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Sunday, January 20, 2013

हथियारों का बाजार खोलने के लिए ही हिंदुत्व का यह गृहयुद्ध!

हथियारों का बाजार खोलने के लिए ही हिंदुत्व का यह गृहयुद्ध!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

भारत पाकिस्तान सीमा पर तनाव और कारगिल युद्ध के बाद मीडिया प्रायोजित धर्मराष्ट्रवादी युद्धोन्माद का रहस्य अब कुलने लगा है। जैसे हम कह ही रहे थे कि भारत अब दुनियाभर के युद्धकारोबारियों की मंजिल है, वैसा ही सबकुछ चल रही है। पाकिस्तान के आंतरिक संघर्ष और​​ संवैधानिक संकट के  नाजुक मौके पर वहां लोकतंत्र की हत्या और सैनिक वर्चस्व की स्थापना जहां इस उपमहाद्वीपीय युद्धक वधस्थल के​​ लिए वैश्विक व्यवस्था के हित हैं , वहीं युद्ध हो या नहीं, हथियारों के सौदे का माहौल रचने का खेल तो यह है ही। भारत पाक तनाव ही नहीं, अब फिर एक दफा चीन को भी बतौर खतरा चिन्हित करके प्रतिरक्षा को लाल निशान पर रखने का जुगाड़ हो गया है। कहा जा रहा है कि चीन में युद्ध की तैयारी चल रही है। घटती विकास दर और तेज होते आर्थिक संकट के मद्देनजर चीन भारत से क्यों उलझना चाहेगा ,यह समझ से परे है। हालत और संगीन राहुल गांधी की ताजपोशी से हो गयी। क्योंकि पक्ष विपक्ष दोनों की पूंजी धर्म राष्ट्रवाद है और दोनों ही जनसंहार नीतियों के तहत खुले बाजार की ​​अर्थव्यवस्था के साझेदार है, राहुल और नरेंद्र मोदी की सीधी लड़ाई में उनका अपना अपना हिंदुत्व खतरे में है। राहुल ने जहां भावुक होकर ​​सत्ता को विष समझकर मां की चिंता से देश को अवगत कराया, वहीं गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे संघ परिवार पर केशरिया आतंकवाद का ​​आरोप मढ़ दिया। अगर शिंदे गृहमंत्री की हैसियत से बोल रहे हैं तो उनसे पूछा जाना चाहिे कि पिछले दो कार्यकाल में उनकी सरकारों ने​​ केशरिया आतंकवाद के खिलाफ क्या किया और क्यों राष्ट्रपति को कानून के मताबिक तुरंत कार्रवाई करने की अपील करनी पड़ रही है। दरअसल हिंदुत्व के इस गृहयुद्ध की आड़ में दोनों पक्षों की मिलीभगत से भारत में हथियारों के बाजार का ही विस्तार किया जा रहा है। वैसे भी न केशरिया  आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई होनी है और न मानवता के अपराधी सींखचों के पीछे होंगे।सींखचों के पीछे चले जाने के बाद भी राजनेता की रिहाई और फिर सत्ता में वापसी में देरी नहीं लगती, जो उन्हें फिक्र करने  की जरुरत है। जाहिर है कि वे सत्ता में साझेधार हैं और मनुष्यता और जनता के विरुद्ध अपराध और युद्ध में भी साझेदार।अनेक मुस्लिम धार्मिक नेता बारबार ये दावा करते हैं कि सच्चा मुसलमान,इस्लाम में ईमानदारी से आस्था रखने वाला मुसलमान आतंकवादी हो नहीं सकता।उनके इस दावे को संघ परिवार नकार देता है.लेकिन अब जब हिन्दू आतंकवाद की चर्चा होनी लगी है तो पूरा दृश्य बदल रहा है।

भारत और अमेरिका ने जेट इंजन आपूर्ति के 3,000 करोड़ रुपये के सौदे को अंतिम रूप दे दिया है। अमेरिका से खरीदे जाने वाले 99 जेट इंजनों का भारत में निर्मित हल्के लड़ाकू विमान 'तेजस' में इस्तेमाल किया जाएगा। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) इसे विकसित कर रहा है। भारत ने एलसीए मार्क-दो कार्यक्रम के लिये करीब दो साल पहले यूरोपीय यूरोजेट 2000 के मुकाबले अमेरिकी कंपनी जनरल इेक्ट्रिक को तरजीह दी। इस कार्यक्रम के 2014-15 तक पूरा होने की उम्मीद है।

डीआरडीओ अधिकारियों ने कहा, 'हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस एमके दो के लिये 99 इंजन खरीदने को लेकर अमेरिका के साथ 3,000 करोड़ रुपए के सौदे को अंतिम रुप दे दिया गया है।'अनुबंध के तहत आर्डर शुरू में 99 इंजन का हो सकता है लेकिन भारत के पास भविष्य में 100 और इंजन का आर्डर देने का विकल्प होगा।एलसीए मार्क-2 के लिये इंजन जीईएफ-414 है जो पूर्व में लगे जीई एफ-404 के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली है।डीआरडीओ वायुसेना की जरूरतों को पूरा करने के लिये एलसीए एमके दो का विकास कर रहा है। इसमें एक्टिव इलेक्ट्रानिक स्कैन्ड एरे (एईएसए) रडार समेत अत्याधुनिक उपकरण लगे होंगे और एलसीए एमके 1 के मुकाबले इसकी आयुध वहन क्षमता भी अधिक होगी।

केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने रविवार को भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर देश में हिन्दू आतंकवाद फैलाने के लिए आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाने का आरोप मढ़ दिया। हालांकि बाद में सफाई देते हुए शिंदे ने कहा कि उनका आशय भगवा आतंकवाद से था। शिंदे ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में कहा कि जांच के दौरान खबरें आईं हैं कि भाजपा और संघ ने आतंकवाद फैलाने के लिए आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाए। समझौता एक्सप्रेस और मक्का मस्जिद में बम लगाए गए। मालेगांव में विस्फोट किया गया। हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा और सतर्क रहना होगा।सुशील कुमार शिंदे का इतना कहना था कि बीजेपी आग बबूला हो उठी। बीजेपी ने शिंदे के बयान को सिर्फ़ दुर्भाग्यपूर्ण नहीं बल्कि देश के माहौल के लिए ख़तरनाक क़रार दे दिया। बीजेपी ने इस बयान पर सोनिया गांधी को माफी मांगने को कहा है और गंभीर परिणाम की चेतावनी भी दी है। बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि कांग्रेस में पाकिस्तान को जवाब देने की तो हिम्मत नहीं। मगर बीजेपी और संघ के खिलाफ कुछ भी बोल सकती है।

कांग्रेस ने रविवार को गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे की उस टिप्पणी के लिए उनका बचाव किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने शिविरों में हिंदू आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। शिंदे की इस टिप्पणी से भड़की भाजपा ने रविवार को कहा कि अपने बयान के लिए गृह मंत्री माफी मांगें। भाजपा और शिवसेना ने केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की देश में 'भगवा आतंकवाद' संबंधी बयानों की आलोचना की है। शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने कहा कि यदि शिंदे के पास कोई सबूत है तो उन्हें दिखाना चाहिए। राउत ने कहा कि शिंदे गृहमंत्री हैं। यदि उनके पास सबूत हैं तो उन्हें दिखाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें शर्मिंदगी महसूस होती है कि वह महाराष्ट्र से हैं।

शिंदे ने कहा कि उन्होंने केवल वही कहा जो मीडिया में आया है और उनका इशारा "भगवा आतंकवाद" की ओर था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के चिंतन शिविर में शिंदे ने दक्षिण पंथी तत्वों के आतंकवादी घटनाओं में संलिप्तता की ओर इशारा किया था और कहा था कि भ्रामक सूचनाओं से सावधान रहने की जरूरत है।

शिंदे ने कहा था, "जांच के बाद हमने पाया कि या तो भाजपा या फिर आरएसएस अपने प्रशिक्षण शिविरों में हिंदू आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। यह चिंता की बात है।"

बाद में उन्होंने संवाददाताओं से कहा, "इसमें नई बात कुछ भी नहीं है। यह सब कई बार अखबारों में आ चुका है। मैंने भगवा आतंकवाद की बातें की हैं।"

अपने भाषण में शिंदे ने समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट, हैदराबाद की मक्का मस्जिद और महाराष्ट्र के मालेगांव की घटना का जिक्र किया और कहा कि भ्रामक सूचनाओं से सावधान रहना चाहिए कि बम अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने रखे थे।

कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने संवाददाताओं से कहा, "हम तो लंबे समय से यह जानते हैं। शिंदे ने यह कहने का साहस किया।"

भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने कहा, "भगवा आतंकवाद के खिलाफ है। भगवा हमारी परंपरा, संस्कृति और त्याग का प्रतीक है। गृह मंत्री को राष्ट्र से माफी मांगनी चाहिए।"

संसदीय कार्य राज्य मंत्री राजीव शुक्ला ने कहा, "कोई हिंदू या मुस्लिम आतंकवाद नहीं है। उनका आशय दक्षिणपंथी आतंकवाद से था।"

...जब रो पड़ीं सोनिया और सो नहीं पाए राहुल

कांग्रेस में औपचारिक रूप से  नंबर-2  की कुर्सी संभालने वाले राहुल गांधी न सिर्फ स्वयं बल्कि उनकी मां सोनिया गांधी भी शनिवार की रात काफी भावुक हो उठीं और रो पड़ीं।

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में आज राहुल ने परिवार के अंतरंग क्षणों को कांग्रेसजन से बांटते हुए कहा कि मैं कुछ भावुक बातें बताना चाहता हूं कि कल पार्टी का मुझे उपाध्यक्ष बनाये जाने के बाद मैं रात को सो नहीं पाया। सुबह चार बजे उठा और बालकनी में गया।

उन्होंने कहा कि बड़ी जिम्मेदारी महसूस कर रहा था। अंधेरा था और ठंड थी। मैंने फैसला किया कि मैं वह नहीं कहूंगा जो आप सुनना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि जब वह छोटे थे तो बैड़मिंटन पसंद करते थे, क्योंकि वह संतुलन दिखाता है। दादी यानी इंदिरा गांधी, के सुरक्षाकर्मियों के साथ मैं बैडमिंटन खेलता था। एक दिन उन्होंने मेरी दादी को मार दिया और संतुलन हटा दिया। मेरे पिता बंगाल से आये, अस्पताल गये। अंधेरा था। लोग गुस्से में चिल्ला रहे थे। पिता को पहली बार मैंने रोते देखा।

डीजल कीमतें बढ़ने से मुद्रास्फीति बढ़ने का डर

बैंक ऑफ अमेरिका-मैरिल लिंच (बीओए-एमएल) का कहना है कि डीजल की कीमतों में हुई हालिया बढ़ोतरी से महंगाई दर में 1.20 फीसदी का इजाफा होगा और अगले फाइनैंशल ईयर में भी इसमें बढ़ोतरी जारी रहेगी।

बैंक ऑफ अमेरिका-मैरिल लिंच के इंडिया चीफ इकनॉमिस्ट इंद्रनील सेन गुप्ता ने एक नोट में कहा है, 'वित्त वर्ष 2014 में इनफ्लेशन यू के पैटर्न को फॉलो करेगा। मार्च तिमाही में यह करीब 7 फीसदी रहेगा जो कि 2013 की पहली छमाही तक 7.5 से 8 फीसदी तक जा सकता है। इसके बाद मार्च 2014 तक यह 6.5 से 7 फीसदी के बीच टिक जाएगा।'

हालांकि, इस अमेरिकी फर्म का मानना है कि 29 जनवरी को होने वाली तिमाही समीक्षा में आरबीआई प्रमुख दरों में चौथाई फीसदी की कटौती कर सकता है।

चीन में युद्ध की तैयारियां शुरू

गहराते जाने और अमेरिका के खुलकर जापान के पक्ष में आ जाने से चीन ने युद्ध की तैयारियां शुरू कर दी हैं। चीन की ताकतवर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने सामान ढोने के काम में लगी हेलीकॉप्टर यूनिटों से लड़ाकू अभियान की तैयारियां करने को कहा है। अमेरिका के जापान के साथ खड़े होने और चीन की हठधर्मिता के कारण दियोऊ द्वीपसमूह विवाद में स्थितियां नियंत्रण के बाहर जाती दिख रही हैं।

चीन की सेना के आधिकारिक अखबार 'पीएलए डेली' ने विमानन इकाई के एक अधिकारी के हवाले से लिखा है, प्रशिक्षण कार्यक्रम में तेजी से बदलाव किए जा रहे हैं। विमानन इकाई में ज्यादा से ज्यादा हेलीकॉप्टर जोड़े जा रहे हैं। सामान ढोने का काम छोड़कर हम लड़ाकू अभियानों में जुटने वाले हैं। हम विशुद्ध लड़ाकू अभियानों के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। शिन्हुआ न्यूज एजेंसी ने भी लिखा है कि विमानन इकाई लंबी दूरी के अभियान, समुद्र तट से दूर विशाल अभियान संचालित करने, लड़ाई के समय दूसरी यूनिटों से संपर्क बनाने और दुश्मन के इलाके में सैनिक उतारने जैसे अभ्यास करेगी। इस यूनिट को तकनीकी रूप से मजबूत करने का काम भी शुरू कर दिया गया है।

चीन में दियोऊ और जापान में सेनकाकू के नाम से जाने वाले द्वीपसमूह पर जारी तनातनी के बाद दोनों देशों की सेना विशेष तैयारी में जुट गई हैं। हाल में जापानी सेना की हेलीकॉप्टर यूनिट ने द्वीपसमूह पर किसी संभावित हमले की सूरत में छद्म अभ्यास किया था। पीएलए ने ताजा कदम जापान के इसी युद्ध अभ्यास को देखते हुए उठाया है। चीन के जंगी जहाज और विमान भी इन दिनों द्वीपसमूह पर हमले के अभ्यास में जुटे हुए हैं। पीएलए के जनरल स्टाफ हेडक्वार्टर ने 15 जनवरी को कमांडरों और सैनिकों को लड़ाई के लिए तैयार रहने को कहा था।

चेतावनी हमले कर सकता है जापान

टोक्यो। जापान ने रविवार को कहा कि यदि विदेशी लड़ाकू विमानों ने उसके वायुक्षेत्र में घुसने की कोशिश की तो वह चेतावनी स्वरूप ट्रेसर हमले कर सकता है। ये हमले तेज रोशनी पैदा करते है ताकि रेडियो चेतावनी को अस्वीकार कर रहा पायलट सतर्क हो जाए। चीन के लड़ाकू विमान हाल ही में द्वीपसमूह के बेहद करीब तक आ गए थे।

अमेरिकी चेतावनी हमें स्वीकार नहीं

बीजिंग। चीन ने अमेरिका की उस चेतावनी को अस्वीकार कर दिया है जिसमें उसने चीन से जापान के नियंत्रण वाले द्वीपसमूह से दूर रहने को कहा था। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता किन गांग ने कहा, अमेरिका द्वीपसमूह विवाद पर जिम्मेदारी भरा रवैया दिखाए। अमेरिका ने जो बयान दिया उसका तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं। अमेरिका इतिहास से नहीं भाग सकता। यह द्वीपसमूह चीन के विरोध के बावजूद द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने जापान को दे दिया था।


मूडीज़ ने कायम रखी भारत की रेटिंग परिदृश्य

भारत की रेटिंग मौजूदा स्तर पर बरकरार रखते हुए वैश्विक एजेंसी मूडीज ने आगाह किया है कि उच्च राजकोषीय घाटा आने वाले साल में वृद्धि को नीचे ला सकता है।

मूडीज ने इंडिया रेटिंग रिपोर्ट में कहा, 'सरकार के बढ़ते घाटे के कारण बुनियादी ढांचा के रूप में आपूर्ति संबंधी बाधाएं, नीति तथा प्रशासनिक खामियों के कारण सरकारी ऋण स्थिति खराब होती है।'

बहरहाल, वैश्विक रेटिंग एजेंसी ने भारत की रेटिंग बीएए-3 पर बरकरार रखी। यह स्थिर परिदृश्य के साथ निवेश स्तर को बताता है।

एजेंसी के अनुसार,'भारत के वृहत आर्थिक प्रोफाइल में सरकारी वित्त कमजोर पहलू है। हमारा अनुमान है कि सरकार की वित्तीय स्थिति मध्यम अवधि में कमजोर रहेगी।' रिपोर्ट के मुताबिक सार्वजनिक वित्त में सतत सुधार से रेटिंग भी उन्नत हो सकती है।

वृद्धि संभावना के संदर्भ में मूडीज ने कहा कि नरमी बनी हुई है जिसके कारण वैश्विक वृद्धि धीमी हो सकती है। हालांकि, मजबूत घरेलू बचत तथा गतिशील निजी क्षेत्र मध्यम अवधि में मजबूती प्रदान करेगा।

मूडीज के मुताबिक भारत की आर्थिक वृद्धि दर चालू वित्त वर्ष में 5.4 प्रतिशत तथा 2013-14 में 6 प्रतिशत रहने का अनुमान है। पिछले वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत रही।

एजेंसी के अनुसार रिपोर्ट में डीजल के मूल्य को धीरे-धीरे नियंत्रण मुक्त करने के सरकार के हाल के फैसले पर विचार नहीं किया गया है।

बजट में ढांचागत क्षेत्र में निवेश पर हो ध्यान: CII

उद्योग मंडल सीआईआई ने ढांचागत क्षेत्र को व्यावहारिक बनाने और पूंजी आकषिर्त करने लायक बनाने के लिए आगामी बजट में आपात कदम उठाए जाने की जरूरत बताई है।

सीआईआई ने वित्त मंत्रालय को बजट पूर्व सौंपे अपने ज्ञापन में कहा,'12वीं योजनावधि में ढांचागत क्षेत्र में 970 अरब डॉलर का निवेश आकर्षित करने की योजना के मद्देनजर इस क्षेत्र को व्यवहारिक और पूंजी आकर्षित करने लायक बनाने के लिए आपात कदम उठाए जाने की जरूरत है।'

इसके लिए उद्योग मंडल ने सरकार से ढांचागत कंपनियों को न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) भुगतान से छूट देने की मांग की है। वर्तमान में ढांचागत परियोजनाएं अपने परिचालन के पहले 15.20 साल के दौरान लगातार 10 साल तक धारा 80आईए के तहत कर हालीडे का लाभ उठाने के लिए पात्र हैं।

सीआईआई ने कहा,'इस अवधि के दौरान न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) लगाए जाने से 80आईए के तहत उपलब्ध कर लाभ का बड़ा भाग नगण्य रह जाता है।'

ज्ञापन में बिजली क्षेत्र के लिए धारा 80आईए के सनसेट उपबंध के तहत बिजली क्षेत्र को कर लाभ जारी रखने की जरूरत की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया है।

रिलायंस इंडस्ट्रीज ने US में लॉबिंग गतिविधियां रोकी

भारतीय बाजार में पहुंच हासिल करने के लिए अमेरिकी कंपनियों द्वारा लाबिंग किए जाने को लेकर मचे बवाल के बीच भारत की निजी क्षेत्र की प्रमुख कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज ने भी अमेरिकी नीति निर्माताओं के बीच लॉबिंग गतिविधियां फिलहाल रोक दी हैं। कंपनी ने बीते चार साल में इन गतिविधियों पर दस करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए हैं।

मुकेश अंबानी की अगुवाई वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज ने अपनी कारोबारी गतिविधियां तथा अन्य उद्देश्यों के लिए अमेरिकी सांसदों में लॉबिंग का काम जनवरी 2009 में शुरू किया था। कंपनी के लिए यह काम लाबिस्ट फर्म बारबॉर ग्रिफिथ एंड रोजर्स (बीजीआर) कर रही थी।

हालांकि, कंपनी ने बीती पांच तिमाहियों से लॉबिंग गतिविधियां रोक दी थीं और अब उसने अमेरिका में इस आशय का अपना पंजीकरण भी रद्द कर दिया है।

भारत में कंपनी का कारोबार ऊर्जा से लेकर पालिएस्टर, खुदरा तथा दूरसंचार सहित कई क्षेत्रों में फैला है। कंपनी ने हाल ही के वर्षों में अमेरिका सहित वैश्विक बाजारों में अपनी पहुंच बढ़ाने का प्रयास किया है। जनवरी 2009 से लेकर वह अपनी अमेरिकी लाबिस्ट फर्म को 18.8 लाख डॉलर यानी दस करोड़ रुपए से अधिक का भुगतान कर चुकी है।

बीजीआर के जरिए अमेरिकी संसद में 18 जनवरी की तारीख वाली रपट के अनुसार उसने अमेरिका में अपना लॉबिंग पंजीकरण 11 जनवरी को रद्द कर दिया। इसके साथ ही रपट में कहा है कि कंपनी ने 31 दिसंबर 2012 को समाप्त तिमाही में लॉबिंग से जुड़ी कोई गतिविधि नहीं की। बीजीआर ने लगातार पांचवी तिमाही अपने ग्राहक आरआईएल के लिए लाबिंग का कोई काम नहीं किया।

हथियारों के बाजार में
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/12599-2012-02-25-07-10-50


Saturday, 25 February 2012 12:40
सुनील
जनसत्ता 25 फरवरी, 2012: जब पूरे देश की निगाहें पांच राज्यों में हो रहे चुनावों पर थीं, तब केंद्र सरकार ने चुपचाप एक बड़ा फैसला किया। शांति और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के शहादत दिवस के ठीक अगले दिन 31 जनवरी को भारत के इतिहास के सबसे बडेÞ हथियारों के सौदे को मंजूरी दे दी गई। करीब चौवन हजार करोड़ रुपए के इस सौदे में भारत फ्रांस से राफाल नामक एक सौ छब्बीस लड़ाकू विमान खरीदेगा। यानी एक विमान की लागत करीब चार सौ उनतीस करोड़ रुपए होगी। यह इतना बड़ा सौदा है कि इसकी प्रतिस्पर्धा में यूरोप के चार अन्य देशों- ब्रिटेन, जर्मनी, स्पेन और इटली- ने मिल कर लड़ाकू विमान देने की निविदा लगाई थी और फैसला होने के बाद भी उन्होंने राजनयिक स्तर पर इसे बदलवाने की कोशिश की।

इसके पहले जब अमेरिका की बोर्इंग और लॉकहीड मार्टिन कंपनियों के प्रस्ताव ठुकराए गए तो अमेरिका भी कुनमुनाया था। रूस और स्वीडन की कंपनियां भी इस सौदे के लिए बेहद लालायित थीं। उधर फ्रांस में खुशियां मनाई जा रही हैं। फ्रांस के मौजूदा दक्षिणपंथी राष्ट्रपति सरकोजी के राजनीतिक करिअर को इससे एक नया टॉनिक मिल गया है। इसी वर्ष मई में वहां राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। सरकोजी की लोकप्रियता गिर रही थी। वे स्वयं को देश का 'सर्वोच्च विक्रेता' कहते रहे हैं और भारत सरकार ने उन्हें सही समय पर एक अच्छा तोहफा दे दिया है।

यह सौदा राफाल विमान बनाने वाली फ्रांस की डसॉल्ट कंपनी के लिए भी जीवन-दान साबित होने वाला है। उसके  शेयरों की कीमत में बीस फीसद का उछाल आ गया। कंपनी ने इस विमान को 1986 से बनाना शुरू किया था, लेकिन कई कोशिशों के बावजूद वह अभी तक एक भी विमान देश से बाहर नहीं बेच पाई थी। पिछले छब्बीस सालों से दक्षिण कोरिया, नीदरलैंड, सिंगापुर, मोरक्को, लीबिया, ब्राजील, सऊदी अरब, स्विट्जरलैंड, यूनान और ब्रिटेन को ये विमान बेचने की कोशिश की गई, लेकिन शुरू में दिलचस्पी दिखाने के बाद सबने इनकार कर दिया। अगर भारत से यह सौदा नहीं हुआ होता तो डसाल्ट कंपनी को अपना कारखाना बंद करना पड़ता और कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ती।

इसी वित्तीय वर्ष में भारत ने फ्रांस को और भी तोहफे दिए हैं। भारतीय वायुसेना के पास पहले से फ्रांस के लड़ाकू विमान (मिराज-2000) हैं, उन्हें बेहतर बनाने के लिए करीब बारह हजार सात सौ करोड़ रुपए का एक आॅर्डर और उनमें मिसाइल लगाने का पांच हजार करोड़ से ज्यादा का आॅर्डर पहले ही दिया जा चुका है। इस तरह एक ही साल में फ्रांस को भारत से करीब बयासी हजार करोड़ के आॅर्डर केवल हथियारों में मिले हैं। अनुमान है कि एक सौ छब्बीस राफाल विमानों की खरीद के बाद साठ और विमानों का आॅर्डर दिया जा सकता है।

मगर यह सोचना गलत होगा कि भारत सरकार हथियारों के बडेÞ सौदागरों में सिर्फ फ्रांस पर मेहरबान है। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, स्वीडन, इजराइल आदि सभी बड़े हथियार विक्रेताओं से वह बडेÞ पैमाने पर हथियार खरीदी कर रही है। सोवियत संघ टूटने के बाद रूस बडेÞ पैमाने पर अपने हथियार बेच रहा है या किराए पर दे रहा है जिसका सबसे बड़ा खरीदार भारत है। भारत उससे कई पुराने विमानवाहक जहाज, पनडुब्बियां, हेलीकॉप्टर, तोपें, मिसाइलें आदि खरीद रहा है, जिनकी भारत की रक्षा के लिए वास्तविक उपयोगिता और औचित्य पर कई सवाल भी उठ रहे हैं।

हाल ही में तिरपन हजार करोड़ रुपए के किराए पर दस साल के लिए एक पुरानी परमाणु-चालित पनडुब्बी रूस से आई है। एडमिरल गोर्शकोव नामक एक पुराने विमानवाहक जहाज का सौदा करीब बारह हजार चार सौ करोड़ रुपए में हुआ है, जिसे भारतीय नौसेना ने 'आईएनएस विक्रमादित्य' नाम दिया है। लेकिन यह इतना खटारा है कि रूस की जहाज निर्माण गोदी में पिछले दो-तीन साल से चल रहा इसकी मरम्मत का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। अमेरिका से हेलिकॉप्टर सहित एक पुराना जहाज 2007 में चार सौ पचास करोड़ रुपए में खरीदा गया था। वर्ष 2010 में रूस से और इजराइल से लड़ाकू जहाज खरीदने के बडेÞ सौदे हुए थे। ऐसे कई सौदे हो रहे हैं या होने वाले हैं।

स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान केंद्र ने दुनिया में हथियारों के व्यापार पर अपनी जो रपट पिछले साल जारी की, उसके मुताबिक भारत दुनिया में हथियार और रक्षा सामग्री खरीदने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है। पहले चीन अव्वल नंबर पर था, अब भारत उससे आगे निकल गया है।

दक्षिण कोरिया, पाकिस्तान, यूनान आदि अन्य बडेÞ खरीदार देश तो भारत से काफी पीछे हैं। 2001 से 2005 के बीच भारत ने जितनी खरीदी की है, अगले पांच वर्षों में यानी 2006 से 2010 के दौरान यह खरीदी (डॉलर में) इक्कीस प्रतिशत बढ़ गई। उसके बाद तो यह और तेजी से बढ़ रही है। 2006 से 2010 के बीच भारत ने करीब चार हजार करोड़ डॉलर (करीब 2,00,000 करोड़ रुपए) के हथियार आयात किए। अगले पांच वर्षों में यह राशि दुगुनी से ज्यादा होने का अनुमान है।

यह एक गजब की विडंबना है कि हथियारों के विश्व बाजार में सबसे बड़ा खरीदार सबसे भूखा, फटेहाल, कंगाल देश है। दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित और अशिक्षित लोग यहीं रहते हैं। प्रतिव्यक्ति आय में दुनिया के देशों में भारत का स्थान बहुत नीचे रहता है। प्रतिवर्ष लाखों लोग इलाज के अभाव में, प्रदूषित जल-जनित रोगों से या अन्य संक्रमण से   मरते हैं। बहुत-से गांवों और झोपड़पट्टियों में स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था नहीं है।

देश के केवल बीस फीसद बच्चे कक्षा बारह तक की शिक्षा हासिल कर पाते हैं। क्या ऐसे में हथियारों पर इतना पैसा लुटाना देश के लोगों के प्रति किसी गुनाह से कम है? हाल ही में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के लिए पैसा कहां से आएगा, यह सोच कर उन्हें नींद नहीं आती। तब हथियारों की इस महा-खरीदी के लिए पैसा कहां से आता है? इस पर उनकी नींद क्यों नहीं हराम होती? हमारी सरकारें विदेशी हथियार उद्योग पर इतनी मेहरबान और देश की जनता के लिए इतनी कंजूस और क्रूर क्यों हैं, यह सवाल पूछने का वक्त आ गया है।  

देश की जरूरतों और प्राथमिकताओं के ठीक विपरीत किए जा रहे इन रक्षा सौदों के पीछे बड़ी कमीशनखोरी के लालच और भ्रष्टाचार की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता। भारत में बडेÞ घोटालों की शुरुआत तो बोफर्स तोपों के सौदे से ही हुई। इसके बाद भी जर्मन पनडुब्बी से लेकर करगिल के ताबूत तक के सौदों में भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। मिग विमान का सौदा भी काफी विवादास्पद रहा है और इस विमान ने कई दुर्घटनाओं में पायलटों और नागरिकों की जान ली है।

यह मामला इतना चर्चित रहा है कि इस पर आमिर खान ने 'रंग दे बसंती' नामक फिल्म बना डाली। यह भ्रष्टाचार का एक बड़ा क्षेत्र उभर कर आया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई अधूरी रहेगी, अगर वह रक्षा और हथियारों के नाम पर इस देश-लुटाऊ कारोबार पर सवाल नहीं खड़ा करेगी।

समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिंहा ने करीब तीन दशक पहले ही 'इकतरफा निशस्त्रीकरण' का विचार रखा था। उनका कहना था कि हथियारों का यह अर्जन दो मायनों में बेकार है। एक, हम कितने ही हथियार हासिल कर लें, दुनिया की बड़ी ताकतों के मुकाबले हम हथियारी ताकत में कमजोर और पीछे ही रहेंगे। दूसरा, आधुनिक जमाने में हथियारों के बल पर कोई भी देश दूसरे देश पर ज्यादा दिन कब्जा करके नहीं रख सकता। अगर उस देश की जनता मजबूत और संगठित हो, तो वही उस देश की सबसे बड़ी ताकत होगी। क्यूबा, विएतनाम, वेनेजुएला, दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देश इसके उदाहरण हैं। इसलिए हथियारों और फौज पर विशाल खर्च करने के बजाय देश के संसाधनों का उपयोग आम जनता की बुनियादी जरूरतों और देश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हासिल करने में किया जाना चाहिए। चीन या पाकिस्तान कुछ भी करें, हमें अपनी जनता की भलाई पर ध्यान और संसाधन केंद्रित करना चाहिए।

शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद उम्मीद थी कि दुनिया में हथियारों और फौज पर खर्च कम होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। उलटे यह तेजी से बढ़ रहा है। भले ही दुनिया में भूखे लोगों की संख्या बढ़ते-बढ़ते एक अरब का आंकड़ा पार कर गई हो, पृथ्वी के संसाधनों का बड़ा हिस्सा संहारक हथियारों, फौज और मार-काट पर खर्च हो रहा है। सबसे ज्यादा खर्च अमेरिका का बढ़ा है जो उसके इराक, अफगानिस्तान जैसे विनाशकारी अभियानों की देन है। दुनिया का बयालीस फीसद फौजी खर्च अमेरिका करता है। उसके बाद फौजी खर्च करने वाले अगले पचीस देशों के कुल खर्च से भी ज्यादा खर्च उसका है। दरअसल, अपनी लूट, दबदबे और साम्राज्य को बनाए रखने के लिए उसको उत्तरोत्तर ज्यादा सैन्य-खर्च करना पड़ रहा है। अलबत्ता आर्थिक मंदी के चलते उसके सामने भी मुश्किलें आ रही हैं।

दूसरी ओर इसी मंदी से निबटने और पूंजीवाद के संकट से उबरने के लिए दुनिया के अमीर देश हथियार उद्योग पर जोर दे रहे हैं। अन्य उद्योगों के मुकाबले हथियार उद्योग की यह खासियत है कि इसकी मांग में ठहराव नहीं आता है। हथियार कुछ दिन में पुराने पड़ जाते हैं और नए हथियारों का बाजार तैयार हो जाता है। इसलिए अमीर देश दुनिया के गरीब देशों के बीच हथियारों की होड़ को हवा देकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। भारत और पाकिस्तान जैसे देशों की जन-विरोधी सरकारें उनके इस मकसद को पूरा कर रही हैं।

पिछली सदी में अहिंसा और सत्याग्रह से आजादी हासिल करने वाले बुद्ध, महावीर और गांधी के इस देश ने क्या कभी सोचा था कि एक दिन वह इंसानों का कत्लेआम करने वाले संहारक हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार और पंूजीवाद-साम्राज्यवाद का संकट में सबसे बड़ा सहारा बनने की भूमिका में पहुंच जाएगा?

निरस्त्रीकरण के झंडाबरदार, बेच रहे हथियार

विश्व भर में चल रही हथियार बाजार की बहस और घोषणाओं के बीच हथियार बाजार भी बहुत तेजी से अपने पैर पसार रहा है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार के संचालक भी वही देश हैं जो निरस्त्रीकरण अभियान के झंडाबरदार हैं। इन देशों में अमेरिका, रूस आदि प्रमुख हैं जो वैश्विक स्तर पर हथियार बेचने का कार्य करते हैं। ''स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च ग्रुप'' के अनुसार विश्व का हथियार उद्योग डेढ़ खरब डॉलर का है और विश्व का तीसरा सबसे भ्रष्टतम उद्योग है। जिसने हथियारों की होड़ को तो बढ़ाया ही है, हथियार माफियाओं और दलालों की प्रजाति को भी जन्म दिया है। विश्व का बढ़ता हथियार बाजार वैश्विक जीडीपी के 2.7 प्रतिशत के बराबर हो गया है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी पश्चिमी देशों की है, जिसमें 50 प्रतिशत हथियार बाजार पर अमेरिका का कब्जा है।

अमेरिका की तीन प्रमुख कंपनियों का हथियार बाजार पर प्रमुख रूप से कब्जा है- बोइंग, रेथ्योन, लॉकहीड मार्टिन। यह भी एक तथ्य है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक और कश्मीर आदि के मामलों में अमेरिकी नीतियों पर इन कंपनियों का भी व्यापक प्रभाव रहता है। भारत के संबंध में यदि बात की जाए तो सन् 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत को हथियारों को आपूर्ति करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिसे अमेरिका की बुश सरकार ने 2001 में स्वयं हटा लिया था, जिसके बाद भारत में हथियारों का आयात तेजी से बढ़ा। पिछले पांच वर्षों की यदि बात की जाए तो भारत में हथियारों का आयात 21 गुना और पाक में 128 गुना बढ़ गया है।

भारत-पाकिस्तान के बीच हथियारों की इस होड़ में यदि किसी का लाभ हुआ है, तो अमेरिका और अन्य देशों की हथियार निर्माता कंपनियों का। दरअसल अमेरिका की हथियार बेचने की नीति अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के ''गन और बटर'' के सिद्धांत पर आधारित है। गरीब देशों को आपस में लड़ाकर उनको हथियार बेचने की कला को विल्सन ने ''गन और बटर'' सिद्धांत नाम दिया था, जिसका अर्थ है आपसी खौफ दिखाकर हथियारों की आपूर्ति करना। भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में भी अमेरिका ने इसी नीति के तहत अपने हथियार कारोबार को लगातार बढ़ाने का कार्य किया है। हाल ही में अरब के देशों में सरकार विरोधी प्रदर्शनों और संघर्ष के दौरान भी अमेरिकी हथियार पाए गए हैं, हथियारों के बाजार में चीन भी अब घुसपैठ करना चाहता है।

हथियारों के प्रमुख आपूर्तिकर्ता देशों का लक्ष्य किसी तरह भारत के बाजार पर पकड़ बनाना है। जिसमें उनको कामयाबी भी मिली है, जिसकी तस्दीक अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट भी करती है। अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक सन 2010 में विकासशील देशों में भारत हथियारों की खरीदारी की सूची में शीर्ष पर है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने 5.8 अरब डॉलर (लगभग 286.92 रूपये) के हथियार खरीदे हैं। इस सूची में ताइवान दूसरे स्थान पर है, जिसने 2.7 डॉलर (लगभग 133.57 अरब रूपये) के हथियार खरीदे हैं। ताइवान के बाद सऊदी अरब और पाकिस्तान क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर हैं।
अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के अनुसार भारत के हथियार बाजार पर अब भी रूस का वर्चस्व कायम है, लेकिन अमेरिका, इजरायल और फ्रांस ने भी भारत को अत्याधुनिक तकनीक के हथियारों की आपूर्ति की है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में हथियारों की आपूर्ति के मामले में अमेरिका पहले और रूस दूसरे स्थान पर कायम है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अमेरिका दक्षिण एशिया में हथियारों की बढ़ती आपूर्ति के प्रति चिंतित है, कैसी विडंबना है कि हथियारों की आपूर्ति भी की जा रही है और चिंता भी जताई जा रही है। अमेरिकी कांग्रेस की यह रिपोर्ट अमेरिकी नीतियों के दोमुंहेपन को उजागर करती है।
हथियारों के बाजार से संबंधित यह आंकड़े विकासशील देशों के लिए एक सबक हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि विकसित देश आतंक के खिलाफ जंग के नाम पर और शक्ति संतुलन साधने के नाम पर अपने बाजारू हितों की पूर्ति करने का कार्य कर रहे हैं। तीसरी दुनिया के वह देश जो भुखमरी और गरीबी से जंग लड़ने में भी असफल हैं, उन देशों में विकसित देशों के पुराने हथियारों को खपाने से क्या उन देशों को विकास की राह मिल सकती है?

भारत के संदर्भ में यदि देखा जाए तो हम आज भी विकसित देशों के पुराने हथियारों को अधिक दामों पर खरीद रहे हैं। इससे सबक लेते हुए हमें अपने बजट को तय करते समय अपने रक्षा अनुसंधान विभाग को भी पर्याप्त बजट मुहैया कराना होगा, ताकि हम रक्षा प्रणाली के माध्यम में आत्मनिर्भर हो सकें। जिससे भारत की सीमा और संप्रभुता की रक्षा हम स्वदेश निर्मित हथियारों से कर सकें।
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2007-11 के बीच भारत हथियार खरीदने में नंबर वन रहा, उसने इन पांच साल में बेचे गए कुल हथियारों का दस फीसदी हिस्सा खरीदा. इसके बाद उत्तर कोरिया (6%) , चीन और पाकिस्तान (5%) और सिंगापुर ने (4%) की बारी आती है.
सिप्री ने जानकारी दी है कि इन पांच देशों ने कुल 30% हथियार खरीदे. 2002-06 की तुलना में पिछले पांच साल में भारत का बड़े हथियारों की खरीदारी 38 प्रतिशत बढ़ी है. इनमें 2007-11 के बीच 120 सुखोई 30 एमकेएस, रूस से मिग 28 केएस के 16, ब्रिटेन से जगुआर के 20 युद्धक विमान शामिल हैं. भारत हथियारों के आयात में नंबर वन बना हुआ है जबकि पाकिस्तान तीसरे नंबर पर है. रिपोर्ट के मुताबिक, "पाकिस्तान ने इन पांच साल में चीन से कुल 80 युद्धक विमान लिए हैं. दोनों देशों ने बड़ी संख्या में टैंक भी मंगवाए हैं और आगे भी मंगवाते रहेंगे." सिप्री में आर्म्स ट्रांसफर प्रोग्राम के वरिष्ठ रिसर्चर पीटर वेजेमान कहते हैं, "मुख्य एशियाई आयातक देश खुद हथियार विकसित करना चाहते हैं, और बाहरी स्रोतों पर अपनी निर्भरता घटाना चाहते हैं."
एशिया सबसे ऊपर
2007 से 20011 के बीच दुनिया भर में पारंपरिक हथियारों का लेन देन 2002-06 की तुलना में 24 फीसदी ज्यादा था. पिछले पांच साल में एशिया और ओशेनिया ने हथियारों के कुल आयात का 44 प्रतिशत खरीदा. जबकि यूरोप ने 19, मध्यपूर्व ने 11, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका ने 11 और अफ्रीका ने 9 फीसदी हथियारों का आयात किया.
2006 और 2007 में चीन दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश था. ''चीन के आयात में कमी होना उसके हथियार उद्योग के विकास और हथियार निर्यात में बढ़ोतरी साथ साथ चल रही है. और चीन के शस्त्र निर्यात में बढ़ोतरी का मुख्य कारण पाकिस्तान है जो उससे लगातार हथियार ले रहा है."
सीरिया में अति
हथियार बेचने में चीन अमेरिका, रूस, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन के बाद छठें नंबर पर है. 2007 से 2011 के बीच आर्थिक संकट से जूझ रहा ग्रीस यूरोप का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश रहा. वहीं सीरिया का हथियार आयात 580 प्रतिशत बढ़ गया. इसमें सबसे ज्यादा हथियार देने वाला देश रूस था.
हालांकि मध्यपूर्व में इस दौरान हथियारों की खरीद आठ फीसदी से गिर गई. सिप्री ने चेतावनी दी है कि यह ट्रेंड बिलकुल उल्टा भी हो सकता है. 2011 के दौरान बहरीन, मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया और सीरिया की सरकारों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के दमन के लिए तेजी से हथियारों की खरीदारी की है.आर्थिक संकट के बावजूद हथियारों की खरीद फरोख्त जारी
अमेरिका नंबर वन
हालांकि रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2010 में हथियारों की खरीद वैसे तो बढ़ी लेकिन सिर्फ एक फीसदी. बढ़ोतरी का यह ट्रेंड 2009 की तुलना में काफी कम है. 2009 में हथियारों की बिक्री 406 अरब डॉलर की थी. सिप्री में हथियार उद्योग की जानकार सूसन जैक्सन के मुताबिक, "2010 के आंकड़े बताते हैं कि हथियार बेचने वाले मुख्य देश आर्थिक संकट और दूसरे उद्योगों को हानि के बावजूद इसी लाइन पर चल रहे हैं."
100 बड़े हथियार बेचने वाले देशों में अमेरिका पहले नंबर पर रहा. हथियार बेचने वाली कंपनियों में भी पहली दस में अमेरिका की ही सात कंपनियां हैं. इनमें लॉकहीट मार्टिन्स पहले नंबर पर है. इसके बाद ब्रिटेन की बीएई सिस्टम्स है. यूरोप की ईएडीएस सातवें नंबर पर और इटली की फिनमेक्कानिका आठवें नंबर पर है.
सिप्री के मुताबिक इराक और अफगानिस्तान युद्घ का हथियारों की खरीद बिक्री पर मिलाजुला असर पड़ा है. सिप्री में संघर्ष, हथियार, अस्त्र नियंत्रण सहित कई विषयों पर रिसर्च किया जाता है. इसकी स्थापना 1066 में की गई थी. संस्थान की रिपोर्ट में हथियारों की बिक्री में सैनिक साजोसामान, सैन्य सेवाएं. शामिल है. 1990 से यह हथियारों का उत्पादन करने वाले 100 देशों की सूची जारी करती है जिसमें चीन शामिल नहीं है क्योंकि वहां से आंकड़े नहीं मिलते.
रिपोर्टः एएफपी/आभा एम
संपादनः एन रंजन
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रक्षा खर्चों का सच

आर्थिक, राजनीति, समाज - No Comments » - Posted on April, 25 at 6:21 pm
हिमांशु शेखर
रक्षा खर्चों में काफी बढ़ोतरी की जा रही है। इस साल भी ऐसा ही हुआ। यूपीए सरकार की ओर से अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्रालय का काम संभाल रहे प्रणब मुखर्जी ने यह घोषणा किया कि सरकार ने इस साल के रक्षा बजट में पैंतीस फीसद की बढ़ोतरी की है। प्रणब मुखर्जी ने अपने बजट भाषण में कहा कि इस साल रक्षा के मद में 1,41,703 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। जबकि पिछले साल यह रकम एक लाख छप्पन हजार करोड़ थी। सरकार के इस फैसले को सही ठहराते हुए उन्होंने कहा कि रक्षा बजट बढ़ाने का फैसला देश की मौजूदा सुरक्षा हालात को देखते हुए लिया गया है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि देश कठिन समय से गुजर रहा है और मुंबई हमलों ने सीमा पार के आतंकवाद को पूरी तरह से नया आयाम दे दिया है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने यह ऐलान किया कि इस साल रक्षा क्षेत्र के लिए बढ़ा हुआ योजना खर्च 86,879 करोड़ रुपए होगा। जबकि पिछले साल यह रकम 73,600 करोड़ रुपए थी।
दरअसल, रक्षा के मद में बढ़ाए जाने वाले खर्चों के असली कारणों पर गंभीरता से विचार करना जरूरी है। अभी तक होता यह रहा है कि सरकार देश में हो रहे आतंकवादी घटनाओं की बात करके रक्षा के क्षेत्र में आवंटन बढ़ाती रही है और लोग भी इसे बेहद जरूरी मसला मानकर स्वीकार करते रहे हैं। पर इस बार स्थितियां कुछ अलग हैं। जिसे समझना आवश्यक है। रक्षा बजट के बढ़ाए जाने को अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार से जोड़ कर देखने की जरूरत महसूस होती है। क्योंकि तमाम विरोधों के बावजूद इस करार को जिस तरह से अमली रूप दिया गया था वह अपने आप में कई सवाल और संदेह पैदा कर रहा था। उस समय भी एक बड़े तबके ने इसे मनमोहन सरकार की अमेरिकापरस्ती माना था। रक्षा बजट के बढ़ाए जाने और अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार के आपसी संबंधों को समझने के लिए करार होने के दौरान के कुछ घटनाओं पर निगाह डालना आवश्यक है। इससे बहुत सारी बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं।
जब अमेरिका के साथ परमाणु करार को आगे बढ़ाया जा रहा था तो उस वक्त अमेरिका में हथियारों के उत्पादन से जुड़ी लाॅबी इस करार को अमली जामा पहनवाने में लगी हुई थी। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में हथियार उत्पादन का उद्योग बहुत बड़ा है। वहां का यह उद्योग इतना बड़ा हो गया है कि इसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए नए-नए बाजार चाहिए। वहां का रक्षा उद्योग वहां के चुनावों में सियासी दलों को भी काफी मोटा चंदा देता है। जाहिर है कि औद्योगिक घराने चुनावी चंदा दलों के दायरे से बाहर निकल कर देते हैं। क्योंकि किसी भी दल की सरकार बने उन्हें तो अपना व्यावसायिक स्वार्थ साधने से मतलब होता है। इस नाते अगर देखा जाए तो कल तो हथियार उत्पादकों की जो अमेरिकी लाॅबी जाॅर्ज बुश के साथ खड़ी थी आज वही बराक ओबामा के साथ खड़ी है। इसलिए ओबाम प्रशासन भी वैसी ही नीतियों को आगे बढ़ा रहा है जिससे इस उद्योग का हित सधे। अभी अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ाए जाने की घटना से नए अमेरिकी प्रशासन के चरित्र को समझा जा सकता है। इसके अलावा गाजा में जो कुछ हुआ उसमें भी इजरायल के साथ अमेरिका का खड़ा रहना उसके चरित्र को उजागर करता है।
खैर, पिछले साल दुनिया भर में गहराई आर्थिक मंदी से दुनिया का शायद ही कोई उद्योग बचा हो। आर्थिक मंदी की मार से वहां का यह उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ है और उसका संकट और भी गहरा गया है। इसलिए इस उद्योग को नए बाजार की तलाश थी और भारत में यह संभावना उसे सबसे ज्यादा दिख रही थी। सारी दुनिया जानती है कि हथियार और पुनर्निर्माण का खेल अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापार है। इसके लिए वह अमेरिका ऐसी परिस्थितियां तैयार करता है कि उसके रक्षा उद्योग के उत्पादों की खपत बढ़े और उसके यहां कि हथियार उत्पादक कंपनियां जमकर चांदी काटें। अभी तो वैसे भी मंदी चल रही है और अमेरिका के रक्षा उद्योग को भारत जैसे बड़े बाजार की और भी ज्यादा जरूरत है।
एसोचैम के एक अनुमान के मुताबिक 2012 तक भारत तकरीबन तीस बिलियन डाॅलर के हथियारों का आयात करेगा। इसमें लड़ाकु विमान, हेलीकाप्टर, मिसाइल के अलावा कई तरह के आधुनिक हथियार शामिल हैं। इसमें से भी बड़ा हिस्सा वायु सेना पर खर्च होने वाला है। एसोचैम का यह अध्ययन बताता है कि 2012 तक वायु सेना के लिए 126 लड़ाकु विमान खरीदे जाने वाले हैं। इसके लिए तकरीबन 42 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। जाहिर है, ऐसे में दुनिया के बडे़ हथियार निर्माता इसमें से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हर हथियार निर्माता देश अपने खाते में डालना चाहता है। कुछ दिनों पहले तक रूस भारत में सबसे ज्यादा हथियारों की आपूर्ति करता था लेकिन अब भारत को सबसे ज्यादा हथियार निर्यात करने वाला देश इजरायल बन गया है।
बहरहाल, परमाणु करार की प्रक्रिया जब आगे बढ़ रही थी तो उस वक्त अमेरिका के पूर्व रक्षा सचिव विलियम कोहेन ने जो बयान दिया था उससे रक्षा के खेल को आसानी से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था कि अमेरिकी रक्षा उद्योग ने कांग्रेस के कानून निर्माताओं के भारत को परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता दिलाने के लिए यानी परमाणु करार कराने के लिए लाॅबिंग की है। अब इस उद्योग को मालदार ठेके चाहिए। उन्होंने जब यह बयान दिया तो उस वक्त तक रक्षा ठेका पाने के लिए लाॅकहीड मार्टिन, बोईंग, राथेयन, नार्थरोप ग्रुमन और हानीवेल जैसी पचास से ज्यादा कंपनियां रक्षा ठेका पाने के लिए भारत में अपना कार्यालय चलाने लगी थीं। अमेरिकी रक्षा उद्योग की कोशिशें रंग लाईं और करार हो गया। इसके बाद इस साल के शुरुआत में ही भारत और अमेरिका के बीच अब तक का सबसे बड़ा रक्षा समझौता हुआ।
जनवरी के पहले सप्ताह में ही भारत में अमेरिका के साथ पचासी सौ करोड़ रुपए के रक्षा समझौते पर दस्तखत किया। इसके तहत भारत आठ बोईंग पी-81 खरीद रहा है। समझौते के तहत भारत को पहला पी-81 2012 के अंत तक या फिर 2013 के शुरूआत में मिलेगा और इस आपूर्ति को 2015-16 तक पूरा कर दिया जाएगा। इस समझौते को अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार में दोनों पक्षों के बीच सहमति का ही विस्तार माना जाना चाहिए। संभव है इस साल भी अमेरिका के साथ कुछ बड़े रक्षा सौदे देखने को मिल जाएं। क्योंकि आखिरकार रक्षा बजट बढ़ाकर तो यह सरकार अमेरिका से किया गया अपना वायदा ही निभा रही है। यह बात अलग है कि यह सब सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने की आड़ में हो रहा है।
रक्षा के मोर्चे पर बढे़ बजट को लेकर भी प्रणब दादा जो दावे कर रहे हैं, वे खोखले नजर आते हंै। कार्यवाहक वित्त मंत्री ने बदहाल सुरक्षा व्यवस्था को आधार बनाकर रक्षा बजट बढ़ाने का सही ठहराने की कोशिश की है। पहली बात तो यह कि अगर वे मानते हैं कि देश की सुरक्षा व्यवस्था बदहाल बनी हुई है तो इस बदहाली की जिम्मेवारी भी उनकी ही सरकार के मत्थे जाता है। पिछले पांच साल से देश पर राज करने के बावजूद अभी भी वे सुरक्षा व्यवस्था की बदहाली का रोना रो रहे हैं तो इसे उनके द्वारा जनता को भरमाने वाला एक शातिर चाल ही कहा जा सकता है।
ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के मामले में सरकार कोई ठोस कदम बढ़ाती नहीं दिख रही है। जब तक रक्षा के क्षेत्र में शोध और विकास यानी रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर मजबूती से काम नहीं होगा तब तक तो देश साधारण रक्षा जरूरतों के लिए भी अमेरिका और इजरायल जैसे हथियार निर्माताओं की मुंह ताकता रहेगा। पिछले साल सरकार ने रक्षा क्षेत्र में शोध और विकास के लिए 6,486 करोड़ रुपए खर्च किया। इसका अगला कदम तो यह होना चाहिए था कि या तो सरकार इस मद में आवंटन बढ़ाती या फिर कम से कम उतनी पैसे की तो व्यवस्था करती ही। पर सरकार ने रक्षा क्षेत्र में होने वाले शोध और विकास के लिए रकम को घटाकर चार हजार करोड़ कर दिया।
इस कदम से भी मौजूदा सरकार के मंसूबों पर सवाल उठता है। कभी भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भारत को रक्षा क्षेत्र की जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। पर उनका यह सपना अब तक पूरा नहीं हो पाया और उन्हीं की पार्टी की सरकार उनके सपनों के साथ खेल रही है। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने के बजाए सरकार जानबूझ कर वैसी नीतियों को अमली जामा पहना रही है जिससे अमेरिका और इजरायल जैसे बड़े हथियार निर्माताओं के लिए भारत एक बड़ा बाजार बन सके। यही वजह है कि शोध और विकास के मद में होने वाले खर्च को घटाया जा रहा है  और पूरे रक्षा क्षेत्र में होने वाले खर्च को बढ़ाया जा रहा है।
आज हालत यह है कि भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए आवश्यक सामग्री के 70 फीसद का आयात करता है। पर इस आयात को कम करने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं दिखती। सही मायने में इसे विदेशपरस्ती और खास तौर पर अमेरिकापरस्ती के तौर पर देखा जाना चाहिए। अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार के बाद तो भारत कहने को उसका रणनीतिक साथी बन गया है। पर सही मायने में भारत को एक बड़ा बाजार मानकर दोहन करने के लिए अमेरिकी कंपनियां कमर कस चुकी हैं। इस बाबत सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि यहां की सरकार भी यहां के लोगों के हितों की परवाह किए बगैर उनके साथ कदमताल करती दिख रही है। सरकार का हर कदम इस बात की पुष्टि करता हुआ स्पष्ट तौर पर दिखता है। सरकार का यही रवैया रहा तो यह अंदाजा लगा पाना भी बेहद मुश्किल हो जाएगा कि भारत किस हद तक अमेरिकापरस्ती की दिशा में बढ़ेगा।

http://www.himanshushekhar.in/?p=84

क्या सचमुच हमें इतने हथियार चाहिए?

राजकिशोर   Tuesday April 24, 2012
भारत की सामरिक क्षमता और हथियार नीति के बारे में दो खबरें साथ-साथ आई हैं। पहली खबर का संबंध अग्नि-5 मिसाइल के सफल परीक्षण से है। इस परीक्षण के बाद भारत दुनिया के पांच देशों के सुपर क्लब में शामिल हो गया है। अमेरिका, चीन, फ्रांस और रूस के बाद अब यह क्षमता हमारे देश ने विकसित कर ली है। इससे भारतवासियों का सीना आत्मगौरव से फूल उठा है तो स्वाभाविक ही है। आखिर कोई तो सूची है जिसमें हमारा देश अमेरिका, फ्रांस और रूस जैसे संपन्न देशों और अपने पड़ोसी देश चीन के साथ मौजूद है। चीन का महत्व इसलिए है कि एक बार उसके सामने हम मुंह की खा चुके हैं।

दूसरी खबर प्रसन्न करनेवाली है या दुखी करनेवाली, यह तय करना आसान नहीं है। एक ओर हथियार की टेक्नोलॉजी में हमारा दर्जा ऊपर से ऊपर उठता जा रहा है, पर दूसरी ओर हथियार आयात का हमारा बिल कम नहीं हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार, भारत इस समय दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश है। सन  2007 और 2011 के बीच यानी कुल पांच वर्षों में भारत के हथियार आयात में 38 प्रतिशत बढ़ती हुई। 2010 में हमने 333 करोड़ अमेरिकी डॉलर की कीमत के हथियार खरीदे। हमारे बाद दूसरे नंबर पर था सऊदी अरब, जिसने 258 करोड़ अमेरिकी डॉलर की कीमत के हथियार खरीदे। इस सूची में कुछ अन्य नाम हैं दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, चीन ग्रीस आदि। ये रकमें बहुत ज्यादा नहीं हैं। अरबों के पाँच-सात घोटाले तो हमारे देश में हर साल आराम से हो जाते हैं। लेकिन यह सूची भी बहुत गौरवपूर्ण नहीं है। ये देश दुनिया के सबसे उन्नत देशों में नहीं हैं।

इस संदर्भ में भारत द्वारा हथियारों के निर्यात की तस्वीर भी देख लेनी चाहिए। भारत अगर एक सभ्यता और संस्कृति का नाम भी है, अगर दुनिया को देने के लिए कोई संदेश इसके पास है, तो हम ऐसे भारत पर कदापि गर्व नहीं कर सकते जो विश्व बाजार में हथियार बेचता हो। हथियार बनाना और उनका आयात करना आत्मरक्षा के लिए जरूरी है। हमारे लिए तो और भी ज्यादा, क्योंकि एक बार हम गच्चा खा चुके हैं। लेकिन हथियारों का निर्यात करना एक और तरह की घटना है। इसका लक्ष्य युद्ध की संस्कृति को बढ़ावा देने के अलावा और क्या हो सकता है? दुनिया भर में सबसे बड़ा हथियार उद्योग संयुक्त राज्य अमेरिका का है और युद्ध-मुक्त तथा शांति-पूर्ण विश्व की रचना में उसकी क्या भूमिका है, यह हर कोई जानता है। इसलिए यह सुन कर हमें खुश नहीं होना चाहिए कि भारत हथियारों का निर्यात भी करता है। हर देश को अपनी जरूरत भर के हथियार ही बनाने चाहिए। हथियार एक भयानक चीज है। यह मानवता का दुर्भाग्य है कि आज भी उससे बचा नहीं जा सकता। चूँकि दूसरे हथियार बनाते और रखते हैं, इसलिए हमें भी बनाने और रखने पड़ते हैं। लेकिन हथियार बना कर किसी और देश को बेचने का कोई सभ्य तर्क नहीं हो सकता।

इस खुशी की बात है कि दुनिया के 16 बड़े हथियार निर्यातक देशों में हमारे देश का नाम नहीं है। हम पांचवें या छठे सवारों में हैं। एक रिटायर मेजर-जनरल के अनुसार, हमारे हथियार निर्यात का स्तर हास्यास्पद बिंदु पर पहुंच चुका है। सन 2008-09 में हमने 41 करोड़ रुपए के हथियार बेचे थे। 2009-10  में हमने सिर्फ 12 करोड़ रुपए के हथियार बेचे। भारत में कलम का बाजार ही 1600 करोड़ रु. का बताया जाता है। इस मेजर-जनरल के मुताबिक, यह ��स��ताहाली हमारे द्वारा बनाए जानेवाली सामरिक वस्तुओं की निम्न क्वालिटी की वजह से है। निर्यात के लिए हम बड़े-बड़े आइटम नहीं बनाते - छोटे-छोटे आइटम बनाते हैं और वह भी इतना खराब कि विश्व बाजार में उनकी कोई पूछ नहीं है। हथियार बेचने के मामले में चीन से हमारी कोई तुलना नहीं है। 2010 में उसने 142 करोड़ अमेरिकी डॉलर के हथियार बेचे थे।  इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि उच्चतर टेक्नोलॉजी के मामले में हम एक स्तर पर भले ही अमेरिका, फ्रांस, रूस और चीन के बराबर हो गए हों, पर निम्नतर टेक्नोलॉजी से बननेवाले हथियारों के उत्पादन और क्वालिटी के मामले में हम फिसड्डी हैं।  तभी तो हमें इतने बड़े पैमाने पर हथियारों का आयात करना पड़ता है। यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि सिर्फ घोटाला करने के लिए हथियारों की खरीद बढ़ाई जाती रही है।

जब भारत ने परमाणु बम बनाने की क्षमता हासिल कर ली और परमाणु विस्फोट के माध्यम से यह जगजाहिर भी हो गया, तब  हमारे देश में दो तरह की प्रतिक्रियाएं हुई थीं। एक पक्ष का कहना था कि परमाणु बम बनाने के क्षेत्र में उतर कर भारत ने बहुत बड़ी भूल की है। यह हमारी विश्व नीति के खिलाफ है। दूसरे पक्ष में बहुत थोड़े-से लोग थे। इनका कहना था कि परमाणु बम अल्टिमेट हथियार है - इसके बाद प्रतिरक्षा बजट पर खर्च कम हो जाता है। माना जाता है, पाकिस्तान के पास भी परमाणु बम बनाने की क्षमता है। समानता के इस तर्क से भारत और पाकिस्तान के बीच अब युद्ध हो ही नहीं सकता। सीमा पर छिटपुट झड़पें जरूर चालू रहेंगी। लेकिन जिसे परमाणु लाभांश (न्यूक्लीयर डिविडेंड) कहा जा सकता हो, ऐसी कोई चीज अभी तक देखने में नहीं आई है। यह परमाणु बम के दर्शन का अपमान है।

पूरी स्थिति पर गौर करने से, स्वाभाविक रूप से यह सवाल जेहन में आता है : क्या वास्तव में हमें इतने हथियार चाहिए? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम अपनी परमाणु क्षमता का विस्तार करें तथा अन्य हथियार सिर्फ वे बनाएँ जिनकी जरूरत सीमा पर होनेवाली मामूली झड़पों के दौरान होती है? क्या इक्कीसवीं सदी में यह मुमकिन है कि कोई ताकतवर देश अपने पड़ोसी देश पर कब्जा कर ले? क्या चीन ऐसा सोच भी सकता है? क्या पाकिस्तान या बांग्लादेश के लिए यह संभव है? हथियारों के मामले में पूरी तरह से तैयार और लैस रहने के परंपरागत विचारों पर प्रश्नचिह्न लगाने का समय आ पहुंचा है। इस पर भावुकता से नहीं, वैज्ञानिक वस्तुपरकता के साथ विचार किया जाना चाहिए।
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/rajkishore/entry/%E0%A4%95-%E0%A4%AF-%E0%A4%B8%E0%A4%9A%E0%A4%AE-%E0%A4%9A-%E0%A4%B9%E0%A4%AE-%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%A8-%E0%A4%B9%E0%A4%A5-%E0%A4%AF-%E0%A4%B0-%E0%A4%9A-%E0%A4%B9-%E0%A4%8F

अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के कारण एशिया-अफ्रीका में अशांति

MONDAY, 14 JANUARY 2013 14:04

विशेष लेख

आतंक के खिलाफ युद्ध अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का मंत्र है. आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के ही काम आता है...


राजेश कापड़ो


मरीकी अर्थ व्यवस्था एक यु्द्ध–अर्थव्यवस्था है . अमरीका आज विश्व के कई हिस्सों में युद्ध में उलझा हुआ है . बराक ओबामा बेशक युद्ध विरोधी भावना जो कि अमेरिका के लगातार युद्धों में फंसे रहने के फलस्वरूप पूरे देश में उभार पर थी, पर सवार होकर सत्ता पर काबिज हुआ . अमेरीकी युद्ध विरोधी अभियान ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व भर के अमन पसंद लोगों को एक भ्रम था कि हाँ, यह कुछ कर सकता है . लेकिन अब यह भ्रम मिट चुका है ओबामा प्रशासन ने व्हाईट हाऊस पर काबिज होने के बाद न केवल अफगानिस्तान में सैनिक बलों की संख्या में बढ़ोतरी की, बल्कि किसी भी प्रकार से अफगानिस्तान में डटे रहने की शपथ भी ली.विश्व व्यापी आर्थिक संकट से उभरने के लिये युद्ध डांवाडोल अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए प्राण वायु जैसा काम करता है . युद्ध अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिये सस्ते संसाधन तो मुहैया करवाता ही है बल्कि युद्धों के फलस्वरूप तत्काल रूप से भी फायदा पहुंचता है . इसलिए अमरीकी राज्य द्वारा जान बूझ कर हथियार उद्योग को बढ़ावा दिया जा रहा है . अपने अधीनस्थ राज्यों को दबाव में लेकर हथियार बेच रहा है . यह सब कुछ अधीनस्थ राज्यों में सत्ता पर काबिज सरकारें अपने अपने सैन्य बलों के हथियारों की अपडेटिंग और अपग्रेडिंग के नाम पर कर रही हैं .


थाकथित आतंक के खिलाफ युद्ध भी अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का ही मंत्र है . यह दुनिया भर में सैन्य रूप से अमरीकी आधिपत्य को तो जायज ठहराता ही है, साथ ही अमरीकी हथियार निर्माताओं के लिए बाजार भी पैदा करके देता हैँ . आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के ही काम आता है . पाकिस्तान सहित विभिन्न देशों को इस श्रेणी से सहायता प्रदान की जाती रही है . युद्धक सामान बनाने वाली कम्पनियों ने अमरीकी राज्यतंत्र पर कब्जा कर लिया है, इसलिये दुनिया भर में युद्ध होते रहे हैं .


ह अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है . यह सब आतंकवाद से लडऩे के नाम पर किया जा रहा है . शांति कायम करने के नाम पर किया जा रहा है . विश्वभर में अमरीकियों को और ज्यादा सुरक्षित करने के नाम पर किया जा रहा है . अमेरिका ने 2010 में विश्व के समुचे हथियार बाजार पर अधिपत्य जमा लिया . अमेरिका की कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) की परम्परागत हथियारों की रिपोर्ट पर गौर करें तो 2011 में अमेरिकी सरकार द्वारा 21–3 बिलियन के हथियार बेचने के ऑर्डर पर हस्ताक्षर किए गए हैं . 2009 में ऑर्डर हस्ताक्षर करने में कुछ कमी आई थी, लेकिन 2011 में इसमें जबरदस्त बढ़ोतरी हुई . 2009 में देखा जाए तो कुल विश्व शस्त्र बाजार में अमेरिका का हिस्सा 35 प्रतिशत था जो कि 2010 में 53 प्रतिशत हो गया .


मेरिकी कम्पनियों ने 2010 में 12 बिलियन डालर के हथियारों की वास्तविक आपूर्ति की और लगातार आठ वर्षों से अमेरिका इस मामले की अग्रणी है . हथियारों की होड़ लगी हुई है . विभिन्न हथियार निर्यातक देश इस होड़ को अपने बाजार के स्वार्थों के वशीभूत होकर बढ़ावा दे रहे हैं . मान लीजिये अमरीका ने भारत को एक उच्च किस्म का सैन्य सामान बेचा तो वह इसके साथ ही पाकिस्तान को भी आश्वस्त कर रहा है कि इसको टक्कर देने के लिये फलां किस्म का हथियार उसे भी बेचा जा सकता है . वास्तव में अमेरीकन अर्थव्यवस्था का उदय ही एक युद्ध अर्थतंत्र के रूप में हुआ था . दोनों बदनाम विश्व युद्धों के दौरान अमरीका हथियार उत्पादक राज्य के रूप में उदित हुआ, जिसकी समृद्धि युद्ध में हैं शांंति में नहीें . आज भी इसका वही चरित्र बना हुआ है .


शियास् सैंटर फॉर एनालीसिस ऑफ वर्ल्ड आर्म ट्रेड की अगस्त 2012 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व का सैन्य साजोसामान का निर्यात 69–84 बिलियन डालर पर पहुंच चुका है, जोकि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के अपने उच्चत्तम स्तर पर है . पिछले एक वर्ष में ही इसमें 3–84 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है . 2011 में यह 67–26 बिलियन डालर था जो कि 2010 के 56–22 बिलियन डालर से 20 प्रतिशत ज्यादा है . पूरे विश्व को हथियारों से ढक देने का यह क्रूर अभियान ऐसे समय चल रहा है जबकि दुनिया भर में कुपोषित बच्चों की संख्या 10 करोड़ पहुँच गई है .

कांगो, सोमालिया और सब सहारा क्षेत्र के विभिन्न देश वस्तुत: भूखों के देशों में तबदील हो गए हैँ और विश्व के कुल भुखमरी ग्रस्त 820 मिलियन लोगों का चैथा हिस्सा अकेले भारत में रहता है . 2004 –05 के नैशनल फैमली एण्ड हैल्थ सर्वे (एन एफ एस एच) के अनुसार भारत के शादी–शुदा व्यस्कों का 23 प्रतिशत, विवाहित महिलाओं का 52 प्रतिशत , शिशुओं का 72 प्रतिशत अनीमिया यानि खून की कमी का शिकार है . 230 मिलियन भारतीय रोज भूखे पेट सोने को मजबूर हैं – टाइम्ज ऑफ इण्डिया 15 जनवरी, 2012 . पाँंच वर्ष आयु वर्ग के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम पाया गया है . इसी आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे अल्प विकास का शिकार हैं . इसके बावजूद भी भारत सरकार ने वर्ष 2012–13 के बजट में ग्रामीण विकास के लिए केवल 9900 करोड़ का आबंटन किया है .


श्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका के घटनाक्रमों को भी अमरीकी युद्ध अर्थ व्यवस्था को ध्यान में रखकर ही समझना चाहिये . इस क्षेत्र में दिसम्बर 2011 के बाद आए जन उभार अमरीकी सैन्य साजोसामान बनाने वाली कम्पनियों के लिये बाजार मुहैया करवा रहे हैं . बहरीन, टयूनिशिया, मिश्र, यमन आदि देशों की सरकारों को यह कम्पनियाँ भीड़ नियन्त्रण के साजोसमान जैसे प्लास्टिक की गोलियाँ, आँसू गैस के गोले आदि बेच रही हैं . मानवाधिकारों को पैरों तले रौंदने वाले तानाशाह शासनों की खुली मदद कर रही हैं . सऊदी अरब ने वर्ष 2010 में 60 अरब डालर में अमरीका निर्मित एयरकाफ्रट की खरीद को सिद्धाँत रूप से हरी झण्डी दिखा दी है . जो तानाशाह अमरीका या पश्चिम के हितों से मोल भाव करने में तालमेल नहीं बिठाते हैं, उन्हें लोक तन्त्र स्थापित करने के नाम हटाना अमरीकी राज्य का कोई नया हथकण्डा नहीं है.

हले इराक के सद्दाम हुसैन, फिर लिबिया के जनरल गद्दाफी, और अब सीरिया में बसर अल असद को हटाने की अमरीकी 'शांति एवं लोकतंत्र' की मुहिम जारी है . उधर बगल में ही जनता को टैंकों के नीचे रौंदने वाले सऊदी अरब के तानाशाह, और बहरीन के शासकों को अमरीकी आशीर्वाद प्राप्त है . 2008 के आर्थिक संकट ने बड़े स्तर पर सैन्य बजटों पर रोक लाने का काम किया . खुद हथियार निर्माता देशों ने अपने–अपने सैन्य बजट को कम किया था, या फिर मामूली वृद्धि की थी . लगभग सभी यूरोपीय देशों को वितीय संकट के फलस्वरूप सैन्य बजट को न चाहते हुए भी कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा . अगले दस वर्ष तक अमरीकी रक्षा विभाग–पैंटागन–सैन्य बजट को बिल्कुल नही बढ़ाने या बहुत कम बढ़ाने की योजना बना चुका है . इसलिये सभी रक्षा ठेकेदारों की नजर विदेशों खासकर विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर टिकी है .


स कार्य में अमरीकी शासन अपनी पूरी ताकत के साथ इनकी मदद कर रहा है . हथियार आपूर्तिकर्ता खरीददारों को नए–नए प्रलोभन दे रहे हैं . भुगतान के विकल्पों को आसान और अति आसान बना रहे हैं . इन युद्ध सौदागरों की नज़र साऊदी अरब, यू–ए–ई–, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिणपूर्वी एशिया के सम्पन्न बाजारों पर गड़ी है . इसलिये भविष्य में इस विस्तृत क्षेत्र में शांति का सपना देखना भी पाप है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जितना युद्ध ग्रस्त होगा, अमरीकी कम्पनियों और खुद अमेरिका के आर्थिक हित उतने ही सुरक्षित होंगे .


दि 2010 के ही अध्ययनों पर नज़र डालें तो विकासशील देश अमरीकी सैन्य साजोसामान के बड़े खरीददारों के रूप में उभर कर सामने आए हैं . सभी नए किए गए खरीद सौदों का 70 प्रतिशत विकासशील देशों का है और समझौतों के बाद सम्पन्न हुई वास्तविक आपूर्ति भी 63 प्रतिशत विकासशील देशों में हुई है .


विकासशील देशों में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है . भारत ने अमरीका से कुल 3–6 बिलियन डालर के सैन्य साजो सामान की खरीदे हैं . इसके बाद सऊदी अरब का नम्बर है, जिसने इसी वर्ष में 2–2 बिलियन की खरीददारी की है . यदि वर्ष 2003–2010 तक विकासशील देशों द्वारा की गई सैन्य साजोसामान की खरीद की बात करें तो 29 बिलियन डालर की खरीद के साथ साऊदी अरब प्रथम स्थान पर रहा है . उसके बाद भारत ने 17 बिलियन डालर के सैन्य सामान खरीदे हैं . चीन और मिश्र ने क्रमश% 13–1 और 12–1 बिलियन डालर के हथियार खरीदे हैं . इन सात वर्ष में इज़राईल ने 10–3 बिलियन डालर के

हथियारों की खरीद की है .


दि नए किए गए हथियारों के खरीद करारों की बात करें तो विकासशील देशों की दौड़ में भारत फिर पहले नंबर पर है . 2010 में भारत ने अमरीका से कुल 6 बिलियन डालर के नए सौदे किए हैं . इसके बाद ताईवान ने 2–7 बिलियन डालर तथा साऊदी अरब ने 2–6 अरब डालर के नए समझौते अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों से किए हैं . अमरीका के साथ 2010 में विकासशील देशों ने कुल 30–7 अरब डालर के रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2003 के बाद सबसे कम है . 2009 में इनका मूल्य 50 अरब डालर था . अमेरिकी कंपनियों द्वारा वर्ष 2010 में विकासशील देशों को 22 बिलियन डालर के हथियार आपूर्ति की गई जो कि 2006 के बाद सबसे ज्यादा मूल्य के हैं . वर्ष 2010 में अमेरिका द्वारा कुल किए गए नए सैन्य साजो सामान खरीद करारों में से विकासशील देशाों के साथ 49 प्रतिशत करार किए . 2009 में विकासशील देशों के साथ होने वाले इन नए करारों का हिस्सा 31 प्रतिशत था, जबकि रूस ने वर्ष 2010 में विकासशील देशों से नए 25 फीसदी करार किए .


टली, फ्रांस, ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोपीय शस्त्र निर्माताओं ने 2009–10 में विकासशील देशों के साथ ऐसे क्रमश% 24 प्रतिशत और 13 प्रतिशत आर्डर प्राप्त किए . हथियार खरीद के समझौतों के कुल मूल्य के मामले मे 2003–2006 के काल में रूस ने अमरीका को पीछे छोड़ दिया था लेकिन 2007–2010 की अवधि में अमरीका ने फिर ओवरटेक कर लिया है . पिछले आठ वर्ष से अमेरिका और रूस दोनों ही विकासशील देशों का हथियार निर्यात करने वाले प्रमुख देश रहे हैं .


पिछले आठ वर्षों में विभिन्न हथियार निर्यातक राज्यों द्वारा विकासशील देशों को बेचे गए कुल हथियारों के मूल्य पर गौर करें तो अमरीका पहली पंक्ति था. इन आठ वर्षों में अमरीका ने विकासशील देशों को कुल 60 अरब डालर के हथियार बेचे . रूस ने 38 अरब डालर तो, ब्रिटेन ने 19 अरब डालर के हथियारों की बिक्री की . फ्रांस ने 12–13 अरब डालर, चीन ने 11 अरब डालर, जर्मनी ने 6 अरब डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे . इजराईल ने 3–5 अबर डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे .


शियाई बाजारों में भी अमरीकी दखल बढ़ा है . 2003–2006 के काल में अमरीका द्वारा ऐशियाई देशों के साथ कुल मूल्य के 17 प्रतिशत ऑर्डर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2007 से 2010 के काल में 26 प्रतिशत तक बढ़ गये . इसी चर्चित अवधि मे रूस का हिस्सा 2003 से 2006 के दौरान 36 फीसदी, और 2007 से 2010 के बीच में 30 फीसदी रहा . निकटवर्ती पूर्वी देशों के साथ अमेरिका ने 2003–2006 में कुल हस्ताक्षर किए गए मूल्य के 33 फीसदी आर्डर हस्ताक्षर किए और 2007–2010 के काल में यह आश्चर्यजनक रूप से 57 प्रतिशत तक बढ़ गया .


भारत विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयात करने वाला देश बन गया है . भारत की हथियार आयात के विस्तार की योजनाओं पर नजर डाले तों यह अगले दस वर्ष में 100 अरब डालर पार करने वाला है . विभिन्न अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियां जेसै बोईंग आदि इस विशाल सैन्य बजट से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पने के लिए मचल रही हैं . भारत की योजना अगले पांच वर्ष में सैन्य साजोसामान पर 55 अरब डालर खर्च करने की है .

भारत के साथ 1–4 अरब डालर की लागत वाले 22 हमलावर हेलीकॉप्टर के सौदा करने के मामले में अमरीका ने रूस को पछाड़ दिया है . अमरीकी कम्पनी बोइंग के साथ यह करार भारत सरकार ने कर लिया है . रूस ने भारत के सामने एम आई–26 बेचने का प्रस्ताव रखा है, तो अमरीका बदले में सी एच–47 शिनूक का प्रस्ताव रख रहा है . रूस भारत को भारी वजन लेकर उडने वाले 15 हेलीकॉप्टर बेचने के मामले में अमरीका से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहा है . स्टाकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीच्यूट की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2007–2010 के काल में 80 फीसदी हथियार, जोकि 207 अरब डालर के मूल्य के हैं, रूस से खरीदे हैं .


यूपीए गठबंधन सरकार ने वर्ष 20012–13 के अपने रक्षा बजट में 17–63 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है . इस वित्त वर्ष में भारत सरकार ने 193407–29 करोड़ रूपये सैन्य बजट के लिये आबंटित किये हैं . वित्त वर्ष 2009–10 में भी रक्षा बजट में 34 प्रतिशत की बेतहाशा बढ़ोतरी भारत सरकार कर चुकी है . अमरीकी कम्पनी बोईंग अपने पहले दस सी–17 ग्लोब मास्टर–111 जून, 2013 में भारत को बेचेगी . इनकी खरीद का ऑर्डर 2011 में दिया जा चुका है .

भारत अमरीका से 4–1 अरब डालर यानि 22,960 करोड रूपये की लागत वाली यूएस एयर फोर्स वर्कशाप खरीदना चाहता है . इसका उपयोग अमरीकी सैन्य बलों द्वारा इराक एवं अफगानिस्तान में व्यापक रूप से किया गया था . अब तक का यह सबसे बड़ा रक्षा समझौता दोनों सरकारों के बीच होना है . 2011 में ही भारत सरकार ने अमरीका से हवा एवं पानी में एक साथ काम करने वाले ट्राँस्पोर्ट वैसल 50 मिलियन डालर मूल्य में खरीदा है . साथ ही इसके साथ काम करने वाले 6 यूएच–3 एच हेलीकॉप्टर भी खरीदे हैं, जिनकी कीमत 49 मिलियन डालर आँकी गई है .


सके अलावा 200 मिलियन मूल्य की पनडूब्बी विरोधी हारपीन मिज़ाइलें और सी–130 लम्बी दूरी की एकाऊस्टिक डिवाईसिस व अन्य रक्षा साजोसामान, जिनका मूल्य 2–1 मिलियन डालर है, अमरीका से खरीदा गया है . अमरीकी शासक वर्गों की पैदाईश –आतंकवाद के खिलाफ युद्ध– ओर कुछ नहीं, बल्कि अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों के लिए बाजार मुहैया करवाने का मन्त्र है . भारत के शासक वर्ग सहित सभी एशिया, अफ्रीका महाद्वीप के दलाल शासक भी अमरीका के सुर में सुर मिलाकर यही जाप कर रहे हैं .


भारत चीन सीमा पर संभावित खतरों के नाम पर भारत के शासक वर्ग सैन्य तैयारी बढ़ा रहे हैं . बढ़ते हुए सैन्य खर्चों को विदेशी आक्रमण का भय दिखा कर जनता के एक हिस्से खासकर मध्यम वर्गों को अपने पक्ष में करने का यह एक शासक वर्गीय हथकंडा है, जिस पर बाकायदा राष्ट्रवाद का रंग चढ़ा हुआ है जोकि अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है .

राजनितिक कार्यकर्त्ता राजेश कापड़ो हरियाणा में किसानों के बीच सक्रिय हैं.
http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/important-articles/300-2012-04-23-13-06-14/3560-america-war-economy-in-asia-africa-conflct

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In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk