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Friday, April 4, 2014

गुजरात का ‘विकास मॉडल’



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लेनिन ने मैक्सिम गोर्की की किताब मां के बारे में कहा था कि यह किताब अपने समय का बेशकीमती दस्तावेज तो है ही साथ में सामयिक भी है। ठीक इसी तरह पिछले साल प्रकाशित होनेवाली किताब पॉवर्टी अमिड प्रोसपेरिटी : एस्सेज ऑन द ट्रैजेक्ट्री ऑफ डेवलपमेंट इन गुजरात यकीनन प्रासंगिक है। आज सारा कॉरपोरेट मीडिया—प्रिंट हो या ऑडियो विजुअल—एक सुर में राग अलाप रहा है कि 'गुजरात मॉडल' ही वह मॉडल है जो देश को विकास के रास्तों पर ले जा सकता है। गोया सारी कठिनाईयों को पार करने का एक मात्र रास्ता 'गुजरात मॉडल' और बकौल नरेंद्र मोदी ' गुड गवर्नेंस' उर्फ अच्छे प्रशासन को अपनाना ही है। मीडिया ने इस विचार के व्यापक प्रचार में भी कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है कि हिंदुस्तान में गुजरात विकास के परिदृश्य पर एक रोशन सितारा है और इस प्रदेश ने जो विकास नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में किया है उसका अनुसरण करके भारतीय जनता की बड़ी खिदमत की जा सकती है। यह किताब न सिर्फ गुजरात के तथाकथित विकास की कलई खोलती है बल्कि यह भी बताती है कि आर्थिक वृद्धि की अंधी दौड़ में समाजी मुद्दों—गरीबी, विषमता, लैंगिक भेद-भाव, बेरोजगारी और अशिक्षा वगैरह को कैसे एक तरफ किया गया है। इस पुस्तक को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री प्रोफेसर अतुल सूद ने संपादित किया है, यह पुस्तक दर असल सूद के अलावा बारह स्वतंत्र शोधकर्ताओं के शोध और विश्लेषण पर आधारित दस लेखों का संग्रह है। सूद की दृष्टि में मौजूदा गुजरात मॉडल, जिसे दूसरे प्रदेश नकल करने को तैयार हैं, की 'विशेषता देश की अर्थव्यवस्था का अविनियमन (डीरेग्यूलेशन) और वैश्विक बाजारों के साथ एकीकरण' है।

सुचरिता सेन और चिनमय मलिक का लेख ऐतिहासिक संदर्भों में, कृषि में नीतिगत बदलाव—मुख्यत: भूमि संबंधी नीतियों की पड़ताल करते हुए इस हकीकत की बाकायदा पुष्टि करता है कि कैसे कृषि का निगमीकरण बढ़ रहा है। प्रदेश कृषि क्षेत्र में राष्ट्रीय औसत की तुलना में एक से डेढ़ गुना तेजी से वृद्धि कर रहा है। बाजार पहुंच, तकनीकी प्रसार, बुनियादी ढांचे के विकास और अन्य क्षेत्रों के विकास ने इस क्षेत्र की वृद्धि दर में योगदान दिया है। कृषि में इस वृद्धि का वितरण प्रभाव काफी हद तक भूमि स्वामित्व और भूमि उपयोग पैटर्न के साथ-साथ इस बात पर निर्भर करता है कि छोटे किसान की लाभकारी फसलों में कितनी भागीदारी है। कृषि खरीद, मूल्य निर्धारण और बाजारीकरण की नीतियों में उदारीकरण के द्वारा लायी गई वृद्धि से फसल विशेष और क्षेत्र विशेष भी कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं। फसल पैटर्न में भारी परिवर्तन आया है—खाद्य फसलों का स्थान अब गैर-खाद्य फसलों और नकदी और नफा कमानेवाली फसलों ने ले लिया है। गौरतलब है कि भूमि आवंटन और फसली आंकड़े बताते हैं कि कपास की खेती और उच्च मूल्य की फसलों का फायदा ज्यादातर बड़े किसानों ने उठाया है। अगर हम जोत आकार से किसान समूहों को देखें, तो गुजरात में, सबसे छोटे जोत वाले किसान समूह के परिवारों की संख्या में वृद्धि तो हुई है परंतु उनके औसत रकबे में कमी हुई है, वहीं दूसरी ओर बड़ी जोत वाले किसान समूहों के औसत रकबे में बढ़ोत्तरी हुई है। यह बढ़ती हुई असमानता का संकेत है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि गुजरात में काश्त की जमीनों को जिस तरीके से बड़ी-बड़ी कंपनियों को कौडिय़ों के भाव दिया गया है वह मोदी सरकार और क्रोनी पूंजीवाद के बीच के मजबूत होते रिश्ते को बताता है। अडाणी समूह—जो कि विश्व प्रसिद्ध फोब्र्स पत्रिका के अनुसार 208 करोड़ डॉलर की पूंजी के साथ विश्व का 609वां बड़ा व्यापार घराना है और भारत के निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बंदरगाह, एक बिजली कंपनी और कॉमोडिटी ट्रेडिंग का व्यवसाय चलाता है—को मात्र एक रुपए प्रति मीटर की दर से 14305.49 एकड़ (5.78 करोड़ वर्ग मीटर) कच्छ की जमीनें दी गईं। वहीं इस घराने ने, इन जमीनों को राज्य के स्वामित्व वाली इंडियन ऑयल कंपनी सहित अन्य कंपनियों को 11 डॉलर प्रति वर्ग मीटर की दर से उप-पट्टे (सबलेट) पर देकर भारी मुनाफा कमाया। ये भारी मुनाफा, दरअसल, राजस्व की हानि ही है। दूसरी तरफ, जमीन की खरीद-फरोख्त की नीति में हुए बदलाव ने काश्त की जमीनों तक आम किसानों की पहुंच को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है।

काबिले गौर बात है कि जमीन की इस लूट से न सिर्फ राजस्व की हानि हुई है बल्कि इसने पर्यावरण को भी बहुत प्रभावित किया है। तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रख कर अडाणी के पॉवर प्लांट को लाइसेंस दिया गया। सुनीता नारायण की अध्यक्षता में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित कमेटी (कमेटी फॉर इंस्पेक्शन ऑफ मेसर्स अडाणी पोर्ट एंड एसईजेड लिमिटेड, मुंदरा, गुजरात) की रिपोर्ट से इस बात का खुलासा हुआ कि इसके पॉवर प्लांट की हवा में उडऩेवाली राख (फ्लाई ऐश) से ज्वरीय वन (मैंग्रोव्स) नष्ट हो रहे हैं, कच्छ की संकरी खडिय़ां (क्रीक) भर रही हैं तथा जल और भूमि का क्षरण हो रहा है। पर्यावरण का यह क्षरण लोगों की रोजी-रोटी पर भारी पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर, कच्छ के मछुआरों का कहना है कि मछली पकडऩे के मौके में लगभग साठ फीसदी की कमी आई है। गुजरात का यह विकास मॉडल जहां बड़े उद्योगों के मुनाफा कमाने के अवसरों को बढ़ा रहा है वहीं यह छोटे-छोटे किसानों, मछुआरों और मजदूरों से उनका रोजगार छीन रहा है।

रुचिका रानी और कलाई यारासान ने अपने लेख में तेजी से बढ़ते हुए विकास और रोजगार के क्षेत्रीय और सामाजिक असंतुलन का बखूबी विश्लेषण किया है। इन का यह लेख इस बात की पुष्टि करता है कि कैसे गुजरात में तथाकथित विकास की सब से बड़ी विडंबना यह है कि यहां रोजगार का मसला ज्यों का त्यों बना हुआ है—गुजरात में रोजगार के अवसर मंदी और जड़ता की दास्तान बयान करते हैं। यानी रोजगार की दर में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों के अनुसार में 1993-94 से 2004-05 तक रोजगार में वृद्धि दर 2.69 प्रतिशत वार्षिक थी जो 2004-05 से 2009-10 तक यह दर घट कर शून्य तक पहुंच गई।

गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले सत्रह सालों के दौरान (1993 से 2010 तक) रोजगार में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत के तकरीबन बराबर है, वहीं शहरी रोजगार की दर राष्ट्रीय औसत की तुलना में बेहतर है। पिछले पांच सालों में ग्रामीण क्षेत्र में गैरमामूली दर से हुई आर्थिक वृद्धि के बावजूद रोजगार के अवसर कम हुए हैं। पिछले चंद बरसों में रोजगार के सिलसिले, खासतौर से नौकरियों, में वृद्धि की दर मामूली रही और यह वृद्धि अमूमन अल्पकालिक और अस्थायी तौर पर मिलने वाली नौकरियों में हुई है। गुजरात में आर्थिक विकास की निर्भरता—जिस को अर्थशास्त्र की शब्दावली में ड्राईवरज आफ ग्रोथ कहते हैं—औद्योगिक क्षेत्र है। इस किताब के एक और लेख में संगीता घोष ने इसी क्षेत्र का बहुत ही विस्तार से विश्लेषण किया है। वह इस बात को बड़े ही तार्किक अंदाज में प्रस्तुत करती हैं कि गुजरात में अन्य प्रदेशों के मुकाबले मजदूरी में तेजी से गिरावट आई है। तीस साल पहले, गुजरात का देश में ग्रास वैल्यू एडेड में जो हिस्सा हुआ करता था वह आज दो गुना हो गया है। इसके बावजूद देश के औद्योगिक क्षेत्र के रोजगार में गुजरात की भागीदारी संतोषजनक नहीं है—रोजगार की वृद्धि दर जड़ बनी हुई है जो अर्थशास्त्रियों के लिए एक अहम सवाल है। विदित हो कि ग्रास वैल्यू एडेड (जीवीए) या सकल वर्धित मूल्य अर्थव्यवस्था के एक क्षेत्रक (विनिर्माण) में तैयार कुल उत्पादों का मौद्रिक मूल्य है।

जहां तक मजदूरी की बात है, रोजगार में लाभ के बावजूद मजदूरी में कोई संतोषजनक वृद्धि नहीं हुई है। मजदूरी में इजाफे़ की यह दर 2000 के दशक में सिर्फ 1.5 प्रतिशत थी जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 3.8 प्रतिशत थी। इसी दशक में, इस प्रदेश का देश के औद्योगिक उत्पादन (मैनूफैक्चरिंग) जीवीए का हिस्सा 14 फीसदी था वहीं रोजगार में यह हिस्सा 9 प्रतिशत था। गुजरात ऐसा एक मात्र प्रदेश है जहां मजदूरी और जीवीए का अनुपात सब से कम रहा है। इस अविश्वसनीय हालत में अनुबंध पर लगे अस्थायी और अल्पकालिक मजदूरों का शोषण बढ़ा है। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है जहां 2000 के दशक में मजदूरी का जीवीए में हिस्सा देश के अन्य प्रदेशों—हरियाणा, महाराष्ट्र और तामिलनाडु के मुकाबले सब से नीचे रहा है। उस की वजह से एक समय में परस्पर विरोधी स्थितियां पैदा हो गईं हैं—जहां एक तरफ कारखानों में मजदूरों की हालत बदतर हुई है वहीं दूसरी तरफ पूंजी और मुनाफे में वृद्धि हुई है।

हम जानते हैं कि गुजरात में कारखाने फल-फूल रहे हैं। अनुसूचित जनजातियों के जीवन की निर्भरता, विशेषत: 2005-10 के दौरान कृषि पर केंद्रित रही है। 1993-94 के रोजगार में उनका हिस्सा सात प्रतिशत था, जो 2009-10 में भी ज्यों-का-त्यों बना रहा। जहां तक मुसलमानों की हिस्सेदारी का सवाल है वो पंद्रह प्रतिशत से घट कर चौदह प्रतिशत हो गई। इस संदर्भ में डॉ. सूद का विचार कुछ इस प्रकार है: "गुजरात में जो कुछ हो रहा है हिंदुस्तान के दूसरे प्रदेशों में होने वाले परिवर्तनों—अल्प रोजगार, कैपिटल ईंटेंसिव ग्रोथ और श्रम के अस्थायी और अल्पकालिक होने का अग्रदूत है।''

पिछले पांच सालों में दूसरे प्रदेशों के विकास और औसत राष्ट्रीय विकास के मुकाबले गुजरात में प्रति व्यक्ति मासिक खपत (एमपीसीई )शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कम रही है। गुजरात में 2009-10 में एमपीसीई 1388 रुपए था जो हरियाणा (1598 रुपए) और महाराष्ट्र्र (1549 रुपए) से बहुत कम है। इस तरह गुजरात में एमपीसीई की सतह जो 1993 में अपेक्षाकृत अच्छी थी वह 2010 तक पहुंचते-पहुंचते खत्म हो गई।

इसी तरह गुजरात में गत पांच वर्षों के दौरान ग्रामीण निर्धनता में 2.5 प्रतिशत सालाना की कमी आई है जो राष्ट्रीय स्तर की औसत हालत से बेहतर है मगर महाराष्ट्र और तमिलनाडु से कम है। 2009-10 के अंत तक ग्रामीण गुजरात में गरीबों की संख्या हरियाणा और तमिलनाडु की तुलना में ज्यादा थी और 1990 की दहाई के आरंभ में दूसरे प्रदेशों के मुकाबले इनकी गिनती में ज्यादा सुधार नहीं आया है। गरीबों की संख्या और निर्धनता की दर का विश्लेषण उस परिदृश्य की पुष्टि करता है जिसमें 1993 से 2005 तक और 2005 से 2010 तक शहरी क्षेत्रों में गरीबी की दर में गिरावट की रफ्तार राष्ट्रीय स्तर और दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा कम रही है और दिलचस्प बात यह है कि शहर में निर्धनता की दर में यह वृद्धि वाइब्रेंट गुजरात वाले दौर में हुई है।

बराबरी और समता के स्तर पर भी गुजरात में कोई बेहतरी नहीं आई है। 1993-94 में देश की औसत विषमता का स्तर 32 प्रतिशत के करीब था और गुजरात के लिए यही स्तर लगभग 27 प्रतिशत था, लेकिन 2009-10 में यह बढ़कर 33 प्रतिशत के करीब हो गया, मतलब यह कि पिछले सत्रह सालों में विषमता में वृद्धि हुई है। पिछले पांच सालों में यानी 2005 से 2010 के बीच जहां तमिलनाडु, महाराष्ट्र और हरियाणा में इसमें कमी आई है वहीं गुजरात में असमानता की दर में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।

आज गुजरात एक समृद्ध प्रदेश है मगर स्वास्थ्य और शिक्षा में इसकी हालत डावांडोल है। प्राथमिक शिक्षा के सिलसिले में एक अनुमान के मुताबिक देश के दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा साक्षरता की दर में सुधार की रफ्तार सुस्त है। 2000 से 2008 के दौरान, छह से अधिक वर्षों के बच्चों में साक्षरता के लिहाज से गुजरात का रैंक देश के अन्य राज्यों के मुकाबले गिरा है जो कि पांचवे से सातवें स्थान पर पहुंच गया है। शैक्षिक संस्थाओं में जाने वालों का अनुपात हाल में 21 से 26 प्रतिशत कम हुआ है। जबकि अन्य पंद्रह प्रदेशों में छह से दस प्रतिशत की कमी आई है। छह से चौदह साल के बच्चों में इसी अवधि में साक्षरता का लैंगिक-अंतर 20 प्रतिशत है। हालांकि, गुजरात में साक्षरता दर (स्कूल जाने वाले बच्चों की) कुल राष्ट्रीय औसत की साक्षरता दर से ऊंची है—महाराष्ट्र और हरियाणा से भी ज्यादा है; परंतु यह दर तमिलनाडु से थोड़ा कम है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में, जहां तक शिशु मृत्यु दर की गिरावट का सवाल है, अगर देश के अन्य प्रदेशों से गुजरात का मुकाबला करें तो यह दसवें पायदान पर है। 2000 और 2010 के दौरान शिशु मृत्यु दर के ग्रामीण-शहरी अनुपात में कोई फर्क नहीं हुआ है। गत दस सालों में शहरी-ग्रामीण असंतुलन और विषमता वैसी-की-वैसी बनी हुई है। मृत्यु दर के लैंगिक-अंतर को कम करने की कारगुजारी भी संतोषजनक नहीं है। 2000 और 2010 के दौरान अनुसूचित जातियों और जनजातियों और अन्य सामाजिक समूहों के बीच असमानता में वृद्धि हुई है। जहां तक आहार और पोषण का मामला है, प्रदेश में 1998-99 में पोषण की कमी के प्रभाव का अनुपात राष्ट्रीय औसत की अपेक्षा से समाज के वर्गों में कम हुआ है जबकि 2005-06 में राष्ट्रीय औसत के अनुपात से पोषण की स्थिति और खराब हुई है। अनुसूचित जातियों में पोषण की कमी राष्ट्रीय औसत के बराबर है वहीं अनुसूचित जनजातियों में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। पोषण में, 1999 और 1995 के दौरान जो प्रदेश नौवीं पायदान पर था वही प्रदेश 2005 से 2010 के बीच ग्यारहवीं पायदान पर पहुंच गया। यह सब तब हुआ जब विकास का राष्ट्रीय स्तर लगातार बढ़ता ही रहा है।

यह बात भी काबिल-ए-जिक्र है कि सामाजिक सेवाओं के विभिन्न क्षेत्रों में प्रदेश का व्यय जीएसडीपी के प्रतिशत और कुल व्यय के प्रतिशत के रूप में दूसरे प्रदेशों की औसत गिरावट से ज्यादा गिरा है और राष्ट्रीय औसत के नीचे आकर ठहर गया है। यह स्थिति इस बात का संकेत करती है कि सरकार क ी सामाजिक सेवाओं को उपलब्ध कराने की बुनियादी जिम्मेदारी से ध्यान हटाया गया है।

एक तरह से गुजरात ऐसे राजनीतिक और आर्थिक मॉडल की झलक पेश करता है जिस में बाजार के तहत होने वाली वृद्धि के फार्मूले पर विश्वास किया गया है। सरकारी खजाने का इस्तेमाल निजी निवेश को बढ़ावा देने के साथ-साथ उस को ज्यादा से ज्यादा लाभप्रद बनाने के लिए हुआ है। इस अंधी दौड़ में विकास के बुनियादी अधिमानों—सबका विकास, स्वास्थ्य व शिक्षा तक सबकी पहुंच, रोजगार और समता—को नजरअंदाज किया गया है। तेज रफ्तार वृद्धि को विकास की गारंटी समझा गया जबकि हकीकत यह है कि वृद्धि दर का विकास-दर से कोई संबंध नहीं है। काबिल फख्र वृद्धि का हुसूल, निर्धनता और समावेश की बिगड़ती स्थिति को बेहतर बनाने की जमानत नहीं बन सका। इसके उलट बेरोजगारी बढ़ाने, सामाजिक न्याय बिगाडऩे, निर्धनता और विषमता को बढ़ाने में कारगर हुआ है। अगर केंद्रीय नीतियों में तब्दीलियां नहीं लाई गईं या फिर प्रदेशों में प्रभावी ढंग से विभिन्न प्रकार के विकास एजेंडों पर अमल नहीं किया गया, तो गुजरात जैसे हालात दूसरी जगहों पर भी उत्पन्न हो सकते हैं।

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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

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Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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