इस आंदोलन की परतें
इस आंदोलन की परतें
Wednesday, 16 January 2013 10:52 | अनिल चमड़िया जनसत्ता 16 जनवरी, 2013: दिल्ली में सोलह दिसंबर की रात को हुए सामूहिक बलात्कार कांड के खिलाफ देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आंदोलित हुआ। अब तक बलात्कार की चुनिंदा घटनाओं पर जितने आंदोलन देशव्यापी या विभिन्न स्तरों पर हुए हैं उनमें सबसे बड़े आंदोलन के रूप में इस आक्रोश का विश्लेषण किया जा सकता है। लेकिन अब किसी भी आंदोलन के साथ एक बड़ी मुश्किल यह खड़ी हो गई है कि उसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आधार को तत्काल परखने की मांग की जाने लगी है। जो इ-मेल का इस्तेमाल करते हैं उनमें से अधिकतर के इनबॉक्स में सोलह दिसंबर के बाद से देश के विभिन्न हिस्सों में हुई बलात्कार की घटनाओं की जानकारियां भरी पड़ी हैं। अखबारों के राज्यों के संस्करणों ने संबंधित राज्य की ऐसी घटनाओं के ब्योरे प्रकाशित किए हैं। वैसी घटनाओं को भी फिर से सतह पर लाने की कोशिश की गई है जिनमें बलात्कार के शिकार को न्याय नहीं मिल पाने और पीड़ित परिवारों की दुर्दशा का उल्लेख है। सरकारी मशीनरी के निकम्मेपन की तरफ एक बार फिर से ध्यान खींचने की कोशिश हुई है। समाज के कई उत्पीड़ित वर्गों ने ये सवाल भी खड़े किए हैं कि उनके बीच की महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की घटनाओं पर शहरी समाज क्यों खामोश रहा है। सोनी सोरी से लक्ष्मी उरांव तक के नाम गिनाए गए हैं। ग्रामीण इलाकों के गरीब-गुरबों से लेकर दलितों ने अपने बीच की किसी पीड़िता का नाम लेकर सवाल खड़ा किया है। पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर कश्मीर तक से ये सवाल खड़े हुए हैं। निर्भया या दामिनी के काल्पनिक नाम की जगह वास्तविक नामों के साथ। हालिया आंदोलन को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। समाज की विविधता और आंदोलन की पृष्ठभूमि के बीच अंतर दिखता है। दूसरी बात यह कि शहरों में मध्यवर्ग का एक हिस्सा बड़ी ताकत के रूप में उभरा है और वह अपने सरोकार के किसी भी मुद््दे पर आंदोलित हो सकता है। वह कानून-व्यवस्था से जुड़ा सुरक्षा का सवाल हो सकता है। वह भ्रष्टाचार की सीधी मार हो सकती है। यह ताकत अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भी दिखी थी। आंदोलनों के इतिहास का अध्ययन एक दिलचस्प मोड़ पर खड़ा हो गया है। संसदीय राजनीति में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन राजनीतिक नेतृत्व का आखिरी आंदोलन था। अण्णा हजारे के नेतृत्व वाला आंदोलन उस स्थिति में पहुंच गया था जहां संसदीय पार्टियां खारिज की गर्इं, लेकिन संसदीय पार्टियों से ही कानून बनाने की मांग होती रही। आखिरकार वह आंदोलन दो हिस्सों में बंटा। एक ने नई संसदीय पार्टी बनाने की जरूरत महसूस की तो दूसरा गैर-दलीय आंदोलन पर जोर देता रहा। इसके बाद सत्रह दिसंबर से दिल्ली में एक पखवाड़े का आंदोलन उस स्थिति का उदाहरण बना जिसमें बिना नेतृत्व के लोग सड़कों पर उतरते हैं। बिना किसी घोषित नेतृत्व के लोग बड़ी तादाद में बेहद गुस्से के साथ सड़कों पर उतरे; खासतौर से युवाओं की भीड़ संसद और सत्ता के प्रमुख केंद्रों सामने जमा हुई और आंदोलनों के इतिहास में एक नई तरह की आक्रामकता प्रदर्शित की। क्या नेतृत्वविहीन आंदोलनों का दौर शुरू हो रहा है? क्या सत्ता को ऐसे आंदोलनों से घबराते हुए दिखना और निपटना आ गया है? योग प्रचारक स्वामी रामदेव के आंदोलन को भी यहां एक क्षण के लिए याद कर सकते हैं, जब उनकी अगवानी के लिए हवाई अड््डे पर भारत सरकार के चार मंत्री मौजूद थे। सत्ता को ही नहीं, तमाम पार्टियों को भी ऐसे आंदोलनों से निपटना आता है। यों कहें कि गुस्से को अपने भीतर समाहित करने की भाषा उन्हें आती है। महिला आयोग की गुस्से के साथ एकरूपता देखें कि बलात्कारियों के अंग-भंग की बात की गई। आयोग की अध्यक्ष के अब तक जितने विवादास्पद बयान आए हैं उन पर गौर करें तो शहरी मध्यवर्ग की असरदार महिलाओं के साथ हर लिहाज से वे खुद को एकरूप करने में सक्षम दिखती हैं। उनका सेक्सी वाला बयान भी याद किया जा सकता है। भाजपा ने मांग की कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए। गुस्साई भीड़ का बड़ा हिस्सा तो मानो पहले से ही भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की बलात्कारियों को फांसी की मांग दोहरा रहा था। समाजवादी पार्टी के युवा मुख्यमंत्री उस पीड़िता के लिए नियुक्तिपत्र तैयार करवाने लगे। कांग्रेस ने गुस्साए लोगों के साथ हर स्तर पर खुद को एकरूप करने की कोशिश की। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने तीन बेटियों के पिता के रूप में गुस्साए लोगों से बातचीत की। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के पदों पर महिलाएं होतीं तो क्या कहा जाता? जूडो-कराटे की राष्ट्रव्यापी कार्यशाला लगनी चाहिए? इस तरह भीड़ के गुस्से को संबोधित करने में हरेक पार्टी ने खुद को कामयाब पाया है। इसीलिए किसी भी पार्टी और उसकी सत्ता को इस गुस्साई भीड़ |
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भीड़ से जरा भी खतरा नहीं दिखता है। क्या आंदोलन ऐसे हो सकते हैं जहां किसी को कोई खतरा या चुनौती न दिखती हो? इससे जुड़ी बात यह कि क्या यह भरोसे से कहा जा सकता है कि इस तरह के आंदोलन कब शुरू हो सकते हैं और कब खत्म हो जाएंगे? पिछले कुछेक आंदोलनों को भी यहां याद कर सकते हैं। क्या यह आंदोलन सही मायने में पहला ऐसा आंदोलन है जिसका नेतृत्व मीडिया कर रहा है और मीडिया ने देश में वह ताकत हासिल कर ली है जब वह किसी आंदोलन को शुरू कर सकता है और उसे किसी मुकाम पर खत्म कर सकता है? आंदोलन की मांग पर गौर करें। क्या बलात्कार की घटनाओं को एक और कानून बना कर रोका जा सकता है? कड़े कानून की कसौटी क्या होती है? क्या आरोपी की मौत या अंग भंग ही कड़े कानून का नाम है? सोलह दिसंबर के बाद सबसे प्रमुख मांग यह उभर कर सामने आई कि आरोपियों को फांसी की सजा दी जाए। धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी और उससे पहले रंगा, बिल्ला को भी। लेकिन सोलह दिसंबर की काली रात फिर भी डराने आ गई। पूरे आंदोलन के चरित्र को समझने के लिए यह याद करना जरूरी है कि पिछले कुछ आंदोलनों में हर इस तरह की समस्या का समाधान फांसी की सजा में देखा गया है। आखिर यह गुस्सा बलात्कार या दूसरे बड़े अपराधों को खत्म करने के लिए है या फिर यह किसी और काम में आ रहा है? गुस्सा अभिव्यक्त होते क्या तभी दिख सकता है जब व्यवस्थागत तौर पर कानूनी मशीनरी को फैसले में मनचाहा करने की छूट मिलती हो। आंदोलन लोकतंत्र की एक प्रक्रिया है, पर क्या यह प्रक्रिया व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा निरंकुश बनाने में इस्तेमाल की जा रही है? क्या यह संभव है कि भीड़ न जानती हो कि वह क्या मांग रही है और किससे मांग रही है? शायद यह संभव है। एक दूसरा विश्लेषण यह भी करना चाहिए कि जिस बलात्कार के विरोध को महिलाओं के उत्पीड़न और उन पर हमले के विरोध के बतौर ही देखा जा रहा है वहां महिलाओं के हाथों में किस तरह के नारों की तख्तियां थीं? लड़कियां और महिलाएं उत्पीड़न और बलात्कार के कारणों को अपने नारों में प्रदर्शित करने से चूक जाती हैं। पूंजीवाद और पुरुषवाद एक दूसरे की सहायक शक्तियां हैं। पूंजीवाद, पुरुषवाद के सामंती रूप का आधुनिकीकरण कर देता है। पूरी पूंजीवादी संरचना को बचाती तख्तियां लगी थीं। यानी एक तरफ जड़वादी राजनीतिक विचार हैं जो लड़कियों के पहनावे और बाजार में चलने-फिरने के तौर-तरीकों को खत्म करने की मांग करते हैं और उन्हें पुरुषों को उकसाने वाली प्रवृत्तियों के रूप में देखते हैं। दूसरी तरफ नारों की तख्तियां उन्हें ही संबोधित कर रही थीं। नहीं सहेंगे नारी का अपमान, जैसे नारे। सामंतवादी, पूंजीवादी प्रवृत्तियों को विकसित करने की एक लड़ाई इस आंदोलन में दिखाई दे रही थी। क्या बलात्कार और छेड़खानी का संबंध शराब, अश्लील फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों से लेकर पूरी एक सामाजिक संरचना से है? लेकिन तमाम स्थितियों पर कोई सवाल खड़े नहीं हो रहे हैं। बस फांसी का कानून बनाने की मांग प्रचारित की जाती रही है। इस तरह एक ऐसे आंदोलन का विश्लेषण इस रूप में सामने आता है कि लोकतंत्र में एक निरंकुशता की पक्षधर भीड़ का गुस्सा तैयार हो गया है? उसके पास सूचनाओं के लिए अपने संसाधन तो हो गए हैं लेकिन संवाद का नजरिया आकार नहीं ले पा रहा है। वह सामाजिक तौर पर सुधारवादी और राजनीतिक तौर पर परिवर्तनवादी से दूर खड़ा दिखाई देता है? पिछले तमाम आंदोलनों से भिन्न इस शहरी आंदोलन का विश्लेषण किया जाना चाहिए। इस दौर में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न न केवल बढ़ा है बल्कि वह कई नए रूपों में तैयार हुआ है। शराबबंदी की मांग गांवों और पिछड़े इलाकों में तेजी से बढ़ी है। पूंजीवाद के जो सहायक उत्पाद हैं, उन पर दिल्ली में कोई सवाल खड़ा नहीं हुआ। आंदोलन केवल कानून बनने के गिर्द बहस में सिमटा दिखा। आखिर वे क्या कारण हैं कि शहरों और गांवों से छोटी उम्र की लड़कियां बड़े पैमाने पर गायब की जा रही हैं; बलात्कार की खबरें रोज आती हैं। पूरी दुनिया में आमतौर पर गरीब महिलाओं पर हमले बढ़े हैं। लोकतंत्र में सामाजिक सुरक्षा चक्र और सामाजिक चेतना ही वास्तविक कानून होता है। व्यवस्थागत कानून की भूमिका महज सहायक की होती है। अगर सचमुच देश में इतनी बड़ी आबादी महिला उत्पीड़न के विरोध में हो तो वहां ऐसी घटनाएं अतीत की बात हो जानी चाहिए। या फिर स्थिति यह है कि हम इसके बहाने उत्पीड़न का एक नया हथियार तैयार कर रहे हैं? कानून किनके हाथों में सौपा जा रहा है, लोकतंत्र में यह भी आंदोलनों के लिए बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए। |
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