दमन का वाद नहीं होता
दमन का वाद नहीं होता
Sunday, 31 March 2013 11:56 |
कुलदीप कुमार जनसत्ता 31 मार्च, 2013: भगवान सिंह की पुस्तक 'कोसंबी: कल्पना से यथार्थ तक' पर कमलेश की समीक्षा (जनसत्ता, 10 मार्च) पर मैंने अपने स्तंभ 'हिंदीबेल्ट' ('द हिंदू', 15 मार्च) में एक संक्षिप्त प्रतिक्रिया लिखी। इसकी व्याख्या उन्होंने अपने विस्तृत जवाब (जनसत्ता, 24 मार्च) में यों की है: ''क्या उन्हें लगा कि मार्क्सवादी पैंतरेबाजी साम्राज्यवादी भाषा में ही कारगर होगी?'' कमलेश को इस मौलिक सिद्धांत के प्रतिपादन के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि कोई भाषा भी साम्राज्यवादी हो सकती है! यों उन जैसे प्रकांड पंडित को पता होगा कि राहुल सांकृत्यायन को हिंदी में इतिहास, पुरातत्त्व और दर्शन पर मार्क्सवादी नजरिए से लिखने में कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आई। उनके लेखन को भी कमलेश 'मार्क्सवादी पैंतरेबाजी' ही मानते होंगे, तभी तो उनकी लंबी-चौड़ी प्रतिक्रिया में हिंदी में लिखने वाली विभूतियों की लंबी-चौड़ी सूची दी गई है, लेकिन राहुल का कहीं जिक्र नहीं है। उनको यह तो पता ही होगा कि इसी 'साम्राज्यवादी' भाषा अंग्रेजी में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया और वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी लिखा है, जिन पर 'मार्क्सवादी पैंतरेबाजी' का आरोप शायद कमलेश भी न लगा पाएंगे। हां, उनके भगवान सिंह ने शायद इस 'साम्राज्यवादी' भाषा से अपने को बचाए रखा है। पूछा जा सकता है कि अगर भारत पर शासन करने वाले अंग्रेजों की भाषा होने के कारण अंग्रेजी साम्राज्यवादी भाषा हो गई, तो फिर क्या यहूदियों का जनसंहार करने वाले जर्मनों की भाषा जर्मन को 'नात्सीवादी' माना जाए और गोएठे और बर्टोल्ट ब्रेख्त का बहिष्कार कर दिया जाए? इस ब्राह्मणवादी पैंतरेबाजी का जवाब नहीं! मैंने 'द हिंदू' में लिखा था कि भगवान सिंह ने संघ के विचारक और इतिहासकार डॉ. स्वराजप्रकाश गुप्त के मार्गदर्शन में इतिहास पर अपनी किताबें लिखी हैं और संघ के राष्ट्रवादी इतिहास के एजेंडे को ही आगे बढ़ाने में जीवन लगा दिया है। यह 'राष्ट्रवादी इतिहास' उससे बिल्कुल अलग और उलट है, जो ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के काल में लिखा गया। भगवान सिंह की पुस्तकें गवाह हैं कि उन्होंने संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाया है या नहीं। फिर भी अगर वे अपने को मार्क्सवादी कहते हैं और कमलेश ऐसा मानते हैं तो कोई कैसे रोक सकता है? लेकिन यह समझ में नहीं आया कि मार्क्सवादी होने के लिए भगवान सिंह की तो प्रशंसा की जा रही है और मुझे धिक्कारा जा रहा है! मेरी आपत्ति थी कि दामोदर धर्मानंद कोसंबी का एक भी उद्धरण दिए बिना कमलेश उन्हें 'नस्लवादी' घोषित कर देते हैं। अपनी लंबी-चौड़ी प्रतिक्रिया में उन्होंने कोसंबी को नहीं, भगवान सिंह को उद्धृत करके उन्हें नस्लवादी सिद्ध किया है। यह कौन-सी तर्क पद्धति है? कमलेश को सबसे बड़ा एतराज कोसंबी और अन्य मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा की गई ब्राह्मणवाद की आलोचना से है। ब्राह्मणवाद की आलोचना में उन्हें नात्सी साजिश नजर आती है और 'फाइनल सोल्यूशन' यानी ब्राह्मणों का समूल सफाया किए जाने का खतरा दिखाई देता है। वे लिखते हैं: ''कोसंबी (और उनके अनुयायी इतिहासकार) ब्राह्मणों पर ऐसे आरोप लगाते हैं जो नात्सियों द्वारा यहूदियों पर लगाए गए आरोपों के समांतर हैं। इसके बाद 'फाइनल साल्यूशन' ही बच जाता है।...'' किस मार्क्सवादी इतिहासकार ने ब्राह्मणों के जनसंहार के लिए आह्वान किया है? शायद कमलेश को पता नहीं कि कोसंबी खुद गौड़ सारस्वत ब्राह्मण थे। कौन-सा मार्क्सवादी इतिहासकार कमलेश को जेम्स मिल का प्रशंसक नजर आया? वे एक का भी नाम नहीं लेते। और मिल के जिन आलोचकों का नाम लेते हैं वे सभी विदेशी हैं, साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी में लिखने वाले! कमलेश का दावा है कि कोसंबी ने ''जिस एकमात्र इतिहासकार को उल्लेखनीय और उद्धरणयोग्य समझा है, वह है जेम्स मिल, जो उनका आदर्श है।'' लेकिन वे कोसंबी को जेम्स मिल पर उद्धृत करके यह दिखाने की जहमत नहीं उठाते कि मिल वास्तव में उनका 'आदर्श' थे। वे याद दिलाते हैं कि ''कोसंबी अपनी शिक्षा और कार्य से इतिहासकार नहीं थे। वे अपनी वृत्ति से गणितज्ञ थे। हार्वर्ड विश्वविद्यालय से गणित में बीए की डिग्री लेकर भारत लौटे थे।'' यानी, उनका इतिहास पर लिखना एक प्रकार की अनधिकार चेष्टा थी। तो क्या भगवान सिंह या खुद कमलेश वृत्ति से इतिहासकार हैं? मेरे बारे में तो उन्होंने फतवा दे ही दिया है कि मुझे इतिहास की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। अब मैं उन्हें क्या बताऊं कि जेएनयू में मैं प्राचीन भारत के इतिहास का विद्यार्थी हुआ करता था और आज भी इस विषय में मेरी दिलचस्पी घटी नहीं है कमलेश एक बार भी इस तथ्य का उल्लेख नहीं करते कि कोसंबी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के गणितज्ञ थे, केवल गणित में बीए नहीं। और जहां तक मुद्राशास्त्र का सवाल है, उसे निश्चय ही पुरातत्त्व की एक शाखा माना जाता है, भले ही कमलेश को यह गलतफहमी हो कि ''कुछ लोग मुद्राशास्त्र को पुरातत्त्व में जोड़ लेते हैं।'' कमलेश बार-बार कोसंबी की तुलना वासुदेवशरण अग्रवाल से करते और कहते हैं कि अग्रवाल बहुत बड़े पुरातत्त्वशास्त्री थे, जबकि कोसंबी उनकी तुलना में बौने। इस तुलना का क्या मतलब? बौद्धिक विमर्श की यह कौन-सी परंपरा है? कोसंबी का महत्त्व भारतीय समाज के इतिहास के अध्ययन में नई दृष्टि अपनाने, उसमें पुरातत्त्व के इस्तेमाल की हिमायत करने और 'पैराडाइम शिफ्ट' करने के लिए माना जाता है। उन्होंने पुरातत्त्व के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया, लेकिन न तो उन्होंने कभी उस अर्थ में पुरातत्त्वशास्त्री होने का दावा किया और न ही उन्हें ऐसा माना जाता है, जिस अर्थ में एचडी सांकलिया या बीबी लाल पुरातत्त्वशास्त्री थे। कमलेश इकोनॉमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली के 26 जुलाई, 2008 के अंक में प्रकाशित शिरीन रतनागर के आलोचनात्मक लेख का तो जिक्र करते हैं, लेकिन यह उल्लेख नहीं करते कि यह सामान्य अंक नहीं, इपीडब्ल्यू का कोसंबी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित विशेषांक था, जो उनकी जन्मशताब्दी वर्ष की समाप्ति पर निकाला गया था। अगर कोसंबी ऐसे ही बौद्धिक बौने थे, तो वीकली ने उन पर विशेषांक ही क्यों निकाला? और शिरीन ने उन पर लिख कर अपना समय क्यों नष्ट किया? कमलेश की राय में कोसंबी को संस्कृत भी नहीं आती थी। वे लिखते हैं: ''संस्कृत न जानते हुए भी उन्होंने शतकत्रय और सुभाषित रत्नागार के संपादन का बीड़ा उठाने का साहस कर लिया और सम्मानित प्रकाशकों ने उन्हें यह काम सौंप दिया।'' मगर वे यह नहीं बताते कि ये और अन्य ग्रंथ भारतीय विद्या भवन की सिंघी शृंखला, आनंदाश्रम प्रेस की आनंदाश्रम संस्कृत शृंखला, निर्णयसागर प्रेस और हार्वर्ड विश्वविद्यालय की हार्वर्ड ओरिएंटल शृंखला के अंतर्गत प्रकाशित हुए थे, जिन्हें विश्व भर में प्रतिष्ठा प्राप्त है। उनके द्वारा भर्तृहरि पर संपादित एक पुस्तक की भूमिका आचार्य जिन विजय मुनि ने लिखी थी। यों भी इस कोटि के प्रकाशक अयोग्य व्यक्ति को संपादक बना कर अपनी प्रतिष्ठा दांव पर नहीं लगाते। कमलेश को तो यह तक नहीं मालूम कि ग्रंथ का नाम 'सुभाषित रत्नागार' नहीं, 'सुभाषित रत्नकोष' है। उनका निष्कर्ष है कि संस्कृत ज्ञान से कोरे कोसंबी को इन महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के संपादन का दायित्व दिया जाना ''एक असाधारण घटना थी, जो केवल 'नेटवर्किंग' का परिणाम थी।'' यानी इन सभी प्रकाशकों से परिचय के आधार पर जुगाड़ करके संस्कृत न जानने वाले कोसंबी ने संपादकी हथिया ली! और इस घृणित आरोप को प्रमाणित करने की तो कोई जरूरत ही नहीं, क्योंकि, 'मुस्तनद है मेरा फरमाया हुआ...'। पाठक खुद तय करें कि इस प्रकार की टिप्पणियां कीचड़ उछालने की नीयत से की गई हैं या गंभीर चर्चा के लिए। यहां यह बता दूं कि कोसंबी के कार्य को दुनिया भर के संस्कृतज्ञ पाठ-आलोचना का मानक मानते हैं। कमलेश दावा करते हैं कि कोसंबी महान पुरातत्त्वविद एचडी सांकलिया का मजाक उड़ाते थे। उन्हें पता ही नहीं कि खुद सांकलिया ने कोसंबी के बारे में क्या लिखा है। जानने के लिए वे 1974 में प्रकाशित स्मृति ग्रंथ के पन्ने पलट सकते हैं। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/41585-2013-03-31-06-27-04 |
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