Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Sunday, September 12, 2010

माओवादी आज हिंदुस्‍तान में सबसे ताकतवर विपक्ष हैं!

माओवादी आज हिंदुस्‍तान में सबसे ताकतवर विपक्ष हैं!

http://mohallalive.com/2010/09/12/anand-swaroop-verma-react-on-surendra-mohan-writeup-on-nepal-maoist-party/
12 September 2010 13 Comments



♦ डॉ शशिकांत

जनसत्ता में माओवाद को चकलाघर बताने वाले मृणाल वल्‍लरी के लेख पर लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। भारतीय मध्‍यवर्ग को लुभाने वाली सीपीएम सरीखी पार्टियों के पल्‍ले से झांकते कई बुद्धिजीवी मृणाल के खुलासे से सहमत हैं – तो कई मानते हैं कि वह कुछ अव‍िश्‍वसनीय घटनाओं के माध्‍यम से एक आंदोलन को बदनाम कर रही हैं। सबकी बातें आ रही हैं – कोई भी अपनी बात इस पूरे मसले पर रख सकता है : मॉडरेटर

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी की टिप्‍पणी

-शिकांत बाबू, नंदीग्राम-सिंगूर में तो जमीन अधिग्रहण का मसला था, लालगढ़ में तो किसानों की जमीन अधिग्रहण का मसला नहीं है। वहां पर फिर क्यों अकारण माकपा के कार्यकर्ताओं का माओवादी कत्ल कर रहे हैं? लालगढ़ इलाके में माकपा का वर्चस्व भी नहीं है। फिर माकपा के लोगों की हत्याएं क्यों की जा रही हैं? जिस तर्क से लालगढ़ में माकपा के सदस्यों की बेवजह हत्याएं की जा रही हैं, ऐसा राजनीतिक उदाहरण भारत में दूसरी जगह नहीं मिलता। लालगढ़ में कोई आंदोलन भी नहीं चल रहा, फिर हत्याएं क्यों? क्या आप बिना वजह माओवादियों के द्वारा किये जा रहे कत्लेआम को सही मानते हैं? यदि हां तो इस तर्क से तो कम्युनिस्टों को वे सारे देश में जान से मारना चाहेंगे और कम्युनिस्टों को मारकर माओवादी किसका भला करना चाहते हैं?

पश्चिम बंगाल में माओवादी-तृणमूल कांग्रेस मिलकर जमींदारों की हिमायत कर रहे हैं। उन्हें किसानों की नहीं, उन जमींदारों के हितों की रक्षा की चिंता है, जिनकी जमीनें भूमिसुधार कार्यक्रम के तहत किसानों और खेतमजदूरों में बांट दी गयी थीं और वाममोर्चा सारी खामियों के बावजूद गांवों में गरीबों की जमीन का एकमात्र ऱखवाला है।

लालगढ़ में माओवादी और उनके सहयोगी संगठन आदिवासियों की संपदा लूट रहे हैं। एक ही उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि वे कैसे हैं। लालगढ़ में पुलिसबलों का ऑपरेशन आरंभ होने के पहले ही माओवादियों ने बड़े पैमाने पर पेड़ काटकर बीच रास्ते में डाल दिये थे। उल्लेखनीय है कि आदिवासी पेड़ नहीं काटते। वे पेड़ की पूजा करते हैं। और बाद में ये ही पेड़ माओवादियों के संरक्षण में जंगल माफिया के हाथों मोटी रकम लेकर बेच दिये गये। यह किसकी सेवा है?

शशिकांत का जवाब

भा -ई जगदीश्वर जी, मुझे लगता है बहस में पत्ते, टहनियों की बातें करना बेकार है। जड़ों की बातें, बुनियादी बातें होनी चाहिए। प बंगाल में माकपा और नक्सलवादी साथ-साथ रह रहे हैं दशकों से। ज्योति बाबू के समय से। छोटे-मोटे मतभेदों के बावजूद। प बंगाल में माकपा की सत्ता है, इसलिए माकपा का फर्ज बनता था/है कि वह माओवादियों से रिश्ता बनाकर रखे। सत्ता में रहते हुए माकपा के कार्यकर्ता लालगढ़ में मारे जा रहे हैं, यह सचमुच विडंबना है।

…भाई जी, न्याय-अन्याय, नैतिकता-अनैतिकता, सही-गलत युद्ध शुरू होने से पहले देखा जाता है। सत्ता में रहते हुए यदि माकपा के लोग माओवादियों को 'अनैतिक' और 'गलत' कह रहे हैं, तो उन्होंने हार मान ली है। यह सच है कि माओवादी प बंगाल और मुल्‍क में सबसे बड़ा विपक्ष बन चुका है। इतिहास के इस सच को मत नकारिए कि यह माओवाद का गोल्डन एज है और माकपा का वर्स्ट फेज, प बंगाल में भी और पूरे मुल्‍क में।

… और यह भी इतिहास ही तय करेगा कि माओवादियों की भूमिका सही रही या गलत यदि आगामी विधानसभा चुनाव में प बंगाल में माकपा हार जाती है। मुझे लगता है माकपा के बुद्धिजीवी सिर्फ पश्‍िचम बंगाल के तईं सोच रहे हैं जबकि माओवादी मुल्‍क के स्तर पर बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं। मुख्य विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं।

… फिर भी मैं चाहता हूं कि माकपा और माओवादी बुद्धिजीवियों को इस आपसी लड़ाई पर पेट्रोल छिड़कना छोड़कर दोनों के मेल-जोल का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि नंदीग्राम और सिंगूर के मामले में माकपा के वैचारिक विचलन ने हिंदुस्तान के आम वामपंथी बुद्धिजीवियों को परेशान किया था/है। इसीलिए संबंध सुधार की शुरुआत भी माकपा के बुद्धिजीवियों को ही करनी पड़ेगी। खुद को वैचारिक स्तर पर दुरुस्त करके। काफी सोच-समझ कर मैं यह कह रहा हूं।

… आज के हिंदुस्तान के हालात में माओवादी पॉलीटिकली ज्यादा करेक्ट हैं। इस मुल्‍क के विकास से महरूम हाशिये पर, आखिरी कतार में खड़े करोड़ों आदिवासी, गरीब, जंगली, पिछड़े लोग उनसे सिंपैथी रखते हैं। उनके साथ मरने-मारने को तैयार हैं। हमारी सरकार और सत्ता में बठे लोग भी इस सच को मान चुके हैं। माकपा के लोग कब मानेंगे? जितनी जल्दी मान लें उतना अच्छा है!

… बाकी देखिए आगे-आगे होता है क्या जगदीश्वर भाई?

मित्रो, अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। आज से कोई आठ-एक साल पहले की ही बात है, जब नरेंद्र मोदी कि अगुआई में गुजरात में हजारों मुसलामानों का कत्लेआम किया जा रहा था। (बेशक उग्र हिंदुत्व द्वारा प्रायोजित उस दंगे में बहुत से हिंदू भी मारे गये थे।) एक मुस्लिम औरत के यौनांग में भगवा ध्वज फहरा दिया गया था। एक गर्भवती मुस्लिम औरत के साथ 13 हिंदुत्ववादियों ने सामूहिक बलात्कार किया था और फिर उसके पेट में छुरा मार दिया गया था।

… तब केंद्र में भाजपा की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री। भाजपा मोदी को बचा रही थी, उसकी करतूतों पर फख्र कर रही थी, इधर मुरली मनोहर जोशी शिक्षा का भगवाकरण कर रहे थे। यूजीसी, एनसीईआरटी, तमाम विश्वविद्यालयों, सरकारी संस्थानों, अकादमियों में भाजपाइयों, संघियों को बैठा दिया गया था। तब हमारे प्रगतिशील लेखक, बुद्धिजीवी कितने बेबस और लाचार दिख रहे थे – चाहे वे सीपीआई के हों या सीपीएम के या सीपीआई एमएल के … बल्कि अधिकांश समाजवादी बुद्धीजीवी, लेखक, पत्रकार, और तो और … बहुतेरे कांग्रेसी लेखक, बुद्धिजीवी भी।

… क्योंकि वो लड़ाई देश और समाज के सेकुलर चरित्र को बचाये रखने की थी। तब मैं राष्ट्रीय सहारा में था और हर संडे को साहित्य के पन्ने पर वरिष्ठ लेखकों के इंटरव्यू करता था। कुर्तुल-एन-हैदर, असगर वजाहत, महाश्वेता देवी, कमलेश्वर, कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी, कृष्ण सोबती, मन्नू भंडारी, अहमद फराज, इंतजार हुसैन, सीताकांत महापात्र सरीखे पचासों लेखक गुजरात और देश के सेकुलर चरित्र को बचाये रखने के लिए उग्र हिंदुत्व के खिलाफ मुल्‍क के सारे सेकुलर बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों और आम नागरिकों के एक मंच पर आने का आह्वान कर रहे थे।

… तब कांग्रेसी माने जानेवाले अशोक वाजपेयी ने महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में रहते हुए गुजरात दंगे के खिलाफ लेखकों, बुद्धिजीवियों को गोलबंद कर रहे थे। उधर महाश्वेता देवी गुजरात जाकर दंगाई मोदी सरकार के खिलाफ लड़ रही थी – साहित्य अकादेमी, दिल्ली में उन्होंने इंटरव्यू में बताया था… सचमुच बेहद खौफनाक और चुनौती भरा दौर था वह, हिंदुस्तान के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के लिए… आखिरकार कम्‍युनलिज्म पर सेकुलरिज्म की जीत हुई।

यह सब याद दिलाने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि आजकल हमारे वामपंथी बुद्धिजीवियों के दो ग्रुप्स आमने-सामने हैं – सीपीएम की नीतियों से ताल्लुक रखनेवाले और नक्सलवादियों, माओवादियों के हिमायती।

इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगूर से हुई। सीपीइएम को तकलीफ है कि नंदीग्राम और सिंगूर में माओवादियों ने ममता बैनर्जी के तृणमूल को साथ देकर सीपीएम से दुश्मनी मोल ली। उसके बाद छतीसगढ़, बिहार, झारखंड और मुल्‍क के अन्य हिस्सों में शुरू किये गये माओवादियों के संघर्ष की सबसे ज्यादा किसी ने भर्त्सना की है, तो वे हैं सीपीएम के बुद्धिजीवी (पत्रकार, लेखक आदि)। सीपीएम के पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने खुद माओवादियों के खिलाफ कई लेख पिछले महीनों में लिखे हैं।

… माओवादियों को आज दोहरी लड़ाई लडनी पड़ रही है – एक तरफ सरकार और पुलिस है और दूसरी तरफ सीपीएम के बुद्धिजीवी।

बेशक, सीपीएम की शिकायत में दम है कि लड़ाई की शुरुआत माओवादियों ने की है – नंदीग्राम और सिंगूर से। अब सवाल यह है कि क्या नंदीग्राम और सिंगूर में सीपीएम सरकार की नीति सही थी? माओवादियों ने नंदीग्राम और सिंगूर में सीपीएम की नीतियों का विरोध कर के गलत किया?

इस बीच, तमाम किंतु-परंतु के बावजूद मुल्‍क के शासकों का एक तबका भी देश की माओवादी समस्या को गैर बराबरी, पिछड़ेपन और विकास से महरूम इलाकों के लोगों की लड़ाई मान चुका है और अरुंधती रॉय, महाश्वेता देवी सरीखी बुद्धिजीवी तो उनकी हिमायत कर ही रही हैं।

चाह कर भी सरकार माओवादियों के खिलाफ सख्त कदम नहीं उठा पा रही है। क्योंकि भ्रष्ट हो चुके इस देश के पूरे तंत्र के बीच देश की आम जनता के एक बड़े तबके को माओवादियों की लड़ाई वास्तविक लगती है… क्योंकि माओवादी लड़ाके सत्ता, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, पूंजीवादी दलालों के खिलाफ हैं। पिछड़े आदिवासी इलाकों में अवैध खनन और लूट के विरोधी हैं। ये सारी समस्याएं आज आम हिंदुस्तानियों की लड़ाई के मौजू हैं।

कहने का लब्बोलुआब यह कि सीपीएम नंदीग्राम, सिंगूर और पश्‍िचम बंगाल में जमीन पर नंगी हो चुकी है। इसलिए उनके बुद्धिजीवी बौखलाये हुए हैं। जबकि माओवाद आज तथाकथित विकास से लबरेज इस देश की आखिरी कतार में खड़े करोड़ों आम, पिछड़े, आदिवासी, जंगली लोगों की आखिरी उम्मीद है। और वे उसके लिए, उसके साथ मरने-मारने के लिए तैयार हैं। यानि इनके पास जमीन है, जबकि जमीन से उखड़ रहे सीपीएम को उनके बुद्धिजीवियों का ही सहारा है। उन्हें अपनी जमीन मजबूत करने पर ध्यान देना चाहिए।

आज के हिंदुस्तान में सबसे ताकतवर विपक्ष बन चुके हैं माओवादी। इस सच को स्वीकारिए भाई!

… और हां, यह लड़ाई हम सेकुलर लोगों की आपसी लड़ाई है। लड़ाई नहीं वैचारिक बहस। सांप्रदायिक बंधु ज्यादा खुश न हों, फिर कभी यदि उन्होंने सर उठाया तो उस वक्त हम सभी मिल कर लड़ेंगे। यही हमारी ताकत है। समझे कि नहीं?

(शशिकांत। स्वतंत्र पत्रकारिता। दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज, दयाल सिंह कॉलेज और देशबंधु कॉलेज में चार साल अध्यापन के बाद विवि से निकल कर राष्ट्रीय सहारा में उपसंपादक रहे। विभिन्न संवेदनशील सामाजिक मुद्दों पर करीब तीन सौ लेख प्रकाशित। कई किताबों की समीक्षाएं और रंग समीक्षाएं भी। इनसे shashikanthindi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


--






और तो और, समाजवादी सुरेंद्र मोहन भी झूठ बोलते हैं!

12 September 2010 No Comment

♦ आनंद स्वरूप वर्मा

रिष्ठ समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन का एक लेख नेपाल को क्या चाहिए 10 सितंबर के 'अमर उजाला' में प्रकाशित हुआ है। हैरानी होती है यह देखकर कि माओवाद का विरोध करने के लिए सुरेंद्र मोहन जी ने जानबूझ कर तथ्यों को छुपाया है, गलत ढंग से पेश किया है और अपने पूर्वाग्रहों के कारण पाठकों को गुमराह किया है। वैसे तो नेपाल के संदर्भ में यह सिलसिला बहुत सारे पत्रकार, अखबार और चैनल चलाते रहे हैं लेकिन सुरेंद्र मोहन जैसे व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं थी।

उन्होंने अपने लेख में माओवादियों की जनमुक्ति सेना और नेपाली सेना के एकीकरण के सवाल पर लिखा है कि 'उनकी जनमुक्ति वाहिनी के सैनिकों को नेपाली सेना में शामिल करने पर न तो सेना की सहमति थी, न ही अन्य दलों के समझौते में यह बात शामिल थी।' मैं यह मान ही नहीं सकता कि एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ होने और पठन-पाठन में गहन दिलचस्पी रखने वाले सुरेंद्र मोहन जी को यह पता नहीं होगा कि वास्तविकता क्या है। उनको याद दिलाने के लिए मैं निम्न बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं :

1. 21 नवंबर 2006 को संपन्न 'विस्तृत शांति समझौता 2006' के प्वाइंट नं 4 में 'मैनेजमेंट ऑफ आर्मीज एंड आर्म्स' शीर्षक से सेना के व्यवस्थापन के बारे में कुछ बातें कही गयी हैं। इसमें प्वाइंट नं 4.4 में कहा गया है कि 'अंतरिम कैबिनेट एक विशेष समिति का गठन करेगी जो माओवादी योद्धाओं की मॉनिटरिंग, नेपाली सेना में उनके एकीकरण और पुनर्वास का कार्य संपन्न करेगी।'

2. इसी प्रकार अंतरिम संविधान के पार्ट 20 में 'सेना से संबंधित प्रावधान' (प्रॉविजन रिगॉर्डिंग दि आर्मी) शीर्षक के अंतर्गत प्वाइंट नं 146 में 'योद्धाओं के लिए अंतरिम प्रावधान' शीर्षक के तहत कहा गया है – 'माओवादी सेना के योद्धाओं की देखरेख, उनके एकीकरण और उनके पुनर्वास के लिए मंत्रिपरिषद एक विशेष समिति का गठन करेगी और इस समिति के कार्यों, अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण मंत्रिपरिषद करेगा।'

3. 23 दिसंबर 2007 को सात दलों के बीच 23 सूत्री समझौता हुआ जिस पर सुशील कोइराला (नेपाली कांग्रेस), माधव नेपाल (नेकपा एमाले), प्रचंड (नेकपा माओवादी), अमिक शेरचन (जनमोर्चा नेपाल), नारायण मान बिजुक्छे (नेपाल मजदूर किसान पार्टी), श्याम सुंदर गुप्ता (नेपाल सद्भावना पार्टी – आनंदी देवी) और सीपी मैनाली (संयुक्त वाम मोर्चा) ने हस्ताक्षर किये थे। इस समझौते के सूत्र संख्या 12 में कहा गया है – 'रिगार्डिंग दि इंटीग्रेशन ऑफ दि वेरीफायड काम्बैटेंट्स ऑफ दि माओइस्ट आर्मी, दि स्पेशल कमेटी फॉर्म्ड बाई दि काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स ऐज पर दि इंटरिम कांस्टीट्यूशन शैल मूव अहेड दि प्रॉसेस ऑफ्टर डेलीबरेशंस / डिस्कशन।'

4. 15 अक्टूबर 2008 को एएनआई और नेपाल न्यूज डॉट कॉम द्वारा प्रसारित समाचार में कहा गया कि – 'नेपाल आर्मी के प्रधान जनरल रुक्मांगद कटवाल ने कहा है कि दोनों सेनाओं के एकीकरण के सवाल पर राजनीतिक दलों के बीच सहमति पहले ही हो चुकी है। काठमांडो में पत्रकारों से बात करते हुए जनरल कटवाल ने कहा कि अब इन पार्टियों के बीच विचार विमर्श चल रहा है, जो जनतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि शांति समझौते तथा राजनीतिक पार्टियों के बीच आपसी समझ के अनुसार सेना के एकीकरण का काम एक विशेष कैबिनेट कमेटी के जरिये किया जाएगा, जिसका अब तक गठन नहीं हुआ है। जनरल कटवाल ने कहा कि नेपाली जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि जो कानून बनाएंगे, नेपाली सेना उसका पालन करेगी।'

5. 28 अक्टूबर 2008 को गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री बामदेव गौतम के नेतृत्व में दोनों सेनाओं के एकीकरण के लिए पांच सदस्यों की एक टीम का गठन कर दिया गया। इस समिति में रक्षा मंत्री राम बहादुर थापा, मधेशी जन अधिकार फोरम के नेता मुहम्मद हबीबुल्लाह और शांति तथा पुनर्निर्माण मंत्री जनार्दन शर्मा (पदेन सदस्य) शामिल किये गये। एक स्थान नेपाली कांग्रेस के लिए खाली रखा गया। समिति के गठन में सबसे बड़ी बाधा यह थी कि इसका नेतृत्व माओवादी करना चाहते थे, जिसका नेपाली कांग्रेस विरोध कर रही थी। अंत में एमाले के नेता बामदेव गौतम को इसका नेतृत्व दिया गया।

एक जगह सुरेंद्र मोहन ने लिखा है कि 'संविधान को 28 मई 2010 तक अंतिम रूप देने की जो जिम्मेदारी संविधान सभा पर थी, वह माओवादियों के बहिष्कार के कारण पूरी न की जा सकी। इस संवैधानिक अड़चन के चलते माधव नेपाल और उनके मंत्रिमंडल ने त्यागपत्र दे दिया। तब से कोई भी ऐसा प्रत्याशी सामने नहीं आया है, जो बहुमत भी प्राप्त कर सके।' यहां सुरेंद्र मोहन ने बड़ी चालाकी से इस जानकारी को छुपा लिया कि जब सरकारी आदेशों का लगातार उल्लंघन करने और शांति समझौते के प्रावधानों के खिलाफ जाने के कारण सेनाध्यक्ष कटवाल को प्रधानमंत्री की हैसियत से प्रचंड ने बर्खास्त किया और राष्ट्रपति ने उन्हें फिर बहाल कर दिया, तो इस मुद्दे पर सदन में बहस की मांग न मानने के कारण माओवादियों ने बहिष्कार किया था। यह सभी लोग जानते हैं कि उनके बहिष्कार से पहले भी संविधान निर्माण की दिशा में इन पार्टियों ने कोई काम नहीं किया। दरअसल ये पार्टियां कभी नये संविधान के पक्ष में थी ही नहीं। प्रधानमंत्री माधव नेपाल ने तो इसी वर्ष 21 मई को पत्रकारों से बातचीत में कहा कि वह कभी संविधान सभा के पक्ष में थे ही नहीं। माओवादियों को तुष्ट करने के लिए उन्होंने यह मांग मान ली थी (काठमांडो पोस्ट 22 मई)। अपनी पार्टी के सदस्यों की तीखी आलोचना के बाद उन्होंने 23 मई को आत्मालोचना करते हुए स्वीकार किया कि उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। माधव नेपाल ने इसलिए इस्तीफा दिया क्योंकि 28 मई 2010 की रात संविधान सभा की अवधि को बढ़ाने के लिए राजनीतिक दलों के बीच जो समझौता हुआ, उसमें कहा गया था कि आम सहमति की सरकार के गठन के लिए माधव नेपाल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देंगे। समझौते के तीनों सूत्र इस प्रकार थे :

1. हम शांति प्रक्रिया को सार्थक निष्कर्ष पर पहुंचाने, शांति प्रक्रिया से जुड़े अपूर्ण कार्यो को पूरा करने तथा संविधान लिखने के ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करने की प्रतिज्ञा करते हैं।

2. हालांकि संविधान लिखने के कार्य में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हुई है, तो भी यह अब तक पूरा नहीं हो सका है – इसलिए हम संविधान सभा के कार्यकाल को एक वर्ष और बढ़ाने के लिए सहमत हैं।

3. उपर्युक्त दायित्व एंव कार्यों को यथाशीघ्र संपन्न करने की सहमति के आधार पर राष्‍ट्रीय सहमति की सरकार के गठन के लिए वर्तमान संयुक्त सरकार के प्रधानमंत्री अविलंब इस्तीफा देने को तैयार हैं।

समझौते पर माओवादियों की ओर से प्रचंड, नेकपा (एमाले) की ओर से झलनाथ खनाल और नेपाली कांग्रेस की ओर से रामचंद्र पौडेल ने हस्ताक्षर किये। कटवाल प्रसंग की ही तरह इस बार फिर माओवादियों के साथ धोखा हुआ। तय था कि माधव नेपाल तीन दिन के अंदर इस्तीफा दे देंगे लेकिन एमाले और नेपाली कांग्रेस दोनों ने समझौते की मनमानी व्याख्या करते हुए कहा कि 'शांति प्रक्रिया को सार्थक निष्कर्ष पर पहुंचाने' का अभिप्राय यह है कि माओवादी लोग हमारी जब्त की हुई जमीनें वापस करें, अपने युवा संगठन वाइसीएल को भंग करें, सेना में पीएलए की भर्ती संख्या तय करें आदि, इसके बाद ही माधव नेपाल इस्तीफा देंगे।

सुरेंद्र मोहन ने 'नेपाल की गुत्थी' का खुलासा करते हुए बताया है कि 'न तो माओवादी किसी सर्वदलीय सरकार का हिस्सा बनना चाहते हैं, न ही कोई अन्य दल उसके नेतृत्व में सरकार में भागीदार बनने को तैयार है।' इसी पैरा के प्रारंभ में उन्होंने लिखा है कि 'हालांकि माओवादी पार्टी ने जब एमाले के अध्यक्ष झलनाथ खनाल के समर्थन की घोषणा की, तब यह संभावना बनी कि एमाले और माओवादी मिलकर संविधान सभा में बहुमत स्थापित कर लेंगे किंतु एमाले को यह पेशकश मंजूर नहीं हुई क्योंकि उसने एक नीतिगत फैसला लिया था कि वह उसी मंत्रिमंडल में शामिल होगी, जिसमें सभी दल सम्मिलित हों'। दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। सुरेंद्र मोहन जी को पता होगा कि अगर एमाले ने चुनाव में तटस्थ रहने की नीति नहीं अपनायी होती, तो पहले दौर में ही प्रधानमंत्री का चुनाव हो गया होता और माओवादियों के समर्थन से झलनाथ खनाल प्रधानमंत्री बन गये होते। इसका अर्थ यह है कि माओवादी एमाले के नेतृत्व में सरकार में शामिल होने के लिए तैयार थे लेकिन भारत के इशारे पर चलने वाले एमाले के दो प्रमुख नेताओं माधव नेपाल और केपी ओली को लगा कि माओवादी समर्थक खनाल प्रधानमंत्री बन जाएंगे। खनाल ने फरवरी में बुटवल में पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में केपी ओली को हराया था और पिछले एक महीने में कई बार खुले मंच से माधव नेपाल के इस्तीफे की मांग की थी। खनाल को प्रधानमंत्री न बनने देने के पीछे कोई नीतिगत कारण नहीं था जैसा कि सुरेंद्र मोहन जी कहते हैं। चुनाव के चौथे दौर में जब मधेशी मोर्चे के कुछ लोगों ने माओवादियों को समर्थन दे दिया तो किस तरह श्याम सरन भागे-भागे नेपाल पहुंचे – क्या यह बात सुरेंद्र मोहन जी से छिपी है? क्या उन्हें भारत सरकार के इस अघोषित विश्लेषण की जानकारी नहीं है कि अगर माओवादियों के समर्थन से एमाले की सरकार बन जाती है, तो इसमें माओवादियों का वर्चस्व बना रहेगा?

सुरेंद्र मोहन जी की आंख पर कम्युनिस्ट विरोध का जो चश्मा चढ़ा हुआ है, उससे उन्हें यह नहीं दिखाई देता कि नेपाल की मूल समस्या सामंतवाद है, जिसने हमेशा राजतंत्र को मजबूती दी। साकार रूप में राजतंत्र समाप्त हो गया लेकिन निराकार रूप में वह आज सभी राजनीतिक दलों में किसी न किसी रूप में मौजूद है। आज सामंतपरस्त ताकतों की कोशिश है कि ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाए, जिसमें संविधान सभा भंग हो जाय और 1990 का संविधान लागू कर दिया जाए यानी एक बार फिर संवैधानिक राजतंत्र स्थापित हो जाए।

उनके इस छोटे से लेख में और भी कई तथ्यात्मक गड़बड़ियां हैं मसलन उनका यह कहना कि राणाशाही के खिलाफ संघर्ष में नेपाली कांग्रेस और नेकपा (एमाले) हमेशा अग्रणी रही। जिन दिनों राणाशाही विरोधी संघर्ष चल रहा था, नेकपा (एमाले) का अस्तित्व ही नहीं था। उसका गठन तो 1990-91 में हुआ। अगर सुरेंद्र मोहन का आशय नेकपा (माले) से है, तो उसकी भी स्थापना राणाशाही के बाद हुई। नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना ही 1949 में हुई और 1951 तक राणाशाही समाप्त हो गयी थी। जिस अद्वितीय आंदोलन की बात सुरेंद्र मोहन ने की है, वह 2005 में नहीं बल्कि अप्रैल 2006 में शुरू हुआ।

Anand Swaroop Verma(आनंद स्‍वरूप वर्मा भारत में कॉरपोरेट पूंजी के बरक्‍स वैकल्पिक पत्रकारिता के लिए लंबे समय से संघर्षरत हैं। समकालीन तीसरी दुनिया पत्रिका के संपादक हैं और नेपाली क्रांति पर उन्‍होंने अभी अभी एक डाकुमेंट्री फिल्‍म बनायी है। उन्‍होंने कई किताबें लिखी हैं। उनसे vermada@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


जाति जनगणना के खिलाफ एक और साजिश

12 September 2010 One Comment

जनहित अभियान की ओर से जारी

केंद्रीय कैबिनेट ने जाति की गिनती को जनगणना से अलग करके देश की जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा किया है। अगले साल 9 से 28 फरवरी के बीच देश में जनगणना होनी है। लेकिन सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह जनगणना में जाति को शामिल नहीं करेगी। लोकसभा में 6 मई, 2010 को बनी आम सहमति का यह अपमान है। लोकसभा में सभी दलों ने जनगणना में जाति को शामिल करने की मांग की थी, और प्रधानमंत्री ने इस भावना का आदर करने की बात कही थी। लेकिन इस आम सहमति को सरकार ने ठुकरा दिया है।

जनगणना से जाति की गिनती को अलग करने का सबसे बुरा असर यह होगा कि जातियों और जाति समूहों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति के बारे में आंकड़े नहीं मिल पाएंगे। जाति जनगणना का समर्थन कर रहे जनहित अभियान की स्पष्ट मान्यता है कि जाति जनगणना, सिर्फ जातियों की संख्या जानने के लिए नहीं है। आज यह जानने कि जरूरत है कि विकास की दौड़ और संसाधनों के बंटवारे में किस जाति समूह की क्या हैसियत है। यह काम तभी हो सकता है, जब जनगणना के साथ ही जाति की गणना की जाए।

सरकार ने जाति की गिनती का जो फॉर्मूला दिया है, उसमें सिर्फ व्यक्ति का नाम और उसकी जाति की जानकारी मिलेगी। यानी सरकार इस देश की जनता पर 2000 करोड़ रुपये का बोझ इसलिए डाल रही है ताकि जातियों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति की जानकारी न मिल सके। जाति की गणना का सरकार का फॉर्मूला जानने के लिए नहीं, छिपाने के लिए है। यह खर्च निहायत गैरजरूरी है और हर न्यायपसंद आदमी को इस फिजूलखर्ची का विरोध करना चाहिए। जाति की जानकारी फरवरी, 2011 में होनी वाली जनगणना में एक और कॉलम जोड़कर की जा सकती है। 1931 और उससे पहले ऐसा होता रहा है और 1931 के आंकड़े को आज तक किसी ने चुनौती नहीं दी है। इन आंकड़ों को विधायी और प्रशासनिक मान्यता हासिल है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस देश के कानून में जाति की अलग से गिनती की कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि जनगणना के लिए जनगणना कानून, 1948 है। जनगणना कानून से बाहर होने की वजह से जाति की अलग से करायी गयी गिनती को अदालत में चुनौती मिल सकती है। इससे बचना आवश्यक है वरना जाति जनगणना का काम कोर्ट में उलझकर रह जाएगा।

यह बात काफी समय से नजर आ रही है कि सरकार जाति आधारित जनगणना नहीं कराना चाहती। पहले यह बहाना बनाया गया कि जनगणना तो शुरू हो गयी है, जबकि उस समय सिर्फ हाउसलिस्टिंग चल रही थी। फिर यह कहा गया कि जाति की गिनती कराने के लिए रजिस्ट्रार जनरल तैयार नहीं हैं। इसके बाद बहाना आया कि इससे जातिवाद बढ़ जाएगा। संसद में दबाव बढ़ने पर मंत्रियों के समूह ने बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ जाति की गिनती कराने का प्रस्ताव रखा, जिसमें 10 साल से भी ज्यादा समय लग सकता था। अब सरकार ने जो प्रस्ताव रखा है, उससे एक बार फिर जाहिर हुआ है कि केंद्र सरकार किसी भी कीमत पर जाति जनगणना और जातियों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत के बारे में आंकड़े जुटाने के काम को टालना चाहती है।

जनहित अभियान इसके खिलाफ अपनी मुहिम को तब तक जारी रखेगा, जब तक जाति आधारित जनगणना की घोषणा नहीं कर दी जाती।


क्‍या माओवादी दरअसल बलात्‍कारी होते हैं?

9 September 2010 49 Comments

लाल क्रांति के सपने की कालिमा

♦ मृणाल वल्‍लरी

यह लेख आज जनसत्ता में छपा है। इसमें यह लगभग स्‍थापित करने की कोशिश की गयी है कि माओवादी मूवमेंट से जितनी भी महिलाएं जुड़ी हैं, वे बलात्‍कार की शिकार होती हैं और यह भी कि पूरा माओवादी मूवमेंट अपनी अंतर्यात्रा में एक चकलाघर है। किसी भी राज्‍यविरोधी आंदोलन को लेकर इस तरह के प्रचार की परंपरा नयी नहीं है और अपने समय के प्रखर बुद्धिजीवियों को राज्‍य की ओर से कोऑप्‍ट कर लेने की परंपरा भी पुरानी है। दिलचस्‍प ये है कि इस पूरे आलेख में उन अखबारों में छपे वृत्तांतों की विश्‍वसनीयता को आधार बनाया गया है, जो बाजार और राज्‍य के हाथों की कठपुतली है। यहां दो लिंक दे रहा हूं, उमा वाली खबर टाइम्‍स ऑफ इंडिया में है और छवि वाली खबर द पायोनियर में है। इसी किस्‍म का एक अभियान द हिंदू में भी आप देखेंगे, जिसमें माओवादी आंदोलनों से जुड़ी खौफनाक-दुर्दांत सच्‍चाइयां (!) समय समय पर छापी जाती हैं। द हिंदू घोषित तौर पर सीपीएम का अखबार है और सीपीएम और माओवादियों की लड़ाई जगजाहिर है। भारत में मुख्‍यधारा के कम्‍युनिस्‍ट आंदोलनों का वर्तमान हमारे सामने है और माओवाद की चुनौतियों को नजरअंदाज करने के लिए उनके बुद्धिजीवी अतिजनवाद जैसे जुमलों के साथ इस आंदोलन के वैचारिक आधार से तार्किक सामना नहीं करते बल्कि कुछ कथित हादसों की गिनती का सहारा लेते हैं। जैसे अतिजनवाद के बरक्‍स कमजनवाद जनता की ज्‍यादा विवेकशील चिंता करता हो। बहरहाल, मृणाल वल्‍लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ ए‍क घिनौनी साजिश का हिस्‍सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्‍यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्‍त करने की कोशिश की जाती है : मॉडरेटर

'वे बलात्कारी हैं। यहां आते ही मैं समझ गयी थी कि अब कभी वापस नहीं जा पाऊंगी।' मुंह पर लाल गमछा लपेटे उमा एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार को बताती है। उमा कोई निरीह और बेचारी लड़की नहीं है। वह एक माओवादी है। कई मिशनों पर बुर्जुआ तंत्र के पोषक सिपाहियों और लाल क्रांति के वर्ग शत्रुओं को मौत के घाट उतारने के कारण सरकार ने उस पर इनाम भी घोषित किया। लेकिन अपने लाल दुर्ग के अंदर उमा की भी वही हालत है, जो बुर्जुआ समाज में गरीब और दलित महिलाओं की।

बकौल उमा, माओवादी शिविरों में महिलाओं का दैहिक शोषण आम बात है। वह जब झारखंड के जंगलों में एक कैंप में ड्यूटी पर थी, तो भाकपा (माओवादी) 'स्टेट मिलिटरी कमीशन' के प्रमुख ने उसके साथ बलात्कार किया। उसने उमा को धमकी दी कि वह इस बारे में किसी को न बताये। लेकिन उमा ने यह बात किशनजी के करीबी और एक बड़े माओवादी नेता को बतायी। उमा के मुताबिक इस नेता की पत्नी किशनजी के साथ रहती है। लेकिन उमा की शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। उसे इस मामले में चुप्पी बरतने की सलाह दी गयी।

नक्सल शिविरों में यह रवैया कोई अजूबा नहीं है। कई महिला कॉमरेडों को उमा जैसे हालात से गुजरना पड़ा। अपने दैहिक शोषण के खिलाफ मुखर हुई महिला कॉमरेडों को शिविर में अलग-थलग कर दिया जाता है। यानी क्रांतिकारी पार्टी में उनका राजनीतिक कॅरिअर खत्म। कॉमरेडों की सेना में शामिल होने के लिए महिलाओं को अपना घर-परिवार छोड़ने के साथ निजता का भी मोह छोड़ना पड़ता है।

उमा बताती है कि नक्सल शिविरों में बड़े रैंक का नेता छोटे रैंक की महिला लड़ाकों का दैहिक शोषण करता है। अगर महिला गर्भवती हो जाती है, तो उसके पास गर्भपात के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। क्योंकि गर्भवती कॉमरेड क्रांति के लिए एक मुसीबत होगी। यानी देह के साथ उसका अपने गर्भ पर भी अधिकार नहीं। वह चाह कर भी अपने गर्भ को फलने-फूलने नहीं दे सकती। महिला कॉमरेड का गर्भ जब नक्सल शिविरों की जिम्मेदारी नहीं तो फिर बच्चे की बात ही छोड़ दें। शायद शिविर के अंदर कोई कॉमरेड पैदा नहीं होगा! उसे शोषित बुर्जुआ समाज से ही खींच कर लाना होगा। जैसे उमा को लाया गया था। उसे अपने बीमार पिता के इलाज में मदद के एवज में माओवादी शिविर में जाना पड़ा था।

माओवादियों की विचारधारा का आधार भी कार्ल मार्क्स हैं। उमा को पार्टी की सदस्यता लेने से पहले 'लाल किताब' यानी कम्युनिज्म का सिद्धांत पढ़ाया गया होगा। एक क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य होने के नाते उम्मीद की जाती है कि नक्सल लड़ाकों को भी पार्टी कार्यक्रम की शिक्षा दी गयी होगी। उन्हें कम्युनिस्ट शासन में परिवार और समाज की अवधारणा बतायी गयी होगी। यों भी, पार्टी शिक्षण क्रांतिकारी पार्टियों की कार्यशैली का अहम हिस्सा होता है और होना चाहिए।

मार्क्सवादी-माओवादी लड़ाकों के लिए 'कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र' बालपोथी की तरह है, जिसमें मार्क्स ने कहा है – 'परिवार का उन्मूलन! कम्युनिस्टों के इस 'कलंकपूर्ण' प्रस्ताव से आमूल परिवर्तनवादी भी भड़क उठते हैं। मौजूदा परिवार, बुर्जुआ परिवार, किस बुनियाद पर आधारित है? पूंजी पर, अपने निजी लाभ पर। अपने पूर्णत: विकसित रूप में इस तरह का परिवार केवल बुर्जुआ वर्ग के बीच पाया जाता है। लेकिन यह स्थिति अपना संपूरक सर्वहाराओं में परिवार के वस्तुत: अभाव और खुली वेश्यावृत्ति में पाती है। अपने संपूरक के मिट जाने के साथ-साथ बुर्जुआ परिवार भी कुदरती तौर पर मिट जाएगा, और पूंजी के मिटने के साथ-साथ ये दोनों मिट जाएंगे।'

एक कम्युनिस्ट व्यवस्था का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ेगा? एंगेल्स कहते हैं कि 'वह स्त्री और पुरुष के बीच संबंधों को शुद्धत: निजी मामला बना देगी, जिसका केवल संबंधित व्यक्तियों से सरोकार होता है और जो समाज से किसी भी तरह के हस्तक्षेप की अपेक्षा नहीं करता। वह ऐसा कर सकती है, क्योंकि वह निजी स्वामित्व का उन्मूलन कर देती है और बच्चों की शिक्षा को सामुदायिक बना देती है। और इस तरह से अब तक मौजूद विवाह की दोनों आधारशिलाओं को निजी स्वामित्व द्वारा निर्धारित पत्नी की अपने पति पर और बच्चों की माता-पिता पर निर्भरता – को नष्ट कर देती है। पत्नियों के कम्युनिस्ट समाजीकरण के खिलाफ नैतिकता का उपदेश झाड़ने वाले कूपमंडूकों की चिल्ल-पों का यह उत्तर है। पत्नियों का समाजीकरण एक ऐसा व्यापार है जो पूरी तरह से बुर्जुआ समाज का लक्षण है और आज वेश्यावृत्ति की शक्ल में आदर्श रूप में विद्यमान है। हालांकि वेश्यावृत्ति की जड़ें तो निजी स्वामित्व में हैं, और वे उसके साथ ही ढह जाएंगी। इसलिए कम्युनिस्ट ढंग का संगठन पत्नियों के समाजीकरण की स्थापना के बजाय उसका अंत ही करेगा।'

बुर्जुआ समाज साम्यवादियों की अवधारणा पर व्यंग्य करता है और मार्क्स भी उसका जवाब व्यंग्य में देते हैं। मार्क्स के मुताबिक, बुर्जुआ समाज में औरतों का इस्तेमाल एक वस्तु की तरह होता है। निजी संपत्ति की रक्षा के लिए राज्य आया और इसी निजी संपत्ति का उत्तराधिकारी हासिल करने के लिए विवाह। विवाह जैसे बंधन के कारण स्त्री निजी संपत्ति हो गयी। लेकिन उसी बुर्जुआ समाज में अपने फायदे के लिए औरतों का सार्वजनिक इस्तेमाल भी होता है। वह चाहे सामंतवादी राज्य हो या पूंजीवादी, सभी में औरत उपभोग की ही वस्तु रही। एक कॅमोडिटी।

आखिर कम्युनिस्ट शासन में परिवार कैसा होगा? इस शासन में निजी संपत्ति का नाश हो जाएगा, इसलिए संबंध भी निजी होंगे। कम्युनिस्ट शासन औरत और मर्द दोनों को निजता का अधिकार देता है। इन निजी संबंधों से पैदा बच्चों की परवरिश राज्य करेगा, इसलिए यह कोई समस्या नहीं होगी।

उमा की बातों को सच मानें तो कम्युनिज्म की यह अवधारणा नक्सल शिविरों में क्यों नहीं है? क्या मुकम्मल राजनीतिक शिक्षण के बिना पार्टी में कॉमरेडों की भर्ती हो जाती है? सोच के स्तर पर वे इतने अपरिपक्व क्यों हैं कि महिला कॉमरेडों के साथ व्यवहार के मामले में बुर्जुआ समाज से अलग नहीं होते। कम से कम नक्सल शिविरों में तो आदर्श कम्युनिस्ट शासन का माहौल दिखना चाहिए! लेकिन यहां तो महिला कॉमरेड एक 'सार्वजनिक संपत्ति' के रूप में देखी जा रही है।

कहीं भी एक ही प्रकार का शोषण अपने अलग-अलग आयामों के साथ अपनी मौजूदगी सुनिश्चित कर लेता है। उमा के मुताबिक अगर किसी बड़े कॉमरेड ने किसी महिला को 'अपनी' घोषित कर दिया है तो फिर वह 'महफूज' है। यानी उसकी निजता की सीमा उसके घोषित संबंध पर जाकर खत्म हो जाती है। अब उसके साथ एक पत्नी की तरह व्यवहार होगा। जो किसी की पत्नी नहीं, वह सभी कॉमरेडों की सामाजिक संपत्ति!

जंगल के बाहर के जिस समाज को अपना वर्ग-शत्रु मान कर माओवादी आंदोलन चल रहा है, क्या वहां महिला या देह के संबंध उसी बुर्जुआ समाज की तर्ज पर संचालित हो रहे हैं, जिससे मुक्ति की कामना के साथ यह आंदोलन खड़ा हुआ है? जबकि एंगेल्स कम्युनिस्ट शासन में इस स्थिति के खात्मे की बात करते हैं। लेकिन कॉमरेडों ने शायद किसी रटंतू तरह एंगेल्स का भाषण याद किया और भूल गये।

वहीं आधुनिक बुर्जुआ समाज में महिलाओं की निजता के अधिकार की सुरक्षा के लिए कई उपाय किये गये हैं। यह दूसरी बात है कि व्यावहारिक स्तर पर ये अधिकार कुछ लड़ाकू महिलाएं ही हासिल कर पाती हैं। लेकिन इसी समाज में अब वैवाहिक संबंधों में भी बलात्कार का प्रश्न उठाया गया है। यानी विवाह जैसे सामाजिक बंधन में भी निजता का अधिकार दिया गया है। एक ब्याहता भी अपनी मर्जी के बिना बनाये गये शारीरिक संबंधों के खिलाफ अदालत में जा सकती है। कार्यस्थलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए यौन हिंसा की बाबत कई कानून बनाये गये हैं।

यहां बुर्जुआ समाज का व्यवहार जनवादी दिखता है। लेकिन गौर करने की बात यह है कि पूंजीवादी समाज में भी महिलाओं को अपने शरीर से संबंधित ये अधिकार खैरात में नहीं मिले हैं। पश्चिमी देशों में चले लंबे महिला आंदोलनों के बाद ही स्त्रियों के अधिकारों को तवज्जो दी गयी। यह भी सही है कि महिला अधिकारों के कानून बनते ही सब कुछ जादुई तरीके से नहीं बदल गया। अभी इन अधिकारों के लिए समाज में ठीक से जागरूकता भी नहीं पैदा हो सकी है कि अतिरेक मान कर इन कानूनों का विरोध किया जाने लगा है। दहेज, घरेलू हिंसा या यौन शोषण के खिलाफ बने कानूनों को समाज के अस्तित्व के लिए खतरा बताया जाने लगा है। देश की अदालतों में माननीय जजों को भी इन अधिकारों के दुरुपयोग का खौफ सताने लगा है। इस चिंता में घुलने वाले चिंतक महिलाओं के शोषण का घिनौना इतिहास और वर्तमान भूल जाते हैं।

जनवादी महिला आंदोलनों ने ही भारत में स्त्री अधिकारों की लड़ाई की बुनियाद रखी। यहां जब स्त्री के हकों को कुचलने की कोशिश की जाती है तो जनवादी पार्टियां ही उनकी हिफाजत के आंदोलन की अगुआई करती हैं। लेकिन अति जनवाद का झंडा लहराते माओवादी शिविरों में महिला लड़ाकों की देह सामंतवादी रवैये की शिकार क्यों है? उमा ने यह भी बताया कि राज्य समिति का एक सचिव अक्सर गांवों में जिन घरों में शरण लेता था, वहां की महिलाओं के साथ बलात्कार करता था और इसके लिए उसे सजा भी दी गयी थी।

सवालों को टालने के लिए इसे एक कुदरती जरूरत मानने वालों की कमी नहीं होगी। लेकिन फिर कश्मीर, अफगानिस्तान या दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य अभियानों के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार सहित तमाम अत्याचारों के बारे में क्या राय होगी? यहां यह तर्क भी मान लेने की गुंजाइश नहीं है कि ऐसी अराजकता निचले स्तर के माओवादी कार्यकर्ताओं के बीच है जो कम प्रशिक्षित हैं। यहां तो सवाल शीर्ष स्तर के माओवादी नेताओं के व्यवहार पर है।

जंगलमहल की क्रांति का जीवन पहले भी पत्रकारों और दूसरे स्रोतों से बाहर आता रहा है। अभी तक लोग क्रांति के रूमानी पहलू से रूबरू हो रहे थे कि किस तरह कठिन हालात में बच्चे-बड़े, औरत-मर्द क्रांति की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन लाल क्रांति के अगुआ नेताओं का रवैया भी मर्दवादी सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं हो सका।

इस बीच ताजा खबर यह है कि पश्चिम बंगाल में माओवादियों की सक्रियता वाले इलाकों में कई वैसी महिलाएं 'लापता' हैं, जिन्होंने माओवादी दस्ते या उनके जुलूसों में शामिल होने से इनकार कर दिया था। इनमें से एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता छवि महतो के मामले का खुलासा हो पाया है, जिसे पीसीपीए के मिलीशिया उठा कर ले गये थे। उसके साथ पहले सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर उसे जमीन में जिंदा गाड़ दिया गया।

क्रांति का समय तो तय नहीं किया जा सकता। लेकिन जो तस्वीरें दिख पा रही हैं, उनके मद्देनजर मार्क्सवादी-माओवादी कॉमरेडों से अभी ही यह सवाल क्यों न किया जाए कि भावी क्रांति के बाद कैसा होगा उनका आदर्श शासन? मार्क्स और एंगेल्स के विचारों की बुनियाद पर खड़े कॉमरेडों के कंधों पर लटकती बंदूकों के खौफ से किस सपने का जन्म हो रहा है?

mrinal thumbnail(मृणाल वल्‍लरी। जनसत्ता अखबार से जुड़ी पत्रकार। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से एमए। सामाजिक आंदोलनों से सहानुभूति। मूलत: बिहार के भागलपुर की निवासी। गांव से अभी भी जुड़ाव। उनसे mrinaal.vallari@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

No comments:

मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

Tweet Please

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS BLASTS INDIANS THAT CLAIM BUDDHA WAS BORN IN INDIA

THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER

http://youtu.be/NrcmNEjaN8c The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today. http://youtu.be/NrcmNEjaN8c Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program ______________________________________________________ By JIM YARDLEY http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk