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Saturday, October 30, 2010

भारतदुर्दशा भारतेंदु हरिश्चंद्र


 प्रहसन
भारतदुर्दशा
भारतेंदु हरिश्चंद्र

नाट्यरासक वा लास्य रूपक , संवत 1933

।। मंगलाचरण ।।

जय सतजुग-थापन-करन, नासन म्लेच्छ-आचार।
कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार ।।
 


पहिला अंक


स्थान - बीथी
(एक योगी गाता है)
(लावनी)
रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।। धु्रव ।।
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो ।।
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो ।।
अब सबके पीछे सोई परत लखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती।
जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती ।।
जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।
तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती ।।
अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी।
करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी ।।
तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी।
छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी ।।
भए अंध पंगु सेब दीन हीन बिलखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी ।।
ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी।
दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री ।।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
(पटीत्तोलन)

दूसरा अंक


स्थान-श्मशान, टूटे-फूटे मंदिर
कौआ, कुत्ता, स्यार घूमते हुए, अस्थि इधर-उधर पड़ी है।
(भारत' का प्रवेश)
भारत : हा! यही वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था, 'सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव' और आज हम उसी को देखते हैं कि श्मशान हो रही है। अरे यहां की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, उदारता, धन, बल, मान, दृढ़चित्तता, सत्य सब कहां गए? अरे पामर जयचद्र! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा जाता था? हाय! अब मुझे कोई शरण देने वाला नहीं। (रोता है) मातः; राजराजेश्वरि बिजयिनी! मुझे बचाओ। अपनाए की लाज रक्खो। अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ। हाय! मैंने जाना था कि अँगरेजों के हाथ में आकर हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे पर दैव से वह भी न सहा गया। हाय! कोई बचानेवाला नहीं।
(गीत)
कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ।
बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ ।।
जाकी सरन गहत सोई मारत सुनत न कोउ दुखगाथ।
दीन बन्यौ इस सों उन डोलत टकरावत निज माथ ।।
दिन दिन बिपति बढ़त सुख छीजत देत कोऊ नहिं साथ।
सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाई उबारौ नाथ ।।
(नेपथ्य में गंभीर और कठोर स्वर से)
अब भी तुझको अपने नाथ का भरोसा है! खड़ा तो रह। अभी मैंने तेरी आशा की जड़ न खोद डाली तो मेरा नाम नहीं।
भारत : (डरता और काँपता हुआ रोकर) अरे यह विकराल वदन कौन मुँह बाए मेरी ओर दौड़ता चला आता है? हाय-हाय इससे वै$से बचेंगे? अरे यह तो मेरा एक ही कौर कर जायेगा! हाय! परमेश्वर बैकुंठ में और राजराजेश्वरी सात समुद्र पार, अब मेरी कौन दशा होगी? हाय अब मेरे प्राण कौन बचावेगा? अब कोई उपाय नहीं। अब मरा, अब मरा। (मूर्छा खाकर गिरता है)
(निर्लज्जता1 आती है)
निर्लज्जता : मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र। छिः छिः! जीओगे तो भीख माँग खाओगे। प्राण देना तो कायरों का काम है। क्या हुआ जो धनमान सब गया 'एक जिंदगी हजार नेआमत है।' (देखकर) अरे सचमुच बेहोश हो गया तो उठा ले चलें। नहीं नहीं मुझसे अकेले न उठेगा। (नेपथ्य की ओर) आशा! आशा! जल्दी आओ।
(आशा2 आती है)
निर्लज्जता : यह देखो भारत मरता है, जल्दी इसे घर उठा ले चलो।
आशा : मेरे आछत किसी ने भी प्राण दिया है? ले चलो; अभी जिलाती हूँ।
(दोनों उठाकर भारत को ले जाते हैं)

तीसरा अंक


स्थान-मैदान
(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं! भारतदुर्दैव ' आता है)
भारतदु. : कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या क्या दुर्दशा होती है।
(नाचता और गाता हुआ)
अरे!
उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।
छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे...
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे...
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।
घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे...
काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे...
मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
(नाचता है)
अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें! लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोडं़गे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।
(नेपथ्य में से 'जो आज्ञा' का शब्द सुनाई पड़ता है)
देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।
(सत्यानाश फौजदार आते हैं)
(नाचता हुआ)
सत्या. फौ : हमारा नाम है सत्यानास।
धरके हम लाखों ही भेस।
बहुत हमने फैलाए धर्म।
होके जयचंद हमने इक बार।
हलाकू चंगेजो तैमूर।
दुरानी अहमद नादिरसाह।
हैं हममें तीनों कल बल छल।
पिलावैंगे हम खूब शराब।
भारतदु. : अंहा सत्यानाशजी आए। आओे, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिल के चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ़ चलें।
सत्या. फौ. : महाराज 'इंद्रजीत सन जो कछु भाखा, सो सब जनु पहिलहिं करि राखा।' जिनको आज्ञा हो चुकी है वे तो अपना काम कर ही चुके और जिसको जो हुक्म हो, कर दिया जाय।
भारतदु. : किसने किसने क्या क्या किया है?
सत्या. फौ. : महाराज! धर्म ने सबके पहिले सेवा की।
रचि बहु बिधि के वाक्य पुरानन माँहि घुसाए।
शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए ।।
जाति अनेकन करी नीच अरु ऊँच बनायो।
खान पान संबंध सबन सों बरजिं छुड़ायो ।।
जन्मपत्रा विधि मिले ब्याह नहिं होन देत अब।
बालकपन में ब्याहि प्रीतिबल नास कियो सब ।।
करि कुलान के बहुत ब्याह बल बीरज मारयो।
बिधवा ब्याह निषेध कियो बिभिचार प्रचारîो ।।
रोकि विलायतगमन कूपमंडूक बनाîो।
यौवन को संसर्ग छुड़ाई प्रचार घटायो ।।
बहु देवी देवता भूत पे्रतादि पुजाई।
ईश्वर सो सब बिमुख किए हिंदू घबराई ।।
भारतदु. : आहा! हाहा! शाबाश! शाबाश! हाँ, और भी कुछ धम्र्म ने किया?
सत्या. फौ. : हाँ महाराज।
अपरस सोल्हा छूत रचि, भोजनप्रीति छुड़ाय।
किए तीन तेरह सबै, चैका चैका छाय ।।
भारतदु. : और भी कुछ?
सत्या. फौ. : हाँ।
रचिकै मत वेदांत को, सबको ब्रह्म बनाय।
हिंदुन पुरुषोत्तम कियो, तोरि हाथ अरू पाय ।।
महाराज, वेदांत ने बड़ा ही उपकार किया। सब हिंदू ब्रह्म हो गए। किसी को इतिकत्र्तव्यता बाकी ही न रही। ज्ञानी बनकर ईश्वर से विमुख हुए, रुक्ष हुए, अभिमानी हुए और इसी से स्नेहशून्य हो गए। जब स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहां! बस, जय शंकर की।
सत्या. फौ. : हाँ महाराज।
भारतदु. : अच्छा, और किसने किसने क्या किया?
सत्या. फौ. : महाराज, फिर संतोष ने भी बड़ा काम किया। राजा प्रजा सबको अपना चेला बना लिया। अब हिंदुओं को खाने मात्रा से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनसन ही सही। रोजगार न रहा, सूद ही सही। वह भी नहीं, तो घर ही का सही, 'संतोषं परमं सुखं' रोटी को ही सराह सराह के खाते हैं। उद्यम की ओ देखते ही नहीं। निरुद्यमता ने भी संतोष को बड़ी सहायता दी। इन दोनों को बहादुरी का मेडल जरूर मिले। व्यापार को इन्हीं ने मार गिराया।
भारतदु. : और किसने क्या किया?
सत्या. फौ. : फिर महाराज जो धन की सेना बची थी उसको जीतने को भी मैंने बडे़ बांके वीर भेजे। अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुश्मन की फौज तितिर बितिर कर दी। अपव्यय ने खूब लूट मचाई। अदालत ने भी अच्छे हाथ साफ किए। फैशन ने तो बिल और टोटल के इतने गोले मारे कि अंटाधार कर दिया और सिफारिश ने भी खूब ही छकाया। पूरब से पश्चिम और पश्चिम से पूरब तक पीछा करके खूब भगाया। तुहफे, घूस और चंदे के ऐसे बम के गोले चलाए कि 'बम बोल गई बाबा की चारों दिसा' धूम निकल पड़ी। मोटा भाई बना बनाकर मूँड़ लिया। एक तो खुद ही यह सब पँडिया के ताऊ, उस पर चुटकी बजी, खुशामद हुई, डर दिखाया गया, बराबरी का झगड़ा उठा, धांय धांय गिनी गई1 वर्णमाला कंठ कराई,2 बस हाथी के खाए कैथ हो गए। धन की सेना ऐसी भागी कि कब्रों में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली।
भारतदु. : और भला कुछ लोग छिपाकर भी दुश्मनों की ओर भेजे थे?
सत्या. फौ. : हाँ, सुनिए। फूट, डाह, लोभ, भेय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक, अश्रुमार्जन और निर्बलता इन एक दरजन दूती और दूतों को शत्राुओं की फौज में हिला मिलाकर ऐसा पंचामृत बनाया कि सारे शत्राु बिना मारे घंटा पर के गरुड़ हो गए। फिर अंत में भिन्नता गई। इसने ऐसा सबको काई की तरह फाड़ा धर्म, चाल, व्यवहार, खाना, पीना सब एक एक योजन पर अलग अलग कर दिया। अब आवें बचा ऐक्य! देखें आ ही के क्या करते हैं!
भारतदु. : भला भारत का शस्य नामक फौजदार अभी जीता है कि मर गया? उसकी पलटन कैसी है?
सत्या. फौ. : महाराज! उसका बल तो आपकी अतिवृष्टि और अनावृष्टि नामक फौजों ने बिलकुल तोड़ दिया। लाही, कीड़े, टिड्डी और पाला इत्यादि सिपाहियों ने खूब ही सहायता की। बीच में नील ने भी नील बनकर अच्छा लंकादहन किया।
भारतदु. : वाह! वाह! बड़े आनंद की बात सुनाई। तो अच्छा तुम जाओ। कुछ परवाह नहीं, अब ले लिया है। बाकी साकी अभी सपराए डालता हूँ। अब भारत कहाँ जाता है। तुम होशियार रहना और रोग, महर्घ, कर, मद्य, आलस और अंधकार को जरा क्रम से मेरे पास भेज दो।
सत्या. फौ. : जो आज्ञा।
ख्जाता है,
भारतदु. : अब उसको कहीं शरण न मिलेगी। धन, बल और विद्या तीनों गई। अब किसके बल कूदेगा?
(जवनिका गिरती है)
पटोत्तोलन

चौथा अंक


(कमरा अँगरेजी सजा हुआ, मेज, कुरसी लगी हुई। कुरसी पर भारत दुर्दैव बैठा है)
(रोग का प्रवेश)
रोग (गाता हुआ) : जगत् सब मानत मेरी आन।
मेरी ही टट्टी रचि खेलत नित सिकार भगवान ।।
मृत्यु कलंक मिटावत मैं ही मोसम और न आन।
परम पिता हम हीं वैद्यन के अत्तारन के प्रान ।।
मेरा प्रभाव जगत विदित है। कुपथ्य का मित्र और पथ्य का शत्रु मैं ही हूँ। त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जिस पर मेरा प्रभुत्व नहीं। नजर, श्राप, प्रेत, टोना, टनमन, देवी, देवता सब मेरे ही नामांतर हैं। मेरी ही बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने, पंडित, सिद्ध लोगों को ठगते हैं। (आतंक से) भला मेरे प्रबल प्रताप को ऐसा कौन है जो निवारण करे। हह! चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है, यह नहीं जानती कि जितनी सड़क चैड़ी होगी उतने ही हम भी 'जस जस सुरसा वदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा'। (भारतदुदैव को देखकर) महाराज! क्या आज्ञा है?
भारतदु. : आज्ञा क्या है, भारत को चारों ओर से घेर लो।
रोग : महाराज! भारत तो अब मेरे प्रवेशमात्रा से मर जायेगा। घेरने को कौन काम है? धन्वंतरि और काशिराज दिवोदास का अब समय नहीं है। और न सुश्रुत, वाग्भट्ट, चरक ही हैं। बैदगी अब केवल जीविका के हेतु बची है। काल के बल से औषधों के गुणों और लोगों की प्रकृति में भी भेद पड़ गया। बस अब हमें कौन जीतेगा और फिर हम ऐसी सेना भेजेंगे जिनका भारतवासियों ने कभी नाम तो सुना ही न होगा; तब भला वे उसका प्रतिकार क्या करेंगे! हम भेजेंगे विस्फोटक, हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी। भला इनको हिंदू लोग क्या रोकेंगे? ये किधर से चढ़ाई करते हैं और कैसे लड़ते हैं जानेंगे तो हई नहीं, फिर छुट्टी हुई वरंच महाराज, इन्हीं से मारे जायँगे और इन्हीं को देवता करके पूजेंगे, यहाँ तक कि मेरे शत्रु डाक्टर और विद्वान् इसी विस्फोटक के नाश का उपाय टीका लगाना इत्यादि कहेंगे तो भी ये सब उसको शीतला के डर से न मानंगे और उपाय आछत अपने हाथ प्यारे बच्चों की जान लेंगे।
भारतदु. : तो अच्छा तुम जाओ। महर्घ और टिकस भी यहाँ आते होंगे सो उनको साथ लिए जाओ। अतिवृष्टि, अनावृष्टि की सेना भी वहाँ जा चुकी है। अनक्य और अंधकार की सहायता से तुम्हें कोई भी रोक न सकेगा। यह लो पान का बीड़ा लो। (बीड़ा देता है)
(रोग बीड़ा लेकर प्रणाम करके जाता है)
भारतदु. : बस, अब कुछ चिंता नहीं, चारों ओर से तो मेरी सेना ने उसको घेर लिया, अब कहाँ बच सकता है।
(आलस्य का प्रवेश1)
आलस्य : हहा! एक पोस्ती ने कहा; पोस्ती ने पी पोस्त नै दिन चले अढ़ाई कोस। दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूँड़ी के उस पार या इस पार ठीक है। एक बारी में हमारे दो चेले लेटे थे ओर उसी राह से एक सवार जाता था। पहिले ने पुकारा ''भाई सवार, सवार, यह पक्का आम टपक कर मेरी छाती पर पड़ा है, जरा मेरे मुँह में तो डाल।'' सवार ने कहा ''अजी तुम बड़े आलसी हो। तुम्हारी छाती पर आम पड़ा है सिर्फ हाथ से उठाकर मुँह में डालने में यह आलस है!'' दूसरा बोला ठीक है साहब, यह बड़ा ही आलसी है। रात भर कुत्ता मेरा मुँह चाटा किया और यह पास ही पड़ा था पर इसने न हाँका।'' सच है किस जिंदगी के वास्ते तकलीफ उठाना; मजे में हालमस्त पड़े रहना। सुख केवल हम में है 'आलसी पड़े कुएँ में वहीं चैन है।'
(गाता है)
(गश्जल)
दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।
मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा ।।
बिस्तर प मिस्ले लोथ पडे़ रहना हमेशा।
बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा ।।
"रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।"
छेड़ो न नक्शेपा है मिटाना नहीं अच्छा ।।
उठा करके घर से कौन चले यार के घर तक।
''मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा ।।
धोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे।
उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा ।।
सिर भारी चीज है इस तकलीफ हो तो हो।
पर जीभ विचारी को सताना नहीं अच्छा ।।
फाकों से मरिए पर न कोई काम कीजिए।
दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा ।।
सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।
दोजष्ख ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा ।।
मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।
ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा ।।
और क्या। काजी जो दुबले क्यों, कहैं शहर के अंदेशे से। अरे 'कोउ नृप होउ हमें का हानी, चैरि छाँड़ि नहिं होउब रानी।' आनंद से जन्म बिताना। 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।' जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, तो न पढतव्यं सो भी मरतव्यं तब फिर दंतकटाकट किं कर्तव्यं?' भई जात में ब्राह्मण, धर्म में वैरागी, रोजगार में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना, न कहीं जाना और न कहीं आना सब खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, तान मारना और मस्त रहना। अमीर के सर पर और क्या सुरखाब का पर होता है, जो कोई काम न करे वही अमीर। 'तवंगरी बदिलस्त न बमाल।'1 दोई तो मस्त हैं या मालमस्त या हालमस्त
(भारतदुर्दैव को देखकर उसके पास जाकर प्रणाम करके) महाराज! मैं सुख से सोया था कि आपकी आज्ञा पहुँची, ज्यों त्यों कर यहाँ हाजिर हुआ। अब हुक्म?
भारतदु. : तुम्हारे और साथी सब हिंदुस्तान की ओर भेजे गए हैं।, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जोगनिंद्रा से सब को अपने वश में करो।
आलस्य : बहुत अच्छा। (आप ही आप) आह रे बप्पा! अब हिंदुस्तान में जाना पड़ा। तब चलो धीरे-धीरे चलें। हुक्म न मानेंगे तो लोग कहेंगे 'सर सरबसखाई भोग करि नाना समरभूमि भा दुरलभ प्राना।' अरे करने को दैव आप ही करेगा, हमारा कौन काम है, पर चलें।
(यही सब बुड़बुडाता हुआ जाता है)
(मदिरा2 आती है)
मदिरा : भगवान् सोम की मैं कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई। तंत्रा तो केवल मेरी ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं, हिंदू बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी चार पवित्र प्रेममूर्ति विराजमान हैं। सोमपान, बीराचमन, शराबूनतहूरा और बाप टैजिग वाइन। भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध? या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहनेवालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी संकड़े दस हांगे, जगत् में तो हम व्याप्त हैं। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं। फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्रा भूषण हैं।
दूध सुरा दधिहू सुरा, सुरा अन्न धन धाम।
वेद सुरा ईश्वर सुरा, सुरा स्वर्ग को नाम ।।
जाति सुरा विद्या सुरा, बिनु मद रहै न कोय।
सुधरी आजादी सुरा, जगत् सुरामय होय ।।
ब्राह्मण क्षत्राी वैश्य अरू, सैयद सेख पठान।
दै बताइ मोहि कौन जो, करत न मदिरा पान ।।
पियत भट्ट के ठट्ट अरु, गुजरातिन के वृंद।
गौतम पियत अनंद सों, पियत अग्र के नंद ।।
होटल में मदिरा पिएँ, चोट लगे नहिं लाज।
लोट लए ठाढे़ रहत, टोटल दैवे काज ।।
कोउ कहत मद नहिं पिएँ, तो कछु लिख्यों न जाय।
कोउ कहत हम मद्य बल, करत वकीली आय ।।
मद्यहि के परभाव सों, रचन अनेकन ग्रंथ।
मद्यहि के परकास सों, लखत धरम को पंथ ।।
मद पी विधिजग को करत, पालत हरि करि पान।
मद्यहि पी कै नाश सब, करत शंभु भगवान् ।।
विष्णु बारूणी, पोर्ट पुरुषोत्तम, मद्य मुरारि।
शांपिन शिव गौड़ी गिरिश, ब्रांड़ी ब्रह्म बिचारि ।।
मेरी तो धन बुद्धि बल, कुल लज्जा पति गेह।
माय बाप सुत धर्म सब, मदिरा ही न सँदेह ।।
सोक हरन आनँद करन, उमगावन सब गात।
हरि मैं तपबिनु लय करनि, केवल मद्य लखात ।।
सरकारहि मंजूर जो मेरा होत उपाय।
तो सब सों बढ़ि मद्य पै देती कर बैठाय ।।
हमहीं कों या राज की, परम निसानी जान।
कीर्ति खंभ सी जग गड़ी, जब लौं थिर सति भान ।।
राजमहल के चिन्ह नहिं, मिलिहैं जग इत कोय।
तबहू बोतल टूक बहु, मिलिहैं कीरति होय ।।
हमारी प्रवृत्ति के हेतु कुछ यत्न करने की आवश्यकता नहीं। मनु पुकारते हैं 'प्रवृत्तिरेषा भूतानां' और भागवत में कहा है 'लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्य यास्ति जंतोः।' उसपर भी वर्तमान समय की सभ्यता की तो मैं मुख्यमूलसूत्रा हूँ।
विषयेंद्रियों के सुखानुभव मेरे कारण द्विगुणित हो जाते हैं। संगीत साहित्य की तो एकमात्रा जननी हूँ। फिर ऐसा कौन है जो मुझसे विमुख हो?
(गाती है)
(राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार)
मदवा पीले पागल जीवन बीत्यौ जात।
बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात ।।
पी प्याला छक छक आनँद से नितहि साँझ और प्रात।
झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात ।।
हाथी मच्छड़, सूरज जुगुनू जाके पिए लखात।
ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात ।।
(राजा को देखकर) महाराज! कहिए क्या हुक्म है?
भारतदु. : हमने बहुत से अपने वीर हिंदुस्तान में भेजे हैं। परंतु मुझको तुमसे जितनी आशा है उतनी और किसी से नहीं है। जरा तुम भी हिंदुस्तान की तरफ जाओ और हिंदुओं से समझो तो।
मदिरा : हिंदुओं के तो मैं मुद्दत से मुँहलगी हँू, अब आपकी आज्ञा से और भी अपना जाल फैलाऊँगी और छोटे बडे़ सबके गले का हार बन जाऊँगी। (जाती है)
(रंगशाला के दीपों में से अनेक बुझा दिए जायँगे)
(अंधकार का प्रवेश)
(आँधी आने की भाँति शब्द सुनाई पड़ता है)
अंधकार : (गाता हुआ स्खलित नृत्य करता है)
(राग काफी)
जै जै कलियुग राज की, जै महामोह महराज की।
अटल छत्र सिर फिरत थाप जग मानत जाके काज की ।।
कलह अविद्या मोह मूढ़ता सवै नास के साज की ।।
हमारा सृष्टि संहार कारक भगवान् तमोगुण जी से जन्म है। चोर, उलूक और लंपटों के हम एकमात्रा जीवन हैं। पर्वतों की गुहा, शोकितों के नेत्रा, मूर्खों के मस्तिष्क और खलों के चित्त में हमारा निवास है। हृदय के और प्रत्यक्ष, चारों नेत्रा हमारे प्रताप से बेकाम हो जाते हैं। हमारे दो स्वरूप हैं, एक आध्यात्मिक और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध हैं। सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने को मुझे मेरे परम पूज्य मित्र दुर्दैव महाराज ने आज बुलाया है। चलें देखें क्या कहते हैं (आगे बढ़कर) महाराज की जय हो, कहिए क्या अनुमति है?
भारतदु. : आओ मित्र! तुम्हारे बिना तो सब सूना था। यद्यपि मैंने अपने बहुत से लोग भारत विजय को भेजे हैं पर तुम्हारे बिना सब निर्बल हैं। मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है, अब तुमको भी वहाँ जाना होगा।
अंध. : आपके काम के वास्ते भारत क्या वस्तु है, कहिए मैं विलायत जाऊँ।
भारतदु. : नहीं, विलायत जाने का अभी समय नहीं, अभी वहाँ त्रोता, द्वापर है।
अंध. : नहीं, मैंने एक बात कही। भला जब तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के क्या करूँगा? गैस और मैगनीशिया से मेरी प्रतिष्ठा भंग न हो जायेगी।
भारतदु. : हाँ, तो तुम हिंदुस्तान में जाओ और जिसमें हमारा हित हो सो करो। बस 'बहुत बुझाई तुमहिं का कहऊँ, परम चतुर मैं जानत अहऊँ।'
अंध : बहुत अच्छा, मैं चला। बस जाते ही देखिए क्या करता हूँ। (नेपथ्य में बैतालिक गान और गीत की समाप्ति में क्रम से पूर्ण अंधकार और पटाक्षेप)
निहचै भारत को अब नास।
जब महराज विमुख उनसों तुम निज मति करी प्रकास ।।
अब कहुँ सरन तिन्हैं नहिं मिलिहै ह्नै है सब बल चूर।
बुधि विद्या धन धान सबै अब तिनको मिलिहैं धूर ।।
अब नहिं राम धर्म अर्जुन नहिं शाक्यसिंह अरु व्यास।
करिहै कौन पराक्रम इनमें को दैहे अब आस ।।
सेवाजी रनजीत सिंह हू अब नहिं बाकी जौन।
करिहैं वधू नाम भारत को अब तो नृप मौन ।।
वही उदैपुर जैपुर रीवाँ पन्ना आदिक राज।
परबस भए न सोच सकहिं कुछ करि निज बल बेकाज ।।
अँगरेजहु को राज पाइकै रहे कूढ़ के कूढ़।
स्वारथपर विभिन्न-मति-भूले हिंदू सब ह्नै मूढ़ ।।
जग के देस बढ़त बदि बदि के सब बाजी जेहि काल।
ताहू समय रात इनकी है ऐसे ये बेहाल ।।
छोटे चित अति भीरु बुद्धि मन चंचल बिगत उछाह।
उदर-भरन-रत, ईसबिमुख सब भए प्रजा नरनाह ।।
इनसों कुछ आस नहिं ये तो सब विधि बुधि-बल हीन।
बिना एकता-बुद्धि-कला के भए सबहि बिधि दीन ।।
बोझ लादि कै पैर छानि कै निज सुख करहु प्रहार।
ये रासभ से कुछ नहिं कहिहैं मानहु छमा अगार ।।
हित अनहित पशु पक्षी जाना' पै ये जानहिं नाहिं।
भूले रहत आपुने रँग मैं फँसे मूढ़ता माहिं ।।
जे न सुनहिं हित, भलो करहिं नहिं तिनसों आसा कौन।
डंका दै निज सैन साजि अब करहु उतै सब गौन ।।
(जवनिका गिरती है)

पाँचवाँ अंक


स्थान-किताबखाना
(सात सभ्यों की एक छोटी सी कमेटी; सभापति चक्करदार टोपी पहने,
चश्मा लगाए, छड़ी लिए; छह सभ्यों में एक बंगाली, एक महाराष्ट्र,
एक अखबार हाथ में लिए एडिटर, एक कवि और दो देशी महाशय)
सभापति : (खड़े होकर) सभ्यगण! आज की कमेटी का मुख्य उदेश्य यह है कि भारतदुर्दैव की, सुुना है कि हम लोगों पर चढ़ाई है। इस हेतु आप लोगों को उचित है कि मिलकर ऐसा उपाय सोचिए कि जिससे हम लोग इस भावी आपत्ति से बचें। जहाँ तक हो सके अपने देश की रक्षा करना ही हम लोगों का मुख्य धर्म है। आशा है कि आप सब लोग अपनी अपनी अनुमति प्रगट करेंगे। (बैठ गए, करतलध्वनि)
बंगाली : (खड़े होकर) सभापति साहब जो बात बोला सो बहुत ठीक है। इसका पेशतर कि भारतदुर्दैव हम लोगों का शिर पर आ पड़े कोई उसके परिहार का उपाय सोचना अत्यंत आवश्यक है किंतु प्रश्न एई है जे हम लोग उसका दमन करने शाकता कि हमारा बोज्र्जोबल के बाहर का बात है। क्यों नहीं शाकता? अलबत्त शकैगा, परंतु जो सब लोग एक मत्त होगा। (करतलध्वनि) देखो हमारा बंगाल में इसका अनेक उपाय साधन होते हैं। ब्रिटिश इंडियन ऐसोशिएशन लीग इत्यादि अनेक शभा भ्री होते हैं। कोई थोड़ा बी बात होता हम लोग मिल के बड़ा गोल करते। गवर्नमेंट तो केवल गोलमाल शे भय खाता। और कोई तरह नहीं शोनता। ओ हुँआ आ अखबार वाला सब एक बार ऐसा शोर करता कि गवेर्नमेंट को अलबत्ता शुनने होता। किंतु हेंयाँ, हम देखते हैं कोई कुछ नहीं बोलता। आज शब आप सभ्य लोग एकत्रा हैं, कुछ उपाय इसका अवश्य सोचना चाहिए। (उपवेशन)।
प. देशी : (धीरे से) यहीं, मगर जब तक कमेटी में हैं तभी तक। बाहर निकले कि फिर कुछ नहीं।
दू. देशी : ख्धीरे से, क्यों भाई साहब; इस कमेटी में आने से कमिश्नर हमारा नाम तो दरबार से खारिज न कर देंगे?
एडिटर : (खडे़ होकर) हम अपने प्राणपण से भारत दुर्दैव को हटाने को तैयार हैं। हमने पहिले भी इस विषय में एक बार अपने पत्रा में लिखा था परंतु यहां तो कोई सुनता ही नहीं। अब जब सिर पर आफत आई सो आप लोग उपाय सोचने लगे। भला अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है जो कुछ सोचना हो जल्द सोचिए। (उपवेशन)
कवि : (खडे़ होकर) मुहम्मदशाह ने भाँड़ों ने दुश्मन को फौज से बचने का एक बहुत उत्तम उपाय कहा था। उन्होंने बतलाया कि नादिरशाह के मुकाबले में फौज न भेजी जाय। जमना किनारे कनात खड़ी कर दी जायँ, कुछ लोग चूड़ी पहने कनात के पीछे खड़े रहें। जब फौज इस पार उतरने लगें, कनात के बाहर हाथ निकालकर उँगली चमकाकर कहें ''मुए इधर न आइयो इधर जनाने हैं''। बस सब दुश्मन हट जायँगे। यही उपाय भारतदुर्दैव से बचने को क्यों न किया जाय।
बंगाली : (खड़े होकर) अलबत, यह भी एक उपाय है किंतु असभ्यगण आकर जो स्त्री लोगों का विचार न करके सहसा कनात को आक्रमण करेगा तो? (उपवेशन)
एडि. : (खड़े होकर) हमने एक दूसरा उपाय सोचा है, एडूकेशन की एक सेना बनाई जाय। कमेटी की फौज। अखबारों के शस्त्रा और स्पीचों के गोले मारे जायँ। आप लोग क्या कहते हैं? (उपवेशन)
दू. देशी : मगर जो हाकिम लोग इससे नाराज हों तो? (उपवेशन)
बंगाली : हाकिम लोग काहे को नाराज होगा। हम लोग शदा चाहता कि अँगरेजों का राज्य उत्पन्न न हो, हम लोग केवल अपना बचाव करता। (उपवेशन)
महा. : परंतु इसके पूर्व यह होना अवश्य है कि गुप्त रीति से यह बात जाननी कि हाकिम लोग भारतदुर्दैव की सैन्य से मिल तो नहीं जायँगे।
दू. देशी : इस बात पर बहस करना ठीक नहीं। नाहक कहीं लेने के देने न पड़ें, अपना काम देखिए (उपवेशन और आप ही आप) हाँ, नहीं तो अभी कल ही झाड़बाजी होय।
महा. : तो सार्वजनिक सभा का स्थापन करना। कपड़ा बीनने की कल मँगानी। हिदुस्तानी कपड़ा पहिनना। यह भी सब उपाय हैं।
दू. देशी : (धीरे से)-बनात छोड़कर गंजी पहिरेंगे, हें हें।
एडि. : परंतु अब समय थोड़ा है जल्दी उपाय सोचना चाहिए।
कवि : अच्छा तो एक उपाय यह सोचो कि सब हिंदू मात्रा अपना फैशन छोड़कर कोट पतलून इत्यादि पहिरें जिसमें सब दुर्दैव की फौज आवे तो हम लोगों को योरोपियन जानकर छोड़ दें।
प. देशी : पर रंग गोरा कहाँ से लावेंगे?
बंगाली : हमारा देश में भारत उद्धार नामक एक नाटक बना है। उसमें अँगरेजों को निकाल देने का जो उपाय लिखा, सोई हम लोग दुर्दैव का वास्ते काहे न अवलंबन करें। ओ लिखता पाँच जन बंगाली मिल के अँगरेजों को निकाल देगा। उसमें एक तो पिशान लेकर स्वेज का नहर पाट देगा। दूसरा बाँस काट काट के पवरी नामक जलयंत्रा विशेष बनावेगा। तीसरा उस जलयंत्रा से अंगरेजों की आँख में धूर और पानी डालेगा।
महा. : नहीं नहीं, इस व्यर्थ की बात से क्या होना है। ऐसा उपाय करना जिससे फल सिद्धि हो।
प. देशी : (आप ही आप) हाय! यह कोई नहीं कहता कि सब लोग मिलकर एक चित हो विद्या की उन्नति करो, कला सीखो जिससे वास्तविक कुछ उन्नति हो। क्रमशः सब कुछ हो जायेगा।
एडि. : आप लोग नाहक इतना सोच करते हैं, हम ऐसे ऐसे आर्टिकिल लिखेंगे कि उसके देखते ही दुर्दैव भागेगा।
कवि : और हम ऐसी ही ऐसी कविता करेंगे।
प. देशी : पर उनके पढ़ने का और समझने का अभी संस्कार किसको है?
(नेपथ्य में से)
भागना मत, अभी मैं आती हूँ।
(सब डरके चैकन्ने से होकर इधर उधर देखते हैं)
दू. देशी : (बहुत डरकर) बाबा रे, जब हम कमेटी में चले थे तब पहिले ही छींक हुई थी। अब क्या करें। (टेबुल के नीचे छिपने का उद्योग करता है)
(डिसलायलटी1 का प्रवेश)
सभापति : (आगे से ले आकर बड़े शिष्टाचार से) आप क्यों यहाँ तशरीफ लाई हैं? कुछ हम लोग सरकार के विरुद्ध किसी प्रकार की सम्मति करने को नहीं एकत्रा हुए हैं। हम लोग अपने देश की भलाई करने को एकत्रा हुए हैं।
डिसलायलटी: नहीं, नहीं, तुम सब सरकार के विरुद्ध एकत्रा हुए हो, हम तुमको पकडे़ंगे।
बंगाली : (आगे बढ़कर क्रोध से) काहे को पकडे़गा, कानून कोई वस्तु नहीं है। सरकार के विरुद्ध कौन बात हम लोग बाला? व्यर्थ का विभीषिका!
डिस. : हम क्या करें, गवर्नमेंट की पालिसी यही है। कवि वचन सुधा नामक पत्रा में गवर्नमेंट के विरुद्ध कौन बात थी? फिर क्यों उसे पकड़ने को हम भेजे गए? हम लाचार हैं।
दू. देशी : (टेबुल के नीचे से रोकर) हम नहीं, हम नहीं, तमाशा देखने आए थे।
महा. : हाय हाय! यहाँ के लोग बड़े भीरु और कापुरूष हैं। इसमें भय की कौन बात है! कानूनी है।
सभा. : तो पकड़ने का आपको किस कानून से अधिकार है?
डिस. : इँगलिश पालिसी नामक ऐक्ट के हाकिमेच्छा नामक दफा से।
महा. : परंतु तुम?
दू. देशी : (रोकर) हाय हाय! भटवा तुम कहता है अब मरे।
महा. : पकड़ नही सकतीं, हमको भी दो हाथ दो पैर है। चलो हम लोग तुम्हारे संग चलते हैं, सवाल जवाब करेंगे।
बंगाली : हाँ चलो, ओ का बात-पकड़ने नहीं शेकता।
सभा. : (स्वगत) चेयरमैन होने से पहिले हमीं को उत्तर देना पडे़गा, इसी से किसी बात में हम अगुआ नहीं होते।
डिस : अच्छा चलो। (सब चलने की चेष्टा करते हैं)
(जवनिका गिरती है)

छठा अंक


स्थान-गंभीर वन का मध्यभाग
(भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है)
(भारतभाग्य का प्रवेश)
भारतभाग्य : (गाता हुआ-राग चैती गौरी)
जागो जागो रे भाई।
सोअत निसि बैस गँवाई। जागों जागो रे भाई ।।
निसि की कौन कहै दिन बीत्यो काल राति चलि आई।
देखि परत नहि हित अनहित कछु परे बैरि बस जाई ।।
निज उद्धार पंथ नहिं सूझत सीस धुनत पछिताई।
अबहुँ चेति, पकारि राखो किन जो कुछ बची बड़ाई ।।
फिर पछिताए कुछ नहिं ह्नै है रहि जैहौ मुँह बाई।
जागो जागो रे भाई ।।
(भारत को जगाता है और भारत जब नहीं जागता तब अनेक यत्न से फिर जगाता है, अंत में हारकर उदास होकर)
हाय! भारत को आज क्या हो गया है? क्या निःस्संदेह परमेश्वर इससे ऐसा ही रूठा है? हाय क्या अब भारत के फिर वे दिन न आवेंगे? हाय यह वही भारत है जो किसी समय सारी पृथ्वी का शिरोमणि गिना जाता था?
भारत के भुजबल जग रक्षित।
भारतविद्या लहि जग सिच्छित ।।
भारततेज जगत बिस्तारा।
भारतभय कंपत संसारा ।।
जाके तनिकहिं भौंह हिलाए।
थर थर कंपत नृप डरपाए ।।
जाके जयकी उज्ज्वल गाथा।
गावत सब महि मंगल साथा ।।
भारतकिरिन जगत उँजियारा।
भारतजीव जिअत संसारा ।।
भारतवेद कथा इतिहासा।
भारत वेदप्रथा परकासा ।।
फिनिक मिसिर सीरीय युनाना।
भे पंडित लहि भारत दाना ।।
रह्यौ रुधिर जब आरज सीसा।
ज्वलित अनल समान अवनीसा ।।
साहस बल इन सम कोउ नाहीं।
तबै रह्यौ महिमंडल माहीं ।।
कहा करी तकसीर तिहारी।
रे बिधि रुष्ट याहि की बारी ।।
सबै सुखी जग के नर नारी।
रे विधना भारत हि दुखारी ।।
हाय रोम तू अति बड़भागी।
बर्बर तोहि नास्यों जय लागी ।।
तोड़े कीरतिथंभ अनेकन।
ढाहे गढ़ बहु करि प्रण टेकन ।।
मंदिर महलनि तोरि गिराए।
सबै चिन्ह तुव धूरि मिलाए ।।
कछु न बची तुब भूमि निसानी।
सो बरु मेरे मन अति मानी ।।
भारत भाग न जात निहारे।
थाप्यो पग ता सीस उधारे ।।
तोरîो दुर्गन महल ढहायो।
तिनहीं में निज गेह बनायो ।।
ते कलंक सब भारत केरे।
ठाढ़े अजहुँ लखो घनेरे ।।
काशी प्राग अयोध्या नगरी।
दीन रूप सम ठाढी़ सगरी ।।
चंडालहु जेहि निरखि घिनाई।
रही सबै भुव मुँह मसि लाई ।।
हाय पंचनद हा पानीपत।
अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत ।।
हाय चितौर निलज तू भारी।
अजहुँ खरो भारतहि मंझारी ।।
जा दिन तुब अधिकार नसायो।
सो दिन क्यों नहिं धरनि समायो ।।
रह्यो कलंक न भारत नामा।
क्यों रे तू बारानसि धामा ।।
सब तजि कै भजि कै दुखभारो।
अजहुँ बसत करि भुव मुख कारो ।।
अरे अग्रवन तीरथ राजा।
तुमहुँ बचे अबलौं तजि लाजा ।।
पापिनि सरजू नाम धराई।
अजहुँ बहत अवधतट जाई ।।
तुम में जल नहिं जमुना गंगा।
बढ़हु वेग करि तरल तरंगा ।।
धोवहु यह कलंक की रासी।
बोरहु किन झट मथुरा कासी ।।
कुस कन्नौज अंग अरु वंगहि।
बोरहु किन निज कठिन तरंगहि ।।
बोरहु भारत भूमि सबेरे।
मिटै करक जिय की तब मेरे ।।
अहो भयानक भ्राता सागर।
तुम तरंगनिधि अतिबल आगर ।।
बोरे बहु गिरी बन अस्थान।
पै बिसरे भारत हित जाना ।।
बढ़हु न बेगि धाई क्यों भाई।
देहु भारत भुव तुरत डुबाई ।।
घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
करहु सफल भीतर तुम लय ।।
धोवहु भारत अपजस पंका।
मेटहु भारतभूमि कलंका ।।
हाय! यहीं के लोग किसी काल में जगन्मान्य थे।
जेहि छिन बलभारे हे सबै तेग धारे।
तब सब जग धाई फेरते हे दुहाई ।।
जग सिर पग धारे धावते रोस भारे।
बिपुल अवनि जीती पालते राजनीती ।।
जग इन बल काँपै देखिकै चंड दापै।
सोइ यह पिय मेरे ह्नै रहे आज चेरे ।।
ये कृष्ण बरन जब मधुर तान।
करते अमृतोपम वेद गान ।।
सब मोहन सब नर नारि वृंद।
सुनि मधुर वरन सज्जित सुछंद ।।
जग के सबही जन धारि स्वाद।
सुनते इन्हीं को बीन नाद ।।
इनके गुन होतो सबहि चैन।
इनहीं कुल नारद तानसैन ।।
इनहीं के क्रोध किए प्रकास।
सब काँपत भूमंडल अकास ।।
इन्हीं के हुंकृति शब्द घोर।
गिरि काँपत हे सुनि चारु ओर ।।
जब लेत रहे कर में कृपान।
इनहीं कहँ हो जग तृन समान ।।
सुनि के रनबाजन खेत माहिं।
इनहीं कहँ हो जिय सक नाहिं ।।
याही भुव महँ होत है हीरक आम कपास।
इतही हिमगिरि गंगाजल काव्य गीत परकास ।।
जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव।
रहे भारतहि अंक में कबहि सबै भुवदेव ।।
याही भारत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास।
जिनके भारतगान सों भारतबदन प्रकास ।।
याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास।
याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास ।।
याही भारत में भए मनु भृगु आदिक होय।
तब तिनसी जग में रह्यो घृना करत नहि कोय ।।
जास काव्य सों जगत मधि अब ल ऊँचो सीस।
जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस ।।
साई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान।
ये मेरे भारत भरे सोई गुन रूप समान ।।
सोइ बंस रुधिर वही सोई मन बिस्वास।
वही वासना चित वही आसय वही विलास ।।
कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अति सूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँ की धूर ।।
सोई भारत की आज यह भई दुरदसा हाय।
कहा करे कित जायँ नहिं सूझत कछु उपाय ।।
(भारत को फिर उठाने की अनेक चेष्टा करके उपाय निष्फल होने पर रोकर)
हा! भारतवर्ष को ऐसी मोहनिद्रा ने घेरा है कि अब इसके उठने की आशा नहीं। सच है, जो जान बूझकर सोता है उसे कौन जगा सकेगा? हा दैव! तेरे विचित्रा चरित्रा हैं, जो कल राज करता था वह आज जूते में टाँका उधार लगवाता है। कल जो हाथी पर सवार फिरते थे आज नंगे पाँव बन बन की धूल उड़ाते फिरते हैं। कल जिनके घर लड़के लड़कियों के कोलाहल से कान नहीं दिया जाता था आज उसका नाम लेवा और पानी देवा कोई नहीं बचा और कल जो घर अन्न धन पूत लक्ष्मी हर तरह से भरे थे आज उन घरों में तूने दिया बोलनेवाला भी नहीं छोड़ा।
हा! जिस भारतवर्ष का सिर व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि, शाक्यसिंह, बाणभट्ट, प्रभृति कवियों के नाममात्रा से अब भी सारे संसार में ऊँचा है, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारतवर्ष के राजा चंद्रगुप्त और अशोक का शासन रूम रूस तक माना जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारत में राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चंद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि पवित्र चरित्रा के लोग हो गए हैं उसकी यह दशा! हाय, भारत भैया, उठो! देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे। मूर्खों के प्रचंड शासन के दिन गए, अब राजा ने प्रजा का स्वत्व पहिचाना। विद्या की चरचा फैल चली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधिकार मिला, देश विदेश से नई विद्या और कारीगरी आई। तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भाँग के गोले, ग्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूत प्रेत की पूजा जन्मपत्राी की विधि! वही थोड़े में संतोष, गप हाँकने में प्रीती और सत्यानाशी चालें! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा! अरे अब क्या चिता पर सम्हलेगा। भारत भाई! उठो, देखो अब दुख नहीं सहा जाता, अरे कब तक बेसुध रहोगे? उठो, देखो, तुम्हारी संतानों का नाश हो गया। छिन्न-छिन्न होकर सब नरक की यातना भोगते हैं, उस पर भी नहीं चेतते। हाय! मुझसे तो अब यह दशा नहीं देखी जाती। प्यारे जागो। (जगाकर और नाड़ी देखकर) हाय इसे तो बड़ा ही ज्वर चढ़ा है! किसी तरह होश में नहीं आता। हा भारत! तेरी क्या दशा हो गई! हे करुणासागर भगवान् इधर भी दृष्टि कर। हे भगवती राज-राजेश्वरी, इसका हाथ पकड़ो। (रोकर) अरे कोई नहीं जो इस समय अवलंब दे। हा! अब मैं जी के क्या करूँगा! जब भारत ऐसा मेरा मित्र इस दुर्दशा में पड़ा है और उसका उद्धार नहीं कर सकता, तो मेरे जीने पर धिक्कार है! जिस भारत का मेरे साथ अब तक इतना संबध था उसकी ऐसी दशा देखकर भी मैं जीता रहूँ तो बड़ा वृ$तघ्न हूँ! (रोता है) हा विधाता, तुझे यही करना था! (आतंक से) छिः छिः इतना क्लैव्य क्यों? इस समय यह अधीरजपना! बस, अब धैर्य! (कमर से कटार निकालकर) भाई भारत! मैं तुम्हारे ऋण से छूटता हूँ! मुझसे वीरों का कर्म नहीं हो सकता। इसी से कातर की भाँति प्राण देकर उऋण होता हूँ। (ऊपर हाथ उठाकर) हे सव्र्वांतर्यामी! हे परमेश्वर! जन्म-जन्म मुझे भारत सा भाई मिलै। जन्म जन्म गंगा जमुना के किनारे मेरा निवास हो।
(भारत का मुँह चूमकर और गले लगाकर)
भैया, मिल लो, अब मैं बिदा होता हूँ। भैया, हाथ क्यों नहीं उठाते? मैं ऐसा बुरा हो गया कि जन्म भर के वास्ते मैं बिदा होता हूँ तब भी ललककर मुझसे नहीं मिलते। मैं ऐसा ही अभागा हूँ तो ऐसे अभागे जीवन ही से क्या; बस यह लो।

(कटार का छाती में आघात और साथ ही जवनिका पतन)
 


--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

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In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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