इराक के बाद सीरिया
इराक के बाद सीरिया
Saturday, 09 March 2013 14:27 | अजेय कुमार जनसत्ता 9 मार्च, 2013: सीरिया में युद्ध के नगाड़े अब और जोर से बजने लगे हैं। अब साम्राज्यवादी मीडिया लगभग उसी तरह के झूठ प्रसारित करने में लग गया है जो इराक पर हमले से पहले 'जन-संहार के हथियार होने' के आरोप जैसे प्रतीत होते हैं। सरकार के बार-बार मना करने पर भी, और बिना किसी प्रमाण के, मीडिया ने यह प्रचारित करना शुरू कर दिया है कि सीरिया की सरकार 'अपने ही लोगों के विरुद्ध रासायनिक हथियार इस्तेमाल करने' की योजना बना रही है। पश्चिमी देशों की लगभग हरेक समाचार एजेंसी द्वारा इस मनगढंÞत खबर के प्रचार-प्रसार से उत्साहित होकर हिलेरी क्लिंटन ने भी घोषणा कर दी है कि रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल करना तो सीरिया सरकार द्वारा हर तरह से लक्ष्मण रेखा (वे इसे लाल रेखा कहती हैं) पार करना है। यहां वे संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून की भी परवाह नहीं करतीं, जिनके अनुसार अभी यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सीरिया की सरकार इन हथियारों का इस्तेमाल करने जा रही है। कुछ ही सप्ताह पहले अमेरिकी सीनेट ने सीरिया की वायुसेना को तबाह करने और 'सीरिया में नागरिकों की हत्या रोकने और ऐसे हालात पैदा करने ताकि वहां एक जनतांत्रिक, बहुलतावादी राजनीतिक व्यवस्था कायम हो सके और इसके लिए राष्ट्रपति ओबामा के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने' के उद््देश्य से सैन्य-विकल्प को आजमाने का प्रस्ताव पारित किया है। इसी बीच नाटो ने तुर्की को हरी झंडी दिखा दी है कि वह सीरिया-तुर्की की नौ सौ किलोमीटर लंबी सीमा पर पैट्रियट मिसाइलें तैनात कर दे। ये मिसाइलें अमेरिका ने तुर्की को निर्यात की हैं। पिछले वर्ष के आखिरी महीने के दूसरे सप्ताह में ओबामा ने सीरिया के सशस्त्र 'सीरियाई विपक्षी गठबंधन' को मान्यता दे दी है और अपने बयान में उसे 'असद सरकार के विरुद्ध न्यायोचित प्रतिनिधि' कहा है। इस फैसले तक पहुंचने से पहले अमेरिका लगभग दो साल से 'सीरिया के मित्र' नाम से बने लिजलिजे संगठन के जरिये भी सशस्त्र विपक्षी गठबंधन के लिए आर्थिक और सैन्य सहायता जुटाने का प्रयास करता रहा है। इन देशों में ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य पश्चिमी देशों के अलावा सऊदी अरब, इजराइल प्रमुख हैं। इस संगठन के सौ से ऊपर सदस्य-देशों की एक बैठक मोरक्को में बीते दिसंबर में हुई और उन्होंने अपना पूरा समर्थन सीरियन विपक्षी गठबंधन को देने का फैसला किया। इस तरह एक संप्रभु देश की आजादी पर खुल्लमखुल्ला हमला हो रहा है। असद के शासन में सब कुछ ठीक है, ऐसा भी नहीं है। दमन, शोषण, लूट, भ्रष्टाचार, सब है वहां, जैसे हमारे देश और अन्य कई देशों में है। प्राय: यह देश की जनता तय करती है कि सत्ता किसके हाथ में दी जाए। थोड़ी देर के लिए मान लें कि एक लाख जेहादी भारत में घुस कर एलान कर दें कि जब तक मनमोहन सिंह सत्ता नहीं छोड़ेंगे, वे आतंकवादी गतिविधियां जारी रखेंगे, तो भारत सरकार क्या करेगी? और अगर उन जेहादियों को विश्व की सबसे प्रचंड सैन्य-शक्ति का समर्थन प्राप्त हो, तब क्या होगा? मध्य-पूर्व में असद के नेतृत्व में एकमात्र सरकार बची है जो अब भी धर्मनिरपेक्षता की राह पर चल रही है, जिसने इस्लाम को राज्य-धर्म घोषित नहीं किया है, जहां ईसाई, फिलस्तीनी, कुर्द, ड्रज, अलावाइट आदि अल्पसंख्यक सुरक्षित महसूस करते हैं। ऐसे में सशस्त्र सीरियाई विपक्षी गठबंधन को अमेरिका का सैन्य-समर्थन देना जेनेवा समझौते के भी विरुद्ध है। याद रहे, इस समझौते पर अमेरिका ने भी दस्तखत किए हैं। रूस ने और असद सरकार ने भी यह सुझाव दिया था कि सरकार और विपक्ष के बीच बातचीत हो और मतभेदों को दूर किया जाए। असद ने तो सीरिया में अंतरराष्ट्रीय निगरानी के तहत चुनाव कराए जाने की पेशकश भी की है ताकि सीरियाई समाज के सभी वर्गों को सरकार में प्रतिनिधित्व मिल सके। पर अमेरिका को यह मंजूर नहीं है। उसे तो अपनी पेंटागन की घोषित नीति, जो कि अब उसकी वेबसाइट पर उपलब्ध है, को लागू करना है। और यह नीति है कि अगर विश्व में किसी देश की सरकार अमेरिकी हितों की अनदेखी करेगी तो पहले उसे समझा-बुझा कर पटरी पर लाने की कोशिश की जाएगी और अगर वह प्यार से न माने तो उसकी सत्ता पलट दी जाएगी। इस हिसाब से देखा जाए तो सीरिया की गतिविधियां मध्य-पूर्व क्षेत्र में अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने वाली रही हैं। 2003 में जब इराक पर अमेरिका ने कब्जा किया तो सीरिया ने अपनी सीमाएं इराक के शरणार्थियों और वहां साम्राज्यवादी कब्जे के विरुद्ध लड़ने वाले देशभक्तों के लिए खोल दी थीं और असद सरकार ने उनकी पूरी मदद की थी। फिलस्तीन के ग्यारह संगठनों के मुख्यालय सीरिया में सक्रिय रहे हैं। लगभग पांच लाख फिलस्तीनी आज सीरिया में रह रहे हैं। और उन्हें तमाम नागरिक अधिकार उपलब्ध हैं जो बाकी जनता को हैं, जैसे मुफ्त शिक्षा और मुफ्त चिकित्सा सेवा। अरब के किसी अन्य राष्ट्र ने फिलस्तीनियों को इस तरह बसने की इजाजत नहीं दी है। असद सरकार उनके हक की लड़ाई में उनके साथ है। लेबनान के हिजबुल्ला आंदोलन को असद सरकार मदद देती रही है। वह इजराइल की दादागिरी के खिलाफ है और इस तरह पश्चिमी देशों के हितों के विरुद्ध है। सत्ता पलटने के लिए ओबामा प्रशासन इस चीज को अहमियत नहीं देता कि विपक्षी दल का संबंध जेहादी गु्रपों से है या नहीं। एक संगठन अल-नुसरा, जिसे अमेरिका ने आतंकवादी संगठनों की सूची में रखा हुआ है और जिसके अल-कायदा से संबंध जगजाहिर हैं, उस 'सीरियन विपक्षी गठबंधन' का भी हिस्सा है, जिसे ओबामा प्रशासन ने मान्यता दी है। जमात-अल-नुसरा ने पहला आत्मघाती हमला इसी साल छह जनवरी को किया था, जिसने दमिश्क में कई बसों को उड़ा दिया था। उसके बाद से, आत्मघाती बमबारियों या रिमोट से कराए जाने वाले कार-बम विस्फोटों की तादाद में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी हुई है। इन हमलों में साठ हजार नागरिकों की मौत हो चुकी है और लगभग पांच लाख लोग शरणार्थी बनने को विवश हुए हैं। इस तरह के हमलों की एक बहुत ही नृशंस मिसाल है, दमिश्क के निकट अल वफीदीन शिविर के स्कूल पर हुआ हमला, जिसमें एक कक्षा के उनतीस बच्चे मारे गए थे। जमात-अल-नुसरा की हिंसा की भयावहता का मुख्य कारण यह है कि इसमें दूसरे देशों के कट््टरपंथी लड़ाके भर्ती किए गए हैं। इनमें लीबिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सऊदी अरब, इराक, लेबनान, तुर्कमेनिस्तान और चेचेन्या के आतंकवादी शामिल हैं। इनमें हर बीस आतंकवादियों में केवल एक सीरियाई मूल का है। इन्होंने सीरिया में सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ वहां इस्लामी व्यवस्था कायम करने को भी अपना लक्ष्य घोषित कर रखा है। जिन आतंकवादियों को अमेरिका कथित रूप से लीबिया से खदेड़ रहा है, वास्तव में वे अब सीरिया में हैं और वहां की जनता को आतंकित करने के नाटो के प्रयासों के साझेदार बने हुए हैं। एक ओर अमेरिकी उच्चाधिकारी इस तरह की ताकतों के अब भी बने होने पर चिंता का दिखावा करते हैं, और दूसरी ओर, उन्हीं ताकतों को अपने मंसूबे पूरे करने का औजार बनाने के लिए हथियार और साज-सामान मुहैया करा रहे हैं। इससे आतंकवाद के मुद््दे पर ओबामा प्रशासन के दोमुंहेपन का भी पता चलता है। अल-कायदा से संबंधित संगठन अल-नुसरा कल जब सऊदी अरब और बाद में अमेरिका को आंखें दिखाने लगेगा, तो क्या ओबामा एक बार फिर उसके नेता को अरब सागर में फेंकने की सोचेंगे? इन हमलों से स्पष्ट हो जाता है कि आज सीरिया अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का शिकार बना हुआ है। लेकिन नाटो के सदस्य-देश इस पहलू पर चुप्पी साधे हुए हैं। दूसरी ओर, ऐसे आतंकी हमलों के खिलाफ सीरियाई सरकार की कार्रवाइयों को ही 'जनता पर हमला' बताया जा रहा है। सीरिया के मामले में आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष के पैमाने ही बदल दिए गए हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी एक बार फिर उसी रणनीति का प्रयोग कर रहे हैं जिसे उन्होंने इससे पहले लीबिया में और 1999 में यूगोस्लाविया में आजमाया था। इन देशों में पश्चिमी ताकतों द्वारा प्रशिक्षित और उन्हीं के पैसे के बल पर संगठित हुए, उनके भाड़े के टट््टुओं ने पहले तो वहां की तत्कालीन सरकारों के खिलाफ गंभीर उकसावे की कारगुजारियां कीं और जब संबंधित देशों के प्रशासन ने जवाबी कार्रवाई की तो उसे 'जनसंहार' करार दे दिया गया और हिटलरी दुष्प्रचार के सहारे इन शासनों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय जनमत बनाया गया। चैनल-4 टीवी चैनल (जिसने प्रभाकरण के बारह वर्षीय बेटे बालचंद्रन प्रभाकरण की हत्या की खबर हाल ही में प्रसारित की थी) के पत्रकार एलेक्स थाम्पसन ने चौदह दिसंबर को अपने ब्लॉग पर चश्मदीद गवाहों की मदद से अकरब में अल्पसंख्यकों पर हुए आतंकवादी हमलों का ब्योरा दिया है, जिसमें कम से कम एक सौ पचीस लोग मारे गए थे और कई घायल हुए थे। इस ब्योरे के कुछ अंश इस प्रकार हैं: हमने तीन चश्मदीद गवाहों से अलग-अलग बातचीत की और सभी ने एक ही बात कही कि फ्री सीरियन आर्मी के विद्रोहियों ने लगभग पांच सौ अलवाइट अल्पसंख्यकों को दोमंजिला इमारत में एकत्र किया, लगभग नौ दिन उन्हें भूखा-प्यासा रखाा। फिर एक दिन उन विद्रोहियों ने उनसे कहा कि हम तुम्हारे इस्लामी भाई हैं, हम अल-हाउला और अल-रसतान से आए हैं। उनका लक्ष्य उन पांच सौ लोगों में से औरतों और बच्चों को अपने साथ रखना था ताकि वे सरकारी फौजों के हमलों के वक्त उन्हें आगे कर दें। चार घंटे तक विद्रोहियों और अल्पसंख्यक नागरिकों के बीच बातचीत चली, जिसमें सभी नागरिकों ने औरतों और बच्चों को ले जाने के लिए मना कर दिया। तभी विद्रोहियों ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। कई लोग मारे गए। घायल हुए लोगों में एक महिला और बच्चे को विद्रोहियों ने अपने कब्जा किए अस्पताल में मरहम-पट्टी करवाई और उनसे कैमरे के सामने कहलवाया कि सरकारी फौजों ने उन पर गोलीबारी की है।'' आज सीरिया में अमेरिका-समर्थित आतंकवादियों के चलते आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। आज वहां भूख का साम्राज्य है, जबकि कुछ वर्ष पहले खाद्य सामग्री के मामले में देश आत्मनिर्भर था। राज्य द्वारा संचालित कई फैक्ट्रियां बंद पड़ी हैं। आधे सार्वजनिक अस्पताल संकट में हैं, जीवनरक्षक दवाइयों और इंसुलिन जैसी आवश्यक दवाइयों की भयंकर कमी हो गई है। औषधियां बनाने वाली फैक्ट्रियां, जो पिछले वर्ष तक देश की नब्बे प्रतिशत मांग की पूर्ति करती थीं, अब केवल एक-तिहाई उत्पादन कर पा रही हैं। आज संकटग्रस्त अंतरराष्ट्रीय पूंजी सारी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों और विशेषकर मध्य-पूर्व क्षेत्र के तेल संसाधनों की लूट को तेज करने में लगी है। विडंबना यह है कि संप्रभु राष्ट्रों पर तबाही थोपने का काम 'लोकतंत्र की बहाली' के नाम पर हो रहा है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40491-2013-03-09-08-57-55 |
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