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Monday, July 19, 2010

प्रभाष परंपरा न्‍यास पर बेवजह विधवा विलाप बंद कीजिए

प्रभाष परंपरा न्‍यास पर बेवजह विधवा विलाप बंद कीजिए

http://mohallalive.com/

19 July 2010 4 Comments

♦ संजय तिवारी

प्रभाष परंपरा न्‍यास के कार्यक्रम की एक रपट और उस पर अंबरीश कुमार का कटाक्ष हमने प्रकाशित किया था। रपट जहां आइसक्रीम के स्‍वाद में डूब कर लिखी गयी थी, अंबरीश कुमार को इस बात का क्षोभ था कि न्‍यास पर वे काबिज हो गये, जिनका प्रभाष की परंपरा और उनकी वैचारिकी से कोई लेना देना नहीं था। अब इस मसले पर विस्‍फोट डॉट कॉम के संपादक संजय तिवारी ने हस्‍तक्षेप किया है। हम उनकी राय यहां उनकी साइट से उठा कर छाप रहे हैं : मॉडरेटर

15 जुलाई की शाम दिल्ली के गांधी दर्शन में प्रभाष जोशी को जानने मानने वाले कोई पांच सात सौ लोग इकट्ठा हुए और उन्होंने उनके जाने के बाद पहला जन्मदिन मनाया। प्रभाष जी जब थे, तब वे जन्मदिन पर भी अपनी उत्सवधर्मिता का पालन करते थे। उनके जाने के बाद जिस न्यास ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया था, उसकी कोशिश भी यही थी कि प्रभाष जी की उस परंपरा को भी जन्मदिन के बहाने बरकरार रखा जाए।

जिस दिन यह कार्यक्रम हो रहा था, मैं खुद मुंबई में था। चाहकर भी नहीं पहुंच पाया क्योंकि दिल्ली और मुंबई के बीच अच्छी खासी दूरी है और मुंबई से दिल्ली पैदल चलकर नहीं जाया जा सकता था। फिर भी लोगों से बात करके जो पता चला, वह यह कि खूब लोग आये और प्रभाष जी को याद किया। लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ लोगों को यह बात अच्छी नहीं लगी। क्यों नहीं लगी, इसे समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। ये वो लोग हैं, जो निंदा को आलोचना और नकारात्मकता को ईश्वरीय अनुकंपा मानते हैं। इसलिए जन्मदिन समारोह बीत जाने के बाद ऐसे लोगों ने तलवार निकाल ली और मैदान में उतर पड़े। अंबरीश कुमार उनमें से एक हैं।

हिंदी की तीन वेबसाइटों ने अंबरीश कुमार के ब्लाग लेख को अपने यहां सादर प्रकाशित किया है। ये तीन वेबसाइटें हैं – जनतंत्र, मोहल्लालाइव और भड़ास4मीडिया। इस निंदा लेख में अंबरीश कुमार लिखते हैं कि "पंद्रह जुलाई को हमारे संपादक प्रभाष जोशी का जन्मदिन है, जिनकी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी जनसत्ता के हम पत्रकार राज्यसत्ता की अंधेरगर्दी के खिलाफ डटे हुए हैं।" जिस प्रभाष जोशी को वे हमारे संपादक लिखकर अपने आप को जस्‍टीफाइ कर रहे हैं, वे खुद राज्यसत्ता की कैसी अंधेरगर्दी के खिलाफ हैं, इसका नमूना जानना हो तो सोनभद्र जाइए। वहां कुछ नामी बदनामी पत्रकार हैं। उनको खोजिए और पता लगाइए कि उनके साथ अंबरीश कुमार का क्या कोई व्यावसायिक गठजोड़ है? यह भी पता लगाइए कि लखनऊ में बैठकर वे राज्यसत्ता की कौन सी अंधेरगर्दी के खिलाफ हवा फूंक रहे हैं? तथ्य कम पड़ें तो नैनीताल भी हो आइए, जहां अंबरीश कुमार शब्द निर्माण की बजाय ईंट गारे से कुछ निर्माण कार्य कर रहे हैं। फिर भी, अंबरीश जी अगर ऐसा मानते हैं कि वे सत्ता की अंधेरगर्दी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद किये हुए हैं, तो उन्हें उनके मुंह मियां मिट्ठू बनने से कौन रोक सकता है।

अंबरीश कुमार आगे लिखते हैं कि "प्रभाष जोशी, निधन से ठीक एक दिन पहले, लखनऊ में एक कार्यक्रम के बाद मुझसे मिलने सिर्फ इसलिए आये, क्‍योंकि मेरी तबीयत खराब थी। करीब ढाई घंटा साथ रहे और एयरपोर्ट जाने से पहले जब पैर छूने झुका, तो कंधे पर हाथ रखकर बोले – पंडित सेहत का ध्यान रखो, बहुत कुछ करना है। यह प्रभाष जोशी परंपरा थी।" बीमार के कंधे पर हाथ रखकर उसके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करना प्रभाष जोशी ही क्यों, किसी सामान्य व्यक्ति की भी परंपरा हो सकती है। आलोक तोमर को कैंसर होने की खबर लगी तो उनके पास पहुंचनेवालों में सबसे पहले अंबरीश कुमार नहीं बल्कि रामबहादुर राय ही थे। अंबरीश जी ने तो लंबे समय तक प्रभाष जोशी के साथ काम किया है। उनकी बीमारी में अगर वे कुछ देर उनके साथ रहते हैं तो यह प्रभाष जोशी का बड़प्पन और अंबरीश कुमार दोनों की जरूरत है। लेकिन वही अंबरीश कुमार क्या करते हैं? अगले ही दिन उनके निधन की खबर सुनकर भी वे प्रभाष जोशी का अंतिम दर्शन करने दिल्ली नहीं आते हैं। प्रभाष जी के नाम पर वे पूरी तरह से सन्न मार जाते हैं मानो वे प्रभाष जोशी नामक किसी व्यक्ति को जानते ही नहीं है।

अंबरीश कुमार तो शायद कभी प्रभाष जोशी का नाम ही नहीं लेते अगर प्रभाष जोशी के नाम पर गठित ट्रस्ट में वे अशोक गादिया, एनएन ओझा और रामबहादुर राय का नाम न देख लेते। प्रभाष परंपरा न्यास के गठन में रामबहादुर राय की सक्रिय हिस्सेदारी रही है। प्रभाष जी के नाम पर काम को आगे बढ़ाने के लिए जो न्यास गठित किया गया उसमें 36 ट्रस्टी शामिल हैं, जिनमें सुश्री उषा जोशी और संदीप जोशी भी हैं। फिर इन्हीं तीन नामों से अंबरीश कुमार को इतनी चिढ़ क्यों है? कारण हम बताते हैं। एक जनसत्ता सोसायटी बनी थी। उस सोसायटी में अंबरीश कुमार सचिव बनाये गये थे और बतौर सचिव निर्माण कार्य में उन्होंने जमकर घपला किया था (पूरा मामला जानने के लिए इस लिंक पर जाएं : जनसत्ता सोसायटी की अनकही कहानी) मामला अदालत के विचाराधीन है। इस घपले को सामने लाने में जिन दो लोगों का सबसे अहम योगदान है, उसमें एक खुद सोसायटी के अध्यक्ष रामबहादुर राय हैं और दूसरे हैं अशोक गादिया, जो कि पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। इन्हीं अशोक गादिया की स्वतंत्र ऑडिट में यह बात खुलकर सामने आयी कि अंबरीश कुमार सोसायटी में घपले के संदिग्ध दिख रहे हैं। जाहिर है अंबरीश कुमार को ऐसे अशोक गादिया कब अच्छे लगेंगे? जहां तक उनके न्यास में शामिल करने का सवाल है तो शायद अंबरीश कुमार जानते नहीं है कि आखिर के कुछ वर्षों में प्रभाष जोशी जिन कुछ लोगों के सबसे करीब थे, उनमें एक अशोक गादिया भी हैं। जिन अंबरीश कुमार ने उनके पार्थिव शरीर को देखने तक की जहमत नहीं उठायी वे भला उस अशोक गादिया पर कैसे सवाल उठा सकते हैं, जो पूरी रात प्रभाष जी के पार्थिव होती देह के साथ अस्पतालों के चक्कर लगाते रहे। न्यास की अवस्थापना का सारा काम अशोक गादिया ने पूरा करवाया और प्रभाष जी के नाम पर वे आगे और भी बहुत कुछ करने की तमन्ना रखते हैं। जहां तक एनएन ओझा के नाम का सवाल है, तो यह प्रभाष जोशी ही थे जिन्होंने राय साहब को कहा था कि प्रवक्ता पत्रिका को स्थापित करना है। और एनएन ओझा उसी पत्रिका के प्रबंध संपादक हैं। खुद प्रभाष जोशी उस पत्रिका के लिए नियमित कॉलम लिखते थे। कारण भले ही राय साहब रहे हों, लेकिन एन एन ओझा का उस न्यास में होना अनुचित कहीं से नहीं है।

फिर भी अंबरीश कुमार जैसे जनसत्ताइट पत्रकारों को यह भला कैसे बर्दाश्त होगा कि उन प्रभाष जोशी के नाम पर कुछ काम आगे बढ़ रहा है, जिनकी कमाई वे खा रहे हैं। यह सब लिखकर कीचड़ उछालने से अच्छा होता कि ऐसा ही कोई आयोजन वे लखनऊ में करते। प्रभाष जोशी पत्रकारिता में किसी की बपौती नहीं हैं। कोई भी नहीं है जो उनके ऊपर अपनी मोहर लगाकर गिरवी रखने का दावा कर सके। खुद उनके दोनों बेटे भी नहीं। अंबरीश कुमार अपनी सदिच्छा व्यक्त करते हुए कहते हैं – "प्रभाष जोशी को सही मायने में तभी याद किया जा सकता है, जब दिल्ली से लेकर दूरदराज के इलाकों में मीडिया को बाजार की ताकत से मुक्त करते हुए वैकल्पिक मीडिया के लिए ठोस और नया प्रयास हो। भाषा के नये प्रयोग की दिशा में पहल हो और प्रभाष जोशी के अधूरे काम को पूरा किया जाए।" तो करिए? आपको किसी ने रोक रखा है क्या? अगर अंबरीश कुमार इस दिशा में काम नहीं करते हैं, तो प्रभाष परंपरा न्यास पर सवाल उठाना सिवाय विधवा विलाप के और कुछ नहीं है।

