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Wednesday, September 15, 2010

सत्‍य को न छिपाएं, उस पर पहरा न दें

सत्‍य को न छिपाएं, उस पर पहरा न दें

http://mohallalive.com/2010/09/15/rajkishore-request-about-reporting-in-red-corridor/

♦ राजकिशोर

वरिष्‍ठ पत्रकार और प्राध्‍यापक राजकिशोर ने उन इलाकों में रिपोर्टिंग को लेकर एक प्रस्‍ताव रखा है, जहां नक्‍सली गतिविधियां हैं। यह कि पत्रकारों को लालपट्टियों में बेहिचक जानें दे ताकि बिना किसी आग्रह के सच और तथ्‍य सामने आ सकें। जहां तक मेरी जानकारी है, गलत भी हो सकती है – किसी भी पत्रकार को माओवादियों ने अपने इलाकों में रिपोर्टिंग करने से रोका नहीं है, निशाना नहीं बनाया है। बल्कि अभी हाल में पत्रकार हेमचंद्र पांडे की पुलिस वालों ने हत्‍या कर दी, क्‍योंकि वे माओवादी नेता आजाद के साथ पकड़े गये थे। राजकिशोर जी यह भी बताएं कि कुछ महीनों पहले अरुंधती जब छत्तीसगढ़ के जंगलों में जाकर रिपोर्ट संकलित कर रही थीं, क्‍या वे अरुंधती की इस गतिविधि को पत्रकारीय कर्म से बाहर रखेंगे? खैर, हमें लगता है कि इस देश में पत्रकारों के लिए कहीं कोई बंदिश नहीं है। वे कहीं भी जाकर रिपोर्ट लिख सकते हैं और लालपट्टी भी अपवाद नहीं होगी : मॉडरेटर

मेरा एक निवेदन है। कथित लाल पट्टी में वस्तुतः क्या हो रहा है, यह जानने का कोई विश्वसनीय माध्यम हमारे पास नहीं है। समाचार के रूप में पुलिस द्वारा बांटी गयी खबरें हैं या माओवादियों के समर्थकों द्वारा पेश की गयी रिपोर्टें। हमें इन दोनों की प्रामाणिकता पर शक करने का अधिकार है।

जब तक सही खबर न मिले, हम न तो पुलिस की नृशंसता का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकते हैं न माओवादियों की गतिविधियों के बारे में जान सकते हैं। सचाई के हक में मेरा निवेदन है कि जैसे दो देशों के बीच युद्ध के दौरान रेड क्रॉस के कार्यकर्ताओं और संवाददाताओं को जान-बूझ कर चोट नहीं पहुंचायी जाती, उसी तरह इस लाल पट्टी में भी संवाददाता जा सकें और प्राप्त सूचनाओं से देश की जनता को अवगत करा सकें, इसकी कोई अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए।

मेरा विश्वास है कि सत्य के सामने आने से किसी भी पक्ष का वास्तविक नुकसान नहीं हो सकता। हां, सत्य को छिपाने के लिए उस पर पहरा देने से सभी का नुकसान होने की निश्चित संभावना है।

rajkishore(राजकिशोर। वरिष्‍ठ पत्रकार। महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के राइटर इन रेजीडेंस। नवभारत टाइम्‍स और रविवार में लंबे समय तक रहे। इन दिनों विभिन्‍न अखबारों में कॉलम लिखते हैं। उनकी कई किताबें आ चुकी हैं। उनसे raajkishore@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


ये जेएनयू को कब्र बना डालेंगे, इन्‍हें यहां से भगाओ!

15 September 2010 8 Comments

जेएनयू को बचाओ : एक

इसे असहमति कह लें, गुस्‍सा कह लें, एक लेख जवाहर लाल नेहरु विश्‍वविद्यालय जैसी जगहों को गलीज बना डालने के प्रशासनिक उपक्रम के खिलाफ हमें एक छात्र ने ईमेल किया है। अपना नाम वह अनहद गरजै बता रहा है। इस लंबी पीड़ा में न सिर्फ कैंपस में उन बेवजह के विकास कामों की फेहरिस्‍त गिनायी गयी है, बल्कि यह भी बताया गया है कि देश को समझने और देश के लिए कुछ करने के लिए जेएनयू कितनी जरूरी जगह है। हमने वर्धा विश्‍वविद्यालय में लोकतंत्र की पिटाई के बहुतेरे दृश्‍य देखें हैं, हमें उम्‍मीद है कि जेएनयू के छात्र भी मोहल्‍ला लाइव को अपना ब्‍लैक बोर्ड समझेंगे और अपनी बगावत इस पर दर्ज करेंगे : मॉडरेटर

जिस विश्वविद्यालय को आप जेएनयू के नाम से जानते हैं, उसका कैंपस जल्द ही भारत और पाकिस्तान की तरह दो हिस्सों में बंट जाएगा। जूनियर के हॉस्टल अलग, सीनियर के हॉस्टल अलग। एड-ब्लॉक में बैठने वाले अंग्रेजों के उत्तराधिकारियों ने 'फूट डालो, राज करो' के तहत जेएनयू के विद्यार्थियों को विभाजित करने की योजना तैयार कर ली है। एक तरफ सीनियर रहेंगे, दूसरी तरफ जूनियर। सवाल यह है कि इस विभाजन का प्रयोजन क्या है? अचानक ये क्या हो गया? किसकी जमीन खिसक गयी? क्या वाकई यह 'अचानक' है? इस बंटवारे के पीछे मंशा क्या है?

बात यह है कि सीनियरों के साथ एक ही छात्रवास में रहने और उठने-बैठने से नये आये विद्यार्थी जल्दी ही देश, समाज, राजनीति और व्यवस्था के बारे में सोचने लगते हैं। विद्यार्थियों के 'वेलफेयर' के लिए व्याकुल, एड-ब्लॉक में बैठने वाले हुक्मरानों को यह सब पसंद नहीं। वे चाहते हैं कि विद्यार्थी आएं, टर्म-सेमिनार लिखें, परीक्षा दें, डिग्री लें और बाहर जाकर बाबूगिरी खटें। वे समझते हैं कि देश और समाज के बारे में सोचना, विद्यार्थी का काम नहीं है। जिस देश की भलाई के लिए मनमोहन सिंह, मोदी, आडवाण और बुद्धदेव जैसे लोग दिन रात जुटे हों, उसके बारे में किसी युवा को सोचने की जरूरत ही क्या है?

2008 के बाद, बीते दो साल में इस देश में अरबपतियों की तादाद दोगुनी हो गयी है। सरकार का 'हाथ' तो खुलेआम गरीबों के साथ है, फिर अमीरों का मोटापा क्यों बढ़ रहा है – इस बारे में किसी विद्यार्थी को क्यों सोचना चाहिए? यूपीए की यह सरकार देसी-विदेशी तमाम कॉरपोरेट्स को बिजनेस करने के लिए विभिन्न मद में प्रतिदिन 700 करोड़ रुपये (जी हां, प्रतिदिन – महीने और साल का हिसाब लगा लीजिए) की छूट दे रही है। यह सब बातें नये विद्यार्थियों को न ही पता चलें तो बेहतर!

पिछले बीस साल में मंडल कमीशन की सिफारिशों के तहत केंद्र सरकार की नौकरियों में केवल छह प्रतिशत ओबीसी की नियुक्ति हो सकी है। वाह! कितनी ईमानदारी से काम चल रहा है! देश के तमाम संसाधनों, सुविधाओं और नौकरियों में ऊंची जातियों के लोग ही हर जगह क्यों काबिज हैं, इस प्रश्न से किसी विद्यार्थी का क्या वास्ता होना चाहिए?

अगर देश विकास कर रहा है, सूचकांक लगातार ऊपर की ओर जा रहा है, तो गरीबी क्यों बढ़ रही है? या तो गरीबी सत्य है या सूचकांक सही है। विकास हो रहा है तो लोग आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? लालगढ़ से छत्तीसगढ़ तक किसके लिए गांव खाली कराये जा रहे हैं, जंगल साफ किये जा रहे हैं, अंधाधुंध खनन कार्य चल रहा है? क्या यह सब देश के श्रमशील आदमी के हक में हो रहा है? निजी संपत्ति की धारणा तक से नावाकिफ, रूखा-सूखा खाकर बेहद मामूली जिंदगी बसर कर रहे किसी ग्रामीण या मजदूर को दिल्ली में हो रहे कॉमनवेल्थ गेम्‍स से क्या मिलेगा? छह साल का काम छह महीने में पूरा कर रहे इन चोट्टों से क्यों न पूछा जाए कि हमारे रुपयों पर किसके लिए हो रहा है ये आयोजन? कमीशनखोरों के लिए? सरकार चाहती है कि हम इस लूट-खसोट पर गर्व करें! चुप रहें।

आखिर वे कौन लोग हैं, जो देश और समाज के विकास के नाम पर इस तरह के वाहियात फैसले कर रहे हैं? चंद लोगों की तिजोरी भरने की यह जो 'पूंजीवादी-ब्राह्मणवादी कांग्रेसी विकास प्रक्रिया' है – क्या यह किसी विद्यार्थी के विचार करने का विषय नहीं है? जेएनयू प्रशासन में बैठे लोग चाहते हैं कि जूनियरों को इन सवालों से दूर रखा जाए। सीनियर-जूनियर का हॉस्टल अलग करने का मकसद एकदम साफ है – कैंपस की विशिष्ट व्यवहार-संस्‍कृति से नये विद्यार्थियों को अलग करो। गौरतलब है कि विद्यार्थियों में भी एक तबका इस बंटवारे का स्वागत करने को तैयार है। ये एनएसयूआई, एबीवीपी और वाईएफई के लोग हैं। 19वीं सदी में अवध और पश्चिमोत्तर प्रांत में तथाकथित नवजागरण के भद्रवर्गीय नायक ठीक इसी जयचंदी भूमिका में थे।

यहां दो सवाल बन रहे हैं। एक, नये आये विद्यार्थियों को अपने समय और समाज के सवालों से अलग रखना क्यों जरूरी है? जेएनयू प्रशासन को इससे क्या हासिल होगा? दो, जेएनयू की 'विशिष्ट व्यवहार संस्‍कृति' क्या है?

बात यह है कि सामाजिक न्याय की तेज होती चली आ रही प्रक्रिया और वंचितों-पीड़ितों की जागरूकता व दावेदारी ने कुछ लोगों को भारी चिंता में डाल रखा है। अभिजात्य तबके के, ऊंची जातियों के ये 'कुछ लोग' सदियों से सत्ता का सुख भकोस रहे हैं। तिकड़म ही इन ब्राह्मणवादियों का पेशा है। दूसरों की मेहनत की कमाई को निठल्ला भकोसने के लिए ही इन्होंने जाति, वर्ण, धर्म का जाल फैला रखा है। ये चाहते हैं कि ठगी और धूर्तई का यह मायाजाल अनंत काल तक बिछा रहे और सत्ता सुविधा पर इनका निष्कंटक एकाध‍िकार अक्षुण्‍ण रहे। इन्हें पता है कि वंचितों की फौज बढ़ती चली आ रही है। उनकी चिंता यही है कि इस फौज को कैसे रोका जाए। इतिहास के दलालों और उनके कमीशनखोर 'मेरिटोरियस' सपूतों की वर्णवादी धोखाधड़ी तभी बरकरार रह सकती है, जब यह फौज रुके। आगे न बढ़े।

जेएनयू के छात्र चाहते हैं कि वह फौज आगे बढ़े। अतीत में जिनके साथ अन्याय हुआ है, उनको मौका मिले। जी हां, जेएनयू के छात्र उन वंचितों पीड़ितों के साथ खड़े हैं जिन्हें अब तक ठगा गया है, जिन्हें अब भी बेववूफफ बनाने की 'मेरिटोरियस' कोशिशें जारी हैं। जेएनयू के छात्र उन आदिवासियों, महिलाओं, अल्‍पसंख्यकों और दलितों के साथ खड़े हैं, जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी मारा-पीटा गया है, लूटा गया है, जिनके साथ बलात्कार हुए हैं – वे हमारे लोग हैं। हम उनके साथ हैं।

आप किसके पक्ष में खड़े हैं – यहीं से आपकी राजनीति तय होती है। आप सुविधाभोगी मुनाफाखोरों के साथ हैं या मेहनतकश मजलूम के पक्ष में हैं – यहां से आपका सामाजिक बोध तय होता है। अपने समय की गतिमान सामाजिक शक्तियों की क्रिया-प्रक्रिया को समझना ही तो राजनीति है। जेएनयू की छात्र राजनीति एक तरफ हमें श्रम और शराफत के पक्ष में खड़े होने का विवेक देती है – दूसरी तरफ, झूठ और लूट के खिलाफ बोलने का साहस भी हमें यहीं से मिलता है। जिसकी समझ में राजनीति नहीं आती, उसकी समझ में किताबें नहीं आ सकतीं। इसलिए राजनीति को समझना ही होगा। अपने समय और समाज की राजनीति को बूझकर ही हम समाज की विकासमान प्रगतिशील शक्तियों की शिनाख्त कर सकते हैं। साहित्य, कला, विज्ञान और दर्शन इन्हीं मानवतावादी शक्तियों के श्रम की उपलब्धि है।

इस राजनीतिक परिवेश का ही प्रभाव है कि यहां रहकर, पढ़-लिखकर निकले लोग अपने साथ कुछ मूल्य लेकर जाते हैं, जिनमें समाज की बेहतरी और मनुष्यता की बुलंदी के स्वप्न होते हैं। जेएनयू प्रशासन का कामकाज देख रहे लोग चाहते हैं कि यह सिलसिला रुके। लियाकत और इंसानियत के हक में बोलने वालों की जरूरत नहीं है मनमोहन सिंह की सरकार को। शैक्षणिक सुधार के नाम पर कपिल सिब्बल इसी दिशा में काम कर रहे हैं। इन्हें पढ़ा-लिखा मूर्ख चाहिए जिसके श्रम को ठगा जा सके।

प्रशासन की चिंता यह है कि सीनियर्स के साथ रहने से नये आये विद्यार्थी बहुत सी बातों को बात-बात में जान जाते हैं। इस संवाद-सौहार्द्र को खत्म करने के लिए ही सीनियर-जूनियर का हॉस्टल अलग करने की योजना तैयार की गयी है। उन्होंने अपना 'टारगेट' तय कर लिया है। नये छात्रों को डी-पोलिटिसाइज करने के इस 'टारगेट' को जल्द से जल्द पूरा करना है।

साथियो! छात्रसंघ के चुनाव पर जो स्टे लगा, वह इसी 'टारगेट' का एक चरण था। ओबीसी रिजर्वेशन में जो बेईमानी हुई, वह इसी 'टारगेट' का अगला चरण है। इनका लक्ष्य जेएनयू की उस 'विशिष्ट व्यवहार संस्‍कृति' को नष्ट करना है, जिसकी बदौलत यह कैंपस देश में ही नहीं, विदेशों में भी मशहूर है।

जेएनयू में आखिर ऐसा क्या है, जिसे 'कमजोर' करने के लिए गृह मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठे तमाम अध‍िकारी दिन-रात माथा-पच्ची कर रहे हैं, नयी नयी तिकड़म सोच रहे हैं? ऐसा क्या है जेएनयू की छात्र राजनीति में कि कोर्ट को सीधे हस्तक्षेप करना पड़ा और अब जानबूझकर मामला लटकाया जा रहा है? वह कैसी 'विशिष्टता' है, जिसे 'टारगेट' करने के लिए मनमोहन सिंह की सरकार को मजबूर होना पड़ रहा है? इस सवाल की अहमियत को यहां से भी देखिए कि जेएनयू प्रशासन की पतनशील गतिविधियों से भाजपा ही नहीं, सीपीएम को भी कोई दिक्कत नहीं है। जेएनयू के मामले में दोनों पार्टियां या कहिए कि तीनों बड़ी पार्टियां एकमत हैं।

आइए उस दूसरे सवाल की तरफ लौटें कि जेएनयू की 'विशिष्ट व्यवहार संस्‍कृति' क्या है? प्रचलित-स्वीकृत किसी भी मान्यता या विचार को आंख मूंदकर स्वीकार मत करो। यह जेएनयू की पहली सीख है। विभिन्न योजनाओं में, तमाम संस्थाओं में जो रुपया खर्च हो रहा है, वह हमारे लोगों की मेहनत-मशक्कत की कमाई है। हम देखेंगे कि हमारा रुपया किस मद में, कहां खर्च हो रहा है। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि देश का विकास हो रहा है। अखबारों में, टीवी में कहा जा रहा है कि देश लपालप आगे बढ़ रहा है। भौतिक धरातल पर, हम जानते हैं कि यह झूठ है, गलत बात है। इसलिए हमें साफ साफ कहना होगा कि मनमोहन सिंह, अरबपतियों और अमरीका के हित में झूठ बोल रहे हैं। जेएनयू, झूठ को झूठ और गलत को गलत कहने की तमीज देता है। यह जेएनयू की दूसरी विशेषता है।

अतीत में, इतिहास में जिन लोगों के साथ नाइंसाफी हुई है, जिनकी जमीनें छीनी गयी हैं, जिनके श्रम का शोषण होता आया है, जेएनयू उन पीड़ितों-वंचितों के पक्ष में खड़े होने, बोलने की समझ देता है। धर्म, वर्ण, जाति, नस्ल, क्षेत्र, पितृसत्ता या पेशे के आधार पर मानवीय अस्मिता के विरूपण और विकृति की किसी भी मुनाफाखोर कोशिश के खिलाफ उठकर खड़े होने की ताकत का नाम है जेएनयू। विदर्भ से बंगाल तक और उधर लद्दाख से लगाकर केरल तक इस देश के लोग जानते हैं कि जुल्म-जोर की किसी भी सफेदपोश कोशिश के खिलाफ ये बच्चे हमारे पक्ष में बोलेंगे। इस बेशकीमती ऐतबार की तराजू पर ही शिक्षा, संस्‍कृति, भारतीयता और मनुष्यता की नाप-जोख होती है। जेएनयू इस एतबार को सहेजने का शऊर देता है। यही शिक्षा का उद्देश्य है। यही मनुष्य होने का ऐतिहासिक अर्थ है। यही जेएनयू की विशिष्टता है। यही विशिष्टता, तिकड़म की रोटी तोड़ रहे टुकड़ाखोरों की आंख में किरकिरी बनकर गड़ रही है। इसी विशिष्टता को, इसी व्यवहार संस्‍कृति को नष्ट करना है। यही 'टारगेट' है। वे गरीबों पीड़ितों के हक में उठने वाली देश की सबसे विश्वसनीय आवाज का गला घोंटना चाहते हैं। एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में बैठे 'स्वाहा संस्‍कृति' के संघी सरदारों के स्वार्थ-संयंत्र, मुनाफाखोर-कामचोर पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं। इनके इरादों को पहचान लीजिए।

'ऊपर' से एलॉट किये गये इस 'टारगेट' को पूरा करने की दिशा में जेएनयू के हुक्मरानों ने कई उप-प्रयास भी किये हैं। मसलन – पगडंडियों का सौंदर्यीकरण किया गया, प्लाज्मा टीवी लगे, स्कूलों में कुर्सी-मेज-दरवाजे-खिड़कियां बदले गये (होटल की तर्ज पर), बेशुमार तादाद में पेड़ काटकर बेचे गये, गमला संस्‍कृति का विकास किया गया, बस स्टैंड पर बस स्टैंड और पार्किंग में पार्किंग लिखकर खंभे गाड़े गये, अठारह से लेकर बत्तीस हजार रुपये में यहां-वहां रखने के लिए तमाम बेंचें खरीदीं गयीं, मास्टरों को नब्बे हजार के लैपटॉप और रुपये भर-भर लिफाफे दिये गये, खोद खोदकर पत्थर बेचे गये, मजदूरों का वेतन हड़प गये, लाइब्रेरी में किताबों की खरीद में लाखों की बेईमानी हुई। ओबीसी रिजर्वेशन के तहत 54 फीसदी सीट बढ़ाने के लिए हॉस्टल और स्‍कूल बनवाने के लिए जो रुपया मिला था, उसे गपक गये सब। अब इधर नये बैच की बारात दरवाजे पर आ खड़ी हुई है तो नाटक कर रहे हैं – सिंगल को डबल कर दो, डबल को सिंगल कर दो। जूनियर को इधर कर दो, सीनियर को उधर कर दो। गौर कीजिए – जिन ओबीसी छात्रों के नाम पर रुपया मिला, उनकी सीट हड़पकर जनरल कटेगरी को ट्रांसफर कर लिये और इधर रुपया भी खा गये। (केवल एमए-एमफिल में इस साल ओबीसी कोटे की 309 सीटें जनरल को ट्रांसफर कर ली इन्होंने। टोटल आंकड़ा आ रहा है।) पूरी ईमानदारी से बेईमानी करने का यही ढंग है। जेएनयू इन्हीं बेईमानों के हाथ में है।

वाइस चांसलर बीबी भट्टाचार्या का कार्यकाल समाप्त हो चुका है। उन्हें लिखकर दे दिया गया : 'जाओ, हम तुम्हें यहां नहीं देखना चाहते'। (अप्रैल में रिफरेंडम हुआ था) फिर भी पड़े हुए हैं। वे जेएनयू को 'वर्ल्ड क्लास' बनाने को व्याकुल थे। उनसे पूछिए कि पांच साल में आपको कितनी सफलता मिली? जिन रुपयों को आपने बर्बाद किया, वे गरीबों-मजदूरों-किसानों की मेहनत के पैसे थे। उन्हें हमारी पढ़ाई में खर्च होना था। हम लोग तब भी आपसे कह रहे थे कि प्लाज्मा टीवी लगवाने से और जंगल साफ करवाने से किसी संस्था को वर्ल्ड क्लास नहीं बनाया जा सकता। तब आपकी समझ में नहीं आया। अब बताइए? खिड़की-दरवाजा बदलने से तो जेएनयू वर्ल्ड क्लास हुआ नहीं? जो नया सामान खरीदा गया, वह पुराने से अच्छा नहीं है। बहुत सारी चीजें तो निरर्थक हैं, जैसे प्लाज्मा टीवी। उसे कोई नहीं देखता। क्यों खरीदा गया है इन्हें? किसके लिए? सड़कों के किनारे जेएनयू के नाम पर जो पेड़रक्षक झरोखे लगे हैं, उनकी कीमत बतायी गयी कि 22000 रुपये प्रति झरोखा है। डेकोरेशन के नाम पर, घूस खाने के लिए इन्हें खरीदा गया है। इनकी कोई जरूरत न थी, न है। बीबी भट्टाचार्या की देखरेख में वर्ल्ड क्लास यूनिवर्सिटी बनाने के नाम पर पिछले पांच साल में जेएनयू में जिस भयानक पैमाने पर चोट्टई और बेईमानी हुई, किसानों मजदूरों की मेहनत की कमाई को जिस तरीके से अनाप-शनाप खुलेआम बरबाद किया गया, उसकी विस्तार से जांच होनी चाहिए। लाइब्रेरी में 'हनुमान फिलासफी' समेत तमाम निरर्थक किताबें किसके आदेश से, क्यों खरीदी गयी? हिसाब दो। जवाब दो।

साथियो! यह सब जेएनयू को बरबाद करने की 'परियोजना' के तहत किया जा रहा है। कोर्ट के 'सपोर्ट' से, सरकार की देख-रेख में भट्टाचार्या और उसके लगुए-भगुए, गिद्धों की तरह दिन-रात जेएनयू के 'वेलफेयर' में जुटे हुए हैं। दिये गये समय में 'एसाइनमेंट' पूरा कर डालने वालों को प्रोमोशन मिलेगा। जब तब ये सब यहां हैं, तब तक समझिए कि जेएनयू की ठठरी में मांस बचा हुआ है। देश के किसी भी दूसरे कैंपस को देख लीजिए। ब्राह्मणवाद के गिद्धों ने खा लिया धीरे धीरे। जेएनयू बचा हुआ है, अंधेरे में चराग की तरह। इन गिद्धों के पीछे खुफिया एजेंसियां सक्रिय हैं। इनके तार अंतर्राष्ट्रीय मुनाफाखोरों से जुड़े हुए हैं। इनकी हरकतों पर निगाह रखिए। ये इतिहास 'बनाने' के चक्कर में हैं।

ये सब कांग्रेस के भरोसे के लोग हैं। रेक्टर वन, रेक्टर टू, रजिस्ट्रार, वाइस चांसलर… इन सबका कार्यकाल पूरा हो चुका है। फिर भी पड़े हुए हैं। सरकार नहीं चाहती कि ये सब कुर्सी छोड़ें। स्टूडेंट यूनियन से दिक्कत थी इसलिए चुनाव पर स्टे हो गया। इन लोगों से सरकार को कोई दिक्कत नहीं है। ये लोग जेएनयू को बरबाद करने के सरकारी 'टारगेट' को पूरा करने में जुटे हैं। यही इनकी 'काबिलियत' का रहस्य है। हम लोग लिखकर दे सकते हैं कि ये सब निकम्मे, नाकारा और निहायत अ-योग्य हैं। ये सब विद्या, विद्यार्थी, समाज और लोकतंत्र के शत्रु हैं। लेकिन सरकार को ये प्रिय हैं क्योंकि उसकी 'परियोजना' पूरी कर रहे हैं।

एक और बात है : ये सब चरित्र के संघी हैं। कुछ तो शाखा भी ज्वाइन करते हैं। आपके मन में सवाल उठ सकता है कि संघी होकर कोई कांग्रेस का प्रिय कैसे हो सकता है। इसका जवाब जानने के लिए आपको भाजपा और कांग्रेस की प्रकृति को देखना होगा। इन दोनों का लक्ष्य एक है। दोनों ब्राह्मणवाद की रक्षा करना चाहती है। साफ बात यह है कि दोनों पार्टियां ब्राह्मणों और बनियों का अहित नहीं होने दे सकतीं। किसी भी कीमत पर नहीं। इन दो जातियों का हित, देश के हित से ऊपर है! इन दोनों दलों में आप देख ही रहे हैं कि बाभन और बनिये ही भरे हुए हैं। इनको पैसा चाहिए। मुनाफा चाहिए। वह दलाली से मिलता है। चोरी से मिलता है। कमीशनखोरी से मिलता है। बेईमानी से मिलता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। देश की संपदा, संपत्ति को बेचने या गिरवी रखने से मिलता है। नो प्रॉब्लम। जहां तक शाखा में जाने की बात है तो आपको मालूम हो कि जवाहर लाल नेहरू की 'नमस्ते सदा वत्सले' करती फोटो ही उपलब्ध है इंटरनेट पर। तलाशिए। मुख्‍तसर यह है कि कांग्रेस और भाजपा वास्तव में एक ही तबके की हितपोषक पार्टियां हैं। इनके जो प्रिय लोग हैं, वे संघी हों या कांग्रेसी, एक ही बात है। संघियों की यही खूबी है। वे किसी भी पार्टी में रह सकते हैं। किसी के भी पांव पखार सकते हैं। बस, सत्ता चाहिए। उत्तमोत्तम स्थिति वह होती है जिसमें कोई संघी, कांग्रेसी होता है। या इसे यूं भी कह सकते हैं कि कांग्रेसी हुए बगैर कोई संघी नहीं हो सकता। कांग्रेस और भाजपा उसी सुअर (भगवान) की पुत्रियां हैं, जिसका नाम ब्राह्मणवाद है। जब जब अस्तित्व पर संकट आया, सुअर ने एक नयी पुत्री को मार्केट में 'लांच' कर दिया। अब तो आप समझ ही गये होंगे कि कांग्रेसी, एबीवीपी वालों के मौसा क्यों लगते हैं।

कहने का मतलब यह कि रेक्टर वन, रेक्टर टू और रजिस्ट्रार वगैरह का कांग्रेस से जो रिश्ता है, वह काफी पायेदार है। कह सकते हैं कि इनके व्यक्तित्व में कांग्रेस जड़ की तरह है और भाजपा तने की तरह। तना काट डालिए। जड़ का कुछ नहीं बिगड़ेगा। वह तो गांव-गांव गली-गली व्याप्त है। इस जड़ को कैसे खतम करना है, आप तय कीजिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि धरती को इस कचरे से मुक्त करना ही होगा।

आप जानते हैं कि स्टूडेंट यूनियन को जेएनयू में पहले ही कोर्ट की 'मिलीभगत' से 'किल' किया जा चुका है। एसोसिएट डीन और चीफ प्रॉक्टर में होड़ चल रही है कि सरकार के 'टारगेट' को कौन कितनी फुर्ती से पूरी करता है। यानी कौन कितनी तेजी से जेएनयू के शैक्षणिक वातावरण को बर्बाद करता है! दोनों एक दूसरे को पछाड़ने में जुटे हैं। देखना है कि किसको पहले प्रमोशन मिलता है। उधर, चीफ सिक्योरिटी अफसर होमगार्ड के किसी मुस्टंड जवान से भी ज्यादा मुस्तैदी से छात्र विरोधी प्रशासनिक आदेशों की तामील में जुटा है। सांगवान, धीरे धीरे दरोगा हो रहा है। अभी पिछले दिनों उसने 'आदेश' दिया कि महानदी हॉस्टल में पोस्टर नहीं लगेगा। स्टेडियम में 10 बजे के बाद कोई नहीं जा सकता। यह उसी का आदेश है। पीएसआर को अज्ञात कारण से उसी ने बंद करा दिया। वह सिक्योरिटी की परिभाषा बदलने की दिशा में काम कर रहा है। कुलानुशासक (चीफ प्रॉक्टर) के 'पावरफुल' पद पर विराजमान बोहिदार साहब, निश्चय ही सांगवान की हरकतों से सहमत होंगे! मुमकिन है कि यह सब उन्हीं का आदेश हो। लेकिन हम यह नहीं भूल रहे हैं कि 'पूरी ईमानदारी' से अपने कार्यकाल की तिजोरी 'कंपलीट' कर चुके 'मेरिटोरिसय' अब भी 'जीवित' हैं और रोज दफ्तर आ रहे हैं। ऐन मुमकिन है कि सिक्योरिटी को 'बुद्धिवर्धक चूर्ण' ये सब मिलकर खिला रहे हों। जो लोग अभी चुप हैं, वे उस दिन सनकेंगे, जिस दिन जेएनयू में किसी 'प्रतिबंधित' स्थान पर किसी मित्र के साथ बैठे होने के 'जुर्म' में उन्हें गिरफ्तार किया जाएगा। वह दिन करीब आ रहा है। संभलिए।

आप जानते हैं कि आर्थिक असमानता और अंधी स्वार्थपरता ही हमारे सामाजिक पतन का वास्तविक कारण है। शिक्षित होकर यानी अपने समय और समाज की सच्चाइयों को अच्छी तरह बूझकर ही ब्राह्मणवादियों की गिरहकटई और मुनाफाखोरी को ठीक से समझा जा सकता है। वर्णवाद-जातिवाद जहां से जन्मा है, वहीं उसे दुरुस्त करना होगा। जो लोग उसे हवा में ठीक करना चाहते हैं, वे मूर्ख हैं और अनजाने ही स्वाहा संस्‍कृति का पक्षपोषण कर रहे हैं। जेएनयू, सामाजिक गतिशीलता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने का स्पेस प्रदान करता है। वर्णवाद के पहरेदार इस स्पेस को नष्ट किया चाहते हैं। यह मनुष्यता की संस्‍कृति का स्पेस है। यह श्रमशील भारतीयता का स्पेस है। आप इसी स्पेस में आये हैं। यहां ऊंच-नीचवाद के बलवाइयों, भगवाइयों, भाजपाइयों की नहीं चलती। हम चाहते हैं कि पूरा देश जेएनयू जैसा हो जाए, जहां किसी को उसके जाति, वर्ण, रूप, रंग या पेशे के आधार पर नीच न समझा जाए। हमें गरीबी और अमीरी – दोनों का नाश करना है। गरीबी तभी खत्म होगी, जब अमीरी खत्म हो। वर्णवाद, जातिवाद और ऊंच-नीच – इस अमीरी को ही बरकरार रखने के औजार हैं। गिनती के कुछ ही लोगों की आर्थिक-सामाजिक अमीरी खत्म हो, इसके लिए बाकी लोगों को आरक्षण चाहिए। छात्र राजनीति चाहिए। चुनाव चाहिए। इसी रास्ते पर चलकर नया समाज बनेगा, जो फुले, अंबेडकर और भगतसिंह के स्वप्नों का भारत होगा, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने शहादतें दी हैं, जिसमें 'मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव होगा' (भगत सिंह)

- आने वाला समय नकवी और उनकी टीम पर भारी है

आने वाला समय नकवी और उनकी टीम पर भारी है

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यही है माओवादियों के पैरोकारों का पाखंड, उनका सच!

14 September 2010 12 Comments

♦ मृणाल वल्‍लरी

-थ्‍यों को वक्‍त और मौके के हिसाब से पेश करने की अवसरवादी पत्रकारिता का एक उदाहरण हमारी पिछली पोस्‍ट में हमने देखा। एक मॉडरेटर के नाते मैं अपने पाठकों से माफी मांगता हूं। उसी आलेख के संदर्भ में मृणाल वल्‍लरी ने ये प्रतिक्रिया अलग से छापने के लिए भेजी है। इसमें उन्‍होंने प्रकारांतर से ये बताने की कोशिश की है कि हम माओवादी संगठनों में होने वाली बलात्‍कार जैसी घटनाओं को जायज मानते हैं। संगठनों-आंदोलनों में होने वाली ऐसी घटनाओं के माध्‍यम से एक तो हम किसी भी समूह की पूरी वैचारिकी को कठघरे में नहीं खड़ा कर सकते। हां, ये जरूर अपेक्षा रख सकते हैं कि ऐसे मामलों में किसी समूह का स्‍टैंड कितना क्रिटिकल है, न्‍यायसंगत है। माओवादियों के बीच ऐसे कई मामले हैं, जिसमें स्त्रियों से छेड़छाड़ करने वाले तक को कड़ी सजा दी गयी है। जहां तक उमा के साथ हुए कथित बलात्‍कार का मामला है, उसकी विश्‍वसनीयता को लेकर माओवादियों के बीच से ही कई बयान आये हैं। दूसरे, पुलिस ट्रायल में रखने से लेकर टीओआई के पत्रकार से उसकी बातचीत कराने के बीच की कई अदृश्‍य कड़ि‍यों को भी समझने की जरूरत है – क्‍योंकि हम जानते हैं कि बलात्‍कार के हथियार के जरिये व्‍यवस्‍था कितने कितने ढंग के हित साधती है। शायद ऐसे ही कारण रहे होंगे कि अपने ध्‍येय को महान और पवित्र बनाये रखने के लिए आर्य से लेकर बौद्ध मठों तक में महिलाओं को लेकर दूरी बरती जाती रही होगी। जहां तक स्‍त्री अस्मिता को लेकर शिक्षण का सवाल है, उसकी कसौटी पर हमारे कम्‍युनिस्‍ट पुरुष खरे नहीं उतरते, ये तो हर पार्टी का सच है – सिर्फ माओवादी पार्टी का नहीं। मुझे व्‍यक्तिगत तौर पर दिक्‍कत सिर्फ एक पार्टी और उसके आंदोलन को कठघरे में खड़ा करने से है : अविनाश

आवेश तिवारी का बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने इस मसले पर चल रही बहस के एक सबसे जरूरी पहलू का खुलासा कर दिया। आवेश तिवारी की "ताजा" कहानी और आलोक तोमर की मार्फत आये आवेश तिवारी के एक और लेख से बहुत सारी परतें खुल गयी होंगी। और समझदार लोग आवेश तिवारी के माओवाद के प्रति कमिटमेंट को भी अच्छी तरह समझ रहे होंगे।

बहरहाल, आवेश तिवारी के "ताजा" खुलासे के बाद राधा, बबिता, सविता, चेरी आदि बहनों से मेरी यही गुजारिश है कि क्या आपको अब भी आवेश तिवारी पर भरोसा करना चाहिए? अच्छा हुआ कि मेरा लिखा आप तक पहुंचा, लेकिन आवेश तिवारी जैसे लोगों के चश्मे से मत पढ़ना। जो जुल्म आपके साथ हुआ, वह उतना ही आदिम है, जितना आदिम यह समाज, यह महिला और पुरुष देह। क्या अब राधा, बबिता, सविता, चेरी आदि बहनों को आवेश जैसे तमाम लोगों से सावधान रहने की जरूरत नहीं है? इस तरह के लोग कब किसको बेच खाएंगे, कहा नहीं जा सकता। मैंने तो बस किसी पार्टी में उस शिक्षण पर सवाल उठाये थे, जो अपने दायरे में आयी महिलाओं के भी दिमाग की कंडिशनिंग इस तरह करता है कि कॉमरेड बन चुकी महिलाएं भी बलात्कार की शिकार महिलाओं के हक में आवाज उठाने की जरूरत नहीं समझें।

लेकिन बबिता बहन, तुमने नौ महीने अपनी कोख में रख कर जन्म दिये बच्चे को क्यों मारा? जब तक पेट में था, तब तक तुम्हारा हक था उसे जन्म देने या नहीं देने का। यह तो आवेश तिवारी की मानसिकता वाले तमाम लोग सोचते हैं कि बच्चा सिर्फ पुरुष का होता है। जरूर तुम्हारे आसपास आवेश तिवारी जैसे लोगों का समाज रहा होगा, जो उस बच्चे को हिकारत की नजर से देखता है, जो बलात्कार का नतीजा होता है, जिसमें किसी स्त्री का कोई अपराध नहीं होता। तुम्हें उसी बच्चे को अपनी ताकत देनी थी और उसके जरिये सर्वहारा के शत्रुओं के खिलाफ लड़ाई लड़नी थी।

अविनाश जी, शायद इसमें आपको कोई घिनौनी साजिश नहीं लगे, जिसमें आवेश तिवारी की मानसिकता वाला समाज एक बच्चे को सिर्फ उसके वीर्य देने के साथ आइडेंटीफाई करता है। दरअसल, आवेश तिवारी जैसे तमाम लोगों के लिए माओवाद और नारीवाद एक ट्रॉफी की तरह है। जहां जो सुविधाजनक लगा, अपने कॉलर पर वह तमगा लटका लिया।

राजसत्ता का वर्गचरित्र हमारे लिए अलग-अलग नहीं है। सर्वहारा के खिलाफ जो जुल्म है, उससे विवाद नहीं। लेकिन मैं तो यही कह रही हूं कि स्त्री दोहरी मार खाती है। इसी दोहरी मार के खिलाफ आवाज उठाने की बात थी। राधा, बबिता, सविता, चेरी आदि महिलाओं की आवाज के बरक्स उमा मांडी की आवाज कैसे और क्यों अविश्वसनीय हो जाती है, क्या इसे समझना अब भी मुश्किल है?

हर मार्क्सवादी स्त्रीवादी नहीं होता। यह बात पिछले दो-चार दिनों में मेरी निगाह में और पुख्ता हुई है।

मैंने तो अपने लिखे में यही सवाल उठाया था कि अगर आप उमा के साथ बलात्कार का विरोध नहीं कर पाएंगे तो कभी भारतीय सेना और पुलिस के जवानों के किये बलात्कार का भी विरोध नहीं कर पाएंगे। जहां तक अंग्रेजी अखबारों की उतरन जैसे फर्जी जुमलों का सवाल है, जिस दिन उमा का बयान आएगा कि उसने टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार को जो कहा, वह सच नहीं है, उस दिन अपने लिखे पर मैं अफसोस जाहिर करूंगी। मैंने सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखा। मेरा सरोकार आज भी वहीं है और तब भी वहीं रहेगा। सवाल स्त्री अस्मिता का है। किसी स्त्री का बलात्कार चाहे कोई करे, वह चाहे जहां हो, उसका विरोध करना होगा। बलात्कार की शिकार महिला का देह सूंघ कर यह तय करना बलात्कार से कम बड़ा अपराध नहीं है कि पीड़ित महिला अपने खेमे की है या विरोधी खेमे की। अपने खेमे की है तो बलात्कार जायज… कैसे? बलात्कारी व्यक्ति इस समाज का हो सकता है, किसी संगठन का हो सकता है। समाज अगर खुद या अपनी संस्थाओं के माध्यम से बलात्कारी को सजा नहीं देता है तो वह बलात्कारी से कम अपराधी नहीं है। इसी तरह का सवाल संगठन पर भी है।

अविनाश जी जैसे लोगों की निगाह में शायद यह भी कोई घिनौनी साजिश नहीं होगी कि अगर कोई महिला कॉमरेड बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाये तो उसे पुलिस की मुखबिर घोषित कर दिया जाए और कोई महिला पत्रकार इस मसले पर कोई सवाल उठाये तो उसे राजसत्ता का एजेंट करार दिया जाए। यह एक महीन साजिश है पितृसत्ता के पैरोकारों की, आवेश जैसे लोगों के फर्जी सरोकारों की दुकान चलाने की।

थोड़ी देर पहले मेरी मानवाधिकार कार्यकर्ता रोमा से बात हुई है। रोमा जी ने मुझे बबिता की असली कहानी बतायी और आवेश की भी। बबिता किस तरह दोहरे शोषण की मार झेल रही है, वह रिपोर्ट जल्द ही आएगी। रोमा जी ने इन महिलाओं के साथ काम किया है। इन्हीं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की वजह से आवेश तिवारी को बबिता के बारे में पता चला और उसने कहानी को अपनी सुविधा के हिसाब से दो बार पेश किया और आवेश तिवारी कहेगा कि उसने बातचीत के आधार पर, जमीन पर काम करके यह रिपोर्ट तैयार किया है। आवेश जैसों के झूठ की जूठन लेकर अविनाश जी मुझे चुनौती दे रहे हैं। क्या मुझे इतना निरीह समझा जा रहा है कि इस तरह के फर्जी सरोकारों से मैं डर कर चुप बैठ जाऊंगी। बेफिक्र रहिए आप लोग। मैं किसी कच्ची राजनीतिक जमीन पर नहीं खड़ी हूं। यहां त्रासदी यह है कि मुद्दे से ज्यादा महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो गया है। गुरु मेरा अंतिम सच नहीं है। लेकिन जो मेरे राजनीतिक गुरु रहे हैं, उन्होंने कहा था कि किसी पर भी निजी हमले मत करना, और कोई निजी हमला करे तो मत डरना।

आवेश तिवारी, मैं कोयलनगर जरूर आऊंगी। अच्छा हुआ कि अपने घिनौने चेहरे को तुमने खुद मार्क्सवादियों और नारीवादियों के सामने रख दिया। मेरा सभी नारीवादी कार्यकर्ताओं, लेखिकाओं, पत्रकारों से आग्रह है कि वे आवेश तिवारी और उसके जैसे लोगों की घिनौनी हरकतों के खिलाफ आवाज उठाएं। यह स्टैंड लेने का समय है।

और हां, अंजनी कुमार (अजय प्रकाश को मैं इस लायक नहीं मानती कि उसकी किसी बात का जवाब दिया जाए…), मेरे लिखे को अंग्रेजी की उतरन के आधार पर लिखा गया घोषित करने वालों और आपके जवाब के बारे में कहना है कि जिस तहलका की रिपोर्ट के आधार पर आपने तथाकथित जवाब लिखा है, उसमें उमा का पक्ष कहीं नहीं है। आप मेरी स्त्री चिंता को पुलिस के संदर्भों के तराजू पर रख कर तोल रहे हैं। आपकी चिंता का ठौर कहां है, क्या यह आपने देखा है। ज्यादा दिन नहीं हुए – दैनिक भास्कर में आपका एक लेख छपा था बंगाल में हरमात वाहिनी की कारगुजारियों को लेकर। उसका आधार खुफिया विभाग की रपट थी। क्या किसी अखबार की रिपोर्ट के मुकाबले खुफिया विभाग की रपट आपको ज्यादा विश्वसनीय लगती है।

दोस्तों, यही है माओवादियों के पैरोकारों का पाखंड और उनकी हकीकत।

mrinal thumbnail(मृणाल वल्‍लरी। जनसत्ता अखबार से जुड़ी पत्रकार। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से एमए। सामाजिक आंदोलनों से सहानुभूति। मूलत: बिहार के भागलपुर की निवासी। गांव से अभी भी जुड़ाव। उनसे mrinaal.vallari@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)




Palash Biswas
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