कमलेश जनसत्ता 24 मार्च, 2013: भगवान सिंह की पुस्तक ''कोसंबी: कल्पना से यथार्थ तक'' की मेरी समीक्षा 'जनसत्ता' (10 मार्च) पर 'जनसत्ता' के स्तंभ लेखक कुलदीप कुमार (आगे कु.कु.) ने अपनी प्रतिक्रिया 'द हिंदू' (15 मार्च) में अंग्रेजी में लिखी है। क्या उन्हें लगा कि मार्क्सवादी पैंतरेबाजी साम्राज्यवादी भाषा में ही कारगर होगी? गोवा के मुख्यमंत्री और भाजपा राष्ट्रीय प्रवक्ता 'कोसंबी विचार उत्सव' में शामिल होते हैं तो वे मानते हैं कि हम भी भाजपा का अनुसरण करते हुए कोसंबी-प्रशंसकों के जुलूस में शामिल हो जाएंगे। वे यह भी कहते हैं कि हमने कोसंबी का पक्ष (पूर्वपक्ष) प्रस्तुत किए बिना उनकी आलोचना की है। बात ठीक इसकी उलटी है। उन्होंने भगवान सिंह की पुस्तक पढ़ना तो दूर, उसे उलट-पलट कर भी नहीं देखा। फिर भी उस पर फतवे देने लगे। वे देखते तो पता चल जाता कि भगवान सिंह ने कोसंबी की स्थापनाओं, प्रमाणों को पूरा उद्धृत करके ही उसकी आलोचना की है। वे कहते हैं कि मैंने 'जनसत्ता' में कोसंबी को बौद्धिक बौना कहा है। जरूर कहा है, लेकिन वासुदेवशरण अग्रवाल के कार्य से कोसंबी के कार्य की तुलना करते हुए कहा है कि उनके समक्ष कोसंबी बौने लगते हैं। उन्होंने पूरा वाक्य छिपा कर सिर्फ बौना शब्द चुन लिया। अग्रवाल बड़े पुरातत्त्वशास्त्री थे। पाणिनि, वेद, महाभारत, हर्षचरित, कादंबरी, पदमावत आदि के उनके अध्ययन अतुलनीय कार्य हैं। उन्होंने भारतीय लोकजीवन, उत्सवों और त्योहारों में भी वे बातें पार्इं जो उन्हें वेदों-पुराणों से जोड़ जाती हैं। कोसंबी का संस्कृत ज्ञान और साहित्य की समझ वासुदेवशरण का दशमांश भी नहीं है। लेकिन जिस भी इतिहासकार ने हिंदी में महत्त्वपूर्ण कार्य किया, उनका मार्क्सवादी उल्लेख भी नहीं करते। आज गौरीशंकर हीराचंद ओझा, विश्वेश्वरनाथ रेऊ, जयचंद्र विद्यालंकार, राजबली पाण्डेय और अतहर अब्बास रिजवी की कहीं चर्चा नहीं होती। आज साम्राज्यवाद जिन अस्त्रों के जरिए काम कर रहा है, उनमें प्रमुखतम अंग्रेजी भाषा है। मार्क्सवाद भी उसी साम्राज्यवाद का एक अस्त्र है। लोहिया का कथन 'मार्क्सवाद एशिया के विरुद्ध यूरोप का अंतिम अस्त्र है' कु.कु. को नस्लवादी लगता है। इसमें नस्ल कहां है, यह पाठक तय करें। कोसंबी एक स्थल पर मैक्समूलर से सहमति जताते हुए कहते हैं कि आर्य नस्ल नहीं हो सकती। लेकिन कुछ ही देर में वे आर्यों में दो नस्लें बताते हैं। आर्यों ने जिन्हें मार भगाया वे भी कुछ नस्लों के लोग थे। कबीले भी अलग-अलग नस्ल के होते थे। द्राविड़ों में भी कई नस्लें थीं। जो इस सीमा तक नस्लों को ढूंढ़ता, उनके लक्षण बताता रहता है उसे 'नस्लवादी' के अलावा और क्या कहा जाएगा? सोवियत संघ में कुछ नस्लों को एक स्थान से हटा कर दूसरे स्थान पर पहुंचा दिया गया। पहले मार्क्सवादियों को नस्लें पहचानना बहुत आता था। लेकिन यहूदी 'होलोकॉस्ट' के कारण दूसरे महायुद्ध के बाद इस शब्द का प्रयोग कम हो गया। 'कोसंबी' ने ब्राह्मणों में तीन नस्लें ढूंढ़ी थीं। एक सीमित कालखंड में ब्राह्मणों की भूमिका प्रगतिशील थी, लेकिन शेष इतिहास में ब्राह्मण शोषक, अन्यायी, खेती से दूर भागने वाले, दूसरों को निकृष्ट मानने वाले आदि रहे। कोसंबी 1940 से ही ब्राह्मण नस्लों की गर्हित भूमिका बतलाते रहे। मार्क्सवादी इतिहासकार, कम्युनिस्ट पार्टियां, ईसाई प्रचारतंत्र, ईसाई समर्थित दलित आंदोलन सभी ब्राह्मण विरोधी प्रचार में लगे हुए हैं। भगवान सिंह ने इसका सारांश दिया है: ''ब्राह्मणवाद वर्णवाद का प्रतीक है, अत: सामाजिक न्याय का विरोधी है। हिंदुत्व का प्रतीक है, इसलिए इस्लाम, ईसाइयत और धर्मनिरपेक्षता का विरोधी है। रूढ़िवादिता का प्रतीक है, इसलिए प्रगति और क्रांति का विरोधी है। राजनीति में इसका लाभ दक्षिणपंथियों को मिलता है, इसलिए यह दूसरे सभी राजनीतिक संगठनों का शत्रु है। एंटीसेमिटिज्म के लिए इससे अधिक क्या चाहिए!'' इसका अगला चरण 'अंतिम समाधान' (फाइनल सल्युशन) ही हो सकता है। कैथोलिक चर्च ने यहूदियों पर ईशू के सूली पर चढ़ाए जाने का उत्तरदायी बना कर पंद्रह सौ वर्ष पहले 'इंडेक्स' पर रख दिया था। हर ईसाई देश में उनकी प्रताड़ना होती थी। समाज की हर विपत्ति का कारण यहूदी माने जाते थे। नात्सी भी यहूदियों के दुष्कर्म गिनाते थे। जब इनको एकसूत्र में बांधने वाली विचारधारा मिल गई तो अंतिम समाधान का 'औचित्य' सिद्ध हो गया। मार्क्सवादी इतिहासकार और दूसरे लोग ब्राह्मणों पर निराधार आरोप लगा रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर ऐसा क्यों हो रहा है, यह शोध का विषय है। अठारहवीं शताब्दी में शासन स्थापित हो जाने के बाद अंग्रेजों ने यहां के इतिहास, समाज, धर्म, नैतिकता, दर्शन आदि पर लिखना-लिखवाना शुरू किया, व्याकरण और शब्दकोश आदि बनाए। इस तरह 'भारत विद्या' ('इंडोलॉजी') की शुरुआत हुई, जिसमें पूर्वग्रह और स्वार्थ के अलावा ज्ञान पिपासा भी रही होगी। अंग्रेजी पढ़े भारतीय भी इन अनुशासनों से परिचित हो गए और वे अपना पक्ष प्रस्तुत करने लगे। इनके इतिहासलेखन को 'राष्ट्रवादी' कहा जाता है। मार्क्सवादी इतिहासलेखन में राष्ट्रवादी तो निंदनीय लेकिन 'इंडोलॉजिकल' मान्य है। 'इंडोलॉजी' में दो प्रवृत्तियां रहीं। एक के नेता विलियम जोन्स थे। कम आयु में ही विद्वत्ता और बहुभाषा ज्ञान के कारण इंग्लैंड में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें भारत का न्यायाधीश बनाया। जब उन्होंने इस पद से संस्कृत भाषा, साहित्य और हिंदू न्यायपद्धति की प्रशंसा करनी शुरू की और यह प्रशंसा पश्चिम के अग्रणी चिंतक ध्यान देकर सुनने लगे तो ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हलकों में हलचल मच गई। अगर विलियम जोन्स की बातों को लोग मानने लगते तो ब्रिटिश राज्य का औचित्य ही समाप्त हो जाता। इसलिए उनका खंडन आवश्यक हो गया और 'इंडोलॉजी' की दूसरी प्रवृत्ति सामने आई। इस दूसरी प्रवृत्ति के नेता जेम्स मिल थे। उन्होंने संस्कृत भाषा, साहित्य, दर्शन, हिंदू धर्म, हिंदू समाज व्यवस्था और ब्राह्मणों की निंदा शुरू की। इन कुतर्कों को जेम्स मिल ने 1817 में 'ब्रिटिश भारत के इतिहास' में व्यवस्थित ढंग से रखा। इसे भारत का पहला प्रामाणिक इतिहास मान लिया गया। जेम्स मिल 1819 में कंपनी के 'बोर्ड' में नियुक्त हुए और दस वर्षों के भीतर ही भारत का संपूर्ण ब्रिटिश प्रशासन उनके अधीन आ गया। उनकी पुस्तक कंपनी सरकार के हर कर्मचारी को पढ़नी पड़ती थी। उसी आधार पर भारत का शासन चलता था। मिल भारत कभी नहीं आए। उन्होंने मनुस्मृति के एक भ्रष्ट अनुवाद और हालहेडकृत 'ए कोड आॅफ गेंटू लॉज' के प्रमाण पर हिंदू विरोधी, भारत विरोधी, ब्राह्मण विरोधी और संस्कृत विरोधी स्थापनाएं कर डालीं जो बहुत प्रभावी हुर्इं। भगवान सिंह मार्क्सवादी हैं, क्योंकि ऋग्वेद पर उनका सारा काम भौतिकवादी (मैटेरियलिस्ट) है। कोसंबी मार्क्सवादी इतिहास लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, लेकिन मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन को जहां-तहां उद्धृत करने के अलावा वे अधिकतर भाववादी (पॉजिटिविस्ट) इतिहास लिखते हैं। कोसंबी जिस एकमात्र इतिहासकार को उल्लेखनीय और उद्धरणयोग्य समझा है, वह है जेम्स मिल जो उनका आदर्श है। उनके हिंदू विरोध, ब्राह्मण विरोध, संस्कृत उपहास आदि का स्रोत मिल में है। मार्क्सवादी इतिहासकारों को इतिहास का ढांचा ब्रिटिश साम्राज्यवादी जेम्स मिल ने दिया है। हेगेल, मार्क्स, ऐंगेल्स ने भी भारत विषयक अज्ञानपूर्ण विवरण मिल से ही पाए। मार्क्स की तो आलोचना की जा सकती है, लेकिन जेम्स मिल की नहीं। मैक्समूलर, एलीफिन्सटन, एचएच विल्सन जैसे भारतविद्याविद जेम्स मिल के कठोर आलोचक थे। विल्सन ने मिल के इतिहास के पांचवें संस्करण का संपादन किया था। उसकी भूमिका में उसने मिल के हिंदू विरोध का खंडन किया था और बताया था कि यह किताब पढ़ कर भारत जाने वाले प्रशासक वहां के समाज से अनभिज्ञ और विच्छिन्न हो जाते हैं। लेकिन कोसंबी ने मिल विरोधी इतिहासकारों को उल्लेखयोग्य भी नहीं समझा। कोसंबी पुरातत्त्वविद नहीं थे। कुछ लोग मुद्राशास्त्र को पुरातत्त्व में जोड़ लेते हैं। कुलदीप कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पढ़े हुए हैं। शीरीन रत्नागार वहां अनेक वर्षों तक पुरातत्त्व की प्रोफेसर थीं। पुरातत्त्व जाने बिना प्राचीन इतिहास लिखने के लिए वह कोसंबी की आलोचना करती थीं। उनका लेख 'इकॉनामिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली' (26 जुलाई, 2008) में छपा था। पुणे के डेकन कॉलेज में देश का सबसे बड़ा पुरातत्त्व विभाग था, कोसंबी प्रतिष्ठित पुरातत्त्वशास्त्री एचडी सांकलिया का मजाक ही उड़ाते रहते थे। डॉक्टर स्वराज प्रकाश गुप्त निस्संदेह कोसंबी से बड़े पुरातत्त्वविद थे। वे 1967 से ही मध्य एशिया में पुरातात्त्विक उत्खनन कार्य कर रहे थे। उन्होंने वहां के 'नवपाषाणकाल' और 'मध्य एशिया पर प्रागैतिहासिक भारतीय संस्कृति का प्रभाव' और 'प्रागैतिहासिक मध्य एशिया में मृतकों की अंतिम क्रिया' आदि पुस्तकें लिखीं। मार्क्सवादी इतिहासकारों को भी इनका उल्लेख करना पड़ता है। उन्होंने भगवान सिंह के कार्य का अनुमोदन किया तो वह निश्चय ही एक बड़े पुरातत्त्वशास्त्री का अनुमोदन है। कुलदीप कुमार को भारतीय इतिहास की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। वे मार्क्सवादी हैं। मार्क्सवाद संपूर्ण विचार है। वहां हर समस्या पहले से ही सोची जा चुकी है। संपूर्णता वालों से संवाद असंभव हो जाता है। मार्क्सवादी और साम्राज्यवादी इतिहासकारों की आलोचना करने वालों पर दक्षिणपंथी होने का या 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय इतिहास के एजेंडा' का अनुसरण करने वाला कह कर उसकी हत्या कर दी जाती है। कु.कु. ने साम्राज्यवादी भाषा में यही करने का प्रयत्न किया है। भारत पर दो सौ वर्षों से साम्राज्यवादी भाषा और विचारों का ऐसा घटाटोप छाया हुआ है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर यहां के इतिहासकार, समाजशास्त्री, नृतत्त्वशास्त्री, राजनीतिशास्त्री भारतीय समाज की समझ खो बैठे हैं और पश्चिम से सीखी कोटियों को अपनी योग्यता के अनुसार प्रयुक्त करते रहते हैं। कबीला (ट्राइब), नस्ल (रेस), 'एनीमिज्म' जैसी कोटियों में भटकते रहते हैं। कुछ विख्यात मार्क्सवादी नृतत्त्वशास्त्री भी 'ट्राइब' जैसी कोटियों को संदिग्ध मानते हैं। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/41183-2013-03-24-06-57-54 |
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