(विस्‍फोट डॉट कॉम से सादर साभार)

4 Comments »

  • समर विवेक said:

    अरे ये उन्‍हीं संजय तिवारी की रिपोर्ट है, जो राम बहादुर राय की दुम बने फिरते हैं। राय साहब ने ही इन्‍हें दरियागंज में एक ठिकाना दे दिया, तो विस्‍फोट करने लगे। उस पूरे ठिकाने को कबजियाने के चक्‍कर में थे, तो लात मार कर बाहर निकाल दिया गया। आजकल दरबदर घूमते फिर रहे हैं।

  • नरेंद्र नारायण said:

    विचित्र विश्‍लेषण भाई और इससे आपकी पैनी नजर का भी खेल खुल गया। जब अंबरीश लिखते हैं कि "प्रभाष जोशी, निधन से ठीक एक दिन पहले, लखनऊ में एक कार्यक्रम के बाद मुझसे मिलने सिर्फ इसलिए आये, क्‍योंकि मेरी तबीयत खराब थी। करीब ढाई घंटा साथ रहे और एयरपोर्ट जाने से पहले जब पैर छूने झुका, तो कंधे पर हाथ रखकर बोले – पंडित सेहत का ध्यान रखो, बहुत कुछ करना है। यह प्रभाष जोशी परंपरा थी।" फिर आप ये कैसे डिमांड कर सकते हैं कि दूसरे ही दिन अंबरीश स्‍वस्‍थ तंदुरुस्‍त होकर दिल्‍ली आते और प्रभाष जोशी की पार्थिव देह के साथ घूमते रहते? जवाब दीजिए।

  • शीतल वर्मा said:

    अंबरीश के घपले का पता पहली बार लगा। मामला गंभीर है। दोनों ही परंपरा परंपरा चिल्‍लाने वाले संदिग्‍ध हैं। इन दोनों ही खेमों से बचो।

  • रामेश्‍वर ओझा said:

    संपादक बनो। संपादक की दलाली मत करो। एनएन ओझा को न्‍यासी बनाने का मतलब क्‍या ये नहीं निकाला जाए कि राय साहब ऐसा कर रहे हैं। अरे उसने पैसा लगाया है, पत्रिका ठीक से निकालो यार – पैसे वापस करवाओ – नहीं तो एक दिन प्रवक्‍ता की लुटिया डूब जाएगी और फिर कोई ऐसी पत्रिका नहीं निकालेगा, जिसमें जन की बात हो… जन की बात करो / मालिक का पीआर मत करो।


जनपक्ष की चिंता है, तो वैकल्पिक मीडिया ही अंतिम उपाय

16 July 2010 5 Comments

मीडिया का ओनरशिप कैरेक्‍टर समझे बिना पत्रकारिता और उसकी सीमाओं को समझना मुश्किल होगा। जिस मीडिया को करोड़ों रुपये मैनेज करना होता है, वो देश की चिंता क्‍यों करेगा? बहसतलब तीन में पत्रकार दिलीप मंडल ने मीडिया का पूरा सीनैरियो समझाते हुए कहा कि पत्रकार कितना भी ईमानदार हो जाए, ओनरशिप स्‍ट्रक्‍चर की वजह से वो प्रोपीपुल नहीं हो सकता। दिलीप मंडल ने सकाल के एमडी की एक बात कोट की कि मैं खबर और विचार पाठकों को बेचता हूं और अपने पाठक विज्ञापनदाताओं को दे देता हूं।

इंडिया हैबिटैट सेंटर के गुलमोहर हॉल में मोहल्‍ला लाइव, यात्रा बुक्‍स और जनतंत्र की साझा सेमिनार शृंखला बहसतलब तीन दिलीप मंडल हालांकि आखिरी वक्‍ता थे लेकिन उन्‍होंने मीडिया बिजनेस का ऐसा नक्‍शा रखा, जिससे साफ हुआ कि मीडिया में देश की साफ छवियों को देखने की मांग करने वाली तमाम बहसों से कभी कुछ हो नहीं सकता। दिलीप मंडल ने कहा कि मीडिया एक व्‍यवसाय है। इसमें पाठकों के साथ ट्रांजिक्‍शन में सबसे कम पैसा आता है। विज्ञापनदाताओं के साथ पैसे का ज्यादा ट्रांजिक्‍शन होता है। तो बताइए कि धंधा करने वाला किसके हित का खयाल रखेगा?

दिलीप मंडल ने कहा कि न्‍यूज रूम के भीतर का सामाजिक स्‍ट्रक्‍चर भी ऐसा नहीं है कि वो व्‍यापक लोगों के हित की बात करे। अगर जनपक्ष की चिंता है, तो वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना होगा।

वरिष्‍ठ पत्रकार मणिमाला ने कहा कि आज बाजार का मीडिया है और जैसा बाजार चाहे वैसा मीडिया है। बाजार का कोई सपना नहीं होता। बाजार मुनाफे से गाइड होता है और मुनाफे की कोई हद नहीं होती। आज की व्‍यवस्‍था का सपना है कि हम रात को दिन बना दें। कहीं रात न हो। लेकिन इसके लिए गांव के गांव को ऐसे अंधेरे में ढकेल रहे हैं – जिसकी कभी कोई सुबह नहीं होने वाली। मणिमाला ने कहा कि ये समझ नहीं आता कि खबरों के लिए जगह नहीं है और जो जगह है, उसके लिए कोई खबर नहीं है। खबरों के नाम पर जो चीजें आती हैं, वो हेडलाइन्‍स होती हैं और वो हर छोटे परदे के लिए एक्‍सक्‍लूसिव होती है। मणिमाला ने ये भी कहा कि शोएब की शादी, धोनी की शादी में मीडिया जिस बेहयायी से पेश आयी कि उसके बारे में क्‍या कहना…

मणिमाला ने बताया कि साउथ एशियन कंट्री में मीडिया संस्‍थानों की बाढ़ ऐसी है, जैसी दूसरे देशों में नहीं है। भारत में 79 मीलियन लोग अखबार पढ़ते हैं। चाइना के बाद यह दूसरे नंबर पर है। यूएस, जर्मनी, जापान भी इस मामले में हमसे पीछे हैं। इसके बावजूद मीडिया लोगों के बारे में उल्‍टा सोचती है। कहती है, जनता यही चाहती है। सवाल ये है कि जनता के पास च्‍वाइस क्‍या है…? सिर्फ खरीदना और बेचना, इतना ही मीडिया है।

आजतक के डिप्‍टी एडिटर सुमित अवस्‍थी ने कहा कि आज का मीडिया एग्रेसिव है और श्रेय लेने के लिए बहुत सारी चीजें उसके पास है। आज का मीडिया ये दावा करता है कि उसकी वजह से जेसिका लाल को इंसाफ मिल पाया। शशि थरूर और शिवराज पाटिल को पद से हटना पड़ा। विलासराव देशमुख से मुख्‍यमंत्री की कुर्सी छीन ली गयी।

सुमित ने कहा कि लेकिन इसी मीडिया से आदिवासी और गांव गायब है। 26000 गांव आज भी हिंदुस्‍तान में ऐसे हैं – जहां कम्‍युनिकेशन नहीं है। इनमें साठ फीसदी गांव नक्‍सल प्रभावित। इनकी कोई खबर हमारे मीडिया में नहीं है।

सुमित अवस्‍थी ने कहा कि जब जब चैनल पैसा कमाएंगे, जाहिर तौर पर कंप्रोमाइज होगा। बिना कंप्रोमाइज के मुनाफा नहीं कमाया जाता सकता। बड़ी बड़ी खबरों को मुनाफे की वजह से तवज्‍जो दी जाती है।

सुमित ने कहा कि आज का मीडिया 1950 के पहले का मीडिया नहीं है। हम सब लोग यहां हैं – हम सब लोग बड़ा बनना चाहते हैं। कोई जब संस्‍थान से निकलता है तो ये सोचकर नहीं निकलता कि बाहर जाकर मुनाफा कमाना है। ये सोच कर आता है कि पत्रकारिता करनी है। लेकिन बाजार ऐसा करने नहीं देता। क्‍योंकि बाजार की मांग अलग तरह से है – इसलिए मीडिया उसे अलग तरह से कोऑप्‍ट करता है। उन्‍होंने कहा कि जिस दिन टीआरपी आना होता है, उस दिन सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ी होती हैं।

सुमित अवस्‍थी ने कहा कि हमें ना कहने की हिम्‍मत होनी चाहिए। हम पत्रकार ना नहीं कह पाते हैं। हम खारिज करना नहीं जानते।

मीडिया विश्‍लेषक पारांजॉय गुहा ठाकुरता इस वक्‍त भारतवर्ष में साठ हजार रजिस्‍टर्ड पत्र-पत्रिकाएं हैं। 118 चैनल हैं। सालों तक भारतवर्ष में एक ही ब्रॉडकास्‍ट चैनल था। भारतवर्ष दुनिया का अकेला गणतंत्र है, जिसमें आकाशवाणी पर खबरों का मोनोपॉली। ये इंडियन मीडिया का यूनिकनेस है। हैरानी ये भी है कि हमारे मीडिया संस्‍थानों में जितनी प्रतिद्वंद्विता होती गयी, क्‍वालिटी उतनी ही कम होती गयी।

पारांजॉय ने कहा कि मिशन की जगह हम कमीशन पर पहुंच गये हैं। भ्रष्‍टाचार व्‍यक्तिगत स्‍तर से बाहर आ गया है। आज भ्रष्‍टाचार इंस्‍टीच्‍यूशनलाइज (सांस्‍थानिक) हो गया। करप्‍शन के कई स्‍तर हैं। पारांजय ने कम्युनिस्‍ट नेता अतुल अनजान की टिप्‍पणी कोट की कि मीडिया का मालिक टेंट वाला हो गया। मौसम के हिसाब से रेट घटाता-बढ़ाता है।

पारांजॉय ने कहा कि पत्रकार की छवि बदल गयी। अब उसके पास कुर्ता-पाजामा-झोला नहीं है। अल्‍प आयु के हैं। वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट और कांट्रैक्‍ट की सीमा से नहीं जुड़े हैं। छोटे शहर, गांव में जो पत्रकार हैं, उनमें 90 फीसदी विज्ञापन प्रतिनिधि भी हैं। उनकी जीविका विज्ञापन के कमीशन पर निर्भर करते हैं।

पारांजॉय ने ये भी कहा कि टीआरपी सबसे बड़ा धोखा है। दो कंपनी ये कर रही है। टीवी मालिकों से इनके रिश्‍ते हैं। भारतवर्ष में करीब 15 से 16 करोड़ टेलीविजन सेट है। सौ करोड़ में आधा से ज्‍यादा लोग हर रोज टेलीविजन देखते हैं। पहले इनके लिए साढ़े सात हजार पीपुल मीटर थे। आज बीस हजार मीटर है। बिहार-छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्‍यों में एक भी पीपुल मीटर नहीं हैं। इस देश के एक भी गांव में एक भी पीपुल मीटर नहीं हैं। पारांजॉय ने कहा कि टीआरपी सिस्‍टम इज अ होक्‍स।

चुटकी लेते हुए पारांजॉय ने कहा कि लेकिन भारतवर्ष में मीडिया का भविष्‍य अंधकारमय नहीं है। सूर्योदय अब होने ही वाला है। क्‍योंकि स्थिति इससे अधिक खराब और क्‍या हो सकती है…

इस बार की बहसतलब में सवाल-जवाब का लंबा सेशन चला। पाणिनी आनंद, भूपेन सिंह, अरविंद दास, पंकज नारायण, दिनेश कुमार शुक्‍ल, रामाशंकर सिंह, हर्षवर्द्धन त्रिपाठी, दीपू राय ने वक्‍ताओं से तीखे सवाल भी किये और मीडिया पर टिप्‍पणी भी की।

मीडिया पर जमकर हुई बहसतलब, कई सीन साफ हुए

16 July 2010 4 Comments

♦ विनीत कुमार

बाजार का मीडिया और जैसा बाजार चाहे, वैसा मीडिया। बाजार का कोई सपना नहीं होता, बाजार मुनाफे से चलता है और वो किसी का नहीं होता। बाजार मीडिया को पूरी तरह नियंत्रित कर रहा है। बहसतलब 3 में "किसका मीडिया कैसा मीडिया" बहस का जो मुद्दा रखा गया, इस पर बात करते हुए मणिमाला की ये लाइन पूरी बहस के बीच सबसे ज्यादा असरदार रही। ये वो लाइन है, जिसके वक्ताओं के बदल जाने के वाबजूद बहस का एक बड़ा हिस्सा इसके आगे-पीछे चक्कर काटते हैं। इस लाइन को आप पूरी बहस के निष्कर्ष के तौर पर भी देख सकते हैं या फिर बहस का वो सिरा, जिसे लेकर सूत्रधार सहित कुल चारों वक्ता सहमत नजर आये। मीडिया को बाजार का हिस्सा मानने से हमारे कई भ्रम दूर होते हैं और इसके चरित्र को समझने में सुविधा होती है। शुरुआती वक्ता के तौर पर मणिमाला ने पूरी बहस को इसी दिशा में ले जाने की कोशिश की। हम मणिमाला की इस शानदार बात को आगे बढ़ाएं इससे पहले बहस की भूमिका किस तरह से तैयार होती है, थोड़ी चर्चा इस पर भी कर लें।

किसका मीडिया कैसा मीडिया ऐसा मसला है, जिस पर अंतहीन बहसें जारी रहने की संभावना है। कहीं से कुछ भी बोला जा सकता है। ऊपरी तौर पर एक विषय दिखते हुए भी इसके बहुत जल्द ही एब्सट्रेक्ट में बदल जाने की पूरी गुंजाइश दिखती है। इसके नाम पर पत्रकारिता के पक्ष में कसीदे पढ़े जा सकते हैं, उसके भ्रष्ट हो जाने पर मातमपुर्सी की जा सकती है या फिर बेहतर बनाने के नाम पर यूटोपिया रचा जा सकता है। संभवतः इन्हीं खतरों को ध्यान में रखते हुए आनंद प्रधान ने बहस की शुरुआत में ही जो एजेंडा हमारे सामने रखा – उससे एक तरह से साफ हो गया कि इसके भीतर वक्ता क्या बोलने जा रहे हैं और हमें क्या सुनने को मिलेगा?

वक्ता के तौर पर मंच पर बैठे पारांजॉय गुहा ठाकुरता, सुमित अवस्थी, दिलीप मंडल और मणिमाला के बोलने के ठीक पहले सूत्रधार आनंद प्रधान ने जो भूमिका रखी, उसमें जो सवाल उठाये, वो इसी बाजार के बीच पनप रहे मीडिया को लेकर उठाये गये सवाल थे। आनंद प्रधान ने इस बहस में तीन बिंदुओं पर बात करना जरूरी बताया। सबसे पहले तो ये कि मीडिया का सवाल ऑनरशिप के सवाल से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। हमें हर हाल में इस बात की खोजबीन करनी होगी कि इस मीडिया पर किसका कंट्रोल है, किसके हाथ से ये संचालित है और इसके भीतर कितनी गुंजाइश रह गयी है? दूसरा बड़ा सवाल जनआंदोलनों को लेकर मीडिया का क्या रवैया है? आज आखिर ऐसा क्यों है कि देशभर में जितने भी छात्र आंदोलन होते हैं वो टेलीविजन से लेकर समाचारपत्रों तक के लिए बेगानी बात है, उसमें कहीं कोई मुद्दा मीडिया को दिखाई नहीं देता? इसी के साथ जुड़ा एक ये भी सवाल है कि आखिर क्या वजह है कि नब्बे के देशक में जो पत्रकार जनआंदोलनों की पृष्ठभूमि से आये थे, चाहे वो सीधे तौर पर किसी संगठन से या फिर छात्र आंदोलनों से जुड़े थे, उन्हें एक-एक करके साइडलाइन कर दिया जा रहा है? इन पत्रकारों को बाहर कर देने के साथ-साथ उनके मुद्दों की भी नोटिस नहीं ली जाने लगी। न्यूजरूम के भीतर स्त्री और दलित की मौजूदगी कितनी है, उनसे जुड़े कितने मुद्दे मीडिया की नोटिस में हैं? आज हेमचंद्र माओवादी करार दिया जाता है और इस पर मीडिया किसी भी तरह की खोजबीन या अफसोस जाहिर करने के बजाय उल्टे इसे सरकार के साथ जस्‍टीफाइ करने लग जाता है, ये हमारे सामने एक सवाल है। और तीसरा बड़ा सवाल है – विकल्प की बात। क्या हम मीडिया को इसी तरह कोसते रहेंगे या फिर इसे दुरुस्त करने जिसे कि आनंद प्रधान ने रिकवरी टर्म दिया, इस दिशा में भी कुछ काम कर पाएंगे, हमारे पास किस तरह के मॉडल हैं, किस तरह का खाका है, इस पर भी बात होनी चाहिए।

आनंद प्रधान की इस ठोस भूमिका के बाद ही मणिमाला ने मीडिया को बाजार का पहरुआ होनेवाली बात से बहस की शुरुआत की। मीडिया बाजार से अलग नहीं है और आगे की बहस में ये भी साफ हो गया कि वो न सिर्फ इसका पहरुआ है बल्कि उसका पर्याय भी है। मणिमाला ने पत्रकारिता और कभी हिंदी अकादमी में मीडिया टीचिंग के काम से मिले अनुभवों के आधार जो बातें हमारे सामने रखीं उससे थोड़ी-बहुत झलक इस बात की जरूर मिलती है कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि आज की मीडिया अगर बदतर हो गयी है तो ऐसा नहीं है कि पहले मीडिया का दामन बिल्कुल साफ था। पहले भी इसके भीतर कई तरह के झोल रहे हैं। लेकिन एक बात जो गौर करनेवाली है कि पहले इस मीडिया के भीतर एक स्ट्रक्चर हुआ करता था। संपादक नाम से एक संस्था हुआ करती थी जो किसी भी खबर को लेकर अपने संवाददाताओं को बैकअप देती थी कि हां ये खबर जानी चाहिए, ये खबर होनी चाहिए। आज वो बैकअप खत्म हो गया है। आज मीडिया का सबसे बड़ा दुर्भाग्य इसी बात को लेकर है। आज एक सपना है, ये सपना सरकार से लेकर तमाम पूंजीगत संस्थानों का है कि हम रात को दिन बना दें, कहीं भी रात को रात न रहने दें। लेकिन ऐसा करते हुए गांव के गांव ऐसे अंधेरे में धकेल दिये जा रहे हैं, जहां कभी भी सुबह नहीं आएगी। अफसोस मीडिया भी इसी रात को दिन बनाने में लगा हुआ है, उसे वो रात कभी दिखाई नहीं देती। मीडिया का कोई अलग से सपना नहीं है। वो इसी बाजार के साथ है। जिस तरह बाजार का कोई सपना नहीं होता सिर्फ मुनाफे की नीयत होती है आज मीडिया का भी वही हाल है। ऐसे में इसे मीडिया कहा भी जाए या नहीं, ये भी अपने आप में एक बड़ा सवाल है। मणिमाला की इस चिंता से जो सवाले उभरकर सामने आते हैं कि ऐसे में मीडिया को क्या जाए, इसके लिए अब छिटपुट तरीके से लॉबिइंग, पीआर और कुछ आगे जाकर दलाली जैसे शब्द इस्तेमाल में लाये जाने लगे हैं जो कि मीडिया के लिए एक खतरनाक स्थिति है।

इस पूरे मामले पर गौर करें तो अब मीडिया में खबर नहीं है। समाचार चैनलों ने जो समाचार चलाने के लाइसेंस ले रखे हैं, वहां समाचार नहीं है, उन समाचारों की ऑथेंटिसिटी नहीं है। वो धोनी की शादी में मीडिया के उस तमाशे को याद करती हैं, जहां होटल के ड्रांइंग रूम, सोफे और ऐसी ही जड़ चीजों के फुटेज दिखाकर हर चैनल हमें एक्सक्लूसिव स्टोरी परोस रहा होता है। तब हॉल में देखनेवालों के साथ-साथ बनानेवाले/दिखानेवाले भी ठहाके लगाने से अपने को रोक नहीं पाते, वक्ता के तौर पर आये आजतक के सुमित अवस्थी उसे फिर टीआरपी के फार्मूले से डिफाइन करने की कोशिश करते हैं। दरअसल समाचार चैनलों में खबरों के नहीं होने और बड़ी ही स्टीरियोटाइप की स्टोरी को बड़ी खबर बना देने का जो अफसोस मणिमाला कर रही हैं, वो मीडिया की सबसे बड़ी स्ट्रैटजी है कि इसे पूरी ताकत के साथ नॉनसीरियस माध्यम बनाया जाए।

आगे मणिमाला ने कहा कि यहां जब मीडिया की बात हो रही है, तो हमें मनोरंजन चैनलों पर भी बात करनी चाहिए। हमें कुछ भी दिखाया जाता और कहा जाता है कि जनता चाहती है। सवाल है कि जनता के पास च्वाइस कहां है? आप किसी भी चैनल पर चले जाइए, सब पर वही घिसे-पिटे कॉन्सेप्ट पर बने सीरियल, सब पर वही सास-बहू और सबने अपने-अपने लिए एक-एक भगवान चुन लिये हैं। टेलीविजन में कार्यक्रम को लेकर कोई वैरिएशन नहीं है।

इस पूरी बहस में मणिमाला ने जिस एक प्रसंग का जिक्र किया, उस पर गौर किया जाना जरूरी है। ये मीडिया के सच को समझने में मददगार साबित होंगे। मणिमाला ने हिंदी अकादमी के उन दिनों और उस घटना को याद करते हुए कहा जब वो वहां बतौर मीडिया फैकल्टी काम कर रही थीं। चुनाव के नतीजे सामने आये थे और जिसमें मीडिया ने जो अनुमान लगाये थे, वो सबके सब गलत थे। संस्थान में पढ़नेवाले मीडिया के बच्चों ने कहा कि ये सारे आंकड़े जिसे कि मीडिया ने दिखाया-बताया, उन्होंने ही तो इकठ्ठे किये थे। मणिमाला ने सवाल किया कि आपको बुरा नहीं लगा कि आपके नतीजे गलत निकले। बच्चों का जवाब था कि सच कौन बताता है, अब कोई थोड़े ही बताता है कि किस पार्टी को वोट देने जा रहे हैं। …तो आपने फिर क्या किया। बच्चों का जवाब होता है – खुद ही भर दिया। यही खुद ही भर देनेवाले आंकड़े मीडिया के न्यूजरूम तक जाते हैं जिसे कि दहाड़-दहाड़कर चैनल भविष्यवाणी में कन्वर्ट कर देते हैं। मणिमाला ने उन बच्चों के बीच फिर भी इस मीडिया में आने की वजहें जाननी चाही और जिसका कुल जमा निष्कर्ष है – ग्लैमर, रोजी-रोटी, मंत्रियों-रसूखदार लोगों से मिलने का मौका, सिलेब्रेटी के साथ वक्त गुजारने की गुंजाइश… आदि। आज बच्चे भी जानते हैं कि मीडिया में जाकर उन्हें क्या करना है?

शुरू से ही बहस का मिजाज कुछ इस तरह से बनता है कि हरेक वक्ता के बोलने के बाद आनंद प्रधान उनके वक्तव्य से निकले सवालों को छांटकर अलग करते हैं और अपने शब्दों में उसकी चर्चा करते हैं जिससे कि सामने बैठा ऑडिएंस उन सवालों पर एक बार फिर से गौर करे और फिर उन सवालों से जुड़े जो आगे सवाल बनते हैं, उन्हें आगे के वक्ता के लिए टॉस कर दें। इसमें आनंद प्रधान की खुद की भी राय शामिल रहती है। मणिमाला के बोले जाने के बाद उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात से कतई दिक्कत नहीं है कि कोई अखबार या चैनल टेबलॉयड की शक्ल में क्यों है? ऐसा हमारे यहां क्या, अमेरिका सहित दूसरे देशों में भी है। लेकिन हमें अफसोस तब होता है, जब कोई क्वालिटी चैनल या अखबार टेबलॉयड बनने की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। इंडिया टीवी कभी भी इस बात का दावा नहीं करता कि वो कोई क्वालिटी चैनल है लेकिन आजतक देश का सबसे नामी चैनल, जिस चैनल के साथ एसपी सिंह (सुरेंद्र प्रताप सिंह) का नाम जुड़ा हुआ है, उसके और इंडिया टीवी के बीच का फर्क मिटने लगा है, ऐसे में बहुत निराशा होती है, एक दर्शक के तौर पर समस्या होती है। ऐसे में मेरे कुछ दोस्तों ने सुझाव दिया कि प्रोफेशनलिज्म के जरिये मीडिया की समस्या को दूर किया जा सकता है (आनंद प्रधान और मोहल्लालाइव के मॉडरेटर ने फेसबुक के जरिए कुछ सुझाव और कमेंट देने की बात की थी, जिसमें कि कई तरह के विचार सामने आये)। लेकिन मैनचेस्नी ने प्रोफेशनलिज्म को लेकर विस्तार से चर्चा की है। उसने बताया कि मीडिया के इस रूप से किस तरह के खतरे सामने आएंगे, कॉरपोरेट मीडिया के क्या नफा-नुकसान हैं। (आनंद प्रधान ने मैनचेस्नी को लेकर थोड़ा विस्तार दिया। Robert Ww Mc Chesney की किताब का नाम the global media: the new missionaries of corporate capitalism है, जिसके कुछ हिस्से को पूंजीवाद और सूचना का युग नाम से हिंदी में ग्रंथशिल्पी ने प्रकाशित किया है।) उन खतरों में एक जो सबसे बड़ा खतरा है, वो ये कि कॉरपोरेट के मीडिया टेकओवर से पत्रकारों की सैलेरी तो जरूर पहले से कई गुणा बढ़ गयी लेकिन अखबारों और मीडिया में मैनेजमेंट के सामने पत्रकारों के विरोध करने की क्षमता धीरे-धीरे खत्म होने लग गयी। 15 हजार की नौकरी छोड़ना फिर भी आसान था लेकिन 15 लाख की नौकरी छोड़ना आसान नहीं रह गया। मैक्चेस्नी का कहना है कि इससे पत्रकारों के बीच दबाव बढ़ने लगे जबकि राजनीतिक खबरें घटने लग गयीं। इसी के साथ एक बड़ा सवाल पत्रकारों की जॉब सिक्यूरिटी का है। इस कमेंट के बाद बहस और जवाब के लिए वो सुमित अवस्थी की ओर टॉस करते हैं।

सुमित अवस्‍थी ने बहस और जवाब में जिन मुद्दों को उठाया, उन मुद्दों को हम पिछले ही दिनों उदयन शर्मा की याद में लॉबीइंग, पेड न्यूज और हिंदी पत्रकारिता के सवाल पर राजदीप सरदेसाई की जुबान से सुन चुके थे। राजदीप मीडिया से होने की वजह से एक निरीह सा ऑरा बनाते हुए वही बातें कह रहे थे, जिसे कि सुमित अवस्थी से बहसतलब में दोहरायी। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि खुद मीडिया के लोगों के बीच एक स्थिति बन रही है जो इस बात को सरेआम स्वीकार रहा है कि उसके भीतर से प्रतिरोध जिसके लिए कि उन्हें जाना जाता है, खत्म होता जा रहा है और उनके भीतर न कहने का माद्दा नहीं रह गया है। बहरहाल, सुमित अवस्थी ने आते ही कहा कि हम मानते हैं कि मीडिया बाजार का है। मीडिया जो क्रेडिट ले रहा है, वो अपने फायदे के लिए लेता है। लेकिन इसी मीडिया में वही बदलाव आये, जो बदलाव समाज में आये। आदिवासी की खबरें गायब हैं। 26 हजार ऐसे गांव हैं जहां कोई नेटवर्क नहीं है। उनमें से 60 प्रतिशत नक्सली प्रभावित क्षेत्र है। मीडिया क्यों इतना हद तक कॉमप्रोमाइज कर रहा है। आज एक भी संपादक ऐसा नहीं है जो ये कहे कि आज मैं इस्तीफा देता हूं, आज मैं खबर नहीं छापूंगा। मुझे ये कहते हुए मुश्किल का सामना करना पड़ता है कि हां आज हम कॉमप्रोमाइज करने लगे हैं। इसकी वजह मुनाफा है। इस मुनाफे की वजह से ही छोटी खबरों पर ध्यान नहीं दिया जाता। बेसिकली बात कनज्‍यूमरिज्म की आ जाती है। प्रीइंडीपेंडेंस इस देश के पास, मीडिया के पास एक मिशन था कि इस देश को आजाद कराना है, आज मीडिया में कोई मिशन नहीं है, मिशन की जरूरत है।

सुमित अवस्थी अपनी पूरी बातचीत को एक कॉन्फेशन मोड की तरफ ले जाते हैं। वो मणिमाला और आंनंद प्रधान की मीडिया से असहमतियों को सहजता से स्वीकार करते हैं। वो ये मानते हैं कि नहीं कहने की हिम्मत मीडिया के भीतर खत्म होती जा रही है। वो ये भी मानते हैं कि हम सब बड़ा बनना चाहते हैं। लेकिन कोशिश होनी चाहिए कि हम किसी को दबाकर न बढ़ें। हमें पहले अपने आप को बदलना होगा। चूंकि सुमित ये मानते हैं कि मीडिया के भीतर जो भी गड़बड़ियां हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा खुद के भीतर की गड़बड़ियां है। इसलिए उन्हें इस बात का भरोसा है कि खुद के बदलने से स्थितियों में काफी हद तक बदलाव आएंगे। लेकिन मीडिया के भीतर की समस्या व्यक्तिगत स्तर की नहीं है, ये सांस्थानिक समस्या है और इसे व्यक्तिगत स्तर पर सुधर कर बदला नहीं जा सकता। इसी बात को लेकर दिलीप मंडल सुमित अवस्थी से पूरी तरह असहमत होते हैं, जिसकी चर्चा आगे।

सुमित अवस्थी को आजतक पर रात नौ बजे की बुलेटिन पढ़नी होती है, इसलिए वो बहस शुरू करने से पहले ही अपनी स्थिति साफ कर देते हैं। ऐसे में वक्ताओं के एक राउंड बोल देने के बाद बहस हो इससे पहले ही सुमित अवस्थी से सवाल-जवाब का दौर शुरू हो जाता है। इस सवाल-जवाब में पाणिनि आंनद (भूतपूर्व बीबीसी पत्रकार और फिलहाल सहारा समय) और राकेश कुमार सिंह (सामाजिक कार्यकर्ता) और भूपेन सिंह (मीडिया टीचर और पत्रकार) शामिल होते हैं। पाणिनि का सवाल है कि आखिर क्यों देश का कोई भी चैनल एक घंटे-दो घंटे या चार घंटे के लिए भी बीबीसी नहीं बन पाता है। अगर मीडिया पर बाजार का दबाव है, तो भी कुछ घंटे के लिए ऐसा तो किया ही जा सकता है। राकेश सवाल को मीडिया के रवैये तक ले जाते हैं और जो बात उन्होंने बाद में कही कि इस बहसतलब में किसी लाला को भी बिठाओ तब बात बनेगी, उसकी पूर्वपीठिका यहां रखते हैं। भूपेन ने सुमित अवस्थी से सीधा सवाल किया कि आप खुद को बदलने की बात कर रहे हैं और साथ में यह भी कह रहे हैं कि मुनाफा कमाना कोई बुरी बात नहीं है, ऐसे में आप किसको जस्‍टीफाइ कर रहे हैं, संस्थान को या फिर खुद को?

इन सवालों और कमेंट के जवाब में सुमित अवस्थी मीडिया प्रोफेशनल की तरह जवाब देने के बजाय एक सोशल एक्सपर्ट की तरह जवाब देने की कोशिश में नजर आये। सुमित का कहना रहा कि IIMC से मीडिया की पढ़ाई करनेवाला कोई भी बच्चा ये सोचकर मीडिया में नहीं आता कि उसे आगे जाकर करप्ट बनना है। उसके भीतर भी समाज को बदलने और खुद को बदलने की चाहत होती है। लेकिन स्थितियां ऐसी बनती हैं कि इसे कैरी नहीं कर पाता। उन सपनों को बहुत आगे तक ले नहीं जा पाता। यहां शोएब और धोनी की शादी की बात की गयी। मैं मानता हूं कि इस तरह दिखाया जाना गलत है लेकिन इस कमरे के बाहर भी एक हिंदुस्तान है। बाजार की मांग है। थोड़ा हंसते हुए टीआरपी की रिपोर्ट पर आते हैं कि आपको हैरानी होगी कि जिस समय ये स्टोरी चैनलों पर दिखायी गयी थी उस समय इसकी ही सबसे ज्यादा टीआरपी थी। सुमित घूम-फिर कर उसी फार्मूले पर आते हैं कि लोग देखते हैं, तो इसमें चैनल क्या करे? इसी समय मेरे मन में सवाल करने की तलब होती है कि पूछूं – माफ कीजिएगा सुमितजी, टीआरपी का सिस्टम दुरुस्त हो – इसके लिए मुझे आजतक की टीआरपी रैंकिंग गिरती चली जाए, इसके लिए बददुआएं मांगनी होगी। इस देश में कितने पीपल मीटर लगे हैं, आप उन बेचारों को वेवजह दोषी क्यों करार दे रहे हैं, जो ये जानते तक नहीं कि आपके कार्यक्रम देखने और न देखने का क्या असर होता है? एक बड़ी सच्चाई है जिसे कि प्रोचैनल तर्क देने के क्रम में किया जाता है कि साठ से सत्तर हजार की ऑडिएंस के लिए लोग शब्द का इस्‍तेमाल किया जाता है और तब ऐसा लगता है कि ये लोग देश की चालीस करोड़ की ऑडिएंस है। जो चैनल प्रधानमंत्री के लिए अपनी बूथपेटी बनाता है, क्या अपनी रैंकिंग गिर जाने पर ज्यादा से ज्यादा पीपल मीटर लगाने के पक्ष में सड़कों पर उतरा है या भविष्य में कभी उतरेगा? लेकिन माहौल थोड़ा हो-हो सा बन गया था सो नहीं पूछा और इसके थोड़ी ही देर बात सुमित अवस्थी जाने की विवशता जाहिर करते हैं। बहसतलब के पैनल का एक खंभा खिसक गया, जो कि गुलमोहर सभागार के भीतर के मौहाल को देखते हुए समझा जा सकता था कि अगर सुमित अवस्थी होते तो कई और सवालों और असहमतियों से घेरे जाते।

सुमित अवस्थी के चले जाने के बाद आनंद प्रधान दिलीप मंडल को बोलने के लिए जमीन तैयार करते हैं। एक बड़ा सवाल, हिंदी मीडिया के बारे में खासकर बात कर सकते हैं कि आरक्षण और राम जन्मभूमि के सवाल पर कैसे हमारा मीडिया बिल्कुल हिंदू मीडिया हो जाता है। पाकिस्तान के सवाल पर कैसे मीडिया हिंदी मीडिया और चैनल हिंदू चैनल हो जाते हैं। अंग्रेजी चैनल जिनकी छवि सरकार से सीधे टकराने की होती है वो भी ऐसे क्यों हो जाते हैं? दूसरे सामाजिक सवालों पर मीडिया का सवर्ण चरित्र क्यों हो जाता है? इन सारे सवालों के साथ दिलीप मंडल को आमंत्रित किया जाता है।

दिलीप मंडल बहस की शुरुआत बिना कोई लाग-लपेट के मीडिया के धंधे में बदल जाने के उस मंजर से करते हैं, जहां सवाल मीडिया के भीतर सरोकार के बचे रहने या नहीं रहने को लेकर नहीं है, सवाल है कि जिस मीडिया के भीतर कॉरपोरेट के करोड़ों रुपये लगे हैं, उसे दुगुने, तिगुने करने के क्या-क्या तरीके हो सकते हैं, कौन सी जुगतें भिड़ायी जा सकती हैं? मीडिया का पूरा चरित्र यहीं से तय होता है। दिलीप मंडल ने 15 जुलाई के सेंसेक्स बंद होने तक कुछ मीडिया घरानों की मार्केट कैपिटल की चर्चा की। आज सुबह 10:14 पर जब मैं उन घरानों की मार्केट कैपिटल देख रहा हूं तो मामूली फेरबदल के साथ वही है। सन टीवी नेटवर्क 17264.85 करोड़ रुपये, जी इनटरटेनमेंट 14718.62 करोड़ रुपये और जागरण प्रकाशन 3773.67 करोड़ रुपये। इसी तरह बाकी समूहों की भी हैसियत देखी जा सकती है। दिलीप मंडल मीडिया घरानों की करोड़ो रुपये में हैसियत बताने के बाद सीधा सवाल रखते हैं कि जिन लोगों को इतने करोड़ रुपये मैनेज करने होते हैं, आपको क्या लगता है कि वो क्या बात करते होगें? हम इसका जवाब सोचते हैं और बिना उनके बताये मन ही मन बुदबुदाते हैं, किसी भी मसले पर बात करते होंगे लेकिन मीडिया सरोकार की बात तो नहीं ही करते होंगे, जिसकी चर्चा और चिंता हम इस हॉल में बैठकर कर रहे हैं। दिलीप मंडल ने जब ये आंकड़े पेश किये, ठीक उसी समय दिनेश कुमार शुक्ल ने इनट्रप्‍ट किया और कहा कि मीडिया में पाखंड बढ़ा है। सब पाखंड है, दलाली के माध्यम से धनी बन गये। साहित्य से दूर हो गया मीडिया, शर्म आनी चाहिए। आप इस पर बहस क्यों नहीं कराते। आयोजक सहित कुछ ऑडिएंस उन्हें बताता है कि आप शायद नहीं आये हों, लेकिन बहसतलब एक में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई है। बहरहाल…

दिलीप मंडल ने हमें एक दिलचस्प जानकारी दी कि इन मीडिया घरानों की जब मीटिंग्स होती है, तो किस मीडिया हाउस में कौन लोग शामिल होते हैं – उन्होंने बाकायदा कॉरपोरेट के उन सीईओ के नाम लिये, जो बाजार को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। इनकी विस्तार से चर्चा उनकी आनेवाली किताब में है। अब फिर वही सवाल कि ये कॉरपोरेट के साथ बैठकर मीडिया घराने किस मसले पर बात करते होंगे और क्या तय करते होंगे? दिलीप मंडल ने साफ तौर पर कहा कि मुझे अफसोस है कि ये सब कुछ समझने में थोड़ा वक्त जरूर लग गया कि मैं किसके लिए काम करता हूं – लेकिन कल अगर मैं फिर से मीडिया हाउस के साथ जुड़ता हूं तो कहीं कोई दुविधा नहीं रह जाएगी कि मैं क्या कर रहा हूं? मुझे लगता है कि किसका मीडिया और कैसा मीडिया पर बात करते हुए हम ऑनरशिप कैरेक्टर को बेहतर तरीके से समझने की जरूरत है। इसी क्रम में उन्‍होंने मराठी मीडिया सकाल के एमडी जो कि शरद पवार के भाई हैं, के उस बयान को शामिल किया जिसमें वो कहते हैं कि मैं खबर और विचार पाठकों बेचता हूं और अपने पाठक विज्ञापनदाताओं को दे देता हूं।

हम मुफ्त में एक चैनल देखते हैं और चाहते हैं कि आंध्रप्रदेश की गरीबी पर बात करें – क्यों करेंगे? दिल्ली और मुंबई में धंधा चल गया तो चैनल चल जाता है। ऑनरशिप का चरित्र ऐसा है कि वो प्रो-पीपुल हो ही नहीं सकता। बोर्ड में ऐसी चर्चा हो ही नहीं सकती कि कॉमरेड आजाद क्यों मर गये। दूसरा हिस्सा न्यूजरूम का है। अब न्यूजरूम में अस्सी के दशक के लोग बहुत कम हैं। अब न्यूजरूम के भीतर भी एक खास तरह के कैरेक्टर बन रहे हैं। स्टॉक होल्डर हो गये हैं। जिसमें एक सामाजिक स्ट्रक्चर भी है (दिलीप मंडल और प्रमोद रंजन ने मीडिया संस्थानों के भीतर के जातिगत समीकरण पर लगातार लिखा है। प्रमोद रंजन ने मीडिया में हिस्सेदारी पर किताब की शक्ल में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है।) इस पर आज मैं बात नहीं कर रहा। न्यूजरूम के भीतर जो प्रभावी (आर्थिक तौर पर) हैं, वो हाउस के शेयर खरीदते हैं। हर आदमी प्रॉफिट चाहता है, इसलिए ये मीडियाकर्मी उस दिशा में सोचना शुरू कर देते हैं। पहले मालिक का हित होता था, अब उसमें उनके खुद का भी हक शामिल है, इसलिए भी मीडिया का चरित्र बदलता है।

तीसरी बात कि आज सरकार भी मीडिया के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया है। अगर जनपक्ष की चिंता करनी है, तो उसे वैकल्पिक मीडिया की तरफ जाना होगा। जो राज्यसभा जाने की उम्मीद करते हैं, पांच साल तक जो किसी खास पार्टी के लिए लिखते हैं, काम करते हैं, उन्हें पेड न्यूज पर बात करते हुए किस रूप में देखा-समझा जाए? क्यों वहां भी कुछ हो रहा है क्या? क्या सब जगह सिर्फ पैसे की तरह की देखेंगे कि वो पेड न्यूज है या नहीं? दिलीप मंडल मॉनेटरी फायदे के साथ-साथ जिस मौके के फायदे की बात करते हैं और तब पेड न्यूज को पारिभाषित करते हैं, पेड न्यूज पर लगातार बोलनेवाले रामबहादुर राय ने इस पर अभी तक कोई बात नहीं की। कम से कम जितनी बार उन्हें मंच पर सुना, वहां तो नहीं ही। अभी वे 72 पेज की प्रेस काउंसिल की जिस रिपोर्ट की बात कर रहे हैं, वहां शायद हो, उम्मीद भर ही कर सकते हैं। पूरी बातचीत के बाद दिलीप मंडल का आखिरी वाक्य रहा – मुझे मीडिया स्ट्रक्चर में उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। मैं वहां जाऊंगा भी, तो धोखे में नहीं रहूंगा।

दिलीप मंडल की बातचीत से जो कुछ निकलकर सामने आया उसे सवाल की शक्ल देते हुए आनंद प्रधान से पारांजॉय गुहा ठाकुरता के आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि ठाकुरताजी के आगे सवाल ऑनरशिप का है। क्या प्रथम और दूसरे प्रेस आयोग ने जो कहा है, उसका पालन किया जा रहा है? क्या कीमतें वो सबकुछ होना चाहिए? हमने देखा कि कैसे बड़े अखबारों ने छोटे अखबारों को खत्म कर दिया। क्या हम ऑनरशिप के पैटर्न की चेंज की बात नहीं कर सकते। जर्नलिस्ट की जॉब सिक्यूरिटी का सवाल – इस पर भी बात होनी चाहिए। …ये क्यों नहीं उठाने जाने चाहिए? क्या विज्ञापन और खबर के बीच का जो अनुपात है उस पर बात नहीं होनी चाहिए। …इन सारे सवालों के साथ पारांजॉय गुहा ठाकुरता अपनी बात रखते हैं।

अमेरिका में क्रॉसमीडिया रिस्टिक्शन है यहां नहीं है। ये आश्चर्य का देश है। भारत में एक अकेला ही लोकतंत्र है, जहां रेडियो की खबरों पर पूरी तरह आकाशवाणी की मॉनोपॉली है। दूसरा सवाल कि मीडिया के लिए कम्पटीशन का क्या मतलब है? उन्होंने पूंजीवाद के पैटर्न को बताते हुए साबुन का उदाहरण दिया और बताया कि पूंजीवाद का तर्क है कि जितना ज्यादा कम्पटीशन बढेंगे, क्वालिटी में उतनी ही ज्यादा बढ़ोतरी होगी, सुधार होगा। मगर मीडिया का बाजार आश्चर्य का बाजार है। जितने चैनल बढ़े हैं उतने ही उनकी गुणवत्ता कम हुई है। अगर पूंजीवाद के तरीके पर भी भरोसा करें, तो हमें यहां उल्टा दिखता है। मिशन की जगह हम कमीशन की जगह पहुंच गये है। जरदारी ने कहा कि जर्नलिस्ट आर वर्स्ट दैन टेर्ररिस्ट। …मीडिया के भीतर भ्रष्टाचार व्यक्तिगत से बाहर आ गया है, अब ये इन्सटीट्यूशनलाइज हो गया। ये मीडिया नेट से शुरू हुआ। उन्होंने इस मीडिया नेट के पूरे पैटर्न की विस्तार से चर्चा की और बताया कि कैसे कोई सिलेब्रेटी के साथ चार-पांच लोगों के डिनर का आयोजन है, तो उसमें से एक मीडिया के भी बंदे को बुला लिया गया और फिर फुल पेज पर वो कवरेज हो गयी।

तीसरा स्तर है जो राजनीति और पॉलिटिकल न्यूज के बारे में। पाठक को खबर और विज्ञापन के बारे में पता ही नहीं है। मीडिया में चेकबुक में पैसे नहीं ले रहे हैं। कोई आयकर नहीं है। …इसलिए ये तीसरे स्तर का करप्शन हो गया। उन्होंने इस क्रम में अतुल अंजान के उस बयान को शामिल किया जिसमें उन्होंने कहा कि मीडिया वाला टेंटवालों की तरह हो गया है। जिस तरह टेंटवाले शादी और उत्सवों में कीमतें ज्यादा बढ़ा देते हैं, वही काम मीडिया चुनाव और ऐसे मौके पर किया करता है। लालजी टंडन का रेफरेंस दिया जो कि पेड न्यूज के दौरान काफी चर्चा में रहा और जागरण की साख पर भी कमोबेश बट्टा लगा लगा। पत्रकार की जो छवि है, वो छवि एकदम बदल गयी है। कुर्ता नहीं पहनते, झोला नहीं टांगते। पत्रकारों की छवि बदली है। अपने दो बार देश के प्रधानमंत्री के साथ गये विदेशी दौरे की चर्चा करते हुए और बाद में अपने संपादक विनोद मेहता के कहने पर उसे बाकायदा लेख की शक्ल देने पर ठाकुरता ने कहा कि वहां भी हमें क्या दिये जाते हैं? व्हिस्की, चॉकलेट, चीज, कपड़े और भी बहुत सारी चीजें। मेरे ये सब लिखने पर दोस्तों ने कहा कि ये सब क्यों लिख दिया? लेकिन सवाल है कि इसे भी तो हम विश्लेषण में शामिल करेंगे ही न। ये भी तो मीडिया के चरित्र को निर्धारित करता है।

जॉब सिक्यूरिटी पर ठाकुरता ने कहा कि नब्बे फीसदी पत्रकार सिर्फ पत्रकार नहीं हैं। उनका जीवन विज्ञापन लाने से जुड़ा हुआ है। ठाकुरता की इस बात को अगर हम गांव के परिप्रेक्ष्य से थोड़ा और आगे खिसकाकर ले जाएं, तो स्थिति ये है कि मीडिया इंडस्ट्री के भीतर पत्रकारों की एक बड़ी जमात है जो कि विज्ञापन जुटाने की शर्तों पर सर्वाइव कर रही है। टीआरपी धोखा है लोगों के साथ। करीब 15 से 16 करोड़ टेलीविजन सेट हैं। कुछ दिन पहले साढे सात हजार टीआरपी बक्से थे। अब बढ़कर बीस हजार हो गये। दिस टीआरपी सिस्टम इज टोटली हॉक्स। पूरे बिहार में एक भी पीपल मीटर नहीं हैं, जम्मू कश्मीर में नहीं है। (लेकिन केपीएमजी और वाटरकूपर्स के हवाले से जो नयी रिपोर्ट सामने आयी है, उसमें इस बात की चर्चा है कि बिहार के कुछ हिस्से में पीपल मीटर हैं और उत्तर प्रदेश के इलाके में भी)। गांव के लोग ट्रैक्टर चलानेवाली बैटरी निकालकर टीवी देखते हैं लेकिन वहां एक भी पीपल मीटर नहीं है। सवाल ये है कि तो फिर आप किसके लिए प्रोग्राम बना रहे हैं? ठाकुरता के इस अफसोस और सवाल का जवाब हम सकाल के एमडी के बयान के बीच से निकाल सकते हैं। गांव के लोगों में नहीं है पीपल मीटर तो सवाल है कि आप किसके लिए प्रोग्राम बना रहे हैं।

लेकिन इन सबके बावजूद ठाकुरता ने कहा कि वो दिलीप मंडल की तरह निराशावादी नहीं है, वो आशावादी हैं। इसलिए ये नहीं मानते कि मीडिया का भविष्य अंधकारमय है। इसमें अभी भी संभावनाएं हैं। इस देश में मान लीजिए 20-25 अखबार बिके हुए हैं, वो पैसे और प्रभाव में आकर खबरें छापते हैं लेकिन बाकी के अखबार तो चीजों को सामने ला रहे हैं न। उन्होंने इस मामले में कुछ उदाहरण भी पेश किये। एक बार फिर क्रॉस मीडिया रिस्टिक्शन्स की संभावना पर जोर देते हुए उन्होंने इस दिशा में काम किये जाने की जरूरत पर बल दिया लेकिन हां, ऑडिएंस के सुझाव पर ये भी कहा कि आंदोलन आप खड़े कीजिए, हम आपके साथ होंगे।

वक्ताओं की ओर से बहस का एक चक्र पूरा हो जाने के बाद ऑडिएंस की ओर से सवालों के बौछार शुरू हो गये। इस बीच सवाल पूछने को लेकर आपाधापी भी मची, कुछ हास-परिहास का भी दौर चला। एक-दो ने बेवड़े के अंदाज में सवाल से ज्यादा मसखरी भी कर दी। लेकिन जो भी सवाल आये उसे सरसरी तौर पर देखना जरूरी होगा। एक तो ये कि पाणिनि ने जब बार-बार बीबीसी को आदर्श स्थिति करार देने की कोशिश की तो राकेश कुमार सिंह सहित कई लोगों ने बीबीसी के उस रवैये पर सवाल खड़े किये, जहां 9/11 के बाद आंख मूंदकर भरोसा करनेवाला अंदाजा खत्म हो गया। यही बहस आगे चलकर पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग तक गयी जिसे लेकर अरविंद दास ने सवाल किया कि इसे सवालों के घेरे में क्यों न लिया जाए? अरविंद के इस सवाल को मैंने और आगे ले जाना जरूरी समझा इसलिए दूरदर्शन के उस रवैये की बात कही, जहां कि घाटे की भरपाई के लिए शांति, स्वाभिमान, वक्त की रफ्तार और जुनून जैसे टीवी सीरियल लंबे समय तक खींचे गये। बातचीत का एक बड़ा हिस्सा वैकल्पिक मीडिया की जरूरतों पर आकर टिक गया।

मणिमाला मानती हैं कि मीडिया का ये रूप शुरू से रहा है और वो आज भी काम कर रहा है जबकि आनंद प्रधान मानते हैं कि ब्लॉग और इंटरनेट पर साइटों के आने की वजह से मीडिया को आईना दिखाने का काम ज्यादा हुआ है। उन्होंने उदयन शर्मा की याद में होनेवाले व्याख्यान में श्रवण गर्ग (भास्कर समूह) के उस बयान को शामिल किया, जिसमें उन्होंने कहा कि अब शर्म आने लगी है। आनंद प्रधान के मुताबिक ये शर्म ब्लॉग में मीडिया के प्रतिरोध में लगातार लिखने की वजह से हुआ है। समय के बढ़ने के साथ सवालों के साथ-साथ सुझावों की संख्या बढ़ती चली जाती है, जिसमें एक बुजुर्ग ऑडिएंस की तरफ से सवाल भी किया जाता है कि ऐसी बहस कराके हम क्या बदल लेंगे। असली सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? लेकिन हम बहस और सेमिनारों को इस वीहॉफ पर खारिज नहीं ही कर सकते कि इससे कुछ बदलता नहीं है। ये बदलता है भी या नहीं ये अलग मसला है लेकिन ये जरूर है कि बिना बहस और बातचीत के क्या बदलाव की जमीन तैयार करना संभव है?

वक्ता फाइनल वर्डिक्ट के तौर पर अपनी बातों का क्रक्स रखते हैं। सवालों और सुझावों के बाद आनंद प्रधान पूरी बातचीत को समेटते हैं और एक बार फिर मीडिया रिकवरी, जर्नलिस्ट यूनियन और जॉब सिक्यूरिटी की बात को दोहराते हैं। सबका शुक्रिया अदा करने के लिए यात्रा प्रकाशन की संपादक जो कि बहसतलब के आयोजकों में से हैं को मंच पर बुलाते हैं। नीता सबों का शुक्रिया इस बात से करती है कि आज जबकि शहर में दूसरे कई बड़े कार्यक्रमों का आयोजन हुआ है, प्रभाष जोशी की याद में बड़ा कार्यक्रम चल रहा है, आप सब यहां आये, इसके लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। बहसतलब के लिए कमिटेड ऑडिएंस के बीच संतोष का भाव पैदा होता है। मंच पर बैठे सारे वक्ताओं का, खासकर पारांजॉय गुहा ठाकुरता का शुक्रिया कि बड़ी सहजता से हमारे निमंत्रण को स्वीकार किया। इसके साथ ही उन्होंने अगली 17 तारीख को फोटोग्राफी पर होनेवाली बहसतलब की भी अग्रिम सूचना दी।

हॉल के भीतर बहस का महौल बना ही रह जाता है। लेकिन समय समाप्ति की घोषणा और हॉल खाली करने की मजबूरी के बीच ऑडिएंस छोटे-छोटे समूहों में बंट जाता है। कुछ अपनी बातों को और जोर देकर कहने के लिए, कुछ असहमत होने के लिए और कुछ हां में हा मिलाने और मिलवाने के लिए।

vineet kumar(विनीत कुमार। युवा और तीक्ष्‍ण मीडिया विश्‍लेषक। ओजस्‍वी वक्‍ता। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से शोध। मशहूर ब्‍लॉग राइटर। कई राष्‍ट्रीय सेमिनारों में हिस्‍सेदारी, राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। ताना बाना और टीवी प्‍लस नाम के दो ब्‍लॉग। उनसे vineetdu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

विनीत कुमार की बाकी पोस्‍ट पढ़ें : mohallalive.com/tag/vineet-kumar

असहमति, नज़रिया, मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली, मोहल्‍ला लाइव »

[16 Jul 2010 | 6 Comments | ]
खुद को गाली दो और पाक-साफ हो जाओ

पंकज नारायण ♦ पत्रकारों द्वारा आयोजित और संपन्न इस कार्यक्रम में बदलाव की दिशा में विकल्पों से जुड़ी रचनात्मकता और उसकी धार की शक्ति को लेकर कुछ बातें हो सकती थी और पूंजीवाद की जगह इसे स्थापित करने के रास्ते ढूंढे जा सकते थे। लेकिन ऐसे कई सवाल वहां नहीं उठे, जबकि वो सवाल सीधे पत्रकारों या विकल्पों से जुड़े थे। हमने उन मुद्दों पर बात की, जिसका हम कुछ नहीं कर सकते। सिर्फ उसको घटित होते हुए अपने सामने देख सकते हैं और कभी-कभार अपने भीतर के आदमी को डोज देने के लिए खुद को गलिया सकते हैं। सवालों का जिंदा रहना जरूरी है, लेकिन कुछ इस तरह जहां कुछ बूढ़े सवाल मरें और नये सवाल पैदा हों। वह बहस अधूरी है, जो समस्या को महिमामंडित करके हमें उसकी शरण में ले जाती है।

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[15 Jul 2010 | 18 Comments | ]
हंस की गोष्‍ठी नहीं भी होगी तो क्‍या फर्क पड़ जाएगा

अविनाश ♦ कहीं जाकर या नहीं जाकर, किसी को सुन कर या नहीं सुन कर हम अपनी प्रतिबद्धताएं, अपने आचरण की शुद्धता साबित कर सकते हैं – लेकिन इस सबूत से कुछ फर्क नहीं पड़ता। मैं अभी भी इस बात पर कायम हूं कि अरुंधती मान जाएं और विश्‍वरंजन छत्तीसगढ़ से चल कर हंस की गोष्‍ठी में आ जाएं तो पूरे आंदोलनी हिलोर का एक नया संदेश प्रसारित किया जा सकता है। विश्‍वरंजन को घेर कर, उनको सामने खड़ा करके हत्‍यारा बता कर, उनके सामने उनका पुतला जला कर, उन्‍हें जूतों की माला पहना कर। और ऐसा करते हुए अगर उस वक्‍त तमाम बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी हो जाती है – तो इस भारतीय स्‍टेट को एक्‍सपोज करने का कितना आसान अवसर आपके पास है, ये आप ही तय कीजिए।

मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली, मोहल्‍ला लाइव »

[15 Jul 2010 | 7 Comments | ]

मोहल्‍ला लाइव ♦ क्‍या मीडिया एक धंधा है और मालिकों के हित साधन की तरह है और इसके सिवा उसकी जो भी छवि है, क्‍या वह सिर्फ खामखयाली है – इस पर बात होनी बहुत जरूरी है। हमारी बहसतलब का इस बार का मुद्दा यही है।

नज़रिया, शब्‍द संगत »

[9 Jul 2010 | 48 Comments | ]
यह कौन बोल रहा है? तोगड़िया या ठाकुर नामवर सिंह?

दिलीप मंडल ♦ इन तमाम बयानों के बीच ही हमने नामवर सिंह, माफ कीजिएगा ठाकुर नामवर सिंह के बयान भी देखे। ठाकुर नामवर सिंह इन दिनों शानदार संगत में हैं। वे एक ऐसे आंदोलन से जुड़ गये हैं, जहां उनके साथ मंच पर प्रवीण तोगड़िया, मोहन भागवत, मुरलीमनोहर जोशी, सीआईआई से जुड़े उद्योगपति और सबड़े बड़े पूंजीपति खड़े हैं। सोमनाथ चट्टोपाध्याय का समर्थन भी उन्हें मिल गया है। इस मंच से ठाकुर नामवर सिंह हिंदुस्तान के साहित्यकारों को उनकी ऐतिहासिक भूमिका की याद दिला रहे हैं। तो योद्धाओ, तैयार हो जाओ। रणभूमि पुकार रही है। साहित्‍यकार आगे आएं और "संतों के साथ" मिलकर जाति गणना के "दुष्चक्र को तोड़ें" और ठाकुर नामवर के सपनों को पूरा करें।

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[5 Jul 2010 | 7 Comments | ]
अंग्रेजी मीडिया के कुएं में भांग पड़ी है!

दिलीप मंडल ♦ शाहूजी महाराज के कार्यों और उपलब्धियों के बारे में स्कूल में पढ़ायी जाने वाली किताबें में कितना कुछ लिखा है, यह शोध का विषय है। अगर स्कूलों में शाहूजी महाराज के बारे में पढ़ाया जाता है, तो इंग्लिश के अखबारों और वेबसाइट के पत्रकारों ने जो किया है, वह अक्षम्य है। और यदि स्कूल की किताबों में शाहूजी महाराज के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है या नाम मात्र का लिखा है, तो इतिहास की किताबों के पुनर्लेखन की जरूरत है। देश के सबसे प्रतिष्ठित और नामी अखबार और उनकी साइट अगर शिवाजी के वंशज को दलित नेता या दलित प्रतीक (dalit icon) कहें तो इसे मामूली भूल कैसे कहा जा सकता है। वैसे भी भारत में किसी दलित के महाराजा होने की कल्पना कर पाने के लिए ढेर सारी कल्पनाशीलता की जरूरत होगी।

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[5 Jul 2010 | 12 Comments | ]
समाज बदलता है, तो फिल्में भी बदलती हैं अनुराग

दिलीप मंडल ♦ प्रधानमंत्री पिछले छह साल से कह रहे हैं कि वामपंथी उग्रवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन देश के सामने जो सबसे बड़ा सवाल है, उस पर हमारी फिल्में पक्ष या विपक्ष में क्या बोलती हैं। बोलती भी हैं या चुप रहती हैं? 9/11 की थीम के आसपास भारत में न्यूयॉर्क और माई नेम इज खान जैसी फिल्में बनती हैं, लेकिन भारतीय सवालों पर चुप्पी क्यों है? गुजरात दंगों पर फिल्म बनाने के लिए केंद्र में कांग्रेस की सरकार के आने का इंतजार क्यों होता है? औद्योगीकरण, मूलनिवासियों के विस्थापन और विकास के सवालों पर जेम्स कैमरोन अवतार जैसी फिल्म बनाते हैं और पैसे भी कमाते हैं। भारत में फिल्मों के लिए यह वर्जित विषय क्यों है? यह आप भी मानेंगे कि भारतीय समाज और सिनेमा की बहस में तो अभी सवाल भी ढंग से फ्रेम नहीं हुए हैं।

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[22 Jun 2010 | 27 Comments | ]
हमारी फिल्‍मों के दलित चरित्र इतने निरीह क्‍यों हैं?

शीबा असलम फहमी ♦ हमारी फिल्मों में तो कल्पना भी नहीं की जाती एक 'कम-जात' के प्रतिभावान होने की! अगर इसके बर-अक्स आप को कोई ऐसी फिल्म याद आ रही हो, तो मेरी जानकारी में इजाफा कीजिएगा… हां खुदा न खासता अगर कोई प्रतिभा होगी तो तय-शुदा तौर पर अंत में वो कुलीन परिवार के बिछड़े हुए ही में होगी। 'सुजाता' याद है आपको? कितनी अच्छी फिल्म थी। बिलकुल पंडित नेहरु के जाति-सौहार्द को साकार करती! अछूत-दलित कन्या 'सुजाता' को किस आधार पर स्वीकार किया जाता है, और उसे शरण देनेवाला ब्राह्मण परिवार किस तरह अपने आत्म-द्वंद्व से मुक्ति पाता है? वहां भी उसकी औकात-जात का वर ढूंढ कर जब लाया जाता है, तो वह व्यभिचारी, शराबी और दुहाजू ही होता है, और कमसिन सुजाता का जोड़ बिठाते हुए, अविचलित माताजी के अनुसार 'इन लोगों में यही होता है'।

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[21 Jun 2010 | 54 Comments | ]
प्रतिभा अवसर के अलावा कुछ नहीं है, अनुराग!

दिलीप मंडल ♦ प्रतिभा अवसर के अलावा कुछ नहीं है। अमर्त्य सेन को बचपन में पलामू या मिर्जापुर या कूचबिहार के किसी गांव के स्कूल में पढ़ते हुए सोचिए। प्रतिभा के बारे में सारे भ्रम दूर हो जाएंगे। जब भारत के हर समुदाय और तबके से प्रतिभाएं सामने आएंगी, तभी यह देश आगे बढ़ सकता है। चंद समुदायों और व्यक्तियों का संसाधनों और प्रतिभा पर जब तक एकाधिकार बना रहेगा, जब तक इस देश में सबसे ज्यादा अंधे रहेंगे, सबसे ज्यादा अशिक्षित रहेंगे, सबसे ज्यादा कुपोषित होंगे और आपकी सोने की चिड़िया का यूएन के वर्ल्ड ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में स्थान 134वां या ऐसा ही कुछ बना रहेगा। प्रश्न सिर्फ इस बात का है कि क्या एक सचेत व्यक्ति के तौर पर हम यह सब होते देख पा रहे हैं।

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[19 Jul 2010 | 4 Comments | ]
प्रभाष परंपरा न्‍यास पर बेवजह विधवा विलाप बंद कीजिए

क्‍या है पीपली लाइव

[18 Jul 2010 | Read Comments | ]

आमिर खान ♦ यह फिल्‍म एक मजाकिया नजर है, हमारी सोसायटी पर, हमारे समाज पर, हमारे एस्‍टैबलिशमेंट पर, मीडिया या सिविल सोसायटी पर…

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सुलभ का कथापाठ

[18 Jul 2010 | Read Comments | ]

डेस्‍क ♦ हर पांच मिनट पर हवाई जहाज के शोर के बीच सुलभ जी ने किस्‍सागो शैली में अपने नये संग्रह बसंत के हत्‍यारे में इसी शीर्षक से संग्रहित कहानी का पाठ किया।

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संजय तिवारी ♦ जिन अंबरीश कुमार ने उनके पार्थिव शरीर को देखने तक की जहमत नहीं उठायी वे उस अशोक गादिया पर कैसे सवाल उठा सकते हैं, जो पूरी रात प्रभाषजी की पार्थिव होती देह के साथ अस्पतालों के चक्कर लगाते रहे?
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[19 Jul 2010 | 5 Comments | ]
आज भी सिर्फ दस जातियां राज करती हैं…

श्रीकांत ♦ बीस साल में क्या बदला? 10 जातियां केवल हैं, जो स्टेट पावर पर काबिज होती हैं। जो राज करती हैं। आप किसी भी पार्टी में उठा कर देख लीजिए। अभी वीरेंद्र यादव ने 243 विधायकों की जाति की सूची निकाली है। सिर्फ 10 जातियां! पिछले 50 सालों में इस स्टेट में यही राज कर रही हैं। गरीबों की हालत है कि वे जहां पहले थे, वहीं आज भी हैं। सिर्फ 'टेन परसेंट' लोगों का, जो 10 प्रतिशत रिच क्लास है, उनके पास धन-संपत्ति बढ़ती जा रही है। आपको आश्‍चर्य होगा कि बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में 278 रुपये आमदनी मासिक पर लोग गुजारा करते हैं। आप शहर में रह के 5-10 हजार की बात करते हैं, आप कल्पना कीजिए कि वो आदमी कैसे गुजारा करेगा?

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[18 Jul 2010 | 3 Comments | ]
कौन हैं प्रभाष परंपरा के असली वारिस… ये… या वो?

अंबरीश कुमार ♦ आज प्रभाष परंपरा के वाहक वे बहादुर पत्रकार भी हैं, जो धंधे में मालिक का काम होने के बाद मिठाई का डिब्बा लेकर माफिया डीपी यादव की चौखट पर शीश नवाते हैं और वे पत्रकार भी हैं, जो एक्सप्रेस प्रबंधन से साजिश कर प्रभाष जोशी को संपादक पद से हटवाते हैं। वे भी हैं, जो 1995 के दौर में प्रभाष जोशी को पानी पी पी कर कोसते थे और हमारे खिलाफ एक संघी संपादक के निर्देश पर चुनाव भी लड़े और हारे भी। जिन ताकतों को हमने कई बार हराया वे सभी अब प्रभाष परंपरा वाले हो गये है। न्यास में बाकी धंधेबाज लोगों की सूची देखकर उत्तर प्रदेश के किसी पुराने पत्रकार से बात कर ले, ट्रांसफर-पोस्टिंग से करोड़ों का वारा-न्यारा करने वालों का भी पता चल जाएगा।

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[17 Jul 2010 | 4 Comments | ]
बिहार के मीडिया का एक चेहरा देखें और समझें

संजय कुमार ♦ बिहार से प्रकाशित सभी अखबारों ने पहले पेज पर जगह दी। लेकिन बिहार के मीडिया का चेहरा एक बार फिर साफ हो गया कि आखिर उसकी सोच क्या है? यानी किसका मीडिया, कैसा मीडिया और किसके लिए? प्रश्न सामने आ ही गया। लोग भी चौंके। क्विंस बैटन रिले खबर तो बनी। अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू समाचार पत्रों ने क्विंस बैटन रिले की खबर तस्वीर मुख्यपृष्ठ पर तस्वीर के साथ प्रकाशित की। लेकिन बैटन के साथ कोई खिलाड़ी नजर नहीं आया। नजर आयी जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री नीतू चंद्रा। राज्यपाल के साथ बैटन थामे नीतू की तस्वीर ने मीडिया की सोच को सामने ला दिया।

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[17 Jul 2010 | 14 Comments | ]
देहांत के बाद पहला जन्‍मदिन, बड़ा कार्यक्रम, भारी भीड़

विवेक वाजपेयी ♦ किसी को कभी भी याद किया जा सकता है। लेकिन हम बात खास उस जगह की कर रहे हैं, जहां पर प्रभाष जी को याद करने के लिए ही लोग एकत्रित हुए थे। जगह थी दिल्ली में बापू की समाधि राजघाट के ठीक सामने स्थित गांधी स्मृति के सत्याग्रह मंडप का। जहां पर प्रभाष परंपरा न्यास की ओर से स्वर्गीय प्रभाष जी के जन्मदिन के मौके पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में लोगों का हुजूम उमड़ा हुआ था। हर वर्ग के लोग मौजूद थे। वयोवृद्ध गांधीवादी लोगों से लेकर आज की युवा पीढ़ी तक। मीडिया के सब नामी-नये चेहरे। साथ ही प्रबुद्ध साहित्यकार और प्रसिद्ध आलोचक भी, जिनमें अशोक वाजपेयी और नामवर सिंह को मैं भली-भांति जान सका।

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[16 Jul 2010 | 5 Comments | ]
जनपक्ष की चिंता है, तो वैकल्पिक मीडिया ही अंतिम उपाय

डेस्‍क ♦ मीडिया का ओनरशिप कैरेक्‍टर समझे बिना पत्रकारिता और उसकी सीमाओं को समझना मुश्किल होगा। जिस मीडिया को करोड़ों रुपये मैनेज करना होता है, वो देश की चिंता क्‍यों करेगा? बहसतलब तीन में पत्रकार दिलीप मंडल ने मीडिया का पूरा सीनैरियो समझाते हुए कहा कि पत्रकार कितना भी ईमानदार हो जाए, ओनरशिप स्‍ट्रक्‍चर की वजह से वो प्रोपीपुल नहीं हो सकता। दिलीप मंडल ने सकाल के एमडी की एक बात कोट की कि मैं खबर और विचार पाठकों को बेचता हूं और अपने पाठक विज्ञापनदाताओं को दे देता हूं। उन्‍होंने मीडिया बिजनेस का ऐसा नक्‍शा रखा, जिससे साफ हुआ कि मीडिया में देश की साफ छवियों को देखने की मांग करने वाली तमाम बहसों से कभी कुछ हो नहीं सकता।

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[16 Jul 2010 | 4 Comments | ]
मीडिया पर जमकर हुई बहसतलब, कई सीन साफ हुए

विनीत कुमार ♦ बाजार का मीडिया और जैसा बाजार चाहे, वैसा मीडिया। बाजार का कोई सपना नहीं होता, बाजार मुनाफे से चलता है और वो किसी का नहीं होता। बाजार मीडिया को पूरी तरह नियंत्रित कर रहा है। बहसतलब 3 में "किसका मीडिया कैसा मीडिया" बहस का जो मुद्दा रखा गया, इस पर बात करते हुए मणिमाला की ये लाइन पूरी बहस के बीच सबसे ज्यादा असरदार रही। ये वो लाइन है, जिसके वक्ताओं के बदल जाने के वाबजूद बहस का एक बड़ा हिस्सा इसके आगे-पीछे चक्कर काटते हैं। इस लाइन को आप पूरी बहस के निष्कर्ष के तौर पर भी देख सकते हैं या फिर बहस का वो सिरा, जिसे लेकर सूत्रधार सहित कुल चारों वक्ता सहमत नजर आये। मीडिया को बाजार का हिस्सा मानने से हमारे कई भ्रम दूर होते हैं।

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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