुआ तो पार्टी के अंदर विरोध मुखर हो सकता है। शायद यही कारण है कि अब तक साथ खड़े संघ ने भी दूरी बनाते हुए बयान जारी कर गडकरी को परोक्ष संकेत दे दिया है। भाजपा इस मामले को लेकर सख्त दिखाई दे रही हैं। भाजपा को चिंता है कि हिमाचल और गुजरात के चुनावों पर इसका सीधा असर पड़ सकता हैं।यह कटु सत्य है कि नितिन गडकरी की अध्यक्षता में बीजेपी विपक्ष की भूमिका ठीक से नहीं निभा पा रही। किसी मुद्दे पर पार्टी के तेवर कभी गरम पड़ते हैं, तो कभी नरम। दरअसल, बीजेपी को जो भी फायदा होना होता है, वह 'पारिवारिक रार' से नुकसान में बदल जाता है। राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी न तो अंदरूनी कलह को रोक पाए, न ही अपनी लड़खड़ाती जुबान को और न ही वह आरोपों से बच पाए। इस बार कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे, लेकिन बीजेपी इसे भुनाने में इसलिए नाकाम रही कि खुद उसके अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भी गंभीर आरोप हैं। ऐसे में राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से गडकरी की विदाई की रूप रेखा मात्र बाकी है। साथ ही नए अध्यक्ष को लेकर भी शुरूआती चर्चा शुरू हो गई है।खबर है कि बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश की है। गडकरी पिछले कुछ दिनों से बिजनेस में गड़बड़ियां करने के गंभीर आरोपों से जूझ रहे हैं। हमारे सहयोगी समाचार चैनल टाइम्स नाउ ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि गडकरी ने अपने पद छोड़ने की पेशकश की है। मीडिया में एक के बाद एक हो रहे खुलासों के बाद पद छोड़ने के लिए पड़ रहे चौतरफा दबाव के बीच नितिन गडकरी शुक्रवार को नई दिल्ली पहुंचे। उन्होंने बीजेपी के सबसे बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी के घर जाकर उनसे मुलाकात की। इसके बाद गडकरी के घर पर बीजेपी के सीनियर नेताओं की बैठक शुरू हुई। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने आज कहा कि उनकी जन क्रांति पार्टी का भाजपा में भावी विलय देश में राष्ट्रवादी ताकतों को एकजुट करने के उद्देश्य से किया जाएगा। सिंह ने यहां संवाददाताओं से बातचीत में एक सवाल पर कहा कि उनका भाजपा में जाने के पीछे कोई राजनीतिक स्वार्थ नहीं है, बल्कि यह तो राष्ट्रवादी ताकतों को एकजुट करने के मकसद किया जा रहा है। जन क्रांति पार्टी में भाजपा का विलय विचाराधारा का सम्मिलन है। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी भाजपा से गठबंधन नहीं करेगी बल्कि उसमें विलीन हो जाएगी।संघ ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति या संगठन किसी अवैध गतिविधि में लिप्त है तो उसके खिलाफ निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और जो दोषी पाये जाएं, अवश्य दंडित हों। उसने कहा कि उसे गडकरी को लेकर चल रहे विवाद से कोई लेना देना नहीं है। इस विवाद पर बयान जारी करते हुए संघ ने कहा कि वह संगठन (संघ) को इस विवाद में घसीटने के प्रयासों से दुखी है। संघ के सरकार्यवाह भय्याजी जोशी ने कहा कि हमें इन विवादों में संघ का नाम घसीटे जाने के प्रयासों से काफी अफसोस है। जोशी का यह बयान उन मीडिया खबरों के बाद आया है, जिनमें दावा किया गया है कि संघ गडकरी के बचाव की कोशिश कर रहा है।
आयकर विभाग ने मामले की जांच के लिए कॉरपोर्ट मामलों के मंत्रालय से संपर्क किया है। अखबार के मुताबिक प्रवर्तन निदेशालय मनी लॉन्डरिंग एक्ट के तहत मामले की जांच कर सकता है। रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज के पास जमा दस्तावेज से ये खुलासा हुआ है कि गडकरी ने पूर्ति में निवेश करने वाली कई कंपनियों को अनसिक्योर्ड लोन दिया है। घाटकोपर ईस्ट मुंबई में रजिस्टर्ड कंपनी अपडेट मर्केंटाइल के पास पूर्ति ग्रुप के 29 लाख शेयर्स हैं। इस कंपनी को 2009-10 में 80 लाख रुपये से ज्यादा का अनसिक्योर्ड लोन मिला था जिसमें से साढ़े 14 लाख रुपये खुद नितिन गडकरी ने दिया था। आयकर विभाग के एक शीर्ष अधिकारी ने मुंबई में अपनी पहचान छुपाने की शर्त पर कहा कि हम कंपनियों में वित्त पोषण के स्रोत का पता लगाएंगे। इनमें वे 18 कंपनियां भी शामिल हैं जिन्होंने पूर्ति में निवेश किया है।
राहुल गांधी जल्द ही कांग्रेस पार्टी और सरकार में 'बड़ी भूमिका' निभाने जा रहे हैं। पार्टी नेताओं की ओर से उनकी 'ज्यादा बड़ी भूमिका' की मांग को देखते हुए ऐसी चर्चा है कि कांग्रेस महासचिव को कार्यकारी अध्यक्ष या पार्टी उपाध्यक्ष बनाया जा सकता है। हालांकि यह साफ नहीं हो पाया है कि राहुल सरकार में शामिल होंगे या नहीं लेकिन इस बात के साफ संकेत हैं कि उनकी टीम के युवा चेहरों को संभवत: रविवार को होने वाले कैबिनेट फेरबदल में मौका दिया जाएगा। कैबिनेट फेरबदल के करीब आने के साथ ही गांधी के मंत्रिमंडल में शामिल होने की अटकलें तेज हो गई हैं। रविवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल में व्यापक फेरबदल की चर्चा के बीच विदेश मंत्री एम. एम. कृष्णा ने इस्तीफा दे दिया है। खबर है कि केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी को भी सरकार से हटा कर संगठन में अहम जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।इस्तीफे के कारणों का अभी पता नहीं चला है लेकिन माना जा रहा है कि रविवार को होने वाले फेरबदल में उन्हें पद से हटाया जा सकता था।कांग्रेस पार्टी के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक कृष्णा को कर्नाटक कांग्रेस में अहम जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। कृष्णा वोक्कालिगा हैं जो प्रदेश के जातिगत समीकरणों के लिहाज से खासी ताकतवर जाति मानी जाती है। कृष्णा प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। ऐसे में प्रदेश कांग्रेस में उनकी भूमिका पार्टी के लिए खासी अहम साबित हो सकती है।समाचार चैनल टाइम्स नाउ ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी को भी मंत्रिमंडल से हटना पड़ सकता है। लेकिन, यह उनके लिए बुरी नहीं बल्कि अच्छी खबर होगी क्योंकि उन्हें संगठन में अहम जानकारी दी जाएगी। सूत्रों के मुताबिक अंबिका सोनी को चुनावों से जुड़ी जिम्मेदारी सौंपी जानी है और वह सीधे सोनिया गांधी से मार्गनिर्देशन में काम करेंगी। इसका मतलब यह भी है कि कांग्रेस में सर्वोच्च स्तर पर शक्ति समीकरण अगले कुछ दिनों में बदलते दिख सकते हैं।
गुजरात विधानसभा चुनावों में बीजेपी नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में हैट-ट्रिक लगाते हुए फिर सत्ता हासिल कर सकती है। इंडिया टुडे और ओआरजी के ऑपिनियन पोल में यह दावा किया गया है। पोल के मुताबिक अपनी ईमानदार और विकास पुरुष की छवि के बलबूते वह गुजरात में बीजेपी को तीसरी बार सत्ता दिलाने में सफल रहेंगे, वहीं कांग्रेस पिछले चुनावों से बदतर हालत में रहेगी।
बीजेपी को 11 सीटों का फायदा: पोल के मुताबिक 2007 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले बीजेपी को शानदार सफलता मिलेगी। 180 की विधानसभा में वह 11 सीटों की बढ़ोतरी के साथ 128 सीटें हासिल करेगी। हालांकि बीजेपी के वोट प्रतिशत में गिरावट आएगी। यह 2007 में 49 पर्सेंट के मुकाबले 3 पर्सेंट घटकर 47 रह जाएगा। ऑपिनियन पोल के मुताबिक इन चुनावों में कांग्रेस को बड़ा झटका लगेगा और वह 11 सीटों के नुकसान के साथ 48 पर सिमट जाएगी।
राहुल, नीतीश, सुषमा से आगे मोदी: पोल में पाया गया कि गुजरात में तो मोदी का जलवा बरकरार है ही, राज्य के अधिकतर वोटर उन्हें पीएम पद पर देखना चाहते हैं। पोल में गुजरात के 56 पर्सेंट वोटरों ने राय दी कि वह मोदी को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते हैं। उन्हें कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का विकल्प भी दिया गया था। पोल में जब लोगों से पूछा गया कि वह बीजेपी में पीएम पद के लिए किसे चुनना चाहेंगे तो 56 पर्सेंट ने मोदी को चुना। सुषमा स्वराज 9 पर्सेंट के साथ दूसरे नंबर पर रहीं। 60 पर्सेंट वोटरों ने माना की अगर मोदी पीएम बनते हैं, तो गुजरात के विकास को नई दिशा मिलेगी। यहां गौर करने लायक बात यह है कि चूंकि पोल गुजरात में किया गया, इसलिए मोदी के प्रति उनका झुकाव समझा जा सकता है।
मगर मुस्लिम अभी भी खफा: पोल के मुताबिक मोदी मुस्लिमों का दिल अभी भी नहीं जीत पाए हैं। पोल में 61 पर्सेंट मुस्लिम वोटरों ने कहा कि वह मोदी के लिए वोट कतई नहीं करेंगे। हालांकि मोदी के बारे में उनकी राय आश्चर्यजनक रूप से अलग थी। 58 पर्सेंट का मानना था कि मोदी गुजरात दंगों लिए जिम्मेदार नहीं हैं। वहीं 54 पर्सेंट ने माना कि मोदी उनके समुदाय के लिए निष्पक्ष रहे हैं। पोल में 43 पर्सेंट मुस्लिमों ने कहा कि कांग्रेस राज्य में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने वाली पार्टी है। वहीं 41 पर्सेंट इससे असहमत थे। यह पोल गुजरात की 36 विधानसभा क्षेत्रों में किया गया। इसमें पांच हजार 40 वोटर शामिल हुए।
बाजार को नैतिकता की कितनी परवाह है? वैश्विक कारोबारी फलक पर अपनी चमक बिखेरने वाले भारतीय मूल के अमेरिकी रजत गुप्ता को भेदिया कारोबार के मामले में 2 साल की सजा को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया देखने को मिली है। उद्योग जगत के दिग्गजों ने जहां इस सजा को गलत बताते हुए गुप्ता के योगदान का गुणगान किया है। वहीं मैनहटन के शीर्ष संघीय अभियोजक प्रीत भरारा ने गोल्डमैन सैक्स के पूर्व निदेशक को सुनाई गई सजा को 'दुखद घड़ी' करार देते हुए कहा है कि इससे दूसरे लोग सबक लेंगे और संवेदनशील कारोबारी जानकारियां लीक करने से बचेंगे।बाजार की ही महिमा अपरंपार है कि जहां हर युवती के लिए उसकी वर्जिनिटी जिंदगी से भी कीमती चीज होती है, वहीं एक युवती ने खुलेआम इसका सौदा किया है। उसने चैरिटी के लिए अपनी वर्जिनिटी की बोली लगाई है। मजे की बात यह है कि इस नीलामी में एक भारतीय ने जापानी व्यक्ति को तगड़ी चुनौती पेश की है। मगर बाजी जापानी व्यक्ति के हाथ ही लगी।एक ब्राजील की युवती ने जैसे ही अपनी वर्जिनिटी की नीलामी का ऐलान किया खरीददारों की लाइन लग गई। वो भी केवल ब्राजील के नहीं देश- विदेश के खरीदार पंक्ति में खड़े हो गए, लेकिन जापान ने इस नीलामी में जीत हासिल की।यह किसी हॉलीवुड या एडल्ट मूवी की स्टोरी नहीं बल्कि हकीकत है। 20 वर्षीय ब्राजील की युवती कैटारिना मिग्लोरिनी ने अपनी वर्जिनिटी के लिए ऑनलाइन नीलामी का ऐलान किया और सौदा 7 लाख 80 हजार डॉलर में एक जापानी ग्राहक नात्सु के साथ पक्का कर लिया। इस सौदे में जापान के नात्सु की टक्कर भारत के रुद्र चटर्जी और अमेरिकी जैक मिलर व जैक राइट से थी। फिजिकल एजुकेशन की यह छात्रा के अनुसार वह इस पैसे का उपयोग गरीब परिवारों के लिए आवास निर्माण में करेगी। कैटारिना ने कहा कि वर्जिनिटी बेचने से मिले पैसे से वो घर बनाएगी और कुछ पैसा घर की जरूरतों को पूरा करने में खर्च करेगी।गौरलतब है कि वर्जिनिटी खरीदने वाले जापानी नात्सु को 7 लाख 80 हजार डॉलर चुकाने के बावजूद कुछ शर्तो का पालन करना होगा। शर्तो के बारे में आपको बता दें कि कंडोम का इस्तेमाल जरूरी होगा। कैटारिना खुद को वर्जिन साबित करने के लिए किसी भी तरह के टेस्ट को तैयार रहेंगी।ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच उड़ते जहाज में कैटारिना नात्सु को सौंप दी जाएगी और सेक्स डेट से पहले और बाद में कैटारिना का इंटरव्यू होगा और शूटिंग भी होगी। इस पूरे प्रकरण पर डॉक्यूमेंटरी फिल्म वर्जिन वाटेड बन रही है। इस फिल्म के लिए कैटारीना ने ऑस्ट्रेलिया के एक फिल्म निर्माता के साथ करार किया है और इसके कैटारिना को अच्छे खासे पैसे मिलेंगे।लेकिन इस अनूठी नीलामी का ब्राजील ही नहीं पूरी दुनिया में विरोध हो रहा था। विरोधियों का कहना है कि कैटारिना महज लोकप्रियता पाने के लिए ऐसा काम कर रही है। जबकि एक अखबार के इंटरव्यू में कैटारिना ने कहा, यह नीलामी बस एक बिजनेस है वैसे मैं रोमांटिक लड़की हैं और प्यार में विश्वास रखती हैं।
कैटारिना से बहुत पीछे नहीं हैं भारतीय बाजार की देसी कन्याएं!मॉडल और बिकनी गर्ल पूनम पांडे ने अब एक बार फिर अपनी जुबां से धमाका किया है। पूनम ने ट्विटर एक मैसेज में लिखा है, उन्होंने एक एडल्ट फिल्म साइन की है, जिसमें काफी मसालेदार दृश्य होंगे। इस फिल्म का निर्देशन अमित सक्सेना कर रहे हैं। गौर हो कि अमित सक्सेना ने ही फिल्म जिस्म-2 का निर्देशन किया था। हालांकि पूनम ने अपनी इस फिल्म टाइटल का खुलासा नहीं किया है, बस मैसेज में इतना लिखा है कि उनकी आने वाली फिल्म सिर्फ तीन अक्षरों से शुरू होती है। जिसका पहला अक्षर ए है, दूसरा अक्षर एच है जिसके लिए उन्होंने लिखा है एच फॉर हैबिट और तीसरा अक्षर है एस यानी सेक्स।यहां बता दें कि हैबिट से तात्पर्य है कि किसी चीज को आदत में शुमार करना और सेक्स का मतलब तो विदित ही है। हालांकि पूनम ने पहले दो अक्षरों `ए` और `एच` का खुलासा किया था। बकौल पूनम, सेक्स की लत एक अलग तरह की आदत जैसा है। बहुत लोग सेक्स की लत के शिकार होते हैं और इसके बिना उनका मूड अजीब हो जाता है। पूनम का कहना है कि सत्तर के दशक के मध्य में जिस तरह यह कहा जाता था कि शराब के नशे के लिए लोग कुछ भी कर सकते हैं, यही बात आज के जमाने में सेक्स के लिए लागू होती है। लोग इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।पूनम पांडेय कहती हैं कि सेक्स या किसी और चीज की चाहत के साथ कुछ बाते हो सकती हैं। पहली- आप इसे पसंद करते हैं, फिर इसके लिए कुछ न कर पाने की स्थिति में होते हैं और उसके बाद आपकी चाहत इतनी बढ़ जाती है कि इसके लिए आप कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाते हैं। पूनम ने फैंस को आश्वस्त करते हुए कहा कि उनकी फिल्म में काफी सेक्स दृश्य हैं। हालांकि इस मॉडल ने यह भी कहा कि यह एक एडल्ट फिल्म है लेकिन इसकी कहानी बहुत अच्छी है।
गुजरात नरसंहार के दस साल—--राम पुनियानी
साम्प्रदायिक दंगों से हमारा देश अपरिचित नहीं है। सन् 1961 में जबलपुर से शुरू होकर सन् 2008 में कंधमाल तक – भारत ने सैकड़ों छोटे-बड़े दंगों को देखा-भोगा है। धर्म के नाम पर हजारों मासूमों ने अपनी जानें गवाईं हैं। भारत में साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास में गुजरात का सन् 2002 का कत्लेआम एक बदनुमा दाग है। गुजरात के पहले, सन् 1984 में देश के काफी बड़े हिस्से में सिक्खों के विरूद्ध भयावह हिंसा हुई थी। बाबरी मस्जिद के ढ़हाए जाने के बाद देश भर में मुसलमानों को हिंसा का निशाना बनाया गया था और उड़ीसा में पास्टर ग्राहम स्टेन्स और उनके दो अवयस्क बच्चों को जिंदा जला दिया गया था। परंतु गुजरात कत्लेआम, गुणात्मक व संख्यात्मक-दोनों ही दृष्टियों से उसके पूर्व हुई साम्प्रदायिक हिंसा से भिन्न था।
