1976 में बंगाल में आरक्षण लागू करवाने वाले डा.गुणधर वर्मन को कोलकाता ने याद किया।
किसी गुरिल्ला युद्ध से हालात बदले नहीं जा सकते!
जन आंदोलनों को अब और रचनात्मक बनाना जरुरी है!
देशभर में जनप्रतिबद्ध लोगों की मोर्चाबंदी फौरी जरुरत!
पलाश विश्वास
ओमपुरी के अवसान पर समांतर फिल्मों और लघुपत्रिका आंदोलन पर चर्चा के साथ हमने जो इप्टाांदोलन के तितर बितर हो जाने की बात लिखी है,विभिन्न राज्य में सक्रिय इप्टा के रंगकर्मियों को लगता है उस पर ऐतराज है।हमें उनकी सक्रियता के बारे में कोई शक नहीं है।हम जानते हैं कि बिहार छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में इप्टा आंदोलन अब भी जारी है।रंगकर्म और इप्टा दोनों हमारे वजूद में हैं।
हम सिर्फ यह कह रहे हैं ,बिहार के तनवीर भाई और छत्तीसगढ़ के निसार अली और तमाम साथी इस पर गौर करें कि हम मुद्दा इप्टा के गौरवशाली भूमिका की उठा रहे हैं।बंगाल की भुखमरी से लेकर साठ सत्तर के दशक में भी भारतीय माध्यमों में,विधाओं में,कला क्षेत्र में इप्टा की मौजूदगी सर्वव्यापी रही है।समांतर सिनेमा का आधार रंगकर्म है और अब भी हमारे बेहतरीन तमाम कलाकार स्टार थिएटर से हैं।भारतीय फिल्मों के तमाम कलाकारों,संगीतकारों,गायकों से लेकर अनेक चित्रकारों और लेखक कवियों की पृष्ठभूमि इप्टा से जुड़ी है।सारे माध्यमों और विधाओं से रंगकर्म जुड़ा है।
उस आलेख में भी हमने इसी पर फोकस किया है लेकिन कुछ मित्रों ने आधा अधूरा आलेख छापा है या पोर्टल में लगाया है,जिससे यह संदेश गया है कि हम मौजूदा परिप्रेक्ष्य में इप्टा को अनुपस्थित मान रहे हैं।पूरा आलेख हस्तक्षेप पर लगा है।कृपया उसे भी देख लें।मूलतः उस आलेख का फोकस समांतर फिल्मों पर है।हमने लघु पत्रिका आंदोलन की भी कायदे से चीरफाड़ अभी नहींं की है।
हम इप्टा को भी बेहद प्रासंगिक मानते हैं।रंगकर्म हमारे लिए जन आंदोलन की बुनियाद है।हमने रंग चौपाल के मार्फत देशभर के रंगकर्मियों को एक साथ मोर्चाबंद करने की पहल भी इसीलिए की है,जिसमें निसार अली और कुमार गौरव जैसे लोग हमारे साथ हैं।सिर्फ इप्टा के लोगों को भी हम एक साथ जोड़कर रंगकर्म को आजादी के आंदोलन की बुनियाद बनायें,तो तेजी से हम व्यापक जन मोर्चाबंदी में कामयाब हो सकते है।
हमारे मित्र शमशुल इस्लाम भी बुनियादी तौर पर रंगकर्मी हैं।हम उनसे भी लगातार संवाद कर रहे हैं।हमें फिर उत्पल दत्त,सफदर हाशमी और शिवराम जैसे रंगकर्मियों की बेहद सख्त जरुरत है।फिलहाल इतना ही,इप्टा पर बहुत कुछ कहना लिखना बाकी है।
हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े अब खड़गपुर में नहीं हैं।रोजाना उनसे घंटों जरुरी मुद्दों पर बातें होती रहती थीं।एक अंतहीन का सिलसिला महीनों से थमा हुआ है।आनंद हमेशा कहा करते हैं कि सत्ता जब निरंकुश हो तो प्रतिरोध बेहद रचनात्मक बनाने की जरुरत होती है।हालात खराब इसलिए भी हैं कि रचनात्मकता के सारे माध्यमों और विधाओं से बेदखली के बाद रचनात्मक प्रतिरोध की जमीन पांव तले से खिसक सी गयी है।संस्कृतिकर्मियों का रचनात्मक प्रतिरोध कहीं अभिव्यक्त हो नहीं रहा है।या भारत में अभिव्यक्ति का वह स्पेस बोलियों और लोक के खात्मे से खत्म है।
कल रात भागलपुर से लघु पत्रिका आंदोलन के जमाने से डा.अरविंद कुमार का फोन आ गया अचानक।उनने कहा कि कोलकाता से आशुतोष जी ने नंबर दिया है।कोलकाता में संस्कृति जगत की दुनियाभर में धूम है।लेकिन नवारुण भट्टाचार्य से निधन के बाद वहां किसी से मेरा किसी किस्म का संवाद हुआ नहीं है।
कभी देशभर के लेखकों और कवियों से हमारा निरंतर संवाद जारी रहा था।खासकर अमेरिका से सावधान लिखते हुए हर छोटे बड़े कवि से हमारी बातें होती रहती थी।रोजाना सैकड़ों पत्र आते थे।यूपी बिहार मध्यप्रदेश राजस्थान के तमाम संस्कृतिकर्मियों से लगातार विचार विमर्श होता रहा है।आज वे तमाम नाम और चेहरे सिर्फ स्मृतियों में दर्ज हैं।यथार्थ की जमीन पर संस्कृतिकर्मी कौन कहां है,फेसबुक में उनकी अविराम सक्रियता के बावजूद मुझे ठीक ठीक मालूम नहीं है।
परसों अरसे के इंतजार के बाद आनंद पटवर्धन से लंबी बातचीत संभव हो सकी।हम मौजूदा चुनौतियों से निबटने के तौर तरीकों पर बात कर रहे थे और कोशिश कर रहे थे कि हम अपनी भूमिकाओं की चीड़फाड़ करें और माध्यमों और विधाओं में नये सिरे से जनपक्षधरता का मोर्चा मजबूत करने की पहल करें।आनंद पटवर्धन से बात हो रही थी तो जाहिर है कि बातचीत में वृत्तचित्रों और फिल्मों का भी जिक्र हो रहा था और अभिव्यक्ति की रचनात्मकता की बात भी हो रही थी।
कल रात फिर कर्नल भूपाल चंद्र लाहिड़ी से फोन पर लंबी बातचीत हुई और उन्होंने जोर खासकर इस बात पर दिया कि कोई जरुरी नहीं है कि हम फिल्मों के पोस्ट प्रोडक्शन या डबिंग ,व्यायस ओवर के लिए तकनीकी उत्कर्ष की ज्यादा परवाह करें।अत्याधुनिक स्टुडियो की भी हमें जरुरत नहीं है।आपबीती सुनाते हुए उन्होेंने कहा कि उनकी फिल्म एई समय को कोलकाता के नंदन में सेंसर से पास होने के बाद प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं मिली।कोलकाता में कहीं वह फिल्म तब तक प्रदर्शित नहीं हो सकी जबतक न वह टोरंटो फिल्म समारोह में प्रंशंसित हुई।कोलकाता में हमने आनंद पटवर्धन,जोशी जोसेफ और नवारुण भट्टाचार्य के उपन्यास कंगाल मालसाट पर बनी फिल्मों पर रोक लगते देखा है।
कोलकाता के सांस्कृतिक जगत में भी कर्नल लाहिड़ी अकेले रहे।अकेले हैं। लेकिन एक जेनुइन योध्दा की तरह उन्होंने मरते दम तक मोर्चा पर बने रहने का करतब कर दिखाया है। उनका मानना है कि संगठन हो या नहीं,पूरी रचनात्मकता के साथ जनप्रतिबद्ध लोगों को देश भर में साथ साथ काम करने के रास्ते मोर्चाबंद होना चाहिए क्योंकि राजनीति कारपोरेट हो गयी है।यही फौरी जरुरत है।
गौरतलब है कि कर्नल लाहिड़ी डायलिसिस कराने के बाद सात जनवरी को नंदीग्राम गये थे और वहां उन सबसे मुलाकात किया,जिन्होंने नंदीग्राम में आंदोलन किया था।
उनके साथ नंदीग्राम डायरी के लेखक पुष्पराज भी थे।
इसी दिन वहां बरसों पहले निहत्था किसानों और स्त्रियों पर पुलिस ने गोली चलायी थी। बंगाल मरीचझांपी नरसंहार की तरह नंदीग्राम गोलीकांड को भी सत्ता के चिटपंड कार्निवाल में,सर्वव्यापी केसरियाकरण के निर्विरोध महोत्सव में भूल गया है और बाकी देश को भी नंदीग्राम का प्रतिरोध याद नहीं है।
चूंकि विरोध प्रतिरोध से गुलामी खत्म होने का सबसे बड़ा खतरा है।गुलामगिरि खोने का डर है।गैंडे की खाल में खरोंच पड़ने का डर है।कालनिद्रा में खलल पड़ने का डर है।सर में रातोंरात सींग उग जाने से गदहा जनम खत्म होने का नर्क से विदाई का खतरा है।मुक्तबाजारी क्रयशक्ति से बेदखल होने का डर है।
कर्नल लाहिड़ी ने कार्यकर्ताओं के साथ उस जनांदोलन में बलात्कार और दमन की शिकार महिलाओं से भी मुलाकात की है।
वे भी शुरु से उस आंदोलन के साथ थे और इसी सिलसिले में पुष्पराज से उनकी मुलाकात हुई।उस आंदोलन का फिल्मांकन जोशी जोसेफ ने किया था।
जनांदोलनों के पीछे रह जाने और मीडिया मार्फत राजनीति और सत्ता के वर्चस्व के खेल से लेखक फिल्मकार रंगकर्मी कर्नल भूपाल चंद्र लाहिडी दुःखी हैं।वे सुंदर वन के बच्चों को पौष्टिक आहार और शिक्षा देने का काम भी अकेले दम कर रहे हैं।
इसलिए कर्नल लाहिड़ी भी इस बात पर जोर दे रहे थे कि जनांदोलनों को सिरे से रचनात्मक बनाने की जरुरत है।
अब संगठनों पर भरोसा आहिस्ते आहिस्ते कम होता जा रहा है।
उनका कहना है कि संगठन या तो बन नहीं रहे हैं या फिर संगठन बनकर भी बिखर रहे हैं या उनका चरित्र वाणिज्यिक या राजनीतिक होता जा रहा है,जो सिरे से जनविरोधी है।इसलिए ज्यादा से ज्यादा जनप्रतिबद्ध लोगों को लेकर विचारधाराओं के आर पार निरंकुश सत्ता के खिलाफ आम जनता के हकहकूक के लिए आवाज उठानी चाहिेए।
नंदी ग्राम की ताजा रपट कर्नल लाहिड़ी और पुष्पराज से जल्द ही मिलने की संभावना है।मिलती है तो हम उन्हें भी साझा करेंगे।
फिल्मकार आनंद पटवर्द्धन का भी यही मानना है जो हम बार बार कहते रहे हैं कि सत्ता जब निरंकुश है और सत्तावर्ग का जब वैश्विक तंत्र मंत्र यंत्र है तो अकेले किसी के दम पर जनांदोलन तो दूर अभिव्यक्ति का कोई रास्ता भी खुला नहीं है।
फिल्मकार आनंद पटवर्द्धन का तो यह मानना है कि जो प्रतिबद्ध कार्यकर्ता भूमिगत हैं,उन्हें अपने दड़बों से बाहर निकलकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल हो जाना चाहिए क्योंकि किसी गुरिल्ला युद्ध से हालात बदले नहीं जा सकते और न ही सिर्फ विश्वविद्यालयों के छात्रों और युवाओं के आंदोलन से आम जनता के हकहकूक बहाल हो सकते हैं।
पहाड़ों में चिपको चिपको आंदोलन महिलाओं ने शुरु किया,तो उत्तराखंड आंदोलन में भी माहिलाओं की निर्णायक भूमिका रही।मणिपुर में सश्स्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून के खिलाफ आंदोलन इंफाल के इमा (मां) बाजार से महिलाओं ने शुरु किया जिसका चेहरा इरोम शर्मिला रही हैं।पितृसत्ता के खिलाफ यह स्त्री का खुल्ला प्रतिरोध है।
स्त्रियों के नेतृत्व में देशव्यापी आंदोलन निरंकुश सत्ता और फासिज्म के खिलाफ सबसे सशक्त प्रतिरोध की जमीन तैयार कर सकता है।
इस सिलसिले में स्त्रीकाल की ओर से देशभर में महिला नेतृत्व की खोज एक सकारात्मक पहल है। मनुस्मृति और पितृसत्ता के खिलाफ खड़े हुए बिना,स्त्री को उसके हक हकूक दिये बिना यह सामाजिक क्रांति असंभव है।चंदन से हमने यही कहा है।
पहाड़ों में स्त्री अर्थव्यवस्था और रोजमर्रे की जिंदगी की जिंदगी की धुरी है। उत्तराखंड में स्त्री शिक्षा साठ सत्तर के दशक से बाकी देश से बेहतर है।इसी वजह से आज तक उत्तराखंड के तमाम आंदोलनों में स्त्री का नेतृत्व है।
बंगाल में किसी घर में ईश्वर चंद्र विद्यासागर या राजा राममोहन राय की तस्वीर नहीं है।बाकी भारत में भी स्त्री मुक्ति के इन सिपाहसालारों को याद करने वाले नहीं है।
क्योंकि हम पितृसत्ता के मनुस्मृति राज के गुलाम हैं।हमारे डीएनए में, नस नस में मनुस्मृति पितृसत्ता है।सवर्णों की तुलना में बहुजनों में स्त्री अत्याचार किसी भी स्तर पर कम नहीं है।इसके उलट स्त्री का कोई सम्मान बहुजन समाज में नहीं है।घरेलू हिंसा से बहुजन समाज रिहा नहीं है।मेहनतकश स्त्री सबसे ज्यादा इसी समाज में हैं,जिनकी अपने घर में कोई इज्जत नहीं है।जिसकी वजह से उनका नर्क खत्म नहीं होता।
स्त्री के नेतृत्व को स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा बहुजनों का हिंदुत्वकरण है।अवतारवाद है।जहां से शोषण उत्पीड़न के दस दिगंत खुलते हैं।मुक्तबाजार का तड़का अलग है।इसी वजह से हिसाब बराबर करने का सबसे सरल तरीका बलात्कार है।स्त्री के खिलाफ हिंसा में वृद्धि स्त्री के हर क्षेत्र में नेतृत्व के खिलाफ पितृसत्ता का कुठाराघात है।
धर्म जाति हैसियत से इसमें कोई फर्क नहीं पड़ा है।जिसके मुताबिक स्त्री शूद्र,हर महाभारत लंकाकांड की असल वजह,देहदासी देवदासी का नर्क का द्वार है।समाजवादी मूसलपर्व के पीचे भी कैकयी है।पिता पुत्र बाकी सिपाहसालार पाक साफ हैं,दोषी सिर्फ सास और बहुएं हैं।सारे धर्म,धर्म ग्रंथ स्त्री के विरुद्ध हैं।शरतचंद्र और रवींद्रवनाथ के अलावा साहित्य में किसी मर्द को स्त्री की देह के पार स्त्रीमन की कोई परवाह नहीं रही है।
स्त्री मुक्ति आंदोलन में बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाले बंगाल के हरिचांद ठाकुर और महाराष्ट्र के महात्मा ज्योतिबा फूले और और माता सावित्री बाई फूले को भारतीय हिंदुत्व वर्चस्व के गुलाम समाज में मान्यता अभी भी नहीं मिली है।
मशहूर फोटोकार कमल जोशी ने नैनीताल समाचार में स्त्रियों के द्वाराहाट सम्मेलन की रपट लिखी है।इससे पहले कारपोरेट शिकंजे में फंसी जमीन का रिहा कराने के लिए अल्मोड़ा में भी स्त्रियों ने निर्णायक भूमिका निभाई है।
कमल जोशी फ्रेम दर फ्रेम पहाड़ की मेहनतकश स्त्री को फोकस करते हैं।
भारत में पर्यावरण चेतना के भीष्म पितामह सुंदरलाल नब्वे साल के हो गये।
उन्हें प्रणाम।
पर्यावरण आंदोलन को अभी जल जंगल जमीन की लड़ाई का हथियार बनाना बाकी है।इस बारे में हमने लगातार लिखा है।
कल बंगाल के बुद्ध की उपाधि से मशहूर वैज्ञानिक तार्किक आंदोलन के सूत्रधार और बंगाल में बहुजन आंदोलन के निर्विवाद नेता डा.गुणधर वर्मन को कोलकाता ने याद किया।
भारत का संविधान 26 जनवरी ,1950 में लागू हुआ लेकिन सरकारी नौकरियों में बंगाल में आरक्षण संविधान लागू होने के 26 साल बाद 1976 में लागू हो सका।इसके लिए पेशे से चाइल्ड स्पेशलिस्ट चिकित्सक डा.गुणधर वर्मन ने बंगाल में जबर्दस्त आंदोलन किया और आरक्षण के सहारे मलाईदार जिंदगी जीने वाले लोग डा.गुणधर वर्मन को नहीं जानते।बंगाल में मनुस्मृति शासन तो भारत विभाजन के बाद से लगातार लागू है।
बहरहाल बंगाल में 1976 में आरक्षण लागू होने से मनुस्मृति शासन में कोई व्यवधान आया नहीं है।फर्क सिर्फ इतना हुआ है कि पहले हिंदू महासभा को बंगाल की जमीन से भारत विभाजन करने, बंगाल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था बहाल करने के लिए भारत विभाजन में कामयाबी मिली तो सत्ता में संघ परिवार को काबिज होने का मौका दूसरे राज्यों की तरह अब भी नहीं मिला है।
अब बिना सत्ता के बंगाल पूरी तरह केसरिया है।संघियों का शिकंजा है और मुख्यमंत्री भी संघ परिवार के विपक्ष का चेहरा चिटफंड है।बहुजनों का सफाया है।
1976 से अबतक जिन लोगों को आरक्षण मिला वे तमाम लोग सत्ता के साथ नत्थी मलाईदार लोग हो गये हैं और बंगाल में हिंदुत्व के वे ही धारक वाहक है।
1976 में आरक्षण लागू होने के बाद 1977 से 2011 तक बंगाल में वामपक्ष का शासन रहा और वाम आंदोलन में बहुजनों के चेहरे नेतृत्व में जैसे गायब रहे,वैसे ही आरक्षण की रस्म अदायगी सांकेतिक तौर पर होती रही।
बंगाल में भारत के दूसरे राज्यों के मुकाबले आरक्षित पदों पर रिक्तियों के लिए योग्य उम्मीदवार कभी नहीं मिलते।ओबीसी बंगाल में नहीं है,वाम दावा था जबकि आधी आबादी ओबीसी है।अभी भी ओबीसी आरक्षण बंगाल में लागू नहीं है।बंगाल के ओबीसी खुद को सवर्ण मानते रहे हैं।मनुस्मृति शान उन्हीं की वजह से है।पूरे देश का किस्सा वही।
स्कूल कालेजों में शिक्षक नहीं हैं,विश्वविद्यालयों में फैकल्टी नहीं है। स्कूल सर्विस कमीशन से लेकर विश्वविद्यालयों तक की नियुक्ति परीक्षाएं पास करने वाले लाखों अनुसूचितों को रोजगार नहीं मिला।सुंदरवन इलाके में कहीं विज्ञान की पढ़ाई नहीं है प्रगतिशील बंगाल में।जाति प्रमाणपत्र भी नहीं मिलते।हर क्षेत्र में,हर विभाग में ज्यादातर आरक्षित पद बरसों से खाली रहने के बाद योग्य उम्मीदवार न मिलने की वजह से सामान्य बना दिये गये।नौकरी,रोजगार के लिए पार्टीबद्ध होने की अनिवार्यता है।जीने के लिए ,सांस सांस के लिए पार्टीबद्ध होना जरुरी है।चाहे राजकिसी का भी हो।
सामाजिक कार्यकर्ता मृन्मय मंडल और अतुल हावलादार ने पढ़े लिखे लोगों की बेवफाई को बहुजनों के दुःख का सबसे बड़ा कारण बताया है क्योंकि आरक्षण हासिल करने के बाद बाबासाहेब की इन संतानों ने अपने समाज के लिए कुछ किया नहीं है।
इस मौके पर बंगाल भर से सामाजिक कार्यकर्ता मध्य कोलकाता के धर्मांकुर बौद्ध मंदिर में एकत्रित हुए जिनकी स्मृतियों में डा.गुणधर वर्मन एक भिक्षु रहे हैं।जिन्होंने संगठन और आंदोलनों में खुद को मिटा दिया है।इन तमाम लोगों ने मौजूदा हालात से निपटने के लिए गहन विचार विमर्श किया।
सबसे ज्यादा चिंता इन्हें यूपी को लेकर है।
बंगाल के सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक अगर नोटबंदी के जरिये संघ परिवार ने यूपी दखल कर लिया तो पूरे भारत की आम जनता, किसानों, मजदूरों, व्यापारियों , नौकरीपेशा लोगों के लिए कयामत है।
सबसे ज्यादा चिंता इन्हें यूपी को लेकर है कि यूपी जीतने के बाद राज्यसभा में बहुमत हासिल करने के बाद फासिज्म की सत्ता और नरसंहारी हो जायेगी और भारतीय संविधान की जगह मनुस्मृति अक्षरशः लागू हो जायेगी।
कार्यकर्ताओं ने एक स्वर से नोटबंदी को यूपी दखल करके बहुजनों के नरसंहार का हिंदुत्व कारपोरेट कार्यक्रम बताया और यूपी की जनता से अपील की कि देश बचाने के लिए हर हाल में संघ परिवार को कड़ी शिकस्त दें।
माफ करें,हालात से निबटने के लिए रणनीति पर जो सिलसिलेवार चर्चा हुई,उसे हम साझा नहीं कर रहे हैं।
कृपया इन दस्तावेजों को गौर से पढ़ेंः
Reservation of Vacancies in Services and Posts
Govt of West Bengal passed "West Bengal Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Reservation of Vacancies in Services and Posts) Act, 1976" and framed Rules under the Act. This extends to the whole of West Bengal i.e. it is to be followed not only by the Public Service Commission direct recruitment for Govt. of West Bengal but also Non-PSC direct recruitment vacancies arising in State Govt. Establishments, State Govt. Undertakings, Quasi Govt. Establishments and Local Bodies. The vacancies to be filled up by direct recruitment and for promotion in the whole of West Bengal come under the purview of this reservation act except any employment in the West Bengal Higher Judicial Service, private sector, domestic service and single post cadre. There shall be reservation of 22% for members of Scheduled Caste, 6% for members of Scheduled Tribe. There is no reservation for Backward Class candidate for promotion. A separate 50 / 100 point roster shall be maintained by every establishment. 100 point roster is maintained for direct recruitment and 50 point roster is maintained for promotion. At present, there are 100 communities identified by Govt. of West Bengal as SC/ST; among which 60 communities are SC and 40 communities are ST. Here is a list of the same:-
WB SC & ST(Reservation of vacancies in the services and post)Act ...
05/05/1976 - West Bengal Act XXVII of 1976. The West Bengal Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Reservation of vacancies in. Services and Posts) ...
[PDF]The West Bengal Scheduled Castes and ... - Search State Laws
Act, 1976. mcnl. (2) 11 extends to the whole of West Bengal. (3) I! shall come inlo .... -'Provided fuflher that thc nurnbcr of any Scheduled Caste ..... 2 1 st vacancy.
[PDF]RESERVATION ACT
05/05/1976 - West Bengal Act XXVII of 1976. The West ... Services and Posts) Act,1976 ..... st vacancy. Scheduled Caste. 2 nd vacancy. Unreserved. 3 rd.
नोटबंदी के फैसले की समीक्षा के लिए संसद की लोक लेखा समिति ने वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों समेत रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर उर्जित पटेल को 28 जनवरी को अपने समक्ष पेश होने के लिए तलब किया था. कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता केवी थॉमस अध्यक्षता वाली इस समिति ने आरबीआई गर्वनर से 10 सवाल पूछे हैं. इन सवालों में नोटबंदी पर आरबीआई की भूमिका और उसके प्रभाव के बारे में पूछा गया है.
'इंडियन एक्सप्रेस' की खबर के मुताबिक ये सवाल 30 दिसंबर को भेजे गए. 10 सवाल ये हैं…
1. केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने सदन में कहा है कि नोटबंदी का फैसला आरबीआई और इसके बोर्ड ने लिया. सरकार ने इस सलाह पर निर्णय लिया. क्या आप सहमत हैं?
2. आरबीआई ने कब तय किया कि नोटबंदी भारत के हित में हैं?
3. रातों-रात 500 और 1000 के नोट बंद करने के पीछे आरबीआई ने क्या तर्क पाए?
4. आरबीआई के अनुसार भारत में सिर्फ 500 करोड़ रुपये की जाली करेंसी है. जीडीपी के मुकाबले भारत में नकद 12 फीसदी था, जो कि जापान (18%) और स्विट्जरलैंड (13%) से कम है. भारत में मौजूद नकदी में उच्च मूल्य के नोटों का हिस्सा 86% था, लेकिन चीन में 90% और अमेरिका में 81% है. ऐसी क्या चिंताजनक स्थिति थी कि नोटबंदी का फैसला लिया गया?
5. 8 नवंबर को होने वाली आपातकालीन बैठक के लिए आरबीआई बोर्ड सदस्यों को कब नोटिस भेजा गया था? उनमें से कौन इस बैठक में आया? कितनी देर यह बैठक चली?
6. नोटबंदी की सिफारिश करते हुए क्या आरबीआई ने स्पष्ट किया था कि 86 प्रतिशत नकदी अवैध होगी? कितने समय में व्यवस्था पटरी पर लौट सकेगी?
7. फैसले के बाद बैंकों से 10000 रुपये प्रतिदिन और 20000 रुपये प्रति सप्ताह निकासी की सीमा तय की गई. एटीएम से 2000 रुपये प्रतिदिन की सीमा तय की गई. किस कानून और शक्तियों के तहत लोगों पर अपनी ही नकदी निकालने की सीमा तय की गई? करेंसी नोटों की सीमा तय करने की ताकत आरबीआई को किसने दी? क्यों न आप पर मुकदमा चलाया जाए और शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए पद से हटा दिया जाए?
8. इस दौरान आरबीआई के नियमों में बार-बार बदलाव क्यों हुए? उस आरबीआई अधिकारी का नाम बताएं जिसने निकासी के लिए लोगों पर स्याही लगाने का विचार दिया? शादी से जुड़ी निकासी वाली अधिसूचना किसने तैयार की? अगर यह सरकार ने किया था तो क्या अब आरबीआई वित्त मंत्रालय का एक विभाग है?
9. कितने नोट बंद किए गए और कितनी पुरानी करेंसी जमा हुई?
10. आरबीआई आरटीआई के तहत मांगी जाने वाली जानकारी क्यों नहीं दे रहा?
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2 comments:
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