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Sunday, June 20, 2010

जरा मुसकराओ तो ममता जी

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जरा मुसकराओ तो ममता जी

हाल ही में नगर पालिका चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जबर्दस्त जीत मिली। अपने देश की राजनीति में इस जीत के अलग मायने हैं। एक कहावत है न- जब बंगाल छींकता है, तो हिंदुस्तान को जुकाम हो जाता है। खैर, ममता ने पश्चिम बंगाल में तीन दशक के कम्युनिस्ट शासन का आखिरी पैराग्राफ लिख दिया है।

यह तय है कि जिन लोगों ने इन चुनावों में तृणमूल को वोट दिया है, वे अगले विधानसभा चुनावों में भी उन्हें ही चुनेंगे। इसीलिए जब भी बंगाल विधानसभा के चुनाव होंगे, तो वामपंथियों की सत्ता छिन जाएगी। तृणमूल की सरकार सत्ता में आएगी और ममता बनर्जी अगली मुख्यमंत्री होंगी।

कुछ वामपंथी नेता इस जीत को नकारने की कोशिश में लगे हैं, लेकिन उससे कुछ होनेवाला नहीं है। उनकी अपनी पार्टी का कैडर ही अब उनके साथ नहीं है। उस कैडर का भी मोहभंग हो चुका है। आखिर घिस चुके मार्क्सवाद और अमेरिका विरोध की राजनीति को कोई क्यों बर्दाश्त करे? देश में विकास के और ढेरों मुद्दे हैं, उन पर वे ध्यान देना चाहते हैं।

अपनी यूपीए सरकार को भी यह बात जेहन में रखनी चाहिए। उनके नंबर दो यानी वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी दोबारा लोकसभा में तभी आ सकते हैं, जब वह ममता के साथ ही रहें। कुछ हफ्ते पहले ममता दीदी एक्सप्रेस हावड़ा रेलवे स्टेशन पर उतरी थीं। वह कभी भी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतर सकती हैं। अपने अजीबोगरीब यात्रियों के साथ जिनके जवाब देने कांग्रेस को मुश्किल होंगे।

एक सवाल मेरे जेहन में भी उठता है। आखिरकार ममता बनर्जी किस तरह की मुख्यमंत्री होंगी? उनमें जितनी खूबियां हैं, उतनी ही खामियां भी हैं। वह बहुत थोड़े में काम चलाने वाली महिला हैं। एक साधारण से घर में वह रहती हैं। वह वक्त पर पहुंचने के लिए मोटर साइकिल के पीछे बैठ कर भी चली जाती हैं। आम आदमी की तरह कैसे रहा जाता है, उसकी मिसाल उन्होंने अपने मंत्रियों के सामने पेश की है।

उनकी खामियों में सबसे ऊपर है उनका मिजाज। वह टीम के एक सदस्य की तरह बर्ताव ही नहीं कर पाती हैं। इसीलिए टीम से छिटक-छिटक कर भागती रहती हैं। उन्हीं की वजह से टाटा का नैनो प्रोजेक्ट बंगाल से गुजरात चला गया। यही वजह है कि उद्योगपति बंगाल में आना ही नहीं चाहते। ममता को हर नए प्रोजेक्ट को ठीक से देखना होगा। उन्हें नए निवेशकों का भरोसा जीतना पड़ेगा, ताकि उनके अपने बंगालियों को रोजगार मिल सके।

ममता को यूनियनबाजी से भी बचना होगा। वामपंथियों ने उसे बढ़ावा दिया था। बाद में वह उनके लिए ही आफत बन गई। धरने, प्रदर्शन, घेराव और बंद की वजह से ही तो बंगाल उद्योग धंधों में पिछड़ गया। ममता को फिर से बंगाल को खुशहाली की ओर ले जाना होगा। आखिर में मुझे उनसे एक शिकायत है। वह कभी हंसती या मुसकराती नहीं हैं। उन्हें हंसना-मुसकराना सीखना होगा और अपने आसपास खुशनुमा माहौल बनाए रखना होगा।

(साभार दैनिक हिंदुस्‍तान)

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भोपाल का गुस्सा और दिल्ली की खामोशी

क्या आप भोपाल के विश्वासघात पर गहराते गुस्से के ऊपर छाई इस खामोशी को सुन सकते हैं? भारत के तीन सबसे ताकतवर शख्स प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, श्रीमती सोनिया गांधी और पीएम इन वेटिंग राहुल गांधी खामोश हैं। माना कि खामोशी भी बयान होती है, लेकिन फिलवक्त मेरे जेहन में कई सवाल उमड़ रहे हैं। अव्वल तो कांग्रेस पार्टी इस तरह की खामोशी की आदी है नहीं। हैरानी नहीं होनी चाहिए कि आम राय के दबाव से सामना होने पर पार्टी के दूसरे दर्जे के नेताओं ने अपने बयानों से बखेड़ा ही खड़ा किया है। हफ्ता खत्म होते-होते कांग्रेसी एक ही दुआ कर रहे थे- जो चुप हैं, वे अपना मुंह खोलें और जो बोल रहे हैं, उन्हें जबान पर लगाम लगाने का हुक्म दिया जाए।

लेकिन बतकहियों से भी हमेशा बात कहां बनती है। जयराम रमेश को लगा होगा कि शायद उनके इस ऐलान से ही कोई असर पड़े कि उनका प्रस्तावित ग्रीन ट्रिब्यूनल भोपाल में होगा। लेकिन यह बाजी भी उल्टी पड़ गई। रमेश के मुंह से भोपाल राग सुनकर मीडिया को पर्यावरण मंत्री के रूप में रमेश का इकलौता भोपाल दौरा याद हो आया, जिसमें उन्होंने त्रासदी के शिकार लोगों की तकलीफ का तकरीबन मखौल उड़ाते हुए निहायत गैरजिम्मेदाराना बयान दिया था। रमेश ने विजेता की मुद्रा में कहा था। 'मैंने जहरीले कूड़े को हाथ में उठाकर देखा है। मैं अब भी जिंदा हूं। गैस त्रासदी को 25 बरस हो चले। अब हमें आगे की सुध लेनी चाहिए।'

यह देश की खुशनसीबी ही थी कि दिसंबर, 1984 की उस हत्यारी रात रमेश भोपाल की झुग्गियों में नहीं सो रहे थे। रात की खामोशी में यूनियन कार्बाइड प्लांट से रिसी जहरीली मिक गैस ने 20 हजार लोगों की जान ले ली, जबकि लाख से ज्यादा लोगों को अपाहिज बना दिया। हमें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि रमेश जहरीली गैस के चलते कोख में ही दम तोड़ देने वाले भ्रूणों में से एक नहीं थे या उन्होंने 26 साल का यह सफर लड़खड़ाते हुए, धुंधलाती, गुस्से से भरी आंखों के साथ तय नहीं किया। कितना अच्छा हुआ कि रमेश की भेंट कभी रघु राय से नहीं हुई। इस रहमदिल फोटोग्राफर ने असहाय लोगों के लिए इतना काम किया है, जितना सरकार और मानवाधिकारों के प्रति खासी प्रतिबद्ध अमेरिका की हुकूमत तक ने भी नहीं किया होगा।

सच्चाई यह है कि भोपाल गैस त्रासदी घृणित विश्वासघात की कहानी है। इसमें हर उस शख्स को इनाम से नवाजा गया, जिसने भारतीयों से ज्यादा तरजीह अमेरिकी कॉर्पोरेट के हितों को दी थी। इस शर्मनाक कहानी की शुरुआत वॉरेन एंडरसन के सरकारी उड़नखटोले में बैठकर उड़नछू हो जाने से होती है। वर्ष 1987 में सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल की और इस आपराधिक नरसंहार के लिए दोषियों को 10 साल कैद की आवाज उठाई। मुख्य न्यायाधीश ए एच अहमदी ने इस चार्जशीट पर पानी फेर दिया। यह विडंबना ही है कि एक ऐसे मामले में सुलह के लिए मुस्लिम मुख्य न्यायाधीश का इस्तेमाल किया गया, जिसमें पीड़ितों का बड़ा तबका गरीब-गुरबा मुसलमानों का था। अहमदी को इसके ऐवज में रिटायरमेंट के बाद खूब इनामो-इकराम मिले। भारत-अमेरिका के बीच प्रत्यर्पण सुलहनामे के बावजूद वॉरेन एंडरसन को कभी मुकदमे का सामना करने की जेहमत नहीं उठानी पड़ी। उनका बॉन्ड महज 25 हजार रुपयों का था। यह उतनी ही रकम है, जो हादसे के 26 साल बाद मुकदमे में दोषी पाए गए आरोपियों से मुचलके के बतौर चाही गई थी।

टोकन के तौर पर गरीबों के सामने समय-समय पर कुछ टुकड़े डाले जाते रहे। इनमें सबसे ताजातरीन है हाल ही में फिर से गठित किया गया ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स (जीओएम), जिसके अध्यक्ष हैं पी चिदंबरम। जरा कल्पना करें पिछले जीओएम का अध्यक्ष कौन था? अजरुन सिंह। और जरा यह भी बताएं कि चिदंबरम किस चीज के लिए मशहूर हैं? वित्त मंत्री की हैसियत से उन्होंने डॉऊ केमिकल के लिए कमल नाथ, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और रोनेन सेन के साथ लामबंदी की थी और प्रधानमंत्री को भरोसा दिलाया था कि यदि डाऊ को बख्श दिया जाता है तो अमेरिकी निवेश की शक्ल में खासी मलाई हासिल की जा सकती है।

आखिर डाउ वापसी क्यों करना चाहती थी? इसीलिए कि भारत में कार्बाइड की जमीन पर फिर से दावा जता सके। ऐसा क्यों? बात केवल डाउ की ही होती तो गनीमत थी, लेकिन भारतीयों के पास भी भारतीयों के लिए कुछ नहीं था। यकीनन, जयराम रमेश भी नए जीओएम के सदस्य हैं। यदि कांग्रेस का बस चलता तो अपने प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी (अगर वे मंत्री होते) को भी जीओएम में शामिल कर लेती। सिंघवी डाउ के वकील थे और वे कांग्रेस के लेटरहैड पर संदेश भेजा करते थे। भारतीय इस हकीकत से भी बेपरवाह नजर आए हैं कि कार्बाइड को गैस के खतरे के बाबत अंदेशा था, लेकिन फिर भी उसने हादसे को टालने के लिए कुछ नहीं किया। बहरहाल, उन स्वयंसेवकों के जज्बे को मेरा सलाम, जिन्होंने पार्टियों की सियासत में उलझे सिस्टम से लड़ाई लड़ी। क्या मैं स्वप्न देख रहा हूं? क्या कभी कोई ऐसा क्षण आएगा, जब भोपाल के हादसे पर हर हिंदुस्तानी की अंतरात्मा उसे कचोटेगी?

लेखक 'द संडे गार्जियन' के संपादक हैं।

(दैनिक भास्कर से साभार)

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नीयत हो तो मिल सकता है न्याय

भोपाल गैस कांड के पूरी चौथाई सदी बीत जाने के बाद आये अदालती फैसले की सभी ने यह कहकर निंदा की है कि इसमें देर भी हुई है और अंधेर भी। वास्तव में यह फैसला तो उससे भी खराब है। यह तो खुल्लमखुल्ला अन्याय का मामला है और वह भी आपराधिक अन्याय का।

मुख्य अभियुक्त, यूनियन कार्बाइड का तत्कालीन अध्यक्ष, वारेन एंडरसन तो न्यूयार्क में निश्चिंत बैठा हुआ है और यूनियन कार्बाइड के आठ अन्य भारतीय एक्जिक्यूटिव्स को (जिनमें से एक की मौत भी हो चुकी है) सिर्फ दो-दो साल की सजा सुनायी गयी है।

इसके अलावा स्थानीय अदालत ने उन पर एक-एक लाख रुपए का जुर्माना भी किया है और यूनियन कार्बाइड इंडिया पर पांच लाख रुपए का जुर्माना। सजा सुनाए जाने के बाद इन सभी को पच्चीस-पच्चीस हजार रुपए के निजी मुचलकों पर हाथ के हाथ जमानत पर भी छोड़ दिया गया।

दुनिया की इस सबसे भयानक दुर्घटना की जो भी जांच हुए उसमें यही साबित हुआ था कि यह दुर्घटना यूनियन कार्बाइड प्रबंधन की लापरवाही का और पहले से चेतावनियों मिल चुकी होने के बावजूद, समुचित सुरक्षा प्रबंध न किए जाने का ही नतीजा थी।

इसके बावजूद गैसकांड के बाद भोपाल पहुंचने पर एंडरसन को 25 हजार रुपए के निजी मुचलके पर छोड़ दिया गया और उसके बाद राज्य सरकार के विमान से दिल्ली पहुंचाया गया और अमेरिका भाग जाने दिया गया। उसके बाद से आज तक वह भारतीय कानून का भगोड़ा ही बना हुआ है।

यह दूसरी बात है कि उसने जमानत का मुचलका भरते हुए, अदालत के समन मिलने पर हाजिर होने का जो वादा किया था, उसे पूरा करने की उसने कभी परवाह नहीं की। भारत सरकार आज तक उसका प्रत्यर्पण नहीं करा पायी है कि उसे अदालत के कटघरे में खड़ा किया जा पाता।

इस मामले में भारतीय शासन की मिलीभगत के अंदेशे उस समय और गहरा गए, जब 1989 में रहस्यमय तरीके से यूनियन कार्बाइड के खिलाफ लगे सारे आपराधिक अभियोग वापस ले लिए गए। इस पर जब सार्वजनिक रूप से बहुत शोर-शराबा हुआ, उसके बाद ही 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा आपराधिक मामले खोलने की इजाजत दी।

बहरहाल, एक बार फिर रहस्यमय तरीके से 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश जारी किया कि इस मामले में अभियोगों को कल्पेबल होमीसाइड (जिसके लिए दस साल तक सजा का प्रावधान है) की जगह पर, लापरवाही से मौत (जिसमें ज्यादा से ज्यादा दो साल की सजा का प्रावधान है) कर दिया जाए।

इस तरह का अन्याय स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अमेरिका के दबाव में भारत की न्याय व्यवस्था को तोड़े-मरोड़े या नकारे जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अगर इसे नहीं रोका गया तो हमारी न्याय व्यवस्था में, हमारे संसदीय जनतंत्र में भारतीय जनता का विश्वास ही डगमगा जाएगा।

भारत सरकार को गंभीरता से घोर अन्याय का उपचार करना चाहिए और दोषियों को सजा मिलनी चाहिए और तथा पीड़ितों को न्याय। यह भी किसी तरह से मंजूर नहीं किया जा सकता है कि इस भयावह महाविपदा के शिकार हरेक व्यक्ति पर औसतन 12,410 रुपए का मुआवजा दिया जाए।

अदालत के इस फैसले के खिलाफ देश भर में उठी भावनाओं के जबर्दस्त ज्वार के प्रत्युत्तर में कानून मंत्री ने यह कहा है कि एंडरसन के खिलाफ मामला 'कानूनी व तकनीकी रूप से' अब भी जिंदा है और अगर, 'उसे तलब किया जा सके, उस पर अब भी मुकद्दमा चलाया जा सकता है।'

देश की आहत भावनाओं पर मरहम तभी लगेगी, जब इस संभावना पर ईमानदारी से आगे बढ़ा जाए। कानून मंत्री ने देश को इसका भी भरोसा दिलाया है कि इस तरह की मानव-निर्मित महा-आपदाओं से सख्ती से निपटने के लिए एक नया कानून बनाया जाएगा और वह भी छह महीने में ही।

अगर वाकई ऐसा है तो यूपीए की सरकार को उस नाभिकीय जवाबदारी यानी न्यूक्लियर लाईबिलटी बिल पर गंभीरता से विचार करना चाहिए तथा उसे वापस लेना चाहिए, जिसे अमेरिका के ही दबाव में इतनी जल्दबाजी में संसद में पेश किया गया था।

भोपाल गैस कांड में यूनियन कार्बाइड ने लंबी कानूनी खींच-तान के बाद 713 करोड़ रुपए का मुआवजा देना मंजूर किया था। लेकिन, नाभिकीय जवाबदारी कानून के अंतर्गत तो नाभिकीय रिएक्टर आदि संचालक के लिए ज्यादा से ज्यादा 500 करोड़ रुपए की मुआवजा जवाबदारी तय की जा रही है।

सरकार के अपने ऊपर यह जवाबदेही लेने की सूरत में यह रकम बढ़कर 2,100 करोड़ रुपए तक जा सकती है। सभी जानते हैं कि नाभिकीय दुर्घटना की सूरत में भोपाल कांड के मुकाबले भी जन-धन का कई गुना ज्यादा नुकसान हो सकता है। इसके बावजूद विधेयक में मुआवजा जवाबदारी कम रखी गयी है।

अदालत का यह फैसला अमेरिका तथा पश्चिमी ताकतों को यह स्पष्ट संदेश देता है कि भारत आकर अपने कितने ही प्रदूषणकारी व जोखिमभरे कारखाने लगाएं, उसने अनाप-शनाप मुनाफे बटोरें और उन्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है कि अगर कोई गंभीर दुर्घटना हो गयी तो उन्हें कोई बहुत भारी मुआवजा देना पड़ेगा।

अमेरिकी उप-विदेश मंत्री ने इसी भावना को स्वर देते हुए बाकायदा इसकी उम्मीद जतायी है कि इस अदालती फैसले के बाद अब भोपाल गैसकांड का पूरा मामला खत्म हो जाएगा। यूनियन कार्बाइड के खिलाफ, (जो अब बहुराष्ट्रीय डो कैमिकल्स की सब्सिडिरी बन गयी है) कोई कार्रवाई किए जाने से भी अमेरिका ने साफ इंकार कर दिया है।

एक तरफ ऐसी घोर निष्ठुरता है और दूसरी ओर मैक्सिको की खाड़ी में पिछले ही दिनों हुए तेल के कुएं से बड़े पैमाने पर तेल के रिसाव की बड़ी दुर्घटना के प्रति उनका रुख। समुद्र में स्थित तेल कुएं की दुर्घटना में 11 लोग मारे गए हैं और दसियों लाख गैलन कच्चा तेल समुद्र में उलीच दिया गया है। ओबामा प्रशासन ने ऐलान किया है कि वह भीमकाय तेल कंपनी बी पी से अरबों डालर की भरपाई करवाएगा और पर्यावरण सफाई करवाएगा। लेकिन, वही अमेरिका भोपाल गैसकांड के मामले को बंद कराना चाहता है।

अब कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि भारत एंडरसन के प्रत्यर्पण की मांग करे और उस पर त्वरित मुकदमा चलाया जाए, जिसकी संभावना खुद कानून मंत्री ने स्वीकार की है। सरकार को जो दूसरा आवश्यक कदम यह उठाना चाहिए कि या तो अदालत के फैसले के खिलाफ समुचित अपील दायर करे या फिर सर्वोच्च न्यायालय में नये सिरे से कानूनी प्रक्रिया शुरू करे, ताकि पीड़ितों के लिए समुचित न्याय सुनिश्चित किया जा सके।

लेखक माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं।

(साभार दैनिक हिंदुस्‍तान)

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http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

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We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk