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Sunday, January 13, 2013

बंगाल में अब गैर सरकारी संगठनों की मदद से जनवितरण प्रणाली की निगरानी!

बंगाल में अब गैर सरकारी संगठनों की मदद से जनवितरण प्रणाली की निगरानी!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

भारत में गहराया खाद्य संकट
अनाज की बोरियों को ट्रकों में लादते ये मजदूर वैसे तो एक अन्नपूर्णा भारत की कहानी कहते नजर आ रहे हैं, लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। पंजाब के अमृतसर में चावल की ये बोरियां कहती है कि देश में अनाज की कमी नहीं, जबकि भारत भीषण खाद्यान्न संकट से जूझ रहा है। 'विश्व खाद्यान्न दिवस' के मौके पर चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। मध्यप्रदेश के अलावा झारखंड और बिहार समेत कई राज्य खाद्यान्न संकट से जूझ रहे हैं। (तस्वीरः ए पी)

बंगाल में भूख से मरने की घटनाओं से हमेशा सरकार ने इंकार किया है। यह पहले भी होता रहा है और अब भी हो रहा है। पिछले सितंबर महीने में​ ​ ही मजदूर संगठनों और जनसंगठनों ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेस करके आरोप लगाया था कि राज्य में पिछले छौदह महीने में कम से कम तेरह लोगों​​ की भूख से मौत हो गयी है। तब मां माटी मानुष सरकार के खाद्य मंत्री ने दावा किय़ा था कि राज्य में भूख से एक भी मौत नहीं हुई है। इस बीच​​राज्य में खाद्य सुरक्षा की मांग लेकर आंदोलन तेज हुआ है। सिंगुर और नंदीग्राम भूमि आंदोलन में पहल करने वाले जनसंगठन पश्चिम बंग खेत मजूर संगठन की ओर से राज्य के हर जिले में खाद्य सुरक्षा के लिए मुहिम चलायी जा रही है।मजदूर संगठनों और जनसंगठनों के साथ साथ राजनीतिक दल लगातार जनवितरण प्रणाली को मजबूत करने की मांग करते रहे हैं।जनवितरण प्रणाली की हालत बहुत पहले से खराब है। जिनके पास बाजार से खरीदने को पैसे हैं, वे ​​राशन दुकान की ओर देखते बी नहीं है। क्योंकि जनवितरण प्रणाली से मिलने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता सड़े हुए कीड़ा लगे अनाज तक सीमित है।आरोप है कि बेहतर माल कालाबाजार में बेच दिया जाता है।लेकिन हकीकत यह है कि गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करने वाले लोगों के साथ साथ कम आय ​​वाले मेहनतकश जनसमुदाय के लिए जनवितरण प्रणाली जीवनरक्षा व्यवस्था से कम नहीं है। इसे महसूस करते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों को लेकर जनवितरण प्रणाली की जिला, महकमा, ब्लाक और दुकान केंद्रित निगरानी समितियां बना दी है। जो सालभर काम करेंगी। सालभर बाद नयी समितियां  बनेगी।

इन कमिटियों का कामकाज समेटेंगी राज्य करकार की निगरानी कमिटी , जिसमें खाद्य मंत्री और मुख्य खाद्य अधिकारी हैं। जिला , महकमा व ब्लाक स्तरीय निगरानी समितियां उसी स्तर के खाद्य अधिकारियों के साथ समन्वय रखकर काम करेंगी। ये समितियां हर महीने अपनी सभा में जनवितरण ​​प्रणाली में आपूर्ति, वितरण, समस्याओं और जनशिकायतों की सुनवायी करेंगी और रोकथाम के उपाय करेंगी। राज्य सरकार के अलावा ​​गैरसरकारी संगठनों की खाद्य सुरक्षा आंदोलन से जुड़ी इकाइयों के प्रतिनिधियों को लेक एक राज्य स्तरीय फोरम पश्चिम बंग खेत मजूर संगठन ​​की अनुराधा तलवार और पूर्व अधिकारी पल्लव गोस्वामी को लेकर बनाया गया है, जो इन समितियों के कामकाज की देखरेख करेगी। इस फोरम ​​के सचिव शरदिंदु विश्वास बनाये गये हैं।

खादाय सुरक्षा आंदोलन के मद्देनजर जब नकद सब्सिडी के जरिये जनवितरणप्रणाली ही खत्म हो जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है, तब राज्य सरकार की ओर से यह कार्रवाई निश्चय ही सकारात्मक मानी जायेगी। अब तक पंचायत और स्थानीय निकाय पर काबिज राजनीतिक दलों के शिकंजे में ही ​​फंसी रही जनवितरण प्रणाली। इस राजनीतिकरण की वजह से राजनीतिक संरक्षण के तहत जनवितरण प्रणाली के साये में भ्रष्टाचार और ​​कालाबाजार का बोलबाला रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नयी व्यवस्था से जनवितरण प्रणाली पर राजनीति का शिकंजा कुछ ढीला ​​अवश्य पड़ेगा पड़ेगा। खास बात यह है कि इन निगरानी समितियों में सघन बाल आहार प्रणाली के प्रतिनिधि भी होंगे और मिड डे मेल की वजह से स्कूलों के प्रतिनिधि भी।

आगामी १२ जनवरी को राज्यस्तरीय खाद्य सुरक्षा अभियान का राज्य सम्मेलन हुआ।। फिर १८ जनवरी को खाद्य मंत्रालय में जनवितरण ​​प्रणाली की निगरानी समिति की बैठक हो रही है। जाहिर है कि यह खाद्य सुरक्षा आंदोलन और जनवितरण प्रणाली को एक सूत्र में बांधने का​ ​ अभिनव प्रयोग है।​

विश्व बैंक की एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का पूरा लाभ ग़रीबों को नहीं मिल रहा है।​ जनवितरण प्रणाली के बारे में विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि 2004-2005 नैशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार केवल 41 प्रतिशत ग़रीबों को इस प्रणाली से मदद मिली है।​

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समस्या यह है कि जनवितरण प्रणाली को आपूर्ति तो भारतीय खाद्य निगम से होता है और जनवितरण प्रणाली में तमाम गड़बड़ियों की जड़ें​ ​ वहीं हैं। लेकिन भारतीय खाद्य निगम केंद्र सरकार के मातहत है। इसलिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच इस दिशा में सुधार के लिए साझा प्रयास किये बिना समस्याएं सुलझने के आसार कम ही हैं।एक तरफ खाद्य सुरक्षा विधेयक को संसद में रखने की तैयारी हो चुकी है, दूसरी तरफ खाद्यान्नों की खरीद व रखरखाव की सबसे बड़ी सरकारी एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने स्वीकार किया है कि अप्रैल 2000 से लेकर मार्च 2011 तक के दस सालों में विभिन्न वजहों से 7.42 लाख टन अनाज बरबाद हो चुका है। इस अनाज की कीमत 330.71 करोड़ रुपए आंकी गई है।एफसीआई ने सूचना का अधिकार कानून के तहत सामाजिक कार्यकर्ता ओम प्रकाश शर्मा के सवाल के लिखित जवाब में यह जानकारी दी। एफसीआई ने बताया कि 2000-01 में सर्वाधिक 1.82 लाख टन अनाज खराब हुआ। इसकी कीमत 67.52 करोड़ रुपए है। खराब हुए अनाज की मात्रा 2001-02 में घटकर 65,000 टन पर आ गई। लेकिन अगले ही साल 2002-03 में फिर बढ़कर 1.35 लाख टन पर पहुंच गई। अब 2010-11 तक स्थिति में काफी सुधार आ चुका है और इस दौरान 3.40 करोड़ रुपए के मूल्य का 6000 टन अनाज ही खराब हुआ।बता दें कि पिछले कुछ सालों में सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने भी लताड़ा है और कहा था कि जब अनाज इस तरह खुले में रहने की वजह से सड़ जाते हैं तो उन्हें क्यों नहीं गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाता। इसके बाद सरकार को होश आया और उसने अनाजों के भंडारण की सुविधाएं बढ़ा दी हैं।

गौरतलब है कि ओडिशा और त्रिपुरा के बाद पश्चिम बंगाल ने केन्द्र सरकार की लाभार्थियों के बैंक खाते में सीधे नकदी अंतरण योजना का विरोध करते हुए दावा किया है कि इससे वर्तमान जनवितरण प्रणाली में समस्याएं पैदा होंगी और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) बंद हो जाएगा।बरसों से गरीबों को राशन और केरोसिन उपलब्ध करा रही जन वितरण प्रणाली की छवि नकारात्मक हो गयी है और इस प्रणाली की ऐसी छवि के कारण सरकार ने इन्हें बंद करवा कर लोगों के खाते में उनकी सब्सिडी एकमुश्त डलवा देने का फैसला कर लिया है।मुक्त बाजार के कई पैरोकार अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार को भ्रष्ट जनवितरण प्रणाली से निजात पा लेना जरूरी है और इसका सबसे बेहतर उपाय नकदी हस्तांतरण की पद्धति को लागू करना है।


राज्य के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री ज्योतिप्रिय मलिक ने कहा, 'अगर लाभार्थियों को सस्ते अनाज की जगह नकदी उपलब्ध कराई जाती है तो गरीबों की भूख खत्म करने वाली जन वितरण प्रणाली का मौलिक उद्देश्य खत्म हो जाएगा और भारतीय खाद्य निगम बंद हो जाएगा।'उन्होंने कहा कि एफसीआई का उद्देश्य जनता को सब्सिडी वाली दर पर अनाज और दालें उपलब्ध कराना है और इसका उद्देश्य खत्म हो जाएगा क्योंकि लाभार्थी द्वारा नकदी का उपयोग भोजन के अलावा अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।

उन्होंने कहा, 'यह फैसला गलत है। अगर नकदी अंतरण लागू हुआ तो एफसीआई बंद हो जाएगा।' उन्होंने कहा कि राज्य की केवल 24 प्रतिशत जनता के पास आधार कार्ड है और इस योजना का क्रियान्वन कैसे संभव है जबकि पश्चिम बंगाल की ज्यादातर जनता के पास आधार कार्ड नहीं हैं।

सरकार करेगी गेहूं के गोदाम खाली, गेहूं होगा सस्ता

सरकार खुले बाजार में सस्ते भाव पर गेहूं बेचने की तैयारी कर रही है। सूत्रों के मुताबिक सरकार गोदामों को खाली करने के लिए कई विकल्पों पर विचार कर रही है। इसके तहत गेहूं की खरीद पर राज्यों की ओर से लगे टैक्स की भरपाई केंद्र सरकार खुद करने की योजना पर भी विचार कर रही है। अगर ऐसा होता है तो एफसीआई फ्लोर मिलों को 1170-1180 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर गेहूं उपलब्ध करा सकती है।

दरअसल गेहूं खरीद का नया सीजन यानि 1 अप्रैल 2013 से पहले गोदामों को खाली करने को लेकर सरकार पर भारी दबाव है। फिलहाल सरकारी गोदामों में करीब 3.4 करोड़ टन गेहूं का भंडार है।

गौरतलब है कि गेहूं की एक बार फिर से रिकॉर्ड पैदावार हुई है। बेहतर मौसम से मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पिछले साल के मुकाबले ज्यादा गेहूं की बुआई हुई है।

हालांकि पंजाब और हरियाणा में गेहूं की बुआई पिछड़ गई है। लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 13 दिसंबर तक देश में 227 लाख हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल में गेहूं की बुआई हो चुकी है, जो पिछले साल के मुकाबले करीब 3 फीसदी ज्यादा है।गौर करने वाली बात ये है कि देश की ज्यादातर नदियों में जलस्तर बेहद कम है। उत्तर भारत की नहरों में भी पानी की सप्लाई कम है।

इसके अलावा इस बार पड़ती कड़कड़ाती ठंड भी गेंहू की फसल के लिए वरदान साबित हो रही है। जानकारों का मानना है कि ठंड से गेंहू की क्वालिटी तो बेहतर होती है साथ ही  पैदावार भी 5 फीसदी तक बढ़ती है। वहीं सरकार को भी कुछ राहत मिली है। खाद्य सुरक्षा और मंहगाई को लेकर चिंतित सरकार को इस बार सेंट्रल पूल के लिए अधिक गेंहू मिल सकता है।

पिछले कुछ सालों से गेहूं के उत्पादन में अच्छी बढ़ोतरी देखने को मिली है।अधिक उत्पादन का ही नतीजा है कि एफसीआई के गोदामों में गेहूं भरा पड़ा है।


देश में गेहूं के अतिरिक्त भंडार को देखते हुए ही इसके निर्यात की सिफारिश की गई है। यह सिफारिश सरकार की सलाहकार संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने की है।


आयोग ने कहा है कि वर्ष 2013-14 के दौरान भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से एक करोड़ टन गेहूं निर्यात के लिये प्रयास तेज़ किए जाने चाहिए।


चालू वित्त वर्ष के दौरान सरकार ने केन्द्रीय भंडारों से 45 लाख टन गेहूं निर्यात की मंजूरी दी थी. इसमें से अब तक 13.50 लाख टन गेहूं का ही निर्यात हो पाया है।


भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में इस समय 6.80 करोड टन से अधिक अनाज का भंडार है, जबकि निगम की भंडारण क्षमता 6.30 करोड़ टन ही है. इसमें से 3.70 करोड़ टन तक गेहूं है।


संगठन ने कहा है ''विश्व बाजार में गेहूं की बिक्री बढ़ाकर देश से कृषि उपज निर्यात अगले वित्त वर्ष में बढ़ाया जा सकता है।''

सीएसीपी के अध्यक्ष अशोक गुलाटी ने वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को बजट पूर्व सौंपे ज्ञापन में कहा है, ''अगले वित्त वर्ष में एक करोड़ टन गेहूं निर्यात का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है बशर्ते कि सरकार इस दिशा में तेजी से काम करे।''  

गुलाटी ने कहा कि औसतन 300 डॉलर प्रति टन के दाम पर एक करोड़ टन गेहूं निर्यात से देश को तीन अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा प्राप्त हो सकती है।


गुलाटी ने कहा कि सरकार को गेहूं निर्यात पर फैसला जल्दी लेना चाहिये क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के दाम लंबे समय तक आकषर्क नहीं बने रह सकते। निर्यात नहीं होने की स्थिति में सरकार को भारी भरकम अनाज भंडार का बोझ तो उठाना ही पड़ेगा उसका सब्सिडी बिल भी बढ़ जायेगा।

सरकार ने सितंबर 2011 में गेहूं निर्यात पर जारी प्रतिबंध को उठा लिया था। सरकार को विास है कि उसके पास उपलब्ध भंडार से राशन और प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक की जरुरत को पूरा कर लिया जायेगा।

गौरतलब है कि खाद्यान्न की मात्रा और शामिल किए जाने वाले गरीब परिवारों के मुद्दे पर मतभेद के चलते खाद्य विधेयक पर संसदीय समिति की मसविदा रिपोर्ट को भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की अगुवाई में विरोध का सामना करना पड़ा। इस विरोध के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका।

सूत्रों के अनुसार खाद्य विधेयक पर संसदीय समिति की शुक्रवार को हुई आखिरी बैठक में समिति के 31 सदस्यों में से भाजपा, बसपा, अन्नाद्रमुक और शिवसेना सहित विपक्ष के करीब 18 सदस्यों ने प्रारुप रिपोर्ट के विभिन्न प्रावधानों पर एतराज उठाया।

सूत्रों ने बताया कि व्यापक विरोध को देखते हुए समिति के अध्यक्ष विलासराव मुत्तेमवार ने सदस्यों अगले दो दिन में अपनी आपत्तियां लिखित में देने को कहा है। उन्होंने कहा कि समिति अगले सप्ताह लोकसभा अध्यक्ष को रिपोर्ट सौंपना चाहती है।

सूत्रों ने बताया कि समिति ने अपनी रिपार्ट में 67 प्रतिशत परिवारों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने का कानूनी अधिकार दिये जाने की सिफारिश कर सकती है। यह सिफारिश दिसंबर 2011 में लोकसभा में पेश विधयेक के अनुरुप होगी।

समिति यह भी सुझाव दे सकती है कि सस्ते अनाज का लाभ उठाने वालों की पहचान करने की आजादी केन्द्र को राज्यों को दे देनी चाहिए। हालांकि, लाभार्थियों को अनाज की कितनी मात्रा दी जानी चाहिए इस पर अभी आम सहमति नहीं बन पाई है।

प्रस्तावित खाद्य विधेयक में प्राथमिकता प्राप्त परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रति माह सात किलो अनाज दिए जाने का लक्ष्य रखा गया ह जबकि सामान्य परिवारों को प्रति व्यक्ति तीन किलो अनाज दिया जाएगा।

सूत्रों के अनुसार कुछ सदस्यों का कहना है कि सस्ते खाद्यान्न की मात्रा प्रति सदस्य के बजाय प्रति परिवार के हिसाब से की जानी चाहिए। प्रति सदस्य व्यवस्था से बड़े परिवारों को ही फायदा पहुंचेगा। खाद्य सुरक्षा देने वाला यह महत्वकांक्षी विधेयक संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की पसंदीदा परियोजनाओं में से है।

इसमें गरीब परिवार यानी प्राथमिकता वाले परिवारों को गेहूं और चावल दो और तीन रुपए किलो और सामान्य परिवारों को न्यूनतम समर्थन मूलय की आधी कीमत पर दिया जाएगा। वामपंथी दल सीधे नकद सब्सिडी अंतरण के खिलाफ हैं जबकि कुछ सदस्यों ने विधेयक के तहत अधिक अनाज दिए जाने का समर्थन किया है।

सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक को संसद में पास कराने की तैयारी में है। हालांकि इस विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए वह स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों के एक समूह की अनुशंसा को आवरण के तौर पर इस्तेमाल कर रही है, लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक में जनवितरण प्रमाली की घनघोर उपेक्षा की गयी है।जन-वितरण प्रणाली के तहत राज्य सरकारों को इस समय जितना अनाज आवंटित किया जाता है, उससे संबंधित प्रावधानों को इस विधेयक में इतना कमजोर कर दिया गया है कि उससे संपन्न राज्यों को ही फायदा होगा। उदाहरण के लिए, बाल-पोषण के मद में पहले से ही सरकारी अनुदान बेहद कम है और प्रस्तावित विधेयक में भी इस मामले में कोई बेहतरी नहीं दिख रही है।खाद्य मंत्रलय ने जो ताजा योजना प्रस्तावित की है, इसके मुताबिक, यह विधेयक देश की लगभग 67 प्रतिशत आबादी को ही जन-वितरण प्रणाली के संरक्षण की बात करता है। शेष 33 प्रतिशत लोगों को राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दिया गया है।समान रूप से 33 फीसदी लोगों को बाहर रखे जाने की नीति का शानदार फायदा धनाढ्य राज्यों को होगा। फिलहाल केद्र द्वारा राज्यों को गरीबी रेखा के आधार पर खाद्यान्न आवंटित किया जाता है, इसलिए गरीब राज्यों को प्रति व्यक्ति के आधार के मुकाबले अधिक अनाज मिलता है। लेकिन प्रस्तावित नई नीति से उन्हें भी अमीर राज्यों के जितना ही खाद्यान्न मिल सकेगा। ऐसे में, इस नीति का सबसे अधिक लाभ हरियाणा और पंजाब को होगा।

जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल पर रोक से पवार का इनकार

संसद की स्थायी समिति की सलाह के बावजूद सरकार जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल पर प्रतिबंध लगाने के मूड में
नहीं है।

कृषि मंत्री शरद पवार ने यह कहते हुए जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल पर रोक से मना किया है कि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए इस तरह के कृषि अनुसंधान बेहद जरूरी हैं।

उल्लेखनीय है कि अगस्त 2012 में बासुदेब आचार्य की अध्यक्षता वाली कृषि पर संसद की स्थायी समिति ने सरकार से ट्रांसजेनिक फसलों के ओपन फील्ड ट्रायल पर रोक लगाने और इसकी मॉनिटरिंग के लिए बेहतर सिस्टम विकसित करने की सलाह दी थी।

पवार ने समिति की सिफारिशों से असहमति जताते हुए कहा कि हमारे देश में खाद्य सुरक्षा ज्यादा बड़ा मुद्दा है जिसे देखते हुए फील्ड ट्रायल पर रोक जैसे निर्णय नहीं लिए जा सकते हैं। हालांकि पवार ने कहा है कि इन फसलों के ट्रायल से पर्यावरण, अन्य फसलों, पशुओं व मानव स्वास्थ्य पर असर न पड़े, इसके लिए सावधानी बरतने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाएगा।

सूत्रों के मुताबिक, संसदीय समिति को नवंबर 2012 में सौंपी गई कार्रवाई की रिपोर्ट में मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल की रिसर्च गतिविधियां देश में खाद्य सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी हैं। इन पर रोक के बाद खाद्य सुरक्षा पर ही प्रतिबंध लग जाएगा।


कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में कई नई पहल का प्रस्ताव किया गया है ताकि युवा शक्ति को कृषि क्षेत्र की तरफ प्रेरित किया जा सके और कृषि क्षेत्र में नए प्रयोगों तथा अनुसंधान के लिए वित्त पोषण की व्यवस्था की जा सके. वे राष्ट्रीय विकास परिषद की 57वीं बैठक को संबोधित कर रहे थे.पवार ने कहा कि कृषि और संबंधित क्षेत्रों में अधिक निवेश के जरिए किसानों की स्थिति में सुधार और खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाएगा.

उन्होंने कहा कि पशुधन क्षेत्र की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए योजना में राष्ट्रीय पशुधन अभियान और पशुधन प्रजनन एवं दूध उत्पादन के राष्ट्रीय कार्यक्रम का प्रस्ताव किया गया है.

मंत्री ने कहा कि 12वीं योजना में किसानों को उनके उत्पादनों का स्थिर मूल्य प्रदान करने के लिए रणनीति बनाई गई है. इसके अलावा कृषि में निजी क्षेत्र की भूमिका पर भी बल दिया गया है. उन्होंने कहा कि योजना में छोटे और सीमांत किसानों की स्थिति सुधारने पर ध्यान दिया गया है ताकि कृषि विपणन के लिए प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण बनाया जा सके.



और भी... http://aajtak.intoday.in/story/pawar-for-greater-private-sector-role-in-farming-1-717050.html


बजट सत्र में पेश होगा खाद्य सुरक्षा बिल
सरकार की योजना
गरीबों को हर महीने 7 किलो चावल, गेहूं या फिर मोटे अनाज देने की गारंटी
3 रुपये प्रति किलो की दर से चावल और 2 रुपये प्रति किलो की दर से गेहूं
गरीबों को एक रुपये प्रति किलो की दर से बाजरा देने का प्रावधान
गरीबी रेखा से ऊपर वाले परिवार में हर सदस्य को प्रति महीने 3 किलो अनाज

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल को संसद के बजट सत्र में पेश किये जाने की संभावना है। खाद्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) प्रो. के वी थॉमस ने सोमवार को पत्रकारों से कहा कि संसद की स्थाई समिति द्वारा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल पर अपनी संस्तुतियों चालू सप्ताह के अंत तक दिए जाने की उम्मीद है।


खाद्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) के वी थॉमस ने स्वयं द्वारा लिखित पुस्तक फॉर द ग्रेनर्स के विमोचन के अवसर पर कहा कि संसद की स्थाई समिति की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल में आवश्यक बदलाव किए जायेंगे।


उसके बाद इस विधेयक को कैबिनेट कमेटी में पेश किया जायेगा। खाद्य सुरक्षा बिल में खास बात यह है कि गरीबों को हर महीने 7 किलो चावल, गेहूं या फिर मोटे अनाज देने की गारंटी दी गई है।


गरीबों को 3 रुपये प्रति किलो की दर से चावल, 2 रुपये प्रति किलो की दर से गेहूं और एक रुपये प्रति किलो की दर से बाजरा देने का प्रावधान है। इसके अलावा गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले परिवार के सदस्य को हर महीने 3 किलो अनाज मिलेगा, यह अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से आधी कीमत पर दिया जाएगा।


हालांकि बिल के लागू होने के बाद सरकार के वित्तीय घाटे में बढ़ोतरी होगी। इससे पहले साल में फूड सब्सिडी बिल 67,300 करोड़ रुपये से बढ़कर 94,973 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। इस अवसर पर कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा कि मेरे पिछले 7-8 वर्ष के अनुभव के अनुसार देश का खाद्य एवं उपभोक्ता मामले मंत्री केरल राज्य से ही होना चाहिए।


प्रो. के वी थॉमस ने कहा कि वैश्विक स्तर पर जलवायु में हो रहा बदलाव कृषि क्षेत्र के लिए चिंताजनक है। इस दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि देश में नारियल का मार्केटिंग सिस्टम ठीक नहीं है। उपभोक्ताओं को जहां ज्यादा दाम चुकाने पड़ते हैं वहीं उत्पादकों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है इसलिए इसमें सुधार की आवश्यकता है।

संसद की स्थायी समिति ने मौजूदा सत्र के दौरान अपनी सिफारिशें नहीं सौंपी, लिहाजा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) का महत्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा विधेयक निकट भविष्य में शायद ही क्रियान्वित होता नजर आएगा। इस वजह से आगामी बजट सत्र में भी इस विधेयक के पारित होने की संभावना कम नजर आ रही है। यह परिदृश्य कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए शायद ही बेहतर होगा, जिनके लिए मनरेगा के बाद यह सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि विधेयक का भविष्य सवालों के घेरे में है क्योंकि सरकार पहले ही नकद सब्सिडी हस्तांतरण की व्यवस्था तैयार कर चुकी है, जो खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत अनाज मुहैया कराए जाने के उलट है।

खाद्य पर बनी संसद की स्थायी समिति के अध्यक्ष विलास मुत्तेमवार ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि खाद्य सुरक्षा विधेयक पर फिलहाल हमारी तरफ से रिपोर्ट सौंपे जाने की संभावना नहीं है। उन्होंने कहा कि बजट सत्र में समिति निश्चित तौर पर अपनी रिपोर्ट सौंप देगी।

मुत्तेमवार ने कहा कि हम नहीं चाहते कि खाद्य सुरक्षा विधेयक का हश्र भूमि विधेयक जैसा हो, जहां मूल मसौदे में 100 से ज्यादा संशोधन का सुझाव दिया गया है। उन्होंने कहा कि खाद्य सुरक्षा विधेयक काफी जटिल है, जिसे तैयार करने में पर्याप्त सावधानी की दरकार होगी।

मुत्तेमवार ने कहा कि विधेयक के प्रावधानों पर राज्य सरकारों की काफी चिंताएं हैं क्योंकि उनमें से कुछ के पास एक समान जन वितरण प्रणाली है। इसके अलावा हमें करीब 1.50 लाख याचिकाएं मिली हैं, जिनका सावधानी पूर्वक विश्लेषण किए जाने की दरकार है, ऐसे में रिपोर्ट तैयार करने में देरी होगी।

केंद्रीय खाद्य व जन वितरण मंत्रालय ने भी विधेयक के मसौदे में कुछ बदलाव का सुझाव दिया है। खाद्य मंत्रालय की तरफ से सुझाया गया है कि करीब 67-68 फीसदी आबादी को इसके दायरे में लाया जाएगा जबकि पहले 64 फीसदी आबादी को इसके दायरे में लाने का प्रस्ताव था। पहले के मसौदे के मुताबिक कि इसके दायरे में आने वाली 64 फीसदी आबादी का करीब 75 फीसदी हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र का जबकि 50 फीसदी शहरी क्षेत्र का था। चूंकि इसका दायरा बढ़ाने का प्रस्ताव है, लिहाजा नई योजना के तहत एक समान तौर पर 25 किलोग्राम सस्ता अनाज सभी गरीब परिवारों को वितरित किए जाने का प्रावधान है (5 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह), चाहे वह गरीबी रेखा के नीचे हो या फिर गरीबी रेखा से ऊपर। मूल मसौदे में बीपीएल परिवारों को प्राथमिकता वाली श्रेणी के तौर पर वर्गीकृत किया गया था क्योंकि इस श्रेणी के परिवारों को हर महीने 7 किलोग्राम अनाज देने का प्रावधान था, वहीं एपीएल परिवारों को सामान्य श्रेणी के तौर पर वर्गीकृत किया गया था और इन्हें 3-4 किलोग्राम अनाज दिया जाना था। खाद्य मंत्री के वी थॉमस ताजा प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और अन्य से कई दौर की बातचीत कर चुके हैं।

सकार के प्रारूप और लागू करने की जल्दबाजी पर सहयोगी दल और विशेषज्ञ चिंतित


सरकार की पहल
:सरकार देश की बड़ी आबादी को भोजन का अधिकार देगी
:इसके लिए विधेयक तैयार, जल्दी ही कानून बनाया जाएगा
:इसमें गेहूं, चावल व मोटे अनाज का वितरण किया जाएगा
:सस्ता महंगे मूल्य पर खरीद करके सस्ते में सप्लाई करेगी अनाज


मनरेगा के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा है। इस कार्यक्रम के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर सरकार संसद की स्थाई समिति की रिपोर्ट का इंतजार कर रही है। खाद्य मंत्रालय को उम्मीद है कि जनवरी तक संसद की स्थाई समिति अपने रिपोर्ट सौंप देगी।


उसके बाद खाद्य मंत्रालय बजट सत्र में इसे पारित कराना चाहेगा। हालांकि सरकार के सहयोगियों के साथ ही कृषि विशेषज्ञ भी मौजूदा प्रारूप को लेकर चिंता जता रहे हैं। लेकिन यह विधेयक सत्तारूढ़ संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी की पसंदीदा कार्यक्रम होने के कारण खाद्य मंत्रालय इसे हर हाल में लागू करना चाहता है, चाहे इसके लिए खाद्य मंत्रालय को प्रशासनिक आदेश का ही सहारा क्यों न लेना पड़े।

केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का कहना है कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत सब्सिडी की सीमा पर दोबारा सोचने की जरूरत है।


उनका मानना है कि आबादी के बहुत बड़े हिस्से को बहुत अधिक सस्ता अनाज देने से देश की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर संकट खड़ा हो सकता है। इस विधेयक के तहत इस बड़े वर्ग को बहुत अधिक सब्सिडी दी गई तो खुले बाजार में अनाज के भाव कम होंगे और आर्थिक नुकसान होने पर किसान इसकी खेती के लिए उदासीन हो जाएंगे।


सरकार 18 रुपये प्रति किलो (एमएसपी के साथ सभी अन्य खर्च जोड़कर) की दर से गेहूं खरीदती है। अगर इसे दो रुपये प्रति किलो के हिसाब से देश की 68 फीसदी आबादी को आवंटित किया जाएगा तो लाभार्थियों को तो सस्ता अनाज मिल जाएगा लेकिन इसका उत्पादन करने वाले किसान को परेशानी होगी।


जब सरकार इतने कम दाम पर गरीबों को गेहूं का वितरण करेगी तो किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलेगा। ऐसे में किसान उत्पादन बंद कर देगा और देश के सामने खाद्यान्न का गंभीर संकट पैदा हो जाएगा। उनका मानना है कि लोकप्रियता हासिल करने में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन हकीकत को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।


पूर्व कृषि एवं खाद्य सचिव टी. नंदकुमार का मानना है कि प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल का मौजूदा प्रारूप निरर्थक है, इससे खाद्य वितरण में तो गड़बडिय़ां होंगी ही, साथ में खाद्य सब्सिडी में भी भारी बढ़ोतरी होगी। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के चेयरमैन अशोक गुलाटी का कहना है कि सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक में सस्ते दाम पर खाद्यान्न देने के बजाए नकद खाद्य सब्सिडी देने पर विचार करना चाहिए।


सस्ते दाम पर गरीबों को खाद्यान्न के आवंटन के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल के मौजूदा प्रारूप में बुनियादी गड़बडिय़ां ज्यादा हैं। सबसे बड़ी गड़बड़ी तो यही है कि कीमत नीति के माध्यम से बराबरी लाने की कोशिश की जा रही है। इसको वर्तमान प्रारूप में लागू करने से जहां पहले साल खाद्य सब्सिडी 1.2 लाख करोड़ रुपये होगी, वहीं तीसरे साल बढ़कर 1.5 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है।


कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने बताया कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के वर्तमान प्रारूप में बहुत सारी खामियां मौजूद हैं। जिस तरह से आज मनरेगा का हाल हो रहा है, यहीं हाल प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक का भी होगा। सरकार नारा तो लगा रही है गरीबों को खाद्यान्न का कानूनी हक देने का, लेकिन इसके जरिये 2014 में होने वाले चुनाव पर सरकार की नजर है।


इस विधेयक का प्रारूप तैयार करते समय सरकार ने कृषि के जानकार लोगों से राय ही नहीं ली। उन्होंने बताया कि देश में करीब 6.5 लाख गांव है तथा करीब 5 लाख गांव में खाद्यान्न का उत्पादन होता है। ऐसे में गांव स्तर पर खाद्यान्न के भंडारण और वितरण को दुरुस्त किए बिना प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल लागू करना बेमानी है। खाद्य सुरक्षा बिल के मौजूदा प्रारूप में बदलाव के लिए इस पर विशेषज्ञों से ओर विचार-विमर्श किए जाने की आवश्यकता है।


सीएसीपी के पूर्व चेयरमैन डॉ. टी हक का कहना है कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल पास होने से गरीबों को खाद्यान्न का कानूनी हक तो मिल जाएगा, लेकिन जब तक खाद्यान्न के भंडारण और आवंटन सिस्टम को ग्रामीण स्तर पर मजबूत नहीं बनाया जाएगा, तब तक इसको अमल में लाना कठिन है। सरकार वर्तमान पीडीएस सिस्टम को मजबूत बनाकर भी लाभार्थियों तक खाद्यान्न की सप्लाई को दुरुस्त कर सकती है। इसके लिए राज्य सरकारों का सहयोग लिया जा सकता है।


आज मनरेगा का जो हाल हो रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। सरकार को ग्रामीण स्तर पर खाद्यान्न की खरीद और भंडारण के लिए गोदाम बनाने की जरूरत है। प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल के मौजूदा प्रारूप से खाद्य सब्सिडी में तो इजाफा होगा ही, साथ ही जरूरतमंद को खाद्यान्न का आवंटन हो पाएगा, इसमें भी संदेह है। यह ना तो देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक है ओर न ही गरीबों के लिए।


प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल में 75 प्रतिशत तक ग्रामीण जनसंख्या (कम से कम 46 प्रतिशत प्राथमिकता श्रेणी से) और 50 प्रतिशत तक शहरी जनसंख्या (कम से कम 28 प्रतिशत प्राथमिकता श्रेणी से) को लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अंतर्गत लाना है।


प्राथमिकता श्रेणी के परिवार के सदस्य को 7 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति माह देना है जिसमें चावल, गेहूं और बाजरा क्रमश: 3 रुपये, 2 रुपये और 1 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से उपलब्ध करना है। इसके अलावा सामान्य श्रेणी के परिवार के सदस्य को 3 किलोग्राम खाद्यान्न का आवंटन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की आधी कीमत पर करने का प्रावधान है।


राशनकार्ड जारी करने के उद्देश्य से महिलाओं को परिवार का मुखिया बनाए जाने और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को मातृत्व लाभ देने का भी विधेयक में प्रावधान किया गया है। पीडीएस सिस्टम को एक सिरे से दूसरे सिरे तक कम्प्यूटरीकरण करना तथा खाद्यान्न और भोजन नहीं दिए जाने के मामले में खाद्य सुरक्षा भत्ता देने का भी इस विधेयक में प्रावधान किया गया है।

खाद्य सुरक्षा विधेयक बनाने वाला पहला राज्य बना छत्तीसगढ़

रायपुर । राज्य  शासन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ खाद्य विधेयक 2012 आज यहां विधान सभा में सर्वसम्मति से पारित होने के साथ ही प्रदेश के 56 लाख परिवारों में से गरीब और जरूरतमंद 50 लाख परिवारों को भोजन का कानूनी अधिकार मिल गया। केवल आयकर दाता और आर्थिक रूप से सशक्त छह लाख परिवार इसके दायरे से बाहर रहेंगे। राज्य  सरकार द्वारा इन 50 लाख परिवारों को रियायती खाद्यान्न देने के लिए हर साल दो हजार 311 करोड़ रूपए की अनुदान राशि उपलब्ध कराई जाएगी।

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि यह देश का पहला खाद्य सुरक्षा कानून है, जिसे बनाने का श्रेय छत्तीसगढ़ विधान सभा को मिला है। विधेयक पर सदन में पक्ष और विपक्ष के सदस्यों के बीच हुई चर्चा का जवाब देते हुए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि हिन्दुस्तान के राजनीतिक इतिहास में छत्तीसगढ़ आज एक नया अध्याय लिखने जा रहा है। यह देश का पहला खाद्य सुरक्षा कानून है, जिसे बनाकर छत्तीसगढ़ ने एक नया इतिहास रचा है। उन्होंने कहा कि संसद सहित देश की किसी भी विधान सभा में गरीबों और जरूरतमंद परिवारों को भोजन का अधिकार देने का कानून नहीं बना है, जबकि छत्तीसगढ़ विधान सभा में राय के 50 लाख परिवारों को इस विधेयक के माध्यम से कानून बनाकर हम यह शक्ति दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ विधान सभा के इस सदन में खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित करके देश में क्रांतिकारी परिवर्तन की आधारशिला रखी जा रही है। मुख्यमंत्री ने कहा कि केन्द्र का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011 जब कभी पारित होगा तो उस समय भी पूरे देश में यह उल्लेख अवश्य होगा कि छत्तीसगढ़ ने सबसे पहले अपने राय में ऐसा कानून बना लिया है।

मुख्यमंत्री  ने सदन को बताया कि विधान सभा में पारित किए जा रहे छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा विधेयक 2012 के अनुसार राय में ग्यारह लाख अंत्योदय परिवारों मात्र एक रूपए और 31 लाख बीपीएल परिवारों को मात्र दो रूपए प्रति किलो की दर से हर महीने प्रति राशन कार्ड 35 किलो अनाज और दो किलो नि:शुल्क नमक दिया जाएगा। इनमें से अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों को पांच रूपए प्रति किलो की दर से हर महीने दो किलो चना और गैर अनुसूचित विकासखण्डों में रहने वाले परिवारों को दस रूपए प्रति किलो की दर से दो किलो दाल का वितरण किया जाएगा, जबकि आठ लाख ए पी एल परिवारों को 9.50 रूपए प्रति किलो की दर से हर महीने 15 किलो चावल देने का प्रावधान किया गया है।

2020 तक होगा खाद्य संकट!

 भारत वर्ष 2020 तक खाद्य संकट की स्थिति में पहुंच सकता है। भारतीय कृषि शोध परिषद का कहना है कि इससे बचने के लिए सरकार को तत्काल बड़े और ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इंडिया इंटरनेशनल क्रॉप समिट 2011 के दौरान परिषद के उप महानिदेशक स्वप्न के दत्ता ने कहा कि देश को इस संकट से निपटने के लिए पहले से ही तैयारी कर लेनी चाहिए। वर्ष 2009 के दौरान देश में कुल 10 करोड़ टन चावल का उत्पादन हुआ था। परिषद के मुताबिक वर्ष 2020 में घरेलू मांग को पूरा करने के लिए देश को 13 करोड़ टन चावल की जरूरत होगी। वहींदस साल बाद 11 करोड़ टन गेहूं की आवश्यकता पड़ेगी। वर्ष 2009 के दौरान देश में महज आठ करोड़ गेहूं की पैदावार हुई थी। इसके साथ ही देश में वर्ष 2020 तक दलहन और तिलहन की भी खासी कमी महसूस की जाएगी। दत्ता के मुताबिक इस दौरान दालों की मांग में 140 फीसदी और तिलहन की मांग में 243 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी। परिषद ने चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि वर्ष 2020 तक सूखा और दूसरे कारणों से चावल की खेती में15-42 फीसदी तक की कमी हो सकती है। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र के कुल राजस्व में भी 12.3 फीसदी की गिरावट हो सकती है। वातावरणीय प्रभाव भी कृषि क्षेत्र पर बुरा असर डाल सकते हैं। परिषद के अनुमान के मुताबिक वर्ष 2020 तक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी और वर्षा का प्रतिशत सात फीसदी कम हो सकता है। दत्ता का कहना है कि देश दलहन और तिलहन के उत्पादन में सक्षम नहीं है। इसलिए अगले संसद सत्र के दौरान बीज अधिनियम को पारित करने की जरूरत है। अधिनियम में सभी किस्मों के बीजों का अनिवार्य पंजीकरण प्रावधानबीज प्रमाणन का परिचालन और नेशनल सीड बोर्ड की स्थापना जैसे कई प्रस्ताव रखे गए हैं।

हमारी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना

सभ्यता की शुरुआत से ही कृषि ने पर्यावरण पर प्रभाव छोड़ा है और कृषि भी पर्यावरण से बहुत प्रभावित हुई है। मानव जाति का कायम रहना हमारी कृषि और पर्यावरणीय बदलावों पर बहुत अधिक निर्भर करता है।

भारत खाद्य संकट से गुजर रहा है। पिछले पांच दशकों से रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, एक फसली खेती और अन्य कृषि व्यवहारों के जरिए कृषि भूमि और खाद्य उत्पादन प्रणाली को व्यवस्थित तरीके से बर्बाद किया गया है। वास्तविक समस्या पर गौर करने के बजाय सरकार आनुवांशिक इंजीनियरिंग (GE) से तैयार की जाने वाली खाद्य फसलों जैसे कृत्रिम उपायों पर जोर दे रही है।

पारिस्थितिक खेती यानी इकोलोजिकल फार्मिंग हमारे देश में कृषि के सामने उपस्थित समस्याओं का माकूल जवाब है। यह हमारी खेती को भी टिकाऊ बनाए रखता है। कृषि का यह स्वरूप हमारी भूमि और जल संसाधनों का संरक्षण करता है, कृषि विविधता को बढ़ाता है, जैव –विविधता को सुनिश्चित करता है और खाद्य व आजीविका-सुरक्षा की मांग को पूरा करता है। 

संक्षेप में, यह सुनिश्चित करता है कि पर्यावरण फले-फूले, खेती उत्पादक बनी रहे, किसान को पर्याप्त मुनाफा मिले और समाज को पर्याप्त पौष्टिक आहार उपलब्ध रहे। भारत का अपना लंबा कृषि-इतिहास रहा है। सदियों से इस देश में किसानों ने खेतों की उर्वरता बनाए रखने के लिए तरह-तरह के तरीके विकसित किए हैं। मिश्रित फसल, चक्रीय फसल, खाद का प्रयोग और कीट-रोधी प्रबंधन जैसे उपायों से हमारी कृषि टिकाऊ या संवहनीय बनी रही। 

1965 में तथाकथित हरितक्रांति द्वारा थोपे गए कृषि के रसायन-संकेंद्रित मॉडल के घातक हमले से स्थिति बदतर होती गई। जब संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्वबैंक की पहल से शुरू हुआ संस्थान 'इंटरनेशनल असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस एण्ड टेक्नोलाजी फॉर डेवलपमेंट' (IAASTD) इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यदि मौजूदा खाद्य संकट को दूर करना है तो छोटे पैमाने की खेती और कृषि-पारिस्थितिक प्रणाली को अपनाना होगा। 

इस पहल (IAASTD)की संकल्पना में,पूरी दुनिया में लगभग 400वैज्ञानिकों द्वारा पिछले 50 सालों में प्रयुक्त सभी कृषि प्रौद्योगिकियों की एक त्रिवर्षीय समीक्षा शामिल है। IAASTD ने कहा कि स्थानीय समुदायों की जरूरतों को पूरा करने के लिए देसी और स्थानीय ज्ञान को औपचारिक विज्ञान के बराबर का महत्व देना होगा। यह बर्बादी की हद तक नुक्सानदायक रसायन-निर्भर कृषि के हर जगह लागू किए जाने वाले एकसमान मॉडल से अलग सोच थी।

इस रिपोर्ट में यह भी स्वीकार किया गया कि आनुवांशिक इंजीनियरी से विकसित फसलें बहुत ही विवादास्पद हैं और जैव-विविधता की हानि, जलवायु परिवर्तन जैसी बुनियादी समस्याओं को हल करने में भी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा पाएंगी।

अभियान कथा:

ग्रीनपीस विज्ञान का विरोधी नहीं है, ना ही वह खेती की अधिक सक्षम पद्धतियां विकसित करने के खिलाफ है। मगर हम कारपोरेट जगत के फायदे के लिए भूमि, जल और पर्यावरण के विनाश का समर्थन नहीं कर सकते। ना ही हम मानव प्राणियों को नई फसलों के परीक्षण के लिए गिनिपिग बनने देंगे। इस बात को ध्यान में रखते हुए संपोषणीय खेती अभियान फिलहाल निम्न बिन्दुओं पर केंद्रित है:

उर्वरक अभियान: घटती उर्वरता के साथ भूमि का क्षरण, विषाणुओं से युक्त खाद्य पदार्थ और भारी कार्बन उत्सर्जन। रासायनिक उर्वरक ठीक ऐसा ही कुछ इस देश में कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम इनको छोड़ कर खेती के पारिस्थितिक उपायों की तरफ बढ़ें, जो देश के कई हिस्सों में सफल सिद्ध हुए हैं।  

जीई(GE) अभियान: खाद्य संकट के संपूर्ण हल का ढोंग करने वाली जीई फसलें हालात को और बिगाड़ेंगी ही। तमाम बातों के अलावा, उन्होंने मानव स्वास्थ्य को खतरे में डाल दिया है। इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा के मामलों में उसका रुख समझौतावादी है। जीई फसलों को किसी भी कीमत पर खुली छूट नहीं मिलनी चाहिए।



गहरे संकट में खाद्य सुरक्षा

गहरे संकट में खाद्य सुरक्षा
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश 
१६ अक्टूबर २००८ 

खाद्य सुरक्षा, किसान और गणतंत्र

पिछले दो वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मंचों पर खाद्य सुरक्षा का मुद्दा गरमाया हुआ है। दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। आंकड़ों का जमघट लगा हुआ हैं। विकासशील देश हों या विकसित देश, संयुक्त राष्ट्र संघ हो या यूरोपियन यूनियन, सबकी चिंता है खाद्य संकट। इस बात की गहरी और सही चिंता व्यक्त की जा रही है कि आने वाले दिनों में विकसित देश अपनी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए खाद्य पदार्थों को दुनिया भर में हथियार की तरह प्रयोग न करने लग जायें। हमारा गणतंत्र 60 वर्ष का हो रहा है। हमारा संविधान मानवीय मूल्यों की गारंटी देता है और भारत के प्रत्येक नागरिक को आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार भी प्रदान करता है। नागरिक के आत्मसम्मान और जीने का अधिकार को दिलाने की गारंटी संघ और राज्य की सरकार पर समान रूप से है। घनघोर दारिद्र की स्थिति में, खाद्यान्न की उत्पादन और उत्पादकता की गिरावट की दौर में संविधान में दिये गये जीने के अधिकार और आत्मसम्मान की हिफाजत कैसे की जाये यह मूल बिन्दु है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्र में 27 प्रतिशत तथा शहरी इलाके में लगभग 23.8 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। हालांकि ये आंकड़े वास्तविकता से कम है। अगर सरकारी आंकड़ों को ही सही माना जाये तो 26 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी तो दूर एक वक्त के लिए भोजन का जुगाड़ सुनिश्चित करना-कराना आसान काम नहीं है। भारत गांवों का देश है। 72 फीसदी आबादी गांव में ही रहती है। भारत के 80 प्रतिशत से ज्यादा किसान लघु तथा सीमांत किसान हैं। इन लघु और सीमांत किसानों के पास जहां वर्ष 1970-71 में 33.37 मिलियन हैक्टेयर कृषि भूमि थी वहीं 2000-01 में यह घटकर 21.12 मिलियन हैक्टेयर रह गई है। आर्थिक आसमानता, गरीबी, मूल्यवृद्धि, उपभोक्तावाद, बाजारवादी संस्कृति, निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय मानसिकताओं सहित चतुर्थिक आर्थिक संकट ने ग्रामीण संयुक्त परिवार तोड़ डाले। कृषि जोत के सिकुड़ते आकार में कृषि तकनीक के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उत्पादकता बढ़ाने के अवसरों के सामने कठिनाइयां पैदा कीं, जो स्वभाविक है। छोटी जोतों के कारण किसान न तो वो अधिक पंूजीनिवेश वाली प्रौद्योगिकी को अपनाने को तैयार होते हैं और न ही फसल-बाद प्रबंधन के लिए अधिक लागत लगा सकते हैं। इन किसानों को उन्नत खेती और पूंजी निवेश के लिए सरकार द्वारा अस्सी फीसदी सहायता और संरक्षण दिये जाने की जरूरत है। तभी ये किसान अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर खाद्य सुरक्षा सुरक्षित करने में योगदान दे सकेंगे। सरकार के सहायता से ही गांव से शहरों की ओर 9 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा पलायन भी रोका जा सकता है।
विश्व भर में खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता के साथ विचार-विमर्श हो रहा है। उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए नये उपाय सुझाये जा रहे हैं। वहीं ऊर्जा स्रोत के विकल्प के रूप में ऐथनाॅल के उत्पादन के लिए कृषि उत्पादों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अमरीका में वर्ष 2006 में 20 प्रतिशत मक्के का इस्तेमाल एथिनाॅल बनाने के लिए किया गया। 2007-08 में अमरीका में 80 मिलि. टन मक्के का उपयोग ऐथनाॅल उत्पादन में किया। यूरोपियन यूनियन के देशों ने 68 प्रतिशत वनस्पति तेलों का तथा ब्राजील ने 50 प्रतिशत गन्ने की उपज का इस्तेमाल जैव-ईंधन बनाने में प्रयोग किया। क्या यह सब विश्व की खाद्य सुरक्षा को संकट नहीं पहुंचा रहे हैं?विश्व में अनाज के स्टाक घट रहे हैं।
1950-51 में देश के सकल फसल क्षेत्र केवल 132 मिलि. हेक्टेयर था वह आज बढ़कर लगभग 188 मिलि. हेक्टेयर हो गया है। इसी अवधि में कुल फसल क्षेत्र 119 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 141 मिलि. हेक्टेयर हो गया। भूभाग की नजर से अभी भी भारत में फसल क्षेत्र तथा सिंचित क्षेत्र बढ़ाये जाने की अपार संभावनाएं हैं। देश में लगभग 13.8 मिलि. हेक्टेयर कृषि योग्य परती भूमि तथा 7.61 मिलि. हेक्टेयर भूमि उसर भूमि है। इन क्षेत्रों को विशेष प्रयास कर फसलों के लिए तैयार किया जा सकता है और भूमिहीन खेत मजदूरों और गरीब किसानों में वितरित करने की आवश्यकता है।
देश का एक बड़ा हिस्सा असिंचित फसल क्षेत्र के रूप में मौजूद है। 10 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी इस विशाल भूभाग को सिंचित या अर्धसिंचित नहीं बना पाये। कुल मिलाकर केवल 48.5 मिलि. हेक्टेयर क्षेत्र में 1 से ज्यादा बार फसल बोयी जाती है। योजना दर योजना बेहतर जलप्रबंधन, जलसंरक्षण तथा किसानों को सिंचाई की सुविधा दिये जाने का कार्यक्रम तो बना परन्तु सिंचाई के विस्तार के लिए योजनाओं में धनराशि का आवंटन बहुत नगण्य रहा। आजाद हिन्दुस्तान में लगभग 2000 के आसपास सिंचाई परियेाजनाएं जो केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गयीं आज भी बीच अधर में छोड़ दी गई हैं। हजारों करोड़ सरकारी रूपया बर्बाद हो गया। लघु, सीमांत, गरीब किसान प्राकृतिक वर्षा पर आधारित होकर अपनी खेती करते हैं।
भारत में आजादी के बाद देश में 1950-51 में कुल खाद्यान्न कृषि का क्षेत्रफल 97.32 मिलि. हेक्टेयर था जो 2006-07 में बढ़कर 123.47 मिलि. हेक्टेयर हो गया। इस अवधि में जहां गेहूं का कृषि क्षेत्र में 9.95 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 28.04 मिलि. हेक्टेयर हो गया और चावल का कृषि-क्षेत्र 30.81 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 43.42 मिलि. हेक्टेयर हो गया। आजादी के बाद प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन तो बढ़ा है परन्तु यह आज भी दुनिया के कई देशों से भारत की विभिन्न फसलों की उत्पादकता की तुलना की जाये तो भारत काफी पीछे नजर आता है। धान के मामल में चीन और अमरीका की उत्पादकता हमसे दोगुना से भी अधिक है। मिस्र और आस्ट्रेलिया की भारत से तीन गुना अधिक है। गेहूं के मामले में भी मिस्र और फ्रांस और जर्मनी की उत्पादकता भारत से दोगुना से अधिक है। जापान और चीन भी गेहूं के मामले में हमसे बहुत आगे हैं। मक्के की उत्पादकता मिस्र, फ्रांस और जर्मनी में भारत से तीन गुना ज्यादा तथा अमरीका में चार गुना से अधिक है। दलहनों की उत्पादकता के मामलों में भी भारत काफी पीछे है। अमरीका और चीन में दलहनों की उत्पादकता भारत से तीन गुना अधिक है। मिस्र और जर्मनी हमसे पांच गुना अधिक पैदा करते हैं और फ्रांस में उत्पादन भारत की तुलना में प्रति हेक्टेयर सात गुना ज्यादा है।
नेशनल सेम्पल सर्वे के 55वें दौर के सर्वे के अनुसार वर्ष 2011-12 में देश में 102.93 मिलियन टन चावल, 74.84 मिलियन टन गेहूं, 16.99 मिलियन टन दाल तथा कुल 212.89 मिलियन टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। देश में वर्तमान में दालों और तिलहन की काफी कमी है और हर वर्ष लगभग 5 मिलियन टन खाद्य तेल देश में विदेशों से आयात होता है।
नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन द्वारा वर्ष 1990, 2000 तथा 2004-05 में किये गये 55वें तथा 61वें राउंड के सर्वे के आंकड़ों पर तुलनात्मक दृष्टि डाली जाये तो पता चलता है कि भारत में ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति मासिक खपत घटी है। दालों की खपत अनाज की खपत से ज्यादा घटी है। अर्थात शरीर में प्रोटीन की मात्रा घटी है। भारत में आबादी का एक अच्छा-खास बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहा है और औसत प्रति व्यक्ति आय भी काफी सीमित है। ऐसी स्थिति में यदि भारत में खाद्यान्न उपलब्ध भी हो तब भी जरूरी नहीं है कि सभी लोग उसे खरीद कर उसका उपभोग कर सकें। जरूरत इस बात की है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को केन्द्र और राज्य सरकार सब्सिडी देकर अनिवार्य रूप से खाद्यान्न उपलब्ध कराये ताकि वह जीने के अधिकार से वंचित न होने पायें। सार्वजनिक वितरण प्रणाली प्रभावी ढंग से इस समस्या का हल हो सकती है।
कुछ अर्थशास्त्री आंकड़े प्रदर्शित कर यह प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं कि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में भारत आत्मनिर्भर हो गया है और हमारे सामने खाद्य सुरक्षा का कोई संकट नहीं है। एनडीए और यूपीए की दोनों सरकारें केन्द्र में अपने शासनकाल में खाद्य सुरक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की आत्मप्रशंसा में आकंठ डूबी रहीं। तिलहन उत्पादन के क्षेत्र में रह-रह कर कुछ प्रगति होती है और फिर रूक जाती है। सरसों का उत्पादन वर्ष 2007-08 में 2006-07 की तुलना में 74.38 मिलियन टन से घटकर 58.03 मिलि. टन रह गया। वर्ष 1980-81 के बाद से देश में चावल तथा गेहूं की उत्पादकता तथा उत्पादन दोनों की वृद्धि दर में लगातार गिरावट दर्ज की गयी है। यहां तक कि 2000-06 की अवधि में गेहूं की उत्पादकता नकारात्मक रही है। उत्पादन की वृद्धि दर लगातार घटती दिख रही है। भारत में खाद्यान्न उत्पादन की नजर से उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। पंजाब तथा आंध्र प्रदेश दूसरे नंबर है। चावल उत्पादन में पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश क्रमशः आगे बढ़े हुए राज्य हैं। गेहूं की पैदावार में उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा पहले, दूसरे और तीसरे पादान पर है। मोटे अनाजों के उत्पादन में नंबर एक पर कर्नाटक दूसरे पर महाराष्ट्र तथा तीसरे पर राजस्थान है। दलहन के उत्पादन में शीर्ष पर मध्य प्रदेश, दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश तथा तीसरे नंबर पर महाराष्ट्र है। राजस्थान तिलहन के उत्पादन में सबसे आगे है और फिर मध्य प्रदेश तथा गुजरात के नंबर है।
एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2020 तक देश की आबादी बढ़कर 130 करोड़ हो जायेगी और हमारे अनाज की कुल वार्षिक आवश्यकता 342 मिलि. टन हो जायेगी। ऐसी स्थिति में यदि आज ही भारत में अनाज की फसलों की उत्पादकता में तथा उत्पादन में सुधार करने के लिए तात्कालिक और दूरगामी कदम नहीं उठाये तो हमारी मांग को देखते हुए हम काफी पिछड़ जायेंगे। देश में गंभीर खाद्य संकट पैदा हो जायेगा। यह खाद्य संकट राजनैतिक संकट का भी रूप लेगा और विकसित देश हमारी खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादित खाद्य पदार्थ का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में करेंगे। यह स्थिति हमारी आजादी और सम्प्रभुता दोनों पर हमला करेगी। ऐसी स्थिति में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा किसानों की खेती से मोह भंग होने की स्थिति से पहले ही कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की पहल करनी होगी। हमारी योजनाओं का 60 प्रतिशत धन गांव और खेती पर बेवाक आवंटित करने की पहल करनी होगी। शहरों की विकास की सोच ने गांव की बहुत अनदेखी कर दी अब इसे सुधारना होगा। भारतीय गणतंत्र का हाशिये पर पड़ा विशाल साधारण गण गांव में ही रहता है।

अतुल कुमार अनजान

http://loksangharsha.wordpress.com/2010/02/12/%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%97%E0%A4%A3/

धरती पर भोजन की कभी कमी नहीं हो सकती है।

धरती पर भोजन की कभी कमी नहीं हो सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि मानवजाति न सिर्फ़ अपना पेट भर सकती है, बल्कि पृथ्वी पर से भूख का नामो-निशान तक मिटा सकती है। इसके लिए बस, इतना करना होगा कि किसी कुशल गृहिणी की तरह पूरा प्रबन्ध करना होगा। ब्रितानियाई विशेषज्ञों के अनुसार आजकल मानवजाति एक से दो अरब टन भोजन प्रतिवर्ष फेंक देती है। इसका मतलब यह हुआ है कि हर साल पृथ्वी पर जितने खाद्य-पदार्थों का उत्पादन किया जाता है, उसका 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा फेंक दिया जाता है।

ब्रितानियाई विशेषज्ञों द्वारा पेश की गई इस रिपोर्ट का नाम है -- ग्लोबल फ़ूड, वेस्ट नॉट, वॉन्ट नॉट यानी अगर इच्छा हो तो वैश्विक-खाद्य बर्बाद नहीं होंगे। इस रिपोर्ट में वे कारण गिनाए गए हैं, जिनकी वज़ह से लोग खाद्य-पदार्थों को बर्बाद करते हैं। इनमें से कुछ कारणों से तो सारी दुनिया पहले ही परिचित है, जैसे खाद्य-पदार्थों के उत्पादन, भंडारण और वितरण के दौरान भारी लापरवाही बरती जाती है। लेकिन जैसाकि इस रिपोर्ट के एक प्रस्तोता डॉ० टिम फ़ॉक्स का कहना है, खाद्य-पदार्थों की बड़े पैमाने पर बर्बादी के मुख्य तौर पर दो ही कारण हैं। डॉ० टिम फ़ॉक्स ने कहा :

हमारी इस विकासशील दुनिया में सारी बर्बादी आम तौर पर खाद्य-आपूर्ति प्रक्रिया की शुरुआत में ही होती हैं। खेत से बाजार के बीच ही सारी बर्बादी होती है। उदाहरण के लिए, अफ्रीका में सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में और भारत में इसी स्तर पर सभी तरह के फलों और सब्जियों का 35 से 50 प्रतिशत हिस्सा ख़राब हो जाता है। परिपक्व और विकसित अर्थव्यवस्थाओं में मुख्य रूप से कमज़ोर व्यावसायिक नज़रिए और मार्केटिंग की दिक़्क़तों और उपभोक्ताओं के लापरवाही भरे व्यवहार के कारण खाद्य-पदार्थ बरबाद होते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन में आम तौर पर लोग खाने

के लिए जितने भी खाद्य-पदार्थ खरीदते हैं, उनका 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा फेंक दिया जाता है।

पश्चिमी देशों में दुकान से कूड़ाघरों तक पहुँचने वाले ज़्यादातर खाद्य-पदार्थों की बरबादी का मुख्य कारण यह है कि पश्चिमी समाज एक ऐसा समाज है जो उपभोग पर ही ज़्यादा ज़ोर देता है और इस वज़ह से दुकानों में रखे ज़्यादातर खाद्य-पदार्थ उपभोक्ता तक इसलिए नहीं पहुँच पाते क्योंकि वे उनके आदर्श मानकों के अनुरूप नहीं होते या ठीक ढंग से पैक नहीं होते और देखने में भद्दे लगते हैं। इस तरह की भद्दी सब्ज़ियाँ और फल, रोटियाँ, डिब्बा-बंद खाद्य, चॉकलेट, दूध आदि, जो कुछ भी भद्दा दिखाई देता है, वह उपभोक्ता तक पहुँचने की जगह या तो जानवरों का भोजन बनता है या फिर कूड़ाघरों में फेंक दिया जाता है। इस तरह के जो भी व्यावसायिक-प्रस्ताव उपभोक्ताओं के सामने रखे जाते हैं, जिनमें किसी एक चीज़ के साथ दूसरी चीज़ मुफ़्त दी जा रही होती है, उनमें यह मुफ़्त मिलने वाली दूसरी चीज़ आम तौर पर या तो ख़राब होने वाली होती है, या फिर ख़राब हो चुकी होती है। इसके अलावा मालों की 'एक्सपायरी डेट' यानी उनको इस्तेमाल करने की अंतिम तिथि के प्रति भी पश्चिम में दुराग्रह ज़रूरत से ज़्यादा है।

संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार, आज दुनिया में क़रीब 87 करोड़ लोग भूखे रह जाते हैं। ब्रिटिश विशेषज्ञों को विश्वास है कि इन लोगों का पेट भी भरा जा सकता है, यदि उत्पादक से उपभोक्ता तक खाद्य-पदार्थों की पहुँच की प्रणाली को सुधार लिया जाए और इस दौरान होने वाली सारी बरबादी को बंद कर दिया जाए। रूसी विशेषज्ञ इस सवाल पर ब्रितानियाई विशेषज्ञों के साथ पूरी तरह से सहमत हैं। प्रसिद्ध रूसी खाद्य-बाजार विश्लेषक आन्द्रेय स्लावूतिन ने कहा :

वास्तव में दुनिया में कृषि के वर्तमान स्तर को देखते हुए कहा जा सकता है कि हर आदमी को भोजन मिल जाना चाहिए। दिक़्क़त सिर्फ़ पैसे की होती है। और यही वह मुख्य कारण है, जिसकी वज़ह से अफ़्रीका भूखा मर रहा है, और यूरोप अपने यहाँ उत्पादित अतिरिक्त दूध को नालियों में बहाता है और दूसरे खाद्य-पदार्थों को सड़कों पर फेंक देता है। इस सबका कारण बस, इतना ही है कि वहाँ ज़रूरत से ज़्यादा उत्पादन होता है और भोजन की कोई कमी नहीं है। दिक़्क़त तो वितरण से जुड़ी समस्याओं की है। सारे खाद्य-पदार्थों का समान रूप से वितरण किया जाना चाहिए।

सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक समस्या को हल करके मानवजाति ख़ुद-ब-ख़ुद दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या यानी मीठे पानी की कमी की समस्या को भी हल कर लेगी। ब्रितानियाई विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तुत की गई इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि फेंके जाने वाले खाद्य-पदार्थों को नष्ट करने या नाली में बहाने के लिए हर साल 500 अरब घन मीटर पानी खर्च कर दिया जाता है। यह पानी उस पानी से लगभग तीन गुना अधिक है, जिसका मानवजाति पीने के लिए उपयोग करती है।

क्या दुनिया खाद्य संकट के कगार पर है?

 रविवार, 15 जुलाई, 2012 को 15:57 IST तक के समाचार

अमरीका में इस वर्ष रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ रही है जिसका असर खेती पर भी पड़ा है.

भारत के कई हिस्सों में इस बार मॉनसून देर से आया है और कुछ इलाकों में अब तक उम्मीद से कम बारिश हुई है.

मॉनसून में देरी का सीधा असर खेती पर पड़ता है. इस महीने की शुरुआत में केंद्र ने माना था कि इस साल मानसून में देरी हुई है लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि देश के पास पर्याप्त मात्रा में खाद्य भंडार है.

वैसे मॉनसून में देरी और इसका खेती पर असर सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कुछ और हिस्सों में भी देखा जा रहा है.

अमरीकी राष्ट्रीय पर्यावरण डाटा केंद्र के अनुसार इस वर्ष जून महीने तक के आँकड़ों से पता चलता है कि इस वर्ष गर्मी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. और मध्यपश्चिम अमरीका इस वक्त इस सदी का सबसे बुरा सूखा झेल रहा है.

इसका असर वहाँ कृषि पर भी पड़ रहा है क्योंकि मध्यपश्चिम अमरीका देश का मुख्य कृषि क्षेत्र है.

फसल

तो क्या इससे ये माना जाए कि दुनिया एक बार फिर खाद्य संकट के कगार पर खड़ी है?

अमरीका, गेंहू, सोयाबीन और मक्के का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है. अमरीकी कृषि मंत्रालय के इस सप्ताह जारी पूर्वानुमान के मुताबिक इस वर्ष मक्के की पैदावार 12 फीसदी कम होगी.

वॉशिंगटन से बीबीसी संवाददाता ज़ो कॉनवे कहते हैं कि इस साल के पहले छह महीने अब तक के सबसे गर्म महीने थे और कई राज्यों में सूखा इतना भयंकर है कि कृषि मंत्रालय ने इसे अमरीका के इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा घोषित कर दिया है.

भारत के कई हिस्सों में मॉनसून इस बार देर से आया है.

अमरीका में ये मक्के की फसल का मौसम है लेकिन अब तक काफ़ी फसल सूख चुकी है.

खाद्य संकट?

मध्यपश्चिम अमरीका के इलिनोइस राज्य के किसान कहते हैं कि उन्होंने इससे पहले इतनी सूखी धरती कभी नहीं देखी. एक किसान ने बताया, "काफ़ी फ़सल पहले ही बर्बाद हो चुकी है. अब अगर बारिश हो भी जाए तो मुझे नहीं लगता कि फसल अब बचाई जा सकती है क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी है."

एक और किसान ने कहा, "मैं मानता हूं कि वर्ष 1988 के बाद से ये अब तक का सबसे ख़राब सूखा है. बल्कि मुझे लगता है कि ये 1988 से भी बुरा समय है क्योंकि उस साल कम-से-कम शुरू में इतनी बुरी स्थिति नहीं थी."

तापमान बढ़ने के साथ ही फसलों के दाम भी बढ़ रहे हैं. पिछले एक महीने में मक्के के दाम 45 फीसदी, गेंहू के 36 फीसदी और सोयाबीन के दाम 17 फीसदी बढ़ गए हैं.

पांच साल पहले कहा गया था कि खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों की वजह से दुनिया में साढ़े सात करोड़ भूखे लोग बढ़े थे और 30 से ज़्यादा देशों में दंगे हुए थे.

खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों को ही दो साल पहले अरब क्रांति का एक कारण बताया गया था.

लेकिन कुछ विश्लेषक कहते हैं कि खाद्य संकट होने की संभावना नहीं है. इसकी वजह है दुनिया के सबसे ग़रीब लोगों के मुख्य भोजन- गेंहू और चावल- की अच्छी आपूर्ति.

http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2012/07/120715_us_drought_ar.shtml

Khadya Sankat ki Chunauti

खाद्य संकट की चुनौती

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महाश्वेता देवी, अरुण कुमार त्रिपाठी <<आपका कार्ट
मूल्य14.95  
प्रकाशकवाणी प्रकाशन
आईएसबीएन 978-93-5000-064
प्रकाशित जनवरी ०१, २००९
पुस्तक क्रं : 7500
मुखपृष्ठ : सजिल्द

सारांश:

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमंडलीकरण और उदारीकरण की जनविरोधी नीतियाँ संकट में हैं। अमेरिका और यूरोप से लेकर चीन और भारत समेत पूरी दुनिया में इसका असर पड़ा है। पूँजी के दिग्विजयी अभियान पर ब्रेक लगा है तो लाखों लोगों की नौकरियाँ भी गई हैं। उदारीकरण के समर्थक इसे कम करके दिखा रहे हैं और मजह वित्तीय पूँजी का संकट बता रहे हैं, जबकि यह वास्तविक अर्थव्यवस्था का संकट है और पिछले ढाई दशक से चल रही आर्थिक नीतियों का परिमाम है। इसके कई आयाम हैं और उन्हीं में से एक गंभीर आयाम है खाद्य संकट। खाद्य संटक की जड़ें कृषि संकट में भी हैं और उस आधुनिक खाद्य प्रणाली में भी जिसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मनुष्य और धरती के स्वास्थ्य की कीमत पर अपने हितों के लिए तैयार किया है। एक तरफ दुनिया के कई देशों में अनाज के लिए दंगे हो रहे हैं और दूसरी तरफ उच्च ऊर्जा के गरिष्ठ भोजन के चलते मोटापा, डायबटीज, हृदय रोग जैसी तमाम बीमारियों ने लोगों को घेर रखा है। सुख-समृद्धि देने का दावा करने वाला पूँजीवाद सामान्य आदमी का पेट काट रहा है तो अमीर आदमी के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहा है। अर्थशास्त्री, जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक, योजनाकार, सामाजिक कार्यकरता, पत्रकार, समीक्षक और साहित्यकार जैसे विविध बौद्धिकों की टिप्पणियों, विश्लेषणों और वर्णनों के माध्यम से यह संकलन खाद्य संकट को समझने का प्रयास है। पुस्तक के विभिन्न लेखक इस संकट के वैश्विक स्वरूप में भारत की स्थिति स्पष्ट करते हैं और साथ ही विश्व भर में विकल्प ढूँढ़ने के प्रयासों का जिक्र करते हुए यह हौसला देते हैं कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है। 

पैसा, पॉवर और सेक्स की असाधारण भूख के इस दौर में दुनिया की एक अरब से ज्यादा आबादी भूखे पेट सोती है। यह हमारे दौर की बड़ी विडंबना है। बल्कि इसे दुनिया का नया आश्चर्य कहें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। पर यह विडंबना कोई संयोग नहीं है। यह उत्पन्न इसीलिए हुई क्योंकि कुछ लोगों की गैरजरूरी भूख बढ़ गई है और उन्होंने जरूरी भूख पर ध्यान देना छोड़ दिया है। इस क्रूर खाद्य प्रणाली ने अमीरों को भी तरह-तरह की बीमारियाँ दी हैं और धरती के पर्यावरण को भारी क्षति पहुँचाई है। यह क्षति बढ़ती गई तो धरती सबका पेट भर पाने से इनकार भी कर सकती है। खाद्य संकट की यह चुनौती हमें नए विकल्पों की तलाश के लिए ललकारती है।
–अरुण कुमार त्रिपाठी

खाद्य नहीं प्रणाली का संकट

खाद्य संकट न तो पिछली सदी का दुःस्वप्न है, न ही इस सदी की विघ्न संतोषी कल्पना। वह पहले भी एक सच्चाई था और आज भी है। उसे एक हद तक कम करने या ढकने की कोशिश राष्ट्रीय और वैश्विक संस्थाओं के माध्यम से की जाती है। पर वह उत्पादन वितरण और खाद्य संस्कृति की मूलभूत स्थितियों से इतने गहरे जुड़ा हुआ है कि उसे समझे और उस ढर्रे पर नीतिगत बदलाव किए बिना दूर होता नहीं दिखता। एक तरफ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का खाद्य व्यापार है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय सरकारों की कल्याणकारी योजनाएँ हैं। इस बीच में या इस दायरे से बाहर वे लोग हैं जो कभी पेट की खातिर अपना घर-बार छोड़ दर-दर भटकते हैं और गांव से शहर की तरफ पलायन करते हैं तो कभी दुर्गम जंगलों-पहाड़ों में रुक कर कठिन संघर्ष छेड़ देते हैं। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में माओवादियों के संघर्ष और सरकार के दमन के दौरान जब महाश्वेता देवी कह रही थीं कि वहाँ के आदिवासियों पर कार्रवाई नहीं उन्हें अनाज की जरूरत है, उसी समय कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर उन्हें कांग्रेस के घोषणा-पत्र की याद दिलाते हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम बनाने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि, ''हमारी पार्टी ने सन् 2009 के लोकसभा चुनावों में जो सबसे प्रमुख और महत्त्वपूर्ण वादा किया था वह था समाज के कमजोर और गरीब तबके को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम बनाना। मैं उस कानून का एक मसविदा आपके पास भेज रही हूँ।'' 12 जून को भेजे गए इस मसविदे में कहा गया है कि ''भोजन का अधिकार (सुरक्षा की गारंटी) कानून चाहता है कि भूख और कुपोषण से मुक्ति एक मौलिक अधिकार हो। यह सभी नागरिकों को सुरक्षित, पोषक और पर्याप्त खाद्य, जिसमें सम्मान के साथ सक्रिय और स्वस्थ जीवन देने की क्षमता हो, के लिए भौतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार प्रदान करना चाहता है।'' इसके तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले तबके और अंत्योदय योजना के तहत लाभ पाने वालों के अलावा बचे समाज के कमजोर तबकों के लिए हर महीने तीन रुपए प्रति किलो की दर से 35 किलो अनाज देने का प्रावधान है। इस कानून के दायरे में उन लोगों को लाया जा रहा है जो वंचितों में भी वंचित हैं। उनकी सूची में अकेली महिला, कुष्ठ रोग, एचआईवी और मनोरोगी, बँधुआ मजदूर, महीने में कम-से-कम 20 दिन भीख माँग कर गुजारा करने वाले बेसहारा लोग, कचरा बीनने ने वाले, निर्माण कार्य करने वाले और रिक्शा चलाने वालों को जोड़ा गया है। सरकार की इस योजना के दो अर्थ हैं। एत तो यह दिखाना कि क्रांग्रेस पार्टी और उसका नेतृत्व जनता से किए गए वादे पूरे करने के लिए चौकस है और सरकार के पास इतने संसाधन और खाद्य का भंडार है कि वह सभी की भूख मिटाने की क्षमता रखती है। लेकिन दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि एक तरफ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यंजनों का स्वाद लेने की क्षमता वाला संपन्न वर्ग है तो दूसरी तरफ दो जून की रोटी का जुगाड़ करने वाला कमजोर वर्ग। उसे रोटी मिलेगी तो चावल नहीं, चावल मिलेगा तो दाल नहीं, दाल मिलेगी तो सब्जी नहीं। महँगी होती मीट मछली या फल वगैरह के बारे में वह सोच ही नहीं पाता। कई बार तो उसका 'नून-नमक' छीनने वाले भी खड़े हो जाते हैं। यह सही है कि खराब मानसून की आशंका और आसन्न सूखे और खाद्य संकट के मद्देनजर सरकार इंतजाम करने में लगी है पर उसी के साथ इस संकट की बढ़ती विश्वव्यापी उपस्थिति सरकार की क्षमताओं पर सवाल भी खड़ा करती है। 

दरअसल खाद्य का यह संकट स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं है। इसका दायरा वैश्विक है और उसे पैदा करने में उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों का बड़ा योगदान है। यह गौर करने लायक तथ्य है कि जिस समय वित्तीय पूंजी में संकट पैदा हो रहा था और मंदी की आहटें सुनाई पड़ रही थीं उसी समय पॉल राबर्ट्स 'एंड ऑफ ऑयल' और 'एंड आफ फूड' जैसे ग्रंथ लिख रहे थे। हालांकि हम इन्हें डैनियल वेल की 'एंड ऑफ आइडियोलॉजी' और फ्रांसिस फुकुआमा की 'एंड ऑफ हिस्ट्री' जैसे ग्रंथों की श्रृंखला में रख सकते हैं। पर जहाँ विचारधारा और इतिहास के अंत की घोषणा समाजवाद के संकट की चर्चा करती है वहीं तेल और खाद्य के खत्म होने की घोषणा पूँजीवाद के गंभीर संकट की तरफ संकेत हैं। इसीलिए प्रोफेसर अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों का यह कहना है कि अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट वित्तीय पूँजी या ऊपरी हिस्से के कुछ क्षेत्रों का नहीं बल्कि वास्तविक अर्थव्यवस्था का संकट है ज्यादा सटीक जान पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के उस अनुमान में खाद्य संकट के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं जिसमें कहा गया है कि 1.1 अरब से ज्यादा लोग अतिपोषित हैं। उन्होंने इतना खा लिया या इतना खाने की आदत डाल ली है कि उन्हें मोटापे से उत्पन्न होने वाली बीमारियों का खतरा है। दूसरी तरफ इतनी ही या इससे ज्यादा ही संख्या उन लोगों की है जो भूखों मर रहे हैं। यह हमारी व्यवस्था की व्यापक विफलता की कुछ प्रतीकात्मक विडंबनाएँ हैं। 

इसी विडंबना को वीसी बर्कले स्थिति अफ्रीकी अध्ययन के स्कॉलर राज पटेल भी 'स्टफ्ड एंड स्टार्वड' (भरे और भूखे पेट) काम के अपने महत्त्पूर्ण ग्रंथ में रेखांकित करते हैं। उनका कहना है कि ''हालाँकि मोटापा और भूख विश्वव्यापी है पर दुनिया के किसी हिस्से में भूखे और भरे पेट वालों की वैसी विडंबनापूर्ण स्थिति नहीं है जितनी दक्षिण एशिया में है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे यानी 21.2 करोड़ लोग रहते हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है। दूसरी तरफ फोर्ब्स की सूची के टौप दस अमीरों में सबसे ज्यादा भारत के ही लोग हैं। यहाँ सन् 2000 में टाइप-II डायबटीज के मरीजों की संख्या तीन करोड़ थी जिसमें 2030 तक 8 करोड़ हो जाने का अनुमान है।'' 

अपने आकार और इन्हीं विडंबनाओं के चलते भारत के बारे में दुनिया में कई तरह के पूर्वग्रह और गलतफहमियाँ हैं। इसी वजह से अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने भारत के 35 करोड़ मध्यवर्ग की खानपान शैली को मौजूदा खाद्य संकट के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया था। आरोप, पूर्वाग्रह और गलतफहमी भरे इन बयानों से अलग अगर आधुनिक खाद्य पर निगाह डालें तो पता चल जायेगा कि संकट कहाँ है और क्यों है ? इस बारे में पॉल रॉबर्ट्स स्पष्ट करते हैं कि किस प्रकार आधुनिक खाद्य प्रणाली उसके अरबों उपभोक्ताओं के लिए उपयुक्त और सुरक्षित नहीं साबित हो रही है। बड़े पैमाने पर उभरी खाद्य उत्पादन की दक्ष प्रणाली और डीवीडी, सौंदर्य प्रसाधन और खिलौनों के लिए विकसित वितरण प्रणाली की तरह बनी खाद्य वितरण प्रणाली ने भोजन के साथ हमारे रिश्तों को पूरी तरह बदल दिया है। इसी के चलते एक तरफ मोटे और थुलथुल लोगों की भीड़ है तो दूसरी तरफ पेट और पीठ पिचके लोगों की कतार है। यह सही हैं कि विज्ञान और प्रौद्यौगिकी की मदद से खाद्य उत्पादन कई गुना बढ़ा और नई व तीव्र परिवहन प्रणाली के चलते यह खाद्य दूरदराज के लोगों को उपलब्ध कराया गया। पर उसी के साथ यह भी सही है कि इस प्रणाली की सीमाएँ स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। वह सभी का पेट नहीं भर सकती यह बात तो शीसे की तरह साफ है। और वह जिनका पेट भरती है उन्हें 'एवियन फ्लू' से लेकर 'स्वाइन फ्लू' तक तमाम तरह के खतरे से आशंकित किए हुए है। इस आधुनिक खेती की उत्पादन पद्धति में ऐसे घातक रसायनों और कृषि तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है कि धरती की उर्वर क्षमता को बेपनाह क्षति हुई है। इसलिए उत्पादन क्षमता में नए विस्तार के समक्ष जलवायुगत सीमाएँ खड़ी हो गई हैं। इन स्थितियों के मद्देनजर भारत और चीन जैसे बड़े देशों के खाद्य आयात-निर्यात पर असर पड़ सकता है। यूरोप और अमेरिका अपनी खाद्य प्रणाली को वैश्विक की जगह ज्यादा स्थानीय बनाने के बारे में सोच सकते हैं। यही खाद्य संकट है और यही उससे निकलने की बेचैनी और रास्ते हैं। 

आधुनिक खाद्य प्रणाली एक तरफ सभी का पेट नहीं भर पा रही है दूसरी तरफ जिसका भर रही है उन्हें भी बीमार बना रही है। सवाल सिर्फ बढ़ते मधुमेह और हृदय संबंधी बीमारियों का ही नहीं है, सवाल खाद्य से संबंधित उन तमाम बीमारियों से हैं जो अमेरिका औरप यूरोप के लोगों पर भारी पड़ रही हैं। आधुनिक खाद्य से होने वाले संक्रमण के चलेत अमेरिका में प्रतिवर्ष 7.6 करोड़ लोग बीमार पड़ते हैं, तीन लाख अस्पताल में भर्ती होते हैं और इनमें से 5000 मौतें होती हैं। 

खाद्य प्रणाली से पैदा होने वाला ताजा खतरा H5 N1 वायरस का है। इसे हमे एवियन इन्फुलेंजा बर्ड फ्लू कहते हैं। यह बीमारी यूरोप के बड़े-बड़े टर्की फार्मों से आई है। 
इसी तरह मैड काउ बीमारी क्रूएट्ज फेल्ट जैकोब बीमारी के नाम से जाना जाता है, आधुनिक खाद्य प्रणाली से उत्पन्न बड़ा खतरा है। इस बीमारी को पैदा करने वाली संक्रामक प्रोटीन जानवर को काटे जाने के काफी बाद तक सक्रिय रहती है। यह बीमारी एक गाय के तंत्रिका तंत्र से शुरू हो सकती है और जब उस गाय का मांस दूसरी गाय को खिलाने के लिए तैयार किया जाता है तो वह खाद्य प्रणाली में प्रवेश कर जाती है। वह खाद्य जितने जानवरों को दिया जाएगा उन सब में यब बीमारी फैलती जाती है। 

खाद्य प्रणाली किस कदर प्रदूषण, संक्रमण और जलवायु परिवर्तन करती है उस बारे में राज पटेल (स्टफ्ड एंड स्टार्वड) का वर्णन चौंकाता है। अमेरिका का पशुपालन उद्योग वहाँ के नाइट्रो प्रदूषण के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। पशुओं की संकेंद्रित खाद्य सामग्री दरअसल मांस के क्रूर कड़ाह में ही तैयार की जाती है जो रक्त से सना होता है। अमेरिका में तैयार होने वाला 70 पतिशत एंटीबायोटिक पशुपालन उद्योग पर खर्च होता है और 60 प्रतिशत अनाज पशुओं को खिलाया जाता है। अमेरिका के पशुपालन उद्योग से सालाना 30 करोड़ टन गोबर पैदा होता है। इसके विस्तारण से न्यूजर्सी के आकार का इलाका मृत हो चुका है। इसी प्रकार सूअरों के फार्म में स्थित 5000 सूअर उतना मल उत्पन्न करते हैं जितना 20000 की आबादी का शहर। 

धरती पर होने वाले कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन के 18 प्रतिशत हिस्से के लिए अकेले पशु उद्योग जिम्मेदार है। 
इन प्रदूषणकारी स्थितियों के बावजूद अमेरिका का कृषि आधारित उद्योग पर्यावरणीय नियमों से मुक्त हैं।

दुनिया

अनाज संकट की आशंका

अंतरराष्ट्रीय बाजार में अनाज की कीमतें फिर बहुत बढ़ गई हैं. इसकी वजह से एक बार भुखमरी का संकट खड़ा होने जा रहा है. अफ्रीका में अन्न उगाने वाले किसानों ही अब भुखमरी से लड़ रहे हैं.

जब अनाज की कीमतें बढ़ने लगती हैं तो यह भुखमरी संकट के पैदा होने का संकेत होता है. संयुक्त राष्ट्र खाद्य संगठन एफएओ के अनुसार पिछले दो महीने में गेहूं की कीमत 32 फीसदी बढ़कर 330 डॉलर प्रति टन हो गई है. अमेरिका, रूस, यूक्रेन और कजाकिस्तान में पड़े सूखे के कारण विश्व बाजार में अनाज की सप्लाई कम हुई है और दाम तेजी से बढ़े हैं.

जर्मन राहत संगठन वेल्ट हुंगर हिल्फे के मथियास मोगे का कहना है कि यह चिंताजनक है. बहुत से अफ्रीकी देशों को अनाज का आयात करना पड़ता है. मोगे के अनुसार यदि विदेशी मदद समय पर न पहुंचे तो पश्चिम अफ्रीका में पौने दो करोड़ से ज्यादा लोग भुखमरी की चपेट में होंगे. लेकिन स्थिति जितनी खराब है उतनी ही तेजी से सुधारी भी जा सकती है.

अफ्रीका में सूखा

चार साल पहले पहली बार अनाज के बाजार में बवाल हो गया था. 2005 से 2008 के बीच गेहूं, चावल और मक्के की कीमत तिगुनी बढ़ गई. विश्व खाद्य संगठन के अनुसार उस समय 8 करोड़ लोग भुखमरी और गरीबी के शिकार हुए. उसके बाद हालत थोड़ी सुधरी, लेकिन कीमतें पुराने स्तर पर नहीं पहुंची. इस बीच दामों में फिर से उछाल दिख रहा है.

श्टुटगार्ट के होहेनहाइम यूनिवर्सिटी के कृषि अर्थशास्त्री डॉ डेटलेफ विरचो बाजार के मौजूदा रुझानों से चिंतित हैं. यूनिवर्सिटी में खाद्य सुरक्षा सेंटर के प्रमुख विरचो कहते हैं, "हमारी ओर कुछ 2008 से भी बुरा आ रहा है." अफ्रीका में गरीबों के लिए मुश्किल के दिन आ रहे हैं. वे अपनी लगभग पूरी कमाई खाने पीने पर लगा देते हैं. विरचो कहते हैं कि वे अपनी कमर और नहीं कस सकते हैं. मतलब यह कि वे और बचत नहीं कर सकते. यदि वे कम खाएंगे तो भुखमरी के शिकार हो जाएंगे.

यह अजीब विरोधाभास है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया भर में 92 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं. और उनमें से आधे छोटे किसान हैं जो खुद अनाज उपजाते हैं. विरचो कहते हैं कि सैद्धांतिक रूप से अनाज की कीमत में वृद्धि से उन्हें फायदा होना चाहिए लेकिन हकीकत कुछ और है. बहुत से किसानों को फसल के तुरंत बाद अनाज बेचना पड़ता है जब कीमतें कम होती हैं. उनके पास अनाज जमा करने की सुविधा नहीं है और उन्हें दूसरी चीजें खरीदने के लिए पैसे की जरूरत होती है. सीजन के अंत में उन्हें फिर से अनाज खरीदना पड़ता है जब अनाजों की कीमतें ज्यादा होती हैं.

सूखे में नष्ट फसल

पिछले सालों में अनाज की कीमत तेजी से बढ़ी है और वे अनिश्चित हो गई हैं. इसकी कई वजहें हैं. एक वजह तो यह है कि मीट की खपत बढ़ी है जिसके कारण चारे की मांग बढ़ी है. इसके अलावा पशुपालन के लिए भी काफी जमीन की जरूरत होती है. पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों ने बायो डीजल की मांग बढ़ा दी है. बायो डीजल बनाने के लिए मक्के, सरसों और गन्ने का इस्तेमाल हो रहा है. अमेरिका तो मक्के की आधी फसल का इस्तेमाल बायोइथेनॉल बनाने के लिए करता है. खेतों का इस्तेमाल अनाज उगाने के लिए नहीं बल्कि ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जा रहा है. विरचो कहते हैं कि यह निष्पक्ष बाजार नहीं है. वे बायो डीजल के लिए सब्सिडी समाप्त करने की मांग करती हैं.

दुनिया के अनाज उत्पादन का 5 से 15 फीसदी अंतरराष्ट्रीय बाजार में बिकता है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, ब्राजील और चीन जैसे देश इस बाजार के बड़े खिलाड़ी हैं. चीन अपनी सवा अरब की आबादी के लिए बाहर से चावल नहीं खरीदता, लेकिन वहां खराब फसल होने पर हालात बदल सकते हैं. विरचो कहते हैं, "अगर चीन अपनी सिर्फ दस फीसदी आबादी के लिए चावल खरीदे तो विश्व बाजार खाली हो जाएगा."

एमजे/ओएसजे(ईपीडी)


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कॉफी की खेती

कृषि खेती और वानिकी के माध्यम से खाद्य और अन्य सामान के उत्पादन से सम्बंधित है। कृषि एक मुख्य विकास था, जो सभ्यताओं के उदय का कारण बना, इसमें पालतू जानवरों का पालन किया गया और पौधों (फसलों) को उगाया गया, जिससे अतिरिक्त खाद्य का उत्पादन हुआ। इसने अधिक घनी आबादी और स्तरीकृत समाज के विकास को सक्षम बनाया। कषि का अध्ययन कृषि विज्ञान के रूप में जाना जाता है (इससे संबंधित अभ्यास बागवानी का अध्ययन होर्टीकल्चर में किया जाता है)।

तकनीकों और विशेषताओं की बहुत सी किस्में कृषि के अर्न्तगत आती है, इसमें वे तरीके शामिल हैं जिनसे पौधे उगाने के लिए उपयुक्त भूमि का विस्तार किया जाता है, इसके लिए पानी के चैनल खोदे जाते हैं और सिंचाई के अन्य रूपों का उपयोग किया जाता है। कृषि योग्य भूमि पर फसलों को उगानाऔर चरागाहों और रेंजलैंड पर पशुधन को गड़रियों के द्वारा चराया जाना, मुख्यतः कृषि से सम्बंधित रहा है। कृषि के भिन्न रूपों की पहचान करना व उनकी मात्रात्मक वृद्धि, पिछली शताब्दी में विचार के मुख्य मुद्दे बन गए। विकसित दुनिया में यह रेंज जैविक कृषि (उदाहरणपर्माकल्चर या कार्बनिक कृषि) से लेकर गहन कृषि (उदाहरण औद्योगिक कृषि) तक फैली है।

आधुनिक एग्रोनोमीपौधों में संकरणकीटनाशकों और उर्वरकों, और तकनीकी सुधारों ने फसलों से होने वाले उत्पादन को तेजी से बढाया है, और साथ ही यह व्यापक रूप से पारिस्थितिक क्षति का कारण भी बना है और इसने मनुष्य के स्वास्थ्य पर ऋणात्मक प्रभाव डाला है। चयनात्मक प्रजनन और पशुपालन की आधुनिक प्रथाओं जैसे गहन सूअर खेती (और इसी प्रकार के अभ्यासों को मुर्गी पर भी लागू किया जाता है) ने मांस के उत्पादन में वृद्धि की है, लेकिन इससे पशु क्रूरताएंटीबायोटिक दवाओं के स्वास्थ्य प्रभाव,वृद्धि होर्मोन, और मांस के औद्योगिक उत्पादन में सामान्य रूप से काम में लिए जाने वाले रसायनों के बारे में मुद्दे सामने आये हैं।

प्रमुख कृषि उत्पादों को मोटे तौर पर भोजनरेशाईंधनकच्चा मालफार्मास्यूटिकल्स, और उद्दीपकों में समूहित किया जा सकता है। साथ ही सजावटी या विदेशी उत्पादों की भी एक श्रेणी है। 2000 से, पौधों का उपयोग जैविक ईंधनजैवफार्मास्यूटिकल्सजैवप्लास्टिक,[1] और फार्मास्यूटिकल्स [2] के उत्पादन में किया जा रहा है। विशेष खाद्यों में शामिल हैं अनाजसब्जियांफल और मांस। रेशे में कपासऊनसनरेशम और फ्लैक्स शामिल हैं। कच्चे माल में लकड़ी और बाँस शामिल हैं। उद्दीपकों में तंबाकू,शराबअफीमकोकीन, और डिजिटेलिस शामिल हैं।पौधों से अन्य उपयोगी पदार्थ भी उत्पन्न होते हैं, जैसे रेजिन। जैव ईंधनों में शामिल हैं बायोमास से मेथेनएथेनोल औरजैव डीजलकटे हुए फूलनर्सरी के पौधे, उष्णकटिबंधीय मछलियां और व्यापार के लिए पालतू पक्षी, कुछ सजावटी उत्पाद हैं।

2007 में, दुनिया के लगभग एक तिहाई श्रमिक कृषि क्षेत्र में कार्यरत थे। हालांकि, औद्योगिकीकरण की शुरुआत के बाद से कृषि से सम्बंधित महत्त्व कम हो गया है, और 2003 में-इतिहास में पहली बार-सेवा क्षेत्र ने एक आर्थिक क्षेत्र के रूप में कृषि को पछाड़ दिया क्योंकि इसने दुनिया भर में अधिकतम लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया। [3]इस तथ्य के बावजूद कि कृषि दुनिया के आबादी के एक तिहाई से अधिक लोगों की रोजगार उपलब्ध कराती है, कृषि उत्पादन, सकल विश्व उत्पाद (सकल घरेलू उत्पाद का एक समुच्चय) का पांच प्रतिशत से भी कम हिस्सा बनता है। [4][मृत कड़ियां][5]

अनुक्रम

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[संपादित करें]संज्ञा

शब्द agriculture लैटिन शब्द agricultūra का अंग्रेजी रूपांतर है, ager का अर्थ है "एक क्षेत्र"[5] और cultūra का अर्थ है "जुताई", सख्त अर्थ में "मिटटी की जुताई"।[6] इस प्रकार से, शब्द के शाब्दिक पाठन से हमें जो अर्थ प्राप्त होता है वह है "एक क्षेत्र / क्षेत्रों की जुताई"

[संपादित करें]अवलोकन

कृषि ने मानव सभ्यता के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। औद्योगिक क्रांति से पूर्व, मानव आबादी का अधिकांश हिस्सा कृषि में ही कार्यरत था।कृषि तकनीकों के विकास के कारण कृषि उत्पादकता में लगातार वृद्धि हुई है, और एक समय अवधि के दौरान इन तकनीकों के व्यापक प्रसार को अक्सर कृषि क्रांति कहा जाता है।पिछली सदी में इन नई तकनीकों की वजह से कृषि की पद्धतियों में उल्लेखनीय बदलाव आया है।विशेष रूप से, अमोनियम नाइट्रेट को बनाने के लिए हेबर-बॉश विधि ने, जंतु खाद व फसल पुनरावर्तन के द्वारा पोषकों के पुनः चक्रीकरण की पारम्परिक पद्धति को कम आवश्यक बना दिया है।


कृषि क्षेत्र में काम करने वाली मानव आबादी के प्रतिशत में समय के साथ गिरावट आई है।

खदानों से निकले रॉक फॉस्फेटकीटनाशक और यांत्रिकीकरण के साथ कृत्रिम नाइट्रोजन ने 20 वीं सदी के प्रारंभ मेंफसल की पैदावार को बहुत अधिक बढा दिया है।

अनाज की आपूर्ति के बढ़ने से पशुधन सस्ता हो गया है। इसके अलावा, विश्व स्तर पर उत्पादन में वृद्धि 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में देखी गयी जब प्रधान अनाजों जैसे चावलगेहूँ, और मकई (मक्का) की उच्च पैदावार वाली किस्में हरित क्रांति के एक भाग के रूप में सामने आयीं।

हरित क्रांति में विकसित दुनिया के द्वारा विकासशील दुनिया को तकनीक (जिसमें कीटनाशक और कृत्रिम नाइट्रोजन भी शामिल थे) का निर्यात किया गया।

थॉमस माल्थस ने प्रसिद्ध भविष्यवाणी की थी कि पृथ्वी अपनी बढती हुई आबादी का भार वहन नहीं कर पायेगी, लेकिन तकनीकों जैसे हरित क्रांति की वजह से विश्व में अतिरिक्त भोजन का उत्पादन संभव हो गया है। [7]

2005 में कृषि उत्पादन

कई सरकारों ने पर्याप्त खाद्य आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए कृषि को आर्थिक सहायता प्रदान की है।ये कृषि सहायतायें अक्सर विशेष पदार्थों के उत्पादन से सम्बंधित रही हैं जैसे गेहूँ, मकई (मक्का), चावलसोयाबीन, औरदूध।ये सहायतायें, विशेष रूप से जब जब विकसित देशों के द्वारा की गयी हैं, तब तब इनके सुरक्षावादी, अप्रभावी और वातावरण के लिए क्षतिकारक होने का उल्लेख किया गया है। [8] पिछली शताब्दी में कृषि को, उत्पादकता में वृद्धि, कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग, चयनात्मक प्रजननयांत्रिकीकरणजल संदूषण, और फार्म सब्सिडी के रूप में परिलक्षित किया गया है। कार्बनिक खेती के समर्थक जैसे सर एल्बर्ट हावर्ड ने 1900 के शुरुआत में तर्क दिया कि कीटनाशकों और कृत्रिम उर्वरकों का जरुरत से अधिक इस्त्तेमाल मिटटी की दीर्घकालिक उर्वरकता को नुकसान पहुंचाता है।

2000 के दशक में पर्यावरण जागरूकता में वृद्धि हुई है, इसके कारण कुछ किसानों, उपभोक्ताओं, और नीति निर्माताओं के द्वारा स्थायी कृषि की दिशा में एक आन्दोलन की शुरुआत हुई है। हाल ही के वर्षों में मुख्यधारा कृषि, विशेष रूप से जल प्रदूषण के कथित बाहरी वातावरणीय प्रभावों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया सामने आयी है,[9] जिसके परिणामस्वरूप एक कार्बनिक आन्दोलन हुआ है। इस आन्दोलन के पीछे मुख्य ताकतों में से एक है यूरोपीय संघ, जिसने 1991 में सर्वप्रथम कार्बनिक खाद्य को प्रमाणित किया, और 2005 में अपनी सामान्य कृषि नीति (CAP) में सुधार लाना शुरू किया ताकि कमोडिटी आधारित कृषि सब्सिडी को हटाया जा सके,[10] इसे डिकपलिंग कहा जाता है।

कार्बनिक कृषि के विकास ने वैकल्पिक तकनीकों जैसे एकीकृत कीट प्रबंधन और चयनात्मक प्रजनन में अनुसंधानों का नवीनीकरण किया है। हाल ही के मुख्यधारा प्रौद्योगिकीय विकास में शामिल है आनुवंशिक रूप से संशोधित भोजन। 2007 के अंत में, कई कारकों की वजह से मुर्गी, डेयरी की गाय और अन्य मवेशियों को खिलाये जाने वाले अनाज और भोजन की कीमतों में वृद्धि आई, जिसके कारण इस वर्ष में गेहूं(58% से अधिक), सोयाबीन(32% से अधिक), और मक्के(11% से अधिक) के दाम बहुत बढ़ गए।[11][12] हाल ही में पूरी दुनिया के बहुत से देशों में खाद्य को लेकर हंगामा हुआ है। [13][14][15] वर्तमान में गेहूं की Ug99 प्रजाति के द्वारा पूरे अफ्रीका और एशिया में इसके तने के रस्ट की महामारी फ़ैल रही है, जो मुख्य चिंता का विषय है। [16][17][18] दुनिया की लगभग 40% कृषि भूमि गंभीर रूप से बंजर हो गयी है। [19] अफ्रीका में, यदि वर्तमान में हो रहा मिटटी का अपरदन जारी रहता है, तो यह देश 2025 में केवल अपनी 25% जनसंख्या को ही भोजन उपलब्ध करा पायेगा। यह अनुमान अफ्रीका में प्राकृतिक संसाधनों के लिए UNU के घाना आधारित संस्थान ने लगाया है। [20]

[संपादित करें]इतिहास

चित्र:ClaySumerianSickle।jpg
सेंकी हुई मिटटी से बनी एक सुमेरियन कटाई की दरांती (सी ऐ। 3000 ई।पू।)।

लगभग 10,000 साल पहले इसके विकास के बाद से, भौगोलिक व्याप्थी और पैदावार में कृषि का बहुत अधिक विस्तार हुआ है।

इस विस्तार के दौरान, नई प्रौद्योगिकी और नई फसलें शामिल हुईं। कृषि पद्धतियों जैसे की सिंचाईफसल पुनरावर्तनउर्वरकों, और कीटनाशकों का विकास काफी पहले ही हो चुका था लेकिन इनमें उल्लेखनीय विकास पिछली सदी में ही हुआ। कृषि के इतिहास नें मानव इतिहास में एक प्रमुख भूमिका निभाई है, क्योंकि कृषि का विकास विश्व के सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण कारक रहा है। संपत्ति अर्जन औरसैन्य विकास, जिन्हें शिकारी समाजों में संभवतया महत्त्व नहीं दिया जाता है, कृषि प्रमुख समाजों में आम बात थी।इसलिए कलाएं जैसे भव्य साहित्यिक महाकाव्य, और स्मारकों का वास्तुशिल्प और संहिताबद्ध कानूनी व्यवस्था भी इसमें शामिल थीं।

जब किसान अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक भोजन के उत्पादन में सक्षम बन गए, तब उनके समाज में कुछ लोगों को अन्य जरुरी कामों में ध्यान देने के लिए खाली छोड़ दिया गया।इतिहासकारों और मानव-शास्त्रियों का शुरू से ये मत रहा है कि कृषि के विकास ने ही सभ्यता के विकास को संभव किया है।

[संपादित करें]प्राचीन उत्पत्तियां

मध्य पूर्व, मिस्र, और भारत के उपजाऊ स्थान पौधों की प्रारंभिक नियोजित बुवाई और कटाई के स्थान थे, जिन्हें प्रारंभ में जंगलों में इकठ्ठा किया गया था।

कृषि का स्वतंत्र रूप से विकास उत्तरी और दक्षिणी चीन, अफ्रीका के साहेलन्यू गिनी और अमेरिका के कई क्षेत्रों में हुआ।कृषि की आठ तथाकथित नवपाषाण संस्थापक फसलें प्रकट हुईं। प्रथम एम्मर गेहूं और एन्कोर्न गेहूं, उसके बाद बिना छिलके वाली जौमटरमसूरबिटर वेचचिक पी, और सन

7000 ई।पू। तक लघु पैमाने की कृषि मिस्र पहुँच गयी। कम से कम 7000 ई।पु। से भारतीय उपमहाद्वीप में गेहूँ और जौ की खेती की जाने लगी, ये सत्यापन बलूचिस्तान केमेहरगढ़ में किए गए पुरातात्विक उत्खनन के आधार पर किया गया है।6000 ईसा पूर्व तक नील नदी के तट पर मध्य पैमाने की कृषि की जाने लगी। लगभग इसी समय, सुदूर पूर्व में कृषि का स्वतंत्र रूप से विकास हो रहा था, इस समय गेहूं के बजाय चावल प्राथमिक फसल बन गयी। चीनी और इन्डोनेशियाई किसान टारो, और फलियांमूंगसोय, और अजुकी उगाने लगे।

कार्बोहाइड्रेट के इन नए स्त्रोतों के साथ इन क्षेत्रों में नदियों, झीलों और समुद्रों के किनारों पर योजनाबद्ध तरीके से मछली पकड़ने का काम शुरू हुआ, जो आवश्यक प्रोटीन की काफी मात्रा उपलब्ध कराता था। सामूहिक रूप से, खेती और मछली पकड़ने की ये नयी विधियां मानव के लिए वरदान साबित हुईं, इसके सामने पहले के सभी विस्तार छोटे पड़ गए, और यह आज भी कायम है।

5000 ई।पू। तक सुमेरवासी केन्द्रीय कृषि तकनीकों को विकसित कर चुके थे, इन तकनीकों में शामिल हैं बड़े पैमाने पर भूमि की गहन जुताई, एक फसल उगाना, संगठितसिंचाई, और एक विशिष्ट श्रमिक बल का उपयोग करना आदि। एक विशेष तकनीक थी जल मार्ग जो अब शत-अल-अरब के नाम से जानी जाती है, यह फारस की खाड़ी के डेल्टा से टाइग्रिस और युफ्रेट्स के समागम तक अपनायी गयी।

जंगली औरोक तथा मौफ़्लोन क्रमशः पालतू पशु तथा भेड़ में बदलने लगे, इनका उपयोग बड़े पैमाने पर भोजन / रेशे के लिए और बोझा धोने के लिए किया जाने लगा।

गडरिये या चरवाहे, आसीन और अर्द्ध घुमंतू समाज के लिए एक अनिवार्य प्रदाता के रूप में किसानों के साथ मिल गए।

मक्कामनिओक, और अरारोट सबसे पहले 5200 ई।पू। अमेरिका में उगाये गए। [21] आलूटमाटरमिर्चस्क्वैशफलियों की कई किस्में, तम्बाकू, और कई अन्य पौधों को भी इस नई दुनिया में विकसित किया गया। इंडियन दक्षिण अमेरिका के अधिकांश भाग में खड़ी पहाडियों की ढाल पर व्यापक रूप में यह कृषि की गयी।

यूनान और रोम वासियों ने, सुमेर वासियों द्वारा शुरू की गई तकनीकों को न सिर्फ़ आगे बढाया बल्कि उनमें कुछ मौलिक परिवर्तन भी किए।दक्षिणी यूनानी अत्यन्त अनुपजाऊ भूमि होने के बावजूद वर्षों तक एक प्रबल समाज के रूप में बने रहने के लिए संघर्ष करते रहे। रोम निवासियों ने व्यापार के लिए फसलें उपजाने पर जोर दिया।

चित्र:Pieter Bruegel the Elder- The Corn Harvest (August)।JPG
दी हारवेसटर्स पीटर ब्रुएगेल। 1565।

[संपादित करें]मध्य युग

मध्य युग के दौरान, उत्तरी अफ्रीका और पूर्व के निकट के मुस्लिम कृषकों नें कृषि की तकनीकों का विकास किया जिसमेंहाइड्रोलिक और जल स्थैतिक सिद्धांतों पर आधारित सिंचाई प्रणाली, नोरिअस जैसी मशीनों का प्रयोग, और जल स्तर को बढ़ाने वाली मशीनों, बांधों और जलाशयों आदि का उपयोग किया गया।

उन्होनें स्थान परक कृषि पुस्तिकाएं लिखीं, गन्ना, चावल, सिट्रस फल, खुबानी, कपास, अर्टिचोक्स, ओबरजिनेस, और केसर सहित फसलों को व्यापक रूप से अपनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

मुस्लमान ही नींबू, संतरा, कपास, बादाम, अंजीर, और उप उष्णकटिबंधीय फसलों जैसे की केला आदि स्पेन में लाये। मध्य युग के दौरान फसल के पुनरावर्तन के लिए तीन क्षेत्र प्रणाली का आविष्कार, और चीनियों द्वारा आविष्कृत मोल्डबोर्ड के आयात ने कृषि की प्रभाविता में काफी सुधार किया।

[संपादित करें]आधुनिक युग

चित्र:Agriculture (Plowing) CNE-v1-p58-H।jpg
यह फोटो 1921 के एक विश्वकोश से ली गयी है, जिसमें एक अल्फा-अल्फा क्षेत्र में एक ट्रेक्टर को जुताई करते हुए दिखाया गया है।

1492 के बाद, पूर्व स्थानीय फसलों और पशुधन प्रजातियों का विश्व स्तरीय आदान-प्रदान शुरू हुआ। इस आदान प्रदान में शामिल प्रमुख फसलें थीं, टमाटरमक्काआलूमनिओककोको, और तम्बाकू जो नयी दुनिया से पुरानी दुनिया की और जा रही थीं। और गेहूंमसालेकॉफी और गन्ने की कई किस्में जो पुरानी दुनिया से नयी दुनिया की और जा रही थीं।

प्रमुख जानवर जिनका निर्यात पुरानी दुनिया से नई दुनिया में हुआ वे घोडे और कुत्ते थे( कुत्ते कोलंबिया से पहले के काल में ही अमेरिका में उपस्थित थे, लेकिन इनकी संख्या और प्रजाति खेती के लिए उपयुक्त नहीं थी)। हालांकि खाद्य जानवरों घोडे ( जिनमें गधे और खच्चर शामिल हैं) और कुत्ते ने पश्चिमी गोलार्ध के खेतों में जल्दी ही आवश्यक उत्पादन भूमिका निभायी।

आलू उत्तरी यूरोप में एक महत्वपूर्ण आहार फसल बन गई। [22] 16 वीं शताब्दी में पुर्तगालियों के द्वारा लाये गए,[23] मक्का और मनिओक ने पारंपरिक अफ्रीकी फसलों को प्रतिस्थापित कर दिया और वे महाद्वीप की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसलें बन गयीं। [24]

1800 की शुरूआत में, कृषि तकनीकों, बीज भंडार, और उपजाए गए पौधों को चुना गया और उन्हें एक अद्वितीय नाम दिया गया क्योंकि इसकी सजावट और उपयोगिता की विशेषताएं इतनी बेहतर हो गयी थीं कि प्रति ईकाई भूमि का उत्पादन मध्य युग की तुलना में कई गुना हो गया था।

19 वीं शताब्दी के अंत में और 20 वीं शताब्दी में मशीनीकरण में तीव्र वृद्धि के साथ, विशेष रूप से ट्रेक्टर के विकास के साथ, खेती के कार्य अधिक गति से किये जाने लगे और ये कार्य इतने बड़े पैमाने पर होने लगे जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।   
इन आधुनिक विकासों के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका, अर्जेंटीना, इज़राइल, जर्मनी, और कुछ अन्य राष्ट्रों में विशिष्ट आधुनिक खेतों की प्रभाविता में इतनी वृद्धि हुई कि प्रति ईकाई भूमि पर उत्पादन की मात्रा और गुणवत्ता की सीमा ने उत्पादन की व्यवहारिक सीमा को छू लिया। 

अमोनियम नाइट्रेट के निर्माण की हेबर-बॉश विधि को एक बड़ी सफलता माना जाता है, इसने फसल की पैदावार बढ़ाने में उत्पन्न होने वाली पुरानी बाधाओं को दूर करने में मदद की।

पिछली सदी में कृषि की मुख्य विशेषताएं रहीं हैं उत्पादकता में बढोत्तरी, श्रम के बजाय कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग, चयनात्मक प्रजननजल प्रदूषण औरकृषि सब्सिडी

हाल ही के वर्षों में परंपरागत कृषि के बाह्य पर्यावरणीय पर प्रभाव के प्रति लोगों में रोष बढ़ा है, जिसके परिणामस्वरूप कार्बनिक आंदोलन की शुरुआत हुई।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम समय के बाद से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में नई प्रजातियों और नए कृषि पद्धतियों खोजने के लिए कृषि खोज अभियान शुरू किया गया है।

इस अभियान के दो प्रारम्भिक उदाहरण हैं 1916-1918 से फल और मेवे इकट्ठे करने के लिए फ्रेंक एन मेयर की चीन और जापान की यात्रा [25]

और 1929-1931 से डोरसेट-मोर्स ओरिएंटल कृषि अन्वेषण अभियान जो सोयाबीन जर्मप्लास्म को इकठ्ठा करने के लिए चीन, जापान और कोरिया में चलाया गया, ताकि संयुक्त राज्य में सोयाबीन के उत्पादन में वृद्धि हो सके। [26]

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार 2005 में, दुनिया में चीन का कृषि उत्पादन सबसे अधिक रहा, यह यूरोपीय संघ, भारत और अमरीका के बाद पूरी दुनिया का लगभग छठा हिस्सा था।[तथ्य वांछित][33] अर्थशास्त्री कृषि की कुल कारक उत्पादकता का मापन करते हैं, और इस मापन के अनुसार संयुक्त राज्य में कृषि 1948 की तुलना में लगभग 2।6 गुना अधिक उत्पादक है। [27]

छह देश- अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना और थाईलैंड- अनाज के निर्यात की 90% आपूर्ति करते हैं। [28] जल के घाटे से युक्त देश, जो अल्जीरिया, ईरान, मिस्र और मैक्सिको सहित असंख्य मध्यम आकार के देशों में पहले से ही भारी मात्रा में अनाज का आयात कर रहे हैं,[29] जल्द ही चीन और भारत जैसे बड़े देशों में ऐसा कर सकते हैं। [30] ==

[संपादित करें]फसल उत्पादन प्रणाली

Workers tending crop fields off of the highway from Dharwad to Hampi.

फसल प्रणाली उपलब्ध संसाधनों और बाधाओं के आधार पर भिन्न खेतों में अलग अलग हो सकती है; खेत की भौगोलिक स्थिति और जलवायु; सरकारी नीति; आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक दबाव; और किसान का दर्शन और संस्कृति। [31][32] स्थानान्तरण कृषि (स्लेश एंड बर्न) एक ऎसी प्रणाली है जिसमें वनों को जलाया जाता है, ताकि वर्ष भर उत्पादन के लिए पोषक मुक्त हो जाएं और फिर कई वर्षों के लिए वार्षिक फसलें लगायी जाती हैं। hइसके बाद इस भूमि को फिर से जंगल उगने के लिए छोड़ दिया जाता है, और किसान किसी नयी भूमि पर चला जाता है, कई सालों (10-20) के बाद वापस लौटता है।

तब भूखंड परती वन regrow के लिए, और एक नया साजिश करने के लिए किसान चालें, लौट रह गया है कई साल के बाद। इस परती अवधि को छोटा कर दिया जाता है यदि जनसंख्या घनत्व बढ़ता है, इसके लिए पोषक तत्वों (उर्वरकया खाद) के निवेश तथा कुछ मैनुअल कीट नियंत्रण की आवश्यकता होती है।

वार्षिक खेती तीव्रता की एक अगली प्रावस्था है जिसमें कोई परती अवधि नहीं होती है। इसमें और भी अधिक पोषक तत्वों और कीट नियंत्रण की आवश्यकता होती है। अधिक औद्योगिकीकरण मोनोकल्चर के उपयोग को जन्म देता है, जिसमें एक ही फसल को एक बड़े क्षेत्र पर उगाया जाता है।


कम जैव विविधता के कारण, पोषक तत्वों का एक समान उपयोग किया जाता है और कीटनाशक काम में लिए जाते हैं, यह कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग की आवश्यकता को बढ़ाता है। [32] बहु फसलीकरण, जिसमें एक ही साल में कई फसलें एक के बाद एक करके उगायी जाती हैं, और अंतर फसलीकरण जिसमें कई फसलें एक ही समय पर उगायी जाती है, वार्षिक फसल प्रणाली के अन्य प्रकार हैं जो पोलिकल्चर या बहुसंवर्धन के नाम से जाने जाते हैं। [33]

उष्णकटिबंधीय वातावरण में, इन सभी फसल प्रणालियों को काम में लिया जाता है। उपोष्णकटिबंधीय और शुष्क वातावरण में, कृषि का समय और सीमा वर्षा के द्वारा सीमित हो सकते हैं। या तो यहाँ एक वर्ष में एक से अधिक फसल नहीं लगायी जा सकती या इन्हें सिंचाई की जरुरत होती है। hइन सभी वातावरणों में वार्षिक फसलें (कॉफीचॉकलेट) उगायी जाती हैं और एग्रोफोरेस्ट्री जैसी प्रणालियों को अपनाया जाता है। शीतोष्ण वातावरण में, जहां पारितंत्र मुख्यतः चरागाह या प्रेयरी थे, उच्च उत्पादक वार्षिक फसल, प्रमुख कृषि प्रणाली है। [33]


पिछली सदी में, कृषि में सघनतासांद्रण और विशिष्टीकरण हुआ, जो कृषि रसायनों की नयी तकनीकों (उर्वरक और कीटनाशक), मशीनीकरण, और पादप प्रजनन (संकरऔर GMO) पर निर्भर था।

पिछले कुछ दशकों में, कृषि में स्थिरता की दिशा में विकास हुआ है, एक कृषि प्रणाली के भीतर पर्यावरण, और संसाधनों का संरक्षण व सामाजिक-आर्थिक न्याय के एकीकृत विचारों की दिशा में कदम बढाया गया है। [34][35] इसने कार्बनिक कृषिशहरी कृषिसमुदाय समर्थित कृषि, पारिस्थितिक या जैविक कृषि, एकीकृत कृषि और समग्र प्रबंधनसहित पारंपरिक कृषि दृष्टिकोण के लिए कई प्रतिक्रियाओं का विकास किया है।

[संपादित करें]फसल के आँकड़े

फसलों की महत्वपूर्ण श्रेणियों में शामिल हैं, अनाज और कूट अनाज, दालें (लेग्यूम या फलियां), फोरेज, और फल और सब्जियां। विश्व भर में विशिष्ट उत्पादक क्षेत्रों में विशिष्ट फसलें ही उगाई जाती हैं।मीट्रिक टन के मिलियन में, FAO के अनुमानों पर आधारित।

शीर्ष कृषि उत्पाद, फसल के प्रकार के द्वारा
(मिलियन मीट्रिक टन) 2004 आंकडे
अनाज 2,263
सब्जियां और तरबूज 866
जड़ें और कंद 715
दूध 619
फल 503
मांस 259
तेल वाली फसलें 133
मछली (2001 का अनुमान) 130
अंडे 63
दालें 60
सब्जियों का रेशा 30
स्रोत:
खाद्य और कृषि संगठन (FAO) [36]
शीर्ष कृषि उत्पाद, व्यक्तिगत फसलों के द्वारा
(मिलियन मीट्रिक टन) 2004 आंकडे
गन्ना 1,324
मक्का 721
गेहूँ 627
चावल 605
आलू 328
चुक़ंदर 249
सोयाबीन 204
चीड के तेल का फल 162
जौ 154
टमाटर 120
स्रोत:
खाद्य और कृषि संगठन (FAO) [36]


[संपादित करें]पशुधन उत्पादन प्रणाली

चित्र:KerbauJawa।jpg
इंडोनेशिया में जल भैंसों द्वारा धान के खेतों की जुताई।

जंतु जैसे घोडेखच्चरबैलऊंटलामाअल्पकास, और कुत्तों का उपयोग अक्सर भूमि की जुताई में, फसल की कटाई में, अन्य पशुओं को इकठ्ठा करने में और खरीददारों तक कृषि उत्पाद का परिवहन करने में किया जाता है।

पशुपालन में न केवल मांस और जंतु उत्पादों (जैसे दूधअंडा, और ऊन) की निरंतर प्राप्ति के लिए पशुओं का प्रजनन करवाया जाता है बल्कि काम और साथ के लिए भी उनकी प्रजातियों में प्रजनन करवाया जाता है और उनकी देखभाल की जाती है।

पशुधन उत्पादन प्रणालियों को भोजन के स्रोत के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है, जैसे चारागाह आधारित, मिश्रित और भूमिहीन। [37] चारागाह आधारित पशुधन उत्पादन, जुगाली करने वाले जानवरों के भोजन के लिए पादप पदार्थों जैसे झाड़ युक्त भूमिरेंजलैंड, और चरागाहों पर निर्भर करता है।

बाहरी पोषक तत्वों के निवेश का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, हालांकि खाद सीधे एक मुख्य पोषक स्रोत के रूप में चरागाह पर पहुँच जाती है।

यह प्रणाली विशेषकर उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है, जहां 30-40 मिलियन पेस्टोरालिस्ट का प्रतिनिधित्व करने वाले, जलवायु या मिट्टी के कारण फसल उत्पादन संभव नहीं है।[33] मिश्रित उत्पादन प्रणाली में जुगाली करने वाले जानवरों और मोनोगेस्टिक (एक आमाशय वाले; मुख्यतया मुर्गियां और सूअर) पशुधन के भोजन के रूप में चरागाहों, चाराफसलों और अनाज खाद्य फसलों का प्रयोग किया जाता है।

आम तौर पर मिश्रित प्रणाली में खाद को, फसल के लिए एक उर्वरक के रूप में पुनः चक्रीकृत कर दिया जाता है।

अनुमानतः पूर्ण कृषि भूमि का 68% भाग स्थायी चारागाह हैं जिनका उपयोग पशुधन के उत्पादन में किया जाता है। [38] भूमिहीन प्रणालियां खेत के बाहर से भोजन प्राप्त करती हैं, ये OECD सदस्य देशों में अधिक प्रचलित रूप से पाए जाने वाले पशुधन उत्पादन और फसलों को असंबंधित करती हैं।

अमेरिका में, विकसित अनाज का 70% भाग, खाद्य स्थानों पर पशुओं को खिला दिया जाता है। [33] फसल उत्पादन और खाद के उपयोग के लिए, कृत्रिम उर्वरक पर बहुत अधिक निर्भरता एक चुनौती बन गयी है और साथ ही प्रदूषण का एक स्रोत भी।

[संपादित करें]उत्पादन पद्धतियां

चित्र:Mt Uluguru and Sisal plantations।jpg
खेत में रोड लीडिंग उत्पादन पद्धतियों के लिए खेत में मशीनरी के उपयोग की अनुमति देती है

जुताई वह प्रक्रिया है जिसमें पौधे लगाने या कीट नियंत्रण के लिए भूमि को जोत कर तैयार किया जाता है। जुताई की प्रथा में बहुत भिन्नता मिलती है, यह परंपरागत तरीकों से भी की जा सकती है और कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां जुताई नहीं की जाती है। यह मिटटी को गर्म करके, उसमें उर्वरक डाल कर, खर पतवार का नियंत्रण करके उसकी उत्पादकता में सुधार ला सकती है, लेकिन इससे मृदा अपरदन की संभावना भी बढ़ जाता है, कार्बनिक पदार्थ अपघटित होकर CO2 मुक्त करने लगते हैं, और मृदा जीवों की उपस्थिति और विविधता में भी कमी आती है। [39][40]

कीट नियंत्रण में शामिल हैं खर पतवारकीटों / मकडियों और रोगों का प्रबंधन। रासायनिक (कीटनाशक), जैविक (जैव नियंत्रण), यांत्रिक (जुताई) और पारंपरिक प्रथाओं का उपयोग किया जाता है। पारंपरिक प्रथाओं में शामिल हैं, फसल पुनरावर्तनकुलिंग (तोड़ना या चुनना)फसलों को ढकनाअंतर फसलीकरणकम्पोस्ट बनाना, विरोध और प्रतिरोध

इन सभी विधियों के उपयोग के लिए, कीटों की संख्या को कम करने के लिए, समन्वित कीट प्रबंधन प्रयास, जो आर्थिक क्षति का कारण होता है, और इसके लिए एक अंतिम उपाय के रूप में कीटनाशकों की सलाह दी जाती है। [41]

पोषक तत्व प्रबंधन में शामिल है, फसल और पशुधन उत्पादन के लिए पोषकों के निवेश के स्रोत और पशुधन के द्वारा उत्पन्न खाद के उपयोग की विधि। निविष्ट पोषक तत्व अकार्बनिक उर्वरकखादहरी खादकम्पोस्ट, और खनन से निकले लवण हो सकते हैं। [42] फसल पोषकों के उपयोग को पारंपरिक तकनीकों जैसे फसल पुनरावर्तन औरपरती अवधि का उपयोग करते हुए प्रबंधित किया जा सकता है। [43][44] खाद नियंत्रित करने के लिए या तो पशुधन को वहां रखा जा सकता है जहां खाद्य फसल उगायी गयी है, जैसा कि प्रबंधित गहन पुनरावर्ती चराई में होता है, या फसल भूमि अथवा चरागाह पर खाद के सूखे या तरल फोर्मुलेशन का छिडकाव किया जा सकता है।

जल प्रबंधन वहां किया जाता है जहां पर वर्षा या तो अपर्याप्त है या अनिश्चित, जो विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में कुछ अंश तक होता है। [33] कुछ किसान वर्षा की अनुपुर्ती के लिए सिंचाई का उपयोग करते हैं।

अन्य क्षेत्रों जैसे संयुक्त राज्य के बड़े मैदानों में, किसान आने वाले वर्ष में एक फसल को उगाने के लिए मिटटी की नमी को संरक्षित रखने के लिए एक परती वर्ष का उपयोग करते हैं। [45] कृषि पूरी दुनिया में 70% ताजे जल का उपयोग करती है। [46]

[संपादित करें]प्रसंस्करण, वितरण और विपणन

संयुक्त राज्य अमेरिका में, खाद्य प्रसंस्करण, वितरण और विपणन की लागत बढ़ गयी है जबकि कृषि की लागत में गिरावट आयी है। 1960 से 1980 तक खेती की हिस्सेदारी 40% के आसपास थी, लेकिन 1990 तक यह 30% तक कम हो गयी, और 1998 तक 22।2% तक पहुँच गयी। इस क्षेत्र में बाजार एकाग्रता में भी वृद्धि आयी है, 1995 में शीर्ष के 20 खाद्य निर्माताओं के खाते में खाद्य प्रसंस्करण मूल्य का आधा भाग आता था जो 1954 के उत्पादन से दोगुने से भी अधिक था। 1992 के 32% की तुलना में, 2000 में शीर्ष के 6 सुपरमार्केट बिक्री का 50% भाग बनाते थे

हालांकि बाजार एकाग्रता में वृद्धि का कुल प्रभाव है संभवतः प्रभाविता का बढ़ना। यह परिवर्तन उत्पादकों (किसानों) और उपभोक्ताओं से आर्थिक अधिशेष को पुनर्वितरित करता है, और ग्रामीण समुदायों के लिए इसका नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। [47]

[संपादित करें]फसल परिवर्तन और जैव प्रौद्योगिकी

चित्र:Ueberladewagen।jpg
ट्रैक्टर और चेज़र बिन

फसल परिवर्तन की प्रथा, मानव के द्वारा हजारों सालों से, सभ्यता की शुरुआत से ही अपनायी जा रही है,

प्रजनन की प्रक्रियाओं के द्वारा फसल में परिवर्तन, एक पौधे की आनुवंशिक सरंचना को बदल देता है, जिससे मानव के लिए अधिक लाभकारी लक्षणों से युक्त फसल विकसित होती है, उदाहरण के लिए बड़े फल या बीज, सूखे के लिए सहिष्णुता, और कीटों के लिए प्रतिरोध।

जीन विज्ञानी ग्रिगोर मेंडल के कार्य के बाद पादप प्रजनन में महत्वपूर्ण उन्नति हुई। प्रभावी और अप्रभावी एलीलों पर उनके द्वारा किये गए कार्य ने, आनुवंशिकी के बारे में पादप प्रजनकों को एक बेहतर समझ दी। और इससे पादप प्रजनकों के द्वारा प्रयुक्त तकनीकों को महान अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। फसल प्रजनन में स्व-परागण, पर-परागण, और वांछित गुणों से युक्त पौधों का चयन, जैसी तकनीकें शामिल हैं, और वे आण्विक तकनीकें भी इसी में शामिल हैं जो जीव को आनुवंशिक रूप से संशोधित करती हैं। [48] सदियों से पौधों के घरेलू इस्तेमाल के कारण उनकी उपज में वृद्धि हुई है, इससे रोग प्रतिरोध और सूखे के प्रति सहनशीलता में सुधार हुआ है, साथ ही इसने फसल की कटाई को आसान बनाया है व फसली पौधों के स्वाद और पोषक तत्वों में वृद्धि हुई है।

सावधानी पूर्वक चयन और प्रजनन ने फसली पौधों की विशेषताओं पर भारी प्रभाव डाला है। 1920 और 1930 के दशक में, पौधों के चयन और प्रजनन ने, न्यूजीलैंड में चरागाहों (घास और तिपतिया घास) में काफी सुधार किया।

1950 के दशक के दौरान एक पराबैंगनी व्यापक X-रे के द्वारा प्रेरित उत्परिवर्तजन प्रभाव (आदिम आनुवंशिक अभियांत्रिकी) ने गेहूं, मकई (मक्का), और जौ जैसे अनाजों की आधुनिक किस्मों का उत्पादन किया। [49][50]

हरित क्रांति ने "उच्च-उत्पादकता की किस्मों" के निर्माण के द्वारा उत्पादन को कई गुना बढ़ाने के लिए पारंपरिक संकरण के उपयोग को लोकप्रिय बना दिया।

उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में मकई (मक्का) की औसत पैदावार 1900 में 2।5 टन प्रति हेक्टेयर (t/ha) (40 बुशेल्स प्रति एकड़) से बढ़कर 2001 में 9।4 टन प्रति हेक्टेयर (t/ha) (150 बुशेल्स प्रति एकड़) हो गयी।

इसी तरह दुनिया की औसत गेंहू की पैदावार 1900 में 1 टन प्रति हेक्टेयर से बढ़ कर 1990 में 2।5 टन प्रति हेक्टेयर हो गई है।सिंचाई के साथ दक्षिण अमेरिका की औसत गेहूं की पैदावार लगभग 2 टन प्रति हेक्टेयर है, अफ्रीका की 1 टन प्रति हेक्टेयर से कम है, मिस्र और अरब की 3।5 से 4 टन प्रति हेक्टेयर तक है।इसके विपरीत, फ़्रांस जैसे देशों में गेंहू की पैदावार 8 टन प्रति हेक्टेयर से अधिक है।पैदावार में ये भिन्नताएं मुख्य रूप से जलवायु, आनुवांशिकी, और गहन कृषि तकनीकों (उर्वरकों का उपयोग, रासायनिक कीट नियंत्रण, अवांछनीय पौधों को रोकने के लिए वृद्धि नियंत्रण) के स्तर में भिन्नताओं के कारण होती हैं। [51][52][53]

[संपादित करें]आनुवंशिक अभियांत्रिकी

आनुवांशिक रूप से परिष्कृत जीव (GMO) वे जीव हैं जिनके आनुवंशिक पदार्थ को आनुवंशिक अभियांत्रिकी तकनीक के द्वारा बदल दिया गया है, इसे सामान्यतया पुनः संयोजक DNA प्रौद्योगिकी के रूप में जाना जाता है।

आनुंशिक अभियांत्रिकी ने प्रजनकों को अधिक जीन उपलब्ध कराये हैं जिनका उपयोग करके वे नयी फसलों के लिए इच्छित जीन सरंचना का निर्माण कर सकते हैं।

1960 के प्रारंभ में यांत्रिक टमाटर -हार्वेस्टर के विकास के बाद, कृषि विज्ञानियों ने टमाटर की यांत्रिक सम्भाल हेतु इसे अधिक संशोधित बनाने के लिए आनुवंशिक रूप से परिष्कृत किया।

अभी हाल ही में, आनुवंशिक अभियांत्रिकी का उपयोग दुनिया के विभिन्न भागों में किया जा रहा है ताकि बेहतर विशेषताओं से युक्त फसलों का निर्माण किया जा सके।

[संपादित करें]शाक-सहिष्णु GMO फसलें

राउंडअप रेडी बीज में एक शाक प्रतिरोधी जीन होता है, जो पौधे में ग्लाइफोसेट के प्रति सहनशीलता के लिए इसके जीनोम में डाल दिया गया है। राउंडअप एक व्यापारिक नाम है जो ग्लाइफोसेट आधारित उत्पाद को दिया गया है, जो कृत्रिम है, और खर पतवार को नष्ट करने के लिए काम में लिया जाने वाला अचयनित शाक विनाशी है। राउंडअप रेडी बीज किसान को ऎसी फसल देता है जिस पर खर पतवार नष्ट करने के लिए ग्लाइफोसेट का छिडकाव किया जा सकता है, और प्रतिरोधी फसल को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है। शाक विनाशी-सहिष्णु फसलों को दुनिया भर के किसानों के द्वारा उपयोग किया जाता है। आज, अमेरिका में सोयाबीन का 92% भाग आनुवंशिक रूप से संशोधित शाक विनाशी-सहिष्णु पौधों के साथ उगाया जाता है। [54] शाक विनाशी-सहिष्णु फसलों के बढ़ते हुए उपयोग के साथ, ग्लाइफोसेट आधारित शाक विनाशी छिडकाव के उपयोग में वृद्धि हुई है। कुछ क्षेत्रों में ग्लाइफोसेट विरोधी खरपतवार विकसित हो गए हैं, जिसके कारण किसानों ने किसी अन्य शाक विनाशी का प्रयोग करना शुरू कर दिया है। [55][56]कुछ अध्ययन ग्लाइफोसेट के अधिक उपयोग को कुछ फसलों में लौह तत्व की कमी के साथ सम्बंधित करते हैं, जो आर्थिक क्षमता और स्वास्थ्य निहितार्थ, फसल उत्पादन और पोषण गुणवत्ता दोनों की दृष्टि से एक विचारणीय विषय है। [79]

[संपादित करें]कीट-प्रतिरोधी GMO फसलें

उत्पादकों के द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली अन्य GMO फसलों में शामिल हैं कीट प्रतिरोधी फसलें, जिनमें मृदा जीवाणु बेसिलस थुरिन्गीन्सिस (Bt) से एक जीन होता है जो कीटों के लिए एक विशष्ट विष उत्पन्न करता है; कीट प्रतिरोधी फसलें पौधों को कीटों से होने वाली क्षति से बचाती हैं, इसी प्रकार की एक फसल है स्टारलिंक

एक अन्य है बीटी कपास, जो अमेरिकी कपास का 63% भाग बनाती है। [57]

कुछ लोगों का मानना है कि समान या बेहतर कीट-प्रतिरोधी लक्षणों को पारंपरिक प्रजनन पद्धतियों के द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और भिन्न कीटों के लिए प्रतिरोधी क्षमता को जंगली प्रजातियों के साथ संकरण या पर परागण के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। कुछ मामलों में, जंगली प्रजातियां प्रतिरोधी लक्षण का प्राथमिक स्रोत होती हैं; कुछ टमाटर की फसलें जिन्होंने कम से कम उन्नीस रोगों के लिए प्रतिरोधी क्षमता प्राप्त कर ली है, ऐसा टमाटर की जंगली प्रजातियों के साथ संकरण के माध्यम से किया गया है।[58]

[संपादित करें]लागत और GMOs के लाभ

आनुवंशिक इंजिनियर किसी दिन ऐसे ट्रांसजेनिक पौधों को विकसित कर सकते हैं, जो सिंचाई, जल निकासीसंरक्षण, स्वच्छता इंजीनियरिंग और उत्पादन को बढ़ाने या बनाये रखने में सक्षम होंगे और पारंपरिक फसल की तुलना में उनकी जीवाश्म ईंधन व्युत्पन्न निवेश की आवश्यकता कम होगी। [22] ऐसे विकास विशेष रूप से उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण होंगे जो सामान्यतया शुष्क होते हैं और निरंतर सिंचाई पर निर्भर रहते हैं, और बड़े पैमाने के खेतों से युक्त होते हैं।

हालांकि, पौधों की आनुवंशिक अभियांत्रिकी विवादास्पद साबित हुई है। खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण प्रभावों के बारे में GMO प्रथाओं से सम्बंधित बहुत से मुद्दे उत्पन्न हुए हैं। उदाहरण के लिए, कुछ पर्यावरण विज्ञानी और अर्थशास्त्री GMO प्रथाओं जैसे टर्मिनेटर बीज के सम्बन्ध में GMOs पर प्रश्न उठाते हैं। [59][60] जो एक आनुवंशिक संशोधन है जो बंध्य बीज निर्मित करता है।

वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टर्मिनेटर बीज का बहुत अधिक विरोध किया जा रहा है, और इस पर विश्व स्तरीय रोक लगाये जाने के लिए निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं। [61]एक और विवादास्पद मुद्दा है उन कम्पनियों के लिए पेटेंट संरक्षण जो आनुवंशिक अभियांत्रिकी का उपयोग करते हुए नए प्रकार के बीज विकसित करती हैं। चूंकि कंपनियों के पास अपने बीज का बौद्धिक स्वामित्व है, उनके पास अपने पेटेंट उत्पाद की शर्तें और नियम लागू करने का अधिकार है। वर्तमान में, दस बीज कम्पनियां, पूरी दुनिया की बीज की बिक्री के दो तिहाई से अधिक भाग का नियंत्रण करती हैं। [62] वंदना शिव का तर्क है कि ये कम्पनियां लाभ के लिए जीव का शोषण करने और जीवन के पेटेंट के द्वारा जैव पाइरेसी के दोषी हैं। [63] पेटेंट बीज का उपयोग करने वाले किसान अगली फसल के लिए बीज को बचा नहीं सकते हैं, जिससे उन्हें हर साल नए बीज खरीदने पड़ते हैं। चूँकि विकसित और विकास शील दोनों प्रकार के देशों में बीज को बचाना कई किसानों के लिए एक पारंपरिक प्रथा है, GMO बीज किसानों को बीज बचाने की इस प्रथा को परिवर्तित करने और हर साल नए बीज खरीदने के लिए बाध्य करते हैं। [64][65]

स्थानीय अनुकूलित बीज भी वर्तमान संकरित बीजों तथा GMOs की तरह ही सक्षम होते हैं। स्थानीय रूप से अनुकूलित बीज, जो भूमि प्रजाति या फसल पारिस्थितिक-प्रकार भी कहलाते हैं, वे महत्वपूर्ण हैं क्योंकि समय के साथ वे जुताई के क्षेत्र के विशेष सूक्ष्म वातावरण, मृदा, अन्य पर्यावरणी परिस्थितियों, क्षेत्र के डिजाइन, और जातीय वरीयता के लिए अनुकूलित हो जाते हैं। [66] एक क्षेत्र में GMOs और संकरित व्यापारिक बीजों को लाना स्थानीय प्रजातियों के साथ इसके पर परागण का जोखिम भी पैदा करता है इसलिए, GMOs भूमि प्रजातियों तथा पारंपरिक एथनिक हेरिटेज के लिए एक ख़तरा हैं।

एक बार बीज में जब ट्रांसजेनिक सामग्री शामिल हो जाती है, यह उस बीज कम्पनी के को शर्तों के अधीन बना देता है, जिसके पास ट्रांसजेनिक सामग्री का पेटेंट है। [67]

मुद्दा यह भी है कि GMOs जंगली प्रजातियों के साथ पर-परागण कर लेते हैं, और मूल आबादी की आनुवंशिकता को स्थायी रूप से बदल देते हैं; ऐसे कई जंगली पौधों की पहचान की जा चुकी है जिनमें ट्रांसजेनिक जीन पाए गए हैं।

GMO जीन का सम्बंधित खर-पतवार प्रजाति में चला जाना भी एक चिंता का विषय है, ऐसा भी गैर ट्रांसजेनिक फसल के साथ पर परागण के द्वारा ही होता है।

चूंकि कई GMO फसलों को उनके बीज के लिए काटा जाता है, जैसे रेपसीड, परिवहन के दौरान और पुनरावर्ती खेतों में स्वयंसेवी पौधों के लिए बीज के स्पिलेज की समस्या होती है। [68]

[संपादित करें]खाद्य सुरक्षा और लेबलिंग

खाद्य रक्षा के मुद्दे भी संयोगवश खाद्य सुरक्षा और खाद्य लेबलिंग के मुद्दों से मेल खाते हैं।

वर्तमान में एक विश्व संधि, दी बायो सेफ्टी प्रोटोकोल, GMOs के व्यापार को नियंत्रित करती है। वर्तमान में EU के लिए सभी GMO खाद्य पदार्थों को लेबल करना जरुरी है, जबकि US में GMO खाद्य पदार्थों की पारदर्शक लेबलिंग जरुरी नहीं है।

इसलिए GMO खाद्य पदार्थों से सम्बंधित जोखिम और सुरक्षा के मुद्दों पर कई प्रश्न हैं, कुछ लोगों का मानना है की जनता को अपने लिए खाद्य पदार्थ चुनने का अधिकार होना चाहिए, उसे ज्ञान होना चाहिए कि वह क्या खा रही है, और इसके लिए सभी GMO उत्पादों को लेबल किया जाना जरुरी है।[69]

[संपादित करें]पर्यावरणीय प्रभाव

कृषि, कीटनाशकों, पोषकों के रिसाव, अतिरिक्त जल उपयोग, और अन्य मिश्रित समस्याओं के द्वारा समाज पर कई बाहरी खर्चे अध्यारोपित करती है

ब्रिटेन में 2000 में कृषि पर किये गए एक आकलन में पता चला कि 1996 के लिए कुल बाहरी लागत 2343 मिलियन ब्रिटिश पाउंड या 208 पाउंड प्रति हेक्टेयर थी। [70]संयुक्त राज्य में 2005 के एक विश्लेषण में निष्कर्ष निकाला गया कि फसल भूमि लगभग 5-16 बिलियन डॉलर ($30 से $96 प्रति हेक्टेयर) अध्यारोपित करती है, जबकि पशुधन उत्पादन 714 मिलियन डॉलर अध्यारोपित करता है। [71] दोनों अध्ययनों का निष्कर्ष यह है कि बाहरी लागत को कम करने के लिए अधिक कार्य किया जाना चाहिए, इस विश्लेषण में उनकी सब्सिडी को शामिल नहीं किया गया, लेकिन यह नोट किया गया कि सब्सिडी भी कृषि की लागत की दृष्टि से समाज पर प्रभाव डालती है।

दोनों ही पूरी तरह वित्तीय प्रभावों पर केंद्रित है। यह 2000 की समीक्षा में कीटनाशक के विषैले प्रभाव को भी शामिल किया गया लेकिन कीटनाशकों के अनुमानित दीर्घकालिक प्रभावों को शामिल नहीं किया गया, और 2004 की समीक्षा में कीटनाशकों के कुल प्रभाव के 1992 के अनुमान पर भरोसा किया गया।

[संपादित करें]पशुधन मुद्दे

इस समस्या का विस्तृतीकरण करने वाले संयुक्त राष्ट्र के एक वरिष्ठ अधिकारी और संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के सह लेखक, हेन्निंग स्टेनफेल्ड, ने कहा "आज की सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के लिए पशुधन सबसे मुख्य हैं।" [72] पशुधन उत्पादन कृषि के लिए उपयुक्त भूमि का 70% भाग घेरता है, अथवा पूरे ग्रह की भूमि सतह का 30% भाग घेरता है। [73] यह हरित गृह गैसों के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है, दुनिया के कुल हरित गृह गैस उत्सर्जन के 18% के लिए जिम्मेदार है, यह CO2समकक्ष में मापा गया है।

तुलना के द्वारा, सम्पूर्ण परिवहन 13।5% CO2 का उत्सर्जन करता है। यह 65% मानव से संबंधित नाइट्रस ऑक्साइड का (जिसकी ग्लोबल वार्मिंग की क्षमता CO2 से 296 गुना है) और कुल प्रेरित मीथेन के 37% का उत्पादन करता है( जो CO2 से 23 गुना अधिक वार्मिंग का कारण है)

यह 64% अमोनिया भी उत्पन्न करता है, जो अम्लीय वर्षा और पारिस्थितिक तंत्र के अम्लीकरण में योगदान देती है। पशुधन विस्तार वनों की कटाई के पीछे एक मुख्य कारक है, अमेज़ॅन बेसिन में वन क्षेत्रों का 70% भाग चरागाहों में बदल चुका है, और शेष को फीड फसलों के लिए काम में लिया जाता है। [73] वनों की कटाई और भूमि क्षरण के माध्यम से पशुधन भी जैव विविधता में कमी ला रहा है।

[संपादित करें]भूमि रूपांतरण और क्षरण

भूमि रूपांतरण, माल और सेवाओं की उपज के लिए सबसे महत्वपूर्ण तरीका है, जिसके द्वारा मानव पृथ्वी के परितंत्र को परिवर्तित करता है, और इसे जैव विविधता की क्षति में मुख्य कारक माना जाता है।

मनुष्यों द्वारा रूपांतरित भूमि की मात्रा का अनुमान 39 से 50% तक लगाया गया है। [74] भूमि क्षरण, जो परितंत्र प्रणाली और उत्पादकता में दीर्घकालिक गिरावट है, अनुमान के अनुसार यह पूरी दुनिया में 24% भूमि पर हो रहा है, जिसमें फसली भूमि भी शामिल है। [75] UN-FAO की रिपोर्ट में भूमि प्रबंधन को इस अवनमन के पीछे मुख्य कारक माना गया है, और रिपोर्ट में कहा गया है कि 1।5 बिलियन लोग अवनमित हो रही भूमि पर निर्भर हैं।

क्षरण वनों की कटाई से हो सकता है, मरुस्थलीकरण से हो सकता है, मृदा अपरदन से हो सकता है, खनिज रिक्तीकरण से हो सकता है, या रासायनिक पतन (अम्लीकरण और लवणीकरण) से हो सकता है। [33]

[संपादित करें]युट्रोफिकेशन

युट्रोफिकेशन, जलीय पारितंत्र में अतिरिक्त पोषक तत्वों के परिणामस्वरूप शैवाल का विकास और एनोक्सिया हो जाता है, जिसके कारण मछलियां मर जाती हैं, जैव विविधता की क्षति होती है, और पानी पीने व अन्य औद्योगिक उपयोग की दृष्टि से अयोग्य हो जाता है।

फसल भूमि में बहुत अधिक उर्वरक और खाद डालने, साथ ही उच्च मात्रा में पशुधन की उपस्थिति के कारण पोषकों (मुख्यतः नाइट्रोजन और फोस्फोरस) का कृषि भूमि सेप्रवाह हो जाता है और लीचिंग की स्थिति आ जाती है।

ये पोषक तत्व प्रमुख गैर बिंदु प्रदूषक हैं जो जलीय परितंत्र के युट्रोफिकेशन में योगदान देते हैं। [76]

[संपादित करें]कीटनाशक

कीटनाशक का प्रयोग 1950 के बाद से बढ़ कर पूरी दुनिया में सालाना 2।5 मिलियन टन तक पहुँच गया है। फिर भी कीटों के कारण फसलों की क्षति अपेक्षाकृत स्थिर बनी हुई है। [77] विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1992 में अनुमान लगाया कि सालाना 3 मिलियन कीटनाशक विषिकरण होते हैं, जिनके कारण 220,000 मौतें होती हैं। [78] कीटों की आबादी में कीटनाशक प्रतिरोध के लिए कीटनाशक का चयन, एक स्थिति को जन्म देता है, जिसे 'कीटनाशक ट्रेडमिल' कहा जाता है, जिसमें कीटनाशक प्रतिरोध एक नए कीटनाशक के विकास की वारंटी देता है। [79] एक वैकल्पिक तर्क यह है कि 'वातावरण की रक्षा करने' और अकाल को रोकने का एक तरीका है कीटनाशकों का उपयोग करना और गहन उच्च उत्पादकता खेती। सेंटर फॉर ग्लोबल फ़ूड इशूज वेबसाईट का एक शीर्षक: 'ग्रोइंग मोर पर एकर लीव्ज मोर लैंड फॉर नेचर'। इसी प्रकार का एक दृष्टिकोण देता है। [80][81] यद्यपि आलोचकों का तर्क है कि भोजन की आवश्यकता और पर्यावरण के बीच एक ट्रेडऑफ़ अपरिहार्य नहीं है [82] और यह भी कि कीटनाशक साधारण रूप से अच्छी एग्रोनोमिक प्रथाओं जैसे फसल पुनरावर्तन को प्रतिस्थापित करते हैं।[79]

[संपादित करें]जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन, कृषि को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। कृषि पर तापमान परिवर्तन और नमी क्षेत्रों में परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है। [33] कृषि ग्लोबल वार्मिंग को कम भी कर सकती है इस स्थिति को ओर बदतर भी बना सकती है। वायुमंडल में CO2 में कुछ वृद्धि मृदा में कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की वजह से भी होती है। और वायुमंडल में मुक्त होने वाली अधिकांश मेथेन, गीली मिटटी जैसे धान के खेतों में, कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से आती है। [83] इसके अलावा, गीली और अवायवीय मृदा विनाईट्रीकरणके द्वारा नाइट्रोजन भी मुक्त करती है, जिससे हरित गृह गैस नाइट्रिक ऑक्साइड मुक्त होती है। [84] और मृदा का उपयोग वायुमंडल में से कुछ CO2 को अलग करने में किया जा सकता है। [83]

[संपादित करें]आधुनिक विश्व कृषि में विकृतियां

आर्थिक विकास, जनसंख्या घनत्व और संस्कृति में अंतर का अर्थ है कि दुनिया भर के किसान बहुत अलग अलग परिस्थितियों में काम करते हैं।

को अमरीकी डालर 230 [119] [85] सरकारी सब्सिडी (2003 में), माली और अन्य तीसरी दुनिया के देशों में किसानों को हो बिना लगाया प्राप्त हो सकती है। जब कीमतों में कमी आती है, बहुत अधिक सब्सिडी प्राप्त करने वाले संयुक्त राज्य के किसान पर अपने उत्पादन को कम करने का दबाव नहीं होता है। जिससे कपास की कीमतों को बनाये रखना मुश्किल हो जाता है, इसी समय में

दक्षिण कोरिया में एक पशु किसान, एक बछडे के लिए (बहुत अधिक सब्सिडी से युक्त) 1300 अमेरिकी डॉलर बिक्री मूल्य की गणना कर सकता है। [86] एक दक्षिण अमेरिकी मेर्कोसुर कंट्री रेंचर एक बछडे के लिए 120-200 अमेरिकी डॉलर बिक्री मूल्य की गणना कर सकता है (दोनों 2008 के आंकड़े)। [87] पहले वाली स्थिति में, भूमि की उंची लागत की क्षतिपूर्ति सार्वजनिक सब्सिडी के द्वारा की जाती है। बाद वाली स्थिति में, सब्सिडी के अभाव की क्षतिपूर्ति भूमि की कम लागत और पैमाने के अर्थशास्त्र के साथ की जाती है।

चीन के गणवादी राज्य में, एक ग्रामीण घरेलु उत्पादक संपत्ति, खेती की भूमि का एक हेक्टेयर हो सकती है। [88] ब्राजील, पेराग्वे, और अन्य देश जहां स्थानीय विधायिका ऐसी खरीद की अनुमति देती है, अंतरराष्ट्रीय निवेशक प्रति हेक्टेयर कुछ सौ अमेरिकी डॉलर की कीमत पर हजारों हेक्टेयर कच्ची भूमि या खेती की भूमि खरीदते हैं। [89][90][91]

[संपादित करें]कृषि और पेट्रोलियम

सन् 1940 के दशक के बाद से, बड़े पैमाने पर पेट्रोकेमिकल व्युत्पन्न कीटनाशकों, उर्वरकों के उपयोग और मशीनीकरण के बढ़ने के कारण, (तथाकथित हरित क्रांति) कृषि की उत्पादकता में नाटकीय ढंग से वृद्धि हुई है। 1950 और 1984 के बीच, जैसे जैसे हरित क्रांति ने पूरी दुनिया में कृषि को रूपांतरित किया, दुनिया का अनाज उत्पादन 250% तक बढ़ गया। [92][93] जिसने पिछले 50 सालों में दुनिया की आबादी को दोगुने से अधिक बढ़ने की अनुमति दी है।

हालांकि, आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए उगाये गए भोजन के लिए ऊर्जा की प्रत्येक इकाई को उत्पादन और डिलीवरी के लिए दस से अधिक उर्जा इकाइयों की जरुरत होती है। [94] यद्यपि यह आंकडा पेट्रोलियम आधारित कृषि के समर्थन का विरोधी है। [95] इस ऊर्जा इनपुट का अधिकांश भाग जीवाश्म ईंधन स्रोतों से आता है। आधुनिक कृषि की पेट्रोरसायन और मशीनीकरण पर बहुत अधिक निर्भरता के कारण, ऐसी चेतावनियां दी गयीं हैं कि तेल की कम होती हुई आपूर्ति (नाटकीय प्रवृति जो पीक तेल के रूप में जानी जाती है [96][97][98][99][100]) आधुनिक औद्योगिक कृषि व्यवस्था को बहुत अधिक क्षति पहुंचायेगी, और यह भोजन की एक बड़ी कमी पैदा कर सकती है। [101]

आधुनिक या औद्योगिक कृषि दो मौलिक तरीकों से पेट्रोलियम पर निर्भर करती है: 1) खेती-बीज से फसल उगा कर कटाई करना। 2) परिवहन-कटाई करके उपभोक्ता के फ्रिज तक पहुँचाना। इस प्रक्रिया में ट्रैक्टर व खेतों में जुताई के लिए काम में लिए जाने वाले उपकरणों को ईंधन उपलब्ध कराने के लिए, प्रति नागरिक प्रति वर्ष लगभग 400 गैलन तेल प्रयुक्त होता है। यह देश के कुल उर्जा उपयोग का 17 प्रतिशत है। [102] तेल और प्राकृतिक गैस भी खेतों में प्रयुक्त किये जाने वाले उर्वरकों, कीटनाशकों और शाक विनाशियों के निर्माण ब्लॉक हैं। पेट्रोलियम बाज़ार में पहुँचने से पहले भोजन से प्रसंस्करण की प्रक्रिया के लिए आवश्यक उर्जा भी उपलब्ध करता है। नाश्ते के लिए 2 पौंड अनाज के बैग का उत्पादन करने में आधा गैलन गैसोलिन के तुल्य उर्जा खर्च होती है। [103] इसमें इस अनाज को बाजार तक पहुँचने के लिए आवश्यक उर्जा नहीं जोड़ी गयी है; प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ और फसलों के परिवहन में सबसे अधिक तेल खर्च होता है।

न्यूजीलैंड से कीवी, अर्जेन्टीना से अस्पेरेगस, ग्वाटेमाला से तरबूज और ब्रोकली, कैलिफोर्निया से कार्बनिक सलाद-ऐसे अधिकंश खाद्य पदार्थ उपभोक्ता की प्लेट पर पहुँचने के लिए औसतन 1500 मील की यात्रा करते हैं। [104]

तेल की कमी इस खाद्य आपूर्ति को रोक सकती है। इस जोखिम के बारे में उपभोक्ताओं की बढ़ती जागरूकता ऐसे कई कारकों में से एक है जो कार्बनिक खेती और अन्य स्थायी खेती की विधियों में रूचि को बढ़ावा दे रहे हैं।

आधुनिक कार्बनिक खेती की विधियों का उपयोग करने वाले कुछ किसानों नें पारंपरिक खेती की तुलना में अधिक उत्पादन किया है। (लेकिन इसमें जीवाश्म-ईंधन-गहन कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया गया है)

पेट्रोलियम आधारित तकनीक के द्वारा मोनोकल्चर कृषि तकनीक के दौरान खोये जा चुके पोषकों को पुनः मृदा में लाने के लिए कंडिशनिंग में समय लगेगा।[105][106][107][108]

तेल पर निर्भरता और अमेरिका की खाद्य आपूर्ति के जोखिम ने एक जागरूक खपत आंदोलन शुरू किया है, जिसमें उपभोक्ता उन "खाद्य मीलों" की गणना करते हैं, जो एक खाद्य उत्पाद ने यात्रा के दौरान तय किये हैं।स्थायी कृषि के लिए लेओपोल्ड केंद्र एक खाद्य मील को निम्नानुसार परिभाषित करता है:"।।।।।।।उगाये जाने वाले स्थान से उपभोक्ता या अंतिम उपयोगकर्ता द्वारा अंततः ख़रीदे जाने वाले स्थान तक भोजन की यात्रा।"

स्थानीय रूप से उगाये जाने वाले और दूर स्थानों पर उगाये जाने वाले भोजन की एक तुलना में लेओपोल्ड केंद्र के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि स्थानीय भोजन को अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए 44।6 मील की दूरी तय करी होती है और सुदुर स्थानों पर उगाये जाने वाले जहाजों से स्थानांतरित किये जाने वाले भोजन को 1,546 मील की दूरी तय करी होती है। [109]

नए स्थानीय खाद्य आंदोलन में उपभोक्ता जो भोजन मीलों की गणना करते हैं, अपने आप को "लोकावोर्स" लिंक कहते हैं; वे एक स्थानीय आधारित भोजन व्यवस्था पर लौटने की वकालत करते हैं, जिसमें भोजन जितना हो सके नजदीक के स्थानों पर ही उगाया जाये, चाहे यह कार्बनिक हो या नहीं।

लोकावोर्स का तर्क है कि कैलिफोर्निया में मूल रूप से उगाई जाने वाली सलाद, जो जहाजों के द्वारा न्यू यार्क लायी जाती है, अभी भी अस्थायी खाद्य स्रोत है क्योंकि यह अपने स्थानान्तरण केलिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है। "लोकावोर्स" आन्दोलन के अलावा, तेल आधारित कृषि पर निर्भरता के मुद्दे ने घर और सामुदायिक बागवानी की और रुझान को बढाया है।

लिंक

Further information: Effect of biofuels on food prices

किसानों नें मक्के जैसी फसलों को इसलिए भी उगाना शुरू कर दिया है ताकि उनका इस्तेमाल भोजन की बजाय पीक तेल की कमी को पुरा करने में किया जा सके।इससे हाल ही में यह गेहूं की कीमतों में 60% की वृद्धि हुई है, यह विकासशील देशों में गंभीर सामाजिक अशांति की सम्भावना को इंगित करता है। [110] ऐसी स्थितियां भोजन और ईंधन की कीमत में भावी वृद्धि की स्थिति में और भी बुरी हो जायेंगी, ये कारक पहले से ही भूखमरी से पीड़ित आबादी को खाद्य सहायता भेजने वाले धर्मार्थ दाताओं की क्षमता को प्रभावित कर चुके है। [111]

पीक तेल मुद्दों के कारण होने वाली श्रृंखला अभिक्रियाओं के एक उदाहरण में शामिल है किसानों के द्वारा पीक तेल की समस्या को कम करने के लिए मक्के जैसी फसलें उगाने का प्रयास।

इसने पहले से ही खाद्य उत्पादन को कम कर दिया है। [112] यह भोजन बनाम ईंधन मुद्दा और भी बुरी स्थिति धारण कर लेगा जब इथेनॉल ईंधन की मांग बढ़ जायेगी। भोजन और ईंधन की बढ़ती लागत ने पहले से ही भूखमरी से पीड़ित लोगों को खाद्य सहायता भेजने वाले कुछ धर्मार्थ दाताओं की क्षमता को सीमित कर दिया है। [111] संयुक्त राष्ट्र में कुछ लोग चेतावनी देते हैं कि हाल ही में गेहूं की कीमत में हुई 60% वृद्धि "विकासशील देशों में गंभीर सामाजिक अशांति पैदा कर सकती है" [112][113] 2007 में, किसानों को गैर खाद्य जैविक ईंधन फसलें उगाने के लिए दिए गए अतिरिक्त भत्ते [114] अन्य कारकों के साथ संयुक्त हो गए, (जैसे पूर्व खेत की भूमि का अतिरिक्त विकास, स्थानान्तरण की लागत का बढ़ना, जलवायु परिवर्तन, चीन और भारत में ग्राहक की मांग का बढ़ना, और जनसंख्या में वृद्धि[115] जिससे एशिया, मध्य पूर्व, अफ्रीका, और मैक्सिको, मेंखाद्य की मात्रा में कमी आ गयी, साथ ही विश्व भर में खाद्य की कीमतें बढ़ गयीं। [116][117] दिसंबर 2007 में 37 देशों ने खाद्य संकट का सामना किया, और 20 ने किसी प्रकार के खाद्य कीमत नियंत्रण को लागू कर दिया।

इनमें से कुछ कमियों के परिणाम स्वरुप खाद्य दंगे हुए और घटक भगदड़ भी मच गयी। [13][14][118]

कृषि क्षेत्र में एक अन्य प्रमुख पेट्रोलियम मुद्दा है पेट्रोलियम आपूर्ति का प्रभाव उर्वरक उत्पादन पर पड़ेगा। कृषि में जीवाश्म ईंधन का सबसे ज्यादा इनपुट है हाबर-बोश उर्वरक निर्माण प्रक्रिया के लिए एक हाइड्रोजन स्रोत के रूप में प्राकृत गैस का उपयोग,[119] प्राकृत गैस का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है क्योंकि यह वर्तमान में उपलब्ध हाइड्रोजन का सबसे सस्ता स्रोत है।[120][121] जब तेल का उत्पादन बहुत कम हो जाता है तब प्राकृत गैस को इसके विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। और परिवहन में हाइड्रोजन का उपयोग बढ़ जाता है, प्राकृतिक गैस अधिक महंगी हो जायेगी। यदि हाबर प्रक्रिया को नव्यकरणीय ऊर्जा (जैसे विद्युत अपघटन) का उपयोग करते हुए वाणीज्यीकृत नहीं किया जा सकता या यदि हाबर प्रक्रिया को प्रतिस्थापित करने के लिए हाइड्रोजन के अन्य स्रोत इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, कि वे परिवहन और कृषि की आवश्यकता के लिए पर्याप्त हों, तो उर्वरक का यह मुख्य स्रोत या तो बहुत अधिक महंगा हो जायेगा या उपलब्ध नहीं होगा।

यह या तो भोजन की कमी लायेगा या खाद्य कीमतों में नाटकीय ढंग से वृद्धि कर देगा।

[संपादित करें]पेट्रोलियम की कमी के प्रभाव को कम करना

कमी का एक असर यह हो सकता है कि कृषि पूरी तरह से कार्बनिक कृषि की और लौट जाये। पीक तेल मुद्दों के प्रकाश में, कार्बनिक विधियां समकालीन प्रथाओं की तुलना में अधिक स्थायी होंगी, क्योंकि उनमें पेट्रोलियम आधारित कीटनाशकों, शाक विनाशियों, या उर्वरकों का उपयोग नहीं किया जाता है।

आधुनिक कार्बनिक खेती की विधियों का उपयोग करने वाले कुछ किसानों ने पारंपरिक विधियों के तुलना में अधिक उत्पादन की रिपोर्ट दी है। [[122][123][124][125] हालांकि कार्बनिक खेती अधिक श्रम प्रधान हो सकती है और इसमें कार्य क्षेत्र पर शहरी से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर स्थानान्तरण का दबाव हो सकता है। [126]

ऐसी सलाह दी गयी है कि ग्रामीण समुदाय बायोचर ओर सिनफ्यूल प्रक्रियाओं से ईंधन प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें सामान्य भोजन बनाम ईंधन डाटाबेस के बजाय ईंधन और,खाद्य ओर चारकोल उर्वरक उपलब्ध कराने के लिए कृषि के व्यर्थ पदार्थों का उपयोग किया जाता है।

जब सिन्फ्युल का साईट पर उपयोग किया जायेगा, प्रक्रिया अधिक प्रभावी हो जायेगी, और इससे कार्बनिक-कृषि संगलन के लिए पर्याप्त ईंधन उपलब्ध होगागी। [127][128]

ऐसी सलाह दी गयी है कि ऐसे ट्रांसजेनिक पोधों का विकास किया जा सकता है जो पारंपरिक फसलों की तुलना में कम जीवाश्म ईंधन का उपयोग करते हुए, उत्पादन में वृद्धि करेंगे और इसे बनाये रखेंगे। [129] इन कार्यक्रमों की सफलता की संभावना पर अर्थशास्त्रियों और पारिस्थितिक विज्ञानियों ने सवाल उठायें हैं, ये सवाल अस्थायी GMO प्रथाओं जैसे टर्मिनेटर बीज के मुद्दों को लेकर उठाये गए हैं। [130][131] और एक जनवरी 2008 की रिपोर्ट से पता चलता है कि GMO प्रथाएं "पर्यावरणी, सामाजिक और आर्थिक लाभ देने में असफल हैं।" [132] GMO फसलों के उपयोग के स्थायित्व पर कुछ अनुसंधान किये गए हैं, मोनसेंटो के द्वारा कम से कम एक हाइप्ड और प्रभावी बहु वर्षी प्रयास असफल रहता है, हालांकि सामान अवधि के दौरान पारंपरिक प्रजनन प्रथाओं ने सामान फसलों की एक अधिक स्थायी किस्म उपलब्ध करायी है।[133] इसके अतिरिक्त, अफ्रीका में सब्सिसटेंस के जैव प्रोद्योगिकी उद्योग के द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में खोजा गया कि कौन सा GMO अनुसंधान सबसे स्थायी कृषि के लिए लाभकारी होगा, और गैर ट्रांसजेनिक मुद्दों की पहचान करेगा। [134] बहरहाल, अफ्रीका में कुछ सरकारों ने नए ट्रांसजेनिक प्रौद्योगिकियों में स्थिरता में सुधार करने के लिए आवश्यक घटक के रूप निवेश को जारी रखा है। [135]

[संपादित करें]नीति

कृषि नीति कृषि उत्पादन के लक्ष्यों और तरीकों पर ध्यानकेंद्रित करती है।नीतिगत स्तर पर, कृषि के सामान्य लक्ष्यों में शामिल हैं:

[संपादित करें]कृषि सुरक्षा और स्वास्थ्य

चित्र:Crops Kansas AST 20010624।jpg
केन्सस में केन्द्र सिंचाई धुरी के गोलाकार फसल खेतों की सैटेलाइट छवि। स्वस्थ, बढ़ती हुई फसलें हरीं हैं; गेहूं के खेत सोने के रंग के हैं; और परती खेत भूरे हैं।

[संपादित करें]संयुक्त राज्य अमेरिका

कृषि सबसे खतरनाक उद्योगों में से एक है। [136] किसानों को ऎसी चोटों का खतरा होता है, जो उनके लिए घातक भी हो सकती हैं, या घातक नहीं हो सकती है। उन्हें काम से सम्बंधित फेफडों की बीमारियां, शोर से होने वाला बहरापन, त्वचा रोग, और रसायनों के उपयोग और लम्बे समय तक धूप में रहने के कारण कैंसर हो सकता है।

कृषि उन गिने चुने उद्योगों में से है जिनमें परिवार को भी चोट, बीमारी या मृत्यु का खतरा बना रहता है। (क्योंकि परिवार वाले अक्सर साथ ही रहते हैं और काम में हाथ बंटाते हैं)।एक औसत वर्ष में, अमेरिका में 516 श्रमिकों की मृत्यु खेती का कार्य करने के दौरान होती है। 1992-2005)।इन मौतों में से, 101 ट्रैक्टर पलटने के कारण होती हैं।प्रति दिन लगभग 243 कृषि मजदूर कार्य-समय-चोट-क्षति को झेलते हैं, और इनमें से लगभग 5% स्थायी रूप से विकलांग हो जाते हैं। [137]

कृषि युवा श्रमिकों के लिए सबसे खतरनाक उद्योग है, अमेरिका में 1992 और 2000 के बीच कार्य से सम्बंधित होने वाली मौतों में से 42% युवा श्रमिकों की थीं। अन्य उद्योगों के विपरीत, कृषि में युवा पीडितों के आधे लोगों की उम्र 15 वर्ष से कम थी। [138] 15-17 आयु वर्ग के युवा कृषि श्रमिकों के लिए, घातक चोट का खतरा अन्य कार्य स्थानों की तुलना में चार गुना होता है। [139] कृषि कार्य के दौरान युवा श्रमिकों को खतरों में काम करना होता है, जैसे मशीनरी पर काम करना, सीमित स्थानों में काम करना, तीखे ढलान पर काम करना, और पशुओं के आस पास काम करना।


एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2004 में 1।26 मिलियन बच्चे और 20 साल से कम आयु के किशोर खेतों में रह रहे थे। इनके साथ लगभग 699,000 युवा भी खेतों में काम कर रहे थे।

खेतों में रहने वाले युवाओं के अलावा, 2004 में, अतिरिक्त 337,000 बच्चों और किशोरों को अमेरिका के खेतों में नौकरी पर रखा गया।

औसतन 103 बच्चे प्रति वर्ष खेतों में मारे जाते हैं (1990-1996)।इन मौतों की लगभग 40 प्रतिशत कार्य से संबंधित थीं।2004 में, एक अनुमान के अनुसार 27,600 बच्चे और किशोर खेतों में घायल हो गए; इनमें से 8,100 खेती के कार्य के कारण ही घायल हुए थे। [137]

[संपादित करें]केंद्र

कुछ अमेरिकी अनुसंधान केंद्र कृषि प्रथाओं में स्वास्थ्य और सुरक्षा के विषय पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर समूह नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ओक्युपेशनल हेल्थ एंड सेफ्टी, दी यू। एस। डिपार्टमेंट ऑफ़ एग्रीकल्चर, या अन्य राज्य एजेंसियों के द्वारा वित्त पोषित है।

इन केन्द्रों में शामिल हैं:

[संपादित करें]यह भी देखें

मुख्य सूचीयां: बुनियादी कृषि विषयों की सूची और कृषि विषयों की सूची

[संपादित करें]संदर्भ

[संपादित करें]नोट्स

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[संपादित करें]कृषि के प्रकार

[संपादित करें]इन्हें भी देखें

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#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

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Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk