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Friday, October 15, 2010

ऐश्‍वर्य और अय्याशी के इन दिनों में एक बौद्धिक अश्‍लीलता

ऐश्‍वर्य और अय्याशी के इन दिनों में एक बौद्धिक अश्‍लीलता

http://mohallalive.com/2010/10/13/arvind-shesh-react-on-archana-vermas-scale-about-mayavati-and-sheila-dixit/

13 October 2010 13 Comments

अर्चना वर्मा के अश्लीलता के तराजू पर मायावती और शीला दीक्षित!

♦ अरविंद शेष

एक तो कथादेश के अप्रैल अंक का प्रसंग है और अप्रैल बहुत पहले गुजर चुका है। दूसरे, अरविंद शेष की यह प्रतिक्रिया काफी पहले आयी थी, लेकिन हमने बेवजह अभी तक इस पेंडिंग रखा था। आज इसे यहां दे रहे हैं, क्‍योंकि इससे अधिक विलंब एक विचारोत्तेजक और जरूरी प्रतिक्रिया के रास्‍ते में बाधा बन जा सकता था। कॉमनवेल्‍थ एकाध दिन और जारी है, इसलिए यह लेख अभी सर्वाधिक प्रासंगिक है : मॉडरेटर

थादेश के इसी साल के अप्रैल अंक में शलाका सम्मान विवाद के संदर्भ में साहित्य की राजनीति पर प्रकाश डालते हुए अर्चना वर्मा ने इस मुद्दे पर बड़ी गंभीरता से प्रकाश डाला था कि श्लील और अश्लील क्या है – [ यह ख्याति कृष्ण बलदेव वैद के हिस्से में बदी थी ]। उनका कहना है कि रचना के संदर्भ में शील, श्लील और अश्लील का निर्णय करने का अधिकार किसके पास है।

इसके बाद रचना जगत में श्लील और अश्लील के पैमाने का विश्लेषण करते हुए इस बहस के दायरे को विस्तार देते हुए वे कहती हैं – "अश्लील को हमने मोटे तौर पर लिंग और लैंगिकता और देह और लालसा तक सीमित करके अपने नैसर्गिक अस्तित्व को स्वयं अपने लिए तो अवरुद्ध कर ही लिया है, अपने आसपास कोने-कोने में बिखरी अश्लीलता को देखने और उसके प्रति असहिष्णु होने की क्षमता खोकर उसे निर्बन्ध फलने-फूलने-फैलने की इजाजत भी दे दी है।"

इसके बाद वे उदाहरण सहित अश्लीलता के इस पहलू पर प्रकाश डालती हैं – "…वरना मार्च महीने की पंद्रह-सोलह तारीखों में हर न्यूज चैनल, हर समाचारपत्र के मुख पृष्ठ पर मायवती के मुस्कुराते मुखड़े को घेरे हजार-हजार के नोटों से गुंथी बारह-बाईस-इक्यावन करोड़ की विराटकाय माला से अधिक अश्लील क्या हो सकता है।"

(बारह-बाईस-इक्यावन…!!! बारह के बाद सीधे बाईस, यानी दस और उसके बाद मामला सीधे इक्यावन यानी एक कम उनतीस फर्लांग आगे जाकर गिरता है…। मेरा कमअक्ल दिमाग एक-डेढ़ करोड़ के जुमले पर भी पगलाने लगता है यह जान कर कि एक और डेढ़ करोड़ के बीच में पचास लाख का फासला है। बहरहाल…)

इसके बाद वे कहती हैं – "…इस सिलसिले में समरेश बसु का बांग्ला उपन्यास "बैरंग और लावारिस" भी याद आता है। अपने इस उपन्यास में उन्होंने खोखले वैभव के तथाकथित सभ्य सुसंस्कृत सर्वांग-सुंदर शिष्ट सलीके को सड़ांध और अश्लीलता की तरह देखा है।"

"लोलिटा" और मिरांडा हाउस की छात्रा

इस प्रसंग के पहले वे दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि, संस्कार को असंदिग्ध मानते हुए कवि-पत्रकार विमल कुमार की दी गयी सूचना की मार्फत बताती हैं कि माननीया मुख्यमंत्री उसी मिरांडा हाउस की छात्रा रही हैं, जिसकी छात्राओं को पंडित नेहरू से नोबोकोव की रचना 'लोलिटा' और जेम्स जॉयस की रचना 'यूलिसिस' पर से प्रतिबंध हटवाने का श्रेय जाता है।

देश की राजधानी में महिलाओं के बलात्कार या छेड़छाड़ को लेकर उठाये गये सवाल पर माननीया मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ये खयाल शायद कुछ लोगों को याद हो, जिसमें उन्होंने कहा था कि लड़कियां अगर देर रात बाहर घूमेंगी, तो उन्हें खतरे का सामना तो करना ही पड़ेगा। अब माननीया मुख्यमंत्री के इस खयाल को उनके 'लोलिटा' और 'यूलिसिस' पर से प्रतिबंध हटवाने वाली छात्राओं की पुण्यस्थली मिरांडा हाउस की निवासी रह चुकी एक 'बोल्ड' महिला के खयाल के रूप में मत देखिएगा। वरना 'लोलिटा' से बिखरते बोल्डनेस का पर्दा उतर जाएगा।

अब शीला दीक्षित के "असंदिग्ध सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि और संस्कार" को अर्चना वर्मा के ही अश्लीलता के तराजू पर रखते हैं। हजार-हजार के नोटों से गुंथी "बारह-बाईस-इक्यावन" करोड़ की विराटकाय माला से घिरे मायावती के मुस्कुराते मुखड़े से अधिक अश्लील क्या हो सकता है।

हम अपनी ओर से मायावती के आंबेडकर पार्क आदि की योजना को भी उस 'बारह-बाईस-इक्यावन' करोड़ की विराटकाय माला के आसपास खड़ा कर देते हैं।

…लेकिन अब अर्चना वर्मा ही बताएंगी कि उनकी अश्लीलता के इसी तराजू पर असंदिग्ध सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि और संस्कारों से लैस दिल्ली की माननीया मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का वजन कितना है।

सांस्कृतिक सूझ-बूझ, रुचि और संस्कार

पिछले महज दो सालों से जिन लोगों की निगाह दिल्ली और दिल्ली के बाजार पर होगी, वे जानते होंगे कि शीला दीक्षित की सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि और संस्कार किसको-किसको निगल कर किसको समृद्ध बना रहे हैं।

करीब साढ़े सात सौ करोड़ रुपये का वह धन राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों के मद में घुसा दिया गया जो दलितों के विकास के लिए था।

अर्चना वर्मा को यह अश्लील नहीं लगेगा, क्योंकि इसे अंजाम देने वाली शख्सियत की सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि और संस्कार असंदिग्ध मानी जाती है।

यमुना बन गयी टेम्स

अभी तो छिट-पुट रिपोर्टें आनी शुरू ही हुई थी कि यह राष्ट्रमंडल खेल किस तरह भ्रष्ट कारनामों की एक गंगा लेकर आयी है, जिसमें समूची शीला दीक्षित सरकार ऊब-डूब रही है, कि "मीडिया राहत कोष" की सरकारी घोषणा हो गयी और अचानक ही अखबारों और टीवी चैनलों को राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने संवरती दिल्ली सुहाने लगी। अगर छिपाने लायक होता तो शायद ध्वस्त हो गया वह फ्लाईओवर भी छिपा लिया गया होता। आखिर लाखों झुग्गियों से दिल्ली को चुपचाप 'मुक्ति' दिला दी गयी न…!!!

यमुना किनारे बसी झुग्गियों से यमुना की आबोहवा बिगड़ रही थी, अब पर्यावरण नियमों के तमाम तकाजों को ताक पर रख कर कछार में बनायी गयीं करोड़ों-अरबों की अट्टालिकाएं और अक्षरधाम मंदिर यमुना को टेम्स बना रहे हैं! मेरा कमअक्ल दिमाग अभी तक तो पता नहीं लगा पाया है कि जब हरियाणा बाढ़ में डूब रहा था, तब हथिनीकुंड से दो लाख या छह लाख या सात लाख क्यूसेक पानी क्यों नहीं छोड़ा गया। और जब हरियाणा में पानी उतर गया तो पानी छोड़ने की जल्दी हो गयी। जल्दी-जल्दी कई बार छह-सात या आठ लाख क्यूसेक पानी छोड़े जाने से कोई बस्ती डूबे तो डूबे, (और बस्ती भी क्या कोई ग्रेटर कैलाश डूब रही थी कि नदी की धार मोड़ दी जाती…!)

दिल्ली की जो यमुना दशकों से महान कार्ययोजनाओं और हजारों करोड़ रुपये अपने साथ बहा ले जाने के बावजूद जहरीला नाला की नाला रही, वह इसी तीन बार पानी छोड़े जाने के बाद अब फिलहाल तो नदी की तरह दिखने ही लगी है। अभी खेलगांव के स्वर्ग में बनी अट्टालिकाओं से परदेसी मेहमान दिल्ली की इस टेम्स में आंखों से नहाएंगे, फिर इनके जाने के बाद हमारे देसी राजागण इस यमुना जी से अपने रक्त को शुद्ध करेंगे।

दस दिन की अय्याशी…

इस दस दिन की अय्याशी के लिए जिस तरह दिल्ली को लूटा गया है, दुनिया के इतिहास के इस सबसे बड़े घोटाले का सही ब्योरा तो शायद ही कभी आये। लेकिन सिर्फ लूट के मकसद से आयोजित इस खेल का खमियाजा जिस-जिस को उठाना पड़ रहा है, उसकी हूक भी शायद किसी को न सुनाई दे। मंदी से सारी दुनिया के तबाह होने की खबरें आ गयीं, लेकिन एक सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि और संस्कार वाली महिला के नेतृत्व में दिल्ली अनवरत दस दिन की अय्याशी के इंतजाम में लगी रही। मंदी की मार देखिए कितनी सुहानी होती है कि साढ़े चार सौ करोड़ की शुरुआती लागत अब एक लाख करोड़ के आंकड़े को भी पार कर रही है और अंदाजा लगाया जा रहा है कि आखिर तक यह ढाई लाख करोड़ तक जाएगी। यह रकम कुलांचे भरती हुई आगे, और आगे जा रही है तो क्यों जा रही है और इसमें कितना किधर जा रही है, यह बात पता नहीं कभी सामने आ भी पाएगी या नहीं।

यह असंदिग्ध सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि और संस्कारों का नतीजा है!

रहना है तो रहो, नहीं तो भागो…

अर्चना वर्मा को इससे क्या फर्क पड़ता है कि बिहारीलाल जितनी दूरी दस रुपये में तय करता था, उसके लिए अब उसे अट्ठाइस रुपये चुकाने पड़ते हैं। मुंगेरी लाल अब अपने घर और फैक्ट्री के बीच की दूरी में से छह किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर लेता है और इससे उसे हर रोज चौदह-पंद्रह रुपये की बचत होती है, यानी लगभग साढ़े चार सौ रुपये। बिहारी लाल और मुंगेरीलाल पिछले तीन साल से तीन हजार रुपये महीने की तनख्वाह पर अटके हुए हैं।

मकानमालिक ने साल भर के भीतर दूसरी बार किराया बढ़ा दिया कि भइया अब तो मेट्रो यहां से शुरू हो गयी। दो सौ रुपये बढ़ाओ और इतने में रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ…।

राशन की दुकान वाला कहता है कि फलां चीज का दाम इतना हो गया है, लेना है तो लो, नहीं तो जाओ…।

दस की जगह अब बस का कंडक्टर अट्ठाइस रुपये कॉलर पकड़ के वसूलता है और गाली देके कहता है कि इतने पैसे लगेंगे… देना हो दो, नहीं तो उतर जाओ।

और… दो लाख रुपये महीना पाने वाला इनका बॉस अब कहता है कि इतने पैसे में काम करना है तो करो, नहीं तो जाओ…।

इन रोज-रोज की जलालतों को झेलने वाले मुंगरीलाल और बिहारीलाल अब हार रहे हैं अर्चना जी। चूंकि तमाम झुग्गी-झोपड़ियां उजाड़ दी गयी हैं, इसलिए जैतपुर गड्ढा कॉलोनी जैसे मोहल्ले को छोड़ कर वे किसी गंदे नाले के किनारे बसी झुग्गी बस्ती में किराये का मकान ढूंढ़ने नहीं जा सकते। जो किसी तरह (सरकार की दया नहीं, उसके पास समय की कमी के कारण) कहीं बच गयी थीं, उन्हें छिपाने के लिए घने बांस लगाये गये और अब बड़े-बड़े होर्डिंग उनके चेहरे को विदेशी मेहमानों की निगाह से बचाये रखेंगे। शायद इसलिए कि वे यह देखने से बच सकें कि गुलामी के लंबे दौर से आजादी हासिल करने वाले इस देश में आज भी गुलामी के दौर की सबसे बदतरीन तस्वीर जिंदा मौजूद है।

दस-बारह दिन की अय्याशी के लिए किये गये इंतजामों का असर सड़कों पर सबसे बदतरीन हालात के साथ मौजूद हैं। खास सड़कें, खास गाड़ियां, खास लोग… सड़कों पर ऐसा आतंक रच दिया गया है कि जिनके पास अपनी कार है, वे भी डरते-डरते निकल रहे हैं। बड़े पैमाने पर ब्लूलाइन बसों को सड़कों से हटा लिया गया है। एकाध डीटीसी बस अगर दिखाई भी पड़ती है तो रूई की तरह लोगों से ऐसी ठुंसी होती है कि सड़क पर मूक खड़े उसे देखने के सिवा कोई चारा नहीं। (जरा बस में सफर करने वाली कामकाजी स्त्रियों के बारे सोचिएगा कभी) हां, सभी डिपो में चमकती देश की नाक बनी हुई लाल-हरी शान बसें खड़ी हैं या फिर परदेसी मेहमानों के आगे-पीछे चक्कर लगा रही हैं, ताकि मेहमान खुश होकर जाएं।

भुखमरो… वापस जाओ…

सड़कों पर घर से दफ्तर या फैक्ट्री या दुकान की नौकरी पर जाने के लिए छटपटाते-रिरियाते, रोते-कलपते, सिर धुनते लोगों की क्या औकात…! ज्यादा से ज्यादा नौकरी से ही मालिक निकालेगा न…! ज्यादा से ज्यादा भूख का ही सामना करना पड़ेगा न…! दिल्ली सरकार अपनी कवायद से गांव वापस जाने के लिए ट्रेनों की कमी नहीं पड़ने देगी। दिल्ली का आंकड़ा आएगा कभी, गुड़गांव से बीस फीसद कामगार पिछले हफ्ते भर में गायब हो गये। क्यों…? कितने लोग चले गये… कितने लोगों के लिए यह "दिल्ली ये… मेरी जान… " अब फिर कितनी दूर हो गयी… कौन जानता है…!!!

एक असंदिग्ध सांस्कृतिक सूझ-बूझ, रुचियों और संस्कार वाली माननीया मुख्यमंत्री ने यह मान लिया है कि दिल्ली में लोग बस में शौक से चढ़ते हैं, इसलिए साठ या सत्तर लाख खर्च कर चमकदार शाही हरियाली बसें और इससे ज्यादा सुख देने वाली एयरकंडीशंड लाल बसों का इंतजाम किया गया है। और अगर कभी बसों की तकलीफ होगी तो कुछ दिन अपनी कार से जाएंगे। (दिल्ली उनकी है, जिनके पास कार है) अपने दिल से जानिए, पराये दिल का हाल…। दिल्ली की अय्याशी का इंतजाम हो चुका है, तो बाकी सबको भी इसमें झूमना ही पड़ेगा। ठीक उसी तरह, जिस तरह हाल ही में एक दोपहर दिल्ली की बाढ़ में डूबते एक इलाके का दौरा करके लौटी असंदिग्ध सांस्कृतिक सूझ-बूझ, रुचियों और संस्कार वाली यह माननीया मुख्यमंत्री शाम को पलाश सेन के साथ एक गीत "दिल्ली मेरी जान…" के धुन पर ठुमक रही थीं और गुनगुना रही थीं। और ओलंपिक के लिए तैयार मंडली के साथ खड़ी मुंह में उंगली लगा कर सीटी बजा रही थी।

अश्लीलता का पैमाना लेकर मायावती जैसों की माप बताने निकली अर्चना जी जैसों को बताना चाहिए कि उसी पैमाने से दिल्ली की इस असंदिग्ध सांस्कृतिक सूझ-बूझ, रुचियों और संस्कारों वाली माननीया मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, और इसके बाद भारत की सरकार का चेहरा कैसा दिखता है…!

arvind shesh(अरविंद शेष। युवा पीढ़ी के बेबाक विचारक। दलितों, अल्‍पसंख्‍यकों और स्त्रियों के पक्षधर पत्रकार। पिछले तीन सालों से जनसत्ता में। जनसत्ता से पहले झारखंड-बिहार से प्रकाशित होने वाले प्रभात ख़बर के संपादकीय पन्‍ने का संयोजन-संपादन। कई कहानियां भी लिखीं। उनसे arvindshesh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


[14 Oct 2010 | One Comment | ]
लिखो कि झारखंड कितना रिचार्ज हुआ, कितना डिस्‍चार्ज
ऐश्‍वर्य के इन दिनों में एक बौद्धिक अश्‍लीलता
[13 Oct 2010 | Read Comments | ]

अरविंद शेष ♦ इस दस दिन की अय्याशी के लिए जिस तरह दिल्ली को लूटा गया है, दुनिया के इतिहास के इस सबसे बड़े घोटाले का सही ब्योरा तो शायद ही कभी आये… यह असंदिग्ध सांस्कृतिक सूझ-बूझ, सुरुचि और संस्कारों का नतीजा है!

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अविनाश ♦ उनसे सवाल करने वाले कई युवा साथी थे, जिनके जवाब देते हुए राजेंद्र जी ने कहा कि आप लिखो कि झारखंड बनने के बाद यह राज्‍य रिचार्ज होने के मुकाबले कितना डिस्‍चार्ज हुआ है।
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नज़रिया »

[14 Oct 2010 | 3 Comments | ]
निष्पक्ष दृष्टिकोण जैसी कोई चीज नहीं होती

एडवर्ड सईद ♦ कभी कभी हमें महसूस होता है कि हम खबरों के समुद्र में डूब रहे हैं, कभी कभी ये खबरें अतंर्विरोधी तथा आमतौर पर दुहराव भरी व एक खास आग्रह से युक्त होती है। लोक कला व लोक चिंतन के ये क्षेत्र राजनीति व स्वार्थ के मांगों के अनुरूप तेजी से ढल रहे हैं। समाचार पत्रों व सरकार में बेठे लोगों के बयानों में से यह सब चीजें विश्व स्तर पर देखने को मिलती हैं। चाहे वे टीवी इश्तेहार हो, टीवी समाचार हो या वृत्तचित्र हो लोक प्रतिनिधित्‍व की सभी व्यवस्थाओं में खबरें तैयार करने वाले निर्माताओं के हित स्पष्ट तौर पर झलकते हैं। मैं समझता हूं कि इस बारे में हमारा दिमाग बहुत साफ होना चाहिए। निष्पक्ष दृष्टिकोण जैसी कोई चीज नहीं होती।

uncategorized »

[13 Oct 2010 | Comments Off | ]

नज़रिया, मोहल्ला दिल्ली »

[13 Oct 2010 | 4 Comments | ]
झूठी शान पर गंदा परदा, आइए गौर करें…

वीना ♦ उदघाटन समारोह के बाद विदेशियों के होंठ खुले तो भारत की वाहवाही करने और उसे ओलंपिक की मेजबानी का दावेदार मानने के लिए ही। समारोह के सीधे प्रसारण के समय डीडी न्यूज के एंकर ने देश को बताया कि यह भव्यता और इसके लिए की गयी मशक्कत आम आदमी को समर्पित है। वाह, क्या ठाठ हैं आम आदमी के! आखिर कौन है राष्ट्रमंडल खेलों की भव्यता का 'हकदार' यह आम आदमी? सोनिया गांधी ने जिसका नामकरण किया, पूरी कांग्रेस जिसका उद्धार करने में लगी है, शीला दीक्षित ने जिसे विश्व सम्मान दिलाने के लिए रातदिन मेहनत की, इल्जाम सहे, जिसकी खातिर कलमाड़ी बदनाम हुए, उसे पहचानने-समझने को मन बेचैन है। पर इसकी शिनाख्त कैसे की जाए?

uncategorized, नज़रिया, शब्‍द संगत »

[12 Oct 2010 | 18 Comments | ]
फणीश्‍वर नाथ रेणु के बेटे ने भाजपा से टिकट लिया

डेस्‍क ♦ यह रपटनुमा विश्‍लेषण इस बात पर जोर देता है कि भाजपा अगर किसी सेकुलर पृष्‍ठभूमि वाले व्‍यक्ति को टिकट देती है, तो भाजपा के धतकर्मों को भूलकर उस व्‍यक्ति को वोट देना चाहिए। ऐसे मामलों में विचारधारा का प्रश्‍न खड़ा नहीं करना चाहिए। यानी यह रपट एक तरह से राजनीति की बेसिक समझदारी के साथ एक मजाक है – फिर हम इसलिए इसे छाप रहे हैं क्‍योंकि मोहल्‍ला लाइव में छापने के लिए आग्रहपूर्वक भेजा गया है। हमारा मानना है कि वेणु जी को भाजपा से टिकट नहीं लेना चाहिए था और रेणु जी की विश्‍वसनीयता किसी भी पार्टी और विचारधारा से बड़ी है, तो उनके नाम पर राजनीति की नदी में उतरने के लिए उनके वंशजों को भाजपा की नाव पर बैठने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

नज़रिया, विश्‍वविद्यालय, शब्‍द संगत »

[12 Oct 2010 | 15 Comments | ]
वर्धा में साहित्य सूर्य की रश्मियों के स्पेक्ट्रम जैसे दो दिन

राजकिशोर ♦ दो और तीन अक्टूबर को श्रेष्ठता का जो समवाय दिखाई पड़ा, उसके प्रभाव का वर्णन किये बिना मैं रह नहीं सकता। करीब चालीस लेखक बाहर से आये थे – नामवर सिंह से लेकर दिनेश कुशवाहा तक। मानो साहित्य सूर्य की रश्मियों का पूरा स्पेक्ट्रम खुल गया हो। सबकी अपनी-अपनी छटा थी। इन छटाओं की खुशबू ने जैसे विश्वविद्यालय के वातावरण को अपनी घनी उपस्थिति से भर दिया हो। सभी की चेतना का स्तर अचानक कुछ ऊपर उठ चला। रोजमर्रा की बातचीत के बीच अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, फैज वगैरह हमारे बीच आ बैठे। यह कुछ-कुछ ऐसे ही था, जैसे कोई सच्चा संत गांव में आता है, तो गांव का माहौल अपने आप बदल जाता है… या किसी पुस्तकालय में पैर रखते हैं तो मानसिकता बदल जाती है।

असहमति, नज़रिया »

[11 Oct 2010 | 20 Comments | ]
बरसाती नदियां बहुत धोखेबाज होती हैं नीलाभ जी

मृणाल वल्‍लरी ♦ नीलाभ जी कहते हैं कि 'विवाह का टूटना या उसमें विकृतियों का पैदा होना केवल एक पक्ष की ही जिम्मेदारी नहीं होता, भिन्न मात्राओं में स्त्री-पुरुष और उनके साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द का समाज भी जिम्मेदार होता है।' और फिर यह भी कहते हैं कि 'दो व्यक्ति का संबंध और फिर संबंध-विच्छेद कोई सार्वजनिक विश्लेषण और निष्कर्ष प्रतिपादन का मामला नहीं होता।' किसी घटना के लिए समाज जिम्मेदार, लेकिन उस पर सार्वजनिक विश्लेषण नहीं। यानी इस देश की तमाम परिवार अदालतों को भंग कर देना चाहिए, विवाह-विच्छेद या तलाक से संबंधित विवादों की अर्जी खारिज कर देनी चाहिए, और किसी स्त्री-पुरुष के विवाह संबंध बने रहने चाहिए या नहीं, अदालतों को इस बारे में कोई निष्कर्ष नहीं देना चाहिए!

नज़रिया, सिनेमा »

[11 Oct 2010 | 14 Comments | ]
कुछ बोल्‍ड दृश्‍य थे, लेकिन फुसफुसाहटें नहीं थीं, ठहाके थे

विनीत कुमार ♦ हीरो और हीरोइन बिल्‍कुल नंगे एक-दूसरे से लेटे-लिपटे जा रहे हैं और पीछे बैठी स्त्रियां फुसफुसाना शुरू करती हैं – बोल्ड सीन है। दूसरी ने कहा कि हां, इंग्लिश फिल्मों में ऐसा होती ही होता है जबकि लड़कियों के ठहाके साफ कर देते हैं कि मर्डर जैसी हिंदी फिल्म में ये तो कॉमन है। फिर इरफान हाशमी, मल्लिका शेरावत पैसे किस बात के लेते हैं? इतना तो छोड़ो, अब तो हीरोइन गद्दे लेकर खेत भी जाने लगी है। मुझे लग रहा था कि दुपट्टे दुरुस्त करनेवाली तब की लड़कियां अब अधेड़ फुसफुसानेवाली महिला में तब्दील हो चुकी है और टीनएजर्स और कॉलेज की लड़कियों की बिल्कुल एक नयी खेप पैदा हो रही है, जो कि इनसे जुदा है। ऐसे सीन्स को देखकर उनकी कनपटी लाल नहीं होती बल्कि इसे इजी टू सी मानकर आगे बढ़ जाती है।

शब्‍द संगत »

[11 Oct 2010 | 31 Comments | ]
मेरे घर के रास्ते में क्यूं पड़ता है राम का घर!

समर ♦ कर्फ्यू कम ही लगता है यहां। इतिहास गवाह है कि अयोध्या-फैजाबाद नामक जुड़वां शहरों में 1992 के पहले कभी कोई दंगा नहीं हुआ। बाद में भी सिर्फ एक, और वह भी बाहर से आये 'कारसेवकों' ने किया। कर्फ्यू की हालत में बस शहर 'सील' हो जाता है। सारी सीमाएं बंद। कोई गाड़ी, कोई व्यक्ति इधर से उधर नहीं जाएगा। और ये 'बाहरी' लोग नहीं आएंगे तो अमन चैन सलामत रहेगा। साल तो नहीं याद पर सावन मेले का समय था जब फंसा था उस बरस। 28 किलोमीटर के लिए दो दिन फैजाबाद में इंतजार करने के बाद इलाहाबाद लौट गया था। वापसी में लिखी हुई कविता थी ये। आज याद आयी तो लगा कि आस्थाओं से लबालब इस निर्मम समय से इस कविता को भी जूझना चाहिए।

नज़रिया »

[11 Oct 2010 | 15 Comments | ]
वहां भी एक मस्जिद थी और अब वहां भी नहीं है!

शाहनवाज मलिक ♦ गांव में तनाव को देखते हुए पुलिस ने दोनों पक्षों से आयी तहरीर पर कार्यवाही करते हुए कई लोगों के खिलाफ धारा 107 के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया है। अबरार मुस्कुराते हुए कहते हैं कि जिन लागों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है, उनमें से कई तो दिल्ली और बंबई में काम कर रहे हैं और कुछ तो विदेशों में हैं। धानी गांव में बढ़ते तनाव के मद्देनजर दुबारा पीएसी लगा दी गयी थी, फिलहाल हटा दी गयी है लेकिन गांव में पसरा सन्नाटा अभी भी वहीं है। बहरहाल उस सन्नाटे में भी एक गूंज है। गूंज उस व्यवस्था के खिलाफ है, जो दोषियों पर कार्यवाही करने से कतरा रहे है, गूंज उस दैनिक जागरण के खिलाफ है, जिसमें सांप्रदायिकता की बू आती है

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk