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Friday, April 4, 2014

ब्रह्मचर्य नैतिकता और राष्ट्रवाद


ब्रह्मचर्य नैतिकता और राष्ट्रवाद

Author:  Edition : 

देखा जाए तो राष्ट्रीय सेवक संघ जातिवाद, सती प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नी प्रथा, सुविधानुसार पत्नी-त्याग और पुरुष द्वारा पुनर्विवाह आदि को गलत नहीं मानता है क्योंकि ये सब धर्म-सम्मत हैं। प्रश्न है क्या धार्मिक नियमों से उपजी बुराईयों को रोकने का आज आरएसएस के पास कोई व्यावहारिक और प्रभावशाली तरीका है? इस जैसी संस्था, जिसने पिछले दिनों महाराष्ट्र में जादू-टोने के खिलाफ लाए जा रहे कानून का यह कहते हुए विरोध किया था कि ये हमारे (हिंदू) धर्म के खिलाफ जा सकते हैं, क्या कोई ऐसा काम करेगी जो धर्म और संस्कृति के नाम पर चल रहीं कुप्रथाओं को हटाने में किसी तरह की निर्णायक भूमिका निभा सकती हो? दूसरी ओर भारतीय समाज में, विशेष कर हिंदू समाज में, जो भी सुधार आज दिखाई देते हैं वे सब कानून के बल पर ही हुए हैं और होंगे भी।

गत माह बंगलुरु में हुई स्वयं सेवकों की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के महासचिव सुरेश भैयाजी जोशी ने सन 2011-14 की गतिविधियों की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा कि "गत वर्ष समाज के सामने 'लिव इन रिलेशनशिप' (बिना विवाह के स्त्री-पुरुष के साथ रहने) और समलैंगिकता के दो मुद्दे चर्चा के लिए सामने आए। इन संबंधों को कानूनी मान्यता देने को लेकर दोनों तरह के तर्क पक्ष और विपक्ष में प्रस्तुत किए गए। इस तरह की चीजों को कानूनी मान्यता देने से पहले इन के समाज पर दूरगामी प्रभावों पर सोचा जाना चाहिए। इन चीजों को कानूनी बनाने से पहले हमें अपने सामाजिक जीवन पर होनेवाले इनके दीर्घकालिक घातक असर को ध्यान में रखना होगा। लेकिन एक ऐसा समाज जो अपनी  परंपराओं, संस्कृति, रूढिय़ों और जीवन मूल्यों पर चलता हो कानून से नहीं चल सकता। केवल धार्मिक और सामाजिक विचारों पर आधारित दिशा-निर्देश ही सामाजिक जीवन को सुरक्षित कर सकते हैं।'' (इंडियन एक्सप्रेस , 7 मार्च 2014 )

जोशी का वक्तव्य इस मामले में एकांगी है कि मसला सिर्फ समलैंगिकता या 'लिव इन रिलेशन' का ही नहीं है। अगर समलैंगिकता गलत है या 'लिव इन रिलेशन' तो फिर सीधे उसे गलत कहा जाना और तर्क दिए जाने चाहिए थे। परंपराओं, मान्यताओं और रूढिय़ों तथा कानून में फर्क यह है कि वे सामयिक जरूरतों और बदलावों के अनुरूप विकसित होते हैं। उन्हें बनाने की प्रक्रिया में सामाजिक, जैविक और सांस्कृतिक पक्षों को जांचने के बाद ही कानूनी जामा पहनाया जाता है।

परंपराएं, मूल्य और कानून

स्पष्ट है कि आरएसएस के पास समलैंगिकता या 'लिव इन रिलेशन' के खिलाफ कोई ठोस तर्क नहीं हैं। पर वह उसके बहाने अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगा है। उसकी मंशा कानूनों को मानने की नहीं लगती है बल्कि वह धार्मिक मूल्यों से उपजी परंपराओं को निर्णायक बनाने की जुगत में रहता है। इस तरह देखा जाए तो वह जातिवाद, सती प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नी प्रथा, सुविधानुसार स्त्री त्याग और पुरुष द्वारा पुनर्विवाह आदि को मानता हैक्योंकि ये सब धर्म-सम्मत हैं। प्रश्न है क्या धार्मिक नियमों से उपजी बुराइयों को रोकने का आज आरएसएस के पास कोई व्यावहारिक और प्रभावशाली तरीका है? इस जैसी संस्था, जिसने पिछले दिनों महाराष्ट्र में जादू-टोने के खिलाफ लाए जा रहे कानून का यह कहते हुए खुले आम विरोध किया था कि ये हमारे (हिंदू) धर्म के खिलाफ जा सकते हैं, क्या कोई ऐसा काम करेगी जो धर्म और संस्कृति के नाम पर चल रहीं कुप्रथाओं को हटाने में किसी तरह की निर्णायक भूमिका निभा सकती हो? दूसरी ओर भारतीय समाज में, विशेष कर हिंदू समाज में, जो भी सुधार आज दिखाई देते हैं वे सब कानून के बल पर ही हुए हैं और होंगे भी।

देखा जाए तो जिन्हें आरएसएस परंपराएं और मूल्य कहता है और जो हमारे जीवन को अनादिकाल से नियामित करती रही हैं, उनमें से भी अधिकांश एक तरह से कानून ही हैं जो धर्म के माध्यम से समाज द्वारा लागू किए जाते हैं। मनु स्मृति इसका उदाहरण है। या इसी तरह कुरान भी है। धार्मिक नियमों की विशेषता यह है कि वे हजारों वर्षों से प्रचलन में रहने के कारण इस तरह से रूढ़ हो जाते हैं कि आंख मूंद कर समाज द्वारा स्वीकार और शासक वर्ग द्वारा लागू किए जाते हैं। इनके उदाहरण आप खाप पंचायतों के तौर-तरीकों या दलितों को दंडित करने की घटनाओं में देख सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि धार्मिक संस्थाएं स्वयं दंड देने का काम न करती हों। उदाहरण के लिए समाज से बहिष्कृत करना या जन्म-मृत्यु के संस्कारों से उस व्यक्ति या उसके परिवार के सदस्यों को धार्मिक अनुष्ठानों से वंचित करना एक आम दंड रहा है। यू. आर. अनंतमूर्ति के क्लासिक उपन्यास संस्कार में इसका प्रभावशाली चित्रण है। नियमों के खिलाफ जानेवालों को, आधुनिक राज्य व्यवस्था के आने से पहले तक धर्म द्वारा कई तरह से दंडित किया जाता था और यह दंड ही मूलत: लोगों को तथाकथित धार्मिक नियमों के खिलाफ जाने से रोकता रहा है।

राज्य व्यवस्था, न्याय प्रणाली जिसका एक अंग है, कोई ऐसी चीज नहीं है जो कि शून्य में काम करती हो, विशेषकर आधुनिक व्यवस्था। अंतत: उसे अपने समाज की अच्छाइयों और बुराइयों का लगातार आंकलन करना होता है। इसके साथ ही उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि अंतत: वह समाज, जिसकी व्यवस्था का दायित्व उसका है, किस तरह से आगे बढ़ पायेगा। यह तभी हो सकता है जब कि राज्य व्यवस्था ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों में हुई अद्यतन प्रगति के आलोक में और उसका लाभ उठाते हुए, कानून बनाए। जिस तरह से ज्ञान, वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक उन्नति अंतिम नहीं है, उसी तरह से नैतिकताएं और मूल्य भी अंतिम नहीं होते। उन्हें समयानुसार बदलना होता है।

प्रचार बनाम सत्य

इधर एक एसएमएस इंटरनेट के विभिन्न मंचों में घूम रहा है। साथ में दो वीडियो टुकड़े भी हैं। यह संदेश मोदी का प्रचार है और इसमें उनकी तारीफ में कई बातें कही गई हैं। बाकी बातों को छोड़ दें तो भी दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं। पहली यह कि वह अपने पिता की बहुप्रचारित चाय की दुकान में मदद किया करते थे और उत्तर गुजरात के वाडनगर रेलवे स्टेशन में यात्रियों को चाय बेचा करते थे। गोकि इस संबंध में तथ्य क्या हैं इसे अभी भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए अंग्रेजी साप्ताहिक आउटलुक के 3 मार्च के अंक में छपा है कि "मोदी के पिता वास्तव में क्या करते थे यह विवादास्पद है। दूसरे पक्ष का कहना है कि वह फाफड़ा (बेसन का एक तला व्यंजन) बेचा करते थे न कि चाय। तीसरा पक्ष यह है कि मोदी आरएसएस के हेडगेवार भवन में प्रचारकों के लिए खाना पकाते थे और पोचा लगाते थे। और उनके पिता ने कुछ समय तक कैंटीन चलाई थी पर बाद में वह ज्यादा लाभदायक 'प्रोटेक्शन' (संरक्षण) का धंधा करने लगे थे। वह स्थानीय चाय की ठेली वालों और पुलिस के बीच दैनिक हफ्ता (प्रोटेक्शन मनी) की शृंखला में बिचौलिए का काम करते थे। '' जो भी हो, यह निश्चित है कि वह गरीब घर से हैं और शुरू में उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी है। पर उन्होंने परिवार को अपनी उपलब्धियों का कभी कोई फायदा नहीं पहुंचाया। दूसरा, कि वह अविवाहित हैं।

इन दोनों ही बातों के नैतिक और सामाजिक पक्ष हैं। परिवार से मोदी के संबंध से पहले उनके अविवाहित होने पर चर्चा जरूरी है।

इंडियन एक्सप्रेस में ही 3 फरवरी 2014 को जसोदाबेन नाम की महिला का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। (अगले दिन उसी संस्थान के हिंदी दैनिकजनसत्ता ने भी इसका अुनवाद छापा।) साक्षात्कार के मुताबिक जसोदाबेन का विवाह मोदी से हुआ था और उन्होंने जसोदाबेन को विवाह के तीन वर्ष बाद ही छोड़ दिया था। जसोदा बेन के अनुसार वे दोनों इन तीन वर्षों में तीन माह भी साथ नहीं रहे। दूसरे शब्दों में कानूनी दृष्टि से मोदी आज तक विवाहित हैं क्यों कि उन्होंने तलाक नहीं लिया है।

यह साक्षात्कार नेट पर खुलेआम उपलब्ध है। दिल्ली, मुंबई के अलावा अहमदाबाद और वडोदरा सहित देश के नौ केंद्रों से प्रकाशित होनेवाला एक्सप्रेस मोदी और भाजपा का प्रशंसक होने के साथ ही उदारीकरण के सबसे बड़े समर्थकों में भी है। अगर यह तथ्य और साक्षात्कार गलत होता तो इसका मोदी की ओर से निश्चित ही कोई खंडन आ चुका होता और आरएसएस के नटी ब्रिगेड ने मेल, एसएमएस, क्लिपिंग के माध्यम से अब तक जमीन- आसमान एक कर दिया होता।

तब प्रश्न है क्या यह बात अज्ञानवश कही जा रही है कि मोदी अविवाहित हैं या तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है?

पर ऐसा भी नहीं है कि यह एक्सप्रेस का 'स्कूप' हो। यह तथ्य पिछले पांच वर्षों से जग जाहिर है। अंग्रेजी साप्ताहिक ओपन ने जसोदाबेन के बारे में अपने 11 अप्रैल 2009 के अंक में ही छाप दिया था। पत्रिका के अनुसार बनासकांठा जिले के राजोसाणा गांव में मोदी की पत्नी के होने के बारे में गोधरा दंगों के बाद यानी सन 2002 में ही उनके विरोधियों ने पता लगा लिया था। यहां प्रश्न हो सकता है कि इस बीच मीडिया ने पहले कभी इस बारे में क्यों नहीं छापा? फिलहाल इससे दो सवाल उठते हैं। पहला यह कि मोदी ने अपने विवाह को छिपाए क्यों रखा? दूसरा यह कि क्या उनके इन तीन वर्षों में या महीनों में अपनी पत्नी से शारीरिक संबंध थे या नहीं। गोकि इससे उनकी वैवाहिक स्थिति पर कानूनी तौर पर कोई फर्क नहीं पड़ता। गत वर्ष प्रकाशित मोदी की द मैन, द टाइम्स नामक जीवनी के लेखक निलांजन मुखोपाध्याय ने इसके उत्तर अपनी तरह से दिए हैं। उनके अनुसार मोदी ने अपने "विवाह के तथ्य को इसलिए छिपाए रखा क्योंकि इसका अर्थ यह होता कि वह पवित्रतावादी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सीढिय़ां नहीं चढ़ पाते। आरएसएस अपने प्रमुख कार्यकर्ताओं के विवाह को नहीं स्वीकारता है। '' यद्यपि ओपन की रिपोर्ट से ऐसा आभास होता है कि मोदी द्वारा जसोदाबेन को छोडऩे का अतिरिक्त कारण उनका सुंदर न होना और अनपढ़ होना भी रहा है। मोदी जिस तरह से अपनी वेशभूषा और शरीर को लेकर सचेत रहते हैं वह इस बात का संकेत तो है ही कि वह काफी हद तक आत्ममुग्ध आदमी हैं। पर इससे भी आगे यह मोदी की उस मानसिकता को भी दर्शाता है जो औरत का मूल्यांकन उसकी शारीरिक बनावट के आधार पर करता है। पर इससे भी ज्यादा यह घटना मोदी की उस निर्मम आत्मकेंद्रितता को दर्शाती है जो अपने लिए किसी की भी बलि चढ़ाने में एक पल को नहीं झिझकती।

परिवार और कर्तव्य के सवाल

मुखोपाध्याय ने एक और महत्त्वपूर्ण बात का दावा किया है कि मोदी का "अपनी पत्नी से कभी कोई शारीरिक संबंध नहीं रहा।''

इस बात का क्या आधार है और क्या यह संभव हो सकता है, यह अपने आप में सवाल है। यहां याद रखना जरूरी है कि जसोदाबेन ने एक्सप्रेस के साक्षात्कार में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि शुरू में मोदी का उनसे व्यवहार अच्छा था और वह उनका रसोई में भी हाथ बंटाते थे। जसोदाबेन ने यह भी कहा है कि वह "तीन वर्षों में तीन माह भी साथ नहीं रहे। '' तीन महीने से कम ही सही, पर इस साथ रहने से उनका क्या तात्पर्य हो सकता है? क्या ये तथ्य मुखोपाध्याय के दावे की पुष्टि करते हैं?

ओपन में छपी हेमा देशपांडे की यह रिपोर्ट स्पष्ट कर देती है कि नरेंद्र मोदी ने अपने विवाह के तथ्य को नियोजित तरीके से छिपाए रखने की हर संभव कोशिश की। जिस राजोसाणा गांव में जसोदाबेन पढ़ाती थीं उस गांव के स्कूल के प्रधानाचार्य ने किस तरह से सरकारी अधिकारियों या भाजपा नेताओं के माध्यम से उन्हें डराया, उसका किस्सा पढऩे लायक है। यह स्पष्ट कर देता है कि मोदी ने अपने विवाहित होने के तथ्य को छिपाए रखने के लिए पार्टी और सरकारी मशीनरी का खुल कर दुरुपयोग किया है।

आश्चर्य है कि उनसे इस बारे में कोई सवाल-जवाब न तो आरएसएस, न उनकी पार्टी और न ही मीडिया ने किए हैं। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय प्रेस तक ने भी नहीं। यह उनके मीडिया मैनेजमेंट का भी कमाल माना जाएगा। साफ है कि मोदी को लेकर कई तरह की गलत बयानी लगातार की जा रही है। उन्हें सर्वगुण संपन्न अवतारी पुरुष सिद्ध करने का कोई भी मौका भाजपा का प्रचार तंत्र और उनके हिंदुत्ववादी समर्थक नहीं छोड़ रहे हैं। मोदी अच्छे प्रशासक हो सकते हैं (जिसको लेकर अपनी तरह की शंकाएं हैं) पर क्या इस पृष्ठभूमि के चलते व्यक्ति के स्तर पर भी उन्हें नैतिक और आदर्श कहा जा सकता है? नैतिकता ब्रह्मचर्य में या पारिवारिक बंधनों से मुक्त होने में नहीं मानवीय व्यवहार में है। अगर वह किसी पश्चिमी प्रजातंत्र में होते तो उन्हें पत्नी का गैरकानूनी तरीके से त्याग करने के कारण ही, प्रधानमंत्री पद तो छोड़, क्या किसी छोटे-मोटे सार्वजनिक पद पर भी बैठने दिया जाता?

अब परिवार पर आते हैं। इस संदर्भ में पहला सवाल है कि कोई व्यक्ति निजी महत्त्वाकांक्षाओं जैसे कि सन्यासी बनने के लिए या फिर आरएसएस जैसे सांस्कृतिक आंदोलन से जुडऩे के लिए या और किसी तरह की निजी सफलता के लिए ही क्यों न हो, उस परिवार को जिसने उसका 20-22 वर्ष तक जैसा भी संभव था, लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया हो, समर्थ होते ही, छोडऩा क्या समझ में आता है? अपने परिवार को, माता-पिता, भाई-बहन या पत्नी को असहाय छोड़ देना कहां तक जायज है? ऐसे परिवार को जो किसी तरह दो जून की रोटी कमाता हो—फिर चाहे खोमचा लगाकर हो, ठेला चला कर या पुलिस और फेरीवालों के बीच दलाली कर के ही क्यों न हो। आठ व्यक्तियों, छह बच्चों और माता-पिता, के परिवार को। उस पर भी उस पत्नी को, जिससे आपने सार्वजनिक तौर पर (हिंदुत्ववादियों की भाषा में कहें तो जिस पत्नी के साथ अपने अग्नि के सामने सात फेरे लगाए हों और आजीवन साथ रहने की सौगंध उठाई हो) विवाह किया हो, छोडऩा तो और भी गंभीर मसला है। वह भी परंपरागत मूल्यों से ग्रसित ऐसे समाज में जहां परित्यक्ता या विधवा के लिए कोई स्थान ही न हो। जहां स्त्री को, बीसवीं सदी के मध्य में भी अपना साथी चुनने (या छोडऩे) की कोई आजादी न रही हो। पति के अलावा कोई आसरा न हो। ढंग की शिक्षा या रोजगार न हो (विवाह के समय जसोदाबेन सिर्फ सातवीं तक पढ़ी हुई थीं और उनकी उम्र 17 वर्ष थी) और न ही किसी तरह की कोई संस्थागत सामाजिक सुरक्षा हो। ध्यान रखने की बात है कि इसे बाल विवाह या अवैध भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह माता-पिता की रजामंदी से हुआ था। (मोदी का जन्म 1950 में हुआ और विवाह 1968 में)। ऐसे आदमी का आपद धर्म क्या हो सकता है? अगर निर्वाण की तलाश या फिर सांस्कृतिक पुनर्जागरण में अपने सपने के संधान जैसा कुछ हो तो भी क्या यह दुर्धर्ष आत्मकेंद्रितता और अतिमहत्त्वाकांक्षा से उपजी स्वार्थपरता नहीं है? यहां तो वह भी नहीं है। राजनीतिक सफलता कुल मिला कर सामाजिक सफलता ही है, विशेषकर जिस तरह की राजनीति में मोदी और उनके दल का विश्वास है। क्या ऐसा नहीं लगता कि उनके द्वारा आरएसएस में जाना कठिन जिंदगी से पलायन के तौर पर अपनाया गया एक रास्ता मात्र हो। जो भी हो तथ्य यह है कि उन्होंने उसके बाद अपने गरीब परिवार की ओर फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा।

ब्रह्मचर्य की अप्रासंगिकता

प्रसंग का दूसरा पक्ष एक ऐसी संस्था से जुड़ा है जो अपनी जड़ता और फासीवाद के कारण अप्रासंगिक हो चुकी है। क्या आज कोई ऐसा संगठन हो सकता है जो तथाकथित 'ब्रह्मचर्य' को बढ़ावा देता हो? सुनकर आश्चर्य होता है कि इक्कीसवीं सदी में भी किसी संगठन के आदर्शों में एक 'ब्रह्मचर्य' जैसा मूलत: प्रकृति विरोधी नियम भी है, फिर चाहे अलिखित ही क्यों न हो? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक ऐसा ही संगठन है जिसके प्रचारक अविवाहित रहते हैं और कहने को ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। यहां ध्यान रखने की बात है कि वे धर्म जिनमें ब्रह्मचर्य को महत्त्व दिया जाता रहा है इससे उपजे दुराचारों से बच नहीं पाते हैं। ईसाई धर्म व्यवस्था में पादरियों के दुराचार और अप्राकृतिक यौन व्यवहार के किस्से आज जिस मात्रा में सामने आ रहे हैं वह किसी धर्म से जुड़ी कोई पहली घटना नहीं है। सिर्फ इस में विशेषता यह है कि इस धर्म के पश्चिमी समाज के अनुयायी अपने खुले नजरिये के कारण इसे सुधारने और बदलने की कोशिश कर रहे हैं। देखने की बात यह है कि वहां किसी धार्मिक संगठन की राजनीति में ऐसी सर्वग्राही दखलंदाजी नहीं है जैसी कि भारतीय लोकतंत्र में आरएसएस की देखने को मिलती है। आगामी माह होनेवाले चुनावों में जिस तरह से आरएसएस भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार से लेकर लोकसभा के उम्मीदवारों की सूची तय कर रहा है वह इस तथाकथित सांस्कृतिक संगठन की रही-सही पोल भी खोल देता है। पर सत्य यह है कि आरएसएस को लेकर भी 'ब्रह्मचर्य-विचलन' के किस्सों की कोई कमी नहीं है। नवीनतम किस्सा संगठन के सहसरकार्यवाहक के.सी. कन्नन का है जिन्हें अपने प्रेम प्रसंग के कारण पद से हटा दिया गया है। इसकी घोषणा मार्च के शुरू में बंगलुरू की प्रतिनिधि सभा में ही की गई। आरएसएस के पदक्रम में यह तीसरा सबसे बड़ा पद होता है (द इंडियन एक्सप्रेस 12 मार्च)। कुछ समय पहले गुजरात में काम कर रहे एक और प्रचारक सुरेश जोशी का मामला बड़े जोर-शोर से सामने आया था। जोशी को लेकर एक ऐसी सीडी बांटी गई थी जिसमें वह एक स्त्री के साथ निजी क्षणों में नजर आ रहे थे। विडंबना यह है कि इस सीडी के बनवाने में नरेंद्र मोदी, जो कि उनके विरोधी हैं, का हाथ होने की जबर्दस्त अफवाह थी। इसके अलावा संघ में समलैंगिकता को लेकर तो न जाने कितने किस्से प्रचलित हैं, बल्कि एक तरह से इसके लिए उस पर अक्सर ही कटाक्ष किया जाता है।

व्यवहारिकता का आत्ममंथन

पर ऐसा भी नहीं है कि आरएसएस में इस सवाल को लेकर विवाद न रहा हो। सरसंघचालक बनने के तत्काल बाद मीडिया से बात करते हुए मोहन भागवत ने कहा था, "चूंकि एक हिस्सा अभी भी महसूस करता है कि हाफ पैंट पहनना सुविधा का मामला है और विवाह परिवार चलाने के उत्तरदायित्व की मांग करता है इसलिए दोनों ही मामलों को स्थगित रखा जाता है।

"अगर कोई प्रचारक विवाह करना चाहता है तो हम इसका सदा स्वागत करते हैं। लेकिन वह प्रचारक के रूप में काम नहीं कर सकता, हम गृहस्थ आश्रम का सदा स्वागत करते हैं, हम चाहते हैं प्रचारकों से ज्यादा लोग परिवारवाले बनें।'' ( द हिंदुस्तान टाइम्स, 4 अगस्त, 2009)

जो संगठन परिवार की संस्था के बारे में सार्वजनिक तौर पर इस तरह से बातें करता हो, फिर चाहे दिखाने के लिए ही क्यों न हो, उससे इस परिप्रेक्ष्य में कुछ सवाल तो पूछे ही जा सकते हैं।

आज के दौर में विवाहित स्त्री को छोडऩा कहां तक उचित है? संभव है धर्म इसकी इजाजत देता हो और हिंदू धर्म में इसके उदाहरण भी मिलते हैं, जैसे शिव ने पार्वती को छोड़ा, नल ने दमयंती को छोड़ा, राम ने सीता को छोड़ा या फिर भीम ने हिडिंबा को छोड़ा आदि। अगर वह इजाजत देता भी है तो क्या वह सिर्फ पुरुष को ही देता है? क्या किसी पुराण में इस तरह की कोई कथा मिलती है जिसमें विवाहित स्त्री ने पति, बच्चों और परिवार को छोड़ कर सन्यास लिया हो? या कहीं कोई समकालीन वाकया हो? (अगर लिया भी होगा तो पति या पारिवारिक उत्पीडऩ के कारण। वैसे सच्चाई यह है कि औरतें ऐसे में भी अक्सर आत्महत्या को चुनती हैं।) इस तथ्य के बावजूद कि धर्म में महिलाओं का मरना, मार दिया जाना, उनका आत्महत्या करना, सहज स्वीकार्य है पर क्या हिंदू धर्म और उसका समाज आज भी इस तरह परिवार-त्याग के कदम को सही ठहराता और स्वीकरता है?

जैसा कि हिंदू धर्म का यह स्वयंभू रक्षक कहता है, "हम गृहस्थ आश्रम का सदा स्वागत करते हैं, हम चाहते हैं प्रचारकों से ज्यादा लोग परिवार वाले बनें।'' तो सवाल है वह नरेंद्र मोदी के पत्नी छोडऩे के प्रसंग को इतनी खामोशी से क्यों निगल जाता है? क्यों उसने मोदी को प्रचारक बनाया? क्या मोदी ने अपनी वैवाहिक स्थिति के बारे में संघ को गलत जानकारी नहीं दी थी? इससे मोदी की विश्वसनीयता तो शंकास्पद हो ही जाती है, पर सवाल है इस सच्चाई के सामने आने के बाद संघ ने क्या किया? क्या उनके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्यवाही की गई? नहीं। वह इस मुद्दे पर चुप्पी साधे है पर वरिष्ठ भाजपा नेताओं का तर्क है कि यह बाल-विवाह का मामला था और वयस्क होने पर मोदी ने इसे एक दुखद अध्याय की तरह छोड़ दिया। यह कानूनी तौर पर भी गलत है। सन् 1978 के संशोधन तक विवाह की कानूनी उम्र लड़की के लिए 15 और लड़के की 18 वर्ष थी। जहां तक बाल-विवाह की बात है वह तो इसलिए भी गलत है कि आज भी बाल विवाह उसे कहा जाता है जहां लड़की 9 से कम और लड़का 11 से कम हो। पर यहां तर्क यह हो सकता है कि क्या आरएसएस और भाजपा सब बाल-विवाहों को, जो देश में आज भी हो रहे हैं, अवैध मानता है? और क्या ऐसे पतियों को अपनी पत्नियों को छोडऩे की इजाजत देता है? इसी से जुड़ा प्रश्न उठता है, अगर केंद्र में भाजपा नेतृत्ववाली सरकार आती है तो क्या इस तरह का कोई कानून पास किया जाएगा?

संविधान में स्त्री

ये ऐसे सवाल हैं जो आज के दौर में भारतीय स्त्री की पहचान और स्वायत्तता के साथ ही साथ स्त्री-पुरुष की समानता के आधारभूत सिद्धांतों और भारतीय संविधान की मूल भावना से जुड़े हैं। जो जाति, धर्म, रंग और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता और इस तरह के व्यवहार को अपराध की श्रेणी में रखता है। वृहत्तर संदर्भ में ये किसी भी संगठन की, चाहे वह सांस्कृतिक हो या राजनीतिक, प्रासंगिकता भी सिद्ध करते हैं।

यह छिपा नहीं है कि दुनिया का कोई भी धर्म पुरुष और स्त्रियों को समान अधिकार नहीं देता। वह स्त्री को पुरुषों के बराबर मानता ही नहीं है। हिंदू धर्म अपवाद कैसे हो सकता है! पर धर्म-धर्म के बीच भी स्त्री की स्थिति में अंतर देखा जा सकता है। हिंदू धर्म कई मायने में औरतों के प्रति ज्यादा कठोर है। वह न तो परित्यक्ता को दूसरे विवाह की इजाजत देता है और न ही किसी विधवा को। बल्कि विधवा का तो वह जीने का भी अधिकार छीन लेता है। कम से कम ईसाई धर्म और इस्लाम में यह इजाजत तो है। सती जैसी निर्मम प्रथा, दुनिया के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित उस बर्बर प्रथा से क्या अलग है जिसके चलते राजे-रजवाड़ों की पत्नियों और रखैलों को उनके साथ ही दफन कर दिया जाता था?

इन सवालों का महत्तर सामाजिक महत्त्व है, विशेषकर इसलिए क्यों कि ये एक व्यक्ति के भारतीय समाज में परिवार और पत्नी के संदर्भ में उसके दायित्वों से जुड़े हैं। दुनिया के सबसे बड़े देश का प्रधान मंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा रखनेवाले और देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व करनेवाले व्यक्ति के संदर्भ में ये अतिरिक्त महत्त्व के तो हैं ही। जो समाचार, विशेष कर उनके द्वारा राज्य की पुलिस के द्वारा एक औरत का पीछा करवाने (पत्नी नहीं) और उस के निजी जीवन पर नजर रखने को लेकर आए हैं, वे सरकारी तंत्र के दुरुपयोग और एक नागरिक की स्वतंत्रता के हनन का दूसरा आयाम हैं। ये सवाल खड़ा करते हैं कि क्या ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में पहले से ही जर्जर भारतीय लोकतंत्र में नागरिकों की निजता को सम्मान मिल सकेगा? वैसे ये मोदी के उस रुझान का भी संकेत हैं जो स्त्री-पुरुष के बीच के नैसर्गिक आकर्षण से उपजते हैं। पर वे साथ-ही-साथ तथाकथित ब्रह्मचर्य और अविवाहित रहने के संघ के आग्रह की निरर्थकता को भी उजागर कर देते हैं।

यहां स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि क्या उनकी परित्यक्त पत्नी जसोदाबेन को उतनी ही छूट रही होगी जितनी मोदी को पुरुष और एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के कारण उपलब्ध है और स्पष्ट है कि मोदी ने उसका लाभ भी उठाया है और क्या गारंटी है कि आगे नहीं उठाएंगे? दूसरी ओर एक परंपरागत हिंदू स्त्री के संस्कार और सामाजिक सीमाओं को देखते हुए ऐसा कर पाना जसोदाबेन के लिए लगभग असंभव रहा होगा। जसोदाबेन के अनुसार नरेंद्र मोदी ने उनके विवाह का एक-एक फोटो फाड़ दिया था। पर उनके पास आज भी मोदी का एक फोटो है और उन्हें उनके भागे हुए पति द्वारा भेंट की गई एक किताब है जिसे वह अमूल्य धरोहर की तरह संजोए हैं। अपनी इन्हीं अमूल्य निधियों के भरोसे वह आज भी इंतजार करती हैं कि शायद उनका पति उन्हें किसी दिन फोन करेगा। (2009 में मुंबई से प्रकाशित डेली न्यूज एंड एनालिसिस की रिपोर्ट) क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मोदी तत्काल अपनी पत्नी को स्वीकारें और उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा दें। और क्या संघ को उनसे इसका आग्रह नहीं करना चाहिए? अन्यथा उन्हें भी आज नहीं तो कल किसी को गोद लेने का पाखंड करना होगा।

कैसा आदर्श?

जैसा कि कहा जा चुका है कानून ऐसी इजाजत नहीं देता कि कोई अपनी पत्नी का इस निर्ममता से त्याग करे। बिना कोई कारण बतलाए उसे विवाह के तीन वर्ष बाद ही छोड़कर चला जाए। उसे कानूनी तौर पर मुक्त न करे और उसके भरण-पोषण की भी कोई व्यवस्था न करे और अंतत: उसे अपने मायके का दरवाजा खटखटाना पड़े। साफ है कि यह त्याग नहीं अन्याय है। चूंकि नरेंद्र मोदी अब स्वयं इस तरह से बोलने लगे हैं मानो उनका भारत का प्रधान मंत्री होना सरकारी प्रमोशन होने जैसा ही सुनिश्चित है, (10 मार्च को पूर्णिया में दिए भाषण की जनसत्ता में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित भाषा की रिपोर्ट), ऐसे में इन प्रश्नों का उनसे उत्तर पूछा जाना जरूरी है। उन्होंने जो किया है वह भारतीय युवा पीढ़ी के लिए किस तरह की नजीर बनेगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। उन्होंने एक निरीह और असहाय स्त्री का जीवन निजी महत्त्वाकांक्षाओं और विश्वासों के चलते बर्बाद किया है। क्या यह भारतीय संविधान और कानून का अपमान नहीं है? सर्वोपरि यह कि यह भारतीय नारी का अपमान है। महिला दिवस पर उनका महिलाओं के सशक्तीकरण और स्वावलंबी बनाने का संदेश देने के पीछे कोई और मंशा तो नहीं है?

हाल ही में मोदी ने दिल्ली में वकीलों को संबोधित करते हुए कहा है कि उन्होंने जिंदगी भर कोई कानून नहीं तोड़ा। यहां तक कि स्कूटर तक कभी गलत पार्क नहीं किया। (द हिंदू 9 मार्च 2014) यह सब सही हो सकता है। पर इस में कौन-सी अजीब बात है। कानूनों का पालन हर सभ्य समाज का आम नागरिक करता है और उसे करना भी चाहिए। यातायात के नियमों का पालन एक सामान्य अनुशासन का मामला है। आश्चर्य यह है कि राम जेठमलानी सहित वकीलों के उस जमावड़े में से किसी ने मोदी को यह नहीं बतलाया कि पत्नी को छोडऩा, उस पर जासूस लगाना, किसी महिला पर अपनी पुलिस सेनजर रखवाना आदि भी गैरकानूनी है। सिर्फ पत्नी को ही बेसहारा छोड़ कर भाग जाना और फिर उसे गैरकानूनी तरीकों से छिपाने की कोशिश करना किसी सामान्य अपराध से किस तरह कम है?

सवाल पूरे संघ परिवार से किया जाना जरूरी है कि क्या वह एक ऐसे व्यक्ति को प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार बना कर उस भारतीय परंपरा को जो परिवार की अपनी संस्था पर गर्व करती है और इस संदर्भ में स्वयं अपनी मान्यताओं की जड़ों में मट्ठा डालने का काम नहीं कर रहा है? मोदी के विवाह का खुलासा पांच वर्ष पहले हो चुका था इसके बावजूद एक ऐसे प्रचारक को जिसने अपने जीवन के बारे में अहम तथ्य छिपाया हो, प्रधान मंत्री बनाकर आरएसएस क्या संदेश दे रहा है? सह सरकार्यवाहक कन्नन को निकाले जाने की अपनी रिपोर्ट में एक्सप्रेस ने संघ के एक अंदरूनी व्यक्ति का हवाला देते हुए लिखा है: "आरएसएस के लिए प्रचारक का पद एक संस्था है। उसके लिए अविवाहित और ब्रह्मचारी रहना जरूरी है। एक छिपे प्रेमप्रसंग के चलते कन्नन ने इस संस्था का अपमान किया है।'' इस पृष्ठभूमि में कन्नन का संघ से निकाला जाना क्या दोगलापन नहीं है?

सत्यमेव जयते?

निश्चय ही मोदी का आना उनके सांप्रदायिक रिकार्ड के कारण संघ परिवार के हिंदूवादी एजेंडे को बढ़ाएगा और संभव है संघ के प्रति युवाओं के घटते आकर्षण की कुछ हद तक ही सही क्षतिपूर्ति कर देगा। पर यह जिस तरह की असामाजिकता और असुरक्षा को बढ़ाएगा, विशेषकर निम्न वर्ग की महिलाओं में, इसकी उस के नेतृत्व को कोई चिंता है। आज प्रचारक मध्य या उच्च वर्ग से नहीं आते। पहले भी शायद ही आते होंगे। अब ये उस निम्न मध्य व निम्न वर्ग से आते हैं, जिसे विकास के मोदी मॉडल ने बड़े पैमाने पर बेरोजगार और असुरक्षित किया हुआ है। तर्क हो सकता है कि कोईभी युवा मोदी के रास्ते पर चल कर देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकता है। पर यह नहीं भुलाया जा सकता कि मोदी अपवाद हैं क्यों कि वह कई ऐतिहासिक संयोगों की देन हैं। लेकिन भूला नहीं जाना चाहिए कि इस उदाहरण में कई औरतों को जसोदाबेन की तरह विवाहित-विधवा का जीवन जीने को मजबूर करने की पूरी संभावना है।

देखा जाए तो मोदी के इस असामाजिक न भी कहें तो भी अनैतिक व्यवहार की जड़ें काफी हद तक स्वयं आरएसएस के अवैज्ञानिक, अप्रासंगिक और अतार्किक आदर्शों में निहित हैं। सवाल है आखिर वह कौन सा दायित्व है जिसे आज विवाहित आदमी नहीं निभा सकता? फिर पुरुष को ही क्यों प्रचारक बनाया जाता है? क्या यह संघ का स्त्री के प्रति गहरी अनास्था और भेदभाव नहीं दिखलाता है? 'नर्क का द्वार स्त्री' वाली जड़ धार्मिक अवधारणा को पुष्ट करता। जबकि प्रचारकों, विशेषकर मुख्यमंत्री 'प्रचारक', के 'पथभ्रष्ट' होने के उदाहरण बतलाते हैं कि वे किस तरह स्वयं स्त्रियों के संसर्ग के लिए लालायित रहते हैं और क्या नहीं कर सकते हैं। अगर सीमा पर रहनेवाले सिपाही या बीएसएफ और सीआरपीएफ जैसे अर्द्धसैनिक बलों के लोग अपने दोनों कामों को बखूबी निभा सकते हैं तो वह कौन-सी ऐसी अड़चन है जो विवाहित होना प्रचारक के काम के रास्ते में बाधा बनती है? सवाल है अगर यह नियम न होता तो क्या नरेंद्र मोदी को अपनी पत्नी को इस तरह चोरी से छोड़कर जाना पड़ता? लगता है मोदी: द मैन, द टाइम्स के माध्यम से यही बात कहने की कोशिश की जा रही है कि मोदी ने विवाह जरूर किया और पत्नी भी छोड़ी पर वह हैं ब्रह्मचारी। यानी प्रचारक बनने लायक थे। निश्चय ही मोदी और उनके प्रचारक बखूबी जानते हैं कि उन्हें किस तरह से एक नायक की छवि को गढऩा चाहिए फिर चाहे इसके लिए कितना ही मसाला यानी गल्प का सहारा क्यों न लेना पड़े।

सब कुछ के बावजूद प्रचार की अपनी सीमाएं होती हैं। गोकि हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स का कहना था कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो सच बन जाता है। पर मुंडक उपनिषद् में कहा गया है:

सत्यमेव जयते नानृतं

सत्येन पन्था विततो देवयान:।

येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा

यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।

(केवल सत्य की विजय होती है; झूठ की नहीं। दैवीय मार्ग सत्य से होकर ही जाता है, जिससे होकर संत लोग जिनकी कामनाएं पूरी तरह शांत हो चुकी हैं, वहां पहुंचते हैं जहां सत्य का परम निधान है।)

वैसे हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह में भी गुदा हुआ है 'सत्यमेव जयते'। पर न तो राजनीति संतों का काम है और न ही सत्य को प्राप्त करने का मार्ग।

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अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

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Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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