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Tuesday, August 18, 2015

बलात्कार का हल फांसी नहीं, स्त्री-पुरुष के बीच के हिमालय को ढहाना है। (विशेष लेख)

बलात्कार का हल फांसी नहीं, स्त्री-पुरुष के बीच के हिमालय को ढहाना है। (विशेष लेख)

2012 के दिसम्बर के बाद, न केवल महिलाओं के प्रति अपराधों को लेकर जागरुकता बढ़ी, बल्कि इसके लिए सिविल सोसायटी से गांव तक के लोग आगे आए। लेकिन दरअसल एक पुराने ढर्रे की मांग भी उठी, कि हमको बलात्कार से निपटने के लिए सख्त क़ानून चाहिए। इतिहास में सख़्त क़ानूनों को लेकर हमेशा दो राय रही हैं, एक कि इनसे ही अपराधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है और दूसरी यह कि इनसे सिर्फ सत्ता या शक्तिशाली लोगों को लाभ होता है। नए क़ानून आने के बाद जहां एक तबके ने इसका स्वागत किया, वहीं दूसरे तबके ने इसका विरोध यह कह के किया कि इसका दुरुपयोग भी हो सकता है। दुरुपयोग के मामले भी सामने आए, तो कई सच्चे मामले भी। लेकिन आंकड़ों को उठा कर देखें, तो स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या में, इसके बाद भी कमी नहीं आई। इस विषय पर श्याम आनंद झा के इस संक्षिप्त लेख पर आप भी अपना जवाब, लेख या टिप्पणियां भेज सकते हैं।

Students participate in a protest against a leader of the ruling Congress party, who was arrested on accusations he raped a woman in a village in the early hours of the morning, in Gauhati, India, Thursday, Jan. 3, 2013. Footage on Indian television showed the extraordinary scene of local women surrounding Bikram Singh Brahma, ripping off his shirt and repeatedly slapping him across the face. A Dec. 16 gang rape on a woman, who later died of her injuries, has caused outrage across India, sparking protests and demands for tough new rape laws, better police protection for women and a sustained campaign to change society's views about women. (AP Photo/Anupam Nath)

सोचा था, बलात्कारियों को फांसी मिलनी चाहिए या नहीं, विषय विवादास्पद है; इसलिए इस मुद्दे पर बातचीत शुरू करने के लिए दस से ज्यादा लोगों की रजामंदी नहीं मिलेगी। सो, जानबूझ कर मित्रों से अनुरोध किया था कि बातचीत शुरू हो इसके लिए तीस लोग समर्थन करें। पंद्रह लोगों की रज़ामंदी मिल गई है, इतने लोगों के साथ से तो दुनिया जीती जा सकती है।

मुझसे सवाल पूछा गया था कि क्या निर्भया बलात्कार जैसे बर्बर काण्ड में शामिल अपराधियों को भी फांसी की सजा से दूर रखा जा सकता है? ठहरकर सोचने वाले लोग जानते हैं कि ऐसे सवालों के जवाब हाँ या ना में देना मुश्किल है। लेकिन पूछने वाले मानेंगे नहीं। कहेंगे, देखिए, बात बदल रहे हैं।

इसलिए मेरा जवाब होगा, "हाँ – उस बर्बर अपराध में शामिल लोगों को भी फांसी नहीं दी जानी चाहिए।"

ठहरिए, मुझे भी अपराधी घोषित करने से पहले मेरे इन अदद हज़ार शब्दों की दलील सुन लें।

आप अगर दुनिया भर के दंड विधान को देखें तो आपको कई दिलचस्प बातें देखने को मिलेगी। बलात्कार लगभग हर सरकार और क़ानून की नज़र में एक घिनौना अपराध है और हर जगह बलात्कार के दोषी अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान है।

Protestors-want-capital-punishment-for-rapists-Saurabh-Das-APलेकिन यह एक दिलचस्प तथ्य है कि जिस देश में बलात्कार की सज़ा जितनी ज्यादा सख्त और क्रूर है उस देश में स्त्रियों की सामाजिक दुर्दशा उतनी ही चिंताजनक। उदहारण के लिए इस्लामिक मुल्कों के अलावा कई कई पूर्वी एशियाई और उत्तरी अफ़्रीकन मुल्कों पर हम एक नज़र डाल सकते हैं।

साथ ही यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि जिन मुल्कों में बलात्कार या यौन अपराध के लिए क्रूरतम सजा का क़ानून है, उन मुल्कों में ये अपराध ज्यादा होते हैं। दरअसल ये दोनों एक सिक्का के ही दो पहलू हैं। समाज हिंसक होगा तो सरकार और उसके क़ानून भी हिंसक होंगे। सरकार और उसके क़ानून हिंसक हैं, इसका मतलब वह समाज हिंसक है।

मैं उम्मीद करता हूँ कि आप मेरी इस बात पर नाराज़ नहीं होंगे कि कठोर और क्रूर क़ानून सिर्फ पीड़ितों की आँखों में धूल झोंकने के लिए होते हैं।

मैं यह भी कहूँगा स्त्रियों या बच्चों या कमजोर वर्ग के खिलाफ आप कोई भी अपराध किसी तरह का दंड विधान बनाकर नहीं रोक सकते। अगर रोक सकते, तो बलात्कार रुक गया होता, बच्चों का अपहरण रुक गया होता, असहाय वृद्धों की हत्या रुक गई होती, दलितों का शोषण रुक गया होता। इन सबके लिए तो कठोर दण्ड विधान हैं ही।

तो दंड विधान के सहारे आप कुछ नहीं कर सकते। ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि जो जैसे चल रहा है, उसको वैसे ही चलने दें सकते हैं।

और पूरी दुनिया की सरकारें यही कर रहीं हैं। अमेरिका की सरकार हो या अमीरात की, उनकी दिलचस्पी इस बात में नहीं है कि स्त्रियों के ख़िलाफ़ किए जा रहे अपराध रुकें। वे चाहती हैं कि ये अपराध होते रहें और दंड विधान, कड़े नियम और क्रूर सजाओं के नाम पर वे नागरिकों की आँखों में धूल झोंकते रहें।

india-rape_2453293bऔर हम? शर्मनाक तरीके से हम चुप हैं। दलालों से भरे मीडिया और आलसी मूर्खों से भरे हमारे न्यायालय और विश्वविद्यालय सभी राग अलापने के लिए मज़बूर हैं जैसी सरकार वैसा राग। कोई उठकर यह सवाल नहीं पूछता कि बंद करो लुका छिपी का यह खेल बताओ कि ये अपराध बंद कैसे होंगे?

क्या ये अपराध बंद हो सकते हैं?

हो सकते हैं। पर दंड विधान से नहीं नीति विधान से।

हमें सबसे पहले स्त्रियों और पुरुषों की दुनिया के बीच खड़े हिमालय ढहाने होंगे। इन दोनों के बीच खुदी अटलांटिक महासागर को पाटने होंगे।

क्या मैं रूपक में बात कर रहा हूँ? नहीं। आप में से किसी को लगता है कि आज स्त्रियों और पुरुषों के बीच की सामाजिक दूरी अटलांटिक महासागर से कम है?

प्रकृति ने स्त्री और पुरुष बनाए, ताकि वे एक दूसरे से बित्ते भर की दूरी पर रहें। जब जिसका मन हो एक दूसरे की दुनिया में आएँ- जाँय । लेकिन हमारी इस सभ्यता ने निजी सम्पति की रक्षा के लिए इन दोनों के बीच ऐसी खाई खोदी कि ये चाहकर भी एक दूसरे के नहीं हैं। दोनों की भिन्न दुनिया है। एक की दुनिया में सांस के लिए ऑक्सीजन इस्तेमाल होता है, दूसरे में हीलियम। (यह दृष्टान्त फिल्म 'बिफोर मिडनाइट' के एक डायलाग से प्रभावित है।)

gender_expression_by_hfrancis-d4pvrww[1]आप सोचते हैं, आपकी पत्नी है, आपके पति हैं, आप शादी शुदा हैं, आप लिव इन में रहते हैं तो आपका दूसरी
दुनिया में आना जाना है? आप धोखे में हैं। पुरुष के साथ रहकर भी आप पुरुष की दुनिया का तिनका भर नहीं समझ रहीं और स्त्री के साथ रहकर भी पुरुष उसे उतना ही समझ रहा है जितना किसी लोकल कॉलेज के हिंदी का अध्यापक ग्रीक भाषा को। और सारी दिक्कत यहीं से शुरू होती है। स्त्री पुरुष के साथ और पुरुष स्त्री के साथ ऐसे रहते हैं जैसे एक दूसरे के लिए एलियन हों।

बलात्कार किसी एक खास आदमी या किसी खास स्त्री के बीच की समस्या नहीं है। यह सामान्य रूप से स्त्री और पुरुष के बीमार सम्बन्ध से उपजी हुई समस्या है।

समाज मनुष्य के शरीर की तरह एक जीवित संवेदनशील इकाई है। स्त्री और पुरुष इसके दो फेफड़े हैं। ये दोनों अलग अलग नहीं रह सकते। इन्हें साथ रहना होगा। इन दोनों को एक दूसरे की दुनिया में आने जाने की आवाजाही पर लगी रोक हटानी होगी। बलात्कार क्या है? अतिक्रमण ही तो है। अतिक्रमण क्यों क्योंकि प्रतिबन्ध हैं।

प्रतिबन्ध हटाइए, पुरुषों से ज्यादा स्त्रियों से। स्त्रियों से ये पूछना बंद कीजिए कि उसके बच्चे का पिता कौन है? स्कूल, कचहरी वोटर आईडी में छात्रों/अभ्यार्थियों के पिता का नाम लिखना बंद कीजिए, स्त्रियों से कहिए कि वह अपना पुरुष और अपना परिवार बार-बार चुनने के लिए स्वतंत्र है।

Socialistwomenअतिक्रमणकारी पुरुषों से कहिए स्त्रियों की दुनिया में अतिक्रमण कर जाने की कोई ज़रुरत नहीं है, कि वहाँ हर पुरुष का स्वागत है। उनसे कहिए कि कोई स्त्री तुम्हारी स्त्री नहीं है। वह बस स्त्री है जैसे तुम बस पुरुष हो। उनसे कहिए, स्वयं मुक्त होने से पहले अपने परिवार की स्त्रियों को मुक्त करें।
ऐसा करना आसान नहीं होगा, लेकिन यह असंभव भी नहीं है। दुनिया में आज भी ऐसे समाज हैं, जहाँ इस तरह की प्रथाएं प्रचलित हैं और वहां बलात्कार नहीं होते।

लेकिन उन समाजों में पूंजीवाद नहीं है। पूँजीवाद के लिए यह ज़रूरी है कि ज्यादा सा ज्यादा वस्तु क्रय और विक्रय के लिए उपलब्ध हों। स्त्री और पुरुष की यौनकिता भी पूँजीवाद व्यवस्था में एक बिकने वाली वस्तु है, जिससे सरकारें हज़ारों-लाखों करोड़ डॉलर का टैक्स कमाती है।

और ये मीडिया, ये ज्यूडिशियरी नाम के जो टंटे खडे हुए है पूंजीवाद के साथ, इन सबके लिए ये व्यवस्थागत अंतर्विरोधी बातें खुराक हैं। ये इन्हीं अंतर्विरोधों को पीट पीट कर गाते हैं और उसीका खाते हैं।

(कृपया मेरे विचारों और तर्कों की कमियों को रेखांकित करें, शायद कुछ और बात निकल कर आए ज जिन्हें मैं नहीं देख पा रहा हूँ।)

Shyam Anand Jhaश्याम आनंद झा

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, सिनेमा और थिएटर से जुड़े रहे हैं। 

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