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Wednesday, June 9, 2010

Fwd: Urmilesh on Caste Census



---------- Forwarded message ----------
From: dilip mandal <dilipcmandal@gmail.com>
Date: 2010/6/8
Subject: Urmilesh on Caste Census



जनगणना में जाति-आधारित गिनती का विरोध किसलिए?

उर्मिलेश

संसद के बजट सत्र के दौरान लोकसभा में सन 2011 की जनगणना को लेकर चली खास बहस में अन्य जातियों की भी गणना किए जाने के सुझाव पर व्यापक सहमति बनी। जिन वामपंथी दलों ने भारतीय वर्णव्यवस्था की विशिष्टता को वर्ग के अपने बने-बनाए खांचे में कभी प्रासंगिक नहीं माना, उन्होंने भी इस बार जनगणना के दौरान अन्य जातियों की गिनती के सुझाव को मान लिया। कांग्रेस और भाजपा सहित सभी प्रमुख दलों के बीच इस पर व्यापक सहमति उभरी। चौतरफा राजनीतिक दबाव के बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अलग-अलग मौकों पर साफ शब्दों में कहा कि वे सदन में हुई बहस की भावना के मद्देनजर इस मुद्दे को कैबिनेट में रखकर जल्दी ही फैसले लेंगे। सदन के बाहर सरकार के शीर्ष नेतृत्व ने इस मुद्दे को उठाने वाले विपक्षी और कुछ सहयोगी दलों के नेताओं से यह भी कह दिया कि कैबिनेट की अगली बैठक में जनगणना के दौरान जाति का कालम दर्ज करने का फैसला ले लिया जाएगा। संसद में बनी व्यापक सहमति और सरकार के सकारात्मक संकेत के बाद कुछ समूहों, संगठनों और मीडिया के एक हिस्से में खलबली सी मच गई।

कुछ समूहों और लोगों को लगने लगा कि सरकार ने जाति-जनगणना के पक्ष में ठोस आश्वासन देकर ठीक नहीं किया, जो काम आजादी के बाद कभी नहीं हुआ, भला उसे आज क्यों किया जाय।़ मनमोहन-मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने भी इस राय को मुखर ढंग से व्यक्त किया। मीडिया के बड़े हिस्से का समर्थन पाकर कुछ समूहों ने विरोध-अभियान तेज कर दिया। दिलचस्प बात है कि यह समूह या लोग वही थे, जो संसद और विधानमंडलों में महिला-आरक्षण के पक्ष में पिछले कुछ समय से लगातार अभियान चलाते आ रहे हैं। यही समूह दलितों-आदिवासियों या पिछड़ों के मौजूदा आरक्षण, शिक्षण संस्थानों में उसके विस्तार या निजी क्षेत्र में एफर्मेटिव एक्शन के मुद्दों पर हमेशा विरोध में खड़े दिखाई देते रहे हैं। आखिर क्या वजह है, जो लोग उत्पीडि़त समुदायों के लिए सरकारी नौकरियों, शिक्षण सस्थानों में उनके प्रवेश या निजी क्षेत्र में उनकी भागीदारी बढ़ाने के पक्ष में आवाज नहीं उठाते, बल्कि उल्टा उसका विरोध करते हैं, वे अचानक जाति-जनगणना के मुद्दे पर मानववादी या हिन्दुस्तानी बन गए? इनमें ज्यादातर वे लोग हैं, जो हर चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के चयन या चुनाव-रिपोर्टिंग में जातिगत समीकरणों और आंकड़ों का हवाला देकर अपने हक में तर्क गढ़ते आ रहे हैं। आखिर इन्हें कहां से मिले, जातियों के आंकड़े? इनमें कई बताएंगे कि वे सन 1931 की जनगणना के आंकड़ों की रोशनी में ताजा स्थिति के अनुमान के आधार पर वे आंकड़े परोस रहे हैं। कुछेक कहेंगे कि वे नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े के आधार पर अपनी बात कह रहे हैं। अगर नेशनल सैंपल सर्वे सीमित क्षेत्र-दायरे के अंदर कुछ गणना करके अपने आंकड़ों से सरकार, समाज और मीडिया के लिए फीडबैक दे सकता है तो यह काम जनगणना के दौरान ज्यादा सटीक और विश्वसनीय ढंग से क्यों नहीं होना चाहिए?

 पिछले कुछ दशकों में कई बार बताया गया कि देश में पिछड़ी जातियों(ओबीसी)की आबादी 52 से 54 फीसदी है, फिर बताया गया कि नहीं, यह 34 से 40 फीसदी के बीच है। आखिर सच क्या है, इसके लिए जनगणना में जातियों की गिनती की जरुरत नहीं है? विश्वसनीय आंकड़ों से हम परहेज क्यों करें।़ जहां तक जाति-निरपेक्षता और धर्म-निरपेक्षता का सवाल है, अगर धर्म बताने से आपकी धर्मनिरपेक्षता प्रभावित नहीं होती तो जाति बताने से जाति-निरपेक्षता कैसे भ्रष्ट हो जाएगी? देश के बड़े हिस्से में शादी-ब्याह अब भी जाति में ही हो रही है। जातिगत सरनेम का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है। वर्णव्यवस्था आधारित सामाजिक ढांचे में आप धर्म बदल सकते हैं पर जाति नहीं। लेकिन अपनी विद्वता का वैदिक-जाप करने वाले कुछ महाशयों को लगता है कि जाति की गणना हुई नहीं कि यह देश बरबाद हो जाएगा।़ कुछेक ने तो यह भी फरमाया कि जातियों की गणना होगी तो सवर्णों-अवर्णों के बीच तलवारें खिंच जाएंगी, जातियों के अंदर भी महाभारत मच जाएगा। कैसा हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। यह महज मिथ्या संकट की कल्पना नहीं है, इस तरह की टिप्पणियों के पीछे समाज में तनाव और विद्वेष फैलाने की साजिश भी छिपी हुई है।  इन महाशयों को अच्छी तरह मालूम है कि जात-पांत के बावजूद भारत में लोकतंत्र और जनवाद की जुझारू चेतना का विकास और विस्तार हो रहा है। आज कोई भी राजनीतिक दल सिर्फ एक जाति या समुदाय के बल पर अपनी राजनीति नहीं कर सकता और न ही सत्ता में आने के सपने देख सकता है। पर हमारे कुछ महाविद्वान भारतीय समाज में जातिवाद और जाति-उत्पीडऩ की बर्बरता पर तो कुछ नहीं कहते, सारा गुस्सा जातियों की गणना के प्रस्ताव पर उतार रहे हैं। जाति-निरपेक्ष होने का ढोंग रचने वाले इस तरह के लोग भारतीय समाज में व्याप्त जाति-आधारित अन्याय और उत्पीडऩ की बर्बरता पर लंबे समय से पर्दा डालने की कोशिश करते आ रहे हैं। वे कहते हैं कि जाति अब सिर्फ राजनीति में जिन्दा है, हमारे सामाजिक और शैक्षिक जीवन में नहीं रह गई है। क्या बात है।

सच तो यह है कि हमारे सामाजिक-शैक्षिक जीवन, खासकर हिन्दी-भाषी उत्तर भारत में जातिवाद पूरी बर्बरता के साथ जिन्दा है और इसके सबसे बड़े झंडाबरदार वे समूह और लोग हैं, जिनका हमारे समाज, शैक्षिक जीवन एवं सस्थाओं पर वर्चस्व अब भी कायम है। वे दलितों-पिछड़ों के लिए तनिक भी जगह देने को तैयार नहीं। इसके लिए कई कारण और स्थितियां जिम्मेदार हैं। दक्षिण की तरह उत्तर, खासकर हिन्दीपट्टी में सामाजिक सुधार आंदोलन की समृद्ध परंपरा नहीं रही। यही कारण है कि मध्यकालीन संतों के बाद हमारे आधुनिक समाज को नए जीवन मूल्य और बोध देने वाली व्यापक मानवीय विचारधारा का विस्तार नहीं हो सका। ऐसा क्यों नहीं हो सका, इसकी तह में जाएंगे तो बहुत सारे कारण और कारक उभरकर सामने आएंगे। कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने राजनीतिक-

आर्थिक एजेंडे के साथ समाज-सुधार और शैक्षिक-सुधारों के व्यापक कार्यक्रम के साथ केरल जैसे सूबे में जगह बनाई। चर्च ने भी शैक्षिक-सुधारों पर जोर दिया। इसके साथ वहां दलित, पिछड़े समुदायों और अन्य समुदायों से आए संतों और समाज सुधारकों ने भी समाज और विभिन्न समुदायों को जागरण की नई चेतना से लैस किया। यह काम उत्तर, खासकर हिन्दीपट्टी में कहां हुआ? आर्य समाज के प्रयास न केवल सीमित दायरे तक रहे अपितु उसमें पुनरुत्थानवादी सोच की नकारात्मकता भी हावी थी। समाजवादी आंदोलन भी सामाजिक सुधार और बदलाव के ठोस राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में विफल रहा। वामपंथी खेमे हिन्दी-पट्टी को समझने और बदलाव की सृजनात्मक-रणनीति विकसित करने में नाकाम रहे। मसला सिर्फ हिन्दी पट्टी का ही नहीं है, दक्षिण में बदलाव जरूर हुआ है पर वहां भी अनेक इलाकों में जातिगत-द्वेष और भेदभाव बरकरार हैं।

मैं निजी तौर पर जात-पांत की इस व्यवस्था से नफरत करता हूं। उस समाज के सपने देखता हूं  जिसमें हर मनुष्य अपनी जाति मानव और राष्ट्रीयता मानवता बता सके। लेकिन हमारे मौजूदा समाज और व्यवस्था का सच यह नहीं है। मौजूदा भारतीय परिदृश्य में जाति की सच्चाई से जो इंकार कर रहे हैं, उनके अपने कुछ खास एजेंडे होंगे। क्या यह सच नहीं है कि भारत में उत्पीडि़त-सर्वहारा वर्ग का बड़ा तबका उन जातियों से आता है, जिन्हें हम अनुसूचित जाति-जनजाति के तौर पर जानते हैं? क्या यह सच नहीं कि आज भी पिछड़े वर्ग का बड़ा हिस्सा बेहद बदहाल और सामाजिक-आर्थिक तौर पर उत्पीडि़त है।़ क्या यह सच नहीं कि ज्ञान-विज्ञान, मीडिया और उद्योग-उपक्रम से जुड़े संस्थानों में दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व नगण्य है? अनेक संस्थानों में तो शीर्ष स्थान पर दलित-पिछड़े हैं ही नहीं। भारत के समाचार-उद्योग क्षेत्र में हुई नई क्रांति(1977-99) पर चर्चित पुस्तक लिखने वाले मशहूर विद्वान राबिन जेफ्री ने हाल ही में इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत के दौरान यह जानना चाहा, क्या इस दशक में उत्तर भारत के किसी बड़े मीडिया संस्थान में दलित-पिछड़े समुदाय से कोई संपादक बना है या नहीं। नब्बे के दशक में जब वह भारत आकर किताब लिख रहे थे तो लगातार दस सालों के शोध-अध्ययन के दौरान उन्हें सिर्फ एक वरिष्ठ पत्रकार मिला, जो दलित समुदाय से था। वह दक्षिण के एक सूबे में, वामपंथियों द्वारा प्रकाशित अखबार में पदस्थापित था। इसी तरह के अन्य कई तथ्यों के आधार पर मुझे लगता है कि दलित-पिछड़े समुदायों की कुछेक जातियों के नेताओं की बढ़ती राजनीतिक ताकत या इनके बीच से उभरते नवधनाढ्य, जिसका हिस्सा समूची जाति के बीच काफी छोटा है, के आधार पर श्रेणी-परिवर्तन या इनके संपूर्ण वर्गांतरण जैसे निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। जाति और वर्ण के भेद और विद्वेष का सफाया जनगणना में जाति को शुमार करने के प्रस्ताव के विरोध से या अपनी बिरादरी को हिन्दुस्तानी बताने मात्र से नहीं होगा। इसके लिए जाति, वर्ण और वर्ग आधारित उत्पीडऩ और सामाजिक असंतुलन खत्म करने या फिलहाल उसे कम करने की कोशिश करनी होगी। इसकी ईमानदार कोशिश तभी आगे बड़ सकती है, जब हमारे पास कुछ ठोस आंकड़े हों और वह जनगणना में जातियों की गिनती से मिल सकते हैं। मैं तो इस पक्ष में भी हूं कि आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न समुदायों की सहभागिता और हिस्सेदारी के आंकड़े भी हमारे पास होने चाहिए। उच्च शिक्षण संस्थानों और मीडिया सहित भारत के निजी क्षेत्र के अंदर दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों की सहभागिता-हिस्सेदारी के आंकडे आएं तो और भी बेहतर होगा। इससे सरकार और समाज को पता चल सकेगा कि 63 सालों की आजादी में हमारे समाज के अपेक्षाकृत पिछड़े समूहों को कितना समुन्नत किया जा सका है और आगे क्या-क्या किया जाना चाहिए।़ भारत को सुंदर, समृद्ध और खुशहाल देश बनाने के लिए सामाजिक न्याय और सामुदायिक समरसता की भी जरुरत है।

देश में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या समुदायों के लिए विशेष अवसर के प्रावधान का सिद्धांत संवैधानिक और शासकीय स्तर पर बहुत पहले ही मंजूर हो चुका है। इस पर नई बहस की फिलहाल जरुरत नहीं है। आजादी से पहले, डा. भीमराव आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच की बहस और उससे उभरी सहमति का ही नतीजा है कि आजाद भारत में सामाजिक-शैक्षिक तौर पर पिछड़े और उत्पीडि़त समुदायों के लिए आरक्षण के प्रावधान का रास्ता बना। दलित-आदिवासियों के बाद देश के अन्य पिछड़े समुदायों(ओबीसी)के  लिए भी आरक्षण का प्रावधान किया गया। इतिहास गवाह है कि मंडल-आयोग की उन सिफारिशों के क्रियान्वयन के ऐलान का उत्तर भारत में एक खास तबके ने किस कदर विरोध किया और मीडिया के बड़े हिस्से ने उसे किस तरह भड़काने की भरपूर कोशिश की। कुछ गिने-चुने पत्रकारों-बुद्धिजीवियों ने ही सामाजिक न्याय के उपकरण के तौर पर उन सिफारिशों का समर्थन किया था। कैसा संयोग है कि उस दौर के मंडल-विरोधी उग्र सवर्णवादी-अभियान में शामिल रहे कई युवा-कार्यकर्ता आज अपनी अधेड़ उम्र में देश की राजनीति, उद्योग-उपक्रम और यहां तक कि मीडिया-संस्थानों के अंदर बड़े पदों पर आसीन हैं। कैसी विडम्बना है, वे आज भी अपनी उस ढंकी सवर्ण-उग्रता को झाड़-पोंछकर जनगणना में जाति-गिनती के सुझाव के विरोध को मानवीय-वैचारिकता के लबादे में पेश कर रहे हैं। इन सज्जनों से पूछा जाना चाहिए-महाशयों, भारत को आजाद हुए लगभग 63 साल हो गए, इस दरम्यान जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समूहों के अलावा अन्य जाति-समुदायों की गिनती नहीं की गई, क्या इससे जातिवाद और जातीय विद्वेष मिट गए? अगर भारत, खासकर समूचे उत्तर-भारत में जातिवादी-जहर का फैलाव ज्यादा है तो इसके लिए ठोस राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक कारण हैं। इसका जनगणना में जातियों की गिनती का दायरा बढ़ाने से भला क्या लेना-देना। सच तो ये है कि इस तरह की जनगणना एक बड़ी जरुरत है। सामाजिक न्याय से जुड़ी योजनाओं-कार्यक्रमों के निर्धारण और उनके क्रियान्वयन में इससे बड़ी मदद मिल सकती है। जाति-जनगणना के विरोधी शायद भूल गए हैं कि भारत सरकार में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भी है। दलितों-आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के लिए अलग-अलग आयोग बने हुए हैं। पर इनके पास सम्बद्ध समुदायों के बारे में साधारण जरूरी आंकड़े भी नहीं हैं।

 

जनगणना में जाति-समुदाय के कालम से न जाने कितने तथ्य सामने आ सकेंगे, जो भारतीय राष्ट्रराज्य के समाजशास्त्रीय व नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन के लिए बेहद उपयोगी होंगे। जनगणना में जाति-समुदाय की गिनती के सुझाव के कुछेक विरोधियों का तर्क है कि आजाद भारत में जब पहले कभी ऐसा नहीं हुआ तो अब क्यों हो? यह एक कुतर्क है। बहुत सारे काम आजाद भारत में पहले नहीं हुए, जो अब हो रहे हैं। इसके अलावा हम यह क्यों भूलें कि आजादी के बाद हमारी जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और प्रमुख धार्मिक समुदायों के सदस्यों की गिनती पहले से होती आ रही है। आजादी से पहले अन्य जातियों की भी गिनती की जाती रही। सन 44 में विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण नहीं हुई। सभी जातियों की गणना से भारतीय लोकतंत्र कैसे अपवित्र या कलंकित हो जाएगा? कुछेक महाशयों का तर्क है कि इससे जातिवाद बढ़ जाएगा। क्या भारत में दलित-आदिवासियों की अब तक होती आ रही गिनती से कहीं जातिवाद बढ़ा है। क्या गुजरात के दंगे इसलिए हुए थे कि भारत की जनगणना में धार्मिक समूहों की गिनती होती आ रही है।  इस तरह के कुतर्क चंद सवर्णवादी-बुद्जिीवियों के ढाल मात्र हैं। दरअसल, उन्हें डर है कि जनगणना में सभी जातियों-समुदायों की गिनती से हमारे समाज के असमान विकास और वर्गीय-सामुदायिक असंतुलन के आंकड़ों की कहीं असलियत सामने न आ जाए।

भारत को अगर सचमुच समावेशी विकास के रास्ते पर ले जाना है और क्षेत्रीय एवं सामाजिक-असंतुलन दूर या कम करना है तो उसके लिए भी भारतीय जनगणना में जाति-समुदाय की गिनती के ठोस आंकड़े जरूरी हैं। अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों ने अपने यहां सामाजिक-सामुदायिक संतुलन बनाए रखने और आर्थिक विकास के बेहतर माडल के क्रियान्वयन के लिए भी अपनी जनगणना के दौरान विभिन्न समुदायों, एथनिक समूहों और नस्लों की गिनती का सिलसिला जारी रखा है। कम से कम इस वजह से उन देशों में कहीं भी न तो नस्ली दंगे हुए और न ही एथनिक झगड़े। बेलजियम जैसे देश ने तो डच, फ्रेंच और जर्मन-भाषी एवं अन्य जातीय-समुदायों की सही गिनती और समाज, रोजगार एवं सत्ता में उनका उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके अपने वर्षों पुराने भाषायी-एथनिक विवादों का सही ढंग से समाधान कर लिया। भारत की जनगणना में जाति-समुदायों की गिनती से जो आंकड़े सामने आएंगे, वे सरकार और उसके योजनाकारों के काम आएंगे। इससे किसी का हक नहीं छिनेगा। दरअसल, उच्च एवं मध्यवर्गीय-शहरी सोच से प्रभावित सवर्ण समुदाय से आए बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से को इस बात का भी एहसास नहीं कि भारत में कई उत्पीडि़त जाति-समुदाय आज गुमनामी के अंधेरे में ढकेल दिए गए हैं। समय-समय पर उनके पारंपरिक रोजगार और कारोबार चौपट होते रहे। आर्थिक सुधार के दौर में समाज का एक तबका खूब आगे बढ़ा है पर ऐसे समुदाय लगातार बेहाल होते गए। उन पर ध्यान ही नहीं दिया गया।

महानगरों के शीशमहलों में बैठे शीर्ष योजनाकारों, मीडिया और अन्य माध्यमों पर वर्चस्व रखने वाले बौद्धिकों, जातिगत उत्पीडऩ, सामाजिक न्याय और एफर्मेटिव एक्शन का नाम आते ही नाक-भौं सिकोडऩे वाले अन्य महाशयों को उन करोड़ों उत्पीडि़त समुदायों की कितनी जानकारी है, जिनके पारंपरिक और पुश्तैनी धंधे और कारोबार लगातार चौपट हुए हैं। बढ़ई-लोहार, कुम्हार, नोनिया, माली, बुनकर, पहाडिय़ा और पासी जैसी न जाने कितनी जातियां आर्थिक विकास के मौजूदा माडल में अपनी वाजिब हिस्सेदारी से वंचित रही हैं। इनका हिसाब-किताब कौन करेगा, क्या जाति-जनगणना के बगैर इनकी सही-सही संख्या पता चल सकेगी। बिरहोर और पहाडिय़ा जैसी कई जातियां आज गुमनामी के अंधेरे में डूबी हैं। इनके बारे में तो कुछ आंकड़े भी सामने आए हैं। पर ऐसी कई और जातियां हैं, जिनकी संख्या लगातार गिर रही है। इनमें आदिवासी के अलावा पिछड़े वर्ग की भी जातियां शामिल हैं। घुमंतू प्रवृत्ति या कुछ ही इलाकों तक सीमित कई ऐसी जातियों के बारे में अब तक कोई आधिकारिक आंकड़ा सामने नहीं आ सका है। देश में आर्थिक सुधार के मौजूदा दौर में नए ढंग के शैक्षिक सुधारों का दौर चल रहा है। इसे क्रांतिकारी बताया जा रहा है। मध्य और उच्च वर्ग का तबका इससे बहुत खुश है। वह नए तरह के शैक्षिक सुधारों से अपने आपको ग्लोबल-विलेज का हिस्सा बनता देख रहा है। लेकिन दलित-आदिवासियों के अलावा पिछड़ों के अति-पिछड़े हिस्सों तक शिक्षा और ज्ञान की रोशनी कितना पहुंचाई जा सकी है।़ इन जातियों-समुदायों के बारे में सही आंकड़े कहां से मिलेंगे? हर समय अपने सिर पर ज्ञान की टोकरी और जुबान पर सत्ताधारी समूह व सरकार के  लिए तरह-तरह की सलाह लेकर वातानुकूलित गाडिय़ों में घूमने वाले महाशयों को भला इन जातियों-समुदायों की क्यों चिंता होगी। ये ऐसे ज्ञानी हैं, जो समाज में अज्ञान और भ्रम फैलाने में जुटे हैं। मनुस्मृति ने सदियों पहले कहा था-शूद्रों को ज्ञान मत दो। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो शूद्रों को धन देने तक को राजी हैं पर ज्ञान नहीं। वे जानते हैं कि ज्ञान बदलाव का सबसे बड़ा हथियार है और सही सूचनाएं व आंकड़े ज्ञान का हिस्सा हैं।

(लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार-लेखक और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं। बिहार का सच, झारखंड: जादुई जमीन का अंधेरा, योद्धा महापंडित, झेलम किनारे दहकते चिनार, कश्मीर: विरासत और सियासत, उदारीकरण और विकास का सच(संपादित)उनकी प्रमुख पुस्तके हैं।)


2010/6/4 dilip mandal <dilipcmandal@gmail.com>

नीचे लिखी खबर को पढ़िए। यह खबर एनडीटीवी डॉट कॉम पर है। गुरुवार को एनडीटीवी के इंग्लिश चैनल पर भी चली है। क्या इसमें आपको हेडलाइंस और खबर के बीच कोई तारतम्य दिखता है?  

Meira Kumar says she doesn't favour caste census

NDTV Correspondent, Thursday June 3, 2010, New Delhi

In an exclusive interview to NDTV, Lok Sabha Speaker Meira Kumar has indicated that she is not in favour of a caste census. "I have always worked towards a casteless society. I don't know when that time will arrive, but we should be able to do away with this discrimination based on this caste system. So anything which leads to that I would endorse.... I would not like to go into detail and comment because I don't think as a Speaker I should be doing that. But as somebody who is committed to casteless society, I would like to support any measure towards that."

http://www.ndtv.com/news/india/meira-kumar-says-she-doesnt-favour-caste-census-29667.php

हेडलाइन पढ़ने से साफ लगता है कि मीरा कुमार ने "कहा है" कि वे जाति आधारित जनगणना के पक्ष में नहीं हैं। जब खबर शुरू होती है तो "कहा है" की जगह "संकेत दिया है" हो जाता है और जब खबर आगे बढ़ती है तो पता चलता है कि जाति आधारित जनगणना का तो मीरा कुमार ने नाम भी नहीं लिया है। उनका सिर्फ यह कहना है और यही बयान टीवी पर दिखा और साइट पर छपा है कि वे हमेशा जाति मुक्त समाज के लिए काम करती रही हैं।...और वे ऐसे हर उपाय का समर्थन करेंगी जो जाति मुक्त समाज बनाने की दिशा में हो। बाकी बयान आप खुद ही पढ़ लीजिए। इस बयान को जाति आधारित जनगणना के विरोध में दिया गया बयान कैसे माना जाए। सवर्ण नजरिए से न देखें तो आप इसे जाति आधारित जनगणना के पक्ष में दिया गया बयान भी मान सकते/सकती हैं।

प्रेस कौंसिल ने सांप्रदायिक विवादों की खबरों के सिलसिले में दिशानिर्देश दिए हैं कि हेडलाइन और समाचार की सामग्री के बीच मेल होना चाहिए। पेज-23 देखें - http://presscouncil.nic.in/NORMS-2010.pdf यह दिशानिर्देश अन्य मामलों में भी लागू हो सकता है। पत्रकारीय नैतिकता की दृष्टि से बी तोड़-मरोड़कर हेडलाइन देना गलत है। वैसे इस चैनल की प्रमुख बरखा दत्त का जाति जनगणना पर विचार स्पष्ट है। हिंदुस्तान टाइम्स में अपने कॉलम में वे लिखती हैं कि - सरकारी कर्मचारी घर घर जाकर लोगों से उनकी जाति पूछे, इससे लोगों के बीच जाति के आधार पर भेदभाव बढ़ेगा। http://www.hindustantimes.com/In-reverse-gear/Article1-543742.aspx

 

ऐसे अनुभव लगातार बताते हैं कि मीडिया को सर्वसमावेशी और पूरे देश के हित में सोचने वाले माध्यम के रुप में देखना बचपना होगा। मीडिया सत्ता संरचना का हिस्सा है और इसी रूप में काम करता है। कुछ लोग इसमें अपवाद के रूप में कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं लेकिन वे माइक्रो माइनोरिटी हैं।

 

सवाल उठता है कि क्या मीरा कुमार इस खबर पर ऐतराज जताएंगी। क्या वे अपने कार्यालय से एक पत्र जारी कर यह निर्देश देंगी कि इस खबर को सुधार कर दिखाया जाए और चैनल और साइट इसके लिए माफी मांगे?  आप सब लोग मीरा कुमार को जानते हैं। आप बताइए कि मीरा कुमार क्या करेंगी?

 

  

 

  





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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

No comments:

मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk