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Wednesday, August 6, 2014

यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है! नई सरकार का 'रिपोर्ट कार्ड' या आरएसएस की रणनीति के 'दूसरे चरण' का आग़ाज़? अभिषेक श्रीवास्‍तव

यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है!

नई सरकार का 'रिपोर्ट कार्ड' या आरएसएस की रणनीति के 'दूसरे चरण' का आग़ाज़? 


अभिषेक श्रीवास्‍तव 





यह बात 1970 की है। नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का तीसरे वर्ष का प्रशिक्षण शिविर चल रहा था। यह वह चरण होता है जिसके बाद कोई व्यक्ति पूर्णकालिक संघ कार्यकर्ता बन जाता है। शिविर का संचालन यादवराव जोशी कर रहे थे जो उस वक्त समूचे दक्षिण भारत में संघ कार्यकर्ताओं के प्रमुख हुआ करते थे। एक प्रशिक्षु ने प्रश्न सत्र में जोशी से एक सवाल किया था, ''हम कहते हैं कि आरएसएस एक हिंदू संगठन है। हम कहते हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और भारत हिंदुओं का देश है। उसी सांस में हम यह भी कहते हैं कि मुसलमानों और ईसाइयों को अपना-अपना धर्म मानते रहने की छूट है और वे इसी तरह तब तक रह सकते हैं जब तक उन्हें इस देश से प्यार है। आखिर हमें उनको यह रियायत देने की जरूरत ही क्यों हैआखिर क्यों नहीं हम स्पष्ट रूप से कह देते कि चूंकि हम हिंदू राष्ट्र हैं इसलिए उनके लिए यहां कोई जगह नहीं है?'' जोशी ने इसका जवाब यह दिया, ''आरएसएस और हिंदू समाज अभी इतना सशक्त नहीं हुआ है कि वह मुसलमानों और ईसाइयों से साफ तौर पर कह सके कि अगर आप भारत में रहना चाहते हैं तो हिंदू धर्म को स्वीकार कर लो। यह कह सके कि या तो बदल जाओ या खत्म हो जाओ। लेकिन जब हिंदू समाज और आरएसएस पर्याप्त मजबूत हो जाएंगेतब हम उनसे साफ-साफ कह देंगे कि अगर वे इस देश में रहना चाहते हैं और इससे प्रेम करते हैंतो यह मान लें कि कुछ पीढ़ियों पहले वे हिंदू ही थे और इसलिए वे वापस हिंदू धर्म में आ जाएं।''  (कारवां, आरएसएस3.0, दिनेश नारायणन, 1 मई 2014)

इस घटना के 44 साल बाद 25 जुलाई, 2014 को गोवा के उपमुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूज़ा का दिया यह बयान देखिए, ''भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की जरूरत क्या हैभारत तो पहले से ही हिंदू राष्ट्र है और हिंदुस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। मैं भी हिंदू हूंईसाई हिंदू।''यह बयान अचानक नहीं आया है। लोकसभा चुनाव से पहले बिहार के बीजेपी नेता और नवादा से उम्मीदवार गिरिराज सिंह ने 18 अप्रैल 2014 को कहा था कि जो लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकना चाहते हैंउनके लिए भारत में जगह नहीं होगी और उन्हें जल्द ही पाकिस्तान भेज दिया जाएगा। गिरिराज सिंह का बयान आए सिर्फ तीन महीने हुए हैंलेकिन इस बीच हिंदू इलाके से मुसलमान घरों को खाली कराने (19 अप्रैल, 2014) तथामुसलमानों को मुजफ्फरनगर दंगों की याद दिलाते हुए उन पर सरे राह थूकने (19 जुलाई, 2014) की सलाह हिंदुओं को देने वाले विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया से लेकर गोवा के मंत्री दीपक धवलिकर द्वारा नरेंद्र मोदी में जताई गई उम्मीद तक- कि सबके समर्थन से वे भारत को हिंदू राष्ट्र बना देंगे (24 जुलाई, 2014)- हिंदू राष्ट्र का संदर्भ नियमित तौर से बार-बार सुर्खियों में आ रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अब तक आधिकारिक तौर पर हिंदू राष्ट्र के बारे में अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहा हैलेकिन यादवराव जोशी की 1970 में कही बात को आज याद करें तो एक सवाल ज़रूर बनता हैः क्या हिंदू समाज और आरएसएस ''पर्याप्त मजबूत'' हो चुके हैं कि वे कभी भी मुसलमानों और ईसाइयों को धर्म बदलने या खत्म हो जाने का विकल्प दे सकते होंसवाल यह है कि जिस हिंदू राष्ट्र का भय लंबे समय से इस देश के बहुलतावादी मानस में जमा हुआ हैक्या हम उसके बहुत करीब आ चुके हैंआखिर कितना करीब आ चुके हैंयह डर क्या वास्तविक है या सिर्फ संघी बयानवीरों का पैदा किया हुआ है?

प्रस्तुत लेख का असल उद्देश्य 26 मई, 2014 को इस देश में बनी भारतीय जनता पार्टी की बहुमत वाली सरकार का बस हालचाल लेना था। मंशा यह थी कि बीते दो महीनों के दौरान इस सरकार ने जो काम किए हैं या नहीं किए हैंउन पर बात की जाए और वादों के जिस जहाज पर सवार होकर यह सरकार भारी जनादेश लेकर केंद्र में आई हैउसके बरक्स आज की तारीख में इस सरकार का पानी नापा जाए। यह लेखक जब पिछले दो महीनों के दौरान हुई घटनाओंविवादोंबयानोंउपलब्धियोंनाकामियों आदि की सूची बनाने बैठा तो आश्चर्यजनक रूप से दो विरोधी निष्कर्ष निकलकर सामने आएः

पहलाइस सरकार ने कोई काम नहीं किया है।
दूसराइस सरकार ने इतना काम किया है जितना पहले कभी भी इतनी कम अवधि में नहीं हुआ था।

क्या ये दो बातें एक साथ संभव हो सकती हैंसहज जवाब 'नामें होना चाहिएलेकिन ऐसा है नहीं। वास्तव में ये दोनों बातें सही हैं। इसे समझने के लिए हमें नरेंद्र मोदी के बहुप्रचारित चुनावी नारे को एक बार याद करना पड़ेगा- ''मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस''। इसका मतलब यह था कि काम तो होगाराजकाज चलता रहेगापहले से ज्यादा गति से बढ़ेगालेकिन उसमें सरकार की भूमिका न्यूनतम रहेगी। याद नहीं आता कि तब यह सवाल कहीं पूछा गया था या नहीं कि अगर काम होगा और काम सरकार नहीं करेगी,तो कौन करेगा। हो सकता है किसी ने पूछा हो। हो सकता है इसे पहले से ही समझ लिया गया हो। इससे हालांकि फर्क क्या पड़ता है जबकि चुनावी नारा बहुमत में तब्दील हो चुका हो! बहरहालमोदी के चुनावी नारे के आईने में देखें तो उपर्युक्त दोनों निष्कर्ष समझ में आ सकते हैं। बस एक सवाल रह जाता है कि वह अदृश्य हाथ कौन सा है जो इस देश में राजकाज चला रहा हैवह इतना भी अदृश्य नहीं है। वह पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट है। कहीं ज्यादा मुखर है। वह आरएसएस है।

भारत सरकार के चलने में आरएसएस की भूमिका समझनी हो तो जल्दी में एक अभ्यास किया जा सकता है। इन दो महीनों में जो कुछ इस देश में हुआ हैउसे अधिकतम स्मृति के आधार पर हम दर्ज करेंगे। जो मोटी सूची बनेगीवह निम्न है। सुविधा के लिए हमने इस ''रिपोर्ट कार्ड'' (अगर कह सकते हैं तो) को संसदीय लोकतंत्र के तीन स्तम्भों की तीन श्रेणियोंमीडिया और विविध में बांट दिया है ताकि सनद रहे।


मोदी सरकार के साठ दिनों का संक्षिप्‍त लेखा-जोखा 

 अगर कुछ छूट रहा हो तो इस तालिका में जोड़ा जा सकता है। सिर्फ स्मृति के आधार पर देखें तो 26 जुलाई, 2014 तक यानी मोदी सरकार के शपथ लेने के बाद के 60 दिनों के भीतर तालिका के अनुसार ऐसे कुल 56 अलग-अलग मामले याद आते हैं जो हर अगले दिन नई बहस खड़ी करते आए हैं। बेशकऐसे और भी मसले होंगे जिनके बारे में या तो हमें सूचना नहीं है या फिर हमें सूचित नहीं किया गया। देश में नई सरकार बनने के बाद पेश किए गए बजट के प्रावधानों से लेकर कैबिनेट के फैसलों तक और नियुक्तियों से लेकर सार्वजनिक विवादों तक आप पाएंगे कि हर कहीं एक ''एजेंडा'' है। सरकारी फाइलें नष्ट करने के क्रम में महात्मा गांधी की हत्या से जुड़ी फाइलों पर उठा विवाद अगर प्रत्यक्षतः इस एजेंडे को उद्घाटित नहीं कर पातातो गुजरात में दीनानाथ बत्रा (जिन्होंने एक मुकदमा कर के हिंदुओं पर लिखी वेंडी डोनिगर की पुस्तक को प्रतिबंधित करवाया है) की किताबें अनिवार्य किए जाने या फिर आइसीएचआर का मुखिया संघ से चुने जाने में इसे साफ देखा जा सकता है।

याद नहीं आता कि ऐसा कभी हुआ होगा कि प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर रहा हो और कैबिनेट की बैठक रद्द कर दी गई हो। पिछली यूपीए सरकार में मनमोहन सिंह के बाहर रहने पर प्रणब मुखर्जी (राष्ट्रपति बनने से पहले) कैबिनेट की बैठकें लिया करते थे। यही परंपरा पहले भी रही है। पहली बार ऐसा हुआ कि नरेंद्र मोदी विदेश में थे और कैबिनेट अपनी बैठक के लिए उनकी बाट जोह रही थी। इसी तरह पहली बार ऐसा हुआ है कि तमाम अन्य मंत्रियों समेत देश के गृहमंत्री को अपना निजी सचिव चुनने की अनुमति पीएमओ ने नहीं दी। इसके ठीक उलट नृपेंद्र मिश्र को प्रधानमंत्री का प्रधान सचिव बनाने के लिए सारे जहान का विरोध सिर पर उठाकर भी इस सरकार ने ट्राइ विधेयक में संशोधन कर डाला। बिल्कुल वैसे ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद औपचारिक रूप से संभालने से पहले ही पूर्व गुप्तचर अधिकारी अजित डोभाल प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह की योजना बनाने में जुट गए थे। जितनी तेज़ी से नरेंद्र मोदी ने नई सरकार की कमान अपने हाथ में ली और किसी के करने के लिए कुछ नहीं छोड़ाउसका प्रभाव प्रेस में हुए इस्तीफों और मीडिया की खबरों में भी साफ देखने को मिला। इस पूरे अध्याय में सबसे दिलचस्प बात यह रही कि प्रधानमंत्री लगातार चुप रहे। जिन्हें जो बोलना था वे बोलते गए। यहां तक कि संघप्रिय पत्रकार वेदप्रताप वैदिक तक माहौल ताड़कर अंतरराष्ट्रीय आतंकी हाफ़िज़ सईद से 'कूटनीतिक'मुलाकात कर आए जबकि संसद में अरुण जेटली ने इस मुलाकात पर पूरी नादानी से सफाई दे डाली कि इसका ''डायरेक्टलीइनडायरेक्टली या रिमोटली'' भी भाजपा या केंद्र सरकार से कोई लेना-देना नहीं है।

कहने का अर्थ यह है कि भारत में बनी इस सरकार के दो मुंह हैं। एक मुंह बोलता है और दूसरा मुंह बचाव करता है। बोलने वाला मुंह संघ के एजेंडे पर बोलता है। बचाव करने वाला उस चुनी हुई सरकार का और उस एजेंडे का बचाव करता हैजहां जैसी ज़रूरत हो। जो अब तक बोलता रहा हैवह इसलिए चुप है क्योंकि उसे अब काम करना है। संघ के एजेंडे पर काम। और उस काम की लंबी सूची हम ऊपर देख चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनते ही अमित शाह संघ के नेताओं के यहां पार्टी और संगठन के बीच बेहतर तालमेल बैठाने के लिए बैठक करते हैं। उधर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई अपने आवास पर ही संघ के अहम नेताओं को बैठक के लिए बुला लेते हैं ताकि देश-दुनिया की चर्चा की जा सके। इस तरह (भाजपा के संदर्भ में) जो तीन इकाइयां कायदे से संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्र अस्तित्व में होनी चाहिए थीं- चुनी हुई सरकारबहुमत वाला राजनीतिक दल और उसकी मातृ संस्था- वे कुल मिलाकर एक इकाई की ओर अग्रसर होते नज़र आते हैं। पार्टी से भी संघ तालमेल बैठा रहा है और सरकार के साथ भी। इसकी इकलौती वजह यह है कि देश का प्रधानमंत्री संघ का वह कार्यकर्ता है जिस पर संघ ने बीते दस साल में सबसे ज्यादा भरोसा जताया है। यही कारण है कि इस सरकार का रिपोर्ट कार्ड दरअसल भारत में चुनी हुई एक स्वतंत्र सरकार का रिपोर्ट कार्ड हो ही नहीं सकता। वह अनिवार्यतःः संघ का रिपोर्ट कार्ड होगा। इन दोनों के बीच में बचती है भाजपातो उसका आने वाले दिनों में क्या हो सकता हैइस पर हम बाद में सोचेंगे।  


(साभार कारवां) 


ज़ाहिर हैजब बात सरकार पर होगीप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर होगीतो वह संघ तक जाएगी और अंततः संघ प्रमुख मोहन भागवत पर आकर टिकेगी। सरकार को समझना है तो मोहन भागवत को समझना होगा। हो सकता है कि यह बात अतिशयोक्ति जान पड़े। हमने चुनाव से पहले तो अतिशयोक्तियां नहीं पाली थींलेकिन जो परिणाम आया वह सामने है। इसीलिए अबकी अतिशयोक्ति में बात करने में हर्ज़ नहीं होना चाहिए। कुछ लोगों का मानना रहा है कि नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व और राजकाज का तरीका संघ को दरकिनार कर देगा। यदि ऐसा होता है तो पिछले दो महीनों के दौरान इसका एक भी संकेत मिलना चाहिए था। स्थिति उसके ठीक उलट दिख रही है। इसे समझने के लिए ज़रा पीछे चलते हैं। यूपीए-1 का जैसा प्रदर्शन पांच वर्षों के दौरान रहा थाभाजपा को उस हिसाब से 2009 के लोकसभा चुनाव में अपनी जीत की उम्मीद थी। लालकृष्ण आडवाणी तब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थेलेकिन भाजपा को आज तक नहीं समझ में आया कि उस चुनाव में उसकी हार कैसे और क्यों हुई। चूंकि पार्टी ने 2009 में वाजपेयी और आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था और उस वक्त तक राजनीतिक मोर्चे पर संघ उस तरह से सक्रिय नहीं था जैसा 2014 में हुआ या फिर इमरजेंसी के बाद वाले चुनाव में हुआ थाइसलिए संघ प्रमुख मोहन भागवत के दिमाग में संघ की दीर्घकालीन योजना के तहत आडवाणी के बाद प्रधानमंत्री पद का कोई उम्मीदवार अगर था तो वे राज्यसभा सांसद प्रमोद महाजन थे। तब तक नरेंद्र मोदी कहीं परिदृश्य में ही नहीं थे।

संघ के पुराने स्वयंसेवक और कारोबारी दिलीप देवधर के साथ दिनेश नारायणन की हुई बातचीत से यह साफ पता चलता है कि मोहन भागवत और महाजन के बीच कितना करीबी रिश्ता था (कारवां, 1 मई 2014)। सन् 2000 से 2006 के बीच भागवत नागपुर में एक होमियोपैथी चिकित्सक डाॅ. विलास डांगरे के घर पर महाजन से गुप्त मुलाकातें करते रहे थे,जहां देर रात तक दोनों के बीच लंबी चर्चा चलती थी। देवधर के मुताबिक, ''महाजन नागपुर के हवाई अड्डे पर उतरते तो पीछे के दरवाज़े से डांगरे के घर में दाखिल होते और भागवत से मिलते थे।'' उनके मुताबिक महाजन में भागवत भविष्य का प्रधानमंत्री देखते थे। दुर्भाग्यवश 2006 में महाजन की हत्या हो गई। इसके बाद से ही भागवत ने नरेंद्र मोदी के सिर पर अपना हाथ रखा। संघ के नेताओं को मोदी के संदर्भ में एक आशंका बनी रहती थी कि कहीं गुजरात दंगे के मामले में अदालत से कोई प्रतिकूल फैसला न आ जाएलेकिन2007 में जब मोदी ने राज्य में भारी चुनावी जीत दर्ज की तब जाकर मोहन भागवत के साथ संघ के दूसरे नेताओं ने उन पर राष्ट्रीय भूमिका के लिए भरोसा जताना शुरू किया। भारी जनादेश मिलने के बाद मोदी ने 2007 में संघ के कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं और पार्टी के नेताओं के पर कतरने शुरू किए जिससे संघ की कतारों में उन्हें लेकर असंतोष फैलने लगा था। इसके बावजूद किसी की परवाह किए बगैर मोहन भागवत अहमदाबाद में मोदी की पुस्तक ''ज्योतिपुंज'' का लोकार्पण करने पहुंचे थे। यह पुस्तक मोदी के कई गुरुओं के बारे में एक संकलन है जिसमें भागवत के पिता मधुकरराव पर भी एक अध्याय शामिल है।

प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी के नाम का जिक्र पहली बार2011 में बड़ौदा में किया गया। संघ की इस बैठक में तब तक मोदी के नाम को लेकर अधिकतर लोेगों में असहमति थीलेकिन कालांतर में चेन्नईअमरावती और जयपुर की बैठकों में उनके नाम पर बात चलती रही और विरोध कम पड़ता गया। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले संघ के भीतर दो नज़रिये काम कर रहे थे- धर्मनिरपेक्ष लाइन ली जाए या हिंदुत्व की बात भी की जाए। हिंदुत्ववादी समूह मोदी के पक्ष में था लेकिन आडवाणी का मानना था कि इस लाइन से 180 से ज्यादा सीटें नहीं जीती जा सकती हैं। उसके लिए वाजपेयी जैसा एक नरम चेहरा चाहिए। उनके विरोधियों ने 2004 का हवाला देते हुए विरोध किया कि वाजपेयी ने ही आखिर कौन सी जीत उस वक्त दिला दी थी। कुल मिलाकर सहमति यह बनी कि 2014 में हिंदुत्व वाली लाइन ही ली जाएगी। फिर जून 2013 में मोदी को बीजेपी की राष्ट्रीय प्रचार समिति का अध्यक्ष चुन लिया गया जिस फैसले में आडवाणी की सहमति नहीं थी। उसके बाद का सब कुछ इतिहास है।

इससे यह पता चलता है कि मोदी दरअसल भागवत की पसंद थे और हैं। तानाशाही कार्यशैली के बावजूद भागवत उन्हें इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि मोदी ने कभी भी संघ की बुनियादी विचारधारा को कोई चुनौती नहीं दी है। इसके बजाय मोदी ने संघ को दिखाया है कि संघ परिवार के बुनियादी मूल्यों को नए तरीके से पैकेज कर के भी लोगों के सामने परोसा जा सकता है। उन्होंने यह दिखाया कि हिंदुत्व की कट्टर लाइन को डिज़ाइनर परिधानों और आर्थिक वृद्धि व उपभोक्तावाद के मुहावरों से कोई खतरा नहीं है और ये सब कुछ हिंदुत्व के माॅडल में फिट बैठ सकता है। एक अन्य फर्क भागवत-मोदी रिश्तों के संदर्भ में यह है कि जहां संघ के दूसरे नेताओं ने अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए लगातार मोदी का समर्थन कियावहीं अकेले भागवत ऐसे हैं जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर मोदी पर लगाम भी कसे रखी है और उन्हें इसका कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ा है। याद करें कि इसी साल मार्च में बंगलुरु में संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के समापन सत्र पर स्वयंसेवकों से भागवत नेे कहा था, ''हमारा काम नमो नमो का जाप करना नहीं है। हमें अपने लक्ष्य की ओर काम करना चाहिए।'' मीडिया में इसे लेकर बहुत सी अटकलें लगाई गईं और यहां तक कहा गया कि संघ और मोदी के बीच दरारें पड़नी शुरू हो गई हैंलेकिन वास्तव में स्थिति ऐसी थी नहीं। मार्च के बाद बीते चार महीनों के घटनाक्रम से हम इस बात को लेकर मुतमईन हो सकते हैं कि भागवत और मोदी दोनों एक ही पलड़े पर बैठे हैं। यह पलड़ा विचारधारा का है जो एक साथ पार्टीसंगठन और सरकार तीनों को संचालित कर रहा है।

इसीलिएभारत सरकार पर या भारतीय जनता पार्टी पर या नरेंद्र मोदी पर बात करने का अर्थ मोहन भागवत पर बात करना है। भारत सरकार की योजनाओं पर और उसके रिपोर्ट कार्ड पर बात करना मोहन भागवत की योजनाओं और रिपोर्ट कार्ड पर बात करना है। प्रतिष्ठित पत्रिका ''शुक्रवार'' में मई के पहले अंक में कवि ज्ञानेंद्रपति का एक साक्षात्कार इस लेखक ने लिया था जिसमें उन्होंने बहुत मार्के की बात कही थी, ''बनारस से नरेंद्र मोदी नहीं,मोहन भागवत चुनाव लड़ रहा है।'' यह बात अब स्पष्ट है। बहरहालबीते दो महीनों में जो हुआवह हम देख चुके हैं। सवाल उठता है कि मोहन भागवत का अगला एजेंडा क्या है?मोहन भागवत को 75 साल की उम्र पूरी करने में दस साल से कुछ ज्यादा वक्त बच रहा है। यही संघ में सेवानिवृत्ति की आधिकारिक उम्र भी है। संयोग है कि 2025 में संघ अपनी स्थापना के 100 साल भी पूरे कर रहा है। अब और तब यानी 2014 और 2025 के बीच संघ ने अपने काम को विस्तार देने के लिए तीन चरणों की एक रणनीति तय की है। इस रणनीति का विवरण अभी तक सार्वजनिक नहीं हैलेकिन जानकारों की मानें तो इसके तीन चरण संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस के दिए मंत्र ''आॅर्गनाइज़ेशन,मोबिलाइज़ेशन और ऐक्शन'' की तर्ज पर तैयार किए गए हैं। संघ का मानना है कि पहले चरण का अंत हो रहा है और दूसरे चरण की शुरुआत होने वाली है। पहला चरण राजनीतिक सत्ता हासिल करना था जिसकी ज़मीन तैयार करने में मोहन भागवत जुटे हुए थे। अगर2019 में भी बीजेपी की सरकार आती है या बीजेपी वर्चस्व में रहती हैतो संघ के विचारधारात्मक घोड़ों को एजेंडा पूरा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाएगा। यह तीसरे चरण की शुरुआत होगी जिसके बारे में फिलहाल सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। यह चरण पूरी तरह अप्रत्याशित कार्रवाइयों का होगा जिनका उद्देश्य संघ के व्यापक सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति करना होगा। इस लेख की शुरुआत में यादवराव जोशी के जिस जवाब का ज़िक्र किया गया थाशायद वह पांच साल बाद साकार होता दिखेजैसा उन्होंने कहा था कि तब ''हिंदू समाज और आरएसएस पर्याप्त मजबूत हो जाएंगे तब हम उनसे साफ-साफ कह देंगे कि अगर वे इस देश में रहना चाहते हैं और इससे प्रेम करते हैंतो यह मान लें कि कुछ पीढ़ियों पहले वे हिंदू ही थे और इसलिए वे वापस हिंदू धर्म में आ जाएं।'' अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहातो 1970 में कही गई बात को इस देश में पूरा होने में सिर्फ पांच साल बाकी हैं।


भागवत और मोदी की जोड़ी (साभार इंडिया टुडे) 

बहरहालविधायिकाकार्यपालिका और न्यायपालिका में हो रहे और आगे किए जाने वाले''एजेंडा'' प्रेरित बदलावों के संदर्भ में तो बहुत कुछ किया जाना संभव नहीं है। ज्यादा से ज्यादा समाज में हो रहे बदलावों पर ही कुछ प्रतिरोध खड़ा किया जा सकता है। मीडिया की मदद ली जा सकती है। अविश्वसनीय हो चुके चैथे खंबे से झरती पपड़ियों और उसके नए-नए संस्करणों पर भी कुछ काम किया जा सकता है। लेकिन ऐसा लगता है कि यह भी बहुत कारगर नहीं रहने वाला है क्योंकि संघ इस मोर्चे पर अपने घोड़े बहुत पहले छोड़ चुका है। आज से ठीक एक साल पहले बीते अगस्त में संघ ने कोलकाता में एक बैठक बुलाई थी। यह कार्यशाला पत्रकारों के लिए बुलाई गई थी जिसका विषय था ''इस्लामिक कट्टरतावाद''। ऐसा पहली बार था कि अपनी स्थापना के 80 वर्षों में संघ ने पत्रकारों के लिए कोई आयोजन किया था। दिल्ली से लेकर मुंबई तक कई पत्रकार इस आयोजन में पहुंचे थे। इनमें वे तमाम चेहरे भी थे जिन्हें हम अब तक विश्वसनीय मानते आए हैं। ऐसी चार कार्यशालाएं देश भर में रखी गई थीं। एक ''जम्मू कश्मीर की राजनीति के संदर्भ में संघ की भूमिका'' पर थी। दूसरी ''अनुसूचित जातियों'' पर थी और तीसरी कार्यशाला ''विकास'' पर थी। संघ की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक कोलकाता के अलावा दिल्लीबंगलुरु और अहमदाबाद में आयोजित इन कार्यशालाओं में देश भर से 220 प्रतिभागी पहुंचे थे। कोलकाता की कार्यशाला में आयोजन के प्रमुख और संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने इसका उद्देश्य यह बताया थाः ''पत्रकारों को आरएसएस के पक्ष की जटिलताओं को समझाने में मदद करना ताकि वे हिंदू राष्ट्रवादी नज़रिये को बेहतर तरीके से मीडिया में रख सकें।''प्रतिभागियों को सख्त निर्देश दिए गए थे कि इस कार्यशाला के बारे में न तो रिपोर्ट करना है और न ही कहीं इसका जिक्र करना है। दिनेश नारायणन लिखते हैं कि एक सत्र के बाद चाय के दौरान पत्रकारों ने मोहन भागवत से बीजेपी और मोदी पर बात शुरू कर दी। भागवत ने पत्रकारों के समूह से कथित तौर पर कहा, ''मोदी इकलौते हैं जिनकी जड़ें संघ की विचारधारा में गहरी हैं। संघ ने पार्टी के नेताओं को कहा है कि वे बस अच्छे उम्मीदवार खड़े कर दें और बाकी काम हम कर देंगे।'' इसके बाद भागवत ने पत्रकारों को चलते-चलते कहा, ''यदि हम 2014 में जीत गएतो बीजेपी अगले 25 साल तक सत्ता में रह सकती है। अगर ऐसा नहीं हुआतो हम सब मिलकर भी जान लगा देंतब भी सौ साल तक ऐसा नहीं हो पाएगा।'' एक पत्रकार के मुताबिक, ''जिस तरह से उन्होंने यह कहा थाऐसा लगा कि आरएसएस शायद बीजेपी को तकरीबन अंतिम मौका दे रहा है।'' (दिनेश नारायणनकारवां, 1मई 2013)

आज अखबार और समाचार चैनलों पर खबरों को देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायद मुख्यधारा के मीडिया मालिकों-संपादकों के मन में वास्तव में यह बात बैठा दी गई है कि बीजेपी अगले 25 साल तक इस देश पर राज करेगी। मालिकान इसी हिसाब से अपने संपादकों में फेरबदल कर रहे हैं और संपादक इसी हिसाब से अपनी खबरें चला रहे हैं। खबरों में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद सुबह से लेकर रात तक छल-छल छलक रहा है। ध्यान रहे कि यह सिर्फ शुरुआत है और नई सरकार को शपथ लिए सिर्फ दो महीने हुए हैं। एक बार को अगर हम मान भी लें कि सारी आशंकाएं निर्मूल हैंजैसा कि इज़रायल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में सरकार के वोट पर कुछ मोदी आलोचकों के लिखे-कहे में दिखा या फिर 25 जुलाई, 2014 को उत्तराखण्ड के उपचुनाव में तीन सीटों पर बीजेपी की हार में दिखातब भी क्या हम यह अहम तथ्य भूल सकते हैं कि इस देश का संसदीय लोकतंत्र बिना किसी संसदीय विपक्ष के दो महीने से चल रहा हैइतना ही नहींउस विपक्ष के न होने को सुनिश्चित करने के लिए सारे विधायी प्रयास भी किए जा रहे हैंसिर्फ यह कह भर देने से कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों पूंजीवादी दल अपनी नीतियों में समान हैंसंसद में औपचारिक विपक्ष की बुनियादी संवैधानिक जरूरत के सवाल को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। जिन्होंने अच्छे दिनों का वादा इस देश से किया थाउनके अच्छे दिन बिना किसी रोकटोक के बहुत तेजी़ से आ रहे हैं। ज़ाहिर हैबाकी लोगों के लिए बुरे दिन भी उसी गति से आ रहे होंगे।

(समकालीन तीसरी दुनिया, अगस्‍त 2014) 

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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

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Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk