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Thursday, August 16, 2012

समाचार-संदर्भ : हिमालयः बसेगा तो बचेगा

http://www.samayantar.com/save-himalaya-by-saving-himalayans/

समाचार-संदर्भ : हिमालयः बसेगा तो बचेगा

hydropower-tunnel-based-projectsउत्तराखंड के पहाड़ों से इन दिनों खतरनाक आवाजें आ रही हैं। ये आवाजें एक ऐसे नापाक गठजोड़ की हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के बीच रहने वाली जनता के हक को लील लेना चाहती हैं। बहुत जल्दी, बहुत ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए; विकास का जो सपना सरकारें दिखाती रही हैं उसकी आड़ में एक बड़ी आबादी को उजाड़कर मुनाफाखोर अब जनता को जनता के खिलाफ ही खड़े करने की साजिशें करने लगे हैं। टिहरी की लोककथाओं में आछरियों (परियां) का बहुत जिक्र आता है। ऐसी आछरियां जो गुफाओं से निकलकर युवाओं को हर लेती थीं। अब टिहरी में इस तरह की आछरियां नहीं दिखाई देतीं। अब आछरियां नए रूप में हैं। जो पहले गुफाओं में रहती थीं अब विशालकाय सुरंगों में हैं। जो पहले कुछ युवकों को अपने रूप-सौंदर्य के छलावे में फंसाती थीं अब विकास और बिजली की चकाचैंाध से भ्रमित कर रही हैं। लोककथाओं की आछरियों को भले ही किसी ने देखा न हो लेकिन आज पूरे पहाड़ में विकास की जानलेवा आछरियों ने जलविद्युत परियोजनाओं से पूरे गांवों को लीलना शुरू कर दिया है। ये अकेली नहीं हैं इनके साथ सरकार है। बांध परियोजनाओं के बड़े कारिंदे हैं। इससे भी बढ़कर वे लोग हैं जो विकास की इस साजिश के अभियान में साथ खड़े हैं।

बहुत ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए विकास का जो सपना सरकारें दिखाती रही हैं उसकी आड़ में एक बड़ी आबादी को उजाड़कर मुनाफाखोर अब जनता को जनता के खिलाफ ही खड़े करने की साजिशें करने लगे हैं। टिहरी की लोककथाओं में आछरियों (परियां) का बहुत जिक्र आता है, जो गुफाओं से निकलकर युवाओं को हर लेती थीं। अब वे नहीं दिखाई देतीं। अब आछरियां नए रूप में हैं। गुफाओं की जगह अब वे विशालकाय सुरंगों में रहने लगी हैं।

इन लोगों का न तो लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास है न ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में। इन्होंने ने ऐलान कर दिया है कि जो भी जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध करेगा उसे पहाड़ में नहीं घुसने दिया जायेगा। जैसे पहाड़ इन्हीं की बपौती हो। अपने अभियान को इन्होंने अमली जामा पहनाना भी शुरू कर दिया है। जून के मध्यमें श्रीनगर में जीडी अग्रवाल, भरत झुनझुनवाला और राजेन्द्र सिंह के साथ इन कथित बांध समर्थकों ने जो किया उससे साबित होता है कि जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन के नाम पर की जा रही यह गुंडागर्दी कोई छोटी-मोटी स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि सोची-समझी रणनीति है। इसलिए समय रहते इस गठजोड़ को समझना होगा जो निहित स्वार्थों के लिए अपने मुल्क को बर्बाद करने और बेचने में भी झिझक नहीं रहे हैं।

गौरतलब है कि उत्तराखंड में पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर वहां की जनता आंदोलन चलाती रही है। अपने संसाधनों को बचाने के लिए वह लगातार सड़कों पर है। टिहरी बांध से लेकर फलिंडा और अब पिंडर को बचाने तक के बहुत सारे आंदोलन स्वस्फूर्त जनता के आंदोलन रहे हैं वैसे ही जैसे उत्तराखंड राज्य का आंदोलन था। एक मामले में ये आंदोलन पृथक राज्य आंदोलनों से इसलिए जुड़ थे कि जनता को उम्मीद थी कि नए राज्य के शासक जो उन्हीं में से होंगे उनके दर्द को समझेंगे और उन पर इस तथाकथित विकास को नहीं थोपेंगे। पर हुआ उल्टा ही है। अपने ही लोगों ने विकास के दैत्याकार मॉडल को उन पर थोपा है। इससे लगातार टूटते पहाड़ों की आम जनता को चिंता है। पर इस बीच कुछ अजब ही हुआ है।

padmsree-return-drama-in-dehradunइधर कुछ समय से बांध समर्थकों की एक नई जमात सामने आई है जो पूरी बेशर्मी से बड़े बांधों का समर्थन कर रही है और जन आंदोलनों को नकारने में लगी है। कवि लीलाधर जगूड़ी ने अपने हाल में प्रकाशित लेख 'प्रगति विरोधी इस पाखंड से लडऩा जरूरी' में लिखा है कि "इस समय उत्तराखंड में जनता पर्यावरण को विकास के विरुद्ध एक अड़ंगे की तरह अथवा एक पाखंड की तरह देख रही है।" तथ्यों को जैसे जी में आया तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। फलिंडा और पिंडर घाटी में क्या हो रहा है? अगर कहीं कुछ है ही नहीं तो धारी देवी में मारपीट की नौबत क्यों आ रही है? यह जमात सरकार, बांध बनाने वाली कंपनियों और ठेकेदारों के गठजोड़ की है। इनमें इस बीच सरकार से नजदीकियां रखने के इच्छुक कुछ बुद्धिजीवी भी जुड़ गये हैं। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अचानक बांधों के समर्थन में खड़ा हो गया है। ऐसा क्यों हो रहा है, समझना मुश्किल नहीं है। बांधों के साथ अपार पैसा जुड़ा है और उसका असर अखबार से लेकर सरकार तक में नजर आ रहा है। कौन भूल सकता है कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पद संभालते ही पहला काम बांधों के समर्थन का किया।

ये तर्क देते हैं कि जलविद्युत परियोजनायें यहां की आर्थिकी और रोजगार के लिए जरूरी हैं। साधु-संत गंगा की अविरलता को लेकर बांधों के खिलाफ हैं। अगर गंगा की अविरलता नहीं रहेगी तो करोड़ों की आस्था की चिंता उन्हें है। स्वयंसेवी संगठनों को लगता है कि बांध बनने से पर्यावरण को भारी नुकसान होगा। इसलिए वे बांधों का विरोध कर रहे हैं। इन सबके बीच पिछले चार दशक से अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत लोगों की सुनने को कोई तैयार नहीं है। उनके पूरे आंदोलन को कभी आस्था, कभी विकास तो कभी पर्यावरण के नाम पर हाशिये पर धकेला जा रहा है। हम बार-बार यह दोहराना चाहते हैं कि असल में जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध आस्था और पर्यावरण का नहीं है, जैसा कि जगूड़ी अपने लेख में कहते हैं; बल्कि यह हिमालय को बचाने की लड़ाई है। आस्था और पर्यावरण भी तभी तक हैं जब तक हिमालय है। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि हिमालय से पूरे गंगा-यमुना के मैदान का भविष्य जुड़ा है। विकास के नाम पर जिस तरह से हिमालय को सुरंगों के हवाले किया जा रहा है वह आने वाले दिनों में पूरे देश के लिए खतरे का संकेत है।

विकास, आस्था और पर्यावरण के इस फरेब के बीच हिमालय और हिमालयवासियों के दर्द को समझा जाना बहुत आवश्यक है। मध्य हिमालय दुनिया का सबसे कच्चा पहाड़ है। इस पर भी उत्तराखंड में नीति-नियंताओं ने माना है कि यहां की जल संपदा से चालीस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने एक उपाय सुझाया विशालकाय जलविद्युत परियोजनाएं बनाने का। इस समझ के तहत सत्तर के दशक में टिहरी बांध परियोजना की शुरुआत की गई थी। इसके बाद तो जलविद्युत परियोजनाओं को ही सरकारों ने ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत मान लिया। इसके बावजूद जबकि टिहरी जैसी बड़ी परियोजना अपने लक्ष्य में नाकाम रही है। इससे समझ जाना चाहिए था कि जिन परियोजनाओं को विकास के लिए जरूरी माना जा रहा है वे कितनी उपुयक्त हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि बांधों के निर्माण से राष्ट्रीय ही नहीं अंतराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कंपनियों के हित जुड़े हैं। ये कंपनियां कई तरह की हैं – सीमेंट उत्पादकों से लेकर बिल्डरों और टरबाईन बनानेवालों तक की। यह बात प्रचारित की गई कि टिहरी बांध तो बड़ा है, बाकी बांध छोटे होंगे। सच यह है कि उत्तराखंड में इस समय जितने भी बांध बन रहे हैं वे बड़े बांधों की श्रेणी में आते हैं। (देखें समयांतर, जून, 2012)

इसे नजरअंदाज कर इन दिनों कुछ बुद्धिजीवियों ने कहना शुरू कर दिया है कि बिना जलविद्युत परियोजनाओं के यहां का विकास संभव नहीं है। वे कहते हैं कि इन परियोजनाओं से रोजगार मिलेगा, पलायन रुकेगा और प्रदेश में विद्युत आपूर्ति के अलावा बाहर भी बिजली बेची जा सकेगी। उन्होंने जो तर्क दिए हैं वे बचकाना हैं। दुनिया की कोई भी जलविद्युत परियोजना ऐसी नहीं है जो रोजगार पैदा करती हो। इस तरह की परियोजनायें ठेकेदार और दलाल तो पैदा करती हैं लेकिन रोटी पैदा नहीं करतीं। हर परियोजना पर्यावरणीय विनाश के साथ विस्थापन और पलायन लाती है। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देश अपने यहां बने बांधों को तोड़ रहे हैं। वे अपने यहां ऊर्जा के नए स्रोत तलाश रहे हैं। यह तथ्य हम अपने ही आसपास कोरबा, सोनभद्र या उन अनेक उदाहरणों से पा सकते हैं जहां कोयला या बांधों से बिजली बनाई जाती है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में तो अनेक बिजली घर हैं पर उस राज्य में उद्योग क्यों नहीं हैं सिवाय खनिज उद्योगों के जो प्राकृति संसाधनों के निर्मम दोहन से जुड़े हैं? विकास का यह विनाशकारी मॉडल हिमालय के संसाधनों की अंधी लूट की साजिश है जिसे यहां के सत्ताधारी वर्ग – नेताओं, अखबारों और अब बुद्धिजीवियों – के सहयोग से अंजाम दिया जा रहा है।

गंगा को बचाने के लिए विकास और पर्यावरण की इस बहस के बीच उन सवालों को तलाशना जरूरी है जो वहां के निवासियों के लिए परेशानी का कारण बने हैं। उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन में कुछ बुद्धिजीवी द्वारा चलाए जा रहे सुनियोजित षडयंत्रकारी अभियान इस बात का प्रमाण हैं कि हिमालय में मुनाफाखोरों की पैठ मजबूत हो चुकी है। विशेषकर दो-तीन कथित बुद्धिजीतियों की राष्ट्रीय मीडिया में बयानबाजी गौर करने लायक है। सच यह है कि उनके पास न कोई तथ्य हैं और न ही हिमालय और वहां के जीवन के बारे में कोई आधारभूत जानकारी। है भी तो वे उन पर बात नहीं करना चाहते। सबसे ज्यादा हास्यास्पद बातें पद्मश्री सम्मान को अपने सीने से लगाये कवि लीलाधर जगूड़ी ने दिल्ली से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका में लिखे लेख में की हैं। उन्होंने जलविद्युत परियोजनाओं पर एक प्रवक्ता की तरह बोलना शुरू कर दिया है। इससे कई तरह की शंकाएं होती हैं। यह वही जगूड़ी हैं जिन्होंने राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को 'उत्तराखंड पिता' कहा था। तब पहाड़ के लोगों ने कहा था कि स्वामी जगूड़ी के पिता हो सकते हैं, उत्तराखंड का ठेका वह न लें। उत्तराखंड की उस भाजपाई सरकार में उन्हें लालबत्ती से नवाजा गया था। एक बार फिर वह बांधों का समर्थन कर उत्तराखंड के स्वयंभू ठेकेदार बनना चाहते हैं।

अपने लेख में उन्होंने जो बेहूदे तर्क दिए हैं वे मजेदार हैं (देखें बाक्स) और इस बात का संकेत हैं कि जगूड़ी न आधुनिकता का अर्थ समझते हैं, न ही प्रकृति और पर्यावरण का महत्त्व। इसके बावजूद पूरे विश्वास के साथ तथाकथित विकास का समर्थन कर रहे हैं। होशो-हवाश का कोई आदमी उनकी इन बातों से सहमत हो सकता? क्या इस तरह की अवैज्ञानिक, अतार्किक और मूर्खतापूर्ण बातों को छापा जाना चाहिए था?

प्रमाणिकता को छोड़ दें तो भी स्पष्ट है कि जगूड़ी को जलविद्युत परियोजनाओं के प्रभावों की सामान्य जानकारी तक नहीं है। लगता है उन्होंने शुरुआती भूगोल भी नहीं पढ़ा है।

इन वैज्ञानिक बातों को छोडिय़े। यहां सवाल कुछ और ही है। पहली बात यह कि गंगा का सवाल पर्यावरण और आस्था का बिल्कुल नहीं है। गंगा को बचाने की बात साधु-संत कैसे करते हैं यह उनका मसला है, इससे प्राकृतिक धरोहरों को बचाने का सवाल समाप्त नहीं हो जाता। विश्व हिंदू परिषद या उनकी जैसी कोई संस्था अपने हिसाब से गंगा की बात कर रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम बांधों के समर्थक बन जाएं। असल में यह जलविद्युत परियोजनाओं और विकास के नाम पर राज्य को लूटने और लोगों को बेघर करने की साजिश है। जगूड़ी को पता नहीं कहां से इलहाम हुआ कि सुरंगों (टनलों) में जाने के बाद पानी शुद्ध हो जाता है। विद्युत परियोजनाओं के लिए जितनी भी सुरंगें बनती हैं वे पानी को शुद्ध करना तो दूर पूरे क्षेत्र की पारिस्थितिकी को भी बिगाड़ती हैं। जब कभी भी नदी के पानी के उपयोग की बात आती है तो उसे रन ऑफ द रीवर के माध्यम से उपयोग में लाया जाना ही वैज्ञानिक माना जाता है। इस तरह की परियोजनाओं से किसी को कोई ऐतराज भी नहीं है। लेकिन अभी जिन परियोजनाओं की बात हो रही है वे सभी सुरंग आधारित हैं। सभी परियोजनाओं में लंबी दूरी की सुरंगें बनायी जा रही हैं।

सुरंगों में जाकर कोई पानी शुद्ध नहीं होता है। असलियत यह है कि सुरंगों से निकलने वाला पानी नए तरह के रासायनिक तत्व अपने साथ लाता है। हिमालय की भूगर्भीय स्थिति अभी रासायनिक और भूगर्भीय हलचलों की है इसलिए सुरंगों में पानी का जाना बहुत खतरनाक है। सुरंगों को बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भारी मशीनों से यहां की भौगोलिक संरचना पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है वह छिपा नहीं है।

परियोजनाओं के समर्थकों का दूसरा बड़ा तर्क यह है कि इन विद्युत परियोजनाओं से गांवों को बिजली मिलेगी। यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है। राज्य में जो बिजली बनती है वह सेंट्रल ग्रिड में जाती है वहीं से बिजली का बंटवारा होता है। पावर हाउस से लोगों के घरों में सीधे तार नहीं खींचें जाते। कुल मिला कर राज्य को उसके हिस्से की बिजली ही मिलेती है जो बहुत कम होती है। इस संदर्भ में इस वर्ष गर्मियों में उत्तराखंड में बिजली की जो किल्लत हुई उसे याद किया जा सकता है। राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में जो बिजली की कुल खपत होती वह संभवत: उतनी भी नहीं है जितनी कि देहरादून में होती होगी। पहाड़ों में मुश्किल से ही पंखे चलते हैं। एसी तो शायद ही कहीं होंगे। उद्योगों की तो बात ही अर्थहीन है। दूसरी ओर आज भी उत्तराखंड में जितनी बिजली का उत्पादन होता है उसका वह पांच प्रतिशत भी शायद ही उपभोग करने की स्थिति में हो। तब पूरे पहाड़ी क्षेत्र में बिजली क्यों काटी जा रही थी?

अब आते हैं नौकरी के सवाल पर।

उत्तराखंड में आजादी के बाद लगभग 37 लाख लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया है। राज्य बनने के इन 12 वर्षों में ही राज्य से 19 लाख लोग स्थायी रूप से पहाड़ छोड़ चुके हैं। राज्य के पौने दो लाख घरों में ताले लटके हैं। दो साल पहले आयी आपदा ने लगभग 3,500 गांवों को अपनी चपेट में लिया। पहाड़ पर जमीनों का टूटना जारी है। इससे पलायन और तेज हुआ है। पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों ने कृषि को पूरी तरह अलाभ कारी बना दिया है। शेष जो भी छोटे-मोटे रोजगार थे सब घटे हैं। अब इन बांधों के निर्माण से पांच लाख लोगों के विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। सिर्फ पंचेश्वर बांध से ही सवा लाख लोगों का विस्थापन होगा। ये स्थितियां नयी तरह के सोच और नियोजन की मांग करती हैं पर हमारे नेता सिर्फ एक बात जानते हैं और वह है बांध बनाने की। यह सवाल है आखिर ये पद्मश्री प्राप्त बुद्धिजीवी किन की लड़ाई लडऩे में लगे हैं?

दूसरा पक्ष है बांधों के विरोध करने वालों का। इनमें साधु-संतों के अलावा पर्यावरणविद हैं। साधु-संतों को गंगा अविरल चाहिए, स्वच्छ चाहिए। गंगा को वे अपनी मां मानते हैं। दुनिया और विशेषकर योरोप के देशों में नदियों को कोई अपनी मां नहीं मानता। वहां गाय और पेड़ भी पूजे नहीं जाते हैं। बावजूद इसके वहां की नदियों को साफ रखने की संस्कृति है। हर छोटे से छोटे नाले को भी उन्होंने प्रदूषण से मुक्त रखा है। वहां के लोगों ने अपने जंगलों और जैव विविधता को बनाये रखा है, उससे नदियों को मां और पेड़ों को भगवान मानने वाले संतों को सबक लेना चाहिए। संत-महात्माओं को अभी भी अपने आस्था के दरकने की चिंता है। वे इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि जब लोग रहेंगे तभी आस्था रहेगी। वे गंगा को बचाने की बात तो करते हैं, धारीदेवी की चिंता उन्हें है लेकिन गंगा में आचमन करने और धारी देवी को पूजने वाले लोगों के बारे में वे नहीं सोचते। असल में नदियों के किनारे रहने वाले लोगों और हिमालय की जैव विविधता को बनाए रखने वाले गांवों और आबादी को बचाए रखना बहुत जरूरी है। यदि वहां के गांव खाली होते हैं तो हिमालय और गंगा को कोई नहीं बचा सकता। पिछले दो दशक से खाली होते गांवों ने इस बात को साबित भी किया है। तथ्य यह है कि कई वनस्पतियां और प्राणी ऐसे हैं जो बिना मनुष्य के नहीं रह सकते।

उत्तराखंड में मौजूदा समय में चालीस हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। ये सभी पर्यावरण संरक्षण, जंगलों को बचाने, जलस्रोतों के संरक्षण और नदियों पर काम कर रहे हैं। राज्य में सत्रह हजार गांव हैं। इस लिहाज से हर गांव में तीन एनजीओ का औसत बैठता है। इन्हें देश-विदेश से भारी पैसा मिलता है। दुर्भाग्य से जितना एनजीओ और उनके काम करने का क्षेत्र बढ़ा है उतना ही पहाड़ से पानी, जंगल और पर्यावरण गायब होता गया। इसलिए पहाड़, विकास, पर्यावरण और गंगा के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है।

मध्य हिमालय में बन रही सुरंगों को बनाने के लिए उपयोग की जा रही तकनीक ने पहाड़ों को हिला दिया है। प्रतिवर्ष मानवजनित आपदा से पहाड़ डरे-सहमे हैं। लगातार भूस्खलन और पहाड़ों के टूटने की घटनायें सामने आ रही हैं। उत्तराखंड में जहां भी बांध बन रहे हैं उसके चारों ओर 15 किलोमीटर की दूरी तक सारे जलस्त्रोत सूख गये हैं। टिहरी के पास प्रतापनगर का क्षेत्र प्रतिवर्ष अपने सैकड़ों जलस्त्रोतों को खोता जा रहा है। इन क्षेत्रों से पलायन लगातार जारी है। रही-सही कसर सरकारी योजनाओं ने पूरी कर दी है। अब पहाड़ इन बांधों से अपने ताबूत में अंतिम कील ठुकने के इंतजार में हैं। इसलिए गंगा और हिमालय के सवाल को यहां के लोगों की बेहतरी के साथ जोड़कर देखा जाना जरूरी है। सबको यह बात समझनी होगी कि हिमालय जब तक बसेगा नहीं वह बचेगा भी नहीं। गंगा को आचमन के लिए बचाने की लफ्फाजी, पर्यावरण की राजनीति और विकास के छलावे से बाहर निकलकर जनता के दर्द को समझते हुए गांवों को बचाने की पहल होनी चाहिए।

 

काव्य का स्वार्थ-विज्ञान

पद्मश्री अलंकृत और साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी कवि लीलाधर जगूड़ी इन दिनों उत्तराखंड में विकास और प्रगति के झंडाबरदारों में हैं। उन्होंने केंद्रीय सरकार को धमकी दी है कि अगर प्रदेश में भगीरथी और उसकी सहायक नदियों पर बांध बनाने शुरू नहीं किए गए तो वह पद्मश्री लौटा देंगे। उनका एक लेख 'प्रगति विरोधी इस पाखंड से लडऩा जरूरी' शीर्षक से 15 जून के साप्ताहिक शुक्रवार में प्रकाशित हुआ है। पत्रिका ने उन्हें उत्तराखंड में "उन बुद्धिजीवियों में शामिल" बताया है "जो जलविद्युत परियोजनाओं का समर्थन करते हैं। "

यहां प्रस्तुत इस लेख के चुनिंदा अंश बतला देते हैं कि उत्तराखंड में विकास की बात करनेवाले वास्तव में वहां की स्थितियों और पर्यावरण को कितना जानते हैं। प्रश्न है तो फिर वह अपना पूरा व्यक्तिव्त क्यों दांव पर लगा रहे हैं? उनकी बातों के जवाब भी (इटालिक)में साथ दिए जा रहे हैं:

1. "जो पानी चट्टानों से टकराता है, वह अगर बिजली घर की टरबाइन से भी टकरा जाए तो पानी की प्रत्येक टक्कर की सार्थकता बढ़ जाएगी। टरबाइन से टकराता हुआ नदी का पानी खुद के लिए स्वच्छ आक्सीजन (प्राणवायु) ग्रहण करता है और टरबाइन का पहिया घुमाकर विद्युत उत्पन्न कर देता है जिससे सामाजिक जीवन का अंधकार दूर हो जाता है।"

(वैज्ञानिकों का कहना है कि बांधों में रुके पानी में आक्सीजन कम हो जाती है। सुरंगों में तो आक्सीजन होती ही नहीं फिर वह उससे बहनेवाले पानी में कहां से आयेगी? मात्र टरबाइन से टकराने से उस आक्सीजन की पूर्ति कैसे हो जाएगी जो अन्यथा मीलों खुले में चलनेवाले पानी में होती है? वैसे सामाजिक जीवन का अंधकार ज्ञान से दूर होता है, बशर्ते वह सही हो।)

2. "हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि खुले आसमान से भी ब्रह्मांडीय प्रदूषण नदियों में प्रविष्ट होते रहते हैं। ब्रह्मांड की धूल भी नदियों को प्रदूषित करती है। प्रकृति में कतिपय प्रदूषणों की अत्यंत रचनात्मक भूमिका है। जल-मल के बिना अंकुरण हो ही नहीं सकता। … सारे प्रदूषण तिरस्कार योग्य नहीं हैं बल्कि कुछ प्रदूषण तो बहुत ही जीवनदायी हैं। …"

( वह क्या कहना चाहते हैं कि नदी में मल-मूत्र को जाने दिया जाए? कहां किस तरह की स्थितियां हैं और कब क्या होना चाहिए का अंतर भी न किया जाए? क्या जगूड़ी अपने पीने के पानी में भी इसी तरह के तिरस्कार के अयोग्य प्रदूषण को रखना चाहेंगे?)

3. "दुनिया की सारी नदियां समुद्रों में जाकर गिर रही हैं। क्या गंगा भी समुद्र में ही गिरने के लिए पृथ्वी पर आई है? नहीं, मैं तो कहूंगा बिहार और बंगाल के बीच गंगा को समुद्र में जाने से रोको और उसे पंजाब, राजस्थान और गुजरात की ओर मोड़ दो। भारत के पश्चिम से उसे कर्नाटक की तरफ मोड़ो और उसके बाद केरल, मुंबई और चेन्नई में ले जाकर धनुषकोटि के समुद्र में डाल दो। तब गंगा संपूर्ण भारत की भाग्यलिपि बन सकती है।"

(अगर जगूड़ी केरल से मुंबई और फिर चेन्नई जाना चाहते हैं तो हम उनके भौगोलिक ज्ञान पर कुछ कहना उचित नहीं समझते, पर यह प्रश्न जरूर पूछना चाहेंगे कि वह आखिर गंगा को सारे देश में क्यों ले जाना चाहते हैं? उन्हीं कारणों से जिनके चलते वह संतों के पाखंड की आलोचना कर रहे हैं? इस तरह की दुविधा के और भी संकेत उनके लेख में देखे जा सकते हैं। वरना क्या वह बतलाएंगे कि गंगा में कितना पानी है जो सारे भारत में जाता रहेगा? उन्हें पता नहीं है कि गंगा के कारण उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल ही नहीं बल्कि बांग्लादेश का जनजीवन चलता है? इसके बिना यह पूरा क्षेत्र रेगिस्तान में बदल जाएगा। आशा है उन्होंने सुंदरवन के बारे में सुना होगा।

इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रकृति की हर स्वाभाविक स्थिति का अपना महत्त्व है। कोई पहाड़ कहां है, कोई नदी किसी दिशा में क्यों बह रही है, इससे भौगोलिक ही नहीं मानव सभ्यता, उसका समाज और संस्कृति जुड़ी होती है। इस तर्क से तो वह कल को कहने लगेंगे कि नंदादेवी पर्वत को काटकर मध्यभारत में रोप दिया जाए इससे पूरा भारत ठंड का आनंद उठा सकेगा। कोई इस तरह की बेसिर-पैर की बातें कर सकता है ,यह अपने में आश्चर्यजनक है।)

4. "नदी और पानी के बारे में कई तरह के अंधविश्वास दूर करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए गंगा को लें जो कि हिममूल (ग्लेशियर) से उत्पन्न होती है। हिमालय पर्वत का हिमाच्छादित भू-भाग बर्फ की शीतलता से जलकर काला पड़ जाता है। वहां तृण भी नहीं उग सकता। अब बताइए उसमें औषधीय गुण कहां से आ जाएंगे?"

(कवि जी यह कह रहे हैं कि गंगा में कोई विशिष्ट तत्त्व नहीं हैं। माना नहीं हैं। पर तब क्या यह गलत है कि अभी कुछ दशक पहले तक गंगा का पानी वर्षों रखने के बाद भी खराब नहीं होता था?

दूसरी बात, जिस पर रोना आता है, वह यह है कि गंगा चूंकि ग्लेशियर से निकलती है इसलिए उसमें कोई औषधीय गुण नहीं हैं। उसमें औषधीय गुण हैं या नहीं यह दीगर बात है, प्रश्न यह है कि क्या गंगा में सिर्फ वही पानी रहता है जो गोमुख के ग्लेशियर से निकलता है? या क्या इसमें सिर्फ वही नदियां मिलती हैं जिनका उद्गम ग्लेशियर हैं? बच्चा भी जानता है कि हर बड़ी नदी में कई तरह के छोटे-बड़े नदी-नाले मिलते हैं। इसलिए यह कहना कि चूंकि गंगा ग्लेशियर से निकलती है इसलिए इसमें औषधीय तत्त्व नहीं होते, बल्कि उन नदियों में होते हैं जो ग्लेशियरों से नहीं निकलतीं, क्या वाजिब बात है? क्या यह तर्क संगत है कि औषधीय तत्व सिर्फ वनस्पतियों में होते हैं विभिन्न किस्म की उन चट्टानों के खनिजों में नहीं, जिन से होकर पहाड़ी नदियां गुजरती हैं।)

5. "टनलों में डालने से पानी ब्रह्मांडीय धूल के प्रदूषण से बचा रहता है। नहरों में आसपास का सारा कूड़ा उड़कर आ जाता है। सबसे स्वच्छ, निर्मल और पवित्र पावर हाउस की टरबाइन से निकलनेवाला जल होता है। उसमें प्रदूषण का एक भी कण नहीं होता। पॉवर हाउस की टनल और टरबाइन आधुनिक वैज्ञानिक विधि से बनाई जाती हैं।"

(इस तर्क से तो दुनिया की नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए टनलों में डाल दिया जाना चाहिए। अजीब बात है कि टनल और नहर का अंतर ही लेखक को मालूम नहीं है। नहरें सिंचाई के लिए होती हैं न कि टरबाइन चलाने के लिए। फिर आधुनिक विधि से बनी हर चीज बेहतर होती है यह कैसे मान लिया जाए? टरबाइन से ज्यादा आधुनिकता से तो परमाणु ऊर्जा पैदा करने के उपकरण बनते हैं, इस लिहाज से तो परमाणु संयंत्रों के कूड़े को जरा भी हानिकारक नहीं होना चाहिए।)


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THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER

http://youtu.be/NrcmNEjaN8c The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today. http://youtu.be/NrcmNEjaN8c Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program ______________________________________________________ By JIM YARDLEY http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk