विकिलीक्स के आईने में हम अमेरिकी पिट्ठू नजर आ रहे हैं
♦ पंकज बिष्ट
अमेरिकी सरकार ही नहीं बल्कि पश्चिमी खेमे के सारे देश जूलियन असांज की जान के पीछे जिस तरह से पड़े हुए हैं, वह विकीलीक्स की प्रामाणिकता को स्वयं ही सिद्ध कर देता है। अगर इन दस्तावेजों की प्रमाणिकता में जरा भी शक होता तो अमेरिका ने अपने एक नागरिक को सरकारी गुप्त दस्तावेज सार्वजनिक करने के आरोप में नवंबर से आज तक बिना मुकदमा चलाये बंद नहीं किया हुआ होता।
जैसा कि असांज ने एनडीटीवी के प्रणय राय को दिये साक्षात्कार में कहा है, ऐसा नहीं है कि इस तरह का खुलासा पहली बार हो रहा हो। इससे पहले इस संस्था ने 120 देशों के बारे में विभिन्न किस्म के दस्तावेजों को सार्वजनिक किया है। इसमें केन्या से ईस्ट तिमोर में हुई हत्याओं से लेकर अफ्रीका में खरबों रुपयों के भ्रष्टाचार तक के मामले शामिल हैं। पर तब पश्चिमी देशों की सरकारों ने एक बार भी नहीं कहा कि ये तथ्य गलत हैं या फिर यह तरीका गलत है।
स्वयं को दुनिया का सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की आजादीवाला देश बतलानेवाला अमेरिका आखिर अपने बारे में होनेवाले खुलासों से इतना बेचैन क्यों हो गया है? असांज ने राय को दिये साक्षात्कार में इसके कारण को दो टुक तरीके से रखा है। उनके अनुसार, अमेरिका के बारे में सत्य यह है कि आज इसकी 30 से 40 प्रतिशत अर्थव्यवस्था सुरक्षा क्षेत्र में लगी हुई है। इसलिए इसके बहुत सारे रहस्य हैं, बहुत सारे कंप्यूटर हैं, और इसके गृह विभाग में बहुत सारे लोग हैं, सरकार में, सेना में।
28 मार्च के हिंदू में प्रकाशित विकीलीक्स की सामग्री का संबंध अमेरिका द्वारा भारत को हथियार बेचने की कोशिश से ही संबंधित था। इसके अनुसार दिल्ली स्थित अमेरिकी राजदूतों ने अपनी सरकार को भेजे गये विभिन्न संदेशों (केबल यानी तार) में यह बतलाया है कि भारत का शस्त्रों का बाजार 27 खरब डालर का है और हमें इसमें हिस्सेदारी के लिए क्या करना चाहिए। यहां यह बतलाना जरूरी है कि भारत इस समय दुनिया के हथियारों के सबसे बड़े खरीदारों में से है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी मंदी से नहीं उबर पायी है। वहां लगातार बेरोजगारी बढ़ रही है। इसलिए अमेरिका के बाकी हितों को छोड़ दें तो भी हथियारों की बिक्री ऐसा मसला है, जिसके चलते अमेरिका भारतीय बाजार की अनदेखी नहीं कर सकता।
पर इसी से जुड़ा एक और मसला भी है और वह है इस महाशक्ति का दुनिया पर अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए सब कुछ करने का। इसके चलते अमेरिका, अफगानिस्तान, इराक और अब लीबिया में हस्तक्षेप कर रहा है। असल में अमेरिकी सत्ता के दबाव ऐसे हैं कि इराक से सेनाएं बुला लेने के आश्वासन पर सत्ता में आये ओबामा ने लीबिया पर आक्रमण करने में देर नहीं लगायी है। गोकि यह भी संयुक्त राष्ट्र संघ की आड़ में किया गया है। साफ है कि ओबामा अमेरिकी शस्त्र और तेल उद्योग के दबाव से हट कर कोई काम कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। पर यह तो साफ ही है कि अमेरिकी जनता युद्धोन्मादी नहीं है अन्यथा ओबामा कैसे राष्ट्रपति बनते। इराक को लेकर अमेरिकी जनता में जबर्दस्त विरोध रहा है और इसीलिए अमेरिका ने लीबिया में जनता को बचाने और वहां तथाकथित लोकतंत्र स्थापित करने की लड़ाई की कमान नाटो को थमायी हुई है, इसके बावजूद कि यह आंखों में धूल झोंकने से ज्यादा कुछ नहीं है। यही नहीं विकीलीक्स को यह सारी सामग्री देनेवाला व्यक्ति भी इराक के युद्ध में शामिल एक पूर्व सैनिक ही है। यह अपनी सरकार से जनता के असंतोष और भ्रमभंग का एक पुख्ता उदाहरण है। यह इस बात को भी सिद्ध करता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ किस हद तक अमेरिका की गिरफ्त में है और किस हद तक पश्चिमी खेमे के हित उससे जुड़े हैं।
हिंदू में प्रकाशित भारत संबंधी खुलासों ने सिर्फ इस बात पर प्रमाणिकता की मुहर लगा दी है कि किस तरह से नरसिंह राव सरकार के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था, राजनीति और सत्ता पर पश्चिमी खेमे, विशेष कर अमेरिकी सत्ता की पकड़ ने मजबूत होना शुरू किया और एनडीए की सरकार से होती हुई यह आज जिस मुकाम पर पहुंच गयी है, उसे परमाणु ऊर्जा बिल पर संसद में होने वाले मतदान को लेकर अमेरिकी बेचैनी स्पष्ट कर देती है। यह चकित करनेवाला है कि क्यों एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने सीआईए के एजेंट को बतलाया कि सांसदों को खरीदने के लिए 50 करोड़ रुपया तैयार है। यह रुपया कहां से आया? क्या यह अमेरिकी नहीं हो सकता? जैसे सवालों का उठना भी इस संबंध में लाजमी है। पर देखने की बात यह है कि किस तरह से अमेरिका भारतीय सरकार में मंत्रियों के बनाये जाने में भी रुचि लेता रहा है और उसकी रुचि किस तरह के लोगों में रही है। उदाहरण के लिए वह मोंटेक सिंह अहलूवालिया को वित्तमंत्री बनाना चाहता था और मणि शंकर अय्यर को पैट्रोलियम मंत्रालय से इसलिए हटना पड़ा क्योंकि वह अमेरिकी हितों से ज्यादा – ईरान से तेल लाइन के मामले में – भारत के हितों को तरजीह दे रहे थे।
उधर भाजपा नेता अरुण जेटली का मामला भी अमेरिका को लेकर भाजपा के दोमुंहेपन को स्पष्ट कर देता है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जहां तक अमेरिका का मसला है – मूलत: दोनों दलों में कोई अंतर नहीं है। एक के लिए हिंदुत्व आड़ है, तो दूसरे के लिए वामपंथी झुकाव। दुखद यह है कि जैसे-जैसे भारत तथाकथित आर्थिक शक्ति बनता जा रहा है वैसे-वैसे वह आर्थिक हो या राजनीतिक, अपनी स्वतंत्र नीतियों से दूर होता जा रहा है। विदेशी मामलों में तो भारत लगभग अमेरिकी पिट्ठू हो चुका है। इससे यह जरूर होगा कि अब भाजपा और कांग्रेस दोनों ही विकीलीक्स की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाने की हर चंद कोशिश करेगी।
(यह अप्रैल 2011 के समयांतर का संपादकीय है…)
(पंकज विष्ट। वरिष्ठ हिंदी कथाकार। विचार की महत्वपूर्ण पत्रिका समयांतर के संपादक। भारतीय सूचना सेवा में लंबे समय तक रहे। नॉवेल लेकिन दरवाजा को काफी चर्चा मिली। इसके अलावा भी उनके कई उपन्यास और कहानी संग्रह हैं। उनसे samayantar@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
हृषीकेश सुलभ ♦ क्या आज रंगमंच की कठिन सामूहिकता से बचने के लिए लोग एकल नाटक का सहारा ले रहे हैं या उस ओर पलायन कर रहे हैं – इस पर सोचना होगा। ये प्रयोग की भूमि है, इसकी अमरता का स्वरूप नश्वरता में छिपा है।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
मोहल्ला पटना »
अभिषेक नंदन ♦ हृषीकेश सुलभ ने कहा कि रंगमंच जंनतांत्रिक कला है। क्या मंच पर अभिनेता अकेले हो सकता है? भारतीय रंगमंच के केंद्र में शुरू से ही अभिनेता रहा है। भांड़, आल्हा-ऊदल और भरतमुनी के समय के कई सटीक उदाहरण देकर उन्होंने कहा कि अभिनय की शुरुआत यहीं से हुई और ये एकल फॉर्म में ही था। ये कोई नयी चीज नहीं है, तो क्या आज रंगमंच की कठिन सामूहिकता से बचने के लिए लोग एकल नाटक का सहारा ले रहे हैं या उस ओर पलायन कर रहे हैं – इस पर सोचना होगा। ये प्रयोग की भूमि है, इसकी अमरता का स्वरूप नश्वरता में छिपा है।
नज़रिया »
डेस्क ♦ दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक आशुतोष कुमार ने अपनी फेसबुक वॉल पर ओसामा बिन लादेन के पूरे प्रसंग को एक गजल के माध्यम से समझने की कोशिश की है। यह कहते हुए कि अब यह गजल मेरी नहीं आप सब की है। अरुण जी की तरह आप सब अपने अपने अशआर के साथ इस में शरीक हो सकते हैं। इस गजल पर क्या कमेंट्स की बारिश हुई है।
नज़रिया »
हितेंद्र पटेल ♦ हम किसी ऐसे विद्वान के अंग्रेजी में भाषण देने का विरोध नहीं कर सकते, जिसे हिंदी नहीं आती। हम अपने रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में ऐसे विद्वानों के भाषण का कार्यक्रम बांग्ला में करते हैं और सुविधा के लिए अंग्रेजी में दिये गये व्याख्यान का बांग्ला में अनुवाद कर देते हैं। प्रश्नोत्तर में पूछे जाने वाले प्रश्न का अंग्रेजी अनुवाद संचालक कर देते हैं। इस तरह से अपने बरसों के अनुभव में कभी किसी को कोई दिक्कत हुई है, ऐसा नहीं लगा। भारतीय भाषा परिषद में अगर कार्यक्रम हिंदी में होता और रामचंद्र गुहा अंग्रेजी में अपनी सुविधा से बोलते, तो भी बात समझ में आती। वैसे गुहा बहुत अच्छी हिंदी जानते हैं और वे निश्चित रूप से हिंदी विरोधी नहीं हैं।
नज़रिया, रिपोर्ताज »
एस बिजेन सिंह ♦ मणिपुर में उस कानून का राज है, जो जंगल में रहने वाले जानवरों के लिए होता है। यानी जंगल का कानून। मसलन, अफसपा। इस कानून के तहत किसी को भी गोली मारना, पकड़ कर जेल में डाल देना और महिलाओं का बलात्कार करना एक आम घटना है। सेना के जवान जवाब देते हैं कि वह आतंकवादी था, इसलिए ये सब किया है। मुख्यमंत्री ने यहां तक कहा था कि मारने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन सच तो सामने आ ही गया था कि आतंकवादी के नाम पर लोगों पर जुल्म ढाये जा रहे हैं। तहलका ने 12 तस्वीरें छाप कर पर्दाफाश कर दिया था।
मोहल्ला रांची, शब्द संगत, समाचार »
डॉ वृंदावन महतो ♦ साहित्य अकादमी व सैमसंग द्वारा स्थापित टैगोर साहित्य सम्मान संताली भाषा के लिए सोमाइ किस्कु को दिया जाएगा। किस्कु को यह सम्मान उनके उपन्यास 'नामालिया' के लिए कल पांच मई को मुंबई में आयोजित एक समारोह में प्रदान किया जाएगा। यह सम्मान ग्रहण करने वाले वे पहले संताली लेखक हैं। झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे ने उन्हें बधाई देते हुए इसे समस्त आदिवासी साहित्य के लिए सम्मान माना है।
नज़रिया, स्मृति »
विश्वजीत सेन ♦ समाजवादी विचारधारा को जड़ मूल से नष्ट करने का इरादा जिनका था, उनसे लेकिन एक भूल हो गयी। वे जिस विचारधारा को आगे लाने के लिए प्रयासरत थे, वे जिस सामाजिक आर्थिक ढांचे की वकालत कर रहे थे, उनमें निहित द्वंद्वों का अध्ययन उन्होने बारीकी से नहीं किया। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। वर्ग-विभाजित समाज में द्वंद्व केवल एक ही तरीके से हल हो सकते हैं, क्रांति से। अब वह क्रांति हिंसक होगी या नहीं, यह तो उस खास समाज की बनावट पर निर्भर करता है। मसलन, उस समाज की वर्ग संरचना कैसी है, शोषित वर्ग किस हद तक सामाजिक आर्थिक फैसलों में हिस्सेदार है आदि आदि। लेकिन क्रांति के बगैर वर्ग-विभाजित समाज के द्वंद्वों को सुलझाना मुमकिन नहीं।
रिपोर्ताज »
दीपक भारती ♦ सबसे ज्यादा परेशान करने वाली थी कि वहां के बच्चे आपको देख कर मुस्कुराते नहीं। आप कितने ही बच्चों को देख कर अलग-अलग बार अलग-अलग जगहों पर इसकी कोशिश करके देख लें। आप निराश होंगे। वे आपको देख कर डरते तो नहीं, लेकिन असहज जरूर हो जाते हैं। वे आपको ऐसा आदमी समझते हैं, जो उनकी और उनके परिवार, गांव और समाज की मुश्किलें नहीं समझ सकता। सौभाग्य से सलाम भाई मेरे साथ था, इसलिए मुझे कुछ बच्चों से जुड़ने का मौका मिला। लेकिन सच यही है कि बौद्ध लामाओं से दिखने वाले ये बच्चे जब मुस्कुराहट की भाषा में बात नहीं करते, तो एक भारतीय होने, विकास करने और दुनिया में पहचान बनाने की भावना अजीब सी लगने लगती है।
नज़रिया »
पॉल क्रेग रॉबर्ट्स ♦ बिन लादेन की मौत का जश्न मना रहे अमेरिकी मीडिया के दूसरे दावों के बारे में भी सोचें। उनका दावा है कि बिन लादेन ने अपने दसियों लाख रुपये खर्च करके सूडान, फिलीपींस, अफगानिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर खड़े किये, 'पवित्र लड़ाकुओं' को उत्तरी अफ्रीका, चेचेन्या, ताजिकिस्तान और बोस्निया में कट्टरपंथी मुसलिम बलों के खिलाफ लड़ने और क्रांति भड़काने के लिए भेजा। इतने सारे कारनामे करने के लिए यह रकम तो ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है (शायद अमेरिका को उसे पेंटागन का प्रभार सौंप देना चाहिए था), लेकिन असली सवाल है कि बिन लादेन अपनी रकम भेजने में सक्षम कैसे हुआ? कौन-सी बैंकिंग व्यवस्था उनकी मदद कर रही थी?
मोहल्ला पटना »
अभिषेक नंदन ♦ पहले दिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र प्रवीण कुमार गुंजन के निर्देशन में गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना समझौता, जिसे सुमन कुमार ने नाट्यरूप में बदला है, का मंचन हुआ। अभिनेता थे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ही पूर्व छात्र मानवेंद्र त्रिपाठी। उन्होंने बहुत सशक्त अभिनय किया। हृषीकेश सुलभ अपने फेसबुक वॉल पर लिखते हैं कि लंबे समय के बाद मैंने मानवेंद्र को अभिनय करते हुए देखा। उनमें गजब की ऊर्जा देखने को मिली। नाट्य विद्यालय के प्रशिक्षण ने उन्हें विकसित किया है।
मीडिया मंडी »
रोहिणी सिंह ♦ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने सीबीआई से एक मामले की जांच करने को कहा है, जिसमें कथित रूप से एक पत्रकार ने कॉरपोरेट लॉबीइस्ट नीरा राडिया की तरफ से ईडी के एक अधिकारी से संपर्क किया था। पिछले साल नवंबर में भेजे गये पत्र में ईडी ने कहा था कि सहारा न्यूज नेटवर्क में सीनियर एडिटोरियल पद पर काम करने वाले उपेंद्र राय ने ईडी के एक अधिकारी को काम कराने के बदले 'भुगतान' की पेशकश की थी। इस पत्र को गोपनीय बताया गया था।
शब्द संगत, स्मृति »
श्याम बिहारी श्यामल ♦ बटुक-शैली के दक्ष वरिष्ठों ने लगभग हर दौर में साहित्य में प्रदूषण भरने और कचरा फैलाने का ही काम किया है। अपने पीछे की भीड़ का आयतन बढ़ाने के लिए 'ऐसों' ने क्या-क्या नहीं किये। नये रचनाकार को अपना मुरीद बनाकर बांधे रखने के लिए उसकी जरूरत से ज्यादा तारीफ ही नहीं, सदाबहार उपकार-प्रतिदान भी। यह सब कुछ इस कदर कि वह शुरुआती दो-चार रचनाओं के बाद ही स्वयं को 'प्रेमचंद' से कम मानने को तैयार नहीं रह जाये। 'आका' के अलावा किसी दूसरे रचनाकार को पहचानने से भी इनकार जैसा व्यवहार। कई उदाहरण सामने हैं कि ऐसे आकाओं ने अपने ही उभारे नयों को तारीफ से तर करते-करते अंततः नाकाम बनाकर ही दम लिया।
नज़रिया, मोहल्ला रांची, शब्द संगत »
डॉ वृंदावन महतो ♦ लोगों ने रोमांटिक होकर और गिद्ध दृष्टि से झारखंड पर ज्यादा लिखा है। अनेक बाहरी लेखकों ने तो हमारा अहित करने वालों को उद्धारक और हमारे नायकों को अपराधी चित्रित किया है। यहां के क्रांतिकारी नजरिये को लोग पचा नहीं पाये। झारखंडी भाषाओं में रची गयी कहानियां इसी का जवाब देती हैं। अनाभिव्यक्त जीवन संघर्ष और सृजन को अभिव्यक्त करती हैं। ये बातें डॉ बीपी केशरी ने कही। वे रविवार को सूचना भवन सभागार में झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा द्वारा आयोजित आदिवासी-देशज कथा-रंग में बोल रहे थे। डॉ केशरी ने कहा कि साहित्य में मिट्टी को बोलना चाहिए। चेतना संवेदना संघर्ष नजर आना चाहिए।
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