रात बीत गयी और अब एक नयी सुबह होने को है
♦ पशुपति शर्मा
हरे रामा हरे कृष्णा, कृष्णा-कृष्णा हरे-हरे। वृंदावन के उस आश्रम के बाहर हमारे कदम पड़े तो ये बोल कानों में गूंजने लगे। अंदर गये तो सफेद कपड़ों में लिपटी महिलाओं का झुंड। कुछ घेरा बनाकर भजन गा रही थीं, झूम रही थीं और कुछ इस घेरे से बाहर गुमसुम बैठी थीं। दूर कोने में कुछ वृद्ध महिलाएं फूलों की माला गूंथ रही थीं। कुछ के हाथों में धागा था और वो न जाने उनमें कौन से मोती पिरो रही थीं, अपने गम के या कान्हा के नाम के। इन सबके बीच एक वृद्ध भी झूम रहा था, लाल बंडी और सफेद सा कुर्ता पहने। बाद में पता चला वो विंदेश्वरी पाठक थे। विंदेश्वरी पाठक, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट की दखलअंदाजी के बाद वृंदावन में अपने आखिरी दिन गुजारने पहुंचीं विधवाओं की देखरेख का जिम्मा सौंपा गया है।
कुछ देर तक तो कदम ऐसे ठिठके कि दिमाग सुन्न सा हो गया। भजन के बोलों से परे कब विधवाओं को देख-देख उनके गम की दुनिया दिमाग में कौंधने लगी, पता ही नहीं चला। आंखें डबडबाने को थीं कि चेतन मन जाग उठा। दुख कैसे कभी-कभी उत्सव का मौका भी दे जाते हैं, वो पल मेरे सामने थे। सुलभ इंटरनेशनल ने 24 फरवरी 2013 को ये छोटा सा कार्यक्रम इन विधवाओं की जिंदगी में खुशी के थोड़े से पल तलाशने के लिए रखा था। विंदेश्वरी पाठक ने पहले हिंदी में कहा – "रात बीत गयी और अब एक नयी सुबह होने को है।" एक बांग्लाभाषी ने इसे बांग्ला में अनुवाद कर दिया। वो इस लिहाज से भी जरूरी था कि वृंदावन में आने वाली विधवाओं में कइयों की दुख की बोली-बाणी अभी भी बंगला ही है। पाठक जी ने कहा, "जो बीत गया उसे सपने की तरह भूल जाओ, अब नया जीवन शुरू होगा।" उनकी इस घोषणा के साथ जुड़ी थी दो हजार रुपये की वो सहयोग राशि, जो हर माह विधवाओं को दी जाएगी। एक हजार की अनुग्रह राशि अचानक दो हजार कर दी गयी थी। इस छोटी सी शर्त के साथ कि अब पांच-पांच रुपये के लिए भजन गायन करने ये विधवाएं कहीं नहीं जाएंगी।
इसके बाद सिलाई मशीनें बांटी गयीं। मैं दूर खड़ा देख रहा था। वो महिलाएं जो अब तक झुंड बनाकर नाच-गा रही थीं, इस बार भी अगली कतार में वो ही थीं। इक्का दुक्का विधवाओं ने बीच से हाथ उठाया। उन्हें भी आगे वाली कतार में बुला लिया गया, एक मशीन उनके सामने भी रख दी गयी। हॉल के आखिरी कोने में अब भी कोई हलचल नहीं थी। इसके बाद कैंची आयी, कुछ रंगीन धागे भी बांटे गये। घोषणाएं होती रहीं। सुलभ इंटरनेशनल की तरफ से सिलाई सिखाने के लिए एक टीचर। इसके अलावा दो-तीन शिक्षिकाओं का परिचय भी हुआ जो इन विधवाओं को हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी भी सिखाएंगी। राधा, सुनंदा और नयन, इन तीनों पर ये जिम्मेदारी डाली गयी। इसी बीच ये भी बताया गया कि विधवा जिन्हें यहां माई कहते हैं, के लिए टीवी भी लगायी जा रही है, ताकि वो कुछ देर स्क्रीन के सामने भी बिता सकें।
इसी दौरान एक पत्रकार साथी ने आवाज लगायी, "चलिए जरा इनके रहने का ठौर-ठिकाना भी देख आएं।" अंदर गया। नये-नये से पर्दे टंगे थे, जिनकी चिंदियां उधेड़ी जाएं तो न जाने माई के कितने फटे-पुराने दिन इनमें सिमटे हों। अंदर एक हॉल। वहां हॉस्टल की तरह एक के बाद एक खाट। उस पर बिछा बिस्तर। खाट के नीचे बर्तन-बासन। थोड़े और जरूरी सामान। सब करीने से सजे हुए। हो सकता है, आज आये मेहमानों की वजह से भी माई ने अपना बिखरा सामान ही नहीं दुख भी सहेज कर बिस्तरे के नीचे डाल दिया हो।
यहीं थोड़ी हिम्मत कर दो माइयों से छोटी सी बात हुई। एक ने कहा, "शाहजहांपुर, यूपी से आयी हूं। घर कोई खुशी से तो छोड़ता नहीं। बेटा-बेटी का अपना खर्च ही पूरा नहीं होता, तो मेरा पेट कहां से भरते। दो-चार महीने पर घर से कोई आ जाता है, मुलाकात हो जाती है। बस और क्या?" दूसरी माई ने बताया, "मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल से आयी हूं। 32-33 साल से वृंदावन की गलियां ही ठिकाना रही हैं।" अंदाजा लगाया, इस माई की उम्र 60-65 के बीच रही होगी। आधी जिंदगी कान्हा की नगरी में बीती है। बच्चे जो छोटे थे, बड़े हो गये लेकिन वो दुनिया इनके लिए तब भी बेगानी थी और आज भी बेगानी ही है।
बाहर निकला तो बोर्ड पर नजर पड़ी। मीरा सहभागिनी महिला आश्रम सदन। कहते हैं मीरा ने आखिरी दिन कान्हा के भजन गाते यहीं वृंदावन में गुजारे थे। विधवा आश्रमों में माई और मीरा को लेकर कई तरह की धारणाएं भी हैं। बोर्ड के ठीक नीचे डॉक्टर साहब की कुर्सी-टेबल। माई का बीपी चेक हो रहा था। डॉक्टर साहब बड़े प्यार से बातें कर दवाइयां दे रहे थे। अच्छा लग रहा था, कम से कम इनका इतना केयर तो हो रहा है।
भूख लगने लगी थी। इस कार्यक्रम के लिए खास तौर पर दिल्ली से आये कई पत्रकार साथियों ने भोजन की इच्छा जाहिर की तो आयोजकों ने बाहर बुलाया। हम चल दिये। होटल बसेरा में खाने का इंतजाम था। पनीर की सब्जी, दाल फ्राई, और भी दो-तीन तरह की सब्जियां, रोटी, मिस्सी रोटी, नान, पुलाव। मीठे में गुलाब जामुन और आइस्क्रीम भी। निवाला गटकते हुए सोच रहा था, आज माई ने क्या खाया होगा? क्या एक दिन माई के साथ एक थाली हमारी नहीं लग सकती थी? जिनके साथ कुछ पल गुजारने आये थे, उनके साथ एक वक्त का खाना क्यों नहीं?
खैर… वृंदावन से लौटते वक्त एक्सप्रेसवे पर गाड़ी फर्राटे भर रही थी। इसके साथ ही माइयों के चेहरे भी बड़ी तेजी से धुंधले होते जा रहे थे। हॉस्टल में बिताए दिनों को याद कर सोच रहा था कि सामूहिकता में दुख खत्म भले न हो, कम जरूर हो जाता है। हां फर्क बस इतना था कि स्कूल डेज में हॉस्टल के ये दिन अपनी नयी जिंदगी शुरू करने के लिए बेहद अहम थे, जबकि माइयों का ये हॉस्टल तो जिंदगी के आखिरी दिनों को सुख से काट लेने भर का जरिया है।
माई… दिल्ली आ गया है… हो सके तो तुम्हारे इस दुख के सभी गुनहगारों को माफ कर देना… मुझे भी।
(पशुपति शर्मा। युवा, शालीन पत्रकार। बिहार के पूर्णिया जिले से आते हैं। कभी-कभार लेख और टिप्पणियां लिखते हैं। इनके मित्र बताते हैं कि इनका बड़े दावों में यकीन कम, छोटी और ईमानदार कोशिशों में भरोसा ज्यादा है। न्यूज 24 और इंडिया टीवी में लंबे समय तक काम करने के बाद पशुपति फिलहाल न्यूज नेशन में सीनियर प्रोड्यूसर हैं। उनसे pashupati15@rediffmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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