दरबारी लाल posted: "राजेंद्र यादव के बहाने राजेंद्र यादव का हिंदी साहित्य को रचनात्मक योगदान बड़ा है या उनका हिंदी सà"
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दिल्ली मेल : राजेंद्र यादव, गोपीचंद नारंग,अकादमी और भिड़ंत
by दरबारी लालराजेंद्र यादव के बहाने
राजेंद्र यादव का हिंदी साहित्य को रचनात्मक योगदान बड़ा है या उनका हिंदी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य को जीवंत बनाये रखने का, इस बारे में तय कर पाना थोड़ा मुश्किल है। उनके विरोधी, जो कम नहीं हैं, मानें या न मानें पर दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे हिंदी जगत का साल का सबसे महत्त्वपूर्ण अवसर फिलहाल हंस का वार्षिकोत्सव हो चुका है। यह जुलाई के अंत में प्रेमचंद के जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है और इसमें कम से कम उत्तर भारत के विभिन्न भागों से लोग तो भागीदारी करने पहुंचते ही हैं। जैसा कि होता है, इस अवसर पर जरूरी नहीं कि साहित्यिक विषयों पर ही चर्चा हो, उल्टा अधिकतर सामाजिक-राजनीतिक विषयों को लिया जाता है और ये विषय, उन पर चर्चा चाहे जैसी हो, खासे विचारोत्तेजक होते हैं। इस वर्ष का विषय 'दीन की बेटियां' था यानी इस्लाम में औरत और उसमें भाग लेने पाकिस्तान से दो लेखिकाएं - ज़ाहिदा हिना और किश्वर नाहिद आईं थीं। वैसे बुलाया तो मुख्तारन माई को गया था पर राजनीतिक कारणों से उनका आना नहीं हो पाया।
इसी क्रम में अगस्त के अंत में स्वयं राजेंद्र जी का जन्मदिन आता है। संयोग देखिये राजेंद्र यादव मुंशी प्रेमचंद से सिर्फ 27 दिन ही छोटे हैं। यानी टक्कर के हैं। इसलिए यह दिन भी दिल्ली के साहित्यिक कलेंडर में कम महत्त्व का नहीं होता है। वैसे तो सभी इसके इंतजार में रहते हैं लेकिन दारुकुट्टों की बेताबी विशेष हुआ करती है। पर हम आप को जिस प्रसंग की ओर ले जाना चाहते हैं वह थोड़ा अलग है और इस प्रकार है:
पिछले दिनों दिल्ली की हिंदी अकादेमी के नये सचिव हरिसुमन बिष्ट ने, जो स्वयं जाने-माने कथाकार हैं, 'तीन पीढ़ी तीन दिन' शृंखला के कार्यक्रम किए। पहले कार्यक्रम में तीन पीढ़ी के कथाकारों ने, दूसरे में तीन कवियों ने भाग लिया और तीसरे में नाटक के परिदृश्य पर चर्चा हुई। कथा के कार्यक्रम के रचनाकर थे राजेंद्र यादव, चित्रा मुद्गल और विवेक मिश्र।
यह देखना कम महत्त्वपूर्ण नहीं था कि हिंदी के वरिष्ठतम रचनाकारों में एक राजेंद्र यादव, जिन्होंने 28 अगस्त को 83 वर्ष पूरे कर लिए हैं, वहां युवतर पीढ़ी के लेखकों के साथ उपस्थित थे। पिछले दिनों वह बीमार भी रहे थे और लंबे समय तक बिस्तर से उठ नहीं पाए। पर राजेंद्र जी उन लोगों में हैं जो अपनी शारीरिक क्षमता के कारण, यानी उम्र या अन्य किसी शारीरिक अक्षमता के चलते नहीं, बल्कि अदम्य जिजीविषा और हिम्मत से जीते हैं। शायद यह बड़ा कारण था कि पूरा हाल खचा-खच भरा था और लोग खड़े थे। पर माहौल की जीवंतता और उत्सुकता का कारण मात्र राजेंद्र जी की उपस्थिति ही नहीं बल्कि कुछ अप्रत्याशित की अपेक्षा भी थी। कार्यक्रम के अनुसार सबसे पहले राजेंद्र यादव को कहानी पाठ करना था पर वह उस क्रम को नहीं माने, जो एक मामले में अच्छा ही हुआ। चूंकि कहानी पाठ था और उसकी भी नया होने की शर्त नहीं थी, इसलिए वरिष्ठता क्रम में उन से सबसे पहले पढऩे का आग्रह करना गलत भी नहीं था।
इस तरह शुरुआत विवेक मिश्र से हुई। फिर चित्रा मुद्गल ने कहानी पढ़ी। अंत में राजेंद्र जी की बारी आई। उन्होंने तीन-चार लघु कथाएं पढ़ीं। आखिरी कहानी का शीर्षक था 'लक्ष्मण रेखा' जो सुपरिचित सीता हरण प्रसंग पर आधारित थी। कहानी का लब्बो-लुबाव कुछ इस तरह था कि रावण ने सीता का हरण घर में जाकर नहीं किया बल्कि उन्हें बाहर बुलाया और फिर अपने साथ चलने के लिए सहमत किया। कथा में लक्ष्मण रेखा को स्त्री की बंदिश का प्रतीक की माना गया है।
जैसा कि होना था कहानी खत्म नहीं हुई कि एक साथ कई श्रोता खड़े हो गए। इन में सबसे ज्यादा आक्रामक आलोचक कमल किशोर गोयनका नजर आए। उन्होंने कहा कि क्या राजेंद्र यादव के लिए स्त्री मुक्ति का अर्थ विवाहित महिला का दूसरे आदमी के साथ चले जाना है? राजेंद्र यादव को चुनौती देते हुए गोयनका ने कहा कि वह हिंदू धर्म को बदनाम कर रहे हैं। अगर हिम्मत हो तो इस्लाम के बारे में कुछ कह कर देखें।
रही-सही कसर पूरी की अध्यक्ष विश्वनाथ त्रिपाठी ने। उन्होंने शुरू में ही अपनी मंशा यह कह कर जाहिर कर दी कि मैं कभी भी कमल किशोर गोयनका से सहमत नहीं हो पाता हूं, पर आज लगता है होना पड़ेगा। उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से न तो कहानी के रूप पर कुछ कहा और न ही उसकी विषय-वस्तु की सांकेतिकता पर। उनका सारा जोर यादव जी की हंगामा खड़ा करने की आदत की भर्त्सना करने तक सीमित रहा जो मूलत: रामकथा के तुलसीदासीय रूप के 'विकृति करण' से उपजा मालूम पड़ता था। त्रिपाठी जी कहानी से इस हद तक विचलित नजर आ रहे थे कि लोगों को उन्हें याद दिलाना पड़ा कि उन्होंने युवतर लेखक विवेक मिश्र की रचना पर एक शब्द नहीं कहा है। वह कहानी इस मामले में महत्त्वपूर्ण थी वह सवर्ण परिवार में ब्याही महिला के वहां स्वीकार न किए जाने और अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, अपमानित किए जाने का संवेदनशील वर्णन थी। इस मानसिकता में विश्वनाथ त्रिपाठी को वह भी पसंद नहीं आई। ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्हें विवेक मिश्र की कहानी भी राजेंद्र यादव की मानसिकता का विस्तार लगी हो।
इस गोष्ठी के कुछ पहलुओं पर ठंडे दिमाग से बात करना जरूरी लगता है। पहले कमल किशोर गोयनका को लेते हैं। उनकी आपत्ति सबसे ज्यादा विवादास्पद थी। असल में लेखक ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति के लिए, सबसे पहला लोकतांत्रिक कदम अपने धर्म को आलोचनात्मक नजरिये से देखना है। आखिर हमारा धर्म कई तरह से हमारी नियति निर्धारित करता है। इसलिए यह सवाल ही मूलत: अलोकतांत्रिक है कि कोई लेखक अपने धर्म की आलोचना क्यों कर रहा है और दूसरे के धर्म की क्यों नहीं। अपने धर्म को लेकर सवाल उठाना मूलत: अपने समाज को लेकर चिंतित होना है।
वैसे भी हमें भूलना नहीं चाहिए कि इस्लाम की आलोचना करने का काम सलमान रुश्दी, हेर्स अली और तस्लीमा नसरीन जैसे लोग कर रहे हैं।
दूसरी बात है नारी मुक्ति की। विवाह संस्था को लेकर नारीवादी चिंतकों के अलावा प्रगतिशील समाज विज्ञानी भी मानते हैं कि यह मूलत: स्त्री के हक में नहीं है। इसलिए मसला सिर्फ यह नहीं है कि विवाह संस्था अपने आप में संपूर्ण है और इसके विरुद्ध जाना अनैतिक और समाज विरोधी है। यह मानने में आपत्ति नहीं हो सकती कि विवाह संस्था मानव समाज की अब तक की स्त्री-पुरुष के संबंधों को स्थायित्व देने का सबसे प्रभावकारी माध्यम रही है। इसके साथ ही यह मानना भी मजबूरी है कि यह संस्था पुरुष के पक्ष में ज्यादा झुकी है। इसलिए विवाह के प्रति स्त्री की प्रतिबद्धता को अनिवार्य मानना स्त्री के साथ अन्याय है। अगर विवाह स्त्री के हर मर्ज का इलाज होता तो फिर आधुनिक जगत में स्त्री को तलाक का हक ही क्यों मिलता? विशेष कर हमारे देश में और हिंदू धर्म में, जहां विवाह को जन्म-जनमांतर का संबंध माना जाता है?
अब आते हैं विश्वनाथ त्रिपाठी की बात पर कि राजेंद्र जी सदा ही ऐसी बातें कहते हैं जिनसे हंगामा मचता है। यह वह जानबूझ कर चर्चा में बने रहने के लिए करते हैं। असल में यह आरोप एक मायने में लेखक की भूमिका को लेकर भी है। प्रश्न है क्या लेखक का काम यथास्थिति को पोषित करना है? उसका काम 'सब्वर्शन' यानी यथास्थिति को तोडऩा है, पाठकों को झकझोरना और उन्हें मूल्यों व मान्यताओं के बारे में नये सिरे से विचार करने के लिए बाध्य करना। और अगर यह तोडऩा धर्म को लेकर होता है तो यह इस मामले में जस्टिफाईड है कि अंतत: धर्म यथास्थितिवाद का सबसे बड़ा पोषक है।
कहानी पर पंडिताऊ आक्रमण की जगह होना यह चाहिए था कि लेखक के मंतव्य को चुनौती दी जाती और जांच की जाती कि उन्होंने जो कहा है वह मूलत: लेखक के विचारों को किस हद तक संप्रेषित करने में सफल या असफल है? या फिर जो वह कहना चाहते हैं वह अपनी अवधारणा में कितना कमजोर और तार्किक रूप से उसमें कितनी खामी है। हम किसी लेखक की विषय चुनने की स्वतंत्रता को किस तरह चुनौती दे सकते हैं? यह कैसे कह सकते हैं कि वह इस विषय पर क्यों लिख रहा है और उस पर क्यों नहीं ?
यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं था कि विश्वनाथ त्रिपाठी ने कथा के फार्म को लेकर भी कोई बात नहीं कही। लघुकथा का रूप इतने बड़े और स्थापित कथ्य को जिस तरह से चुनौती देने की कोशिश करता है क्या वह उचित है? सच यह था कि वह इस विषय वस्तु की सम्यक प्रस्तुति में पूरी तरह असफल था और वह कहानी कहानी नहीं बल्कि चुटकुला नजर आती थी।
पर सबसे बड़ी बात यह है कि एक लोकतांत्रिक देश और एक बौद्धिक समाज का सदस्य होने के नाते हमारा दायित्व बन जाता है कि हम कटु से कटु असहमति को भी उदारता से सुनने और उस पर विचार करने की आदत बनाएं। विशेष कर ऐसे माहौल में जब सांप्रदायिक और क्षेत्रीय मानसिकता ने पहले ही देश में लेखकों और कलाकारों का जीना मुहाल किया हुआ हो। उस दिन जो देखने को मिला वह विचलित करनेवाला था। वरिष्ठ वामपंथी हिंदी आलोचक खुले आम कह रहे थे कि वह राजेंद्र यादव की शुद्ध हिंदूवादी नजरिये से की गई आलोचना से सहमत हैं। हिंदी के बौद्धिक समाज की अपरिपक्वता और असहिष्णुता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है!
हिंदू होने का महत्व
पाकिस्तान की सरकार द्वारा अपने स्वाधीनता दिवस के अवसर पर उर्दू के भारतीय लेखक गोपीचंद नारंग को सम्मानित करना मजेदार है। विशेष कर ऐसे मौके पर जब कि देश-विदेश के अखबार भारतीय मूल के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक और पत्रकार रफीक ज़कारिया के ऊपर लगे नकल (प्लेगेरिज्म) के आरोपों से भरे हुए थे। पर लगता है भारतीय भाषाओं में नकल जैसी कोई चीज खास महत्त्व नहीं रखती। अगर रखती तो कम से कम नारंग अब भी, उर्दू के ही सही, शीर्ष पर नहीं होते या भारत के उर्दू के प्रतिनिधि तो नहीं ही माने जाते। हालत यह है कि उनके ऊपर नकलमारी के जो आरोप हैं वे इस हद तक गंभीर हैं कि उनको लेकर साहित्य अकादेमी के एक सदस्य ने राष्ट्रपति तक को यह मांग करते हुए लिखा कि नारंग से साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस ले लिया जाए। असल में अकादेमी पुरस्कार उन्हें उसी किताब साख्तियात, पस-साख्तियात और मशरिकी शेरियात पर 1995 में मिला था जिस पर पश्चिम में बसे पाकिस्तानी आलोचक शाहिद इमरान भिंडर ने सप्रमाण आरोप लगाए हैं। हेटर शाइम, जर्मनी से प्रकाशित होनेवाली उर्दू पत्रिका जदीद अदब के जुलाई-दिसंबर, 2008 के अंक में प्रकाशित उस लेख 'गोपीचंद नारंग की सच्चाई और परिप्रेक्ष्य चोरी की चपेट में' का अनुवाद 'एक सच्चाई की संरचना का यथार्थ' शीर्षक से समयांतर (जनवरी, 2009) में छपा था। गोपीचंद नारंग ने, जो कि साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष रह चुके हैं आज तक इन आरोपों का प्रतिवाद नहीं किया है।
भिंडर ने नारंग की इस किताब साख्तियात, पस-साख्तियात और मशरिकी शेरियात (हिंदी अनु.: संरचनावाद उत्तर-संरचनावद एवं प्राच्य काव्यशास्त्र) के दर्जनों पेजों को रेमान शेल्डन (कांटेम्पोरेरी लिटरेरी थ्योरी), जॉन स्टुरॉक (स्ट्रक्चरलिज्म एंड सिंस), कैथरिन बेलसी (क्रिटिकल प्रैक्टिस), राबर्ट स्कोल्ज (स्ट्रक्चरलिज्म इन लिटरेचर) और क्रिस्टोफर नौरिस (डिक्संट्रक्शन) की किताबों से उठाया हुआ बतलाया है। भिंडर के लेख में कम से कम 15 ऐसे उद्धरण हैं जो बिना कॉमा-फुलस्टॉप उड़ाए हुए हैं।
उर्दू के अखबारों को अगर छोड़ दें तो सिवा अंग्रेजी के द हिंदू के किसी भी अखबार में नारंग के सम्मानित होने के समाचार का नोटिस तक नहीं लिया गया। द हिंदू में 16 अगस्त को अनुज कुमार की रिपोर्ट के साथ चार कालम का समाचार छपा। मजे की बात यह है कि दो दिन बाद अखबार ने जि़या उस सलाम की एक टिप्पणी छापी जिसमें ज़कारिया के प्रसंग को लेकर 'बॉरोड रिचेज' (उधार की समृद्धि) शीर्षक से एक टिप्पणी दुनिया भर में नकलमारी या साहित्यिक चोरी (प्लेगेरिज्म) को लेकर प्रकाशित की। इस में ज़कारिया के अलावा जोनाह लेहरार, काव्या विश्वनाथन और शिव खेड़ा आदि का उल्लेख था। सलाम के लेख की शुरुआत थी: ''यह उधार ली गई समृद्धि का मौसम है। प्लेगेरिज्म (साहित्यिक चोरी) का भूत फिर से हमारा पीछा कर रहा है। '' यह सबसे ज्यादा स्वयं नारंग पर फिट बैठता है। रफीक जकारिया ने तो कम से कम तत्काल गलती मानी और माफी मांगी पर रंगेहाथों पकड़े जाने के बावजूद नारंग पूरी बेशर्मी के साथ सीना ताने घूम रहे हैं और साक्षात्कार दे रहे हैं।
जि़या उस सलाम अंग्रेजी के उन पत्रकारों में हैं जो उर्दू साहित्य से परिचित हैं। इसलिए ऐसा नहीं हो सकता कि वह भिंडर के लेख से परिचित न हों। आश्चर्य की बात यह है कि उनके लेख में इस चोरी पर जिसके चलते नारंग को साहित्य अकादेमी पुरस्कार तक मिल चुका है, एक शब्द नहीं था। सलाम लगता है द हिंदू के परिशिष्ट से जुड़े हैं और अक्सर ही नारंग के बारे में कुछ न कुछ छापते रहते हैं।
ऐसा भी नहीं हो सकता कि पाकिस्तानी सरकार नारंग की इस प्रतिभा से परिचित न हो। इसलिए असली सवाल यह है कि आखिर पाकिस्तान सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर नकलमारी के बावजूद गोपीचंद नारंग को ही सम्मान के लिए क्यों चुना?
इसका संभावित कारण पाकिस्तान से हो रहा हिंदुओं का पलायन है। इस से देश की जबर्दस्त बदनामी हो रही है। पाकिस्तानी सरकार इससे दबाव में है और इस तरह से हिंदू बहुल भारत को प्रसन्न करना चाहती है। यह बात और है कि इससे नारंग की बन आई है। हिंदुस्तान में वह उर्दू के के हिंदू लेखक होने का लाभ उठा रहे हैं और अब पाकिस्तान ने भी उनका इसी कारण सम्मान हो रहा है। पर भारत वासी जितना एक गलत हिंदू को सम्मानित करने से प्रसन्न नहीं हुए हैं, उससे ज्यादा इस बात से प्रसन्न हैं कि पाकिस्तान ने एक ऐसे विद्रोही लेखक को सम्मानित किया जो धर्म और क्षेत्रीयता की क्षूद्रताओं से उठकर संपूर्ण मानवता को समर्पित था। वह भारतीय सत्ताधारियों को भी विभाजन के प्रति अपनी गलतियों और उत्तरदायित्वों की उसी तरह याद दिलाता रहता है जिस तरह की पाकिस्तानियों को। उसका नाम है सआदत हसन मंटो। निश्चय ही मंटो भारत और पाकिस्तान की साझा उपलब्धि है। अब इस महान कथाकार को उनके जन्म शती वर्ष में सम्मानित करने की भारत की बारी है।
अकादेमी प्रसंग
केंद्रीय साहित्य अकादेमी नये सिरे से चर्चा में है। सुना जाता है कि कार्यकारिणी की 24 अगस्त को भुवनेश्वर में हुई मीटिंग में अकादेमी के सचिव अग्रहारा कृष्णमूर्ति के खिलाफ वित्तीय धांधलियों के अलावा इस बात का भी आरोप है कि वह पद का दुरुपयोग कर अकादेमी के सदस्य बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित करने में लगे हैं। उनके खिलाफ जांच के आदेश दे दिये गए हैं। इस मीटिंग में उन्हें बुलाया भी नहीं गया। बल्कि 27 अगस्त से उन्हें छुट्टी पर भेज दिया गया है।
ये आरोप इस बात का भी संकेत हैं कि अकादेमी में सत्ता-संघर्ष की शुरुआत हो चुकी है। अफवाह यह है कि गोपीचंद नारंग फिर से साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष बनने की जुगत में हैं। अग्रहारा कृष्णमूर्ति के खिलाफ जांच को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। कर्मचारियों को सदस्य बनाने की प्रक्रिया में इस्तेमाल करने की बड़े पैमाने पर शुरुआत नारंग के ही दौर में हुई थी। इस बात को वर्तमान कार्यकारिणी के सदस्य और पदाधिकारी अच्छी तरह जानते हैं। उनकी समझ में यह बात आ गई लगती है कि नारंग अगर आ गए तो वे सब किनारे कर दिए जाएंगे यानी वर्तमान उपाध्यक्ष अध्यक्ष नहीं बन पाएंगे। अकादमी की नयी कार्यकारिणी का चुनाव इसी वर्ष दिसंबर में होना है।
कृष्णमूर्ति ने स्वैच्छिक अवकाश लेने की इजाजत चाही थी जो अस्वीकार कर दी गई है। वह पिछले छह वर्षों से अकादेमी के सचिव हैं और उनका कार्यकाल अगले छह महीने में समाप्त होने वाला है। उन्हें केंद्र में तत्कालीन अध्यक्ष गोपीचंद नारंग सारे नियमों को ताक पर रख कर लाये थे। अग्रहारा तब साहित्य अकादेमी के बेंगलुरू कार्यालय में क्षेत्रीय सचिव थे।
इस पद के लिए तब जो विज्ञापन निकाला गया था उसकी कोई भी आर्हता कृष्णमूर्ति पूरी नहीं करते थे। सबसे गंभीर बात यह है कि तब भी उन पर कई संगीन अनियमितताओं के आरोप थे और इन की सीबीआई ने जांच की इजाजत भी मांगी थी। कृष्णमूर्ति की एक उपलब्धि उनके खिलाफ यौन उत्पीडऩ के कई आरोप थे। अपने प्रशासनिक पद पर भी कृष्णमूर्ति इस हद तक असफ ल रहे थे कि उन्हें कई चेतावनियां दी गई थीं।
यहां तक कि कहा जाता है सीबीआइ के पास उनके द्वारा की गई कई वित्तीय गड़बडिय़ों के तथ्य थे जो तब ही करोड़ों रुपये के थे। ये आरोप झूठी प्रिंटिंग, इम्प्रैस एकांउट के दुरुपयोग, नकली एजेंट को लाखों की किताब देने, किताबें छापने का झूठा हिसाब दिखलाने आदि के थे। सीबीआई के तत्कालीन डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल सुधीर सक्सेना ने 13.2.03 को साहित्य अकादेमी के सचिव को गोपनीय पत्र में जांच कर रहे सुपरिंटेंडेंट की रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा था: ''रिपोर्ट बतलाती है कि निम्नानुसार आवश्यक कार्रवाही करने के लिए पर्याप्त सामग्री है। ''
पर तत्कालीन अध्यक्ष रमाकांत रथ ने यह कह कर कि साहित्य अकादेमी स्वायत्त है इसलिए सीबीआई इसकी जांच नहीं कर सकती और अपने आईएएस संबंधों का लाभ उठा कर विभागीय जांच की छूट ले ली। यह जांच कृष्णमूर्ति से जूनियर आदमी यानी ताजा-ताजा उप सचिव बने ललित जैन से करवा कर लीपापोती कर दी गई।
आज भी उन पर जो आरोप हैं वे मुख्यत: सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल करने के बावजूद आने-जाने का भत्ता लेना आदि हैं। यानी चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से न जाए।
इस संबंध में विस्तृत रिपोर्ट समयांतर, मई, 2006 में प्रकाशित हुई थी।
लिखंत, पढ़ंत, गढ़ंत और भिड़ंत
इधर हिंदी के दो चर्चित कवियों की कविताओं ने माहौल गर्मा दिया है। यह गर्मी हिंदी आलोचना की स्थिति का जायका भी देती है, इस मायने में कि हिंदी आलोचना किस तरह से बचती-बचाती सीधे रास्ते पर चलती है और तभी विवाद में पड़ती है जब कोई रास्ता नहीं बचता।
इस विवाद में कई इत्तफाक हैं, जैसे कवियों की जो कविताएं केंद्र में हैं उनकी विषयवस्तु एक ही है: बीमारी। बीमारी भी कैंसर है। पिछली सदी के मध्य में साहित्य में टीबी फैशन में हुआ करती थी। हिंदी में भी इस बीमारी का बोलबाला रहा। कम से कम नई कहानी की तो 'बादलों के घेरे' जैसी कई कहानियां मिल सकती हैं। पर इधर लगता है उसका स्थान, कहानी में न सही, हिंदी कविता में तो कैंसर ने ले ही लिया है।
यहां एक और इत्तफाक है। दोनों ही कवियों की कविताएं बीमार स्त्री को लक्ष कर लिखी गई हैं और उस पर भी केंद्र में एक अंग विशेष का कैंसर है। अंग है स्तन। एक और इत्तफाक देखिये, दोनो ही कविताएं जिन बीमारों पर लिखी गई हैं उन्हीं को सर्पित हैं। यह भी इत्तफाक है कि इन में एक कवि पुरुष है और दूसरा स्त्री। इससे एक बात साफ हो जाती है कि यह मात्र बीमारी का मसला नहीं, बल्कि उससे भी कुछ ज्यादा का तो है ही। क्योंकि स्त्रियों को ग्रीवा (सरवाईकल) का कैंसर स्तन के कैंसर के बाद सबसे ज्यादा होता है पर यह कहीं ज्यादा घातक है। इसलिए स्तन यहां मात्र बीमार अंग नहीं बल्कि रूपक है। यानी दोनों ही बीमारी के बहाने अपनी-अपनी नजर से स्त्री (रमणी) को देख रहे हैं या उससे अपने संबंधों को व्याख्यायित कर रहे हैं। कम से कम पुरुष कवि तो सीधे-सीधे ऐसा करता नजर आ रहा है। क्या यह भुलाया जा सकता है कि चित्रण या निरूपण अंतत: विषय-वस्तु के प्रति लेखकीय प्रतिबद्धता ही दर्शाता है। ऐसा न होता तो फिर बाजारू लेखन और गंभीर लेखन में अंतर क्या रह जाता। मूलत: दोनों के विषय तो एक ही होते हैं - प्यार, सामाजिक असमानता वैगर-वगैरह।
साहित्यिक मासिक कथादेश के जून अंक में शालिनी माथुर का एक लेख 'व्याधि की कविता या कविता की व्याधि' शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
लेख की विशेषता उसकी गंभीरता है। लेखिका के तर्क जितने मजबूत हैं निष्कर्ष उतने ही विचारोत्तेजक। इसलिए इस खासे लंबे लेख की सब बातों पर चर्चा कर पाना न तो संभव है न ही उचित। उसकी जगह कवियों के बारे में कही बातों के चुनिंदा अंशों को उद्धृत कर रहे हैं जो लेखिका के मंतव्यों को प्रस्तुत कर देते हैं।
पहले कवि पवन करण को लिया गया है। शालिनी माथुर के लेख में उद्धृत कविता के अंश हैं: ''... अंतरंग क्षणों में उन दोनों को / हाथों में थाम कर उससे कहता/यह दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी/ मेरी खुशियां/संभालकर रखना/वह इन दोनों को कभी शहद के छत्ते/तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता... ''
लेखिका के अनुसार, ''पवन करण की कविता ('स्तन' शीर्षक) में स्त्री शरीर पुरुष शरीर का खिलौना है, पुरुष के रमण के लिए, उन दोनों को / हाथों में थाम कर उससे कहता/ये दोनों तुम्हारे पास अमानत है मेरी /मेरी खुशियां इन्हें संभालकर रखना। पवन करण की कविता स्त्री देह को गोश्त के टुकड़े के रूप में निरूपित करती है, जिसे पुरुष लालची निगाहों से देखता है और तब तक उन पर आंखें गड़ाये रखता, जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से। पवन करण की कविता की स्त्री भी स्वयं को गोश्त का टुकड़ा ही समझती है वह भी जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के/ इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती। ''
यह कविता कुछ वर्ष पहले प्रकाशित संग्रह स्त्री मेरे भीतर से है। दूसरी कविता जिस पर चर्चा की गई है, लगभग ताजा है। इस कविता और कवि अनामिका पर शालिनी माथुर की टिप्पणी कहीं ज्यादा कठोर है। संभवत: इसलिए कि पुरुषों में ऐसा विचलन या कहना चाहिए जड़ दृष्टिकोण आम बात है। यह टिप्पणी कवियत्री की दृष्टि पर तो टिप्पणी करती ही है, कविता में प्रयुक्त प्रतीकों और उपमानों के चुनाव पर ही कई आधारभूत आपत्तियां उठाती है। ये आपत्तियां विचारणीय हैं। शालिनी लिखती हैं:
'' इधर पाखी के फरवरी, 2012 के स्त्री लेखन विशेषांक में 'हिंदी की समकालीन कवयित्रियों में शीर्ष पर विराजमान' कवियत्री अनामिका की कविता प्रकाशित हुई है, 'ब्रेस्ट कैंसर'। वे कहती हैं:
''दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने, / हां, बहा दीं दूध की नदियां ! तब जाकर/ मेरे इन उन्नत पहाड़ों की /गहरी गुफाओं में /जाले लगे! कहते हैं महावैद्य/ खा रहें हैं मुझको ये जाले/ और मौत की चुहिया/ मेरे पहाड़ों में /इस तरह छिप कर बैठी है कि यह निकलेगी तभी जब पहाड़ खोदेगा कोई!...
'' 'ब्रेस्ट कैंसर' शीर्षक वाली कविता में ब्रेस्ट के लिए 'उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं' वाला उपमान कितना उपयुक्त है? पहाड़ों और गुफाओं का दूध से तो दूर-दूर तक कोई संबंध है ही नहीं पर क्या व्याधिग्रस्त अंगों के लिए सौंदर्य वर्णन के लिए प्रयोग किए जानेवाले उपमानों का प्रयोग उचित प्रतीत हो रहा है? उत्तम पुरुष में लिखी इस कविता में, मेरे उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं को प्रयोग स्त्री द्वारा स्वयं अपना नखशिख वर्णन करने के लिए किया गया है। हमें याद होगा कि एक राज्य की भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने स्वयं अपनी ही मूर्तियां बनवाकर, स्वयं उनका अनावरण किया था। हिंदी की इस कविता में स्त्री स्वयं अपनी देह के सौंदर्य का वर्णन करके अपनी देह को स्वयं ही अनावृत्त कर रही है। यहां प्रश्र अनावरण का नहीं निरूपण का है। ''
इस संदर्भ का अंतिम पैरा जिसे जोडऩा जरूरी है वह इस तरह है:
''कविता में संसार की स्मृतियों को दूध पिलाया, बहा दीं दूध की नदियां, पदों का प्रयोग है। संसार की स्मृतियों का ब्रेस्ट कैंसर नामक व्याधि से क्या लेना देना? इलनेस एज मेटाफर नामक पुस्तक में इस विषय पर गहन चिंतन है। चिकित्सक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि इस व्याधि का इंसान के व्यक्तित्व से कोई ताल्लुक नहीं है, न स्वभाव से न स्मृति से। यह व्याधि नवजात शिशुओं तक को हो जाती है। यदि स्मृतियों का कोई अर्थ लगाना भी चाहे तो कह सकते हैं कि स्मृतियों को वक्षस्थल में सहेजा जा सकता है, पर तब वक्षस्थल का अर्थ मन होता है। यहां पर कवियित्री मन नहीं स्तन के बारे में बात कर रही है। ''
शालिनी माथुर के तर्कों और प्रस्तुति का आनंद पूरे लेख में ही उठाया जा सकता है। मजे की बात यह है कि वह न तो चर्चित आलोचक हैं और न ही लोकप्रिय नारीवादी चिंतक। प्रसन्नता की बात है कि वह, जैसा कि अर्चना वर्मा ने लिखा है कि ''उनका (माथुर) अपना अनुशासन हिंदी साहित्य भी नहीं (है)। '' संभवत: यह भी एक कारण हो कि वह इस तरह की वस्तु परक आलोचना इतने नये अंदाज में करने की 'गलती' कर पाई हों। जो भी हो यह लेख हिंदी में एक नई आलोचक के आने की जोरदार धमक जरूर है। उम्मीद करनी चाहिए वह ऐसी 'गलती' करती रहीं तो उनके लेखन से हिंदी पाठक और लेखकों को अपने साहित्य को ज्यादा वस्तुनिष्ठ ढंग से देखने का अवसर मिलता रहेगा।
जैसा कि होना था, हिंदी के अन्यथा भूमिगत रहनेवाले साहित्य समाज में तहलका मच गया। जुलाई में तूफान के आने की खामोशी रही। कथादेश के अगस्त अंक में शालिनी माथुर पर कुल सात लेख और टिप्पणियां प्रकाशित हुई हैं। इन में तीन लेख विशेष उल्लेखनीय हैं। पहला, पत्रिका से 'संपादन सहयोग' करनेवालीं, जानी-मानी कथा लेखिका और आलोचक अर्चना वर्मा का है। दूसरा स्वयं अनामिका का और तीसरा वामपंथी अलोचक अशुतोष कुमार का। तीनों ही लेख माथुर के लेख का जवाब कहे जा सकते हैं। इसके अलावा कवि मदन कश्यप की बॉक्स में लगी छोटी टिप्पणी भी कवियों के पक्ष में है। माथुर के पक्ष में लिखनेवालों में अनिता गोपेश, उद्भ्रांत और उर्मिला जैन की टिप्पणियां हैं। प्रकाशित पाठकों के पत्र कुल मिलाकर आलोचक के मूल्यांकन से सहमति प्रकट करते नजर आते हैं।
अर्चना वर्मा ने अपने जटिल गद्य में जो कहा वह तो कहा ही पर सामान्य रूप से शांत रहनेवाली भाषा की लेखिका का यह 'प्रसंगवश' खासा आक्रामक है और यह बात उनके लेख के शीर्षक 'लिखंत, पढ़ंत और गढ़ंत' से ही देखी जा सकती है, जिसकी पूर्व पीठिका वह अपने जुलाई के अंक से स्तंभ में तैयार कर चुकी थीं। यहां मंशा कमोबेश लेख की गंभीरता और उसके असर को मखौल में बदलने की नजर आती है। लेख का पहला ही वाक्य और फिर पूरा पैरा, बतला देता है कि वह किस तरह से मसले को अगंभीर करने पर तुली हुई हैं। वह लिखती हैं: ''जादू वह जो सिर पर चढ़कर बोले। जैसे शालिनी माथुर की कलम का जादू बोलता है। पाठक को अपने प्रवाह में बहा ले जाता है। दलीलें सटीक, तर्क लाजवाब, तथ्य प्रामाणिक, विश्लेषण बारीक और तहदार। ... '' अगर यह सब है तो फिर आपको पांच पेज लिखने की जरूरत ही क्यों पड़ी? गनीमत है कि आगे वह ज्यादा सधे वकील की तरह तक करती हैं। आप सहमत हों या न हों, अलग बात है।
दूसरा लेख है अनामिका का। उनका यह लेख भी अन्य लेखों की तरह ही दुनिया जहान की बातों, संदर्भों, उद्धरणों से भरा है। उदाहरण के लिए वह अपने लेख 'कविता के कंधे' में लिखती हैं: ''कविता कम सुखन विधा है! जैसा कि पहले कहा। उसका स्वभाव स्त्री-स्वभाव से मिलता-जुलता है। वह बहुत ज्यादा नहीं बोलती और बोलती है तो इंटेंस इशारों में! उसका अपोरिया, उसकी ब्रह्म गांठ खोल पाना, उसे डीकोड कर पाना उसी संवेदनशील धैर्य की मांग करता है जो किसी परेशानहाल (वंचित स्त्री-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक-अश्वेत-निर्धन-निर्बल और बीमार) के अवचेतन की गांठें खोलने में अपेक्षित है!... ''
इन बातों से किस को आपत्ति हो सकती है। यहां तो मसला एक कविता का है, उसका जवाब नदारत है। वैसे इस लेख की विशेषता उनका गुस्सा है। देखने लायक यह है कि वह किस तरह प्रकट होता है? एक जगह वह लिखती हैं: ''अरे भैया, शालिनी कहां पैदा हुए हैं अभी वे मर्द जो स्त्री की यौनिकता जगा दें। '' दूसरी जगह उन्होंने लिखा है: ''तो भाई, यह तो कोई मत ही कहे कि ... ''
स्पष्ट: अनामिका की कोशिश शालिनी माथुर के लेख को नारीवाद विरोधी और अपनी कविता को नारीवाद की प्रतिनिधि कविता दर्शाने की है। जबकि मसला पूरी तरह मानवीय संवेदना और काव्यशास्त्र से जुड़ा है। नारीवादी संदर्भ जरूर हैं पर उससे कविता के मूल्यांकन में कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि लेख कुल मिला कर दोनों कविताओं के रचनाकारों की दृष्टि और संवेदनशीलता पर चर्चा करता है। शालिनी माथुर के लेख में असली मसला यह है कि कवि किस तरह से स्त्री के संदर्भ में बीमारी को लेते हैं। अनामिका ने उसका जवाब देने की कोशिश ही नहीं की है, उल्टा अपने बचाव में वह आलोचना कर्म को ही अर्थहीन चुनौती देती नजर आती हैं।
पर उनके लेख में नोट करने की बात यह है कि वह शालिनी माथुर को कम से कम दो जगह पुलिंग में बदल देती हैं। एक जगह, ''अरे, भैया... '' और दूसरी जगह ''तो भाई... ''। यह अनायास है तो भी गलत है। इस तरह वह ठीक उस पुरुषवादी तौर-तरीके का इस्तेमाल करती नजर आती हैं या उसे इंटरनलाइज कर चुकी लगती हैं, जो अपने विरोधी पुरुषों को अपमानित करने के लिए उन्हें स्त्री या स्त्रैण संबोधित ही नहीं करते हैं, सिद्ध करने की भी कोशिश करते हैं। अर्चना वर्मा और अनामिका के लेखों में एक मजे की समानता यह है कि दोनों के लेखों के उपशीर्षक, चर्चित कविताओं की तरह ही, क्रमश: 'प्रिय शालिनी को सस्नेह' और 'सुश्री शालिनी माथुर को निवेदित' हैं। इसका क्या औचित्य है? क्या इन लेखों को शालिनी माथुर नहीं पढ़तीं या क्या पाठकों या अन्य साहित्य प्रेमियों ने इन्हें गंभीरता से नहीं लेना है? यह तो आंखों में अंगुली डालने जैसा हुआ।
इस क्रम में अंतिम लेख आशुतोष कुमार का है। उनके तर्कों का सार भी यही है कि शालिनी माथुर मूलत: मर्दवादी मानसिकता का शिकार हैं और उनकी अलोचना कुतर्क है। पर वह स्वयं किस तरह की समझ से प्रेरित हैं इसका उदाहरण उनका यह अंश है: ''सही है कि कविता ('स्तन') में ऐसे उपमान और उल्लेख भरे पड़े हैं, जो स्त्री को केवल उसके दो स्तनों से परिभाषित करते हैं, आनंद के लिए भी और आश्रय के लिए भी। स्त्री भी इसे प्रसन्नता पूर्वक मंजूर करती है। ऐसा न होता तो दैहिक क्षति एक साधारण दुर्घटना भर होती, वह पुरुष और स्त्री के परस्पर प्रेम और उनके समूचे जीवन और अस्तित्व को प्रभावित नहीं करती। ''
प्रसन्नता की बात यह है कि उन्होंने गलती से ही सही माना तो कि ''कविता में ऐसे उपमान और उल्लेख भरे पड़े हैं, जो स्त्री को केवल उसके दो स्तनों से परिभाषित करते हैं ...। '' शालिनी माथुर का क्या कहना है? पर आगे वह जो तर्क करते हैं वे अजीब हैं। इधर धनबाद की सोनाली मुखर्जी नाम की लड़की की स्थिति पर चर्चा हो रही है। उन के मुंह पर गुंडों ने 2003 में तेजाब डाल कर उसे पूरी तरह विकृत कर दिया था। इससे उनकी आंखें भी जाती रही हैं। प्रश्र है क्या चेहरा और आंखों के चले जाने की यह ''दैहिक क्षति एक साधारण दुर्घटना भर'' है? अगर कैंसर स्तन का न होकर चेहरे का होता और आपरेशन के बाद स्त्री बच जाती तो क्या उसे साधारण दैहिक क्षति कहेंगे? क्या सोनाली की क्षति के सामने एक स्तन के निकाले जाने की क्षति असामान्य है? यही बात अनामिका की कविता के अंत को लेकर भी है। चाहे स्तन हो या चेहरा या सरवाईकल या फिर कोई और अंग, उससे मुक्ति को कोई किस तरह से 'सैलिबरेट' कर सकता है! असल में शरीर के अंग विशेष को महत्त्व देना या न देना मानसिकता से संबंध रखता है। जहां समझ इस तरह से संकुचित हो क्या किया जा सकता है?
पर इस संदर्भ में अंतिम बात के तौर पर विश्वप्रताप भारती के मार्मिक पत्र को, जो कथादेश के अगस्त अंक में ही प्रकाशित हुआ है, उद्धृत किए बगैर बात पूरी नहीं हो सकती। भारती ने लिखा है, ''पवन करण और अनामिका के लिए मेरा एक संदेश है कि वे बे्रस्ट कैंसर के मरीजों से एक-एक बार जरूर मिल लें और उन्हें अपनी कविता को पढऩे दें। उन्हें पता चलेगा इस असाध्य बीमारी से जूझ रही महिलाएं उन्हें कितना पॉजिटिव लेती हैं। मेरी मां स्वयं ब्रेस्ट कैंसर से पीडि़त हैं। एक स्तन ऑपरेशन से कट चुका है। कीमोथेरेपी के बाद से वह अक्सर 'डिप्रेशन' में रहती हैं। आपने बड़ी आसानी से कह दिया, 'हैलो कैसे हो?' यह एक भद्दा मजाक है। ''
इस दृष्टि से देखा जाए तो ये कविताएं पोर्नोग्राफिक भी नहीं हैं, जिसकी इस विवाद में तीनों ही लेखकों ने रह-रह कर 'गंभीर' चर्चा की है, बल्कि उससे भी आगे, चरम विकृति की ओर इशारा करती हैं, जहां बीमारी के बहाने कहीं पुरुष-कामुकता अभिव्यक्त हो रही है तो कहीं स्त्री-आत्ममुग्धता। पोर्नोग्राफी में कम से कम बीमारी का इस्तेमाल नहीं होता। यह 'मार्बिडिटी' की अति है। इसके बाद समझा जा सकता है कि क्यों अनामिका द्वारा उद्धृत कवियत्री ग्रेस निकोलस की यौनांगों का खुला वर्णन करनेवाली पंक्तियां आपत्तिजनक नहीं हैं। कवियत्री अश्वेत हैं और कविता के पूरी न होने के कारण चूंकि उसका सामाजिक-आर्थिक संदर्भ स्पष्ट नहीं है, इसलिए कुछ शंका, हो सकती है। इस पर भी बहुत हुआ तो इन पंक्तियों को 'इराटिक' कहा जा सकता है, अश्लील ये तब भी नहीं हैं।
अफसोस कि इस पूरे विवाद में तर्क और वस्तुनिष्ठता को ही ताक पर नहीं रख दिया गया है बल्कि एक ऐसे 'वैल मीनिंग लेख', जिस पर खुले मन से विचार और चर्चा की जानी चाहिए थी, उसे भटकाने की भरपूर कोशिश की जा रही है। यह किया भी उन लोगों ने है जो स्वयं अकादमिक जगत (क्या यह मात्र इत्तफाक है कि तीनों दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं?) से जुड़े हैं।
- दरबारी लाल
दरबारी लाल | October 21, 2012 at 9:35 pm | Tags: breast cancer, darbari lal, gopi chand narang, rajendra yadav, shalini mathur | Categories: दिल्ली मेल | URL: http://wp.me/p2oFFu-ed
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http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Download Bengali Fonts to read Bengali
Imminent Massive earthquake in the Himalayas
Palash Biswas on Citizenship Amendment Act
Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003
Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003
http://youtu.be/zGDfsLzxTXo
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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS BLASTS INDIANS THAT CLAIM BUDDHA WAS BORN IN INDIA
THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER
http://youtu.be/NrcmNEjaN8c
The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today.
http://youtu.be/NrcmNEjaN8c
Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program
______________________________________________________
By JIM YARDLEY
http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR
Published on 10 Apr 2013
Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya.
http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE
अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।'
http://youtu.be/j8GXlmSBbbk
THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP
[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also.
He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT
THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM
Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia.
http://youtu.be/lD2_V7CB2Is
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE
अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।'
http://youtu.be/j8GXlmSBbbk
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