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Sunday, October 28, 2012

वैश्विक युद्धक अर्थ व्यवस्था और धार्मिक राष्ट्रवाद का दांव रोमनी की जीत पर​

वैश्विक युद्धक अर्थ व्यवस्था और धार्मिक राष्ट्रवाद का दांव रोमनी की जीत पर​

ईसाई- हिंदू- यहूदी वैश्विक धार्मिक राष्ट्रवाद का पारमाणविक गठबंधन कारपोरेट साम्राज्यवाद​ ​ और खुले बाजार के एकाधिकारवादी आक्रमण के जरिये विश्वभर के प्रकृतिक संसाधनों पर वर्चस्व कायम करने की रणनीति के तहत है।​ ​ संयोग से भारत में भी उग्र धर्म राष्ट्रवाद का विजयरथ अब थमता नजर नहीं आता।अमेरिका और ब्रिटेन को गुजरात नरसंहार की वजह से हाल फिलहाल तक नरेंद्रमोदी अवांछित तत्व नजर आता था, आज वहीं नरेंद्र मोदी उनके लिए महानायक हैं। कल्पना करें कि अगर रोमनी अमेरिकी राष्ट्रपति बन जायें और नरेंद्रमोदी भारत के प्रधानमंत्री, तो धार्मिक राष्ट्रवाद और कारपोरेट साम्राज्यवाद का यह बेहद जहरीला रसायन प्रकृ​​ति, पर्यावरण, मनुष्य, पृथ्वी और इस आकाशगंगा के लिए कितना खतरनाक होगा!

​​
​पलाश विश्वास

अमेरिका में छह नवंबर को राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने हैं।बराक ओबामा दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए मैदान में हैं, जबकि मिट रोमनी उन्हें चुनौती दे रहे हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा, किसी को नहीं मालूम। व्हाइट हाउस के लिए दौड़ में दोनों प्रत्याशियों के बीच कांटे की टक्कर है। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में विश्वभर की लोकतांत्रिक ताकतें बाराक ओबामा के पक्ष में रंगभेद, श्वेत वर्चस्व और बहिष्कार के विरुद्ध ​​एकजुट थी। अश्वेत बिरादरी को बड़ी उम्मीदें थी बाराक ओबामा से। पर ओबामा प्रशासन में जिओनिस्ट हिलेरी क्लिंटन के विदेश मंत्री बनाये जाने के बाद मोहभंग का सिलसिला शुरू हुआ। ओबामा प्रशासन जिओनिस्ट और ग्लोबल हिंदुत्व के हाथों बेदखल हो गया। पर ओबामा कार्यकाल​​ में अरब और मध्यपूर्व एशिया में अमेरिकी बाजारू लोकतंत्र के निर्यात के लिए वसंत हेतु लीबिया और सीरिया में सैनिक हस्तक्षेप का मामला छोड़ दें तो अमेरिकी सैन्य कार्रवाई काफी हद तक नियंत्रित रही। अमेरिकी राष्ट्रपतियों के नीति निर्धारण में एक निरंतरता रहती है। पूर्ववर्ती युद्धबाज राष्ट्रपतियों द्वारा समय समय पर छेड़े गये युद्ध और उनके युद्धक सिद्धांतों की परंपरा तोड़ना किसी राष्ट्रपति के बूते में नहीं है।अपने विशेषाधिकार के ​​बावजूद भारत की सरकार की तरह अमेरिकी सरकार संसद को हाशिये पर डालकर न कोई फैसला कर सकती है और न ही किसी समझौते​​ और संधि का कार्यान्वयन। भारत अमेरिकी परमाणु संधि पर जहां भारत सरकार ने एकतरफा तौर पर संसद की परवाह किये बिना ​​दस्तखत कर दिये, वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति को इस समझौते को बाकायदा संसद में पास कराकर कानून का रुप देना पड़ा।इराक और अफगानिस्तान में ओबामा ने पीछे हटने की पहल की है और इजराइल के निरंतर उकसावे और यहूदी लाबी के दबाव के बावजूद ईरान  के खिलाफ युद्ध छेड़ने की भूल से परहेज किया है। इसके विपरीत उनके प्रतिद्वंद्वी मिट रोमनी की घोषित विदेश नीति इजराइल समर्थक है। वे ईरान के खिलाफ जंग छेड़ने को​ ​ अमादा है। खुले बाजार का फायदा उठाकर दुनियाभर में अमेरिकी आर्थिक हितों की रक्षा के लिए उनकी योजना अमेरिकी सैन्य उपस्थिति मजबूत करने की है। अगर रोमनी जीत गये तो आक्रामक वैश्विक व्यवस्था विश्वभर में युध्द का खुला कारोबार शुरू कर देगी। जान कैनेडी का लातिन अमेरिकी  सिद्धांत अभी बदला नहीं है और न ही निक्सन के शीत युद्ध के तेवर। विश्व अभी बुश पिता पुत्र के कारनामों का खामियाजा भुगत ही रहा है।

जाहिर है कि यहूदी सर्वशक्तिमान लाबी के इजराइलपरस्त रोमनी अगर जीते तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। दुनिया भर के रंगभेदी अस्पृश्यता और बहिष्कार समर्थक धर्म राष्ट्रवादी ताकतें मिटनी के साथ खड़ी है। चूंकि पिछले चुनाव की तरह हमारे जैसे दुनियाभर के अश्वेत और ​​लोकतांत्रिक लोग ओबामा के पक्ष में खड़े नहीं हैं इसबार, ईसाई- हिंदू- यहूदी राष्ट्रवादी ताकतें रोमनी को जिताने के लिए जमीन आसमान एक करने में लगे हैं। विकास को संस्कृतियों का महायुद्ध मानने वाले लोग वैश्विक व्यवस्था को जनसंहार संसकृति के मुताबिक बनाने की कवायद में​ ​ लगे हैं। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि भारत में भी सत्तावर्ग इजराइल का अंध समर्थक है। साम्राज्यवाद के इतिहास के पीछे हमेशा​ ​ धार्मिक उग्र राष्ट्रवाद की खास भूमिका रही है। अब भी चाहे तेल युद्ध हो या फिर आतंक के विरुद्ध अमेरिका का युद्ध, साम्राज्यवादी कार्रवाई ​​के पीछे सुतीव्र घृणा अभियान की पृष्ठ्भूमि है। ईसाई- हिंदू- यहूदी वैश्विक धार्मिक राष्ट्रवाद का पारमाणविक गठबंधन कारपोरेट साम्राज्यवाद​ ​ और खुले बाजार के एकाधिकारवादी आक्रमण के जरिये विश्वभर के प्रकृतिक संसाधनों पर वर्चस्व कायम करने की रणनीति के तहत है।​ ​ संयोग से भारत में भी उग्र धर्म राष्ट्रवाद का विजयरथ अब थमता नजर नहीं आता।अमेरिका और ब्रिटेन को गुजरात नरसंहार की वजह से हाल फिलहाल तक नरेंद्रमोदी अवांछित तत्व नजर आता था, आज वहीं नरेंद्र मोदी उनके लिए महानायक हैं। कल्पना करें कि अगर रोमनी अमेरिकी राष्ट्रपति बन जायें और नरेंद्रमोदी भारत के प्रधानमंत्री, तो धार्मिक राष्ट्रवाद और कारपोरेट साम्राज्यवाद का यह बेहद जहरीला रसायन प्रकृ​​ति, पर्यावरण, मनुष्य, पृथ्वी और इस आकाशगंगा के लिए कितना खतरनाक होगा!

न्यूयार्क टाइम्स का आकलन बताता है कि रिपब्लिकन के खर्च का 54 फीसद हिस्सा रिस्टोर अवर फ्यूचर व अमेरिकन क्रॉसरोड्स नाम संगठनों ने जुटाया है। जबकि डेमोक्रेट्स का 76 फीसद खर्च प्रायररिटीज यूएस एक्शन नाम संगठन के जरिये आया है।

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी का समर्थन कर रहे कुछ प्रमुख भारतीय अमेरिकियों ने उनके प्रचार अभियान के लिए डेढ़ से दो करोड़ डालर की रकम जुटाई है। रोमनी के प्रचार दल ने राजनीतिक चंदे को लेकर कोई आंकड़ा पेश नहीं किया है और उसने बड़े दाताओं की सूची भी जारी नहीं है। इस सूची में भारतीय मूल के 200 से अधिक लोगों के नाम हैं। रोमनी के प्रचार अभियान दल की राष्ट्रीय वित्त समिति के प्रमुख स्पेंसर जाविक ने नवंबर, 2011 में 'इंडियन अमेरिकी कोएलिशन' की स्थापना की थी ताकि भारतीय मूल के अधिक लोगों को प्रचार अभियान से जोड़ा जा सके। रिपब्लिकन पार्टी के लोगों का मानना है कि भारतीय मूल के लोगों ने रोमनी के अभियान को डेढ़ से दो करोड़ डालर की रकम की मदद की है। रोमनी की वित्तीय समिति में शामिल सुए घोष ने कहा, ''सबने पैसे का योगदान दिया है। राजनीतिक चंदा एकत्र करने से जुड़े हर कार्यक्रम में औसतन 10 लाख डालर की रकम एकत्र की गई।''

घोष ने कहा, ''भारतीय मूल के लोग सर्वसम्मति के साथ मिट रोमनी का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि अमेरिका गलत ढर्रे पर है और उनके बच्चों का आर्थिक भविष्य दांव पर है।'' रिपब्लिकन समर्थक सम्पत सिंघवी ने कहा, ''रिपब्लिकन भारत के अधिक नजदीकी हैं। रोमनी भारत के लिहाज से बेहतर राष्ट्रपति होंगे।'' भारतीय मूल के एक अन्य रिपब्लिकन राजू चिंताला ने कहा, ''साल 2008 में भारतीय मूल के लोगों ने ओबामा का साथ दिया था, लेकिन 2012 में ऐसा नहीं होने वाला है।''



भारत को एक डेमोक्रैट राष्ट्रपति से ज्यादा फायदा होगा या रिपब्लिकन से? भारत की अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों का क्या प्रभाव होगा, भारत को क्या उम्मीद करनी चाहिए? भारतीय मीडिया अभी इन्हीं जवाबों की तलाश में है। खुले बाजार की अर्थव्यवस्था की बदौलत पिछले बीस साल में हजरों गुणा संपत्ति अर्जित करने वाला भारतीय पूंजीपति वर्ग और मलाई लूच?टने वाले एक फीसद सत्ता वर्ग को इसमें खास दिलचस्पी है। भारत में मनुस्मृति की अस्पृश्यता और बहिष्कार की व्यवस्था बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हिंदुत्ववादी ताकतें यहूदी लाबी के उम्मीदवार रोमनी के हक में खुलकर सामने आ गये हैं।अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का दिन जैसे जैसे करीब आ रहा है, वैसे वैसे भारत की राजनीतिक पार्टियां और उद्योगपति यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि मिट रोमनी और बराक ओबामा में से भारत अमेरिकी संबंधों के लिए कौन ज्यादा फायदेमंद होगा।भारत अमेरिकी संबंध से उनका तात्पर्य वैश्विक कारपोरेट व्यवस्ता में उनके वर्ग हितों के संरक्षण का भविष्य। अब तक अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवारों ने भारत के बारे में साफ साफ कुछ नहीं कहा है। भारतीय राजनयिकों का मानना है कि भारत अमेरिका के लिए रणनीतिक तौर पर अहम है और इसलिए दोनों देश आपसी संबंध अच्छे बनाए रखना चाहते हैं।भारत अमेरिका परमाणु संधि, आतंक के विरुद्ध अमेरिका के युद्ध और इजराइल व अमेरिका की अगुवाई में पारमामविक रणनीतिक संबंधों​ ​ के मद्देनजर, वैश्विक वित्तीय संस्थाओं पर अमेरिकी वर्चस्व और भारत के नीति निर्धारण व सरकार के रोजमर्रे के कामकाज में वाशिंगटन के बढ़ते हस्तक्षेप के मद्देनजर चाहे ओबामा जीते या रोमनी, भारत की नियति अमेरिकी हितों से ही जुड़े रहना है। पर यहूदी-  हिंदू- ईसाई धर्म ​​राष्ट्रवादी गठबंधन के जीतने के बाद समूचे दक्षिण एशिया के युद्धक्षेत्र में तब्दील हो जाने और देश के भीतर आंतरिक सुरक्षा में अमेरिकी​ ​ इजराइली तंत्र के कारपोरेट हितों में सक्रिय हो जाने की स्थिति में प्रकृतिक संसाधनों की बहुलता वाले इलाकों में कहर बरपा देने वाले हालात जरूर बनेंगे।

भारत की कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता टॉम वडक्कन ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि राष्ट्रपति कौन बनेगा।आपसी तालमेल ज्यादा जरूरी है और दोनो लोकतंत्र एक दूसरे को अनदेखा नहीं कर सकते. हमें एक दूसरे की मदद करनी होगी और संबंध आगे बढ़ेंगे।"

बीजेपी के मुख्तार अब्बास नकवी याद दिलाते हैं कि राष्ट्रपति ओबामा ने भारत और अमेरिका के बीच संबंधों को 21वीं शताब्दी को "तय करने वाले संबंध" बताए हैं। "हमारे लिए ओबामा को परखा जा चुका है, उन पर विश्वास किया जा सकता है। इसका मतलब रोमनी के खिलाफ होना नहीं है। लेकिन मैं मानता हूं कि चाहे जो भी राष्ट्रपति बने, वह भारत को अनदेखा नहीं कर सकता।"

आउटसोर्सिंग पर नजर

दूसरों का मानना है कि 2000 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ संबंधों की बेहतरी की शुरुआत हुई जिसे जॉर्ज बुश और ओबामा ने आगे बढ़ाया और यह भविष्य में नए राष्ट्रपति भी करेंगे। भारत को सबसे फायदा होगा।राष्ट्रीय जनता दल के मदन कुमार ने डीडब्ल्यू से कहा, "2008-2009 में भारत और अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु समझौता आपसी संबंधों में एक बड़ा पड़ाव था। हमारे पुराने और जटिल संबंध अब लोकतांत्रिक आधारों और बहुसांस्कृतिक मूल्यों की नींव पर खड़े हैं और साथ ही चीन के बढ़ते प्रभाव को भी इससे कुछ कम करने की कोशिश की जा रही है।"

अमेरिका ने भारतीय सेना और नौसेना के आधुनिकीकरण का समर्थन करते हुए कहा है कि यह एक 'अच्छा निवेश' है क्योंकि इसके जरिये भारत विश्व और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शांति कायम रखने में योगदान करता है।

अमेरिका के विदेश उपमंत्री विलियम बर्न्‍स ने कहा, ''निश्चित रूप से एशिया-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा और स्थिरता हमारे हित में है।'' सेंटर फोर अमेरिकन प्रोग्रेस में 'अमेरिका और भारत: बदलते विश्व में एक अहम संबंध' पर भाषण के बाद पूछे गए एक सवाल के जवाब में बर्न्‍स ने यह बात कही।

ओबामा ने भारत और अमेरिका के बीच सामरिक वार्ता की शुरूआत की। वे दोनों देशों के बीच दीर्घकालीक सामरिक साझेदारी जारी रखना चाहते हैं। भारत व अमेरिका के बीच सामरिक वार्ता के तहत आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई, परमाणु अप्रसार, साइबर सुरक्षा और पर्यावरण जैसे अहम मुद्दों पर सहयोग के अलावा आर्थिक, सैन्य और विज्ञान के क्षेत्रों में भी सहयोग बढ़ रहा है। लेकिन वर्ष 2005 में दोनों देशों के बीच हुई परमाणु संधि को पूरी तरह लागू करने में कुछ अड़चनें हैं। आर्थिक सुधारों और विदेशी निवेश के मुद्दों पर भी ओबामा भारत से और सुधार की मांग करते हैं। इनके कार्यकाल में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार इस वर्ष 100 अरब डॉलर से अधिक होने की उम्मीद है। फिर भी ओबामा प्रशासन भारतीय बाज़ारों को और खोलने की मांग कर रहा है। ओबामा आउटसोर्सिंग का विरोध करते रहे हैं, लेकिन अमेरिका में आर्थिक मंदी और बेरोज़गारी बढ़ने के बाद वे आउटसोर्सिंग या नौकरियों को विदेश भेजने की प्रक्रिया को फिलहाल अच्छा नहीं मानते। पिछले दिनों उन्होंने कहा था कि अमेरिकी कंपनियां नौकरियों को भारत जैसे देशों में न भेजे।दरअसल, आउटसोर्सिंग के ज़रिए अमेरिका से बहुत नौकरियां भारत आती हैं। ओबामा उन कंपनियों को टैक्स में छूट खत्म करने की बात करते हैं, जो कंपनियां नौकरियां अमेरिका से बाहर भेजती हैं। ओबामा का मानना है कि वित्तीय अस्थिरता के दौर में कहीं न कहीं संरक्षणवादी नीतियां लागू होती हैं जो नौकरियों के वैश्वीकरण के दौर में खतरनाक है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, चीन के आसपास होने के कारण अमेरिका तुलनात्मक रूप से स्थिर भारत के महत्व को चाह कर भी नहीं नकार सकता। इस मामले में उनका मिट रोमनी से ज्यादा कड़ा रूख हैं। इसके अलावा अमेरिका में काम करने के लिए एच1बी वीज़ा हासिल करने के मुद्दे पर भी ओबामा के दौर में आईटी और अन्य क्षेत्रों में भारतीय पेशेवरों को मुश्किलें उठानी पड़ी हैं। ओबामा प्रशासन ने एच1बी और एल1 वीज़ा की फ़ीस काफ़ी बढ़ा दी है। लेकिन कई सामरिक मामलों में ओबामा की नीतियां भारत हित में हैं। ओबामा ने कश्मीर मुद्दे पर बाहरी हस्तक्षेप का विरोध किया है। कहा है कि इस मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान को आपस में बातचीत जारी रखनी चाहिए। अफ़गा़निस्तान में शांति बहाली के मुद्दे पर भी ओबामा भारत का अहम रोल मानते हैं। सबके बावजूद यह कह सकते हैं कि भारत को जो सम्मान राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के ज़माने में मिला वह ओबामा के कार्यकाल में नहीं दिया गया।

अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी ने भारत को रणनीतिक और भूराजनैतिक पटल पर अहम देश बताया है। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रोमनी ने अपील की है कि दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक संबंधों को और मजबूत किया जाना चाहिए। कहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के साथ मजबूत रिश्तों के अलावा आर्थिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में भी स्वागत करते हैं। पार्टी ने जोर दिया कि वह नई दिल्ली को ज्यादा विदेशी निवेश के मुद्दे पर प्रोत्साहित करेगी। साथ ही अपील की कि भारत में सभी धर्मों के लोगों को सुरक्षा मिले। पार्टी ने अमेरिका की बेहतरी के लिए वहां रहने वाले भारतीयों के योगदान को भी सराहा। चुनावी रैलियों में भारत और उसके साथ संबंधों के बारे में अक्सर बात होती है। इसके अलावा रोमनी ने भारत के मुद्दे पर खासतौर पर अपनी कोई नीति तो नहीं स्पष्ट की, लेकिन विदेश नीति के बारे में उनके जो बयान आए हैं उनमें भारत को अमेरिका का सामरिक साझेदार बताया गया है। रोमनी चीन के प्रति कड़ा रुख रखते हैं। सितंबर में रिपब्लिकन पार्टी के चुनावी सम्मेलन में भी पार्टी की ओर से मंज़ूर गए प्रस्तावों में भारत को अमेरिका का सामरिक और व्यापारिक साझीदार बताया गया था। यही नहीं, रिपब्लिकन पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के दौर में ही भारत व अमेरिका के बीच परमाणु संधि पर हस्ताक्षर हुए थे। इस करार को दोनों देशों के बीच रिश्तों की मजबूती में अहम कदम माना जाता है। इसके अलावा रोमनी आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर भी भारत के प्रति सकारात्मक रूख रखते हैं। वह अमेरिका से भारत जैसे देशों में नौकरियां भेजने वाली कंपनियों को दंडित न करने में विश्वास रखते हैं। हालांकि ओबामा ने रोमनी पर ये भी आरोप लगाए हैं कि जब वह मैसाच्यूसेट्स राज्य के गवर्नर थे तो राज्य की कुछ सरकारी नौकरियां आउटसोर्सिंग के ज़रिए भारत भी भेजी गई थीं। अमेरिका में काम करने के लिए एच1बी वीज़ा जैसे मुद्दों पर रोमनी मानते हैं कि अमरीकी आप्रवासन कानून में ढील होनी चाहिए जिससे विदेशों से माहिर पेशेवर अमेरिका में आकर कंपनियां शुरू करें, ताकि नौकरियां पैदा हों। रोमनी का मानना है कि अमेरिकी यूनिवर्सिटी से विज्ञान, गणित, और इंजीनियरिंग की उच्च डिग्री लेने वाले हर विदेशी छात्र को अमेरिकी ग्रीन कार्ड या स्थायी तौर पर अमेरिका में रहने और काम करने की इजाज़त मिलनी चाहिए। कहा जा रहा है कि रोमनी अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो भारत के साथ सामरिक और कूटनीतिक मुद्दों जैसे कशमीर, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में भारतीय सहयोग पर ओबामा की ही नीतियां जारी रख सकते हैं। रोमनी एक चुनावी भाषण में भी कह चुके हैं कि पाकिस्तान का भविष्य अनिश्चित है और इस अनिश्चितता के कारण यह खतरा बना रहेगा कि पाकिस्तान के पास मौजूद 100 के करीब परमाणु बम कहीं इस्लामी जिहादियों के हाथ न पड़ जाएं। रोमनी चीन के खिलाफ़ कड़ा रूख रखते हैं और चीन की ताकत को काबू में रखने के लिए भारत को अहम साथी मानते हैं।

भारत और अमरीका दो ऐसे राष्ट्र हैं, जिन्होंने अपने आधुनिक इतिहास के दौरान अपने संबंधों में काफ़ी उतार-चढ़ाव देखे हैं । दोनों देशों के बीच भिन्न-भिन्न सामरिक और विचारधारात्मक कारणों से समय-समय पर तनावपूर्ण संबंध रहे हैं, लेकिन परिस्थितियां बदलने पर दोनों देश एक-दूसरे के क़रीब भी आए हैं । शीत युद्ध की राजनीति का अमेरिकी-भारत संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ा । जबकि विश्व के अधिकतर देश पूर्वी ब्लॉक और पश्चिमी ब्लॉक में बंटे हुए थे, भारत ने सैद्धांतिक रूप से गुट-निरपेक्ष रहने का फ़ैसला किया पर वह अमरीका के बजाय सोवियत संघ के ज्यादा क़रीब रहा । दूसरी ओर, इस समय अब भारत की मौजूदा नीति अपने राष्ट्रीय हितों की ख़ातिर एक साथ विभिन्न देशों से अच्छे संबंध बनाने की है । भारत, ईरान, फ़्रांस, इस्राइल, अमेरिका और बहुत से अन्य देशों के साथ मित्रता बढ़ाने की कोशिश कर रहा है । भारत और अमेरिका के रिश्ते अब और मजबूत हुए हैं । चार अमरीकी राष्ट्रपति भारत की यात्रा कर चुके हैं : सन् २००० में बिल क्लिंटन भारत आए थे । उनसे पहले जिमी कार्टर १९७८ में, रिचर्ड निक्सन १९६९ में और ड्वाइट आइज़नहावर १९५९ में भारत आये थे । मार्च २१, २००० को राष्ट्रपति क्लिंटन और प्रधानमंत्री वाजपेयी ने नई दिल्ली में एक संयुक्त बयान, "भारत-अमेरिकी संबंध : २१वीं शताब्दी के लिए एक परिकल्पना" नामक संयुक्त दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये थे ।भारत और अमरीका दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, जिनमें काफी समानताएं हैं। भारत और अमरीका के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ता जा रहा है और आने वाले वर्षों में और अधिक बढ़ने की संभावना है। इसी प्रकार सैन्य सहयोग भी बढ़ा है । बहरहाल, अमरीका भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिरता की वकालत करता रहा है, जिसमें कश्मीर मुद्दे पर तनाव कम करना और परमाणु हथियारों के प्रसार व परीक्षण का परित्याग भी शामिल है। यह अब अच्छी तरह स्थापित हो चुका है कि दोनों देशों के पास एक-दूसरे को देने के लिए बहुत कुछ है। ... में यू.एस. कांग्रेशनल सर्विस ने एक पेपर प्रस्तुत किया है, जिसमें भारत-अमेरिकी संबंधों का बहुत ही अच्छा नवीनतम विश्लेषण दिया गया है।

अमेरिकी विदेश नीति पर हुई इस बहस में ओबामा और रोमनी पहली दो बहसों के मुकाबले संयमित दिखे। दोनों कुछ मुद्दों खासकर पाकिस्तान को लेकर अमेरिकी नीति पर करीब-करीब सहमत दिखे।राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच बहस  के दौरान भारत का उल्लेख तक नहीं किया गया। भारत के साथ रिश्तों को अमेरिका में द्विदलीय समर्थन है।अमेरिकी चुनाव के आखिरी दौर की बहस फ्लोरिडा में हुई| यह विदेश नीति पर केन्द्रित थी। राष्ट्रपति ओबामा और रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी के बीच विदेश नीति, आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जोरदार बहस देखने को मिली। विदेश नीति पर हुई बहस में भारत का भी जिक्र नहीं हुआ। बहस का संचालन सीबीएस पर 'फेस द नेशन' के प्रस्तोता बॉब शिफर ने की।भारत-अमेरिका संबंध अब इतने परिपक्व हो चुके हैं कि उन पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने की आवश्यकता ही नहीं रह गई है।तीसरी और आखिरी प्रेसीडेन्शिल डिबेट में बराक ओबामा और मिट रोमनी के बीच विदेश नीति से जुड़े प्रमुख मुद्दों पर जहां तीखा टकराव हुआ वहीं पाकिस्तान के साथ अमेरिका के विश्वास में कमी भी साफ नजर आई। बहस के दौरान राष्ट्रपति ओबामा ने अपने रिपब्लिकन प्रतिद्वन्द्वी को उनके ''गलत और लापरवाह नेतृत्व'' के लिए आड़े हाथों लिया। बहस के दौरान अमेरिकी विदेश नीति के व्यापक संदर्भ में ओबामा और रोमनी दोनों ही इस बात पर सहमत हुए कि ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए, अगर ईरान तेल अवीव पर हमला करता है तो अमेरिका को अपने मुख्य सहयोगी इस्राइल की रक्षा करनी चाहिए, वर्ष 2014 तक अफगानिस्तान से सेनाओं की वापसी होनी चाहिए और चीन के खिलाफ कड़े कदम उठाने की जरूरत है। बहस के दौरान रोमनी पाकिस्तान पर ड्रोन हमलों पर ओबामा की नीति से सहमत थे। रोमनी का कहना था पाकिस्तान का साथ देना अमेरिका के लिए जरूरी है। उनके अनुसार पाकिस्तान एक दोस्त है और इसे अपना काम निकल जाने के बाद छोड़ना नहीं चाहिए।डिबेट में ईरान मुद्दा भी उठा और रोमनी ओबामा से सख्त नजर आए। ओबामा ने ईरान को चेतावनी दी कि 'समय निकलता जा रहा है', वहीं रोमनी ने तेहरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए कड़ा रुख अपनाने का संकल्प जताया।

डिबेट मॉडरेटर ने रोमनी से पूछा कि अगर ईरान पर इजरायल हमला करता है तो इसे आप किस तरह लेंगे। उन्होंने जवाब दिया कि अगर इजरायल हमला करता है तो वे  उसका समर्थन करेंगे| वहीं, ओबामा ने भी इजरायल का साथ देने की बात कही। मॉडरेटर के यह पूछने पर कि आज अमेरिका के लिए सबसे बड़ा खतरा कौन है, ओबामा ने आतंकवाद और रोमनी ने परमाणु हथियार बनाने की होड़ में लगे ईरान का नाम लिया।

सीएनएन की रायशुमारी के अनुसार, पहली प्रेसीडेन्शियल डिबेट में ओबामा जीते थे। सीबीएस न्यूज के और अन्य रायशुमारियों में भी उन्होंने ही बाजी मारी। सीएनएन की रायशुमारी में जहां 48 फीसदी लोगों ने ओबामा के लिए मतदान किया वहीं रोमनी का पक्ष लेने वालों की संख्या 40 फीसदी थी।

अमेरिका के राष्ट्रपति व डेमोक्रेट उम्मीदवार बराक ओबामा ने जहां भारत-अमेरिका के संबंधों को 21वीं सदी की निर्धारक साझेदारी में से एक बताया है, वहीं रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी ने विदेश नीति से संबंधित अपने भाषण में भारत का कोई जिक्र नहीं किया.

रोमनी ने अपने संबोधन में ओबामा पर दुनिया को वैश्विक नेतृत्व देने में विफल रहने का आरोप लगाया, जिसकी उम्मीद पूरा विश्व, खासकर इजरायल जैसे प्रमुख सहयोगी देश कर रहे हैं. उन्होंने वादा किया कि यदि वह जीतते हैं तो सैन्य और आर्थिक शक्तियों के बल पर वह अमेरिका को विश्व युद्ध के बाद वाली भूमिका में लाने के लिए उस वक्त की विदेश नीति बहाल करेंगे.

वर्जीनिया मिलिट्री इंस्टीट्यूट में सोमवार को अपने संबोधन में रोमनी ने लीबिया के बेनघाजी स्थित अमेरिकी वाणिज्य दूतावास पर हमला और इसमें अमेरिकी राजदूत क्रिस्टोफर स्टीवन्स तथा तीन अन्य के मारे जाने सहित अरब देशों में जारी अमेरिका विरोधी प्रदर्शन व हिंसा का जिक्र करते हुए इन्हें ओबामा शासन की विदेश नीति की विफलता करार दिया.

रोमनी ने कहा, 'यह हमारी और हमारे राष्ट्रपति की जिम्मेदारी है कि वह इतिहास को आकार देने के लिए अमेरिका की महान शक्ति का इस्तेमाल करे, न कि देश को भाग्य भरोसे छोड़ दे. दुर्भाग्यवश मौजूदा राष्ट्रपति की नीतियां वैश्विक नेतृत्व के हमारे बेहतरीन उदाहरणों के समान नहीं हैं.'

रोमनी ने हालांकि पाकिस्तान में छिपे अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को ढूंढकर मार गिराने में ओबामा प्रशासन की सफलता को माना.

अफगानिस्तान के बारे में रोमनी ने कहा कि वह इस बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर नीति नहीं बनाएंगे, बल्कि वह वर्ष 2014 के आखिर तक सफलतापूर्वक अफगान सुरक्षा बलों को वहां की जिम्मेदारी सौंप देंगे. ईरान पर उन्होंने कहा कि वह ओबामा प्रशासन की नीतियों को आगे बढ़ाएंगे.

रोमनी का भाषण समाप्त होने के बाद व्हाइट हाउस के प्रवक्ता जे कार्ने ने कहा कि उनकी नीतियां बहुत हद तक वही हैं, जो ओबामा की हैं. वहीं पूर्व विदेश मंत्री मेडलीन अल्ब्राइट ने रोमनी पर अपने विचार बदलते रहने का आरोप लगाया.



और भी... http://aajtak.intoday.in/story.php/content/view/710025/73


राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच पहली बहस ने चुनाव की हवा बदल दी। ओबामा, जिन्हें प्रभावी वक्ता माना जाता है, लोगों के दिल को छूने में असफल रहे। उनका फीका प्रदर्शन घातक साबित हुआ और रोमनी ने दनदनाते हुए चुनाव अभियान की दशा-दिशा बदल डाली। रोमनी एक स्मार्ट, भरोसेमंद राजनेता के रूप में उभरे, जो सटीक जवाब देने में समर्थ हैं, जबकि ओबामा ने कुछ खास मुद्दों पर ही प्रभावित किया। चुनाव अभियान पर नजर रखने वालों को यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि अगला कार्यकाल रोमनी का है। तबसे बराक ओबामा बराबर पिछड़ते जा रहे हैं। चुनावी दौड़ अब ऐसे नाजुक मोड़ पर पहुंच गई, जहा से डेमोक्रेटिक पार्टी में घबराहट फैल गई। दूसरी बहस ने भी ओबामा की कोई मदद नहीं की और इसे दोनों उम्मीदवारों के बीच बराबरी का माना गया।

इसी सप्ताह के शुरू में हुई विदेश नीति पर आखिरी बहस की अहमियत बढ़ गई थी। ओबामा के पास विदेश नीति के संदर्भ में अपने प्रतिद्वंद्वी से खुद को बेहतर साबित करने का यह आखिरी मौका था। वह ओसामा बिन लादेन की मौत को भुना सकते थे। रोमनी के लिए यह संभावित कमाडर इन चीफ के रूप में अपनी सूझबूझ को रेखाकित करने का सुनहरा मौका था और पूरा विश्व इसलिए इस बहस पर नजरें गड़ाए था कि राष्ट्रपति के रूप में रोमनी ओबामा से किस तरह अलग होंगे। किंतु यह बहस का चरण फीका रहा। दोनों उम्मीदवारों के अधिकाश विचार मेल खा रहे थे और कुछ छोटे मुद्दों पर ही उनके बीच मतभेद थे। ओबामा का प्रमुख आरोप यह था कि रोमनी में देश को नेतृत्व देने की दृष्टि का अभाव है। दूसरी तरफ, रिपब्लिकन उम्मीदवार ने यह साबित करने की कोशिश की कि ओबामा की विदेश नीति लचर और अप्रभावी है।

अमेरिका के राष्ट्रपति ने शायद पहली बार जनता को यह बताया कि ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए अपने कमांडो ऐबटाबाद भेजने से पहले उन्होंने पाकिस्तान की अनुमति क्यों नहीं मांगी।51 वर्षीय ओबामा ने कहा कि अगर वह ऐसी अनुमति मांगते तो बिन लादेन कभी मारा नहीं जाता।65 वर्षीय रोमनी ने पाकिस्तान को सशर्त सहायता देने के लिए तर्क दिया लेकिन वह इस अस्थिर देश के साथ रिश्ते तोड़ने के किसी भी कदम के पूरी तरह खिलाफ थे।

एक सवाल के जवाब में रोमनी ने दलील दी कि पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण रिश्तों के बावजूद अमेरिका उससे संबंधों को तोड़ नहीं सकता जहां 100 से ज्यादा परमाणु हथियार हैं।

उन्होंने कहा, ''पाकिस्तान क्षेत्र के लिए, दुनिया के लिए और हमारे लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकिस्तान के पास 100 परमाणु हथियार हैं और वे और अधिक हथियार बनाने की दिशा में लगे हुए हैं। निकट भविष्य में उनके पास ग्रेट ब्रिटेन से अधिक परमाणु हथियार होंगे।''

बहस के दौरान रोमनी रक्षात्मक दिखे और पाकिस्तान तथा यमन जैसे देशों में आतंकवादियों को मारने के लिए ड्रोनों का उपयोग करने एवं वर्ष 2014 तक अफगानिस्तान से सेनाओं की वापसी के ओबामा के फैसले का समर्थन किया।

ओबामा ने ईरान को चेतावनी दी ''हम यह सुनिश्चित करने जा रहे हैं कि अगर वह :ईरान: अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बात नहीं मानता है तो हम उन्हें परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए सभी आवश्यक विकल्प अपनाएं।''

रोमनी ने ईरान के प्रति और अधिक कठोर रूख जाहिर किया। उन्होंने कहा कि परमाणु संपन्न ईरान अमेरिका के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य है। उन्होंने इस्लामिक गणराज्य को ''दुनिया के लिए बहुत बड़ा खतरा'' घोषित किया।

रिपब्लिकन प्रत्याशी ने व्यापार और मुद्रा संबंधी मुद्दों पर चीन के प्रति भी कड़े रूख का इरादा जताया। लेकिन इससे व्यापार युद्ध शुरू होने की चेतावनी के बाद उनका रवैया नर्म हुआ।

तीसरी बहस के अंत में दोनों प्रत्याशियों ने निर्वाचन के लिए खुद को बेहतर बताते हुए मजबूत तर्क पेश किए। ओबामा ने रोमनी से कहा ''जब भी आपने विकल्प दिए हैं, आप गलत रहे हैं।''

उन्होंने मैसाचुसेट्स के पूर्व गवर्नर और संपन्न कारोबारी रोमनी पर कटाक्ष किया ''जब हमारी विदेश नीति की बात होती है तो लगता है कि आप 1980 के दशक की विदेश नीतियां लाते हैं ... बिल्कुल उसी तरह जैसे 1950 के दशक की सामाजिक नीतियां और 1920 के दशक की आर्थिक नीतियां थीं।''

सीबीएस न्यूज की रायशुमारी के अनुसार, गैर प्रतिबद्ध मतदाताओं में से 53 फीसदी ने ओबामा को विजयी बताया जबकि 23 फीसदी की राय में रोमनी जीते।

ओबामा ने रोमनी के लिए कहा ''गवर्नर हमें ऐसी नीतियों की ओर वापस ले जाना चाहते हैं : विदेश नीति जो गलत और लापरवाह है, आर्थिक नीतियां जिनसे रोजगार सृजित नहीं होंगे, हमारी मुद्रास्फीति नहीं घटेगी।''

उन्होंने कहा ''रोमनी ने पूरे अभियान के दौरान अलग रास्ता चुना। घर और बाहर उन्होंने गलत तथा लापरवाह नीतियों का प्रस्ताव दिया। वह अच्छे अर्थशास्त्री के तोर पर बुश की और दूरदर्शी नेता के तौर पर डिक चेनी की तारीफ करते रहे।''

अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा है कि भारत-अमेरिका संबंध व्यापकता के दृष्टि से वैश्विक हैं और 21वीं सदी में व्यापक सुरक्षा तथा समृद्धि लाने के ओबामा प्रशासन के प्रयासों में भारत एक प्रमुख हिस्सा है.

सहायक रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने न्यूयॉर्क में एशिया सोसायटी की बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि व्यापकता और प्रभाव की दृष्टि से भारत-अमेरिका संबंध वैश्विक हैं. उन्होंने कहा कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में संतुलन बनाने तथा 21वीं सदी को व्यापक तौर पर सुरक्षित और समृद्ध बनाने के प्रयासों में भारत एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

कार्टर ने कहा कि हमारे सुरक्षा हित साझा हैं. समुद्री सुरक्षा, हिंद महासागर क्षेत्र, अफगानिस्तान और कई क्षेत्रीय मुद्दों पर हम व्यापक तौर पर हित साझा करते हैं.

पेंटागन के अधिकारी ने कहा कि मैं रक्षा मंत्री लियोन पेनेटा के कहने पर एक प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत गया था. हमारा मकसद अमेरिका-भारत रक्षा सहयोग के लिए एक साझा नजरिया विकसित करने का था.



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दिलचस्प बात यह है कि तीसरी बहस का केद्र-बिंदु विदेश नीति होने के बावजूद बहस घूम-फिरकर घरेलू मुद्दों पर आ रही थी। यद्यपि बहस में अफगानिस्तान युद्ध से लेकर चीन के उदय और पश्चिम एशिया में विद्रोह समेत तमाम वैश्विक मुद्दों पर चर्चा हुई, लेकिन सबसे अधिक मतभेद ईरान और इजरायल के मुद्दे पर सामने आए। रोमनी ने आरोप लगाया कि ओबामा की नीतियों के कारण तेहरान परमाणु हथियार बनाने की क्षमता विकसित करने के अपने लक्ष्य के चार साल करीब पहुंच गया है। ईरान ने 10,000 सेंट्रीफ्यूज तैयार कर लिए हैं और वह अमेरिका तथा विश्व के लिए परमाणु खतरा बनता जा रहा है। यहूदी मतदाताओं को लुभाने के लिए रोमनी ने कहा कि कार्यकाल के पहले वर्ष में ओबामा के मुस्लिम देशों में माफी दौरे से अमेरिका की कमजोरी का संकेत गया। ओबामा ने इजरायल की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता जताते हुए कहा कि अगर इजरायल पर हमला होता है तो अमेरिका इजरायल के साथ खड़ा मिलेगा। दोनों के बीच मतभेद का दूसरा बड़ा मुद्दा था सीरिया। दोनों पक्षों ने इस मुद्दे पर अपने विचार रखे कि कैसे सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असद को जल्द से जल्द सत्ता से बेदखल किया जाए, क्योंकि इस युद्ध के कारण पश्चिम एशिया की शाति खतरे में पड़ गई है। इसके अलावा चीन की व्यापार नीतियों पर टकराव के मुद्दे पर भी गरमागरम बहस हुई।

ओबामा बहस के शुरू से ही आक्रामक नजर आए। उन्होंने कहा, 'हम ईरान को ऐसी बातचीत नहीं करने देंगे, जिसका कोई नतीजा न निकले। मैं उनके मामले में बिल्कुल साफ हूं और इस्राइल सहित विभिन्न देशों से हमारा खुफिया समन्वय है। हमें अहसास है कि वह कब ऐसी क्षमता हासिल करेंगे जिसका मतलब है कि उस समय हम उन्हें उनके परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए हस्तक्षेप नहीं कर पाएंगे और यही समय निकलता जा रहा है।'

बहस के सीधे प्रसारण के दौरान 51 वर्षीय ओबामा ने कहा 'हम यह सुनिश्चित करने जा रहे हैं कि अगर वह (ईरान) अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बात नहीं मानता है तो हम उन्हें परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए सभी आवश्यक विकल्प अपनाएं।' 65 वर्षीय मिट रोमनी ने ईरान के प्रति और अधिक कठोर रूख जाहिर किया। उन्होंने कहा कि परमाणु संपन्न ईरान अमेरिका के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य है। उन्होंने इस्लामिक गणराज्य को 'दुनिया के लिए बहुत बड़ा खतरा' घोषित किया।

रोमनी ने कहा 'इससे हमे और हमारे दोस्तों को खतरा है। ईरान के पास परमाणु सामग्री और परमाणु हथियार हों तो वह उनका उपयोग हमारे खिलाफ कर सकता है या हमें धमकाने के लिए कर सकता है। यह समझना भी हमारे लिए जरूरी है कि ईरान में हमारा मिशन क्या है और यह मिशन है ईरान को शांतिपूर्ण तथा कूटनीतिक तरीके से परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए समझाना।'

पाकिस्तान के मुद्दे पर दोनों उम्मीदवार एक ही नाव पर सवार दिखे। दोनों का मानना था कि परमाणु हथियारों से लैस विफल पाकिस्तान अमेरिका और विश्व के लिए खतरा बन सकता है। कुल मिलाकर रोमनी ने वैश्विक मामलों में अमेरिका की भूमिका पर कोई खास अलग रुख नहीं अपनाया। परंपरागत रूप से विदेश नीति पर बहस का लाभ पदस्थ राष्ट्रपति को मिलता है, इसलिए रोमनी की रणनीति विदेश नीति पर केंद्रित बहस में घरेलू मुद्दे घुसाने की थी। व्यापक स्तर पर विदेश नीति पर बहस से यह स्पष्ट हुआ कि प्रमुख शक्तियों की विदेश नीति उनकी खुद की खींची वक्र रेखा के दायरे में घूमती है और विद्यमान घरेलू राजनीति का इस पर खास प्रभाव नहीं पड़ता। चार साल पहले विदेश नीति के संदर्भ में ओबामा की घोषणाओं पर दृष्टिपात करने से यह बात साफ हो जाती है। ओबामा के कार्यकाल की शुरुआत में नई दिल्ली ओबामा के परमाणु अप्रसार पर जोर, चीन की तरफ झुकाव और इस सुझाव को लेकर चिंतित थी कि अफगानिस्तान में अमेरिका की सफलता कश्मीर मसले पर अमेरिकी हस्तक्षेप पर निर्भर करती है। फिर भी ओबामा के चार साल के कार्यकाल के दौरान भारत-अमेरिका संबंधों में सुधार आया और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में उठाए गए कदम आगे बढ़े। वास्तव में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की उम्मीदवारी का समर्थन करके ओबामा किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति से आगे निकल गए। इस बीच नई दिल्ली के साथ वाशिगटन के सहयोग में वृद्धि हुई और अमेरिका ने भारत को पूर्व तथा दक्षिण पूर्व एशिया में अधिक प्रभावी भूमिका निभाने को कहा। सबसे महत्वपूर्ण बदलाव अफगानिस्तान में भारत की भूमिका पर देखने को मिला। अब अमेरिका अफगान समस्या के समाधान में भारत की प्रमुख भूमिका देख रहा है और अफगान समस्या की जड़ पाकिस्तान में देख रहा है। भारत के संदर्भ में मिट रोमनी की सोच भी सकारात्मक है। उनके विदेश नीति सलाहकार भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रेखाकित करते हैं। परिणामस्वरूप, 2013 के पश्चात भी अमेरिका की भारत नीति में किसी महत्वपूर्ण बदलाव की संभावना नहीं है।

अमेरिका में भारत की राजदूत निरूपमा राव ने कहा है कि साझे आर्थिक, कूटनीतिक और सुरक्षात्मक लक्ष्यों ने दोनों देशों और दोनों देशों की जनता को पहले से कहीं अधिक करीब ला दिया है।

राव ने कांग्रेसनल राजनीति पर खासतौर से केंद्रित वाशिंगटन के एक प्रमुख समाचार पत्र, 'द हिल' में लिखा है कि भारत और अमेरिका के बीच हाल ही में संपन्न हुए रणनीतिक संवाद से दोनों देशों की रणनीतिक साझेदारी में कई महत्वपूर्ण प्रगति हुई हैं।

राव ने कहा है, 'इनमें कई मोर्चो पर संवर्धित सहयोग शामिल है। इन मोर्चो में स्थिर विकास के लिए स्वास्थ्य एवं शिक्षा, ऊर्जा सुरक्षा की मजबूती के प्रयास और दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंधों को सुधारने की कोशिशें शामिल हैं।

राव ने कहा कि अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने गुजरात में विद्युत उत्पादन के लिए एक परमाणु विद्युत परियोजना स्थापित करने को लेकर वेस्टिंगहाउस और भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग के बीच हुए एक प्राथमिक समझौते की प्रशंसा की थी और उसे भारत और अमेरिका के बीच 2008 में हुए ऐतिहासिक परमाणु समझौते के क्रियान्वयन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया था।

राव ने कहा है, 'हम सहमत है, और कहेगे कि अन्य क्षेत्रों में भी ढेर सारी प्रगति है।' उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने इस बात पर जोर दिया है कि अमेरिका और भारत लगातार प्रगति करते रहेगे और खासतौर से व्यापार व कारोबार में कई मुद्दों पर मिलकर काम करते रहेगे।

राव ने कहा कि व्यापार पर दोनों नेताओं ने घोषणा की थी कि वे एक द्विपक्षीय संधि को पूरा करने की दिशा में काम करेगे जो दोनों देशों के बीच निवेश व व्यापार को बढ़ावा देगा। रक्षा संबंधी मामलों, समुद्री एवं इंटरनेट सुरक्षा, आतंकवाद से मुकाबला और व्यापार को भी आगे ले जाया जाएगा।

राव ने कहा कि सामूहिक उद्देश्य की चिंता का एक अन्य प्रमुख क्षेत्र अफगानिस्तान है। उन्होंने कहा कि अमेरिका और भारत अफगानिस्तान में दीर्घकालिक शांति एवं स्थिरता सुनिश्चित कराने के रास्ते तलाशने के लिए अलग-अलग काम कर रहे है।

ओबामा और रोमनी की विदेश नीति
सोमवार, 22 अक्तूबर, 2012
http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2012/10/121023_usa2012_foreignpolicy_pp.shtml


मुख्य मुद्दे:ईरान का परमाणु कार्यक्रम, परमाणु हथियार विकसित करने का ख़तरा, युद्ध की संभावना और इसराइल की ओर से एकतरफा कार्रवाई की अटकलें.


बराक ओबामा

ओबामा ने क्या कहा: "मज़बूत देश और मज़बूत राष्ट्रपति अपने विरोधियों से भी बात करते हैं" दृष्टिकोण: ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. उन्होंने सभी संभावित कार्रवाई से इनकार नहीं किया है, लेकिन स्पष्ट रूप से वे बातचीत के माध्यम से या फिर प्रतिबंध लगाकर मसले के लिए हल को प्राथमिकता देते हैं. हालाँकि शुरू में ईरानियों से संवाद की कोशिश नाकाम रही है, तो दूसरी ओर ऐसा लग रहा है कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों से उस तरह का नतीजा निकल रहा है, जैसा ओबामा सरकार सोच रही थी.
मिट रोमनी

रोमनी ने क्या कहा: "....अगर आप मुझे अगला राष्ट्रपति चुनते हैं, तो उनके पास परमाणु हथियार नहीं होंगे...." दृष्टिकोण: एक सख़्त रुख़ बरकरार रखा हुआ है. वे इस बात पर भी अड़े हुए हैं कि ईरान को परमाणु हथियार बनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी, लेकिन इससे आगे भी वे कह चुके हैं कि वे नहीं चाहते कि ईरान के पास परमाणु क्षमता भी हो. वे संवाद के पैरोकार नहीं हैं, लेकिन वे ये भी दावा करते हैं कि वे कड़े प्रतिबंधों का समर्थन करेंगे. हालाँकि उनका ये मानना है कि ईरान के सामने ये बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि सैनिक कार्रवाई की चेतावनी सच्ची है.


बराक ओबामा

ओबामा ने क्या कहा: "इसराइल की सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्धता पर कोई हिचक नहीं होनी चाहिए और न ही शांति की कोशिश में." दृष्टिकोण: इसराइल की सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्धता पर दृढ़ता से क़ायम, लेकिन वे ये भी मानते हैं कि फ़लस्तीनियों के साथ मौजूदा स्थिति टिकाऊ नहीं. वे दो राष्ट्र वाले हल का समर्थन करते हैं. उन्होंने मांग भी की थी कि हमास इसराइल के अस्तित्व को स्वीकार करे और हिंसा छोड़े. अधिकृत क्षेत्र में इसराइली बस्तियों का विरोध. ये एक ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर उनके और इसराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बीच मतभेद हो गए थे. ओबामा इस पर ज़ोर देते हैं कि इसराइल के साथ रिश्ते अच्छे हैं, लेकिन उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान इसराइल का दौरा नहीं किया.

मिट रोमनी

रोमनी ने क्या कहा: "स्थायी शांति के लिए बातचीत का मूल है एक इसराइल, जो ये जाने कि वो सुरक्षित है." दृष्टिकोण: इसराइल को वे अमरीका का सबसे क़रीबी सहयोगी मानते हैं. इसराइल से दूरी बनाने के लिए वे ओबामा की आलोचना करते हैं. वे यहूदी बस्तियों को लेकर उदार हैं. रोमनी उच्च राजनीतिक दर्जे की बजाए फ़लस्तीनी क्षेत्रों की आर्थिक स्थिति में सुधार पर ध्यान केंद्रित रखना चाहते हैं. दो राष्ट्र के सिद्धांत की व्यावहारिकता पर वे सवाल उठाते हैं. उन्होंने अपने प्रचार के दौरान इसराइल की भी यात्रा की. उन्हें ये कहते बताया गया कि 'फ़लस्तीनियों को शांति स्थापित करने में ज़रा भी रुचि नहीं.'


बराक ओबामा

ओबामा ने क्या कहा: "अमरीका और इस्लाम अलग नहीं है और इन्हें प्रतिस्पर्धा में नहीं रहना चाहिए." दृष्टिकोण: कार्यकाल के शुरू से ही ओबामा की सरकार ने अरब और मुस्लिम जगत के साथ बातचीत की कोशिश की. उन्होंने क्षेत्र में लोकतांत्रिक सुधार का समर्थन किया. साथ ही उन्होंने निवेश के लिए आर्थिक सहायता, आधारभूत क्षेत्र के लिए कर्ज और नौकरी के अवसर तैयार करने के लिए योजना भी तैयार की.

लीबिया में कर्नल गद्दाफी के ख़िलाफ़ नेटो गठबंधन में शामिल हुए, सीरिया में सख़्त प्रतिबंधों का समर्थन किया और राष्ट्रपति बशर अल असद से सत्ता छोड़ने के लिए कहा. उन्होंने इस्लाम विरोधी फिल्म के मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बचाव किया और हिंसा की आलोचना की.

मिट रोमनी


रोमनी ने क्या कहा: "रोमनी प्रशासन इसे सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा कि अरब बसंत के बाद अरब शरद न आ जाए." दृष्टिकोण: अरब क्रांति को बदलाव के लिए सकारात्मक बदलाव मानते हैं. लेकिन इससे चिंतित हैं कि इससे क्षेत्र में अमरीका के विरोधियों के लिए दरवाजा खुल सकता है. लीबिया में अमरीका के सैनिक दखल से सहमत लेकिन उसके समय से असहमत. सीरिया में ओबामा की 'निष्क्रियता' की आलोचना.

वे चाहते हैं कि अमरीका और उसके सहयोगी देश सीरिया के विपक्षी गुटों को सुनियोजित करें और हथियार दें. वे तुरंत सैनिक कार्रवाई के पक्षधर नहीं, लेकिन उनका कहना है कि अमरीका को रासायनिक हथियारों के प्रसार और उसकी सुरक्षा के लिए दखल देना होगा. अमरीकी राजनयिक मिशनों पर हमले को लेकर राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया के आलोचक.

भारत अमरीकी संबंधों पर अध्ययन
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4_%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7

भारत-अमरीकी संबंधों पर डेनिस कक्स, स्टीव कोहेन और मार्विन वाइनबाउम ने महत्वपूर्ण अध्ययन किये हैं: "डेनिस कक्स विदेश मंत्रालय में दक्षिण एशिया के विशेषज्ञ थे और सेवानिवृत्त हो चुके हैं । वे दो दशकों तक भारत और पाकिस्तान के मामलों से जुड़े रहे हैं । उन्होंने १९५७ से १९५९ तक और १९६९ से १९७१ तक पाकिस्तान में काम किया था । १९८६ से १९८९ तक वह आइवरी कोस्ट में अमेरिका के राजदूत रहे । न्यूयॉर्क टाइम्स ने उनकी पहली किताब, इंडिया एंड युनाइटेड स्टेट्स : एस्ट्रेन्ज्ड डेमोक्रेसीज, 1941-191 के बारे में लिखा था कि यह "भारत-अमेरिकी संबंधों का परिभाषित इतिहास है।"
"स्टीव कोहेन दक्षिण एशिया के सबसे विद्वान अमेरिकी विश्लेषकों में से एक हैं। उन्हें इस क्षेत्र की चुनौतियों, समस्याओं और समृद्ध इतिहास एवं संस्कृति की गहरी जानकारी है," यह मानना है हैरी बारनेस का, जो भारत में अमेरिका के राजदूत रहे हैं । इलिनोए विश्वविद्यालय में इतिहास और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एमिरेट्स, कोहेन ब्रुकिंग इंस्टीट्यूशंस में दक्षिण एशिया के मामलों, विशेषकर सुरक्षा, परमाणु प्रसार और आपदा प्रबंधन से संबंधित अनुसंधान एवं नीति अध्ययन के एक महत्वपूर्ण नियामक हैं ।

वह इस क्षेत्र में बहुत सी पुस्तकों और लेखों के लेखक और/या संपादक हैं । उनकी नयी पुस्तकें हैं- द इंडियन आर्मी (१९९० में संशोधित संस्करण), द पाकिस्तान आर्मी (१९९८ में संशोधित संस्करण, जिसके पाकिस्तान और चीन में चोरी से संस्करण छापे गये), न्यूक्लियर प्रोलिफ्रेशन इन साउथ एशिया (१९९० में संपादित) और साउथ एशिया आफ्टर द कोल्ड वॉर, इंटरनेशनल पर्सपेक्टिव्स (१९९३ में संपादित)। फ़िलहाल वे अगली शताब्दी में भारत की बढ़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय भूमिका पर एक किताब लिख रहे हैं। "मार्विन वाइनबाउम इलिनोए विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एमिरेट्स हैं और १९९९ में वे अमरीकी विदेश विभाग के इंटेलिजेंस एंड रिसर्च ब्यूरो में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विश्लेषक बने । इलिनोए में वह दक्षिण एशियाई और मध्यपूर्वी अध्ययन विभाग में १५ वर्ष तक कार्यक्रम निदेशक रहे । उन्हें मिस्र और अफ़ग़ानिस्तान में फुलब्राइट रिसर्च फ़ैलोशिप मिली और यू. एस. इंस्टीट्यूट ऑफ़ पीस में वह सीनियर फ़ैलो रहे तथा मिडिल ईस्ट इंस्टिट्यूट में स्कॉलर-इन-रेज़ीडेन्स रहे। डॉ. वाइनबाउम का शोध राजनीतिक अर्थशास्त्र, लोकतंत्रीकरण और राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित है। वह छह पुस्तकों के लेखक और संपादक हैं। इनमें साउथ एशिया एप्रोचेज़ द मिलेनियम : रीएक्ज़ामिनिंग नेशनल सिक्योरिटी, जो चेतन कुमार के साथ संपादित की गई है, तथा अफ़ग़ानिस्तान एंड पाकिस्तान : रेज़िसटेन्स एंड रीकन्सट्रक्शन भी शामिल है ।"

अमेरिका के राष्ट्रपति को मिट रोमनी कड़ी टक्कर दे रहें है, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता है इस बार राष्ट्रपति बराक ओबामा दुबारा राष्ट्रपति बनेंगे या फिर उनको पछाड़कर मिट रोमनी अमेरिका के राष्ट्रपति बनेंगे। बीबीसी सर्वे के अनुसार विश्व के अधिकांश देशों सहित भारत भी चाहता है कि अमेरिका का अगला राष्ट्रपति बराक ओबामा ही बनें। गौरतलब है कि बहुत जल्द वहां अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव होना है। इस बार के चुनाव अमेरिकी जनता दोनों गुटों में बंटी है।

सर्वे के अनुसार पचास फीसदी जनता ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति के पद पर देखना चाहती है, जबकि नौ फीसदी जनता रोमनी को राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में हैं, बाकी लोगों का कहना है कि वे इन दोनों में से किसी के पक्ष में नहीं हैं। सर्वे के मुताबिक इस बार के चुनाव में 21,797 अमेरिकी भाग लेंगे।

फ्रांस की अधिकांश जनता जहां ओबामा के पक्ष में है वहीं पाकिस्तान की 14 प्रतिशत जनता रोमनी के पक्ष में हैं तथा 11 प्रतिशत ओबामा के पक्ष में । सर्वेक्षण के आंकड़े के अनुसार अमेरिका की विदेश नीति के कारण उसे समर्थन मिल रहा है। जानकारों का मानना है कि ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका-पाक संबंधों में जितनी कड़वाहट रही उतना किसी भी राष्ट्रपति के समय में नहीं। अमेरिका-पाक रिश्तों में खटास का मुख्य कारण ड्रोन हमला, पिछले साल ग्यारह पाक सैनिकों की हत्या और ओसामा बिन लादेन की हत्या है। भारत के 36 प्रतिशत जनता ओबामा के पक्ष में है वहीं 12 प्रतिशत जनता रोमनी के पक्ष में है।

अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बनकर इतिहास रचने वाले बराक ओबामा ने छह नवंबर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए शुक्रवार को अपने गृहनगर शिकागो में मतदान किया। इस तरह चुनाव से पहले वोट देने वाले देश के पहले राष्ट्रपति बन गए हैं।

अपने व्यस्त चुनाव प्रचार अभियान के बीच ओबामा वर्जीनिया के रिचमंड से शिकागो के मार्टिन लूथर किंग सामुदायिक केंद्र पहुंचे और मतदान किया। उन्होंने कहा कि पहले मतदान करना काफी रोचक है। अमेरिकी कानून के तहत मतदाता के पास चुनाव से पहले वोट देने का विकल्प होता है। इसके लिए अलग-अलग राज्यों में तारीख तय होती है।

'बलात्कार तो बलात्कार होता है': अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने रिपब्लिकन उम्मीदवार रिचर्ड मर्डोक की बलात्कार पर विवादास्पद टिप्पणी की कड़ी निंदा की है। उन्होंने कहा कि महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधी फैसलों में राजनेताओं को हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। अमेरिकी संसद के उच्च सदन सीनेट के लिए इंडियाना से उम्मीदवार रिचर्ड ने कहा था कि अगर बलात्कार के बाद कोई महिला गर्भवती हो जाती है तो इसे ईश्वर की इच्छा समझना चाहिए।

एबीसी न्यूज को दिए साक्षात्कार में ओबामा ने कहा बलात्कार को अलग से परिभाषित करने का कोई औचित्य नहीं है। बलात्कार तो बलात्कार है। यह अपराध है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि देशभर में महिलाओं के बड़े वर्ग के लिए इसका कोई मतलब है। महिलाओं को गर्भपात का अधिकार देने का मामला चुनाव में ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है।

डेमोक्रेट्स इस मुद्दे पर राष्ट्रपति पद के लिए रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी को आड़े हाथों लेने की कोशिश कर रहे हैं। रिचर्ड के बयान के बाद कई रिपब्लिकन नेताओं ने उनसे दूरी बना ली थी, जिसके बाद उन्होंने माफी मांग ली थी।

छह अरब डॉलर यानी करीब 32 हजार करोड़ रुपये। कुछ छोटे देशों की कुल जीडीपी [सकल घरेलू उत्पाद] से भी ज्यादा। छह नवंबर को वोट पड़ने तक अमेरिकी चुनाव में इतना पैसा खर्च हो चुका होगा। ओबामा व रोमनी के बीच काटे की लड़ाई अमेरिका के इतिहास का सबसे महंगी चुनावी लड़ाई बन गई है।

बड़ी कंपनियों के मोटे चंदे, अरबों में खेलते प्रत्याशी, लाखों डॉलर के विज्ञापनों से लैस अमेरिकी लोकतंत्र अकूत पैसे की सियासत में बदलता जा रहा है। ओबामा और रोमनी इस चुनाव में प्रति सेकेंड 26 डॉलर के हिसाब से खर्च कर रहे हैं। यह आंकड़ा सितंबर के अंत तक प्रचार पर हुए खर्च की गणना पर आधारित है। अपडेट यह है कि प्रचार के आखिरी और सबसे महंगे दौर की शुरुआत पर ओबामा और रोमनी दोनों ही मनी पॉवर से लैस हैं। अलबत्ता नकदी के मामले में रिपब्लिकन मिट रोमनी की जेब कुछ ज्यादा भारी है।

रोमनी व ओबामा ने सरकार के बजट से पैसा लेकर चुनाव लड़ने की सुविधा से इंकार कर दिया इसलिए चंदा जुटाने और खर्च करने की पाबंदिया भी समाप्त हो गईं। यह 1972 के बाद पहला चुनाव है जिसे पूरी तरह राजनीतिक दलों के खर्च पर लड़ा जा रहा है। इसमें केवल राष्ट्रपति ही नहीं बल्कि काग्रेस में 435 सीटें, 33 सीनेट सीटों, 11 गवर्नरों सहित अनेक स्थानीय निकाय पदों के लिए भी चुनाव शामिल है। रोमनी और ओबामा ने सितंबर के अंत तक करीब दो अरब डॉलर का चंदा जुटाया है। ताजा बहसों में बढ़त के बाद रोमनी को एक से 17 अक्टूबर के बीच 11 करोड़ डॉलर और मिले। दोनों दलों के समर्थक संगठन करीब चार अरब डॉलर अलग से खर्च कर चुके हैं।

पैसे और प्रचार की यह होड़ आठ स्विंग स्टे्टस में केंद्रित हो रही है जहां से अमेरिका का नया राष्ट्रपति चयनित होगा। अकेले मैसाच्युसेट्स के सीनेटर का चुनाव छह करोड़ डॉलर के ऊपर निकल गया है। मतदान के दिन तक डेमोक्रेट और रिपब्लिकन ने मिलकर अकेले टीवी विज्ञापनों पर एक अरब डॉलर खर्च कर चुकेहोंगे। अध्ययन बताते हैं कि अकेले डेनवर में सितंबर महीने के दौरान ओबामा और रोमनी के टीवी विज्ञापन 7700 बार दिखाए गए।

कारपोरेट डॉलर रोमनी पर न्योछावर

रिपब्लिकन मिट रोमनी अगर सत्ता में आए तो बैंकों पर सख्ती के कानून बदल सकते हैं। यह सख्ती 2008 के लीमैन संकट के बाद हुई थी। रोमनी को मिले चंदे का हिसाब देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि रिपब्लिकन राज में दरअसल किसका राज होगा। अमेरिका के सभी बडे़ बैंकों और वित्ताीय संस्थाओं ने रोमनी के लिए तिजोरी खोल दी है जबकि ओबामा को माइक्रोसॉफ्ट, गूगल जैसी कंपनियां मिली हैं। रोमनी को निजी कंपनियों से करीब चार करोड़ डॉलर और ओबामा को डेढ़ करोड़ डॉलर मिले हैं।

अमेरिका में कंपनियां राजनीतिक दलों के चंदे का प्रमुख स्रोत हैं, लेकिन दोनों ही दलों को चंदा मिलता है। हालांकि इस बार कंपनियों के बीच वरीयताओं का बंटवारा स्पष्ट है। फेडरल इलेक्श्न कमीशन के आकडे़ और ओपन सीक्रेट और सनलाइट फाउंडेशन जैसे स्वयंसेवी संगठनों के विश्लेषण से यह समझना मुश्किल नहीं है कि उद्योग ने किस घोडे़ पर दाव लगाया है और चुनाव नतीजे के बाद नीतियों पर इस निवेश का क्या असर होगा।

रोमनी ने तो यह संकेत दे ही दिया है कि बैंकों पर सख्ती के नियम वापस लिए जाएंगे। इसका असर उनकेपास आ रहे चंदे में साफ दिखता है। 2008 के चुनाव में वाल स्ट्रीट की कंपनियों ने ओबामा के लिए थैली खोली थी, मगर सेंटर फॉर रिस्पांसिव पॉलिटिक्स केमुताबिक 2012 के लिए ओबामा को चंदा देने वाली शीर्ष 20 कंपनियों में एक भी बैंक नही है। वित्ताीय सेवा उद्योग ने पिछले चुनाव में ओबामा को जितना पैसा दिया था उसका तीन गुना इस साल मई की शुरुआत तक रोमनी को मिल गया था।

कौन किसके साथ

रोमनी के शीर्ष फाइनेंसर

1. गोल्डशमैन सैक्श 2. बैंक ऑफ अमेरिका 3. जेपी मोर्गन 4. मोर्गन स्टीनले 5. क्रेटिड सुइस समूह

ओबामा के शीर्ष फाइनेंसर

1. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी 2. माइक्रोसॉफ्ट 3. गूगल 4 हार्वर्ड 5. बोइंग

उद्योगों की पसंद

1. प्राइवेट इक्विटी : ओबामा के मुकाबले रोमनी को आठ गुना ज्यादा चंदा

2.तेल: ओबामा के विरोध में खड़े संगठन अमेरिकंस फॉर प्रासपेरिटी के प्रवर्तक कोच ब्रदर्स है जो तेल उद्योग में निवेश रखते हैं और रिपब्लिकन के समर्थक हैं

3. बैंकिंग व फाइनेंस: वॉल स्ट्रीेट की फाइनेंस कंपनियों की ओबामा से बेरुखी। चंदा देने वाली शीर्ष 20 कंपनियों में एक भी बैंक नहीं।

4. फार्मास्यूटिकल: फाइजर ने रोमनी के मुकाबले ओबामा को दोगुना चंदा दिया, लेकिन पूरे उद्योग की तरफ से रोमनी को ज्यादा चंदा

5. रक्षा: बोइंग ने रोमनी की तुलना में ओबामा को तीन गुना ज्यादा चंदा दिया।

6. तकनीक: माइक्रोसॉफ्ट से ओबामा को बड़ा चंदा तो सिस्को रोमनी केसाथ

7. मैन्युफैक्चरिंग: आटोमोबाइल उद्योग ने रोमनी को वरीयता पर रखा तो आटो डीलरों ने ओबामा को

प्रति वोटर 5.33 डॉलर

सीएनबीसी न्यूज चैनल के मुताबिक 1980 मेंकार्टर-रीगन चुनाव 53 करोड़ डॉलर में निबट गया था। 2000 का चुनाव भी दोनों दलों को 89 करोड़ डॉलर का पड़ा, लेकिन इस बार तो प्रति वोटर खर्च का आकड़ा भी काफी चौंकाने वाला है। देश में कुल पंजीकृत वोटरों की संख्या के आधार पर ओबामा ने प्रति वोटर 5.33 डॉलर [293 रुपये] की लागत लगाई जबकि रोमनी का खर्च 4.81 डॉलर [240 रुपये] प्रति वोटर है।

खर्च और कमाई

अमेरिकी चुनाव में भारी खर्च को लोग अलग-अलग पैमाने पर तोल रहे हैं। वाशिगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट कहती है कि मंदी के दौरान अमेरिकी काग्रेस के सदस्योंकी औसत आय करीब पांच फीसद बढ़ी जबकि आम अमेरिकी आय 39 फीसद घट गई। संसद के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव केसदस्यों की औसत आय इस समय 7.46 लाख डॉलर है। जबकि उच्च सदन सीनेट सदस्य की औसत आय 26 लाख डॉलर। अमेरिका का लोकतंत्र यकीनन अब मोटी जेब वालों के लिए ही रह गया है।

यह तो जीत गए

छह अरब डॉलर के चुनाव में ओबामा जीतें या रोमनी, लेकिन मीडिया कंपनियों का त्योहार हो गया है। मंदी से बुरी तरह हलकान मीडिया उद्योग के लिए चुनाव राहत की बरसात है। भारी चंदे और समर्थक संगठनों केधन बल से लैस डेमोक्रेट व रिपब्लिकन ने जो विज्ञापन युद्ध छेड़ा उसका फायदा मीडिया कंपनियों को मिल रहा है। इस चुनाव के मौसम में राजनीतिक एडवरटाइजिंग 5.2 अरब डॉलर के ऊपर निकल जाएगी क्योंकि राष्ट्रपति, सीनेट, काग्रेस, गवर्नर सभी के चुनाव हो रहे हैं । राष्ट्रपति ओबामा के सलाहकार टीवी विज्ञापनों को चुनावों का नाभिकीय हथियार कहते हैं। इनका भरपूर इस्तेमाल हो रहा है। टीवी के जरिये प्रचार का बजट 4.2 अरब डॉलर पार कर जाएगा। इस खर्च का आधा हिस्सा स्थानीय टीवी चैनलों को मिला है जो प्रचार का प्रमुख जरिया हैं। प्रचार खत्म होते-होते इंटरनेट पर विज्ञापन का खर्च भी कुल प्रचार खर्च का छह फीसद हो जाएगा। मीडिया कंपनियों के लिए इसे अच्छा वक्त नहीं आने वाला।

कार्यकर्ताओं की कमाई

शानदार चंदे और बढ़त से उत्साहित मिट रोमनी अपने प्रचार प्रबंधकों को बोनस से नवाज रहे हैं। कार्यकर्ताओं को बोनस देना अमेरिकी चुनावों की एक अनोखी रवायत है। फेडरल कमीशन के पास रोमनी ने जो ब्योरा जमा किया है उसकेमुताबिक रोमनी ने अपने दस शीर्ष सहायकों को 2.17 लाख डॉलर का बोनस दिया हे। रोमनी के पालिटिकल डायरेक्टर रिच बीसन को 37 हजार डॉलर मिले हैं। दूसरी तरफ रोमनी को रोकने के लिए ओबामा में 974 से ज्यादा कर्मचारियों को तैनात किया है। ताकि वोटरों को मतदान केंद्र तक लाया जा सके।

भारत और अमरीका चुनाव के पांच अंतर

ज़ुबैर अहमद
बीबीसी संवाददाता, वॉशिंगटन से
बुधवार, 24 अक्तूबर, 2012 को 09:18 IST तक के समाचार
http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2012/10/121024_international_us_election_comparison_akd.shtml


बैंक ऑफ़ अमरीका, जेपी मॉर्गन चेज़, सिटीग्रुप और मॉर्गन स्टैनली अमरीका के बड़े बैंक हैं. लेकिन इनमें समानता क्या है?

समानता ये है कि ये सभी कॉरपोरेट संस्थाएं अमरीकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रतिद्वंद्वी मिट रोमनी की समर्थक हैं.

ये अमरीकी जनता के लिए कोई ढँकी-छिपी बात नहीं है. कॉरपोरेट से चुनावी चंदा लेना और उनका समर्थन हासिल करना अमरीकी चुनाव की पुरानी परंपरा है. ये प्रक्रिया पारदर्शी तो है ही साथ ही ये एक प्रमाणित सच भी है.


भारत में भी चुनाव लड़ने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों को कॉरपोरेट जगत से पैसे मिलते हैं लेकिन ये अधिकतर गुप्त रूप से आते हैं.

अमरीका और भारत विश्व के दो सबसे बड़े प्रजातंत्र हैं. इसीलिए चुनाव दोनों देशों में एक विशाल प्रक्रिया है.

अगर भारत में मतदाता पार्टियों और पार्टियों के उम्मीदवारों को वोट देते हैं तो अमरीका में राष्ट्रपति पद के दो अहम उम्मीदवारों को.

अमरीका और भारत के चुनाव में एक बड़ा फ़र्क ये भी है कि भारत में चुनाव केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी होती है और चुनाव आयोग हर तरह के चुनाव करवाता है. लेकिन अमरीका में चुनाव इसके राज्य कराते हैं.

तो आखिर दोनों देशों की चुनावी प्रक्रिया में कितनी समानता है और कितनी असमानता - आइए कुछ पर प्रकाश डालते हैं:

फ़ंडिंग


मॉर्गन स्टैनली जैसे बैंक मिट रोमनी के समर्थक हैं
हाल में देश के राष्ट्रपति और अमरीकी चुनाव में उम्मीदवार बराक ओबामा ने खुश होकर ऐलान किया कि उन्होंने चुनाव के लिए पर्याप्त मात्रा में फंड जुटा लिया है.

अमरीकी चुनाव में पैसों का खेल सबसे बड़ा है. अगर एक आम अमरीकी ग़रीब है और उसमें चंदा जुटाने की क्षमता नहीं है तो वो शायद अमरीका का राष्ट्रपति नहीं बन सकता. ये है अहमियत अमरीकी चुनावों में चंदे की.

अमरीकी क़ानून चुनाव के लिए उम्मीवारों के खिलाफ या उनके पक्ष में काम करने वाली संस्थाओं को चंदा जुटाने की अनुमति देता है.

जो संस्थाएं उम्मीदवारों के लिए या उनके विरोध में मुहिम चलाती हैं उन्हें पॉलिटिकल ऐक्शन ग्रुप के नाम से जाना जाता है. ये संस्थाएं चुनाव से पहले और इसके दौरान अधिक से अधिक चंदा जुटाने की कोशिश करती हैं.

इसी तरह से आम नागरिक अपने पसंदीदा उम्मीदवार को 2500 डॉलर प्राइमरी चुनावी दौर में और 2500 डॉलर असली चुनाव के समय दे सकता है.

लेकिन भारत में चुनाव लड़ने के लिए गोपनीय रूप से चंदा जुटाया जाता है. राजनीति में काले धन का इस्तेमाल आमतौर पर होता है. हालांकि हर उम्मीदवार को अपने धन का हिसाब देना पड़ता है लेकिन इसके बावजूद काले धन के खेल को रोका नहीं जा सका है.

कॉरपोरेट की भूमिका


अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में प्रचार के ऐसे तरीके आम हैं
कहा जाता है कि अमरीका की एक प्रतिशत धनवान जनता चुनाव को नियंत्रित करती है. कॉरपोरेट जगत के पैसों के दान के कारण उनका असर काफी बढ़ जाता है.

मिट रोमनी को समर्थन देने वाली संस्थाओं पर एक नज़र डालें तो उनमें अधिकतर ऐसी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति बुरी है और वो सरकारी बेल आउट (आर्थिक मदद) का इंतज़ार कर रही हैं.

इसी तरह से बराक ओबामा पिछले चुनाव के मुक़ाबले इस बार अमीर लोगों और संस्थाओं की खूब मदद ले रहे हैं.

देखा ये गया है कि चंदा देने वाली संस्थाओं के वरिष्ठ अधिकारी और धनवान लोग चुनाव के बाद बड़े सरकारी पदों के हक़दार बन जाते हैं और उन्हें इन पदों से नवाज़ा भी जाता है

भारत में कानूनी स्तर पर कॉरपोरेट जगत की चुनाव में भूमिका सीमित होती है और पैसे वालों को चुनाव के बाद बड़े पदों के लिए चुना जाना ज़रूरी नहीं होता.

लेकिन ये तो हुआ जो ज़ाहिर है. गोपनीय रूप से पैसे देने वालों को बड़े पदों पर बिठाना कोई अनहोनी बात नहीं.

मीडिया की भूमिका


मिट रोमनी फ्लोरिडा में चुनाव प्रचार के दौरान
अमरीका और भारत दोनों देशों में मीडिया आज़ाद है. लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों में अख़बार और टीवी चैनलों का उम्मीदवारों और पार्टियों के प्रति झुकाव आमतौर से देखा जा सकता है.

लेकिन अमरीकी चुनाव में डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया नेटवर्क का इस्तेमाल भारत से कहीं अधिक होता है. कहा जाता है की 2008 में होने वाले चुनाव में बराक ओबामा ने फ़ेसबुक और ट्विटर का भरपूर इस्तेमाल किया था जिसकी खूब चर्चा भी हुई थी.

इस बार का चुनाव हैशटैग, ट्विटर, फेसबुक और ईमेल के ज़रिए लड़ा जा रहा है. इस बार सोशल मीडिया की चुनावी मुहिम में ओबामा मिट रोमनी से कहीं आगे हैं.

अगर आज अमरीकी चुनाव केवल सोशल नेटवर्किंग साइट पर कराया जाए तो बराक ओबामा मिट रोमनी को आसानी से चित कर देंगे.

अक्तूबर के दूसरे हफ्ते तक फ़ेसबुक पर ओबामा के लगभग चार करोड़ 'लाइक्स' थे जबकि रोमनी को एक करोड़ से कम 'लाइक्स' मिले थे.

इसी तरह से ट्विटर पर ओबामा के तीन करोड़ फीड्स हैं जबकि रोमनी के डेढ़ करोड़. यूट्यूब पर ओबामा के 2,40,000 सब्सक्राइबर थे जबकि रोमनी के केवल 23,700.

इसका मतलब ये नहीं है कि अखबार और दूसरे माध्यम का सहारा नहीं लिया जा रहा है. भारत में इंटरनेट कनेक्शन काफी कम होने के कारण नेताओं को ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल अधिक फायदा नहीं पहुंचाता है.

लेकिन अब भारत में भी चुनावी उम्मीदवारों और सियासी पार्टियों ने सोशल मीडिया का सहारा लेना शुरू कर दिया है.

चुनावी मुहिम


भारतीय चुनाव में नेता रैलियों में भाषण देकर समर्थन जुटाते हैं
चुनावी मुहिम दोनों देशों में काफी अलग होती है. आम तौर से भारत में उम्मीदवार घर-घर जाते हैं या बड़ी जन सभाओं का आयोजन करते हैं. चुनावी प्रचार में गानों, संगीत, नारों और झंडों का खूब इस्तेमाल होता है.

हर पार्टी को चुनावी चिन्ह दिया जाता है. चुनाव प्रचार में काफी गर्मजोशी होती है, लेकिन अगर आप भारत में चुनावी प्रचार का मज़ा लेते हैं तो अमरीका में चुनावी मुहिम से आपको मायूसी हो सकती है.

अमरीका में दोनों उम्मीदवार टीवी और रेडियो में विज्ञापन जारी करते हैं. आमलोगों से भी मिलते हैं लेकिन अधिकतर टीवी चैनलों के लिए.

दोनों देशों में चुनावी मुहिम का उदाहरण एक क्रिकेट मैच से दिया जा सकता है. भारत का चुनावी प्रचार स्टेडियम में क्रिकेट मैच देखने की तरह है जबकि अमरीका में चुनावी प्रचार इस मैच को टीवी पर देखने की तरह है.


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#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

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ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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