सबसे पहले साबरबती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आगजनी के लिए गोधरा स्टेषन के आसपास रहने वाले मुसलमानों को दोषी ठहराया गया और बाद में पूरे प्रदेश में मुसलमानों पर हिंसक हमले शुरू कर दिए गए। तर्क यह था कि हिन्दुओं की भावनाओं को चोट पहुंची है और वे इसका बदला ले रहे हैं। जिला अधिकारियों की सलाह के विपरीत, गोधरा आगजनी के शिकार हुए लोगों के शवों को जुलूस में अहमदाबाद की सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद विहिप ने बंद का आव्हान किया और हिंसा शुरू हो गई। गुजरात दंगे, संघ परिवार की सोशल इंजीनियरिंग का नमूना थे। असहाय, निर्दोष मुसलमानों के साथ मारकाट के लिए दलितों और आदिवासियों का इस्तेमाल किया गया। पूरे मुस्लिम समुदाय के चेहरे पर कालिख पोतने की भरपूर कोशिश की गई। जहां इसके पहले साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस की भूमिका ज्यादा से ज्यादा मूक दर्शक की रहती थी वहीं गुजरात में पुलिस और शासकीय तंत्र ने हिंसा में सक्रिय भागीदारी की।
गुजरात की भाजपा सरकार अपनी मनमानी कर सकी, इसका एक कारण यह था कि उस समय केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन सत्ता में था। भाजपा के सहयोगी दलों ने अपने सत्ता प्रेम के चलते अपना मुंह खोलने की जहमत भी नहीं उठाई। मोदी ने अपने अधिकारियों को पहले ही यह निर्देश दे रखा था कि वे हिन्दुओं की "बदले की कार्यवाही" को न रोकें। स्थितियां कितनी खराब थीं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के समाजवादी आंदोलन के एक देदिप्यमान नक्षत्र, जार्ज फर्नाडीस ने अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के खिलाफ हिंसा को नजरअंदाज करने की नसीहत देते हुए यह तक कह डाला कि दंगों के दौरान बलात्कार तो होते ही हैं, इसमें कोई खास बात नहीं है। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व और दंगाईयों को और क्या चाहिए था? वे पूरे जोशोखरोश से खून बहाने के अपने कुत्सित खेल में जुटे रहे। गुजरात हिंसा में महिलाओं ने जो कष्ट भोगे उनका वर्णन शब्दों में करना कठिन है। उनके जननांगों को निशाना बनाया गया और उन्हें हर तरह से शर्मिंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
गुजरात कत्लेआम के मुख्य प्रायोजक नरेन्द्र मोदी ने कहा कि दंगों पर तीन दिनों के भीतर नियंत्रण पा लिया गया और भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने इस "उपलब्धि" के लिए उनकी पीठ भी थपथपाई। जबकि तथ्य यह है कि दंगें काफी लंबे समय तक जारी रहे व दंगाईयों को नियंत्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। राज्य की भाजपा सरकार का दृष्टिकोण और व्यवहार शर्मनाक था। राहत व पुनर्वास के काम में भी साम्प्रदायिक आधार पर भेदभाव किया गया। अल्पसंख्यकों को नाममात्र का मुआवजा दिया गया और उन्हें राहत शिविरों से बहुत जल्द खदेड़ दिया गया। राहत शिविर "बच्चों के उत्पादन केन्द्र" बन गए हैं, ऐसा बेहूदा आरोप तक लगाया गया। गुजरात में अल्पसंख्यकों के बारे में पूर्वाग्रहों का नंगा प्रदर्शन हुआ। ऐसा वातावरण बना दिया गया कि अल्पसंख्यक अपने घरों को न लौट सकें। जो लोग अपने घरों में वापस जाना चाहते थे उनसे लिखित में यह वायदा करने को कहा गया कि वे उनके खिलाफ हुई हिंसा के बारे में पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं कराएंगें और यदि उन्होंने कोई एफआईआर दर्ज करा दी है तो उसे वापिस ले लेंगें। वैसे भी, पुलिस ने अधिकांश मामलों में या तो एफआईआर दर्ज ही नहीं की और या फिर उसमें इतनी कमियां छोड़ दीं कि आरोपी आसानी से बच निकले। इस वातावरण में दंगा पीड़ितों के लिए न्याय पाने की बात सोचना भी असंभव था। राज्यतंत्र के साम्प्रदायिकीकरण व पुलिस और न्यायपालिका के पूर्वाग्रहपूर्ण रवैये के चलते, उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और दंगों से संबंधित मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर के न्यायालयों में करवाने के आदेश देने पड़े।
राज्य की पुलिस, नरेन्द्र मोदी के विरूद्ध निष्पक्ष जांच करेगी-ऐसा मानने का कोई कारण नहीं था और इसलिए विशेष जांच दल नियुक्त किया गया। दुर्भाग्यवश, यह दल भी कुछ विशेष नहीं कर सका। अनियंत्रित हिंसा के ज्वार और उसके बाद राज्यतंत्र के पक्षपातपूर्ण रवैये के चलते राज्य में मुसलमान स्वयं को अत्यंत असुरक्षित अनुभव करने लगे। उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उन्हें न तो कोई नौकरी देने को तैयार था और न ही उनके साथ व्यापार करने को। अहमदाबाद के जुहापुरा इलाके की विशाल मलिन बस्ती, राज्य में दोनों समुदायों के बीच खड़ी हो गई मजबूत दीवार का प्रतीक है। मुसलमानों के घर-बार उजड़ जाने और काम-धंधे बंद हो जाने से उनके सामने पेट भरने की समस्या उठ खड़ी हुई। अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए न तो उनके पास संसाधन थे और न ही सुविधाएं।
मीडिया के एक हिस्से ने नरेन्द्र मोदी का महिमामंडन किया। यह इसके बावजूद कि उच्चतम न्यायालय ने उन्हें अल्पसंख्यकों के पूजास्थलों की सुरक्षा न कर पाने का दोषी ठहराया और राज्य सरकार ने तीस्ता सीतलवाड सहित कई लोगों पर झूठे मुकदमे लाद दिए। ये वे लोग हैं जिन्होंने गुजरात दंगा पीड़ितों को न्याय दिलवाने के लिए लंबी और कठिन लड़ाई लड़ी। बहुसंख्यकों का बड़ा तबका मोदी का अनुयायी बन गया। हिन्दुओं को अपनी मुट्ठी में करने के बाद मोदी ने विकास का मायाजाल बुनना शुरू किया। गुजरात को बर्बाद कर देने वाले मोदी के प्रचारतंत्र ने उन्हें विकास पुरूष का दर्जा देना शुरू कर दिया। राज्य सरकार ने बड़े पूंजीपतियों को भारी अनुदान दिए और इन्हीं पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित मीडिया, दिन-रात मोदी का स्तुतिगान करने लगा। उनकी छवि एक ऐसे महानायक की बनाने की कोशिश होने लगी जिसने गुजरात को विकास के रास्ते पर न भूतो न भविष्यति गति से आगे बढ़ाया है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में उनकी भूमिका को जनता के दिमाग से मिटाने की भरपूर कोशिश की गई।
इस घनघोर अंधेरे में भी रोशनी की कुछ किरणें थीं। कुछ दंगा पीड़ितों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने न्याय के लिए संघर्ष जारी रखा। हिंसा के दोषियों को बचाने के हर संभव प्रयास-जिनमें गवाहों को पक्षद्रोही बना देना शामिल था-के बावजूद ये लोग न डरे और न पीछे हटे। जहां एक ओर साम्प्रदायिक ताकतों का शक्तिशाली प्रचारतंत्र और राज्य सरकार अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की हर संभव कोशिश करती रही है वहीं प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूती देने के प्रयास भी साथ-साथ जारी हैं। अदालती निर्णयों के अलावा सामाजिक संगठनों ने भी मोदी का असली चेहरा जनता के सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि आज भी गुजरात में वे स्थितियां नहीं हैं जो कि एक प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष देश के हर हिस्से में होनी चाहिए परंतु समाज और सामाजिक कार्यकर्ताओं का स्वर धीरे-धीरे ऊंचा हो रहा है और उस उदारवादी सोच को पुनर्जीवित करने की हरचंद कोशिशें हो रही हैं जो किसी भी सभ्य समाज के लिए अपरिहार्य हैं। केवल समय ही बताएगा कि इस "हिन्दू राष्ट्र" में प्रजातंत्र की वापिसी होती है या नहीं। (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
Source:http://hastakshep.com/?p=1521
गुजरात नरसंहार का एक दशक
(07:22:16 AM) 27, Feb, 2012, Monday
चिन्मय मिश्र
गुजरात नरसंहार का एक दशक बीत गया। साबरमती एक्सप्रेस में 27 फरवरी 2002 को लगी या लगाई गई आग की लपटों में उस दिन तो 59 यात्री जले थे लेकिन उसके बाद हुई तथाकथित स्वस्फूर्त हिंसा में 298 दरगाह, 205 मस्जिदें, 17 मंदिर और 3 चर्च नष्ट कर दिए थे। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 61,000 मुसलमान और 10,000 हिन्दू इन दंगों में बेघर हुए थे। ये सभी सरकारी आंकड़े हैं लेकिन इस सबके बीच कुछ और सरकारी आंकड़ों पर गौर करना आवश्यक है। इनके अनुसार वर्ष 2002 के दंगों में आधिकारिक रूप से 1200 व्यक्तियों के मारे जाने की बात स्वीकारी गई है, जिसमें से 950 मुसलमान थे। दंगे रोकने की प्रयिा में पुलिस की गोलीबारी से कुल 170 मौतें हुई और इसमें से 93 मुसलमान थे और 77 हिन्दू। क्या इन आंकड़ों को किसी और विश्लेषण की आवश्यकता है?
एक दशक बाद महज आंकड़ों पर नहीं स्थितियों पर गौर करना आवश्यक है। गुजरात के पर्यटन विभाग की वेबसाइट खोलते ही ध्यानस्थ गांधीजी की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। थोड़ा और विस्तार में जाए तो पर्यटन विभाग आपको एक 'गांधी सर्किट' की भ्रमण यात्रा का प्रस्ताव भी देता है। इस सर्किट में गांधीजी से संबध्द अनेक स्मारकों में उनके जन्म स्थान से लेकर कर्म भूमि तक को शामिल किया गया है। लेकिन जमीनी हकीकत एकदम उलट नजर आती है। इसका नवीनतम उदाहरण गुजरात सरकार द्वारा हाल ही पारित वह कानून है जिसके अंतर्गत अन्य समुदाय की बहुलता वाले क्षेत्र में संकट या जोखिम की स्थिति में दूसरे या अल्प संख्या वाले समुदाय के व्यक्ति द्वारा निजी सम्पत्ति के विय किये जाने पर रोक लगा दी गई है। क्या यह नाजियों द्वारा यहूदियों को घेरे जाने की याद नहीं दिलाता? साथ ही इस कानून के बन जाने के बाद क्या साम्प्रदायिक धु्रवीकरण और मजबूत नहीं होगा?
मगर गांधी के प्रदेश और देश में साम्प्रदायिक सौहार्द और आपसी तालमेल से विवादों को निपटाने के बारे में सोचना भी शायद अब गैरजरुरी मान लिया गया है। गुजरात में सन् 1969 में हुए भयानक दंगों ने वहां के अनेक शहरों को अपनी चपेट में लिया था और गांधी जन्म शताब्दी पर वहां के अनेक शहर कर्यू की चपेट में थे। लेकिन इन दंगों को राजकीय प्रश्रय प्राप्त नहीं था। इसके बाद देशभर में हुए सन् 1984 के सिख विरोधी दंगे और सन् 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद हुए दंगों को कहीं न कहीं आंशिक सरकारी प्रश्रय अवश्य ही था। गुजरात दंगों की ही तरह इन दोनों दंगों को लेकर भी स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं है। पिछले एक दशक में कोई बड़ा साम्प्रदायिक संघर्ष तो सामने नहीं आया लेकिन सम्प्रदायों के बीच अविश्वास और तनाव लगातार बढ़ता गया। बस्तियां अलग होती गई और नए किस्म का साम्प्रदायिक धु्रवीकरण बनता चला गया।
बाबरी मस्जिद के टूटने के साथ बढ़ता साम्प्रदायिक वैमनस्य सन् 2002 में एक नए चरम पर पहुंचा। इसके बाद से विभाजन रेखा साफ नजर आ रही है। सर्वोच्च न्यायालय एवं अन्य न्यायालयों ने समय-समय पर गुजरात दंगों और मुख्यमंत्री को लेकर जो टिप्पणियों की हैं उसके बाद भी उनका पद पर बना रहना साफ दर्शा रहा है कि भारत की समकालीन राजनीति की दशा और दिशा क्या है? अब लोग सार्वजनिक तौर पर द्वितीय श्रेणी की नागरिकता की वकालत करते नजर आने लगे हैं। यह दंगों से भी यादा खतरनाक है लेकिन राजनीतिज्ञों ने भी अपनी हदें तय कर ली हैं। तभी तो गुजरात दंगों के एक दशक बीत जाने के बाद लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं और उनकी बस्ती के पीछे बनाया गया ट्रेंचिंग ग्राउंड अब एक पहाड़ की शक्ल ले चुका है तथा इससे निकलने वाली दुर्गंध यहां के रहवासियों को न सिर्फ अपने सगे संबंधियों की मौत को नहीं भूलने दे रही बल्कि उस दिन उनकी जली लाखों से उठी बदबू को भी उनकी स्मृति से लोप नहीं होने देना चाहती। इतना ही नहीं गुजरात के मुख्यमंत्री फरवरी 2002 के दंगों की सफाई में पिछली शताब्दियों के साम्प्रदायिक संघर्षों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर, क्या इन दंगों को न्यायोचित ठहराना चाहते हैं? यदि हम पिछले एक दशक का मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि हमारा सबसे कायराना कृत्य यह रहा है कि हम न्याय के लिए सिर्फ और सिर्फ न्यायालयों पर निर्भर हो गए। जबकि इस बुराई का प्रतिकार तो सामाजिक स्तर पर ही किया जा सकता था। लेकिन अफसोस इन दंगों के खिलाफ तात्कालिक सामाजिक व राजनीतिक प्रतियिा तो हुई लेकिन कोई ठोस विकल्प सामने नहीं आया। आजादी के तुरंत बाद हुए दंगों को जिस नैतिक साहस से महात्मा गांधी ने रोका था उससे हमने कोई सबक नहीं लिया। पिछले एक दशक में अनेक सरकारी, न्यायिक, सामाजिक जांच आयोगों ने इन दंगों की विवेचना की। न मालूम कितने विशेष जांच दल बने। कई मामलों में दोषियों को सजा मिली। कई मामलों में लोग बेदाग भी छूट गए। लेकिन साम्प्रदायिकता के खिलाफ सामुहिक संघर्ष शुरु नहीं हो पाया। हम सब आज भी मुंह बाए सर्वोच्च न्यायालय की ओर देख रहे हैं लेकिन उसकी नैतिक मदद करने आगे नहीं आ रहे।
पिछला एक दशक वास्तव में 'शर्म का दशक' है। आवश्यकता इस बात की है कि हड़प्पा सभ्यता से लेकर गांधी की शांति यात्रा से सबक लेकर नए दशक में सकारात्मक प्रतिरोध प्रशस्त किया जाए।
http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/2755/10/11
मोदी में महर्षि वाल्मी की आत्मा: भाजपा में खलबली
Published By aawaz-e-hind.in.|Online News Channel on Friday, 3 August 2012 | 04:56
मोकर्रम खान
