जेल, फावड़ा और वोट का संतुलन नदारद
जेल, फावड़ा और वोट का संतुलन नदारद
Friday, 20 July 2012 11:11 |
अरविंद मोहन जनसत्ता 20 जुलाई, 2012: यह एक अच्छा अवसर था जब राजनीति के हाल के बदलावों पर ढंग से चर्चा की जाती, पर हुआ ठीक उलटा कि मायावती और मुलायम सिंह फिर से चुनाव की तैयारियों की चर्चा में लग गए। दोनों दलों को हाल में संपन्न स्थानीय निकाय चुनाव में हिस्सा लेना पसंद नहीं आया, पर दोनों ही अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी में लग गए हैं। समाजवादी पार्टी ने तो 2014 के चुनाव के लिए आवेदन लेने बंद भी कर दिए हैं और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह की मर्जी से ही कोई नया उम्मीदवार बन सकता है। यह नियम भी घोषित हो चुका है कि किसी विधायक और मंत्री को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं होगी। इसके साथ ही बसपा की चुनाव तैयारियों की बैठक आयोजित होने की खबर भी आ गई। बसपा इस मोर्चे पर ज्यादा चौकस रहती है। उसने प्रदेश अध्यक्ष बदलने के साथ अभियान समिति और यात्राओं की तैयारी भी कर ली है। भाजपा भले निकाय चुनाव जीतने की खुशी जताए, पर लोकसभा की बात उसके सपने में भी नहीं है। कांग्रेस के लिए भी नेताओं का रुख उत्तर प्रदेश से दूर है। आय से अधिक संपत्ति मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बसपा नेता मायावती को मुक्त करने और सीबीआई की खिंचाई करने पर मायावती समेत उनके समर्थकों का खुश होना और उनके राजनीतिक विरोधियों का दुखी होना स्वाभाविक है। अदालत द्वारा ऐसा फैसला देना भी स्वागतयोग्य है, जिसमें राजनीति की स्पष्ट बू आ रही हो और जो नौ वर्ष तक लटके रह कर एक बेमतलब तनाव बनाए हुए था- मायावती के लिए भी और औरों के लिए भी। और लटका हुआ मामला अनेक प्रकरणों में मायावती से ऐसे फैसले करा रहा था, जिसमें इसका डर बहुत साफ दिखाई देता था। लेकिन यह सब कह-सुन लेने के बाद भी यही कहना सबसे मुनासिब होगा कि यह पूरा प्रकरण भारतीय राजनीति और इसमें आज बड़े पैमाने पर शामिल नाजायज पैसे के खेल पर रोक के हिसाब से बहुत गलत नजीर पेश करता है और इससे ऐसे धन पर रोक लगाने के प्रयासों को न सिर्फ धक्का लगा, बल्कि उनका मजाक उड़ा है। मायावती पर ताज कॉरिडोर मामले में आमदनी से अधिक संपत्ति का मामला सीबीआई ने क्यों दायर किया इसकी सफाई उसे देनी चाहिए, क्योंकि अदालत का निर्देश राज्य सरकार के फैसले के खिलाफ जांच और मुकदमे का था। तब केंद्र में राजग की सरकार थी और यह आरोप लगा कि मायावती को परेशान करने और उन पर अंकुश रखने के लिए सीबीआई का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। अब भी पहला मुकदमा चल रहा है और उसमें अगर अदालत माया सरकार के फैसले को गलत बता देगी तब क्या होगा! गलत फैसले की जवाबदेही सरकार के मुखिया पर ही आएगी। दूसरे, मायावती की जो घोषित आय है वह भी हैरान करने वाली है और अघोषित की तो सिर्फ मुहांमुहीं चर्चा सुनाई देती है, और जो धन उनके पास सत्ता में रहने के दौरान आया है वह किसी कमाई या साफ दिखने वाली खेती या उद्योग-व्यापार से नहीं आया है। इसलिए भले उनके अंध समर्थक उनकी स्मृद्धि की बेहिसाब वृद्धि से प्रसन्न हों अन्य सभी इसे शक की निगाह से ही देखते हैं। अकेले मायावती का ऐसा मामला नहीं है। लालू और मुलायम समेत काफी सारे नेताओं पर मुकदमे चल रहे हैं और इन सबमें सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप भी लगता रहा है। सबसे चर्चित मामला आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड््डी के पुत्र जगन मोहन रेड््डी की बेहिसाब संपत्ति और उनके खिलाफ चलने वाले मुकदमों-छापों का है। लेकिन जगन ने इसे राजनीतिक रूप देकर कांग्रेस के पसीने छुड़ा दिए हैं। जगन के पास गलत धन न हो यह कहना मुश्किल है, क्योंकि जितनी संपत्ति सामने आ रही है वह बहुत सही ढंग से अर्जित ही नहीं की जा सकती और न आंध्र के इस सबसे चर्चित परिवार के घोषित तरीकों से कमाई कही जा सकती है। रेड््डी परिवार ने कभी यह जाहिर नहीं किया था कि उसके कितने कारोबार हैं और वह कितनी जगहों पर कितना सारा पैसा लगाए हुए है। जिस रफ्तार से हमारे सांसदों-विधायकों की घोषित संपत्ति बढ़ी है उस रफ्तार से अगर मुल्क का जीडीपी बढ़ता तो क्या कहने थे। इसलिए सिर्फ सीबीआई को दोष देने से काम नहीं चलेगा। सीबीआई गलतियां करती है, पर ज्यादा गलतियां उससे कराई जाती हैं। आज विपक्ष में बैठी भाजपा यह गलती कराने का दोष कांग्रेस पर मढ़ती है, लेकिन जैसा कि मायावती मामले में दिखा, जब उसकी चलती थी तब वह भी अपनी सत्ता का दुरुपयोग करने में पीछे नहीं रही। बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोपी लालकृष्ण आडवाणी के जिम्मे पूरे समय गृह मंत्रालय का काम रहा, जिसके अधीन सीबीआई है और जिसे चार्जशीट दायर करनी थी। वह भी एक बड़ा दुरुपयोग और अनैतिक काम था। और कांग्रेस ने परमाणु करार मामले पर सरकार को बचाने से लेकर कई मामलों में मुकदमों और सीबीआई का दुरुपयोग किया है। आज गलत धन के मामले में दिवंगत वाईएसआर का नाम मजे से लिया जाता है, लेकिन टूजी समेत अनेक मामलों में प्रमोद महाजन का नाम लेने से सिर्फ यह कह कर परहेज किया जाता है कि वे अब दिवंगत हो चुके हैं। अचरज नहीं कि इसमें अक्सर कथित राष्ट्रीय पार्टियां खेल करती दिखती हैं और क्षेत्रीय सूरमा शिकार होते हैं। कई बार तो यह घटिया तर्क दिया जाता है कि इन पिछड़े लोगों को पैसा लेना भी नहीं आता। यह संयोग नहीं है कि शिबू सोरेन हों या बंगारू लक्ष्मण, मायावती हों या मुलायम और लालू हों या ए राजा जैसे लोग ही फंसते दिखते हैं। अब इन लोगों ने अगर भ्रष्टाचार किया है तो इनको या इन जैसे सभी लोगों को पकड़ना, दंडित करना चाहिए, इनसे जनता के धन की वसूली होनी चाहिए, पर सिर्फ यही दोषी हों या पकड़े जाना ही उनका गुनाह हो तो यह व्यवस्था पूरी जांच और धर-पकड़ की प्रणाली को सवालों के घेरे में लाती है। और फिर चोरी न पकड़े जाने से ज्यादा नुकसान इस चीज से होता है कि चोरी मुख्य मुद्दा ही नहीं रह जाता। फिर राजनीतिक भेद और जातिगत-सामाजिक भेद ऊपर आ जाते हैं और राजनीति में गलत पैसे की बात कहीं सिर्फ खिलवाड़ बन कर रह जाती है। और इस चक्कर में यह सवाल तो कहीं उठता ही नहीं कि क्या राजनीति सिर्फ वोट पाने और उसके लिए जरूरी पैसे जुटाने का खेल है? जब से यह चलन शुरू हुआ है तभी से क्यों सारी वैचारिक राजनीति विदा हो गई है और संघ और कम्युनिस्ट जमातों में भी पैसे वालों का जोर बढ़ा है। संघ अपनी गुरुदक्षिणा के लिफाफों पर यह संकेत देने लगा है कि कौन कितनी गुरुदक्षिणा देता है, पर वह भी सवाल नहीं करता कि यह धन कैसा है। बात इतनी होती तब भी माफ किया जा सकता था- बोरी भर कर दक्षिणा देने वालों की ज्यादा पूछ होने लगी है। विजयन-अच्युतानंदन में माकपा नेतृत्व क्यों विजयन के साथ रहता है, यह पहेली नहीं है। आते ही प्रमोद महाजन भाजपा पर यों ही नहीं छा गए थे। कांग्रेस में मुरली देवड़ा और अहमद पटेल की पूछ भी धन इकट््ठा करने के उनके कौशल से जुड़ी है। अमर सिंह मुलायम के और प्रेम गुप्ता लालू यादव के यों ही दुलारे नहीं हो जाते। गौर से देखने पर यह भी मिलेगा कि साठ के दशक के अंत से जब राजनीति में पैसे, बाहुबल और जाति-धर्म का जोर बढ़ना शुरू हुआ है तभी से संघर्ष करने वालों, रचनात्मक काम करने वालों, पढ़ाई-लिखाई करके संगठन और पार्टी में ऊंची जगह पाने वालों की पूछ घटी है और अमर सिंह, प्रेम गुप्ता, मुरली देवड़ा-केसरी जैसों की चलती शुरू हुई है। तभी से कामदेव सिंह से बूथ कब्जा कराने की जरूरत पड़ने लगी, जो आज कई विधानसभाओं में करीब आधी तादाद अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों की होने तक पहुंच गया है। पार्टियां अपने बुलेटिन और विज्ञप्तियां बाहरी एजेंसियों से बनवाने लगी हैं। चुनाव की रणनीति के लिए मार्केटिंग एजेंसियों की सेवा लेने में किसी को शर्म नहीं आती। यह काम कांग्रेस और भाजपा ही नहीं कम्युनिस्ट पार्टियों में और छोटी कही जाने वाली पार्टियों में भी होने लगा है। हर चुनाव मीडिया और मार्केटिंग वालों के लिए भारी कमाई का अवसर बन जाता है। फिर तो हम-आप भी यह सवाल नहीं पूछते कि आज की राजनीति में संघर्ष वाला, जनता के मुद्दों को लेकर जेल जाने वाला दौर क्यों गायब हो गया है। मायावती जितने दिन विपक्ष में रहती हैं सचमुच कुछ नहीं करतीं। कभी जनता या दलितों के लिए जेल जाना या संघर्ष करने का उनका रिकार्ड नहीं है- उल्टे अगर कोई सक्रिय होता लगे तो उसे ठिकाने लगाने की चिंता उन्हें जरूर होती है। पर वही क्यों, संसद और सड़क का अंतर तो सभी भूल गए हैं। कौन मसला कहां उठना चाहिए यह नहीं समझने के चलते ही संसद और विधानसभा अखाड़ों में तब्दील हो चुके हैं। और फिर इसी देश में गांधीजी रचनात्मक कामों को राजनीति का मुख्य हिस्सा मानते थे या लोहिया जेल, फावड़ा और वोट को राजनीति के तीन हथियार बताते थे यह तो लोग भूल ही गए हैं। वोट जरूरी है, वोट की राजनीति के लिए पैसे जरूरी हैं, लेकिन वही मुख्य कर्म और मुख्य राजनीति में बदल जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी। यही होता लग रहा है।
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