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Saturday, October 20, 2012

असुरों के वंशज ही अपने पूर्वजों के नरसंहार का उत्सव में निष्णात!

असुरों के वंशज ही अपने पूर्वजों के नरसंहार का उत्सव में निष्णात!

भारत के राष्ट्रपति हिंदू हैं और कुलीन ब्राह्मण। उनेक राष्ट्रपति बनने पर बांग्ला मीडिया ने इस पर बहुत जोर दिया। क्यों?राष्ट्रपति के हिंदुत्व पर दुनियाभर का मीडिया फोकस कर रहा है। अखबर नहीं निकल रहे हैं तो क्या, संवाददाताओं और कैमरामैन प्रणव​ ​ मुख्रजी की पूजा कवर करने के लिए तैनात हैं। क्या यही धर्म निरपेक्ष भारत की सही छवि है?मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के तमाम सहयोगी पूजा उद्घाटन में व्यस्त हैं।मंत्री, सांसद, विधायक पूजा कमिटियों के कर्ता धर्ता हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है।

पलाश विश्वास

उत्तरी बंगाल में आज भी असुरों के उत्तराधिकारी हैं। जो दुर्गोत्सवके दौरान अशौच पालन करते हैं। उनकी मौजूदगी साबित करती है कि महिषमर्दिनी दुर्गा का मिथक बहुत पुरातन नहीं है। राम कथा में दुर्गा के अकाल बोधन की चर्चा जरूर है, पर वहां  वे महिषासुर का वध करती नजर नहीं ​​आतीं। जिस तरह सम्राट बृहद्रथ की हत्या के बाद पुष्यमित्र के राज काल में तमाम महाकाव्य और स्मृतियों की रचनी हुई प्रतिक्रांति की जमीन तैयार करने के लिए। और जिस तरह इसे हजारों साल पुराने इतिहास की मान्यता दी गयी, कोई शक नहीं कि अनार्य प्रभाव वाले आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर के तमाम शासकों के हिंदूकरण की प्रक्रिया को ही महिषासुरमर्दिनी का मिथक छीक उसी तरह बनाया गया , जैसे शक्तिपीठों के जरिये सभी लोकदेवियों को सती के अंश और सभी लोक देवताओं को भैरव बना दिया गया। वैसे भी बंगाल का नामकरण बंगासुर के नाम पर हुआ। ​​बंगाल में दुर्गापूजा का प्रचलन सेन वंश के दौरान भी नहीं था। भारत माता के प्रतीक की तरह अनार्य भारत के आर्यकरण का यह मिथक ​​निःसंदेह तेरहवीं सदी के बाद ही रचा गया होगा। जिसे बंगाल के सत्तावर्ग के लोगों ने बांगाली ब्राहमण राष्ट्रीयता का प्रतीक बना दिया।​​विडंबना है कि बंगाल की गैरब्राह्मण अनार्य मूल के या फिर बौद्ध मूल के बहुसंख्यक लोगों ने अपने पूर्वजों के नरसंहार को अपना धर्म मान ​​लिया। बुद्धमत में कोई ईश्वर नहीं है, बाकी धर्ममतों की तरह। बौद्ध विरासत वाले बंगाल में ईश्वर और अवतारों की पांत अंग्रेजी हुकूमत के ​​दौरान बनी, जो विभाजन के बाद जनसंख्या स्थानांतरण के बहाने अछूतों के बंगाल से निर्वासन के जरिये हुए ब्राह्मण वर्चस्व को सुनिश्चित​ ​ करने वाले जनसंख्या समायोजन के जरिये सत्तावर्ग के द्वारा लगातार मजबूत की जाती रहीं। माननीय दीदी इस मामले में वामपंथियों के चरण चिन्ह पर ही चल रही हैं।

भारत के राष्ट्रपति हिंदू हैं और कुलीन ब्राह्मण। उनेक राष्ट्रपति बनने पर बांग्ला मीडिया ने इस पर बहुत जोर दिया। क्यों?राष्ट्रपति के हिंदुत्व पर दुनियाभर का मीडिया फोकस कर रहा है। अखबर नहीं निकल रहे हैं तो क्या, संवाददाताओं और कैमरामैन प्रणव​ ​ मुख्रजी की पूजा कवर करने के लिए तैनात हैं। क्या यही धर्म निरपेक्ष भारत की सही छवि है?मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के तमाम सहयोगी पूजा उद्घाटन में व्यस्त हैं।मंत्री, सांसद, विधायक पूजा कमिटियों के कर्ता धर्ता हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी हर साल की तरह इस साल भी नवरात्रि के मौके पर पश्चिम बंगाल के बीरभूमि जिले के मिरीती गांव में मौजूद अपने पैतृक निवास जा रहे हैं। बीरभूमि के जिलाधिकारी ने जानकारी दी है कि मुखर्जी शनिवार को दोपहर में कोलकाता से 240 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद अपने गांव हेलीकॉप्टर से पहुंचेंगे। तय कार्यक्रम के मुताबिक राष्ट्रपति 23 अक्टूबर तक अपने पैतृक गांव में रहेंगे। मुखर्जी अपने गांव में दुर्गापूजा में बतौर मुख्य पुजारी शामिल होंगे। प्रणब के करीबी लोग अंदाजा लगा रहे हैं कि शायद प्रणब खुद प्रोटोकॉल तोड़कर गांव वालों के बीच घुलेंगे मिलेंगे और पूजा करेंगे। प्रणब पश्चिम बंगाल के हैं और वहां दुर्गापूजा का अलग ही महत्‍व है। बंगाल की जया भादुड़ी बच्‍चन भी हैं और वह भी मुंबई में बंगाली अंदाज में ही दुर्गापूजा मनाती हैं। लेकिन इस बार वह ऐसा नहीं कर पाएंगी।


तनिक इस पर भी गौर करें!

महिषमर्दिनी (बक्रेश्वरम्). अधि विकिपीडिया, एकः स्वतन्त्रविश्वविज्ञानकोश. गम्यताम् अत्र : पर्यटनम्, अन्वेषणम्. महिषमर्दिनी (बक्रेश्वरम्) एतत् पीठं भारतस्य पश्चिमबङ्गालस्य बदहाममण्डले विद्यमानेषु शक्तिपीठेषु अन्यतमम् ।

दुर्गा पार्वती का दूसरा नाम है। हिन्दुओं के शाक्त साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है) । वेदों में तो दुर्गा का कोई ज़िक्र नहीं है, मगर उपनिषद में देवी "उमा हैमवती" (उमा, हिमालय की पुत्री) का वर्णन है । पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है । दुर्गा असल में शिव की पत्नी पार्वती का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था -- इस तरह दुर्गा युद्ध की देवी हैं । देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं । मुख्य रूप उनका "गौरी" है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप । उनका सबसे भयानक रूप काली है, अर्थात काला रूप । विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं । कुछ दुर्गा मन्दिरों में पशुबलि भी चढ़ती है । भगवती दुर्गा की सवारी शेर है ।'उग्रचण्डी' दुर्गा का एक नाम है। दक्ष ने अपने यज्ञ में सभी देवताओं को बलि दी, लेकिन शिव और सती को बलि नहीं दी। इससे क्रुद्ध होकर, अपमान का प्रतिकार करने के लिए इन्होंने उग्रचंडी के रूप में अपने पिता के यज्ञ का विध्वंस किया था। इनके हाथों की संख्या १८ मानी जाती है। आश्विन महीने में कृष्णपक्ष की नवमी दिन शाक्तमतावलंबी विशेष रूप से उग्रचंडी की पूजा करते हैं।

बाजारविरोधी दीदी के मां माटी मानुष राज में बाजार बम बम है और चहुं दिशाओं में धर्मध्वजा लहरा रहे हैं।नवजागरण के समय से बंगाल ​​में विज्ञान और प्रगति की चर्चा जारी है। नवजागरण के मसीहा जमींदारवर्ग से थे या फिर अंग्रेजी हुकूमत के खासमखास।ज्ञान तब भी कुलीन तबके से बाहर के लोगों के लिए वर्जित था। औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य शिक्षा के असर में विज्ञान और प्रगति का दायरा भी इसी वर्ग तक ​​सीमित रहा। जैसा कि पूंजी और एकाधिकारवादी वर्चस्व के लिए विज्ञान और वैज्ञानिक आविष्कार अनिवार्य है ताकि उत्पादन प्रणाली में श्रम और श्रमिक की भूमिका सीमाबद्ध या अंततः समाप्त कर दी जाये। पर पूंजी और बाजार के लिए ज्ञान और विज्ञान को भी सत्तावर्ग तक सीमित करना वर्गीय हितों के मद्देनजर अहम है।ईश्वर, धर्म और आध्यात्मिकता कार्य परिणाम के तर्क और स्वतंत्र चिंतन का निषेध करती हैं, जिससे विरोध, प्रतिरोध  या बदलाव की तमाम संभावना शून्य हो जाती है। जर्मनी से अमेरिका गये आइन स्टीन को भी धर्मसभा में जाकर यहूदी और ईसाई, दोनों किस्म के सत्तवर्ग के मुताबिक धर्म और विज्ञान के अंतर्संबंध की व्याख्या करते हुए वैज्ञानिक शोध, आविष्कार और ज्ञान के लिए अवैज्ञानिक, ​​अलौकिक प्रेरणा की बात कहनी पड़ी। बंगाल में ३५ साल के प्रगतिवादी वामपंथी शासन दरअसल बहुजनों, निनानब्वे फीसद जनता के बहिष्कार के सिद्धांत के मुताबिक ही जारी रहा। साम्यवाद की वैश्विक दृष्टि बंगाली ब्राह्मणवाद के माफिक बदल दी जाती रही।वाममोर्चा की सरकार​ ​ ब्राह्मणमोर्चा बनकर रह गयी। जो दुर्गोत्सव सामंतों और जमीदारों की कुलदेवियों की उपासना तक सीमाबद्ध था, प्रजाजनों पर अपने उत्कर्ष साबित करने का, वह सामंतों के अवसान और स्वदेशी आंदोलन के जरिये सार्वजनिक ही नहीं हो गया, क्रमशः बंगीय और भारतीय हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया। वाम शासन ने इसपर सांस्कृतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए बंकिम की भारत माता और वंदेमातरम के हिंदुत्व का स्थानापन्न बना दिया। ममता राज में इसी बंगीय वर्चस्ववादी परंपरा की उत्कट अभिव्यक्ति देखी जा रही है, जब दुर्गोत्सव के दरम्यान लगातार दस दिनों तक सरकारी दफ्तर ​बंद रहेंगे। सूचना कर्फ्यू के तहत चार दिनों के लिए कोई अखबार नहीं छपेगा और टीवी पर चौबीसों घंटा पूजा के बहाने बाजार का जयगान!


इतिहास की चर्चा करने वालों को बखूब मालूम होगा कि वैदीकी सभ्यता का बंगाल में कोई असर नहीं रहा है और न यहां वर्ण व्यवस्था का ​​वजूद रहा है। ग्यरहवीं सदी तक बंगाल में बुद्धयुग रहा। सातवीं शताब्दी में गौड़ के राजा शशांक शाक्त थे। शाक्त और शैव दो मत प्राचीन बंगाल में प्रचलित थे, जो लोकधर्म के पर्याय हैं, और जिनका बाद में हिंदुत्वकरण है।डिसकवरी आफ इंडिया में नेहरू ने भी वर्ण व्यवस्था को आर्यों ​​की अहिंसक रक्तहीन क्रांति माना और तमाम इतिहासकार इसके जरिये भारत के एकीकरण की बात करते हैं। वामपंथी नेता कामरेड​ ​ नंबूदरीपाद वर्ण व्यवस्था को आर्य सभ्यता की महान देन बताते थे। बंगाल में पाल वंश के पतन के बाद कन्नौज के ब्राह्मणों को बुलाकर सेनवंश के कर्नाटकी मूल के  राजा बल्लाल सेन ने ब्राह्ममी कर्मकांड और पद्धतियां लागू कीं। पर उनका शासलकाल खत्म होते न होते उनके पुत्र​ ​ लक्ष्मण सेन ने पठानों के आगे खुद को पराजित मानते हुए गौड़ छोड़कर भाग निकले। तो इस हिसाब से ब्राह्मणी तंत्र लागू करने के लिए बल्लालसेन के कार्यकाल के अलावा बाकी कुछ नहीं बचता। पठानों और मुगलों के शासनकाल में ब्राह्मण सत्ता वर्ग में शामिल होने की कवावद जरूर ​​करते रहे। बंगाल में जो धर्मांतरण हुआ, जाहिर है , वह बौद्ध जन समुदायों का ही । जो हिंदू हुए वे सीधे अछूत बना दिये गये, सेन वंश के​ ​ दौरान। मुसलमान शासनकाल में इन अछूतों ने और जो बौद्ध हिंदुत्व को अपनाकर अछूत बनने को तैयार न थे, उन्होंने व्यापक पैमाने पर इस्लाम को कबूल कर लिया।हिंदू कर्मकांड के अधिष्ठाता विष्मु का तो मुसलमानों के आने से पहले नामोनिशान न था। इस्लामी शासनकाल में पांच​ ​ सौ साल पहले चैतन्य महाप्रभु के जरिए वैष्णव मत का प्रचलन हुआ और उनके खास अनुयायी नित्यानंद ने बंगाल की गैर हिंदू जनता​ ​ का वैष्णवीकरण किया। बंगाल ही नही, उत्तरप्रदेश, बिहार और पंजाब को छोड़कर बाकी भारत में तेरहवीं सदी से पहले वैदिकी सभ्यता का कोई खास असर नहीं था।वि्ध्य और अरावली के पार स्थानीय आदिवासी शासकों का क्षत्रियकरण के जरिए हिंदुत्व का परचम लहराया गया। लेकिन पूर्व और मध्य भारत में सत्रहवीं सदी तक अनार्य या फिर अछूत या पिछड़े शासकों का राज है। इसी अवधि को तम युग कहते हैं, जब महाराष्ट्र के जाधव शासकों और बंगाल के पाल राजाओं तक मैत्री संबंध थे, जब चर्या पद के जरिये भारतीय भाषाएं आकार ले रही थी।

आलोकसज्जा की आड़ में अंधकार के इस उत्सव में हम भी चार दिनों तक खामोश रहने को विवश हैं। घर का कम्प्यूटर खराब है और इन ​​चार दिनों में बाहर जाकर काम करने के रास्ते बंद हैं। कहीं कुछ भी हो जाये, हम अपना मतामत दर्ज नहीं कर सकते। वैसे भी बंगाल में ​​मीडिया को बाकी देश की सूचना देने की आदत नहीं है। नीति निर्धारण की किसी प्रक्रिया के बारे में पाठकों को अवगत कराने की जवाबदेही ​​नहीं है। अर्थ व्यवस्था के खेल को बेनकाब करने के बजाय आर्थिक सुधारों के अंध समर्थन अंध राष्ट्रवाद के मार्फत करते रहने की अनवरत निरंतरता है।पार्टीबद्ध प्रतिबद्धता के साथ। अखबार छपें , न छपें, इससे शायद कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। कम से कम चार दिनों तक बलात्कार,​ ​ अपराध और राजनीतिक हिंसा की खबरों से निजात जरूर मिल जायेगी। दीदी खुद इल कबरों से परेशान हैं और जब तब मीडिया को ​​नसीहत देते हुए दमकाती रहती हैं। उनका बस चले तो सरकार की आलोचना के तमाम उत्स ही खत्म कर दिये जायें। मजे की बात है कि​ ​ अखबारों के दफ्तरों में अवकाश नहीं होगा। पर संस्करण नहीं निकलेगा। पत्रकारं गैरपत्रकारों को आकस्मिक, अस्वस्थता या फिर अर्जित अवकाश लेकर सेवा की निरतंतरता बनाये रखनी होगी। प्रबंधन के मुताबिक वे अखबार बंद नहीं कर रहे हैं , बल्कि हाकरों ने अखबार उठाने से मना कर ​​दिया है।जाहिर है कि इस पर ज्यादा बहसकरने की गुंजाइश नहीं है कि अचानक हाकर दुर्गोत्सव के दौरान अखबार उठाने से मना क्यों कर​ ​ रहे हैं और उनके पीछे कौल सी राजनीति है। पत्रकारों और गैरपत्रकारों के लिए वेतन बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए दीदी दिल्ली में आवाज बुलंद करने से पीछे नहीं हटतीं। पर राज्य में बाहैसियत मुख्यमंत्री मीडिया कर्मचारियों के हित में उन्होंने कोई कदम उठाया हो या वेतनमान लागू करने के लिए अखबार मालिकों से कहा हो, ऐसा हमें नहीं मालूम है। जबकि अनेक अखबारों के कर्णधार उनके खासमखास हैं और कई संपादक​ ​ मालिक तो उनके सांसद भी हैं।कम से कम उन मीडिया हाउस में कर्मचरियों के लिए हालात बेहतर बनाने में उन्हें कोई रोक नहीं सकता।

इसी सिलसिले में धर्म और विज्ञान का पूंजी के हित में बेहतरीन इस्तेमाल पर सुधा चौदरी का जनसत्ता में प्रकासित लेख अवश्य पाठ्य है।​

​ हमारे इस मंतव्य के आलोक में यह आलेख जरूर पढ़ें।इससे बंगाल के दुर्गोत्सव का रहस्य थोड़ा खुल बी सकता है। साभार जनसत्ता यह लेख प्रस्तुत हैः

पूंजीवादी संस्कृति में विज्ञान
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/30971-2012-10-19-05-09-41


Friday, 19 October 2012 10:38
सुधा चौधरी

जनसत्ता 19 अक्टुबर, 2012:  पूंजी को बढ़ने और फलने-फूलने के लिए जिस ज्ञानतंत्र की आवश्यकता रहती है उसका आधार वैज्ञानिक प्रमाण-मीमांसा हो सकती है। उद्योग, तकनीकी, प्रबंधन, प्रगति, विकास, शक्ति और प्रभुत्व पूंजी विस्तार के मूलमंत्र हैं। इसके लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों को आगे बढ़ाना पूंजीवाद की अस्तित्वगत आवश्यकता है। प्रबोधन की घोषणा उभरती पूंजीवादी व्यवस्था की इसी जरूरत का हिस्सा था, जो अपनी समझ, अंतर्वस्तु और दिशा में मानवीय सभ्यता के नए उषाकाल का उद्घोष था।

इससे झांकती विश्वदृष्टि अपने स्वभावबोध में धर्म और उसकी तत्त्व मीमांसीय प्रस्थापनाओं पर निर्मम चोट करने वाली थी। मानवता ने यह उम्मीद लगाई कि वैज्ञानिक समझ के माध्यम से वह न केवल धर्म के कुहासे से बाहर निकल कर बेहतर ढंग से दुनिया को जानने और बनाने की क्षमता हासिल करेगा, बल्कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में पसरे पांडित्यवाद, आस्थावाद और रहस्यवाद को भेदने में भी सक्षम होगा। ब्रह्मांड और उसमें मनुष्य की नियति से लेकर संस्कृति और इतिहास जैसे मानविकी क्षेत्रों पर भी विज्ञानसम्मत व्याख्या का मार्ग प्रशस्त होगा।

विज्ञान के माध्यम से समाज की गति को समझने पर सभ्यता का जो रास्ता खुलता है उसमें सुरक्षित, समतामूलक और जनतांत्रिक समाज के निर्माण की अपार संभावनाएं रहती हैं। विज्ञान जिस आचार और समाजशास्त्र के निर्माण की बुनियाद डालता है उसमें जाति, धर्म, लिंग आधारित विभाजित, खंडित और भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवहार के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। इसलिए मानव क्षमता पर भरोसा करने वाली इस वैज्ञानिक विश्वदृष्टि को सामाजिक मुक्ति के वैचारिक अस्त्र के रूप में देखा गया।

पर आज स्थिति उलट दिखाई देती है। सामाजिक जीवन में जनतांत्रिक व्यवहार और स्थितियां अधिसंख्य के लिए अब भी स्वप्नलोक की चीजें हैं और वैचारिक स्तर पर धर्म ही हमारे पूरे मनोजगत का निर्माण और संचालन करता है। धर्म का प्रभाव हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कम नहीं हुआ है। तमाम वैज्ञानिक प्रगति और सामाजिक सुविधाओं के बावजूद हमारे समाज और जीवन के स्थूल और सूक्ष्म आयामों में धार्मिक पाखंड की जकड़न, उसकी आक्रामकता और सघन-संगठित हुई है। विज्ञान की उपलब्धियों का भरपूर उपयोग करने वाला समाज अपने भीतर विज्ञान को झांकने की स्वीकृति नहीं दे पाया है। प्रौद्योगिकी उपलब्धियां हमारे जीवन की भौतिक सुख-सुविधाओं के उपयोग तक ही सीमाबद्ध होकर रह गई हैं। वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं क्षीण हो गई हैं। हमारे जीवन, सोच और व्यवहार के इस विरोधाभास के वस्तुनिष्ठ आधार और कारण क्या हैं?
इसके लिए उन सामाजिक दशाओं और व्यवस्थाओं को देखने की जरूरत है, जिनमें वैज्ञानिक चेतना और समझ को कुंठित कर धर्म को अपरिहार्य बना कर पोषित और संरक्षित किया जाता है। इसलिए विज्ञान की उपलब्धियों का भरपूर उपयोग करने वाले समाज की गैर-वैज्ञानिक चेतना के लिए विज्ञान के विकास को आगे बढ़ाने वाली शक्तियों के सामाजिक मंतव्यों को देखने की दरकार है। वैज्ञानिक अनुसंधान भले खोज और पद्धति शास्त्र में वस्तुनिष्ठ हों, पर अपनी सामाजिक प्रकृति में सत्ता-सापेक्ष होते हैं। विज्ञान का विस्तार और उस विस्तार की सीमाएं समय-समय पर सत्ता के हितों से नियंत्रित होती हैं। इसलिए विज्ञान की पक्षधरता और धर्म से मुक्ति की घोषणा को स्वायत्त परिघटना न मान कर उसकी वाहक शक्तियों की सत्ता संरचना का आकलन करने की आवश्यकता है।

विज्ञान केंद्रित प्रबोधन का नारा पंूजीवाद की ऐतिहासिक बाध्यता और वैचारिक आवश्यकता दोनों थी। आर्थिक स्तर पर कृषि से उद्योग और छोटे पैमाने के उत्पादन को विशाल पैमाने तक बढ़ाने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है उसमें विज्ञान और उस पर आधारित ज्ञानपद्धति ही सहायक हो सकती है। औद्योगिक विकास को बढ़ाने के लिए प्राकृतिक प्रक्रियाओं के रहस्यों को भेदने की आवश्यकता रहती है। इसलिए पूंजीवाद बिजली, ऊर्जा, मशीनों के निर्माण और उपयोग से लेकर संचार उद्योग के संबंध में परी कथाएं नहीं सुनना चाहता। वह उसके वास्तविक नियमों और व्यावहारिक प्रक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करने पर बल देता है, जिसके लिए विज्ञान को विकसित करने की बाध्यता रहती है। सामाजिक स्तर पर भी व्यापक प्रबंधन और नियंत्रण के लिए वैज्ञानिक तकनीकी ही कारगर माध्यम बनती है।

सामाजिक-वैचारिक स्तर पर पूंजीवाद के लिए सामंती और धर्म-प्रधान जड़ सांस्कृतिक ढांचे को तोड़ने और उसके स्थान पर पूंजीवादी संस्कृति को स्थापित करने के लिए तर्क आधारित विश्वदृष्टिकोण को विकसित करना आवश्यक बन गया, जो विज्ञान के विकास के बिना संभव नहीं था। अपनी इस सांस्कृतिक आवश्यकता के कारण वैज्ञानिक संस्कृति और विश्वदृष्टिकोण से उत्पन्न तमाम तरह के खतरों से अवगत होते हुए भी पूंजीवाद ने अपने विकास की एक खास अवस्था तक उसे विकसित किया।

यही कारण है कि सोलहवीं शताब्दी में अपनी वैज्ञानिक खोजों के कारण ब्रूनो जैसे वैज्ञानिक को जिस सामंती व्यवस्था के हाथों जलना पड़ा, उसी व्यवस्था में डार्विन के विकास सिद्धांत को तमाम तरह के सामंती अवशेषों द्वारा विरोध करने पर भी न केवल राजनीतिक समर्थन मिला, बल्कि समाज और सरकार द्वारा हर प्रकार का संरक्षण और सम्मान भी मिला। यह दिखाने के लिए कि 'सामंती व्यवस्था समतामूलक समाज की दुश्मन है' न केवल समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व जैसे मानवतावादी नारे लगाए, बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधानों को योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक तरह की शोध परियोजनाएं, अकादमियां और संस्थानों की स्थापना की। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में रॉयल सोसाइटी जैसी वैज्ञानिक संस्थाओं का उद््भव और विकास इसी परियोजना की अभिव्यक्ति थे।

इन अकादमियों के माध्यम से पूंजीवाद ने धर्म प्रतिष्ठानों से संगठित लड़ाई लड़ने के साथ-साथ वैज्ञानिक मुद्दों पर जनतांत्रिक बहस भी चलाई। सत्ता के इस विज्ञानपक्षीय व्यवहार से उत्साहित वैज्ञानिकों ने विज्ञान में मनुष्यता की सेवा करने की अपार संभावनाएं देखीं। वैज्ञानिक इस आत्मविश्वास से लैस थे कि प्रकृति,समाज, विचार, जीवन-व्यवहार संबंधी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान विज्ञान में नहीं है। विज्ञान ही समस्त मानवीय समस्याओं को हल करने की कुंजी है। विज्ञानपक्षीय इस वातावरण से धर्म और ईश्वर प्रदत रहस्यवाद और अलौकिकता से संबंधित विचारों पर न केवल तार्किक हमले हुए, बल्कि विज्ञान को एक प्रतिष्ठित ज्ञानात्मक अनुशासन के रूप में मान्यता मिली।

पर पूंजीवाद का यह विज्ञानपक्षीय क्रांतिकारी जनतांत्रिक व्यवहार सामंतवाद का खात्मा कर खुद को स्थापित करने का माध्यम भर था। व्यक्ति से पहले मुनाफा, समाज से पहले बाजार, आवश्यकता से पहले लाभ के अर्थदर्शन की बुनियाद पर खड़ी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए विज्ञान और तर्क आधारित समाज और संस्कृति साधन हो सकती है, उसका साध्य नहीं। सत्तापक्ष भौतिकवादी विश्वदृष्टिकोण और समझ से डरता है। पूंजीवाद भी शुरू से ही समझ गया था कि वैज्ञानिक भौतिकवाद समाज को जिस वैज्ञानिक चेतना से लैस करता है वह विचारदृष्टि के स्तर पर उनके अस्तित्व के लिए चुनौतीपूर्ण स्थितियां पैदा करता है। इसलिए पूरी कोशिश रही है कि विज्ञान और वैज्ञानिक विश्वदृष्टिकोण पीड़ित, शोषित और दमित जनता की बौद्धिक शक्ति न बने।

सामंती अवशेषों का स्थायित्व न केवल सस्ता श्रम और कच्चा माल सुलभ कराने की गारंटी देता, बल्कि गैरबराबरी और असमान सामाजिक स्थितियों को चिरस्थायी सिद्ध करने के लिए मध्ययुगीन दकियानूसी, जातीय उन्माद, सांप्रदायिक पागलपन और बर्बरता के मनोविज्ञान का आधार भी प्रदान करता है। अपनी इस अस्तित्वगत आवश्यकता के कारण ब्रिटेन और फ्रांस की क्रांतियों के बाद पूंजीवाद यूरोप में मजबूती से स्थापित हो गया और राजसत्ता में सामंतवाद पर आधारित संस्कृति और धर्म प्रतिष्ठानों को चुनौती देने वाली ताकत के रूप में प्रतिष्ठा घट गई तो विज्ञान के साथ संबंधों में एक गुणात्मक परिवर्तन आ गया। ऐसा विज्ञान के स्वरूप और उद्देश्य दोनों स्तर पर हुआ।

आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अपने आपको स्थापित करने के बाद एक तरफ विज्ञान का इस्तेमाल मुनाफा बढ़ाने वाले उपकरण के रूप में हुआ तो दूसरी तरफ प्राकृतिक विज्ञानों पर किए जाने वाले अनुसंधानों पर अनेक सीमाएं थोप दीं, जिससे प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के विकास में गहरा अंतर्विरोध उत्पन्न हुआ।

विजयी पूंजीपति वर्ग ने विज्ञान सम्मत दार्शनिक भौतिकवाद को अपने वर्गीय हितों के चलते ठुकरा दिया और सत्ता की रक्षा के लिए धर्म और परलोकवाद से जुड़े आदर्शवाद का सहारा लिया। यह अनायास नहीं है कि प्रबोधन के बौद्धिक प्रेरकों ने अपने वैज्ञानिक दर्शन के साथ न केवल अनेक समझौते किए, बल्कि आदर्शवादी प्रस्थापनाओं के फलने-फूलने के लिए पूरी जगह छोड़ी।

कांट ने 'ईश्वर का अस्तित्व' और 'आत्मा की अमरता' जैसी धारणाओं को नैतिकता की पूर्व-मान्यता के रूप में प्रस्तुत कर अज्ञेयवाद और रहस्यवाद की दुनिया रच डाली। वैज्ञानिक ज्ञान के जनक माने जाने वाले देकार्त ने 'मैं चिंतन करता हूं इसलिए मेरा अस्तित्व है' उक्ति के माध्यम से 'आत्मा और ईश्वर' के विचार को जन्मजात प्रत्यय के रूप में स्थापित कर धर्म की जड़ें मजबूत कीं। 'ऊर्जा' को यथार्थ मानने वाले लाइबनित्ज ने 'ऊर्जा' को ही 'ईश्वर' बना दिया। 'पूर्व स्थापित सामंजस्य के सिद्धांत' के माध्यम से मनुष्य की नियतिवादी व्याख्या की।

ये सभी चिंतक अपने अंतिम विश्लेषण और जीवनदृष्टि में धर्म के पोषक और संरक्षक रहे हैं। हालांकि पंूजीवाद की स्वभाविक मित्रता विज्ञान के साथ ही हो सकती है, पर अपने वर्ग-स्वार्थ के चलते वह सदा धर्म के लिए छिद्र छोड़ देता है, जो उसे तात्कालिक संकट से निजात दिलाने में अहम भूमिका निभाता है। भौतिक स्तर पर विज्ञान को बढ़ाना और वैचारिक स्तर पर गैर-वैज्ञानिक चेतना को बनाए रखना पूंजीवाद का चारित्रिक लक्षण है। इसके चलते विज्ञान की सामाजिक भूमिका को मजबूत वैचारिक जमीन नहीं मिल पाई।

अपने इन हितसंबंधों के कारण पंूजीवाद ने एक दौर में जिस सामंती संस्कृति को खत्म करने का हर संभव प्रयास किया, कालांतर में उसी को बचाए-बनाए रखने के लिए सामंती शक्तियों को संरक्षण दिया। उत्तर-आधुनिकता इसी कवायद का लोक लुभावना नाम है। यह अकारण नहीं है कि 'यथार्थ का वस्तुनिष्ठ स्वरूप और उसकी तार्किक-विश्लेषण द्वारा ज्ञेयता की क्षमता' जो प्रबोधन का बौद्धिक अस्त्र था, उत्तर-आधुनिकतावादियों ने इन्हीं दो संकल्पनाओं को अपने आलोचनात्मक विमर्श का मुख्य आधार बनाया। अधिकतर उत्तर-आधुनिक विचारक अपूर्णताओं, विखंडनों और विभाजित चेतनाओं के उपासक हैं। जीवन के प्रति खंडित और विभाजित दृष्टि और वैज्ञानिक ज्ञानमीमांसा की 'संस्कृति और भाव-सापेक्ष' परिभाषाएं सत्तावर्ग और धार्मिक ताकतों के लिए वरदान सिद्ध हुई हैं।

आज विज्ञान के युग में धर्म की जड़ें जनता की सामाजिक रूप से दमित अवस्था में हैं। पूंजीवादी आधार पर उद्योग का जो विकास हुआ, उसने श्रमिक जनता की दरिद्रता और कष्टों को समाज के अस्तित्व की आवश्यक शर्त बना दिया। जहां असुरक्षा, भय, दमन, पीड़ा उसके जिंदा रहने के पर्याय बन गए हैं। पूंजीवाद मानव जाति के विकास को जिन अंतर्विरोधों के दलदल में घसीट ले गया है वहां धर्म ही उसे आभासी राहत देता है। इसलिए धर्म के फैलने का कारण जनता का धर्म के प्रति सम्मोहन नहीं, बल्कि मानव-विरोधी सत्तातंत्र है। आज वह उत्पीड़न की अभिव्यक्ति के रूप में जीवित है।
जब तक शोषण-उत्पीड़नकारी सामाजिक ढांचे से मानव मुक्त नहीं होता तब तक जनता के मस्तिष्क से कोई भी शैक्षणिक पुस्तक या प्रौद्योगिकी विकास वैज्ञानिक चेतना को विकसित नहीं कर सकता। वैज्ञानिक चेतना वैज्ञानिक संस्कृति की उत्पाद होती है। इसलिए पूरा तंत्र अगर सामंती मूल्यों का पोषक है तो इस बात की पूरी संभावना है कि तांत्रिकों और ओझाओं द्वारा भूत उतारने, हवा बांधने, प्रेत से मुक्ति दिलाने, रोजगार दिलाने, बीमारी भगाने के वादे सही लगते रहें। आज की हमारी वैचारिक विडंबना के सूत्र मनुष्य की इन्हीं अभिशप्त दशाओं में हैं। अध्यात्म की इसी भौतिकता को देखने और समझने की दरकार है।

दुर्गापूजा
http://hi.wikipedia.org/s/d2c

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दुर्गापूजा हिन्दुओ का महत्वपुर्ण त्योहार है। दुर्गापूजा मा दुर्गा कि पुजा है। यह आश्वीण महिने के दुसरे पख्बारे में होता है। आश्वीण महिने के दुसरे पख्बारे के पहले दिन यह पुजा प्रारंभ होती है और नवमें दिन {नवरात्रा}यह पुजा समपन्न होती है।

दुर्गा पूजा का सांस्कृतिक विश्लेषण

दुर्गा पूजा का पर्व भारतीय सांस्कृतिक पर्वों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। लगभग दशहरा, दीवाली और होली की तरह इसमें उत्सव धार्मिकता का पुट आज सबसे ज़्यादा है। बंगाल के बारे में कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, कल पूरा देश उसे स्वीकार करता है। बंगाल के नवजागरण को इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार देखते हैं। यानि उन्नीसवीं शताब्दी की भारतीय आधुनिकता के बारे में भी यही बात कही जाती है कि बंगाल से ही आधुनिकता की पहली लहर का उन्मेष हुआ। स्वतंत्रता का मूल्य बंगाल से ही विकसित हुआ। सामाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिकता और प्रगतिशील मूल्य बंगाल से ही विकसित हुए और कालांतर में पूरे देश में इसका प्रचार-प्रसार हुआ।

नवजागरण का प्रयोग दुर्गा पूजा

संयोग से दुर्गा पूजा पर्व की ऐतिहासिकता बंगाल से ही जुड़ी है। आज पूरा देश इसे धूमधाम से मनाता है। दुर्गा पूजा की परंपरा का सूत्रपात यदि बंगाल से हुआ है तो इसका बंगाल के नवजागरण से क्या रिश्ता है? क्योंकि नवजागरण तो आधुनिक आंदोलन की चेतना है, जबकि दुर्गा पूजा ठीक उलट परंपरा का हिस्सा है। पर ग़ौर करने की बात है कि बंगाल दुर्गा पूजा को परंपरा की चीज़ मानकर उसे पिछड़ा या आधुनिकता का निषेध नहीं मानता है। बल्कि दुर्गा पूजा की लोकप्रियता को देखकर आज लगता है, यह भी बंगाल के नवजागरण का एक बहुमूल्य हिस्सा है। बंगाल के आधुनिक जीवन में दुर्गा पूजा की परंपरा का चलन दरअसल आधुनिकता में परंपरा का एक बेहतर प्रयोग है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए को परंपरा में प्रयोग की आधुनिकता है।

यह पाखंड नहीं

बंगाल में आज जो दुर्गा पूजा है वह अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में 'शक्ति पूजा' नाम से प्रचलित है, जैसे महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व और बीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना। देखा जाए तो तिलक और लोहिया भारतीय स्वराज्य और समाज के प्रखर प्रहरी थे। भारतीय आधुनिकता के विकास के ये दोनों प्रखर प्रवक्ता थे, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर ये दोनों कहीं गहरे स्तर पर पारंपारिक भी थे। तिलक द्वारा प्रतिष्ठापित 'गणेशोत्सव' और उत्तर भारत में लोहिया द्वारा 'रामायण मेला' का शुभारंभ परंपरा में आधुनिकता की खोज के दुर्लभ उदाहरण हैं। दुर्गा पूजा बंगाल में आज भी शक्ति पूजा के रूप में प्रचलित है। अगर उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करें तो आपको कई दिलचस्प परिणाम दिखाई पड़ेंगे। पहला परिणाम तो यह निकलता है कि बंगाल की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी और अपनी आस्थाओं के प्रति बेहद सचेत भी हैं। बंगाल एक छोर पर बेहद आधुनिक है तो दूसरे छोर पर अत्यंत पारंपारिक अपनी सांस्कृतिक चेतना की विरासत के प्रति सचेत है। बंगाल में शक्ति पूजा का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। शक्ति पूजा की प्रतीक देवी अपने चमचमाते खड्गशस्त्र से महिषासुर का संहार कर महिषासुरमर्दिनी कहलाई। त्रिमंग देवी दुर्गा शक्ति की अधिष्ठाती है। उनके साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणी पाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश और मयूर वाहक कार्तिकेय विराजमान हैं।

ये जितनी मूर्तियाँ हैं, सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रतीक हैं। महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार औऱ पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फ़ करुणा और दया के आँसू ही नहीं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि सन १९७१ में भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अचूक राजनीतिक बुद्धिमत्ता को देखकर अटल बिहारी वायपेयी ने उन्हें दूसरी दुर्गा कहा था। यह 'दुर्गा' कोई सांस्कृतिक मिथ नहीं, बल्कि हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का एक धधकता लावा है। भारतीय स्त्री की छवि में एक ओर देवदासी का असहाय चेहरा कौंधता है तो दूसरी तरफ़ उसकी आँखों में दुर्गा का शक्तिशाली तेवर भी चमकता है। दुर्गा जैसी महास्त्री जिसे हमारे लोक जीवन और सांस्कृतिक जीवन में 'देवी' कहा जाता है, दरअसल अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है। दुर्गा के सान्निध्य में आसन ग्रहण करती हुई देवियाँ लक्ष्मी, सरस्वती, धन और विद्या की प्रतीक हैं। गणेश हमेशा से विघ्न का विनाश करनेवाले एक शुभ देवता हैं, जबकि कार्तिकेय जीवन में विनय और सृजन के प्रतीक हैं। इनकी उपस्थिति से ही सामाजिक सृजन संभव है।

स्त्री के स्वाभिमान की पूजा

दुर्गा पूजा सिर्फ़ मिथ की पूजा नहीं, बल्कि स्त्री की ताक़त, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की एक सार्वजनिक 'पूजा' है। क्या विडंबना है कि आज दुर्गा पूजा, दुर्गाशप्तशती, दुर्गा स्त्रोत का पाठ उन धर्मभीरू घरों में ज़्यादा किया जाता है, जिन घरों में आज स्त्रियाँ ज़्यादा डरी और असुरक्षित हैं। वहाँ पुरुषों के रूप में महिषासुर रोज़ उनका मर्दन करता है। उन पर अत्याचार, ताड़ना और यातना के कोड़े बरसाता है। इस कारण हमारे समाज में आज दुर्गा के चेहरे कम दिखते हैं। देव-दासियों के ही असंख्य कातर चेहरे ज़्यादा दिखते हैं। ऐसे घरों में रोज़ दुर्गा पूजा नहीं, बल्कि पुरुष पूजा का अनुष्ठान संपन्न होता है। समाज और हमारे पारिवारिक जीवन में बढ़ती यह प्रवृत्ति दुर्गा पूजा का उपहास नहीं तो और क्या है? आज दुर्गा पूजा के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है।

मूर्ति निर्माण का परंपरा

दुर्गा पूजा के इतिहास पर ग़ौर करें। बंगाल में दुर्गा पूजा कब से शुरू हुई, इस पर इतिहास के विद्वानों के अनेक मत हैं, फिर भी इस तथ्य से लोकमानस और विद्वान एक मत हैं कि सन १७९० में पहली बार कलकत्ता के पास हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। आज बंगाल सहित पूरे देश में सांस्कृतिक वैभव के इस पर्व को जनजीवन में प्रतिष्ठान करने का श्रेय सन १५८३ ई. में ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी।

पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ़ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहीं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन वाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। फलतः आज दुर्गा पूजा मूर्ति पूजा का एक प्रतीक है,पर दुर्गा पूजा अब धीरे-धीरे धन कुबेरों के शक्ति वर्चस्व का प्रतीक भी बन गया है। यह इस सांस्कृतिक पर्व के मिथ के सौंदर्य बोध और जीवन दृष्टि को तोड़नेवाला साबित हो रहा है। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहीं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है। यदि हुसैन जैसे चित्रकार दुर्गा की प्रतिमा के बहाने स्त्री अंगों की वकालत करते हैं तो यह उनकी कला का चरम व्यावसायिकता और स्त्री की छवि के विरुद्ध एक सार्वजनिक उपहास है। दुर्गा एक सुंदर स्त्री भी है, जिनके पास पुष्ट उन्नत उरोज़, विशाल जंघाएँ और एक जोड़ी तेजस्वी आँखें भी हैं। इनमें काजल नहीं अत्याचार के विरुद्ध खिंची भौंहें हैं। उनके पास असाधारण पौरुषवाले चार शक्तिशाली हाथ भी हैं।
शोषण रहित समाज के लिए

दुर्गा पूजा मनाने का सही मतलब तो यही है कि समाज में स्त्री को लेकर किसी तरह के दिखावे, छलावे और शोषण के लिए लोक मानस में स्थान नहीं होना चाहिए।

दुर्भाग्य है कि बंगाल से शुरू हुई दुर्गा पूजा आज बीसवीं शताब्दी के भारत में धार्मिक पुनरुत्थान का एक अमोघ अस्त्र बन गई है। जबकि बंगाल के आरंभिक संस्कृति कर्मियों का उद्देश्य यह कतई नहीं था। आज दुर्गा पूजा-जैसे पर्वों को धार्मिक लोकाचार, कर्मकांड और किसी भी तरह के धार्मिक छलावे से बचाने की ज़रूरत है। तभी इस पर्व की सांस्कृतिक गरिमा की विरासत को हम समाज और जनमानस में सुरक्षित रख सकते हैं।

आज हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में महिषासुरी शक्तियाँ दिन-प्रतिदिन हिंसक और खूँख्वार प्रवृत्तियों का रूप धारण कर चुकी हैं। समाज में दुर्गाओं का दहन रोज़ हो रहा है। यह सिर्फ़ इसलिए हो रहा है कि हमारे समाज में दुर्गा का आदर नहीं है। उसकी वास्तविक शक्ति का हमें आभास नहीं है। हमारे मिथ में दुर्गा की इस महाशक्ति का आभास राम को था।

उन्होंने रावण से युद्ध करने के पहले दुर्गा की पूजा की थी। आज के रामों में शक्ति पूजा की उस शक्ति और संघर्ष की क्षमता का अभाव है। इसलिए आज का मनुष्य बार-बार जीवन क्षेत्र में पराजित हो रहा है। इस पराजय से बचने का एक ही रास्ता है, वह है राम की तरह असाधारण शक्ति का भंडार अपने अंदर पैदा करना। तब ही भीतर की दुर्गा प्रसन्न हो सकती हैं। जिस दिन आस्था पैदा होगी, उस दिन जय होगी। 'दुर्गा पूजा' पर्व हमारे सामने हर साल एक नई चुनौती के रूप में आता है। प्रश्न उससे प्रेरणा लेने का है। मात्र पूजा की झाँकी देखने का नहीं।

शक्ति उपासना की प्रतीक दुर्गापूजा

देशभर में होने वाली शक्ति उपासना में दुर्गापूजा का एक अहम स्थान है। सारे देश में जगह-जगह विशेषकर बंगाल में व्यापक रूप से मनाये जाने वाले इस पर्व पर जैसे आस्था का सागर ही उमड़ आता है। इसीलिए प्रतिवर्ष पूजा के समय हर ओर आस्था का एक वैभवशाली रूप देखने को मिलता है। इसके साथ ही दुर्गापूजा हर किसी के लिए अनूठे उल्लास, असीम उत्साह और तरंगित उमंगों का पर्व है।

देवी दुर्गा का उदय

हमारी संस्कृति में दुर्गा अनेक शक्तियों के संचय की प्रतीक हैं। शक्ति की देवी दुर्गा के उदय की कथा हमें यही बताती है कि सभी प्रकार की शक्तियां एकरूप होकर किसी भी विनाशकारी ताकत को मिटा सकती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महिषासुर नामक राक्षस ने स्वर्ग और धरा पर अपना आतंक फैला रखा था। उस आतंक को समाप्त करने के लिए सभी देवताओं ने एक-एक कर उससे युद्ध किया। किंतु भैसे का रूप धारण किए महिषासुर ने सबको परास्त कर दिया। क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि उसे कोई पुरुष नहीं मार सकता। पूरी तरह से हताश देवतागण ब्रह्मा, विष्णु  शिव की शरण में पहुंचे। तब शिव ने अपनी क्रोधग्नि से एक दैवीय शक्ति को प्रकट किया जो स्त्री थी। इस शक्ति को सभी देवताओं ने अपने अस्त्र प्रदान किए जिससे वह महाशक्ति बन गई। सिंह पर सवार हो देवी ने महिषासुर को युद्ध के लिए ललकारा। फिर क्रोध भरी गर्जना के समय देवी ने दस भुजाओं में धारण दीप्तिमान अस्त्रों से उस दानव पर प्रहार किए। घनघोर युद्ध के उपरांत महिषासुर का अंत हुआ। इस तरह पाप पर पुण्य की विजय हुई। देवताओं ने शक्ति के इस स्वरूप को दुर्गा कहा और उनकी पूजा होने लगी।

इतिहास पूजा का

दुर्गापूजा का इतिहास देखें तो पूजा की वर्तमान परपंरा करीब चार सदी पुरानी नजर आती है। जहां तक ज्ञात है, सोलहवीं शताब्दी के अंत में बंगाल के ताहिरपुर में महाराज कंशनारायण दुर्गापूजा का भव्य अनुष्ठान किया था। घर में बड़े से ठाकुर दालान को सजाकर उसमें दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की गई।  उसके बाद सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में नादिया के महाराज भवानंद ने तथा बरीसा के सुवर्ण चौधुरी ने भी भव्य पूजा का आयोजन किया था। उसके बाद बड़े-बड़े जमींदारों ने इस शैली को अपना लिया। उस समय दुर्गापूजा के समय पशुबलि भी दी जाती थी। बंगाल के राजा-रजवाड़ों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। समय के साथ-साथ व्यावसायिक वर्ग ने इसे और समृद्ध बनाया। लेकिन जब उन्होंने अपने हित के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों को पूजा में आमंत्रित करना शुरू किया तो इसमें एक नया मोड़ आया। कोलकाता के शोवा बाजार के महाराजा नवकृष्णदेव द्वारा 1757 में राबर्ट क्लाइव को पूजा में निमंत्रित करना इस तरह का प्रथम उदाहरण था। इसके बाद पूजा प्रतिष्ठा का विषय बनने लगी। लेकिन जब महत्वपूर्ण लोगों के सामने साधारण भक्तों की अवहेलना होने लगी तो दुर्गापूजा ठाकुर दालानों से बाहर मैदानों में पंडाल लगाकर मनाई जाने लगी। 20वीं शताब्दी के शुरू में बारह लोगों द्वारा हुगली जिले के गुप्तीपाड़ा में हुई सार्वजनिक पूजा को पहली सार्वजनिक पूजा कहा जाता है। 1910 में बलरामपुर वसुघाट पर एक धार्मिक सभा द्वारा सार्वजनिक रूप में दुर्गापूजा मनाने के बाद इसका चलन बढ़ता गया। इसे बारोबाड़ी पूजा भी कहा जाता था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई बार सार्वजनिक पूजा को राष्ट्रीय फोरम के रूप में भी प्रयोग किया गया। धीरे-धीरे समूचे बंगाल में सार्वजनिक पूजा मनायी जाने लगी।

भव्य हो गया है आयोजन

आज दुर्गापूजा का आयोजन इतना भव्य हो गया है कि इसकी तैयारी महीनों पूर्व आरंभ हो जाती है। इसके लिए जगह-जगह पूजा कमेटियां बनती हैं जो चंदा आदि एकत्र कर पंडालों के आकार व मूर्तियों के स्वरूप का निर्णय लेती हैं। दुर्गा मां की मूर्ति बनाने का काम भी परंपरागत मूर्तिकारों द्वारा काफी पहले आरंभ कर दिया जाता है। बंगाल के हर शहर और कस्बे में ये मूर्तिकार पीढ़ी दर पीढ़ी इस कला यात्रा को जारी रखे हैं। इनके परिवारों के अनेक लोग बंगाल के बाहर भी, जहां बंगाली बहुसंख्या में हैं मूर्तिकला की इस शैली का विस्तार कर रहे हैं। मूर्ति निर्माण का कार्य विधिपूर्वक पूजापाठ के बाद आरंभ होता है। कोलकाता में परंपरागत मूर्तिकारों की बस्ती में एक प्राचीन रीति चली आ रही है जिसके अनुसार मूर्ति निर्माण के लिए पहले सोनागाछी या कालीघाट से तवायफों के आंगन की मिट्टी लाई जाती है। उसी मिट्टी को मिलाकर दुर्गा की पवित्र मूर्ति का निर्माण होता है। पूजा के लिए बड़े-बड़े पंडाल भी कई सप्ताह पूर्व बनने आरंभ हो जाते हैं। लकड़ी, बांस, प्लाईवुड, तम्बू आदि की सहायता से विस्तृत पंडाल बनाने में समय जो लगता है। फिर इनके अंदर की साज-सज्जा में हर प्रकार की भव्यता का समावेश भी किया जाता है। छोटे शहरों में पूजा पंडालों में भव्यता कम होती है। लेकिन बड़े शहरों की पूजा कमेटियां पंडाल पर दिल खोलकर व्यय करती हैं। कुछ पंडाल तो महलों जैसे नजर आते हैं। दरअसल पंडालों की भव्यता आज एक प्रतिस्पर्धा का रूप ले चुकी है। पंडालों की छतों पर बड़े-बड़े झूमर लगाए जाते हैं। लकड़ी की दीवारों पर सुंदर चित्र बनाए जाते हैं। बल्बों और रंगबिरंगी रोशनी की मनमोहक झांकियां बनाने के लिए बंगाल के चंदन नगर से विशेष कलाकार बुलाए जाते हैं। पंडालों में किसी भी नवीनतम घटना पर झांकी बनाने का प्रयास होता है। ये कलाकार सुर-असुर संग्राम जैसी पौराणिक झांकियों से लेकर कारगिल युद्ध और व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर जैसे विषयों की बेहद आकर्षक झांकियां बना देते हैं। पंडालों के गेट भी इनकी भव्यता का खास हिस्सा होते है। प्राय: किसी ऐतिहासिक या प्रसिद्ध इमारत का प्रतिरूप गेट के रूप में बनाया जाता है। इसलिए कहीं लाल किला नजर आता है तो कहीं संसद भवन। कहीं व्हाइट हाउस में भक्त प्रवेश कर रहे होते हैं तो कही एफिल टावर में। बड़े शहरों में पंडालों की भव्यता देखने के लिए भी भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। सारा वातावरण पूर्ण रूप से जगमगा रहा होता है।

पर्व का आरंभ

दुर्गापूजा का पावन पर्व शरद ऋतु में आने वाले आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या से ही आरंभ होता है। उस दिन सुबह महालया की परंपरा है। महालया अर्थात मां दुर्गा की आगमन भेरी। बांग्ला व संस्कृत भाषा में देवी की आगमनी के गीत गाए जाते हैं। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन पर दुर्गा की आराधना, दुर्गा सप्तशती का गान और दुर्गापूजा से जुड़ी कथाओं को संगीतमय लय में प्रसारित किया जाता है। दुर्गा स्तुति की यह मधुरिम अनुगूंज बंगभूमि के हर व्यक्ति के अंतर्मन में एक स्पंदन सा जगा देती है। इसके साथ उनमें पूजा का उत्साह आरंभ हो जाता है। महालया के दिन नदियों में स्नान के उपरांत घट स्थापना का विधान है। मिट्टी के कलश पर सिंदूर से मंगल चिह्न बनाकर उस पर हरा नारियल रखा जाता है। पास ही केले के वृक्ष की बड़ी सी डाल रखी जाती है। पूजा स्थल को कलात्मक ढंग से सजाया जाता है। बंगाल को प्राचीन समय से ही दुर्गा का मायका माना जाता है। मान्यता है कि दुर्गा के मायके आने के दिन ही पूजा समारोह के दिन हैं। हर वर्ष दुर्गा कैलाश पर्वत पर स्थित शिवधाम से अपनी संतानों सहित अपने मायके आती हैं। अमीर हो या गरीब सभी इस अवसर पर खुशियां मनाते हैं, नये वस्त्र खरीदते हैं, मित्र व संबंधियों को उपहार देते हैं।

प्रतिमाओं की स्थापना

षष्ठी के दिन पुरोहित पहले घट यानी घड़े को पंडाल में रखते हैं। केले के वृक्ष को लाल किनारे वाली साड़ी पहनाई जाती है। तब पंडालों में दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित कर दी जाती है। विस्तृत पंडाल में सामने देवी की प्रतिमा स्थापित होती है।  सिंहवाहिनी दस भुजाधारी दुर्गा भाले से महिषासुर का मर्दन कर रही होती हैं। इस प्रतिमा के एक ओर उनके पुत्र गणेश एवं कार्तिकेय की मूर्तियां और दूसरी ओर पद्महस्ता लक्ष्मी तथा वीणाधारी सरस्वती विराजमान होती हैं। ये मूर्तियां इतनी सजीव होती हैं कि मूर्तिकारों की रचनाशीलता की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता।

अंजलि एवं आरती

रोज पूजा में अंजलि एवं आरती का क्रम चलता है। अष्टमी का दिन दुर्गापूजा का सबसे शुभ दिन माना जाता है। लोग बड़े चाव से पूजा में भाग लेते हैं। अष्टमी को लगभग पूरी रात ही पंडालों में भीड़ रहती है क्योंकि अष्टमी एवं नवमी के संधिकाल के समय मध्यरात्रि में सौंधी पूजा अर्थात संधी पूजा एक महत्वपूर्ण पूजा होती है। देवी के सामने 108 दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं। कहीं-कहीं आरती के समय ढाक की ताल के साथ स्ति्रयां धूनी नृत्य करती हैं। ढाक एक पारंपरिक वाद्य है जो ढोल के समान होता है। रंगीन कपड़े और झालरों से सजे ढाक बजाने वाले ढाकी भी विशेष तौर पर बुलाए जाते हैं। पंडाल के अंदर का वातावरण पूरी रात भक्तिपूर्ण उल्लास से परिपूर्ण नजर आता है तो बाहर बनी दुकानों पर भी भीड़ लगी रहती है। इसके अलावा लोग एक पंडाल से दूसरे पंडाल को देखने बढ़ते रहते हैं। नवमी को भी पूजा का जोर बराबर बना रहता है। अंत में वह दिन भी आ जाता है जिस दिन दुर्गा को पारंपरिक ढंग से विदा किया जाता है। विजय दशमी के दिन मूर्ति के समक्ष दीप जलाकर स्ति्रयां देवी को सोंदेश यानी संदेश का भोग लगाती हैं। उनके मस्तक पर सिंदूर लगाती है फिर शुभकामना स्वरूप उसी सिंदूरदानी से अन्य सुहागिनों को सिंदूर लगाया जाता है। इसके उपरांत शंख ध्वनि तथा जयघोष के बीच दुर्गा को अश्रुपूर्ण विदाई दी जाती है। आलीशान प्रतिमाओं को ट्रक आदि पर रख कर शोभा यात्रा के रूप में नदी के तट पर ले जाया जाता है जहां बड़ी श्रद्धा से इन्हें जल में विसर्जन के बाद दो पक्षी आकाश में छोड़ने की परंपरा भी है। मान्यता यह है कि ये पक्षी कैलाश पर्वत जाकर शिव को दुर्गा के आगमन की सूचना देते हैं। लोग नदी से शांति जल पंडाल और घर में लेकर आते हैं और सब पर छिड़कते हैं। विसर्जन के बाद लोग एक-दूसरे को शुभ बिजोय की शुभकामनाएं देते हैं।

कोलकाता की दुर्गापूजा

कोलकाता महानगर में दुर्गापूजा का जोश तो जैसे जुनून की सीमाएं पार कर जाता है। इस महानगर में आज एक हजार से अधिक स्थानों पर दुर्गापूजा का आयोजन होता है। अधिकतर पूजा पंडाल इतने भव्य होते हैं कि लोग धक्का-मुक्की करते हुए एक पंडाल से दूसरे पंडाल में पहंुच जाते हैं। दरअसल यह महानगर पंडालों की साज-सज्जा में सबसे आगे है।

महाअष्टमी और नवमी को कोलकातावासियों का उन्माद देखते ही बनता है। चौराहों, नुक्कड़ों, गलियों में लोगों के हुजूम नजर आते हैं। सारा शहर नयी नवेली-दुल्हन की तरह सजा जगमगा रहा होता है। अनेक बड़ी कंपनियां पूजा पंडालों की साज-सज्जा एवं सुंदरतम मूर्तियों के लिए अवार्ड की घोषणा भी करती हैं। विजयदशमी पर विसर्जन के लिए मूर्तियों को जुलूस के रूप में ले जाने का दृश्य भी यहां एकदम अलग होता है। एक-एक जुलूस के साथ 25-25 बैंड साथ चलते हैं। उनके आगे रंगबिरंगे गेट बने होते हैं जो जुलूस की शोभा को बढ़ाते हैं। वास्तव में कोलकातावासी दुर्गापूजा के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। कहते हैं यहां के लोग पूजा के माह में इतनी खरीदारी करते है जितनी वर्ष भर में नहीं करते। दुर्गापूजा का यह रंग देखने यहां पर्यटक भी आते हैं। कोलकाता का जीवंत रूप देखना हो तो एक बार पूजा के अवसर पर वहां अवश्य जाना चाहिए।

बंगाल के बाहर दुर्गापूजा

बंगाल के बाहर पहली बार वाराणसी में दुर्गापूजा का आयोजन हुआ माना जाता है। इसके अतिरिक्त आज गोरखपुर, इलाहाबाद, पटना, भुवनेश्वर, कटक आदि शहरों में इसी रीति और परंपरा से दुर्गापूजा मनाई जाती है। दिल्ली में दुर्गापूजा की शुरुआत सन् 1911 में कोलकाता से राजधानी दिल्ली स्थानांतरित होने पर हुई क्योंकि तब अनेक कोलकाता निवासी भी दिल्ली में आ बसे थे। उनके साथ ही उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग दुर्गापूजा भी यहां आयी। यहां रह रहे लगभग चार लाख बंगालीजन पूजा के चार दिनों में बाकी दुनिया को भूलकर जैसे जीवन की तमाम खुशियां समेटने में लग जाते हैं। दिल्ली व उसके आस-पास के क्षेत्रों में कुल मिलाकर दो सौ से अधिक छोटी-बड़ी पूजा आयोजित होती है। इनमें काली बाड़ी, चितरंजन पार्क, सरोजनी नगर, लोदी रोड, इंद्रप्रस्थ सोसायटी कॉम्प्लेक्स, अशोक विहार, मिन्टो रोड, के पूजा-पंडालों की छटा देखते ही बनती है। चितरंजन पार्क में तो कई भव्य पूजाओं का आयोजन होता है जिनमें कोलकाता की ही भांति भव्यता का दर्शन होता है। यहां लगभग सभी पूजा-पंडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं जिसके लिए खास तौर से पश्चिम बंगाल से जात्रा नाटक मंडलियां बुलाई जाती हैं। दुर्गापूजा की धूम आज विदेशों में भी रहती है। खास तौर पर उन देशों में जहां भारतीय बंगाली समाज के लोग जा बसे हैं। उनके साथ ही अन्य भारतीय भी मिल दुर्गापूजा मानते हैं। इसके लिए तीन-चार माह पूर्व ही कोलकाता के कुमारतुली से दुर्गा मां की प्रतिमाएं मंगवा ली जाती हैं। हालांकि वहां उतनी भव्यता से पूजा नहीं होती परंतु फिर भी अपनी संस्कृति के प्रति लगाव को इस पूजा द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इंग्लैंड, अमेरिका के अतिरिक्त यूरोप के कई देशों में बसे भारतीय बंगाली लघु रूप में ही सही दुर्गापूजा अवश्य मनाते हैं। इन अवसरों पर वो बड़े गर्व से उस देश के लोगों को भी शामिल करते हैं। इस तरह भारत देश की रंगबिरंगी संस्कृति की झलक उनके सामने रखी जाती है।

दुर्गापूजा का समारोह कहीं भी मनाया जा रहा हो, पूजा के पल लोगों के लिए अविस्मरणीय बन जाते हैं। इसके साथ ही दुर्गापूजा हमें एकता का प्रतीकात्मक संदेश देती है।
http://www.jagranyatra.com/2010/03/%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%95-%E0%A4%A6%E0%A5%81/






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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER

http://youtu.be/NrcmNEjaN8c The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today. http://youtu.be/NrcmNEjaN8c Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program ______________________________________________________ By JIM YARDLEY http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

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अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

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