हाशिये पर मुख्य पाठ से असहमति : यानि पश्चिमी बंगाल के बजाए त्रिपुरा
त्रिपुरा में माकपा की सरकार पुनः सत्ता प्राप्त करने वाली है इसके संकेत हाल ही में सम्पन्न विधान सभा चुनाव में भारी तादाद में जनता द्वारा मतदान की रिपोर्ट के आधार पर लगाये जा रहे हैं। अगर इस बार भी माकपा त्रिपुरा में सत्ता पर काबिज़ हो गई है। इस समय जब कि वामपंथ अपने गढ़ों में ही बेदखल हो रहा है त्रिपुरा में उसकी जीत देश की वामपंथी राजनीति के लिए संजीवनी का काम करेगी। ऐसा नहीं है कि यहां वामपंथ के लिए वैसी परिस्थितियां नहीं जिनका सामना उन्हें पश्चिमी बंगाल और केरल में करना पड़ रहा है। कुछ मामलों में त्रिपुरा की परिस्थितियां केरल और पश्चिमी बंगाल से बदतर हैं जैसे कि शिक्षा और आधारभूत ढांचे की कमी त्रिपुरा में इन दो राज्यों से भी बुरी हो सकती हैं। त्रिपुरा पहाड़ी इलाका है जहां यातायात के साधनों की कमी के कारण विकास की रथयात्रा धीमी गति से चलती है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी उस प्रकार सम्भव नहीं है जैसा मैदानी राज्यों में प्रायः देखा जाता है। यहां भी अस्सी प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है और कृषि भी पारम्परिक झूम पद्धति वाली जिसमें जंगलों को साफ करके खेतीबाड़ी के उपयुक्त बनाया जाता है। वहां भी जनजाति आबादी के साथ गैर जनजातीय बंगाली समुदाय भी रहता है जिनमें जातीय अस्मिताओं के झगड़े भी होते रहते हैं। उद्योग धंधों के अभाव में वहां भी बेरोज़गारी की समस्या है। लेकिन इस सबके बावजूद वहां का मानव विकास सूचकांक कई राज्यों से बेहतर है। इसके कारण साफ दिखते हैं कि वहां आदिवासी वनवासी जन समुदाय को लक्ष्य मानकर सत्ता का इस्तेमाल किया जा रहा है। वे जो विकास की दौड़ में पीछे छूट गये थे उन्हें साथ लेकर चलने की नीति के कारण वहां स्वराज के साथ सुराज की व्यवस्था भी कायम हुई है। जो लोग कभी गुजरात के नरेन्द्र मोदी और कभी बिहार के नितीश कुमार को सुशासन का मसीहा बताते रहते हैं उन्हें मोदी के सुशासन और माणिक सरकार के कामरेडी शासन की तुलना करनी चाहिए। इतना ही नहीं बल्कि माकपा के बुद्धदेव भट्टाचार्य और केरल के अच्युतानन्दन को भी अपने आप से पूछना चाहिए कि उनके यहां इतनी सिरफुटौबल क्यों है और त्रिपुरा में बिना आवाज़ परिवर्तन कैसे आ रहा है ? क्या कारण है कि अन्य राज्यों के आदिवासी समुदाय वहां की सरकार के खि़लाफ हैं चाहे वह झारखण्ड के मुक्तिमोर्चा की जनजातीय सरकार ही क्यों न हो जब कि त्रिपुरा में एक गैर आदिवासी मुख्यमन्त्री में आदिवासी जनता अपना मुक्तिदाता देख रही है?
त्रिपुरा के बजट पर एक नज़र डालने से इन सवालों के जवाब मिल जाते हैं। वामपंथी सरकार ने जनता की शिक्षा तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी ज़रुरतों को प्राथमिकता के तौर पर पूरा करने के लिए अपने सीमित साधनों में लगातार बढ़ोत्तरी करते हुए जनहित की अपनी नीतियों को निष्ठापूर्वक निभाने के लिए समर्पित है। संसाधनों की कमी प्रतिबद्ध वामपंथी सरकार के लिए किसा प्रकार का अवरोध पैदा नहीं कर पाती क्योंकि अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण वे थोड़े में बहुत करने की क्षमता रखते हैं।राजनीतिक इच्छा के अभाव में संसाधनों की बहुलता के बावजूद गरीबों के कल्याणारी कामों के परिणाम भी अपेक्षा के अनुरूप नहीं निकलते। इसके लिए कभी नौकरशाही द्वारा उपेक्षा तो कभी शासनतन्त्र में गहरे पैठ चुका भ्रष्टाचार जिम्मेवार ठहरा दिया जाता है। वास्तविकता में शासक दल में जनकल्याण के प्रति अनिच्छा ही इसका प्रमुख कारण होता है।
माणिक सरकार ने अपने राज्य की भौतिक ज़रूरतों को प्राथमिकता के आधार पर हल करने का निर्णय लेकर वामपंथ का झण्डा बुलन्द किया है। बिना किसी जल्दबाज़ी के अपनी जनता को स्थाई विकास के रास्ते पर ले जाने से पहले उनकी बौद्धिक और शारिरिक क्षमता के विकास पर ध्यान केन्द्रित करके समाजवादी परिवर्तन की दिशा में पुख्ता कदम उठाये हैं। ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनसे देश के अन्य राज्यों के वामपंथी नेताओं को सीखने की ज़रूरत है। पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्य में वामपंथ क्यों डावांडोल स्थिति में है और त्रिपुरा में उसकी जड़ें जनता के बीच इतने गहरे कैसे उतर गईं? क्या माणिक सरकार की धीमी गति का विकास भारतीय परिस्थितियों में सामाजिक क्रान्ति को स्थगित करने वाला सिद्धान्त है या भारतीय जड़ता के खि़लाफ धैर्यपूर्वक किये जाने वाला वैचारिक संघर्ष ? क्या बुद्धदेव वसु की औद्योगिक विकास सम्बन्धी जल्दबाज़ी वाली रणनीति वामपंथ के विकास की सबसे प्रबल रुकावट बन गई जिससे वामपंथ कम से कम एक दशक पीछे खिसक गया ? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब वामपंथ के नेताओं को ढूंढने ही पड़ेंगे।
माणिक सरकार समाजवाद के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए समाज के उस वर्ग का विश्वास जीतने की कोशिश कर रहा है जो क्रान्ति का हरावल दस्ता होता है। जबकि अन्य जगहों पर वामपंथियों ने पढ़े लिखे बेरोज़गार मध्यम वर्ग के युवाओं केा साथ लेकर अपना जनाधार तैयार करना चाहा जिसके परिणामस्वरूप वहां यदि सत्ता पर कब्जा हुआ तो क्रान्ति के अग्रिम दस्ते की क्रान्तिकारी चेतना के विकास के स्थान पर वैचारिक भटकन की तरफ विचलन देखा गया। क्योंकि पार्टी ने कैडर का विस्तार तो किया लेकिन उसकी चेतना के विकास के लिए ज़रुरी राजनीतिक शिक्षा के स्थान पर केवल आर्थिक नीतियों के विश्लेषण तक सीमित करके मार्क्सवाद को केवल आर्थिक सिद्धान्त की तरह प्रचारित किया इससे कैडर का लम्पटीकरण हुआ। इससे लोगों की नज़र में कम्युनिस्ट की जो एक छवि बनी हुई थी जिसमें उसके मन्त्री तक भी त्याग और समर्पण की मिसाल के तौर पर पेश किये जाते थे वह छवि धमिल हुई और जनता की नज़र में कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्ट नेता का अंतर मिट गया। माणिक सरकार ने इस अंतर को मिटने नहीं दिया है। वह आज भी सच्चे कम्युनिस्ट की तरह अपने मुख्यमन्त्री के वेतन में से सिर्फ पांच हज़ार रूपये अपना घर चलाते हैं और शेष राशि पार्टी फण्ड में जमा करवा देते हैं। इस तरह जनता कामरेड में अपना सही नेता तलाश करती है। जहां ऐसे नेता दुर्लभ हो गये वहां जनता ने कम्युनिस्ट सरकारों को सत्ता से बेदख़ल भी कर दिया। लेकिन सिर्फ व्यक्तिगत ईमानदारी से काम नहीं चलता। इस मामले में मनमोहन सिंह भी लगभग साफ माने जाते हैं लेकिन माणिक सरकार में जो लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली है उसका मनमोहन सिंह में अभाव है जिसके चलते मनमोहन के पास गरीबों के लिए सिर्फ शब्द हैं और माणिक सरकार सरकार की मुश्किलों को जनता से सांझा करके हरेक काम में पारदर्शिता बनाये रखकर जनता का विश्वास अर्जित करते है। यही कारण है किखुद मनमोहन सिंह को माणिक सरकार की तारीफ करते हुए कहना पड़ा कि त्रिपुरा में साक्षरता मनरेगा और खाद्य आपूर्ति के मामलों में अत्यंत सराहनीय कार्य हुआ है। त्रिपुरा देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां आधार कार्ड का काम नव्वे प्रतिशत से ज़्यादा पूरा किया जा चुका है इसलिए इस राज्य को केन्द्रीय सरकार की लोकहितकारी योजनाओं को लागू करने में अड़चन नहीं आती इसलिए त्रिपुरा सरकार को चौबीस राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। क्या सुशासन का यह ऐसा मॉडल नहीं है जिसकी देश को तात्कालिक आवश्यकता है ?
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