राजनीतिक त्रासदी महंगाई पर खामोश है बजट
♦ प्रभात पटनायक
बजट से बुनियादी तौर पर कुछ ज्यादा नहीं बदलता है, लेकिन मीडिया के शोरगुल में कुछ लोगों को यह भ्रम हो चला है, कि बजट से अर्थव्यवस्था की सारी बीमारियां दूर की जा सकती हैं। बजट के प्रति इस कदर दीवानगी 1990 के दशक से पहले नहीं देखी जाती थी और उस वक्त तक आम बजट-सरकार का सालाना लेखा-जोखा की अपनी परिभाषा के दायरे में ही रहता था।
बजट के बाद लोगों का जीना मुहाल कर चुकी महंगाई कम होगी? इस सवाल के आईने में बजट को देखें, तो साफ है कि महंगाई से हलकान देश की जनता को राहत नहीं मिलने वाली है। इसे समझने के लिए महंगाई की वजह पर नजर डालते हैं। आम आदमी को परेशान करने वाली महंगाई (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, सीपीआइ) की दर फिलहाल 11 फीसदी के करीब है। सही मायने में चीजों की कीमतें लोगों की पहुंच में होने के लिए सीपीआइ की दर पांच फीसदी के नीचे होनी चाहिए। सीपीआइ की ऊंची दर में सबसे ज्यादा योगदान खाद्य वस्तुओं की महंगाई का है, जो बीते दो सालों से दोहरे अंक वाली मुद्रास्फीति दर से नीचे आने का नाम ही नहीं ले रही है। जनता को खाद्य चीजों की महंगी कीमतों से राहत पहुंचाने के लिए दो काम किये जा सकते हैं। एक, सरकार फल-सब्जियों के आपूर्ति तंत्र में सुधार करे और खाद्य वस्तुओं को बर्बाद होने से पहले किसान के खेत से कम दाम पर उपभोक्ता की प्लेट तक पहुंचाने का इंतजाम करे। दूसरा, अर्थव्यवस्था में नकदी की आमद में इजाफा किया जाये, ताकि लोग सस्ती ब्याज दरों पर पैसा लेकर महंगाई से लड़ सकें। सरकार बजट से पहले या बजट में पहला काम (आपूर्ति तंत्र में निवेश) कर सकती थी, लेकिन यूपीए सरकार का कहना है कि यह काम हम नहीं, वॉलमार्ट, टेस्को और कोरफोर जैसी रिटेल कंपनियां करेंगी।
अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह बढ़ाने के लिए जरूरी है कि भारतीय रिर्जव बैंक नीतिगत दरों (रेपो और रिवर्स रेपो दर) में कमी करे। मगर आरबीआइ का कहना है कि सीपीआइ यानी खुदरा मुद्रास्फीति की दर कंफर्ट जोन (पांच फीसदी के भीतर) में आये बगैर ब्याज दरों में ढील नहीं दी जा सकती है। बात वही है कि तू भी रानी, मैं भी रानी, कौन भरेगा पानी।
दरअसल, बजट से बुनियादी तौर पर कुछ ज्यादा नहीं बदलता है, लेकिन मीडिया के शोरगुल में कुछ लोगों को यह भ्रम हो चला है, कि बजट से अर्थव्यवस्था की सारी बीमारियां दूर की जा सकती हैं। बजट के प्रति इस कदर दीवानगी 1990 के दशक से पहले नहीं देखी जाती थी और उस वक्त तक आम बजट-सरकार का सालाना लेखा-जोखा की अपनी परिभाषा के दायरे में ही रहता था।
1990 तक भारत के आम बजट में शेयर बाजार और विदेशी निवेशकों जैसा कोई फैक्टर काम नहीं करता था। वह दौर एशिया में ईस्ट एशियन टाइगर्स (सिंगापुर, ताईवान, हांगकांग व मलयेशिया) के उभार का वक्त था, लिहाजा वैश्विक स्तर पर कोई कंपनी भारतीय बजट की ओर कान भी नहीं देती थी।
1990 में भारतीय अर्थव्यवस्था को दिये गये एलपीजी (उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण) बूस्टर के बाद यह पूरा माहौल बदल गया। 1950 से 1980 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था सालाना 3.5 फीसदी की औसत रफ्तार (इस धीमी बढ़त को हिंदू विकास दर भी कहा जाता है) से आगे बढ़ी और इस दरम्यान खरीद क्षमता के नजरिये से आबादी में कोई बड़ा समूह नहीं था।
1980 से 2010 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था हिंदू विकास दर के पिछड़ेपन से बाहर निकल आयी। विकास दर में हुए इस इजाफे ने 40 करोड़ उपभोक्ताओं वाला विशाल मध्यवर्ग पैदा कर दिया। यह मध्यवर्ग 'आइ हेट पॉलिटिक्स' वाले तबके से था और आमतौर पर वोट डालने नहीं जाता था।
दूसरी ओर 1990 के दशक में ही भारतीय राजनीति में पिछड़ों और दलितों का उभार शुरू हुआ, जिसे कुछ जानकार भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत मानते हैं। गांवों-कस्बों का रहवासी दलित-पिछड़ा समूह बड़ी तादाद में वोट डालने जाने लगा। इस समीकरण ने देश की आर्थिक नीति को एक अलग मोड़ दिया।
1990 के बाद आयी सरकारों ने दोनों समूहों के बीच संतुलन साधने के लिए एक नया फार्मूला ईजाद किया और इसे हर साल बजट के मार्फत अंजाम पर पहुंचाया जाने लगा। मध्यवर्ग को सालभर चाटने के लिए सब्सिडी की मलाई पकड़ा दी गयी, वहीं ग्रामीण इलाकों के लिए सामाजिक कल्याण योजनाओं पर सरकारी खर्च में मामूली इजाफा कर दिया गया।
पूरे साल की चुप्पी के बदले में बजट से मिलने वाली सब्सिडी और छूटों के लालच ने धीरे-धीरे बजट को सालाना जलसे में तब्दील कर दिया, जहां सरकार कुछ संसाधन मध्यवर्ग पर खर्च करने का ऐलान करती है। मगर इस साल इन दोनों तबकों को भी बजट में निराशा ङोलनी पड़ी है, गरीब तबके की बात तो दूर है।
बजट में कहा गया है कि सब्सिडी बिल को कम करके जीडीपी के दो फीसदी से नीचे लाया जाएगा। इसका सीधा मतलब है कि सरकारी खर्च में कमी होने के कारण जनता पर बोझ बढ़ जायेगा। खेती-बाड़ी को पुराने बजटों की तरह ही इस बार भी नजरअंदाज किया गया है।
पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड और ओडि़शा जैसे गरीब राज्यों में हरित क्रांति को आगे ले जाने की बात करते हुए सरकार ने एक हजार करोड़ रुपये आवंटित किये हैं। क्या कोई इस बात को स्वीकार करेगा कि एक हजार करोड़ की रकम से पूर्वी भारत में हरित क्रांति लायी जा सकती है।
देश के किसानों में 85 फीसदी तादाद छोटे और मझोले किसानों की है। लेकिन, इस बजट में इन किसानों के लिए कुछ नहीं है। कृषि ऋण में एक फीसदी की छूट देने का ऐलान बजट में किया गया है। मगर इसका फायदा छोटे किसानों को नहीं मिलेगा, क्योंकि यह गरीब किसान संस्थागत बैंकिंग के दायरे में ही नहीं है।
ऐसी ही एक और विडंबना पंजाब-हरियाणा को दिये गये 500 करोड़ रुपये के फसल विविधीकरण के दावे में खोजी जा सकती है। उत्तर भारत के इस विशाल इलाके में 500 करोड़ से फसल विविधीकरण तो दूर, बल्कि किसी फसल के बीज तक नहीं बांटे जा सकते हैं।
बजट में छोटी-मोटी रेवडि़यां मसलन, दो लाख से पांच लाख तक आय वाले लोगों को 2000 रुपये की छूट देने का वादा किया गया है। मगर यह रकम इतनी छोटी है, कि इसका लाभ उठाने वाले लोगों को यह घोषणा मजाक लगेगी। एसी होटल-रेस्तरां में महंगा खाना और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी जैसे फैसलों से आम आदमी का जीवन ज्यादा दूभर हो जायेगा।
विमानन उद्योग में रख-रखाव सेवाओं के लिए सरकार ने इसीबी (बाह्य वाणिज्यिक उधारी) के जरिये एक अरब डॉलर की अमेरिकी सहायता का वादा किया है, लेकिन आत्महत्या कर रहे विदर्भ के किसानों के लिए कुछ नहीं है। बीते चार वर्षो से राजनीतिक त्रसदी बन चुकी महंगाई पर भी बजट में खामोशी की चादर ओढ़ ली गयी और मंद विकास का ठीकरा प्रतिकूल अंतरराष्ट्रीय माहौल पर फोड़ा गया है।
पेट्रोलियम पदार्थो की सब्सिडी को कम करने की घोषणा करके पहले से ही उबल रहे पेट्रोल और डीजल को महंगा करने की पृष्ठभूमि बजट में तैयार कर ली गयी है। उदारीकरण के दो दशक बाद भारत की अर्थव्यवस्था खासकर ग्रामीण व कृषि क्षेत्र दोराहे पर खड़े हैं और यूपीए सरकार का यह बजट इस क्षेत्र को उजाले की किरण दिखाने में नाकाम रहा है।
(प्रभात पटनायक प्रख्यात अर्थशास्त्री हैं। आम बजट पर प्रभात खबर में प्रकाशित उनकी यह टिप्पणी अरविंद सेन से बातचीत पर आधारित है।)
http://mohallalive.com/2013/03/01/prabhat-patnaiks-comment-on-general-budget/
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