आरक्षण की उलझन
आरक्षण की उलझन
Saturday, 20 April 2013 12:36 |
योगेश अटल जनसत्ता 20 अप्रैल, 2013: अब आरक्षण से जुड़ा आज का प्रश्न। नए भारत का संविधान रचने वालों ने प्रारंभ में इसकी आवश्यकता को नहीं स्वीकारा। कहा जाता है कि खुद आंबेडकर इसके पक्ष में नहीं थे। बड़े संकोच के साथ उन्होंने इस सुझाव को सम्मिलित किया और वह भी केवल चुनिंदा समूहों के लिए और प्रारंभ के कुछ वर्षों के लिए। आरक्षण का प्रावधान उन जातियों और आदिवासी समूहों के लिए रखा गया जो वास्तव में पिछड़े हैं और जो विशेष ध्यान के पात्र थे। उनके पिछड़ेपन की मुख्य वजह उनकी गरीबी थी और चूंकि वह पूरे समूह में पाई जाती थी, इसलिए पूरे समूह को ही उसमें सम्मिलित कर लिया गया। यह प्रशासनिक दृष्टि से सुलभ था। गांधीजी चाहते थे कि इस देश से गरीबी और जाति-व्यवस्था दोनों को मिटाया जाए। उत्साहवश हमारे भाग्य विधाताओं ने जाति का आधार लेकर गरीबी को मिटाने की गलत राह चुनी, जिसके फलस्वरूप आज इतने वर्षों के बाद न तो जाति मिटी और न ही गरीबी। सच तो यह है कि यह नुस्खा अंग्रेजों का दिया हुआ था। उन्होंने लोगों में फूट डालने के लिए जाति-व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया और उन्होंने ही 1931 की जनगणना में इन जातियों को दलित, यानी अंग्रेजी में 'आॅप्रेस्ड' का विशेषण दिया। एक चतुर चिकित्सक की भांति वे हमारी पीड़ा को तो पहचान गए, पर जान-बूझ कर ऐसा नुस्खा दे गए, जिससे कि दर्द बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की। हमारे संविधान में जिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों का जिक्र है, उनकी सूचियां मूलत: 1931 की जनगणना पर ही आधारित हैं। आरक्षण का प्रावधान उन समूहों पर लागू होता है जो अनुसूचियों में सम्मिलित हैं। ये अनुसूचियां तैयार की गर्इं हमारे अफसरों द्वारा, जो कानून-कायदे तो जानते थे मगर जिनका सामाजिक ज्ञान संदिग्ध था। जनजातियों की सूची उन्होंने बिना श्रम के बना डाली। जिन्हें भी 'ट्राइबल' की श्रेणी में जनगणना में रखा गया, उन सभी को ज्यों का त्यों अनुसूची में लिख लिया गया। इस बात तक का ध्यान नहीं रखा गया कि जनगणना की रिपोर्टों में आदिवासियों को भी धर्म के आधार पर कई वर्गों में बांट दिया गया था और केवल उन्हीं को 'ट्राइब' कहा गया जो आदिवासी अंधविश्वासों में आस्था रखते थे। उस समय तक, यानी 1931 की जनगणना तक, जब आखिरी बार जाति की भी गणना की गई थी, आदिवासियों के कई समूह जाति के रूप में अन्य जातियों के साथ गांवों में बस गए थे और बाहर से आए कई समूह भी जातियां बन कर भारतीय संरचना के अंग बन गए थे। भील, मीणा, गोंड, मुंडा आदि आदिवासी समाजों में केवल उन्हें आदिवासी की संज्ञा दी गई जो धर्म परिवर्तन से दूर रहे। इस प्रकार, एक ही नाम होते हुए भी वे धर्म के आधार पर श्रेणियों में विभक्त हो गए। आदिवासी वे लोग रहे जो जनगणना के शीर्ष आधिकारी हट्टन के शब्दों में 'हिंदुओं के मंदिर से अभी दूर हैं।' लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुसूची के प्रावधान ने इस प्रक्रिया को पीछे धकेल दिया। अनुसूची बनाने के उत्साह में नौकरशाहों ने जनगणना की बारीकियों को ताक पर रख कर नाम की समानता के आधार पर सूचियां तैयार कर दीं और आदिवासियों के परिवर्तन की प्रक्रिया को जैसे स्तब्ध कर दिया। जो समूह अपनी पहचान तज कर ऊंचा उठना चाहते थे, वे अब फिर से पुरानी पहचान को जीवित करने की होड़ में लग गए। बदलती हुई जाति फिर पीछे लौटने लगी। ऐसे समय में जाति की गणना करने के भारत सरकार के निर्णय से कई प्रश्न उठते हैं। जब कई अलग-अलग समूहों को एक ही नाम से पुकारा जाता है, तब जाति की गणना में जाति के अतिरिक्तकई अन्य समूह भी आ जाएंगे। जैसा मैं पहले कह आया हूं, साधारण व्यक्ति तो क्या, राजनीतिशास्त्र के ज्ञाता और संवाददाता, और नेता लोग भी जाति शब्द का गलत इस्तेमाल करते हैं। प्रयोग के रूप में जब 1960 में मैंने समाजशास्त्र के एमए छात्रों से उनकी जाति पूछी तो किसी ने लिखा भारद्वाज, किसी ने ब्राह्मण, किसी ने पंजाबी, किसी ने केडिया तो किसी ने कोठारी, किसी ने जैन। ये सब उनके उपनाम थे जो उनके परिवार, धर्म, गोत्र या परिवार की पदवी आदि के परिचायक थे। जनगणना के लिए भेजे जाने वाले क्लर्कों और स्कूली शिक्षकों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे जाति और जाति समझे जाने वाले अन्य समूहों के अंतर को समझें। तो ऐसी जनगणना से क्या लाभ होगा? जब हम जाति व्यवस्था को समाप्त करने का बीड़ा उठा चुके हैं तो फिर जाति को पुनर्जीवित करने का नए सिरे से यह अभियान क्यों? मैं यह मानता हूं कि जातियों के संबंध में जो भ्रांतियां आज समाज में पाई जा रही हैं, वे एक शुभ संकेत हैं। उनसे यह आशा बंधती है कि लोग अजाने ही इस संस्था को क्षीण कर रहे हैं। इसके विपरीत, जाति की फिर से गणना करने का सरकारी प्रयास, जाति को पुनर्जीवित करने का काम कर रहा है, जिसकी निंदा होनी चाहिए। गरीबी उन्मूलन के लिए जाति को एक इकाईमानना सबसे बड़ी गलती है। हर जाति में धनी और गरीब पाए जाते हैं। पर उस जाति के धनी अपनी संपदा को अपनी ही जाति के गरीबों में नहीं बांटते। वे आरक्षण के कारण अपनी जाति को मिलने वाले लाभ को बीच में ही हजम कर जाते हैं और उसके असली हकदारों तक नहीं पहुंचने देते। दूसरी ओर, उन जातियों के गरीब, जो अनुसूचियों के दायरे से बाहर हैं, सरकारी सहायता से वंचित रह जाते हैं। परिणाम है जाति और गरीबी, दोनों की उपस्थिति। आजादी के छियासठ वर्षों बाद भी अगर हमें आरक्षण की नीति को बनाए रखने की आवश्यकता है तो इसका एक ही अर्थ निकलता है कि इस नीति में कहीं खोट है। इसका एक संकेतक तो है गरीबों की बढ़ती हुई संख्या। सफल नीति वह है जिसमें उससे लाभ पाने वालों की संख्या में निरंतर कमी आती जाए। लेकिन अगर परिणाम उसके विपरीत हो तो उसका यही अभिप्राय है कि वह नीति अपने उद््देश्य में विफल रही है। इस कसौटी पर आंकड़े देखिए। 1951 की जनगणना में केवल 212 आदिवासी समूहों की गिनती हुई थी। आज उनकी कुल संख्या बढ़ कर छह सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है। इसी प्रकार, आज अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग की जातियों की संख्या भी तीन हजार से अधिक है। यहां यह बता दूं कि 1931 की जनगणना में, जबकि अंतिम बार जातियों की भी गणना की गई थी, इस देश में कुल तीन हजार जातियों का जिक्र है। उनमें से कुछ जो पश्चिमी भारत की थीं, पाकिस्तान चली गर्इं। फिर भी जातियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। और साथ ही साथ पिछड़े वर्ग में शामिल होने की दावेदारी भी। इतनी संख्या बढ़ने के पीछे कोई जादू नहीं है। किसी भी जाति को अनुसूचित या पिछड़े वर्ग में सम्मिलित करने के लिए हरेक राज्य को केंद्र के पास अपनी अनुशंसा भेजनी होती है। इस प्रकार सामाजिक दृष्टि से एक ही जाति बहुवचन में बदल जाती है। यही बात आदिवासियों के प्रसंग में भी कही जा सकती है। कुछ ऐसे भी समूह हैं जिन्हें एक प्रदेश में आदिजाति का दर्जा मिला हुआ है तो दूसरे में जाति का। उत्तर प्रदेश में जब गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने अपने प्रदेश में किसी भी समूह को आदिवासी होने का प्रमाणपत्र नहीं दिया। आज उस प्रदेश में भी आदिजातियां हैं। उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद नए बने उत्तराखंड प्रदेश में पांच प्रमुख आदिवासी समुदाय हैं तो शेष उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्व में इकतीस आदिवासी समुदाय रहते हैं जिनके सामाजिक संबंध उन्हीं के समाज के उन लोगों से हैं जो पड़ोस के राज्यों की सीमा में रहते हैं। इनमें से कई तो खुद को गूजर कहते हैं। पर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में ऐसे गुर्जर भी हैं जो एक जाति की तरह हैं। भारत सरकार ने ज्यों ही जातियों की अनुसूची विज्ञापित की, कई अन्य जातियों ने अपना नाम सम्मिलित न होने के कारण आंदोलन खड़ा किया। उसके लिए सरकार को तुरंत काका कालेलकर की अध्यक्षता में 1949 में एक आयोग नियुक्त करना पड़ा। इस आयोग से अपेक्षा की गई कि वह अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त पिछड़े वर्गों की एक अलग सूची तैयार करे। वह दस्तावेज ऐतिहासिक बन गया है। बहुतों को यह पता नहीं है कि काका कालेलकर की रिपोर्ट संसद में कभी प्रस्तुत नहीं की गई और न ही उस पर कोई बहस हुई, उसके पारित होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। फिर उस आयोग के प्रतिवेदन का क्या महत्त्व है! शायद यह पहला उदाहरण है कि जिसमें आयोग का अध्यक्ष अपनी संस्तुति में भारत के राष्ट्रपति को लिखता है कि वह जिस रिपोर्ट को पेश कर रहा है, उससे उसकी सहमति नहीं है। जब रिपोर्ट पूरी बन कर तैयार हो गई, तब उसे अंतिम रूप देते समय कालेलकर को लगा कि जाति के आधार पर पिछड़ेपन को परिभाषित नहीं किया जा सकता। अपने पत्र में कालेलकर ने राष्ट्रपति को लिखा: 'जब रिपोर्ट को अंतिम स्वरूप दिया जा रहा था तब जाकर मुझे ऐसा लगा कि जाति के अतिरिक्त अन्य आधार भी हैं जिनके माध्यम से पिछड़ेपन की समस्या को हल किया जा सकता है।' काका कालेलकर का मानना था कि हिंदू जातियों को मिलने वाली विशेष रियायतों और प्राधिकारों से समस्या सुलझने के स्थान पर और जटिल हो गई है। पिछले कुछ वर्षों में अनुसूची में सम्मिलित होने की जातियों में जो होड़ मची है, वह कालेलकर की भविष्यवाणी को सही सिद्ध करती है। राजस्थान के गूजर, जो कभी अपने को क्षत्रिय कहने में गौरव का अनुभव करते थे, पहले तो पिछड़े वर्ग में सम्मिलित किए जाने के लिए राजी हो गए, पर बाद में वे भी अब आदिवासी की संज्ञा पाना चाहते हैं, क्योंकि उनके ही समकक्ष मीणा लोगों को वह दर्जा सहज ही प्राप्त हो गया और जिसके कारण उनके लोगों को कई लाभ मिल रहे हैं। कश्मीर के मुसलमान गूजरों ने यह मांग सबसे पहले उठाई और उन्हें आदिवासी की श्रेणी में रख लिया गया। इसका आधार राजनीति है, न कि समाज वैज्ञानिक। अब हरियाणा के जाट अपने को पिछड़ा साबित करने की कोशिश में लगे हैं। प्रतिक्रियास्वरूप वे जातियां या धार्मिक समूह, जो अधिक प्रतिष्ठित माने जाते रहे हैं, भी अब अवनति का मार्ग अपना रहे हैं। जैन लोग अल्पसंख्यक वर्ग का दावा पेश कर रहे हैं, वहीं ब्राह्मण लोग परशुराम सेना बना रहे हैं। क्षत्रिय भी कह रहे हैं कि उनमें भी ढेरों परिवार गरीब हैं। अगर किसी एक जाति को सम्मिलित कर लिया गया तो दूसरी जातियां भी ऐसी ही मांग करेंगी और यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होने वाला। जाति-व्यवस्था को समूल नष्ट करने के उद््देश्य से बनी यह आरक्षण की योजना जाति को पुनर्जीवित कर रही है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42799-2013-04-20-07-06-42 |
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