ख़बर है कि पिछले कई माह से पूरे राज्य में सद्भावना कार्यक्रम चला रहे गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिये सुझाव दिये हैं. इससे यूपीए सरकार द्वारा प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल का पुरजोर विरोध कर रही भाजपा में खलबली मच गई है.भाजपा नेताओं ने मोदी को सलाह दी है वे जल्दबाजी दिखा रहे हैं, इतनी जल्दबाजी न दिखायें.यह चेतावनी भी दी है कि उनके इस कृत्य से मोदी को दिल्ली का ताज तो पता नहीं मिलेगा या नहीं किंतु गुजरात अवश्य उनके हांथ से निकल जायगा. बात असल यह है कि भाजपा नेता उन्हें गुजरात का शेर कहते रहे हैं.किसी मनुष्य के लिये शेर शब्द का प्रयोग उसे वीर प्रदर्शित करने के लिये किया जाता है किंतु शेर का एक अर्थ नर-भक्षी भी होता है क्योंकि शेर के सामने मनुष्य प्रजाति का कोई भी सदस्य चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, बच्चा हो या बूढ़ा, यदि आ जाय शेर उसे फाड़ कर खा ही जाता है,किसी कीमत पर जि़दा नहीं छोड़ता.शेर का यह भी स्वभाव है कि वह अपनी शक्ति का प्रयोग कमजोर जानवरों के शिकार के लिये करता है. भाजपा तथा आरएसएस के लोग मोदी को शेर क्यों कहते हैं, यह तो वही जानें क्योंकि गुजरात में तीसरी बार मुख्यमंत्री बने नरेंद्र मोदी की वीरता दिखाने का अवसर कब मिला, यह अनुसंधान का विषय है.उनके कार्यकाल में गुजरात में न तो कोई विदेशी आक्रमण हुआ न ही नरेंद्र भाई ने किसी मल्ल-युद्ध में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया, न किसी अपराधी को दौड़ा दौड़ा कर पीटा. हां, उनके मुख्यमंत्रित्व में 2002 में गुजरात में भीषण दंगे हुये थे जिनमें कई व्यक्तियों को जीवित अवस्था में आग में डाल कर जला दिया गया,महिलाओं तथा अबोध बालिकाओं के साथ सामूहिक दुराचार हुये, कितनी हत्यायें हुई, कितने लोग अनाथ तथा बेघर हो गये. दंगा कार्यक्रम कई दिनों तक चलता रहा. आरोप है कि नरेंद्र मोदी ने पीडि़तों की सहायता नहीं की बल्कि शासकीय तंत्र को दंगाइयों को खुली छूट देने के अप्रत्यक्ष आदेश दिये.इसी कारण दंगों की भयावहता में वृद्धि हुई.इन सांप्रदायिक उपद्रवों के कारण विदेशों में भारत की काफी आलोचना हुई तथा देश के छवि को गहरा आघात लगा किंतु धन्य हैं आरएसएस तथा भाजपा के नेता जिन्होंने इस कलंक को गौरव के रूप में लिया तथा नरेंद्र मोदी को गुजरात का शेर घोषित कर दिया.वैसे यह जंगली शेर का ही स्वभाव होता है कि वह नरभक्षी तथा हृदय विहीन होता हैं जो अपने से कमजोर व्यक्ति या पशु पर अपने बल का प्रयोग कर उसे मौत के घाट उतार देता है, उसके शरीर का पूरा मांस मिनटों में उतार कर कंकाल छोड़ देता हैं.संभवत:आरएसएस तथा भाजपा नेताओं को नरेंद्र मोदी में यही गुण दिखे और उन्होंने मोदी को शेर की पदवी दे दी.मोदी भी इस उपाधि का पा कर गदगद थे.आरएसएस को मोदी की टक्कर का दूसरा कोई कठोर व्यक्तित्व वाला मनुष्य पूरे देश में नहीं मिला.मोदी के पहल लालकृष्ण आडवाणी कट्टर हिंदुत्व वादी के रूप में स्थापित थे. उनके गृह-मंत्रित्व तथा उप प्रधान मंत्रित्व में उग्र हिंदुत्व को जितना प्रोत्साहन मिला तथा एक समुदाय विशेष के लोगों को टाडा जैसा कानून बना कर कुचला गया उससे आरएसएस को ऐसा लगने लगा कि आडवाणी ही इस देश से अल्पसंख्यकों का समूल उन्मूलन कर इसे हिंदू राष्ट्र बना सकते हैं इसलिये आरएसएस ने 2004के लोकसभा चुनावों के पूर्व ही आडवाणी को प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री घोषित कर दिया.जब देश की जनता ने कट्टर हिंदुत्व को अस्वीकार कर आडवाणी को बुरी तरह नकार दिया तब शायद आरएसएस को लगा कि आडवाणी उतने कट्टर तथा आक्रामक नहीं हैं जितने नरेंद्र मोदी.आडवाणी के अंदर अपेक्षित संहारक क्षमता भी नहीं है. आयु में भी वे नरेंद्र मोदी से लगभग डेढ़ गुना ज्यादा हैं.बीच में आडवाणी ने अपनी जन्म भूमि पाकिस्तान जा कर भारत विभाजन के जिम्मेदार तथा पाकिस्तान निर्माता जिन्ना की समाधि पर श्रद्धा-सुमन अर्पित किये और उनकी प्रशंशागीत भी गाये.आडवाणी की इस हरकत से उनकी धार्मिक कट्टरता की शुद्धता पर सवालिया निशान लग गया.आरएसएस के नेता क्रोधित हो गये.मोदी के रूप में आडवाणी से बेहतर विकल्प भी उपलब्ध था इसलिये आडवाणी को कंपलसरी रिटायरमेंट दे दिया गया और अगले लोकसभा चुनाव – 2014 हेतु नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया गया. अब वे आरएसएस की एकमात्र आशा हैं जो आरएसएस के सपनों को पूरा कर सकते हैं.
किसी भी व्यक्ति को यदि प्रमोशन मिलने की उम्मीद हो जाय तो वह उसे पाने के लिये यथा संभव प्रयास करता है. कई लोग प्रमोशन की प्रत्याशा में धोती कुर्ता छोड़ कर सूट पहनने लगते हैं. दाढ़ी या तो मुंडवा देते हैं या छोटी करा लेते हैं.युवा दिखने के लिये बाल काले करा लेते हैं.हाव भाव में परिवर्तन लाने के लिये पर्सनालिटी डेवलपमेंट क्लासेस ज्वाइन कर लेते हैं.नरेंद्र मोदी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है.उनके अंदर भी प्रधान मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ने सर उठा लिया है. पिछले 05 सालों में कई राज्यों में चुनाव हुये, जहां जहां नरेंद्र मोदी को नहीं जाने दिया गया वहां वहां एनडीए को अच्छी सफलता मिली और जहां जहां जाने दिया गया वहां असफलता.इसलिये भाजपा नेताओं ने उन्हें गुजरात तक सीमित कर दिया, दूसरे प्रदेशों में जाने पर अघोषित रोक लगा दी किंतु नरेंद्र मोदी की प्रधान मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पर रोक कौन लगायेगा. उत्तरोत्तर प्रगति का प्रयास करना मनुष्य का स्वभाव है. इसके लिये कई लोग अपने निकट संबंधियों को भी धक्का दे कर आगे बढ़ जाते हैं. कई युवक सुंदर तथा धनवान कन्या से अंतर्जातीय विवाह करने के लिये मां-बाप को ठुकरा देते हैं, कई तो धर्म परिवर्तन तक कर लेते हैं. संभवत: नरेंद्र मोदी 3 बार मुख्य मंत्री बन कर गुजरात से उकता चुके हैं,अब उन्हें प्रधान मंत्री की कुर्सी चाहिये.इसके लिये चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करानी पड़े या लुक बदलना पड़े या कुछ और करना पड़े. वैसे शायद नरेंद्र मोदी के शरीर में महर्षि वाल्मीकि की आत्मा प्रवेश कर गई है. महर्षि वाल्मीकि, महर्षि बनने से पहले लोगों को कष्ट पहुंचा कर अपने परिवार के सदस्यों के लिये सुख सुविधायें उपलब्ध कराते थे. एक बार एक साधु ने उनसे कहा कि तुम्हारे परिजन तुम्हारी कमाई का आनंद उठाते हैं, उनसे पूछ कर आओ कि क्या वे तुम्हारे पापों के दंड में भी भागीदार बनेंगे. वाल्मीकि ने अपने परिजनों से पूछा, उन्होंने साफ इनकार कर दिया. वाल्मीकि को ज्ञान प्राप्त हो गया, वे बहुत रोये, अपराध जगत को तिलांजलि दे दी, सन्मार्ग अपना लिया और महर्षि बन गये.मोदी तो पढ़े लिखे समझदार तथा परिपक्व व्यक्ति हैं, उन्हें किसी से पूछने की भी आवश्यकता नहीं है. वह स्वयं जानते हैं कि उनके निकटस्थ आरएसएस तथा भाजपा के नेता जो उनकी कठोर छवि तथा आक्रामक शैली का लाभ उठा कर गुजराज जैस संपन्न राज्य में सत्ता सुख प्राप्त कर रहे हैं, न तो ईश्वर के यहां उनके दंड में भागीदारी निभायेंगे और न ही इस धरती पर सत्ताविहीन हो जाने पर उनसे सहानुभूति दिखायेंगे. ये सब केवल ''सुख के सब साथी, दुख में न कोई'' वाले मित्र हैं. मोदी को यह कठोर सत्य समझ में आ चुका है. उन्होंने अपने अंदर से हिटलर की आत्मा को निकाल फेंका है और उसकी जगह महर्षि वाल्मीकि की आत्मा को स्थापित कर लिया है. अब उनके हाव-भाव, कार्यशैली, वाणी सब में परिवर्तन आ चुका है. अब वह लगे हैं 2002 के दंगों के कलंक से मुक्ति पाने के लिये. वे अपने कपड़ों तथा माथे पर लगे खून के धब्बों से छुटकारा चाहते हैं, चाहे इसके लिये कपड़े बदलने पड़ें या चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करानी पड़े. मोदी अपनी छवि में परिवर्तन हेतु निरंतर प्रयत्नशील हैं. पूरे राज्य में सदभावना कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं, सदभावना फैलाने के लिये उपवास रखने जैसा तप कर रहे हैं. अब वे किसी समुदाय विशेष के लिये विष वमन नहीं करते बल्कि अपने राज्य में उनकी अधिक तरक्की एवं खुशहाली का दावा करते हैं.उनके सदभावना कार्यक्रम में मंच पर दाढ़ी टोपी वालों की अच्छी खासी तादाद रहती है, तिलक कमंडल वालों की कम.संभवत: पहली बार उन्होंने उर्दू मीडिया को इंटरव्यू दिया है और उसमें अपने आप को फांसी पर चढ़ा देने तक का प्रस्ताव दे दिया हैं, यह शर्त अवश्य जोड़ दी है कि यदि वे दंगों के दोषी पाये जायें तो. फिर भी नरेंद्र मोदी का अल्पसंख्यकों के पक्ष में बोलना, उर्दू मीडिया को इंटरव्यू देना तथा इतनी बेबाक बातें कहना, संसार के आठवें आश्यर्च से कम नहीं है. लगता है सचमुच मोदी के अंदर महर्षि वाल्मीकि की आत्मा प्रवेश कर गई है. मोदी के इस शैली परिवर्तन से भाजपा नेताओं में खलबली मच गई है क्योंकि जो बरसों से भाजपा के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुये है और शीर्ष सत्ता सुख प्राप्ति का स्वप्न संजोये हुये हैं,इनमें कई ऐसे भी हैं जिन्होंने चुनाव लड़ कर विधिवत निर्वाचित होने का जोखिम मोल नहीं लिया, चुपचाप पिछले दरवाजे से संसद में दाखिल हो गये,ऐसे लोगों के सपनों का क्या होगा. जब नरेंद्र मोदी जैसे डिक्टेटर राष्ट्रीय राजनीति में आ जायेंगे तो इनमें से कई को बोरिया बिस्तर समेटना पड़ सकता है क्योंकि नरेंद्र मोदी के स्वभाव तथा कार्यशैली से भाजपा नेता भली भांति परिचित हैं.गुजरात में नरेंद्र मोदी ही शासक,प्रशासक तथा पार्टी हाई कमान हैं, उनके विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा सकता. वे बुलडोजर हैं, सबको कुचलते हुये आगे बढ़ जाते हैं इसलिये भाजपा नेता उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में नहीं आने देना चाहते, उन्हें गुजरात तक ही सीमित रखना चाहते हैं, भले ही आरएसएस की एकमात्र आशा नरेंद्र मोदी ही हैं जो इस देश का अन्य धर्म विहीन हिंदू राष्ट्र बना सकते हैं.
लेखक - मोकर्रम खान, वरिष्ठ पत्रकार/राजनीतिक विश्लेषक
पूर्व निजी सचिव, केंद्रीय शहरी विकास राज्य मंत्री.
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e-mail : unsoldjournalism@gmail.com
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