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Tuesday, April 1, 2014

और अपने लिए एक नयी जनता चुन लें

और अपने लिए

एक नयी जनता चुन लें

पलाश विश्वास

जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे / बर्तोल ब्रेख्त

जर्मनी में

जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे

और यहां तक कि

मजदूर भी

बड़ी तादाद में

उनके साथ जा रहे थे

हमने सोचा

हमारे संघर्ष का तरीका गलत था

और हमारी पूरी बर्लिन में

लाल बर्लिन में

नाजी इतराते फिरते थे

चार-पांच की टुकड़ी में

हमारे साथियों की हत्या करते हुए

पर मृतकों में उनके लोग भी थे

और हमारे भी

इसलिए हमने कहा

पार्टी में साथियों से कहा

वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं

क्या हम इंतजार करते रहेंगे

हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो

इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में

हमें यही जवाब मिला

हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते

पर हमारे नेता कहते हैं

इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है

हर दिन

हमने कहा

हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं

आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से

पर साथ-साथ यह भी कहते हैं

मोरचा बना कर ही

हम जीत सकते हैं

कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो

यह छोटा दुश्मन

जिसे साल दर साल

काम में लाया गया है

संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में

जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को

फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में

हमने देखा है मजदूरों को

जो लड़ने के लिए तैयार हैं

बर्लिन के पूर्वी जिले में

सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं

जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं

लड़ने के लिए तैयार रहते हैं

और शराबखाने की रातें बदले में मुंजार रहती हैं

और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत नहीं कर सकता

क्योंकि गलियां हमारी हैं

भले ही घर उनके हों


अंग्रेज़ी से अनुवाद : रामकृष्ण पांडेय

और भारत में जब फासिस्ट मजबूत हो रहे हैंः

The Economic Times

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The Economic Times

10 hours ago

Tata Motors, HCL Tech top FY13 profits in just 9 monthshttp://ow.ly/vg8jtPhoto: Tata Motors, HCL Tech top FY13 profits in just 9 months http://ow.ly/vg8jt




माफ कीजिये मेरे मित्रों,भारत और पूरी तीसरी दुनिया के देशों में हूबहू ऐसा ही हो रहा है।सत्ता वर्ग अपने हितों के मुताबिक जनता चुन रही है और फालतू जनता का सफाया कर रही है।
हमने अमेरिकी खुफिया निगरानी तंत्र के सामंजस्य में आंतरिक सुरक्षा और प्रतिरक्षा पर बार बार लिखा है और हमारे सारे साथी इस बात को बार बार लिखते रहे हैं कि कैसे राष्ट्र का सैन्यीकरण हो रहा है और धर्मोन्मादी कारपोरेट सैन्य राष्ट्र ने किस तरह अपने ही नागरिकों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है।

क्रयशक्ति संपन्न कथित मुख्यधारा के भारत को अस्पृश्य वध्य इस भारत के महाभारत के बारे में कुछ भी सूचना नहीं होती।

जब हममें से कुछ लोग कश्मीर,मणिपुर समेत संपूर्ण पूर्वोत्तर और आदिवासी भूगोल में नरसंहार संस्कृति के विरुद्ध आवाज बुलंद करते हैं,तो उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का अभियोग चस्पां हो जाता है।
जिस देश में इरोम शर्मिला के अनंत अनशन से नागिक बेचैनी नहीं है,वहां निर्वाचन प्रहसन के सिवाय क्या है,हमारी समझ से बाहर है।
पूरे भारत को गुजरात बना देने का जो फासीवादी विकास का विकल्प जनादेश बनाया जा रहा है,उसकी परिणति मानवाधिकार हनन ही नहीं, वधस्थल के भूगोल के विस्तार की परिकल्पना है।

सबसे बड़ी दिक्कत है कि हिंदू हो या अहिंदू,भारत दरअसल भयंकर अंधविश्वासी कर्मकांड में रात दिन निष्णात हैं।जो जाति व्यवस्था के आधीन हैं, वे भ्रूण हत्या के अभ्यस्त हैं तो जाति व्यवस्था के बाहर या तो निरंकुश फतवाबाजी है या फिर डायनहत्या की निरंतर रस्में।


हम जो अपने को भारत का नागरिक कहते हैं,वे दरअसल निष्क्रिय वोटर के सिवाय कुछ भी नहीं हैं।वोट डालने के अलावा इस लोकतंत्र में हमारी कोई राजनीतिक भूमिका है ही नहीं।हमारे फैसले हम खुद करने के अभ्यस्त नहीं हैं।


मीडिया सोशल मीडिया की लहरों से परे अंतिम सच तो यह है कि लहर वहर कुछ होता ही नहीं है। सिर्फ पहचान होती है।पहचान अस्मिता की होती है।


जाति,धर्म,भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोग हमारे प्रतिनिधित्व का फैसला कर देते हैं।जो फैसला करने वाले लोग हैं,वे सत्ता वर्ग के होते हैं।


जो चुने जाते हैं,वे सत्ता वर्ग की गूंगी कठपुतलियां हैं।


सत्ता वर्ग के लोग अपनी अपनी सेहत के मुताबिक हवा और मौसम रचते हैं,हम उसी हवा और मौसम के मुताबिक जीना सीखते हैं।


इस पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हमारी कोई भूमिका नहीं है।


नरेंद्र मोदी या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररुपेण संस्थिते हैं, लोकिन अंततः वह ओबीसी हैं और चायवाला भी। अगर वह नमोमयभारत के ईश्वर हैं और हर हर महादेव परिवर्ते हर हर मोदी है,घर घर मोदी है,तो हम उसे ओबीसी और चायवाला साबित क्यों कर रहे हैं। क्या भारत काप्रधानमंत्रित्व की भूमिका ओबीसी सीमाबद्ध है या फिर प्रधानमंत्री बनकर समस्त भारतवासियों को चाय परोसेंगे नरेंद्र मोदी।


हमने बार बार लिखा है कि राजनीति पहले रही होगी धर्मोन्मादी और राजनीति अब भी धर्मोन्मादी ही रहेगी।लेकिन राजनीति का कारपोरेटीकरण,राजनीति का एनजीओकरण हो गया है। राजनीति अब बिजनेस मैनेजमेंच है तो सूचना प्राद्योगिकी भी। राजनेता अब विज्ञापनी माडल हैं।विज्ञापनी माडल भी राजनेता हैं।


तो यह सीधे तौर पर मुक्त बाजार में मार्केटिंग है। मोदी बाकायदा एक कमोडिटी है और उसकी रंगबिरंगी पैकेजिंग वोर्नविटा ग्रोथ किंवदंती या फेयरनेस इंडस्ट्री के काला रंग को गोरा बनाने के चमत्कार बतौर प्रस्तुत की जा रही है।नारे नारे नहीं हैं।नारे मािनस कार्यक्रम है।नारे बिन विचारधारा है।नारे दृष्टिविहीन है।नारे अब विज्ञापनी जिंगल है।जिन्हें लोग याद रख सकें।नारे आक्रामक मार्केटिंग है,मार्केटिंग ऐम्बुस है।खरीददार को चकाचौंध कर दो और बकरा को झटके से बेगरदन करदो। जो विरोध में बोलें,उसे एक बालिश्त छोटा कर दो।


फासीवाद का भी कायाकल्प हो गया है।मोहिनीरुपेण फासीवाद के जलवे से हैलन के पुराने जलवे के धुंधलाये ईस्टमैनकालर समय जीने लगे हैं हम।


मसलन जैसा कि हमारे चुस्त युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखा हैः


Forward Press का ताज़ा चुनाव विशेषांक देखने लायक है। मालिक समेत प्रेमकुमार मणि और एचएल दुसाध जैसे बहुजन बुद्धिजीवियों को इस बात की जबरदस्‍त चिंता है कि बहुजन किसे वोट देगा। इसी चिंता में पत्रिका इस बार रामविलास पासवान, अठावले और उदित राज की प्रवक्‍ता बनकर अपने पाठकों को बड़ी महीनी से समझा रही है कि उन्‍होंने भाजपा का दामन क्‍यों थामा। जितनी बार मोदी ने खुद को पिछड़ा नहीं बताया होगा, उससे कहीं ज्‍यादा बार इस अंक में मोदी को अलग-अलग बहानों से पिछड़ा बताया गया है। इस अंक की उपलब्धि एचएल दुसाध के लेख की ये आखिरी पंक्तियां हैं, ध्‍यान दीजिएगा:


''चूंकि डायवर्सिटी ही आज बहुजन समाज की असल मांग है, इसलिए एनडीए यदि खुलकर डायवर्सिटी की बात अपने घोषणापत्र में शामिल करता है तो बहुजन बुद्धिजीवी भाजपा से नए-नए जुड़़े बहुजन नेताओं के समर्थन में भी सामने आ सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो हम इन नेताओं की राह में कांटे बिछाने में अपनी सर्वशक्ति लगा देंगे।''


इसका मतलब यह, कि भाजपा/संघ अब बहुजनों के लिए घोषित तौर पर non-negotiable नहीं रहे। सौदा हो सकता है। यानी बहुजन अब भाजपा/संघ/एनडीए के लिए दबाव समूह का काम करेंगे। बहुत बढि़या।


इस पर मंतव्य निष्प्रयोजनीय है।अंबेडकरी आंदोलन तो गोल्डन ग्लोब में समाहित है, समाजवादी विचारधारा विशुद्ध जातिवाद के बीजगणित में समाहित है तो वामपंथ संसदीय संशोधनवाद में निष्णात।गांधीवाद सिरे से लापता।


इस कायाकल्पित मोहिनीरुपेण फासीवाद के मुाबले यथार्थ ही पर्याप्त नहीं है,यथार्थ चैतन्य बेहद जरुरी है।ब्रेख्त की पंक्तियां हमें इसकी प्रासंगिकता बताती हैं।


इसी सिलसिले में कवि उदय प्रकाश ने ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति कथाकारी अंदाज में उकेर दी है। अब अगली बहस इसी पर।

उदय प्रकाश ने एक जरुरी बहस के लिए इशारा कर दिया है।इसलिए उनका आभार।


हिटलरशाही का नतीजा जो जर्मनी ने भुगता है,आज के धर्मोन्मादी कारपोरेट समय में उसे समझने के लिए हमें फिर पिर ब्रेख्त की कविताओं और विशेषतौर पर उनके नाटकों में जाना होगा।


सामाजिक यथार्थ महज कला और साहित्य का सौंदर्यबोध नहीं है,जो चकाचौंधी मनोरंजन की अचूक कला के बहुरंगी बहुआयामी खिड़कियां खोल दें हमारे लिए।सामाजिक यथार्थ के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिभंगी इतिहास बोध के सामंजस्य से ही जनपक्षधर सृजनधर्मिता का चरमोत्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है।


फासीवाद के जिस अनिवार्य धर्मोन्मादी कारपोरेट यथार्त के बरअक्श हम आज हैं, वह ब्रेख्त का अनचीन्हा नहीं है और कला माध्यमों को हथियार बतौर मोर्चाबंद करने की पहल इस जर्मन कवि और नाटककार ने की,यह खास गौरतलब है।


''सरकार का

जनता पर से विश्वास

उठ चुका है


इसलिए

सरकार को चाहिए

कि वह जनता को भंग कर दे


और अपने लिए

एक नयी जनता चुन ले ...''


(यह सटीक अनुवाद तो नहीं, ब्रेख्त की एक अत्यंत लोकप्रिय, लगभग मुहावरा बन चुकी और बार-बार दुहराई जाने वाली कविता की पुनर्स्मृति भर है. जिन दोस्तों को मूल-पाठ की याद हो, वे प्रस्तुत कर सकते हैं.)


उदय प्रकाश ने यह उद्धरण भी दिया हैः

''उनके माथे और कनपटियों की

तनी हुई,

तनाव से भरी,

उभरी-फूली हुई

नसों को ग़ौर से देखो ...


ओह!

शैतान होना

कितना मुश्किल हुआ करता है ...!''


(ब्रेख़्त और Tushar Sarkar के प्रति आभार के साथ, अनुकरण में इस छूट के लिए !)


इस बहस के भारतीय परिप्रेक्ष्य और मौजूदा संकट के बारे में विस्लेषण से पहले थोड़ा ब्रेख्तधर्मी भारतीय रंगमंच और ब्रेख्त पर चर्चा हो जाना जरुरी भी है।


संक्षेप में जर्मन कवि, नाटकार और निर्देशक बर्तोल ब्रेख्त का जन्म 1898 में बवेरिया (जर्मनी) में हुआ था। अपनी विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने यूरोपीय रंगमंच को यथार्थवाद के आगे का रास्ता दिखाया। बर्तोल्त ब्रेख्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। इसी ने उन्हें 'समाज' और 'व्यक्ति' के बीच के अंतर्संबंधों को समझने नया रास्ता सुझाया। यही समझ बाद में 'एपिक थियेटर' जिसकी एक प्रमुख सैद्धांतिक धारणा 'एलियनेशन थियरी' (अलगाव सिद्धांत) या 'वी-इफैक्ट' है जिसे जर्मन में 'वरफ्रेमडंग्सइफेकेट' (Verfremdungseffekt) कहा जाता है।ब्रेख्त का जीवन फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का जीवन था। इसलिए उन्हें सर्वहारा नाटककार माना जाता है। ब्रेख्त की मृत्यु 1956 में बर्लिन (जर्मनी) में हुई।

भारतीय रंगकर्म के तार ब्रेख्त से भी जुड़े हैं।दरअसल,संगीत, कोरस, सादा रंगमंच, महाकाव्यात्मक विधान, यह सब ऐसी विशेषताएं हैं जो ब्रेख्त और भारतीय परंपरा दोनों में मौजूद हैं, जिसे हबीब तनवीर और भारत के अन्य रंगकर्मियों ने आत्मसात किया।छत्तीसगढ़ी कलाकारो के टीम के माध्यम से सीधे जमीन की सोंदी महक लिपटी नाट्य अनुभूति की जो विरासत रच गये हबीबी साहब,वह यथार्थ से चैतन्य की सार्थक यात्रा के सिवाय कुछ और है ही नहीं।


भारत में बांग्ला, हिंदी, मराठी और कन्नड़ रंगकर्म से जुड़े मूर्धन्य तमाम लोगों ने इस चैतन्य यात्रा में शामिल होने की अपनी अपनी कोशिशें कीं। हबीबी तनवीर और गिरीश कर्नाड,बा बा कारंथ से लेकर कोलकाता के नादीकार तक ने।दरअसल भारत में नये नाट्य आंदोलन के दरम्यान 60-70 के जनआंदोलनी उत्ताल समय में ब्रेख्त भारतीय रंगमंच के केंद्र में ही रहे। इसी दौरान जड़ों से जुड़े रंगमंच का नारा बुलंद हुआ और आधुनिक भारतीय रंगमंच पर भारतीय लोक परंपरा के रंग प्रयोग किए जाने लगे। यह प्रयोग नाट्य लेखन और मंचन दोनों क्षेत्रों में हो रहा था। ऐसे समय में ब्रेख्त बहुत अनुकूल जान पड़े।


गौरतलब है कि ब्रेख्त के लिये नाटक का मतलब वह था, जिसमें नाटक प्रेक्षागृह से निकलने के बाद दर्शक के मन में शुरू हो। उन्होंने नाटक को एक राजनीतिक अभिव्यक्ति माना, जिसका काम मनोरंजन के साथ शिक्षा भी था।ब्रेख्त ने अपने सिद्धांत एशियाई परंपरा से प्रभावित होकर गढ़े थे। 1935 में ब्रेख्त को चीनी अभिनेता लेन फेंग का अभिनय देखने का अवसर रूस में मिला, जहां हिटलर के दमन और अत्याचार से बचने के लिये ब्रेख्त ने शरण ली थी। फेंग के अभिनय से प्रभावित होकर ब्रेख्त ने कहा कि जिस चीज की वे वर्षो तक विफल तलाश करते रहे, अंतत: उन्हें वह लेन फेंग के अभिनय में मिल गई। ब्रेख्त के सिद्धांत निर्माण का यह प्रस्थान बिंदु है।


कवि उदय प्रकाश मौजूदा संकट को इस तरह चित्रार्पित करते हैंः


२३ दिसंबर १९४९ की आधीरात, जब फ़ैज़ाबाद के डी.एम. (कलेक्टर) नायर थे, उनकी सहमति और प्रशासनिक समर्थन से, बाबरी मस्ज़िद के भीतर जो मूर्ति स्थापित की गई, उसकी बात इतिहास का हवाला बार-बार देने वाले लोग क्यों नहीं करते ?

इस तथ्य के पुख्ता सबूत हैं कि इस देश में सांप्रदायिकता को पैदा करने वाले और इस घटना के पूर्व, ३० जनवरी, १९४८ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या करने वाली ताकतें अब केंद्रीय सत्ता पर काबिज होेना चाहती हैं.

उनके अलंकृत असत्य और प्रभावशाली वागाडंबर (लफ़्फ़ाज़ी) के सम्मोहन ने और पूरी ताकत और तैयारी के साथ, उन्हीं के द्वारा खरीद ली गयी सवर्ण मीडिया के प्रचार ने देश के बड़े जनमानस को दिग्भ्रमित कर दिया है.

क्या 'विकास' की मृगमरीचिका दिखाने वाले नेताओं के पास अपना कोई मौलिक, देशी विचार और परियोजना है? या यह तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक और मानवीय संपदा को बर्बरता के साथ लूट कर, उसे कार्पोरेट घरानों को सौंप कर, सिर्फ़ अपना हित साधने वाले सत्ताखोर कठपुतलों के हाथों में समूचे देश की संप्रभुता को बेचने वालों को सपर्पित कर देने की एक देशघाती साजिश है, जिसे 'राष्ट्रवाद' का नाम दिया जा रहा है ?

यह एक गंभीर संकट का समय है.

सिर्फ़ चुनाव में जीतने और हारने की सट्टेबाज़ी का सनसनीखेज़ विज़ुअल तमाशा और फ़कत राजनीतिक जुआ यह नहीं है.

ऐसा मुझे लगता है .



राजीव नयन बहुगुणा का कहना है

इतिहास के सर्वाधिक रक्त रंजित, अंधकारपूर्ण और कम ओक्सिजन वाले दौर के लिए तत्पर रहिये ।संभवत इतिहास की देवी अपना मुंह अपने ही खून से धोकर निखरना चाहती है ।एक बार वोट देने के बाद जो क़ौम पांच साल के लिए सो जाती है , उसे ये दिन देखने ही पड़ते हैं। अंधड़ का मुकाबला कीजिये ।...ये रात खुद जनेगी सितारे नए -नए

हिमांशु कुमार लिखते हैं

तुम ने जिस खून को मकतल में दबाना चाहा

आज वो कुचा-ओ-बज़ार में आ निकला है


कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन के

खून चलता है तो रुकता नहीं सन्गीनों से

सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों सेतुम ने जिस खून को मकतल में दबाना चाहा  आज वो कुचा-ओ-बज़ार में आ निकला है    कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन के  खून चलता है तो रुकता नहीं सन्गीनों से  सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों से


आप को विकास करना है

आप को मेरी ज़मीन पर कारखाना लगाना है

तो आप सरकार से कह कर मेरी ज़मीन का सौदा कर लेंगे

फिर आप मेरी ज़मीन से मुझे निकलने का हुक्म देंगे

में नहीं हटूंगा तो आप मुझे मेरी ज़मीन से दूर करने के लिये अपनी पुलिस को भेजेंगे

आपकी पुलिस मुझे पीटेगी , मेरी फसल जलायेगी

आपकी पुलिस मेरे बेटे को देश के लिये सबसे बड़ा खतरा बता कर जेल में डाल देगी

तुम्हारी पुलिस मेरी बेटी के गुप्तांगों में पत्थर भर देगी

में अदालत जाऊँगा तो मेरी सुनवाई नहीं की जायेगी

में कहूँगा कि यह कैसा विकास है जिसमे मेरा नुक्सान ही नुक्सान है

तो तुम पूछोगे अच्छा तो वैकल्पिक विकास का माडल क्या है तेरे पास बता ?

आप पूछेंगे कि हम तेरी ज़मीन ना लें तो फिर विकास कैसे करें ?


अजीब बात है यह तो .

विकास तुम्हें करना है विकल्प में क्यों ढूंढूं ?

में तुम्हें क्यों बताऊँ कि तुम मेरी गर्दन कैसे काटोगे ?

अरे तुम्हें विकास करना है तो उसका माडल ढूँढने की जिम्मेदारी तुम्हारी है भाई .


राष्ट्र तुमने बनाया

इसे लोकतन्त्र तुमने बताया

राष्ट्रभक्ति के मन्त्र तुमने पढ़े

अब इस राष्ट्र के बहाने से तुम मेरी ज़मीन क्यों ले रहे हो भाई

क्या राष्ट्र मेरी ज़मीन छीन कर मज़ा करने के लिये बनाया था ?

क्या राष्ट्र तुमने इसीलिये बनाया था कि तुम राष्ट्र के नाम पर इस सीमा के भीतर रहने वाले गरीबों को पीट कर उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लो


अगर राष्ट्र हम गरीबों के लिये नहीं है

अगर इस राष्ट्र की फौज पुलिस और बंदूकें मेरी बेटी की रक्षा के लिए नहीं हैं

अगर राष्ट्र मुझे लूटने का एक साधन मात्र है तुम ताकतवर लोगों के हाथों का

तो लो फिर

में तुम्हारे राष्ट्र से स्तीफा देता हूं

अब तुम्हारा और मेरा कोई लेना देना नहीं है

मैंने तुम्हें अपनी तरफ से आज़ाद किया

अब अगर तुम अपनी पुलिस मेरी ज़मीन छीनने के लिये भेजोगे तो में उसका सामना करूँगा

में अपनी ज़मीन अपनी बेटी और अपनी आजादी की हिफाज़त ज़रूर करूँगा


में गाँव का आदिवासी हूं

अजीब बात है

जब तुम्हारे सिपाही की गोली से मैं मरता हूं

तब तुम मेरी मरने के बारे में बात भी नहीं करते

लेकिन जब तुम्हारे लिये मेरी ज़मीन छीनने के लिये भेजे गये तुम्हारे सिपाही मरते हैं तब तुम राष्ट्र राष्ट्र चिल्लाने लगते हो .

बड़े चालाक हो तुम .


मेरे मृत्यु के समय तुम

साहित्य धर्म और अध्यात्म की फालतू चर्चा करते रहते हो

तुम्हारे साहित्य धर्म और अध्यात्म में भी मेरी कोई जगह नहीं होती

मेरी मौत तुम्हारे राष्ट्र के लिये कोई चिन्ता की बात नहीं है तो मैं तुम्हारे विकास की चिन्ता में अपनी ज़मीन क्यों दे दूं भाई ?


अगर तुम्हें मेरी बातें बुरी लग रही हैं तो

मेरी तरह मेहनत कर के जीकर दिखाओ

बराबरी न्याय और लोकतन्त्र का आचरण कर के दिखाओ

इंसानियत से मिल कर रह कर दिखाओ

हमें रोज़ रोज़ मारने के लिये हमारे गाँव में भेजी गई पुलिस वापिस बुलाओ

तुम्हारी जेल में बंद मेरी बेटी और बेटों को वापिस करो

फिर उसके बाद ही अहिंसा लोकतन्त्र और राष्ट्र की बातें बनाओ .


लेकिन शंभूनाथ शुक्ल कुछ और ही लिख रहे हैं

वैसे अगर भारत में 'हेट स्पीच' की आजादी मिल जाए तो पता चलेगा कि यहां तो हर व्यक्ति घृणा का टोकरा लादे है। कोई अपने पड़ोसी से नफरत करता है तो कोई अपने भाई या बहन से कुछ तो अपने मां-बाप, बेटे-बेटियों से नफरत करते मिल जाएंगे। यहां अन्य धर्मावलंबियों की तुलना में हिंदू अपने ही धर्म की अलग-अलग जातियों के प्रति ऐसी घृणा का भाव पाले हैं कि शायद वे विधर्मियों के प्रति ऐसी नफरत नहीं करते होंगे। जरा इसका माइक्रो लेबल पर एनालिसिज करिए तो पाएंगे यहां जातियां अपनी ही सब कास्ट वालों को नीचा दिखाने उन्हें प्रताडि़त करने का कोई मौका गंवाना नहीं चाहतीं। यही हाल पेशों में है। अगर आप चाय बेचते हैं तो राजा-रानी का मुकाबला कैसे कर सकते हैं? मैं अपने शुरुआती दिनों में साइकिल में पंचर जोड़ता था इसलिए आज भी मेरे बहुत सारे रिश्तेदार मुझसे बराबरी का व्यवहार नहीं करते। और मौका आने पर ताना मारते हैं कि कल तक तुम साइकिल के पंचर लगाया करते थे। आज भी गांव में देखिए जब कुएं में पानी भर रहे हों तो एक जाति जब अपना गगरा भर कर चली जाती है तो दूसरी जाति को ऊपर चढऩे की मंजूरी मिलती है। पहले तो ठाकुर ही भरेगा फिर बांभन फिर बनिया और फिर लाला। इसके बाद अहीर, कुर्मी, लोध, कहार, काछी। यहां तक कि उन गांवों में भी नहीं जहां जमींदारी यादव, कुर्मी या लोधों की थी। और कुआं बनवाया हुआ उन्हीं जातियों का है पर वे कुएं की जगत पर तब ही चढ़ सकते हैं जब ठाकुर साहब के घर का गग़रा भर जाएगा. दलितों के टोले के लोगों को तो ठाकुर के कुएं की जगत पर चढऩे की इजाजत तक नहीं है। इसी तरह खान साहब के यहां पहले खानखाना, फिर सैयद, शेख आदि वहां भी मनिहार को उस वक्त तक कुएं की जगत में चढऩे की इजाजत नहीं मिलती जब तक शेख साहब के घर का गगरा न भर जाए।

अब हिमांशु कुमार

आजादी मिलने के बाद भारत की सत्ता कहीं बड़ी जातियों के हाथ से निकल ना जाय इसलिए बड़ी जतियों ने सत्ता अपने हाथ में रखने के लिए भारत की राजनीति का लक्ष्य नागरिकों की समानता नहीं बल्कि हज़ारों साल पहले मर चुके एक राजा का मंदिर बनाना घोषित कर दिया .

फिर हिमांशु कुमार

इलाहबाद के आज़ाद पार्क के नज़दीक लगाईं गयी शहीद भगत सिंह की प्रतिमा को नगर निगम वाले उठा कर ले गए .


ठीक भी है . भगत सिंह होते तो खुद ही अपनी प्रतिमा हटवा देते .


उनके दीवानों को भी समझना चाहिए कि अब निज़ाम बदल चूका है .


अब वहाँ हेडगवार साहब या सावरकर साहब की मूर्ती लगाई जायेगी शायद .


सरकारें और उसके कारिंदे ऐसे ही खुद की दिखावटी भक्ति बदलते रहते हैं .


तुम भी बदलाव के लिए तैयार रहो कामरेड .

सुरेंद्र ग्रोवर

मैंने कभी यह नहीं कहा कि केजरीवाल प्रधानमंत्री बन सकता है.. हाँ, इतना ज़रूर मानता हूँ कि वह जागरूकता फैला रहा है.. हमें नहीं चाहिए परम्परागत राजनीति.. इस देश को परम्परागत राजनैतिक दलों, चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा या वामपंथी या अन्य क्षेत्रीय दलों की राजनीति ने गर्त में पहुँचाने की जैसे कसम ही खा रखी है.. बहुत हुआ.. अब हमें नई राजनीतिक इमारत की बुनियाद रखनी ही होगी.. अभी नहीं तो कभी नहीं..

सत्य नारायण

केवल किसी की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि ग़रीब या मेहनतकश का होने से कुछ नहीं होता। बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वाली उन्मादी भीड़ में और गुजरात के दंगाइयों में बहुत सारी लम्पट और धर्मान्ध सर्वहारा-अर्धसर्वहारा आबादी भी शामिल थी। दिल्ली गैंगरेप के सभी आरोपी मेहनतकश पृष्ठभूमि के थे। भारत की और दुनिया की बुर्जुआ राजनीति में पहले भी बहुतेरे नेता एकदम सड़क से उठकर आगे बढ़े थे, पर घोर घाघ बुर्जुआ थे। कई कांग्रेसी नेता भी ऐसे थे। चाय बेचने वाला यदि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है और इतिहास-भूगोल-दर्शन-सामान्य ज्ञान – सबकी टाँग तोड़ता है तो एक बुर्जुआ नागरिक समाज का सदस्य भी उसका मज़ाक उड़ाते हुए कह सकता है कि वह चाय ही बेचे, राजनीति न करे। चाय बेचने वाला यदि एक फासिस्ट राजनीति का अगुआ है तो कम्युनिस्ट तो और अधिक घृणा से उसका मज़ाक उड़ायेगा। यह सभी चाय बेचने वालों का मज़ाक नहीं है, बल्कि उनके हितों से विश्वासघात करने वाले लोकरंजक नौटंकीबाज़ का मज़ाक है।

http://www.mazdoorbigul.net/archives/4272

जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

अंग्रेजी से अनुवादः रामकृष्ण पाण्डेय

जर्मनी में

जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे

और यहां तक कि

मजदूर भी

बड़ी तादाद में

उनके साथ जा रहे थे

हमने सोचा

हमारे संघर्ष का तरीका गलत था

और हमारी पूरी बर्लिन में

लाल बर्लिन में

नाजी इतराते फिरते थे

चार-पांच की टुकड़ी में

हमारे साथियों की हत्या करते हुए

पर मृतकों में उनके लोग भी थे

और हमारे भी

इसलिए हमने कहा

पार्टी में साथियों से कहा

वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं

क्या हम इंतजार करते रहेंगे

हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो

इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में

हमें यही जवाब मिला

हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते

पर हमारे नेता कहते हैं

इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है

हर दिन

हमने कहा

हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं

आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से

पर साथ-साथ यह भी कहते हैं

मोरचा बना कर ही

हम जीत सकते हैं

कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो

यह छोटा दुश्मन

जिसे साल दर साल

काम में लाया गया है

संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में

जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को

फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में

हमने देखा है मजदूरों को

जो लड़ने के लिए तैयार हैं

बर्लिन के पूर्वी जिले में

सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं

जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं

लड़ने के लिए तैयार रहते हैं

और चायखाने की रातें बदले में गुंजार रहती हैं

और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत

नहीं कर सकता

क्योंकि गलियां हमारी हैं

भले ही घर उनके हों

मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014

सुरेंद्र ग्रोवर

गुजरात सरकार ने अपनी सभी वेब साईटस से आर्थिक डेटा हटा दिया है क्योंकि केजरीवाल के सवालों ने उनकी पोल खोल दी थी.. अब गुजरात सरकार सफाई दे रही है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के कारण ऐसा किया गया.. हाय, मैं मर जावां, सब्जी च मीठा पा के.. इतने भोले भी न समझो हमें..

शंभूनाथ शुक्ल

गुजरा गवाह, लौटा बाराती और स्याही लगवाकर आया वोटर तीनों को फिर कोई नहीं पूछता।

मोहन क्षोत्रिय

‪#‎आंधी‬ जब चलती है, तो ऐसी चलती है कि थमने का नाम ही लेती, और जब थम जाती है तो कुछ समय बाद ही लगने लगता है कि कभी चली ही न थी !


आंधी के मुरझा जाने /थम जाने के बाद आंधी की चर्चा कोई खास मायने नहीं रखती, वर्तमान अथवा भविष्य के लिए !


हां, उसका आनंद वैसे तो लिया जा सकता है जैसे किस्सों का लिया जाता है !


तो दोस्तों, अच्छा लगे या बुरा, आंधी मुरझाने तो लग ही गई है ! ऐसा वे लोग भी कहने लगे हैं जिन्होंने शुरू में इसे आंधी का नाम दिया था !

समझ के बारे में / बर्तोल ब्रेख्त

कलाकारवृंद, तुम जो चाहे-अनचाहे

अपने आपको दर्शकों के फ़ैसले के हवाले करते हो,

भविष्य में उतरो, ताकि जो दुनिया तुम दिखाओ

उसे भी दर्शकों के फ़ैसले के हवाले कर सको ।


जो है तुम्हें वही दिखाना चाहिए,

लेकिन जो है उसे दिखाते हुए तुम्हें

जो होना चाहिए और नहीं है, और जो राहतमंद हो सकता है

उसकी ओर भी इशारा करना चाहिए,

ताकि तुम्हारे अभिनय से दर्शक

        अभिनीत चरित्र से बर्ताव करना सीख सकें।

इस सीखने-सिखाने को रोचक बनाओ,

सीखने-सिखाने का काम कलात्मक तरीके से होना चाहिए

और तुम्हें लोगों और चीज़ों के साथ बर्ताव करना भी

         कलात्मक तरीके से सिखाना चाहिए,

कला का अभ्यास सुखद होता है ।


तय मानो; तुम एक अँधेरे वक़्त में रह रहे हो,

शैतानी ताक़तों द्वारा आदमी को फ़ुटबाल की तरह

         आगे-आगे उछाला जाता तुम देखते हो,

सिर्फ़ कोई जाहिल ही निश्चिंत रह सकता है,

जो संशयमुक्त हैं; उनकी तो पहले ही अधोगति बदी है,

हम शहरों में जो मुसीबतें झेलते है; उनकी तुलना में

इतिहास-पूर्व के मनहूस वक़्त के भूचाल क्या थे ?

विपुलता के बीच हमें बरबाद करती तंघाली के बर‍अक्स

         ख़राब फ़सलें क्या थीं ?


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


सबसे पीछे जा छिपा / बर्तोल ब्रेख्त

लड़ाई लड़ी जा चुकी है, अब हमें खाना शुरू करना चाहिए !

सबसे काले दौर को भी ख़त्म होना ही पड़ता है ।

लड़ाई के बाद बच गए लोगों को अपने छुरी-काँटें सँभाल लेने चाहिए ।

टिका रहनेवाला आदमी ही अधिक ताक़तवर होता है

और शैतान सबसे पीछे जा छिपता है ।

ओ निश्चेष्ट धड़कनो, उठो !

ताक़तवर वह है जो अपने पीछे किसी को नहीं छोड़ता ।

फिर से बाहर निकलो, लँगड़ाते हुए— रेंगते हुए

       जैसे भी हो; अपने को दाँव पर लगाओ

और जो सबसे पीछे जा छिपा है उसे आगे ला— पेश करो !


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

नया ज़माना / बर्तोल ब्रेख्त

नया ज़माना यक्-ब-यक् नहीं शुरू होता ।

मेरे दादा पहले ही एक नए ज़माने में रह रहे थे

मेरा पोता शायद अब भी पुराने ज़माने में रह रहा होगा ।


नया गोश्त पुराने काँटें से खाया जाता है ।


वे पहली कारें नहीं थीं

न वे टैंक

हमारी छतों पर दिखने वाले

वे हवाई जहाज़ भी नहीं

न वे बमवर्षक,


नए ट्राँसमीटरों से आईं मूर्खताएँ पुरानी ।

एक से दूसरे मुँह तक फैला दी गई थी बुद्धिमानी ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

एक महान् राजनेता की बीमारी की ख़बर पढ़कर / बर्तोल ब्रेख्त

जब एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नाराज़ होता है

तो दो साम्राज्य हिलते हैं ।

जब एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति की मृत्यु होती है

तो आसपास की दुनिया ऐसी नज़र आती है

जैसे अपने बच्चे को दूध मुहय्या न करा पाने वाली माँ ।


अगर एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति अपनी मृत्यु के हफ़्ते भर बाद

वापस आना चाहे, तो समूचे देश में उसे

दरबानी का काम भी कहीं नहीं मिल पाएगा ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


जो आदमी मुझे अपने घर ले गया / बर्तोल ब्रेख्त

जो आदमी मुझे अपने घर ले गया

उसे घर से हाथ धोना पड़ा

जिसने मुझे संगीत सुनाया

उससे उसका वाद्य ले लिया गया,


क्या वह यह कहना चाहता है कि

मौत का वाहक मैं हूँ, या—

जिन्होंने उसका सब कुछ छीन लिया

वे हैं मौत के वाहक ?


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

जनता की रोटी / बर्तोल ब्रेख्त

इन्साफ़ जनता की रोटी है ।

कभी बहुत ज़्यादा, कभी बहुत कम ।

कभी ज़ायकेदार, कभी बदज़ायका ।

जब रोटी कम है; तब हर तरफ़ भूख है ।

जब रोटी बदज़ायका है; तब ग़ुस्सा ।


उतार फेंको ख़राब इन्साफ़ को—

बिना लगाव के पकाया गया,

बिना अनुभव के गूँधा गया !

बिना बास-मिठास वाला

भूरा-पपड़ियाया इन्साफ़

बहुत देर से मिला बासी इन्साफ़ ।


अगर रोटी ज़ायकेदार और भरपेट है

तो खाने की बाक़ी चीज़ों के लिए

       माफ़ किया जा सकता है

हरेक चीज़ यक्-बारगी तो बहुतायत में

नहीं हासिल की जा सकती है न !

इन्साफ़ की रोटी पर पला-पुसा

काम अंजाम दिया जा सकता है

जिससे कि चीज़ों की बहुतायत मुमकिन होती है ।


जैसे रोज़ की रोटी ज़रूरी है

वैसे ही रोज़ का इंसाफ़ ।

बल्कि उसकी ज़रूरत तो

       दिन में बार-बार पड़ती है ।


सुबह से रात तक काम करते हुए,

आदमी अपने को रमाए रखता है—

काम में लगे रहा एक क़िस्म का रमना ही है ।

कसाले के दिनों में और ख़ुशी के दिनों में

लोगों को इन्साफ़ की भरपेट और पौष्टिक

       दैनिक रोटी की ज़रूरत होती है ।


चूँकि रोटी इन्साफ़ की है, लिहाज़ा दोस्तो,

यह बात बहुत अहमियत रखती है

कि उसे पकाएगा कौन ?


दूसरी रोटी कौन पकाता है ?


दूसरी रोटी की तरह

इन्साफ़ की रोटी भी जनता के हाथों पकी होनी चाहिए ।


भरपेट, पौष्टिक और रोज़ाना ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


लेनिन ज़िन्दाबाद / बर्तोल ब्रेख्त

पहली जंग के दौरान

इटली की सानकार्लोर जेल की एक अन्धी कोठरी में

ठूँस दिया गया एक मुक्तियोद्धा को भी

शराबियों, चोरों और उचक्कों के साथ ।

ख़ाली वक़्त में वह दीवार पर पेंसिल घिसता रहा

लिखता रहा हर्फ़-ब-हर्फ़—

लेनिन ज़िन्दाबाद !


ऊपरी हिस्से में दीवार के

अँधेरा होने की वज़ह से

नामुमकिन था कुछ भी देख पाना

तब भी चमक रहे थे वे अक्षर— बड़े-बड़े और सुडौल।

जेल के अफ़सरान ने देखा

तो फ़ौरन एक पुताईवाले को बुलवा

बाल्टी-भर क़लई से पुतवा दी वह ख़तरनाक इबारत ।

मगर सफ़ेदी चूँकि अक्षरों के ऊपर ही पोती गई थी

इस बार दीवार पर चमक उठे सफ़ेद अक्षर :

लेनिन ज़िन्दाबाद !


तब एक और पुताईवाला लाया गया ।

बहुत मोटे बुरुश से, पूरी दीवार को

इस बार सुर्ख़ी से वह पोतता रहा बार-बार

जब तक कि नीचे के अक्षर पूरी तरह छिप नहीं गए ।

मगर अगली सुबह

दीवार के सूखते ही, नीचे से फूट पड़े सुर्ख़ अक्षर—

लेनिन ज़िन्दाबाद !


तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री ।

घंटे-भर तक वह उस पूरी इबारत को

करनी से ख़ुरचता रहा सधे हाथों ।

लेकिन काम के पूरे होते ही

कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर

और भी साफ़ नज़र आने लगी

बेदार बेनज़ीर इबारत—

लेनिन ज़िन्दाबाद !


तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा—

अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो !


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल


निर्णय के बारे में / बर्तोल ब्रेख्त

तुम जो कलाकार हो

और प्रशंसा या निन्दा के लिए

हाज़िर होते हो दर्शकों के निर्णय के लिए

भविष्य में हाज़िर करो वह दुनिया भी

दर्शकों के निर्णय के लिए

जिसे तुमने अपनी कृतियों में चित्रित किया है


जो कुछ है वह तो तुम्हें दिखाना ही चाहिए

लेकिन यह दिखाते हुए तुम्हें यह भी संकेत देना चाहिए

कि क्या हो सकता था और नहीं है

इस तरह तुम मददगार साबित हो सकते हो

क्योंकि तुम्हारे चित्रण से

दर्शकों को सीखना चाहिए

कि जो कुछ चित्रित किया गया है

उससे वे कैसा रिश्ता कायम करें


यह शिक्षा मनोरंजक होनी चाहिए

शिक्षा कला की तरह दी जानी चाहिए

और तुम्हें कला की तरह सिखाना चाहिए

कि चीज़ों और लोगों के साथ

कैसे रिश्ता कायम किया जाय

कला भी मनोरंजक होनी चाहिए


वाक़ई तुम अँधेरे युग में रह रहे हो।

तुम देखते हो बुरी ताक़तें आदमी को

गेंद की तरह इधर से उधर फेंकती हैं

सिर्फ़ मूर्ख चिन्ता किये बिना जी सकते हैं

और जिन्हें ख़तरे का कोई अन्देशा नहीं है

उनका नष्ट होना पहले ही तय हो चुका है


प्रागैतिहास के धुँधलके में जो भूकम्प आये

उनकी क्या वक़अत है उन तकलीफ़ों के सामने

जो हम शहरों में भुगतते हैं ? क्या वक़अत है

बुरी फ़सलों की उस अभाव के सामने

जो नष्ट करता है हमें

विपुलता के बीच



अँग्रेज़ी से अनुवाद : नीलाभ


जो गाड़ी खींचता है उसे कहो / बर्तोल ब्रेख्त

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

वह जल्द ही मर जाएगा

उसे कहो कौन रहेगा जीता

वह जो गाड़ी में बैठा है

शाम हो चुकी है

बस एक मुठ्ठी चावल

और एक अच्छा दिन गुज़र जाएगा


मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : महेन


नीचे पढ़िए यही कविता मूल जर्मन में :

Sag ihm, wer den Wagen zieht


Sag ihm, wer den Wagen zieht

er wird bald sterben

sag ihm wer leben wird?

der im Wagen sitzt

der Abend kommt

jetzt eine Hand voll Reis

und ein gutter Tag

ginge zu Ende


नई पीढ़ी के प्रति मरणासन्न कवि का संबोधन / बर्तोल ब्रेख्त

आगामी पीढ़ी के युवाओं

और उन शहरों की नयी सुबहों को

जिन्हें अभी बसना है

और तुम भी ओ अजन्मों

सुनो मेरी आवाज सुनो

उस आदमी की आवाज

जो मर रहा है

पर कोई शानदार मौत नहीं


वह मर रहा है

उस किसान की तरह

जिसने अपनी जमीन की

देखभाल नहीं की

उस आलसी बढ़ई की तरह

जो छोड़ कर चला जाता है

अपनी लकड़ियों को

ज्यों का त्यों


इस तरह

मैंने अपना समय बरबाद किया

दिन जाया किया

और अब मैं तुमसे कहता हूं

वह सबकुछ कहो जो कहा नहीं गया

वह सबकुछ करो जो किया नहीं गया

और जल्दी


और मैं चाहता हूं

कि तुम मुझे भूल जाओ

ताकि मेरी मिसाल तुम्हें पथभ्रष्ट नहीं कर दे

आखिर क्यों

वो उन लोगों के साथ बैठा रहा

जिन्होंने कुछ नहीं किया

और उनके साथ वह भोजन किया

जो उन्होंने खुद नहीं पकाया था

और उनकी फालतू चर्चाओं में

अपनी मेधा क्यों नष्ट की

जबकि बाहर

पाठशालाओं से वंचित लोग

ज्ञान की पिपासा में भटक रहे थे


हाय

मेरे गीत वहां क्यों नहीं जन्में

जहां से शहरों को ताकत मिलती है

जहां वे जहाज बनाते हैं

वे क्यों नहीं उठे

उस धुंए की तरह

तेज भागते इंजनों से

जो पीछे आसमान में रह जाता है


उन लोगों के लिए

जो रचनाशील और उपयोगी हैं

मेरी बातें

राख की तरह

और शराबी की बड़बड़ाहट की तरह

बेकार होती है


मैं एक ऐसा शब्द भी

तुम्हें नहीं कह सकता

जो तुम्हारे काम न आ सके

ओ भविष्य की पीढ़ियों

अपनी अनिश्चयग्रस्त उंगलियों से

मैं किसी ओर संकेत भी नहीं कर सकता

क्योंकि कोई कैसे दिखा सकता किसी को रास्ता

जो खुद ही नहीं चला हो

उस पर


इसलिए

मैं सिर्फ यही कर सकता हूं

मैं, जिसने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली

कि तुम्हें बता दूं

कि हमारे सड़े हुए मुंह से

जो भी बात निकले

उस पर विश्वास मत करना

उस पर मत चलना

हम जो इस हद तक असफल हुए हैं

उनकी कोई सलाह नहीं मानना

खुद ही तय करना

तुम्हारे लिए क्या अच्छा है

और तुम्हें किससे सहायता मिलेगी

उस जमीन को जोतने के लिए

जिसे हमने बंजर होने दिया

और उन शहरों को बनाने के लिए

लोगों के रहने योग्य

जिसमें हमने जहर भर दिया



अंग्रेज़ी से अनुवाद : रामकृष्ण पांडेय


(ब्रेख्त की कविताओं के लिए कविताकोश का आभार)


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হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

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Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

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In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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