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Thursday, July 29, 2010

Fwd: बुंदेलखंड संकट पर एक रिपोर्ट



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/7/29
Subject: बुंदेलखंड संकट पर एक रिपोर्ट
To: abhinav.upadhyaya@gmail.com


पिछले एक दशक से अधिक समय से बुंदेलखंड लगातार सूखा झेल रहा है. 2008 को छोड़कर जब इस इलाके में पर्याप्त बारिश हो गई थी, इस दौरान यहां औसत से बहुत कम बारिश हुई है. महोबा जैसे जिले  में तो 2008 में औसत से 66  प्रतिशत कम बारिश हुई थी. सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए. एेसे में, जब इलाके की 80 फीसदी आबादी खेती और पशुपालन से होने वाली आय पर निर्भर है, खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं.

सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही. सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है. गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में नेशनल रेनफेड एरियाज अथॉरिटी के जेएस सामरा के नेतृत्व में एक केंद्रीय टीम गठित की थी. 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के अनुसार 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 वर्ष सूखा पड़ा था. यानी इस अवधि में सूखा पड़ने का औसत हर 16 वर्ष में एक बार का था. लेकिन 1968 से लेकर पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में औसतन पांच साल में एक बार सूखा पड़ने लगा. और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है.

पूरी रिपोर्ट पढ़िएः http://www.tehelkahindi.com/indinon/national/635.html



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Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]

मुखपृष्ठ | इन दिनों | राष्ट्रीय | बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड - 1

बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड - 1

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अपनी वीरता और जुझारूपन के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड में कई सालों के सूखे, इसके चलते पैदा कृषि संकट और इनसे निपटने की योजनाओं में भ्रष्टाचार ने पलायन और आत्महत्याओं की एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म दे डाला है. तसवीरें और रिपोर्ट रेयाज उल हक

बुंदेलखंड को मिले 3,506 करोड़ रुपए के पैकेज से महोबा जिले के पवा गांव की रामकली को समय पर और नियमित रूप से राशन मिल जाने की कम ही संभावना है. उतनी ही कम संभावना इस बात की भी है कि उन्हें और उनके तीन बेटों और एक बहू के पांच सदस्यों वाले परिवार को साल में 100 दिनों का सुनिश्चित रोजगार मिल जाएगा. और इस बात की संभावना तो बिल्कुल ही नहीं है कि उनके परिवार के ऊपर चढ़ चुके एक लाख रुपए के कर्ज का बोझ इस पैकेज से कम हो जाएगा. बेशक, इस पैकेज से उनके पति के लौट आने की भी कोई उम्मीद नहीं है.

रामकली के पति कहीं गए नहीं हैं. 22 जनवरी की शाम को पास ही बन रही नाली का काम करके लौटने के बाद वे जेब में रोटियां रखकर कहीं चले गए थे. रात गहराने के बाद भी जब वे नहीं लौटे तो रामकली ने अपने बेटों और रिश्तेदारों के साथ उनकी तलाश शुरू की. उन्हें सुंदरलाल को खोजने में बहुत परेशानी नहीं हुई. गांव के पास ही एक पेड़ पर लटकती उनकी लाश मिल गई थी. सुंदरलाल ने खुद को फांसी लगा ली थी.

सुंदरलाल की आत्महत्या की कई सारी और एक-दूसरे में बुरी तरह उलझी हुई वजहें हैं. उनकी मौत के पीछे गरीबी, सूखा, इससे निपटने में सरकार की नाकामी, लोगों को राहत देने के लिए चलाई जा रही योजनाओं में भ्रष्टाचार और पंचायती राज के लुभावने चेहरे के पीछे छिपे सामंती समाज के क्रूर चेहरे की मिली-जुली कहानी है. इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. जिस समय सुंदरलाल ने आत्महत्या करने के अपने फैसले पर अमल किया, उस समय उनके िसर पर लगभग एक लाख रुपए का कर्ज था, जिसे उन्होंने अपनी बेटी की शादी तथा अपने बेटों और बहू की बीमारी के इलाज के लिए गांव के कई लोगों से लिया था. सुंदरलाल एक ऐसे गांव में रहते थे जहां न इलाज के लिए कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र है और न ही कोई ढंग का डॉक्टर. उनके पास राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के तहत एक जॉब कार्ड था, जिसपर अंतिम बार काम 2007 में दिया गया था - पिछले चार वर्षों में कुल मिलाकर 65 दिनों का काम, और मजदूरी के रूप में 3,500 रुपए. जाहिर है, यह राशि छह लोगों के परिवार का 4 साल तो क्या छह महीने पेट भरने के लिए भी काफी नहीं थी. उनके राशन कार्ड पर पिछले दस में से तीन महीने गांव के कोटेदार ने राशन नहीं दिया था. जाहिर है कि उनकी समस्याओं को मीडिया के मायावती बनाम राहुल गांधी समीकरण की मदद से नहीं समझा जा सकता. सुंदरलाल की यह कहानी पूरे बुंदेलखंड की 2 करोड़ 10 लाख की आबादी की कहानी से कमोबेश मिलती-जुलती है. इसलिए उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश समूचे बुंदेलखंड की समस्याओं को समझने सरीखी है.

99.8% किसानों को 2009 में खरीफ की फसल पर नुकसान उठाना पड़ा. इनमें से 74 प्रतिशत को 50 से 100 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ा. 33 प्रतिशत लोगों को कोई सहायता नहीं मिली

सुंदरलाल का चार भाइयों का परिवार जितना आज बिखरा हुआ है उतना तब भी नहीं बिखरा था. जब उनके पिता शिवदयाल कोरी 1992 में कारसेवा के लिए अयोध्या जाने के बाद फिर कभी नहीं लौटे थे. कुछ समय बाद सभी भाइयों ने आपस में जमीन बांट ली और खेती करने लगे. अभी एक दशक पहले तक उनके साथ कोई समस्या नहीं थी. उनकी जमीन पर इतनी दाल और गेहूं हो जाती थी कि काम चल जाता था. हालांकि मजदूरी तब भी करनी पड़ती थी, लेकिन वह गांव में ही मिल जाती थी. समस्या तब शुरू हुई जब दस साल पहले बारिश ने धोखा देना शुरू किया. इससे पानी की कमी होने लगी. कुएं सूखने लगे और डीजल इंजन वाले पंप सेट से सिंचाई करने की हैसियत गांव के अधिकतर लोगों की नहीं थी. इसका सीधा असर खेती पर पड़ा और धीरे-धीरे खेतों की बुवाई कम होती गई. जमीन परती रहने के कारण गांव में काम मिलना बंद हो गया तो भुखमरी से बचने के लिए सुंदरलाल को गांव छोड़ना पड़ा. वे अब कानपुर के ईंट भट्ठों पर काम करने आ गए.

ईंट भट्ठे पर दो लोगों को एक दिन में 1,200 ईंटें बनाने पर मजदूरी मिलती थी 240 रुपए. इस कमाई से पेट तो भर जाता था लेकिन परिवार चलाने के लिए सिर्फ पेट भरना ही काफी नहीं होता. घर में दूसरी जरूरतें भी पड़ती हैं. शादियां और बीमारी उन वजहों में सबसे ऊपर हैं जिनमें सबसे अधिक खर्च होता है. सुंदरलाल की एक बेटी है और तीन बेटे. सात साल पहले जब खरेला में उन्होंने अपनी बेटी की शादी की तब सूखे का तीसरा साल था. उन्हें कर्ज लेना पड़ा था. वह तो किसी तरह चुक गया, लेकिन असली संकट तब सामने आया जब उनका छोटा बेटा बीमार पड़ा.

करण की उम्र 15 के आसपास है. लगभग एक साल पहले उसके बीमार पड़ने पर सुंदरलाल उसका इलाज कराने ग्वालियर और फिर झांसी लेकर गए. वे इस बीमारी से परिचित थे. यह उनके दोनों बड़े बेटों को भी हो चुकी थी. लेकिन झांसी के डॉक्टर करण को ठीक नहीं कर पाए. तब तक सुंदरलाल के िसर पर एक लाख रुपए का कर्ज चढ़ चुका था. आखिरकार वे करण को लेकर एक बाबा की शरण में गए.

करण की बीमारी अब कुछ ठीक है, लेकिन सुंदर अब इस दुनिया में नहीं हैं.

सुंदरलाल के भाई कल्लू उनके अंतिम दिनों को याद करते हुए बताते हैं, 'वे हमेशा रोते रहते थे. बोलते थे कि पैसा बहुत खर्च हो गया. उन्हें टेंशन बहुत रहती थी.'

सुंदरलाल के लिए ये दिन बहुत यातनामय रहे थे. सूखे के कारण अपने हिस्से की डेढ़ बीघा जमीन में वे कुछ बो नहीं पा रहे थे. उनकी आय का एकमात्र जरिया दिहाड़ी मजदूरी था, जिसका कोई भरोसा नहीं था. गांव के दूसरे 75 प्रतिशत लोगों की ही तरह सुंदरलाल अब कर्ज के उसी जाल में फंस चुके थे जो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता.

अपने घर के सूनेपन की आदत डालने की कोशिश करते हुए रामकली बुदबुदाती हैं, 'सूखे और कर्ज ने उनकी जान ले ली. अगर बारिश हो रही होती तो शायद वे इतने निराश नहीं हुए होते. तब काम मिलने की उम्मीद थी. हमने पहले भी कर्ज चुकाए थे.'

कर्ज एक तरह से गांव के लोगों के लिए जीने की शर्त बन गए हैं. लेकिन गांव के अधिकतर लोगों के पास इतनी जमीन नहीं है कि बैंक से आसानी से कर्ज मिल सके. इसके अलावा, अगर जमीन हो भी तो बैंकों की दौड़ लगाना और अधिकारियों को कमीशन देना सबके बस की बात नहीं. फिर बैंकों के साथ एक और समस्या है. उनसे आपको जब जरूरत हो तब और बार-बार कर्ज नहीं मिल सकता. एेसे में लोगों की आखिरी आशा गांव के महाजनों पर ही टिकी रहती है.

रामविशाल राजपूत रहते पवा में हैं, लेकिन वे पास ही के चितैयां गांव में स्थित प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं. वे गांव के उन लोगों में से एक हैं जिनसे सुंदरलाल ने कर्ज लिया था. किसी बाहरी व्यक्ति के सामने लोगों को कर्ज देने का राज खुल जाने के कारण वे थोड़ी झिझक में हैं और हमारे सवालों के जवाब देने के दौरान संभलने की कोशिश करते हैं, 'मैंने सुंदर को तीन हजार रुपए दिए थे, क्योंकि उसका एलआईसी में बीमा था और उसकी किश्त जमा करने लायक उसके पास पैसे नहीं थे.'

रामविशाल उस समय एक मीटिंग में थे जब उन्होंने सुंदरलाल की मौत की खबर सुनी. उन्हें दुख तो हुआ था, लेकिन शायद वे अकेले आदमी थे, जिन्हें इसकी आशंका पहले से थी. मौत से 6 दिन पहले हुई अपनी आखिरी भेंट में सुंदरलाल ने उनसे बैंक में जमा अपने रुपए के बारे में पूछा था. वे बताते हैं, 'सुंदर के बैंक खाते में 20 हजार रुपए थे. उसने पूछा था कि अगर उसने आत्महत्या कर ली तो उसके खाते में जमा रकम उसके परिवार को मिल पाएगी कि नहीं. वह बहुत परेशान था. उसका दिमाग खराब हो गया था. मैंने समझाया कि एेसा नहीं करना, नहीं तो पैसे डूब जाएंगे.'

रामविशाल एेसा जताते हैं कि उन्हें चिंता अपने पैसों के डूब जाने की नहीं, लोगों के बरबाद होने की अधिक है. वे जबर्दस्ती की मुस्कान के साथ कहते हैं, 'इन लोगों के करम ही ऐसे हैं कि ये हमेशा कर्ज में बने रहेंगे. ये जुआ खेलकर अपने पैसे बरबाद कर देते हैं और फिर शादी-ब्याह के लिए कर्ज में फंसते हैं.'

लेकिन जो सवाल हैं वे रामविशाल की चिंता से कहीं अधिक जटिल हैं. ये वे सवाल हैं जो बुंदेलखंड के सात जिलों के लाखों किसानों की जिंदगी से जुड़े हैं. यह उनकी खुशहाली और उनके सपनों से जुड़े सवाल हैं. इन सवालों का संबंध उन योजनाओं के औचित्य से है जो इन जिलों में सूखे से निपटने के नाम पर चलाई जा रही हैं. इन सवालों का संबंध उन पागलपन भरी नीतियों से भी है जो सूखे से हो रही भारी तबाही के बावजूद इसकी वजहों को और बढ़ावा दे रही हैं. इसका संबंध समाज की उस उत्पीड़क व्यवस्था से भी है जो पानी की कमी को कुछ समुदायों के लिए अधिक तकलीफदेह बना रही है. सबसे बढ़कर ये सवाल सरकार की कार्यप्रणाली और जनता की भलाई को लेकर उसकी मंशा से जुड़े हुए हैं. आने वाले पन्नों में हम इन सवालों को समझने और सुलझाने की कोशिश करेंगे. हम यह भी देखने की कोशिश करेंगे कि जिस व्यवस्था पर अपनी योजनाओं के जरिए बुंदेलखंड को मिले पैकेज से लोगों को राहत दिलाने का जिम्मा है वह उसके साथ कैसे पेश आती है जो उसका लाभ उठाना चाहता है.

5000 किसानों ने पांच साल में बुंदेलखंड में आत्महत्या की है. अधिकतर मामलों की वजह किसानों द्वारा कर्ज न चुका पाना है. बांदा में 80 से अधिक और महोबा में 62 आत्महत्याओं के मामले

हमारी कहानी में जो शब्द बार-बार आएगा वह है बुंदेलखंड. लेकिन यह महज एक शब्द नहीं है. यह मध्य भारत के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में फैला एक विशाल पठारी इलाका है, जो लगभग श्रीलंका के बराबर है. यहां करीब 70 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में 2 करोड़ 10 लाख की आबादी रहती है. उत्तर प्रदेश में इसके सात और मध्य प्रदेश में छह जिले आते हैं. जो जिले उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में पड़ते हैं वे हैं- झांसी, महोबा, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर और ललितपुर. बुंदेलखंड का जितना हिस्सा उत्तर प्रदेश में है उसमें दिल्ली जैसे 20 शहर समा सकते हैं. 

बुंदेल, चंदेल, छत्रसाल और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई जैसे शासकों के कारण मशहूर रहा यह इलाका अब भी आल्हा-ऊदल की यादों में जीता है. महोबा के चंदेल राजा परमाल के दरबार के इन दो योद्धाओं को महोबा ही नहीं, बुंदेलखंड के किसी भी शहर और कस्बे में निकल जाइए, आप एक मिनट के लिए भी भूल नहीं सकते. चौराहों और इमारतों पर उनकी वीरता के किस्से बताती प्रतिमाएं और प्रतीक चिह्न मिलेंगे. बाहर से आए किसी आदमी से बात करते हुए यहां के लोग आल्हा-ऊदल का जिक्र जरूर करते हैं.

अब इसमें एक चीज और जुड़ गई है - सूखा.

पिछले एक दशक से अधिक समय से बुंदेलखंड लगातार सूखा झेल रहा है. 2008 को छोड़कर जब इस इलाके में पर्याप्त बारिश हो गई थी, इस दौरान यहां औसत से बहुत कम बारिश हुई है. महोबा जैसे जिले  में तो 2008 में औसत से 66  प्रतिशत कम बारिश हुई थी. सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए. एेसे में, जब इलाके की 80 फीसदी आबादी खेती और पशुपालन से होने वाली आय पर निर्भर है, खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं.

सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही. सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है. गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में नेशनल रेनफेड एरियाज अथॉरिटी के जेएस सामरा के नेतृत्व में एक केंद्रीय टीम गठित की थी. 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के अनुसार 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 वर्ष सूखा पड़ा था. यानी इस अवधि में सूखा पड़ने का औसत हर 16 वर्ष में एक बार का था. लेकिन 1968 से लेकर पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में औसतन पांच साल में एक बार सूखा पड़ने लगा. और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है.

सूखे के लंबे इतिहास को देखते हुए यहां कुछ दशक पहले तक तालाबों, कुओं और हौजों का जाल बिछा हुआ था. पानी के ये पारंपरिक स्रोत दो तरह से काम करते थे. एक तो इनसे साल भर पानी मिलता था, दूसरे बारिश का पानी इनके जरिए भूमिगत जल को बढ़ाता था. लेकिन पिछली आधी सदी से भी अधिक समय से इन ढांचों पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, जिसने इस पूरे तंत्र को ध्वस्त कर दिया. स्थानीय जरूरतों पर ध्यान नहीं दिया गया और आंख मूंदकर नई तकनीक को अपनाया गया.

ललितपुर जिले में इस विडंबना का सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिलता है. यहां छोटे-बड़े कुल सात बांध और पांच निर्माणाधीन बांधों के चलते यह जिला एशिया का वह इलाका है जहां बांधों की सघनता सबसे ज्यादा है. बावजूद इसके यहां कृषियोग्य भूमि का एक छोटा-सा हिस्सा ही सिंचित हो पाता है. राजस्व विभाग के आंकड़े बताते हैं कि जिले में पिछले साल कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में से सिर्फ 27 हजार हेक्टेयर भूमि को ही इन बांधों से पानी मिल पाया था. 

महोबा के इतिहास पर किताब लिखने वाले बुजुर्ग समाजसेवी वासुदेव चौरसिया पुराने दिनों को याद करते हैं, 'पहले पानी की कमी होने पर लोग कुआं खोदते थे. यह पानी के उचित इस्तेमाल और फिर से रिचार्ज करने के नियम पर काम करता था. लेकिन अब झट से एक हैंडपंप लगा दिया जाता है.'

अकेले महोबा शहर में ही बासुदेव चौरसिया की बात को सही ठहराने के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे. एेसे अनेक कुएं हैं जो पहले पानी के अच्छे स्रोत हुआ करते थे, लेकिन अब उनके पास हैंड पंप लगा दिए जाने के कारण वे सूख गए हैं. महोबा शहर को मदन सागर जैसे तालाबों के अलावा मदनौ और सदनौ दो कुओं से पानी मिला करता था. मदनौ कुआं अब ढक दिया गया है और सदनौ कुएं पर अतिक्रमण करके घर बना लिया गया है.

मदन सागर महोबा शहर के एक छोर पर स्थित है. यह शहर के किनारों पर बने और आपस में नहरों के जरिए जुड़े चार तालाबों में से सबसे बड़ा है, जिसपर यह शहर पीने के पानी के लिए पिछले 900 साल से निर्भर था. यह तालाब अपने इतिहास में कभी नहीं सूखा, लेकिन 2007 में वह भी सूख गया. पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए तालाब में एक नहर के जरिए मध्य प्रदेश के उर्मिल बांध से पानी लाया जाता है, पर इस साल उर्मिल बांध भी सूख गया है.

यही हाल कीरत सागर तथा दूसरे सागरों का भी है. उनको आपस में जोड़ने वाली नहरें कूड़े से भरी हुई हैं, इसलिए बाहर के पानी के तालाबों में आने की संभावना कम ही है. केवल उनके पेंदे में थोड़ा-बहुत पानी बचा रह गया है, जिससे शहर के लोगों को पानी की आपूर्ति हो रही है. अगर बारिश नहीं हुई तो कुछ दिनों में यह पानी भी खत्म हो जाएगा. तब शहर के लोगों को सिर्फ टैंकरों का आसरा रह जाएगा.

सरकारी टैंकरों की संख्या पर्याप्त नहीं होती और लोग प्रायः निजी टैंकरों पर निर्भर रहते हैं, जो महंगे पड़ते हैं. इनपरप्रतिमाह करीब 1,000-1,200 रुपए खर्च करने पड़ते हैं. यह रकम आधिकारिक गरीबी रेखा के चार गुणा से थोड़ा ही कम है. जाहिर है, बहुसंख्यक आबादी के लिए टैंकर का पानी भी दुर्लभ है.

जब शहरों का यह हाल है तो गांवों में तो स्थिति और भी भयावह है. जालौन स्थित परमार्थ समाज सेवी संस्थान द्वारा लगभग 2 साल पहले जालौनबांदा, महोबा, हमीरपुर, ललितपुर, झांसी और चित्रकूट के 119 गांवों में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इनमें से सिर्फ 7 प्रतिशत (आठ गांवों) में साल भर पीने का पानी रहता है, जबकि 74 गांवों में सिर्फ एक महीने पीने का पानी मिलता है. पानी के लिए महिलाओं को घंटों पैदल चल कर जाना होता है. इसके अलावा गांवों के सामंती ढांचे के कारण सूखे से दलितों और दूसरी नीची जातियों के लिए संकट और बढ़ गया है.

58% कर्ज निजी स्रोतों से लिए जाते हैं जिनमें सूदखोर भी शामिल हैं. किसानों पर 1 अरब 25 करोड़ 47 लाख रुपए का सरकारी कर्ज भी है. सहकारी समितियों ने भी एक अरब रु से अधिक का कर्ज दिया

एेसा नहीं है कि सरकार ने पेयजल पर खर्च नहीं किया है. 2008 में आई वाटरएड इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार ने बुंदेलखंड में लोगों को पीने का पानी मुहैया कराने और मिट्टी के संरक्षण के लिए 2002 से 2007 के बीच 29,2.50 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. लेकिन ठीक इसी अवधि में पीने के पानी का संकट भी बढ़ा है. हम इसे उक्त रिपोर्ट में ही देख सकते हैं. उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड  के 7 जिलों के 60 गांवों में चर्च्स ऑक्जिलियरी फॉर सोशल एक्शन (कासा) तथा जनकेंद्रित विकास मंच द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक आधे से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं या बेकार पड़े हैं. इसके आंकड़ों के अनुसार 486 कुओं, 56 तालाबों में से क्रमशः 266 कुएं, 29 तालाब बेकार पड़े हुए हैं. बारिश के न होने के अलावा एक बड़ा कारण इनकी मरम्मत का न होना है.

अगर हम इस आंकड़े में कुछ और तथ्यों को जोड़ दें तो यह हमें पानी के अभाव से जुड़ी दूसरी सबसे बड़ी समस्या की ओर ले जाएगा. उक्त सर्वेक्षण हमें यह भी बताता है कि इन इलाकों की 6 नदियों और 26 नालों में से 4 नदियां और 25 नाले सूखे और बेकार पड़े हैं या उनपर अतिक्रमण हो चुका है. इस बीच सरकारी खर्च कई गुणा बढ़ा है, पर हालात और खराब हुए हैं. इसलिए आज बुंदेलखंड में पेयजल के बाद दूसरी सबसे बड़ी समस्या सिंचाई के पानी की है.

ललितपुर का उदाहरण हमारे सामने है ही और यदि महोबा के अर्जुन सागर बांध की हालत भी देख ली जाए तो यह साफ हो जाता है कि सरकार पैसा चाहे कितना भी खर्च करे लेकिन किसानों की वास्तविक समस्या हल हो ही यह कतई जरूरी नहीं है. यह बांध 1950 के दशक में बना था और इससे कुल 26,551 हेक्टेयर इलाके की सिंचाई हो सकती है. अप्रैल से पहले इसके फाटकों में ग्रीजिंग हो जानी चाहिए थी ताकि जब बारिश हो और पानी आए तो कोई दिक्कत न हो. लेकिन देखने से लगता है कि इसके फाटकों को वर्षों से किसी ने छुआ तक नहीं है. फाटकों और दूसरे उपकरणों में जगह-जगह जंग लगी हुई है और उन्हें देखकर ही समझ आ जाता है कि एक लंबे समय से इसकी ओर कोई सरकारी कर्मचारी फटका भी नहीं है. वैसे भी, पानी की कमी के कारण पिछले साल बांध से एक एकड़ खेत की भी सिंचाई नहीं हो सकी थी. बांध इस हद तक खाली रहता है कि इसके भीतर लोगों ने खेत बना लिए हैं. कमोबेश यही हाल दूसरी योजनाओं का भी है.

आगे की स्टोरी पढ़ने के लिए भाग दो पर जाएं.

बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड - 2

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अपनी वीरता और जुझारूपन के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड में कई सालों के सूखे, इसके चलते पैदा कृषि संकट और इनसे निपटने की योजनाओं में भ्रष्टाचार ने पलायन और आत्महत्याओं की एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म दे डाला है. तसवीरें और रिपोर्ट रेयाज उल हक

सही है कि पूरे बुंदेलखंड में लगभग 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं - या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं- लेकिन थोड़े-से रुपए खर्च करके उन्हें फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सकता है. मगर पंचायतों और अधिकारियों का सारा जोर नए कुएं-तालाब खुदवाने पर अधिक रहता है. एेसा इसलिए होता कि इनमें ठेकेदारों, जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों को फायदा होता है. पचपहरा के पूर्व प्रधान और महोबा के किसान नेता पृथ्वी सिंह इस प्रक्रिया को समझाते हैं, 'मान लीजिए कि लघु सिंचाई विभाग के पास पैसा आया और उसे यह खर्च करना है. तो वे पुराने कुओं की मरम्मत पर खर्च नहीं करेंगे, क्योंकि उसमें बहुत कम खर्च आएगा. वे एक नया कुआं खोदेंगे. इसमें तीन लाख रुपए की लागत आती है. विभाग का मानक अगर 20 फुट का है तो ठेकेदार 20 फुट गहरा कुआं खोद कर चले जाएंगे. उन्हें इससे मतलब नहीं है कि इतनी गहराई पर कुएं में पानी है भी कि नहीं.'

नतीजे सामने हैंः फसलें बरबाद हो रही हैं. किसान बदहाल हैं. परिवार उजड़ रहे हैं.  इसने इलाके के पुराने  गौरवों को भी अपनी चपेट में लिया है. कभी महोबा की एक पहचान यहां उगने वाले पान से भी थी. मगर दूसरी और वजहों के अलावा पानी की कमी के कारण आज शहर से जुड़ी पट्टी में इसकी खेती पूरी तरह से चौपट हो चुकी है और करीब 5 हजार परिवार  बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं.

यह बरबादी बहुआयामी है. अभी कुछ साल पहले तक महोबा के ही कछियनपुरवा गांव के 70 वर्षीय पंचा के पास सब-कुछ था. उनके चार बेटों और तीन बहुओं का परिवार अच्छी स्थिति में था. उनके 21 बीघा (करीब तीन एकड़) खेतों ने कभी साथ नहीं छोड़ा था. लेकिन पिछले दस साल में सब-कुछ बदल गया. पहले पानी बरसना कम हुआ, इसके बाद बारी आई फसलों के सूखने की. इतनी लंबी उमर में उन्होंने जो नहीं देखा था वह देखा- गांव के पास से गुजरती चंद्रावल नदी की एक नहरनुमा धारा सूख गई, लोगों के जानवर मरने लगे. घरों पर ताले लटकने लगे. अब तो उनकी बूढ़ी आंखों को किसी बात पर हैरत नहीं होती, पिछले साल 'कुआर' (अगस्त-सितंबर) में 16 बीघे में लगी अपनी उड़द की फसल के सूखने पर भी नहीं.

दो दिनों से आसमान में बादल आ-जा रहे हैं और धूप न होने का फायदा उठाते हुए वे अपने छप्पर की मरम्मत कर रहे हैं. उनकी उम्मीद बस अब अच्छे मौसम पर टिकी है. जितना उन्होंने देखा और समझा है उसमें पंचायत और सरकार से कोई उम्मीद नहीं रह गई है. वे बताते हैं, 'जब फसल सूखी तो हमें बताया गया कि सरकार इसका मुआवजा दे रही है. चार महीने चरखारी ब्लॉक के चक्कर लगाने के बाद मुझे दो हजार रुपए का चेक मिला. यह तो फसल बोने में लगी मेरी मेहनत जितना भी नहीं है. क्या 16 बीघे की उड़द को आप 20 दिनों की मेहनत में उपजा सकते हैं?'

आज उनका घर बिखर-सा गया है. उनके चारों बेटे पंजाब में रहते हैं. दो बहुएं घर छोड़कर किसी और के साथ जा चुकी हैं. उनकी जमीनें अब साल-साल भर परती पड़ी रहती हैं. 

हमारे आग्रह पर उनकी पत्नी बैनी बाई शर्माते हुए बारिश या सूखे से जुड़ा कोई गीत याद करने की कोशिश करती हैं, लेकिन शुरू करते ही उनकी सांस उखड़ने लगती है. सांस उखड़ने की यह बीमारी उन्हें लंबे समय से है, जिसका इलाज वे चार साल से सरकारी डॉक्टर के यहां करा रही हैं. उन्हें बारिश के साथ एक अच्छे (लेकिन सस्ते) डॉक्टर का भी इंतजार है जो इस बीमारी को ठीक कर दे. इसके बावजूद कि राशन के कोटेदार ने पिछले सवा दो साल में पंचा को सिर्फ एक बार 20 किलो गेहूं और 2 लीटर मिट्टी का तेल दिया है, और इस बात को भी आठ माह हो चुके हैं, वे पूरी विनम्रता से मुस्कुराते हैं. आप उनकी मुस्कान की वजहें नहीं जानते लेकिन उनमें छिपी एक गहरी पीड़ा को जरूर महसूस कर सकते हैं.

पंचा थोड़े अच्छे किसान माने जा सकते हैं क्योंकि उनके पास करीब तीन एकड़ खेत हैं. लेकिन बुंदेलखंड में एेसे लोगों की संख्या ज्यादा है, जिनके पास या तो बहुत कम जमीन है या वे भूमिहीन हैं. उनके पास दूसरों के खेतों में काम करने का विकल्प भी नहीं बचा है, क्योंकि खेती का सब जगह ऐसा ही हाल है. तब वे पलायन करते हैं और दिल्ली-लखनऊ जैसे शहरों के निर्माण कार्यों तथा कानपुर के ईंट-भट्ठों में जुट जाते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और पानी के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले और एक कालजयी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब लिखने वाले अनुपम मिश्र इस पर तंज स्वर में कहते हैं, 'अगर सूखे और अकाल की स्थितियां न होतीं तो राष्ट्रमंडल खेल कैसे होते भला!'

महोबा स्थित एक एनजीओ कृति शोध संस्थान की एक टीम ने जब इस साल फरवरी में जिले के आठ गांवों का दौरा किया तो पाया कि यहां के कुल 1,689 परिवारों में से 1,222 परिवार पलायन कर चुके हैं. इनमें से 269 घरों पर ताले लटके हुए थे जबकि 953 परिवारों के ज्यादातर सदस्य दूसरी जगह चले गए थे.

लोगों ने पलायन करने को नियम बना लिया है. वे जून-जुलाई में गांव लौटते हैं और इसके बाद फिर काम की अपनी जगहों पर लौट जाते हैं. उनके गांव आने की दो वजहें होती हैं. वे या तो किसी शादी में शामिल होने के लिए आते हैं या बारिश की उम्मीद में.

बिंद्रावन अभी एक हफ्ते पहले गांव से लौटे हैं. महोबा के खरेला थाना स्थित पाठा गांव के रहने वाले बिंद्रावन पूर्वी दिल्ली में रहते हैं, सीलमपुर के पास गोकुलपुरी के एक छोटे और संकरे-से दुमंजिले मकान की पहली मंजिल पर. उनकी पत्नी फिलहाल थोड़ी बीमार हैं, इसलिए वे थोड़े चिंतित दिख रहे हैं.

64% वन खत्म हो चुके हैं. बारिश की कमी के पीछे यह बड़ा कारण है. बुंदेलखंड के सातों जिलों में 10 करोड़ पौधे लगाने की योजना सरकार चला रही है, पर इसकी सफलता पर संदेह जताया जा रहा है

वे यहां पिछले 6 साल से हैं और दिल्ली नगर निगम के तहत राजमिस्त्री का काम करते हैं. इससे उन्हें रोज 225 रुपए मिलते हैं. उनकी पत्नी भी कभी-कभी काम करती हैं और उन्हें 140 रुपए मिल जाते हैं. दोनों मिला कर महीने में लगभग सात हजार रुपए कमा लेते हैं.

लेकिन उनके लिए इस आमदनी से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके खर्च का ब्योरा है. वे इस रकम से 1,300 रुपए कमरे और बिजली के किराए के रूप में दे देते हैं. 1,000 रुपए अपने बच्चों की फीस और किताबों पर खर्च होते हैं. 3,000 रुपए हर महीने वे राशन पर खर्च करते हैं. 1,000 रुपएहर माह जेल में बंद उनके एक रिश्तेदार पर खर्च हो जाते हैं. अगर कोई बीमार नहीं पड़ा-जिसकी संभावना कम ही होती है- तो वे महीने में 700 रुपए बचा सकते हैं.  

लेकिन यह आमदनी बहुत भरोसे की नहीं है. बारिश के दिनों में काम कई दिनों तक ठप रहता है. बिंद्रावन अपनी आय में कुछ और बचत कर सकते थे, अगर उन्हें राशन की सस्ते दर की दुकान से राशन मिलना संभव होता, दिल्ली में चलने पर गाड़ियों में कुछ कम पैसे देने होते, बीमारी के इलाज पर उन्हें हर महीने एक-दो हजार रुपए खर्च नहीं करने होते और सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी अच्छी होती कि उनमें भरोसे के साथ बच्चों कोे पढ़ाया जा सके. तब वे अपने पिता के सिर से कर्ज का बोझ उतारने में उनकी मदद कर सकते थे. बिंद्रावन ने 7 साल पहले जब गांव छोड़ा तो उनके पिता के ऊपर कर्ज था. उनके पिता पर आज भी कर्ज है, क्योंकि उन्हें अपने 6 बीघे खेतों से उम्मीद बची हुई है.

एक किसान आसानी से अपने खेतों से उम्मीद नहीं छोड़ता. तब भी नहीं जब दस साल से बारिश नहीं हो रही हो और लगातार कर्जे के जाल में फंसता जा रहा हो. लेकिन तब एेसा क्यों है कि उनका भरोसा चुकता जा रहा है?

सुंदरलाल का नाम उस सूची में 62वें स्थान पर है जिसे महोबा के एक किसान नेता और पचपहरा ग्राम के पूर्व प्रधान पृथ्वी सिंह ने 2008 में बनाना शुरू किया था. पिछले पांच सालों में अकेले इस जिले में 62 लोगों ने आत्महत्या की है. बांदा के एक सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र के अनुसार पूरे बुंदेलखंड के लिए यह संख्या 5,000 है. आत्महत्या करने वाले किसानों में सिर्फ भूमिहीन और छोटे किसान ही नहीं हैं, वे किसान भी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति एक समय अच्छी थी और जिनके पास काफी जमीन भी थी. आत्महत्या करने की उनकी वजहों में सबसे ऊपर बैंकों का कर्ज चुका पाने में उनकी नाकामी है. पृथ्वी सिंह कहते हैं, 'किसान यहां अकसर ट्रैक्टर या पंपिंग सेट के लिए कर्ज लेते हैं. लेकिन जमीन में पानी ही नहीं है, इसलिए प्रायः पंपिंग सेट काम नहीं करता. किसानों के घर में जब खाने को नहीं होता तब बैंक उन्हें अपना कर्ज लौटाने पर मजबूर करते हैं. मजबूरन कई जगह किसान उसे लौटाने के लिए साहूकारों से कर्ज लेते हैं और एक दूसरे तथा और बुरे जाल में फंस जा रहे हैं.'

बांदा जिले के खुरहंड गांव के इंद्रपाल तिवारी हालांकि उतने बड़े किसान भी नहीं हैं. उनके पास करीब 9 बीघा जमीन है. उन्हें ट्रैक्टर की कोई खास जरूरत नहीं थी, लेकिन एक ट्रैक्टर एजेंट के दबाव में आकर उन्होंने 2004 में अतर्रा स्थित भारतीय स्टेट बैंक से इसके लिए 2 लाख 88 हजार रुपए कर्ज लिए. फसलों से बीज तक न निकल पाने के कारण उनकी हालत वैसे भी खस्ता थी और ट्रैक्टर ने उनकी आय में कोई वृद्धि नहीं की थी, इसलिए वे उसकी किस्तें नहीं चुका पा रहे थे. आखिरकार 2006 में झांसी स्थित मेसर्स सहाय एसोसिएट्स के कुछ लोग तिवारी के पास आए और खुद को बैंक का आदमी बताकर उनका ट्रैक्टर छीन कर ले गए. इसके पहले बैंक ने उनसे 1 लाख 25 हजार रु की वसूली का नोटिस जारी किया था. ट्रैक्टर छीने जाने के बाद बैंक ने जब बकाया राशि की रिकवरी का आदेश जारी किया तो तिवारी ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से आरटीआई कानून के तहत बैंक से जानकारी मांगी. इसमें कई चौंकानेवाले तथ्य सामने आए. बैंक ने रिकवरी एजेंसी सहाय एसोसिएट्स के जरिए ट्रैक्टर को तिवारी से लेकर 1 लाख 99 हजार रु में नीलाम कर दिया था.      

दो साल बाद जब सरकार ने किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा की तो बुंदेलखंड भी इसमें शामिल था. तिवारी ने इसके लिए आवेदन किया. कुछ ही दिनों बाद तिवारी भी उन सौभाग्यशाली किसानों की सूची में शामिल थे जिनके कर्ज 'मानवीय चेहरेवाली केंद्र सरकार' ने माफ किए थे. तिवारी के लिए भले न हो आपके लिए उस रकम के बारे में जानना महत्वपूर्ण हो सकता है. वह रकम थी 525 रुपए.

यह मजाक था. लेकिन तिवारी को इसे सहना पड़ा. उन्होंने अपने साथ हुए इस अपमानजनक व्यवहार के बारे में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखा है. उन्हें हाल ही में कृषि मंत्रालय का जवाब भी मिला है जिसमें कहा गया है कि उनके मामले पर विचार किया जा रहा है.

पुष्पेंद्र कर्ज देने की इस पूरी प्रक्रिया को ही किसानों के लिए उत्पीड़क बताते हैं. उनका कहना है कि किसानों को सहायता के नाम पर ट्रैक्टर के लिए कर्ज थमा दिए जाते हैं जबकि अधिकतर किसानों को न तो ट्रैक्टर की जरूरत होती है न उन्होंने इसकी मांग की होती है. वे इसे बैंक और ट्रैक्टर एजेंसी के लाभों की संभावना से जोड़ते हैं. वे कहते हैं, 'एक ट्रैक्टर के लिए दिए जाने वाले कर्ज पर बैंक मैनेजर 20 से 40 हजार रुपए, ट्रैक्टर एजेंसी के दलाल 10 से 20 हजार रुपए और ट्रैक्टर एजेंसी 40 से 60 हजार रुपए कमीशन लेते हैं. इस तरह किसान से 1 लाख रुपए तो कमीशन के रूप में ही ले लिए जाते हैं. इस तरह किसान को वह राशि तो अपनी जेब से चुकानी ही पड़ती है, उस पर सूद भी देना पड़ता है, जो उसे कभी मिली ही नहीं.' यह एेसे होता है कि एजेंसी कर्ज की राशि में ट्रैक्टर के साथ हल-प्लाऊ जैसे अनेक उपकरण भी जोड़ लेती है, लेकिन उन्हें किसानों को दिया नहीं जाता. इसके अलावा कई बार बीमा और स्टांप के नाम पर भी किसानों से नकद राशि ली जाती है. अगर किसान के पास पैसे न हों तो उन्हें एजेंट नकद कर्ज भी देते हैं.

दूसरी कल्याणकारी योजनाओं की असलियत कर्ज माफी और संस्थागत ऋणों की इस कहानी से अलग नहीं है.

75-80% आबादी गांवों से पलायन करती है. यह प्रायः  जुलाई-अगस्त में शुरू होता है.  इनमें भूमिहीन किसान भी हैं और जमीनवाले भी. इस दौरान गांवों में सिर्फ महिलाएं और वृद्ध रह जाते हैं

नरेगा को ही लेते हैं. नरेगा की राष्ट्रीय वेबसाइट पर 2009-10 के लिए हमीरपुर जिले के भमई निवासी मूलचंद्र वर्मा के जॉब कार्ड (UP-41-021-006-001/158) के बारे में पता लगाएं. वेबसाइट बताती है कि 1 मई 2008 से 25 अप्रैल 2010 तक उनको 225 दिनों का काम मिल चुका है. लेकिन मूलचंद्र के कार्ड पर इस पूरी अवधि में सिर्फ 16 दिनों का काम चढ़ा है. हालांकि वे जो ज़बानी आंकड़े देते हैं उनसे साइट के आंकड़ों की  कमोबेश पुष्टि हो जाती है. पुष्टि नहीं होती तो भुगतान की गई रकम की. मूलचंद्र का दावा है कि उन्होंने नरेगा के तहत 3 साल में 300 दिनों का काम किया है. उन्हें अब तक 18,300 रुपए का भुगतान किया गया है. वे अपने बाकी 11,300 रुपए के लिए पिछले तीन-चार महीनों से भाग-दौड़ कर रहे हैं. लेकिन यह नहीं मिली है. वे कहते हैं कि प्रधान और पंचायत सचिव उनसे नरेगा के तहत काम करवाते हैं लेकिन उसे जॉब कार्ड पर दर्ज नहीं करते, '2008 से लेकर अब तक मैंने 300 दिनों का काम किया है. लेकिन यह मेरे कार्ड पर दर्ज नहीं है. उन्होंने मेरे खाते में रकम जमा भी कराई है, लेकिन जो रकम बाकी है उसका भुगतान वे नहीं कर रहे हैं.'

वे प्रदेश की मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक का दरवाजा खटखटा चुके हैं. लेकिन अब तक उन्हें यह रकम नहीं मिल पाई है. पैसे के अभाव में वे अपनी बीमार बेटी का इलाज तक नहीं करा सके और वह मर गई. इसके उलट भमई की प्रधान उर्मिला देवी बताती हैं, 'मूलचंद्र झूठ बोल रहे हैं. उन्हें पूरी रकम दी जा चुकी है.' लेकिन तब भी जॉब कार्ड और उनके अपने आंकड़ों में इतना भारी अंतर बताता है कि कुछ गड़बड़ है. और यह गड़बड़ी एेसी नहीं है कि इसे खोजना पड़े. यह सतह पर दिखती है. अधिकतर शिकायतें प्रधानों के रवैए को लेकर हैं. वे नरेगा की रकम को कर्ज के रूप में देते हैं और जॉब कार्ड पर काम कराकर उसे ब्याज समेत वसूलते हैं. प्रायः वे  अपने नजदीकी लोगों को काम पर रखते हैं. अगर किसी तरह काम मिल जाए तो प्रायः 100 दिनों की गारंटी पूरी नहीं होती. ये सारी धांधलियां इस तरह की जाती हैं कि कोई भी उन्हें पकड़ सकता है. तहलका को उपलब्ध दस्तावेज दिखाते हैं कि साल में सौ दिन से अधिक काम दिए गए हैं और मर चुके लोगों के नाम पर भी भुगतान किए गएहैं.

महोबा जिला हाल के कुछ दिनों में नरेगा में भारी भ्रष्टाचार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा है. शायद यह अकेला जिला है जहां 52 प्रधानों से रिकवरी का ऑर्डर हुआ है. नरेगा के नियमों के तहत जितना खर्च होना चाहिए उससे 20 गुना अधिक खर्च की भी घटनाएं सामने आई हैं. जिले में मुख्य विकास अधिकारी समेत सात बड़े प्रशासनिक अधिकारी नरेगा में भ्रष्टाचार के आरोपों में निलंबित हुए हैं.

लेकिन महोबा के मौजूदा मुख्य विकास अधिकारी रवि कुमार के लिए यह बहुत परेशानी की बात नहीं है. वे कहते हैं, 'भ्रष्टाचार तो ग्लोबल फिनोमेना है. इसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं देता. दरअसल, इसमें पंचायतों को इतना पैसा खर्च करने के लिए दे दिया जाता है कि वे समझ नहीं पातीं कि क्या करना है.' वे चाहते हैं कि पंचायती राज के नियमों की समीक्षा की जाए, क्योंकि इससे अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे हैं.

सवाल कुछ और भी हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों की पर्सपेक्टिव नाम की एक टीम अक्तूबर 2009 में बुंदेलखंड गई थी. इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित रिपोर्ट में टीम ने इसे रेखांकित किया है कि नरेगा जैसी योजना, जो सामान्य स्थितियों में गांव के एक सबसे वंचित हिस्से को राहत मुहैया कराने के लिए बनाई गई है, वह एेसे संकट के समय सारी आबादी को संकट से नहीं उबार सकती.

और एेसे में जब केंद्र सरकार ने सामरा रिपोर्ट में सिफारिश किए जाने के दो साल की देरी के बाद 7,277 करोड़ रुपए का पैकेज पिछले साल नवंबर में बुंदेलखंड को दिया है, जिसमें से 3,506 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से आएंगे, तो उम्मीद से अधिक चिंताओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. ये चिंताएं बड़ी राशि की प्रधानों और अधिकारियों द्वारा लूट से जुड़ी चिंताएं हैं, क्योंकि यह राशि भी उसी चैनल के जरिए और उन्हीं योजनाओं पर खर्च होनी है जिनकी कहानी अब तक हमने पढ़ी है.

ये चिंताएं कितनी वाजिब हैं, इनका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पैकेज मिलने के तीन महीने के भीतर मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में 11 योजनाएं पूरी कर ली गई हैं और पिछले छह महीने में 36 योजनाओं को पूरा किया गया है. पैकेज गांवों में रोजगार और काम पर कितना सकारात्मक असर डाल रहा है, इसके संकेत के तौर पर हम कुतुब (महाकौशल एक्सप्रेस) से दिल्ली लौटने वालों की भारी भीड़ के रूप में भी देख रहे हैं. योजनाएं तेजी से पूरी हो रही हैं, उस समय भी जब लोग गांवों में नहीं हंै. वे काम की अपनी पुरानी जगहों पर लौट रहे हैं.

इसीलिए रामकली को उम्मीद नहीं है कि यह पैकेज उनकी कोई मदद कर सकता है. वे कानपुर में ईंट भट्ठे पर अपने बेटे और बहू के पास जाने की सोच रही हैं.

(तारा पाटकर के सहयोग के साथ)

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अपनी वीरता और जुझारूपन के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड में कई सालों के सूखे, इसके चलते पैदा कृषि संकट और इनसे निपटने की योजनाओं में भ्रष्टाचार ने पलायन और आत्महत्याओं की एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म दे डाला है. तसवीरें और रिपोर्ट रेयाज उल हक
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Palash Biswas
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