जमीन का टुकड़ा भर नहीं है कश्मीर
♦ राजेंद्र तिवारी
कोई एक घटना कश्मीर के अमन को तहस-नहस कर देती है। शहरी अपने-अपने घरों में कैद, मीडिया के मुंह पर ठेंपी, सूचनाएं ब्लाक्ड… अमन किर्च- किर्च। हजारों टूरिस्टों का आना, बड़े-बड़े आयोजन और समारोह, रॉक बैंड और बैंक्वेट, ट्वीट करते हुक्मरान और उड़ते नेता, सबकुछ कितना फरजी लगने लगता है। आप क्या कर सकते हैं, सिवाय इसे अनदेखा करने की कोशिश के? और फिर, सबकुछ इस बात को ही पुख्ता करता नजर आता है कि कश्मीर उबलते पानी का बंद भगोना है, जिसका ढक्कन अपनी जरूरत के हिसाब से पार्टीदार खोलते-बंद करते रहते हैं। दुख इस बात से होता है कि कैसे न्यायिक प्रक्रिया को राजनीतिक कर्म में तब्दील कर दिया जाता है। न्याय मौकापरस्त सियासत से जोड़ दिया जाता है।
कश्मीर सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं, बल्कि चलते-फिरते, दिल-दिमागवाले लोग भी रहते हैं वहां। हम कश्मीर की बात उसे सिर्फ जमीन का टुकड़ा मान कर करते हैं। हम उस जमीन को तो देश का अभिन्न हिस्सा मानते हैं, लेकिन वहां के लोगों को नहीं। न हम जानते हैं कि कश्मीर के लोगों की जिंदगी कैसी चल रही है और न ही यह जानने की कोशिश करते हैं।
जब हमारे 'मेनलैंड' में कहीं पुलिस फायरिंग या अत्याचार में लोग मरते हैं, तो वह राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है। लेकिन जब कश्मीर में ऐसी घटनाएं होती हैं, तो हम कोई परवाह नहीं करते, हमारी सामूहिक राष्ट्रीय अंतरात्मा आहत नहीं होती, क्यों? क्योंकि हम वहां के बारे में सिर्फ उतना जानते हैं, जितना मुख्यधारा का मीडिया हमें बताता है। हमारा कोई जुड़ाव वहां से है ही नहीं। हैदराबाद में बम फटता है तो हम चिंतित होते हैं, क्योंकि हमारा कोई नाते-रिश्तेदार-मित्र या हमारे शहर का कोई वहां रह रहा होगा, जिससे हम जुड़े होते हैं।
लेकिन कश्मीर में बम फटे तो क्या, वहां कौन है हमारा? वहां के लोग 'मुर्गा' बनाये जाते हों, तो बनाये जाते रहें, हमें क्या? मैं जानता हूं कि मेरी यह बात हमारे लोग मानने को तैयार नहीं होंगे और इसे पढ़ कर जवाब में सवाल दागेंगे कि सब कश्मीरी देशविरोधी हैं, उनसे तो इसी तरह निपटा जायेगा… अगर वहां ढील दी गयी, तो वे लोग पाकिस्तान बना देंगे कश्मीर को… आदि आदि। लेकिन क्या सभी 70 लाख कश्मीरी पाकिस्तान ही चाहते हैं?
दरअसल, जो अलगाव की बात करते हैं, जो पाकिस्तान की बात करते हैं, उनकी संख्या मुट्ठीभर ही है। लेकिन उन मुट्ठीभर लोगों के नाम पर आम अवाम पर ज्यादतियां होंगी, तो देश कैसे बनेगा? क्या हम यह समझना चाहेंगे कि हमारी इस मानसिकता का फायदा कथित भारतभक्ति में लगे राजनीतिक, नौकरशाह व सुरक्षाबल के अधिकारी देश का सौदा करके अपनी जेबें भरने में उठाते हैं। चलिए, इस बाबत अपने अनुभव फिर कभी लिखूंगा। अभी तो बात करते हैं कश्मीर के लोगों की।
अफजल की फांसी के बाद, कश्मीर में हमारी सरकार व अलगाववादियों की प्रतिक्रिया सामने आयी कर्फ्यू और बंद के आह्वान के रूप में। लेकिन आम कश्मीरी क्या सोचता है, यह सामने नहीं आया। सोशल नेटवर्किंग साइटों और थोड़ा-बहुत वहां के अखबारों में आम कश्मीरी की बातें सामने आयीं। फेसबुक पर मैंने बारामुला के एक उद्यमी की पोस्ट पढ़ी। उस पोस्ट में भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार से सवाल पूछे गये हैं।
पूछनेवाले ने अपने परिचय में लिखा है- मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूं, मैं सरकारी कर्मचारी नहीं हूं और न ही मुख्यधारा, वाम या अलगाववादी राजनीतिक दल का अनुयायी हूं। मैं पढ़ा-लिखा सामान्य बुद्धिवाला एक आम कश्मीरी हूं। यदि भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार में थोड़ी भी नैतिकता बची है, तो मेरे इन सामान्य सवालों का जवाब देकर कश्मीर के लोगों की सामूहिक अंतरात्मा को संतुष्ट करें।
सवाल बहुत साधारण हैं, जो एक मनुष्य होने के नाते हम सबके दिमाग में उठ सकते हैं। मुझे लगता है कि ये सवाल सरकार से ही नहीं, हम सबसे मुखातिब हैं और हम सबको ईमानदारी से इनके जवाब सोचने चाहिए।
सवाल इस प्रकार हैं -
1. अफजल को इतनी जल्दबाजी में क्यों लटकाया गया?
2. फांसी के बाद के संभावित परिदृश्य पर आपने विचार क्यों नहीं किया?
3. कश्मीर के लोगों की भावनाओं की चिंता आप क्यों नहीं करते?
4. आपने दूसरे फांसीयाफ्ता कैदियों की तरह ही अफजल को जेल में ही क्यों नहीं सड़ने दिया?
5. फांसी देने का फैसला लेने से पहले आपने जम्मू-कश्मीर सरकार से इसके तरीके पर सलाह-मशविरा क्यों नहीं किया?
6. आपने यह फैसला लेने से पहले जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को विश्वास में क्यों नहीं लिया?
7. अफजल को सुप्रीम कोर्ट में फांसी की सजा पर पुनर्विचार याचिका दायर करने के लिए निर्धारित 20 दिन का समय क्यों नहीं दिया?
8. फांसी और दया याचिका की प्राथमिकता सूची में अफजल का नाम नीचे से ऊपर क्यों आ गया?
9. दुर्दांत आतंकी अजमल कसाब की फांसी के तुरंत बाद ही अफजल को लटकाने की क्या जरूरत थी?
10. आपने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि अफजल फांसी से पहले अपनी पत्नी व पुत्र से एक बार मिल लें?
11. परिजनों को अफजल का शव देखने का भी मौका आपने क्यों नहीं दिया?
12. आपने फांसी दिये जाने की सूचना ईमेल या फैक्स से सोपोर पुलिस को क्यों नहीं भेजी जिससे उसके परिजनों को समय से जानकारी मिल जाती?
13. मुख्यरूप से कश्मीर और व्यापक रूप से पूरे भारत से आतंकवाद का सफाया करने के लिए सीमापार बैठे मुट्ठीभर आतंकी लीडरों व आकाओं के खिलाफ कमांडो ऑपरेशन की योजना बनाने और उसे क्रियान्वित करने की हिम्मत और मजबूती आप क्यों नहीं जुटा पा रहे हैं?
14. जब दुश्मन भारत के हृदयक्षेत्र (दिल्ली) में हमला करने की कुव्वत रखता है, तो आप क्यों नहीं इन आतंकी डिजाइनरों को उनके घर में घुस कर मारते? … और अंत में, वक्त की पुकार पूरी करने के लिए आप कब जागेंगे और सही काम, सही समय से, सही स्थान पर, सही लक्ष्य के साथ करेंगे, जिससे हम अमन से जी सकें?
पिछले दिनों मैंने कश्मीर के एक अखबार में प्रो. सईदा अफसाना का लेख पढ़ा। यह लेख भी आम कश्मीरी के सवाल उठाता है। कश्मीर विश्वविद्यालय में पढ़ानेवाली प्रो. सईदा ने लिखा है, मुझे ताज्जुब होता है कि कैसे रात भर में यहां सबकुछ बदल जाता है। आप पुरसुकून माहौल में सोयें और सुबह जब नींद खुले तो सड़कों पर वीरानी हो। भौंकते हुए कुत्ते, वर्दीधारी कुछ लोग और पुलिस की गाडि़यां लोगों को होशियार करती हुईं कि घर से बाहर न निकलें- आप खुद को नजरबंद पाते हैं। मैं किसी डरावने ख्वाब की बात नहीं कर रही, यह कभी भी हो सकता है और हमारे साथ तो होता ही रहता है। इसलिए सोचिए कि हमारा अमन कितना नाजुक है।
कोई एक घटना कश्मीर के अमन को तहस-नहस कर देती है। शहरी अपने-अपने घरों में कैद, मीडिया के मुंह पर ठेंपी, सूचनाएं ब्लाक्ड… अमन किर्च- किर्च। हजारों टूरिस्टों का आना, बड़े-बड़े आयोजन और समारोह, रॉक बैंड और बैंक्वेट, ट्वीट करते हुक्मरान और उड़ते नेता, सबकुछ कितना फरजी लगने लगता है। आप क्या कर सकते हैं, सिवाय इसे अनदेखा करने की कोशिश के? और फिर, सबकुछ इस बात को ही पुख्ता करता नजर आता है कि कश्मीर उबलते पानी का बंद भगोना है, जिसका ढक्कन अपनी जरूरत के हिसाब से पार्टीदार खोलते-बंद करते रहते हैं। दुख इस बात से होता है कि कैसे न्यायिक प्रक्रिया को राजनीतिक कर्म में तब्दील कर दिया जाता है। न्याय मौकापरस्त सियासत से जोड़ दिया जाता है।
सोचिए अपने कश्मीर के बारे में। कश्मीरी अवाम की जगह खुद को रख कर सोचिए। देश लोगों से बनते हैं, जमीन के टुकड़ों से नहीं।
(लखीमपुर खीरी (उप्र) के रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र तिवारी वर्तमान में प्रभात खबर के कारपोरेट संपादक हैं। प्रभात खबर से पहले वे झारखंड में हिंदुस्तान के राज्य संपादक थे और साथ ही वे अमर उजाला और भास्कर समूह में भी कई बहुत महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। उन्होंने जम्मू में भी पत्रकारिता की है। उनका यह लेख 03 मार्च को प्रभात खबर में प्रकाशित हुआ था।)
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