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Tuesday, March 26, 2013

अब अंबेडकर विरोधियों, बहुजनों को खंडित करने वालों से कोई संवाद नहीं!

अब अंबेडकर विरोधियों, बहुजनों को खंडित करने वालों से कोई संवाद नहीं!


​पलाश विश्वास


हम भारत में कारपोरेट धर्मराष्ट्रवादी जायनवादी एकाधिकारवादी नस्लवादी वंशवादी जाति व्यवस्था पर आधारित व्यवस्था को निनानब्वे​​फीसद बहिष्कृत, वंचित, शोषित, मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था की शिकार ​जनता का सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं।और मौजूदा राजसत्ता को ​अर्द्धसामंती, पूंजीवादी साम्राज्यवादी विश्वव्यवस्था की दलाल पारमाणविक सैन्यशक्ति मानते हैं, जिसके निरंकुश दमन के आगे जल जंगल जमीन ​​नागरिकता और मानवअधिकार ही नहीं, मानवता , प्रकृति और पर्यावरण विपन्न है। इसके विरुद्ध हम संवैधानिक लोकतांत्रिक जनप्रतिरोध के पक्ष ​​में है क्योंकि आम जनता निहत्था और असहाय है। आत्मरक्षा और प्रतिरोध, दोनों लिहाज से फिलहाल लोकतांत्रिक धरमनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चा जिसमें अंबेडकर के अनुयायी और गैर अंबेडकराइट भी शामिल हों, के अलावा हम कोई दूसरा विकल्प नहीं देखते।


जंगल में सीमाबद्ध जनयुद्ध में हमें मुक्तिमार्ग नहीं ​​दिखायी देता। हम मानते हैं कि भारत में बहुजनों का आंदोलन सत्ता और व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध की निरंतरता है, जिसका प्रारंभ गौतम बुद्द की सामाजिक क्रांति से हुई। इस निर्मीयमान बहुजनसमाज में  सत्तावर्ग को छोड़ समस्त भारतवासी जिनमें मुख्यतः दलित, आदिवासी,पिछड़े और धर्मांतरित अल्पसंक्यक, विस्थापित, ​शरणार्थी,बंजारे और कबीले,गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग, संगठित और असंगठित मजदूर, छोटे कारोबारी और कऋषि ाधारित आजीविकाओं से जुड़े तमाम समुदाय हैं, जो इस देश के मूल निवासी हैं।


हम आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा के इस बयान को हमारा सही इतिहास मानते हैं कि यह बहुजन समाज हजारों सालों से आक्रमणकारियों का गुलाम है, और यह गुलामी जाति व्यवस्था और वंशवाद, नस्लवाद, भौगोलिक अलगाव में अभिव्यक्त हैं।


हम सशस्त्र सैन्यबल अधिनियम के विरुद्ध हैं और ऐसे तमाम कानूनों, आर्थिक सुधारों और जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध हैं।


हम बायोमैट्रिक डिजिटल नागरिकता को  को आम जनता के  सभी अधिकार छीनने, उसे नागरिकता और संप्रभुता से वंचित करने का सबसे कारगर हथियार मानते हुए उसका विरोध कारपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में अनिवार्य मानते हैं।


हम आदिवासी इलाकों में जल जंगल जमीन पर आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई और भूमि सुधार, संपत्ति का बंटवारा, सबके लिए समान अवसर, समता , सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेश्रता और आर्थिक सशक्तीकरण के अलावा सत्ता में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए लड़ रहे हैं।


हम मानते हैं कि पूना समझौते के अंतर्गत मिले राजनीतिक आरक्षण से इस संसदीय प्रणाली में कारपोरेट बिल्डर प्रोमोटर राज के ही प्रतिनिधि हैं, आम जनता के नहीं। इसलिए इस व्यवस्था को बदले बिना हम बहुजन समाज की मुक्ति का कोई दूसरा विकल्प नहीं देखते और इसके लिए सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति को राजनीतिक क्रांति से पहले अनिवार्य मानते हैं।हम कम्युनिस्टों, लेनिनवादियों और माओवादियों के भी विरुद्ध नहीं हैं और मानते हैं कि वे हमारे बहुजन समाज के ही लोग हैं, पर  सत्तावर्गीय नेतृत्व,चिंतकों, नीति निर्धारकों के विश्वासघाती इतिहास को भूल भी नहीं सकते। हम अलग से दलित विमर्श जैसी किसी भी प्रचेष्टा का विरोध करते हैं क्योंकि हमारा मानना है कि दलित आंदोलन कोई अलग चीज नहीं है, यह किसानों और आदिवासी विद्रोहों, जाति विरोधी आंदोलनों का समन्वय है।


हम पर्यावरण आंदोलन को आर्थिक स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य मानते हैं। नस्ली आधार पर हिमालयी क्षेत्र,दक्षिण भारत और आदिवासी इलाकों से रंगभेदी भेदभाव, उनके​​ अलगाव और उनके दमन का विरोध करते हैं। हम कालाधन और अबाध विदेशी पूंजी निवेश की अर्थ व्यवस्था, उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण का विरोध करते हैं।इस सिलसिले में समविचारवाले संगठनों और व्यक्तियों से हम सहयोग और विचार विमर्श के लिए तैयार हैं।​

​​

​हम मानते हैं कि अंबेडकर या बारत के दूसरे राष्ट्रीय नेताओं के कहे या लिखे से नहीं, उनके समग्र योगदान के आधार पर मूल्यांकन हो। हम मूर्ति पूजा के विरुद्ध हैं, पर चाहते हैं कि अंबेडकर का अनादर न हों।हम द्वंद्वात्मक पद्धति के विरुद्ध नहीं है और विज्ञान और तर्क को अस्वीकार भी नहीं करते। हम सामंती उत्पादन प्रणाली और श्रम संबंधों के पक्ष में कतई नहीं है। सामाजिक व उत्पादक शक्तियों की गोलबंदी से ही मुक्ति संभव हैं, ऐसा हम मानते हैं।​

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​इतना कहते हुए मैं स्पष्ट कर दूं कि  आधारपत्र और आनंद तेलतुंबड़े के वीडियो देखने पर हमे प्रतीत हुआ कि यह आयोजन न सिर्फ एकतरफा तौर पर भारत में जाति विरोधी आंदोलनों और संगठनों और उनके निर्विवाद नेता डा. बाबासाहेब अंबेडकर को खारिज करने की सुनियोजित योजना कै तहत हुआ, बल्कि इसका मकसद दलितों को बाकी बहुजन समाज से अलग काटने का है। आधार पत्र में आदिवासी आंदोलनों का दलित आंदोलनों के सिलसिले में जिक्र न होना इतिहास विकृति है। इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के बहाने उत्पादन संबंधों, श्रम संबंधों और भूमि बंदोबस्त की दृष्टि से इतिहास की चर्चा करते हुए बहुजनों की पहचान और शासक जातियों के प्रति उसकी प्रिरोधी इतिहास की अवहेलना करते हुए ब्राह्मणवादी तरीके से अंबेडकर ही नहीं गौतम बुद्ध की क्रांतिकारी भूमिका को सिरे से नकारा गया है। आनंद तलतुंबड़े ने लोकतांत्रिक बहस की पद्धति पर सहमति जतायी , न कि अंबेडकर के अवमूल्यन पर। अंबेडकर के जाति उन्मूलन की कोई परियोजना हो या नहीं, इस विमर्श के आयोजकों की जातीय वर्चस्व, रंगभेद, व वंशवादी व्यवस्था जारी रखने की परियोजना बेनकाब हो गयी।


हम उनके वायदे पर भरोसा करके यह मान ही रहे थे कि रपटें आधी अधूरी होंगी, भ्रामक होंगी और हम उनसे बहस को तैयार थे। फिर उनके आधार पत्र में अंबेडकर के मुस्लिम लीग के समर्थन से संविधान सभा पहुंचने जैसी घनघोर बहुजनविरोधी इतिहास विकृति को देखते हुए उनसे बहस की कोई संभावना नहीं लगती। य़ह सर्वविदित सत्य है कि बंगाल के नमोशूद्र जाति के विधायकों ने दलीय अवस्थान तोड़कर अंबेडकर को पूर्वी बंगाल से जिताया, जिसमें मतुआ अनुयायी जोगेंद्रनाथ मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम लोग थे , जिनका मुस्लिम लीग से कोई लेना देना नही था। इसी वजह से नमोशूद्र बहुल पूर्वी बंगाल के इलाके जबरन पाकिस्तान में डालकर चंडाल आंदोलन की शक्ति खत्म कर दी गयी। इस इतिहास चर्चा में पूना समझौते की चर्चा ही ​नहीं हुई और अंबेडकर को पूंजीवादी साम्राज्यवादी समर्थक और यहां तक कि मुक्त बाजार की व्यवस्था के लिए एक तरफा तौर पर जिम्मेवार ​​ठहराया गया। इस आयोजन में दलित चिंतकों का इस्तेमाल बहुजन समाज और गौतम बुद्ध और अंबेडकर के विरुद्ध किया गया और आरक्षण के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगाया गया।


इनकी लोकतंत्र और संविधान में कोई आस्ता नहीं है। ये हिंदुत्ववादियों के मनुस्मृति संविधान लागू करने की मांग की तर्ज पर अंबेडकर रचित ​​संवि​धान को बदल देने की बातकर रहे हैं।​

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​अगर भारत के इतिहास में अंबेडकर का कोई योगदान नहीं रहा तो कम्युनिस्टों, मार्क्सवादियों और माओवादियों का क्या अवदान है, हमें इसका मूल्यांकन करना होगा।​

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​अगर मुक्तबाजार की नींव अबेडकर ने डाली, तो बीस साल के  इस मुक्त बाजार में इसके प्रतिरोध के लिए इन क्रांतिकारियों ने क्या किये, इसका मूल्यांकन होना जरूरी है।क्या कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध वामपंथी विचारधारा हमें कोई दिशा देती है, यह भी विवेचनीय है।ये देश काल परिस्थिति को सिरे से नकारते हुए हवाई विचारधारा और सिद्धांत बघारकर हमें दिग्भ्रमित कर रहे हैं। भविष्य में इनके किसी प्रवक्ता से कोई संवाद नहीं होगा।


वे हमारे संगठन और आंदोलन के अस्तित्व पर सवाल उटा रहे हैं।जबकि न उनका संगठन है और आंदोलन । देश में छात्र, महिला . युवा , श्रमिक किसान आंदोलनों को खत्म करने वाले ये वामपंथी कारपोरेट साम्राज्यवादी नस्लवादी जातिवादी हिंदुत्व के सबसे बड़े समर्थक हैं।चंडीगढ़ जाति विमर्श से नये सिरे से फिर साबित हुआ।


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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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