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Sunday, January 29, 2012

ईश्वर और उनके पैगंबरों को लठैतों की जरूरत नहीं!

ईश्वर और उनके पैगंबरों को लठैतों की जरूरत नहीं!



ईश्वर और उनके पैगंबरों को लठैतों की जरूरत नहीं!

28 JANUARY 2012 3 COMMENTS
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♦ प्रकाश के रे

बंदगी हमने छोड़ दी है फराज
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएं
……………………………अहमद फराज

ईश्वर और उसके पैगंबरों को अपनी रक्षा के लिए लठैतों की जरूरत नहीं है…
……………………………………………………………………विक्रम सेठ


लमान रश्दी के जयपुर आने और उनकी किताब 'द सेटैनिक वर्सेस' पर बहस और बवाल पर तीन लोगों – मार्कंडेय काटजू, विनोद मेहता और शीबा असलम फहमी – के बयान मेरे लिए बड़े चौंकाने वाले हैं। जब सवाल अभवि्यक्ति और आवागमन की स्वतंत्रता का है, तब रश्दी, उनके लेखन की गुणवत्ता और विषय-वस्तु पर सवाल उठा कर ये उदारवादी एक खतरनाक खेल कर रहे हैं। इनके तर्कों से असहिष्णु तबकों को बल मिला है और मुद्दे की व्यापकता संकीर्ण हुई है। दरअसल इन उदारवादी टिप्पणीकारों को इस मौके का इस्तेमाल ब्लासफेमी/ईश-निंदा के विभिन्न आयामों को समझने-समझाने के लिए करना चाहिए था, जिसके आधार पर यह खेला जा रहा है। अफसोस की बात है कि किसी भी लोकतांत्रिक-जनवादी जमात ने भी उन कवानीन और समझदारियों पर सवाल नहीं उठाया, जिनकी आड़ में रश्दी रोको अभियान की उछल-कूद को अंजाम दिया गया। मीडिया से ऐसी बहस की उम्मीद तो बेकार ही है।

पहले भी ऐसा कई बार हुआ और जिनके ऊपर बड़ी जिम्मेदारियां थीं, वे तब भी इधर-उधर बात बनाते रहे। अगर समझदारों ने मुक्तिबोध की बात को ठीक से समझा होता, तो आज तक उनकी किताब हिंदुस्तान में प्रतिबंधित नहीं होती, हुसैन को परदेस में शरण नहीं लेनी पड़ती और रश्दी को भी हम पढ़-सुन पाते। 1950 के दशक में मुक्तिबोध ने चेताया था कि फासिस्ट ताकतें आपकी कलम छीन लेंगी। तब उनकी किताब पर रोक लगा दी गयी थी, जो आज तक जारी है। उसी दशक में ऑब्रे मेनेन की रामायण पर लिखी किताब भी रोक दी गयी थी। तब से अब तक ब्लासफेमी/ईश-निंदा और आस्था पर चोट के नाम पर पाबंदियों का बेलगाम सिलसिला चलता आ रहा है। कम-से-कम अब तो हम बिना किसी चालाकी और लाग-लपेट के सोचें और किसी ठोस समझदारी तक पहुंचें। इस लेख में मेरी कोशिश होगी विभिन्न देशों में लागू ईश-निंदा के कवानीन और उनके असर को समझने की।

सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि ब्लासफेमी का कोई धार्मिक आधार नहीं है। किसी भी धर्म के मूल ग्रंथों में इस 'अपराध' का उल्लेख तक नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि प्राचीन काल से आजतक इस आधार पर आम लोगों से लेकर सत्य की खोज में लगे महान लोगों को प्रताड़ित किया जाता रहा है। ईसा मसीह को सलीब पर चढ़ाया गया ब्लासफेमी के आरोप में। पैगंबर मोहम्मद को मक्का छोड़ कर जाना पड़ा था इसी कारण। जब तुलसी ने अवधी में राम की कथा लिखी, तब बनारस के पंडितों ने आसमान सर पर उठा लिया कि राम की कथा तो बस 'देवभाषा' में ही रची जानी चाहिए। जब स्वामी वविेकानंद विदेश गये, तो उन्हें समुद्र यात्रा के कारण धर्म से बाहर कर दिया गया। असल में धर्म के धंधे और राज्य के षड्यंत्र ने ईश-निंदा का सहारा लेकर अपनी सत्ता को मजबूत किया है।

कट्टरपंथियों और धर्मांधों के तर्कों पर बात करना समय की बर्बादी है। अफसोस उन समझदारों पर होता है, जो ब्लासफेमी और धर्म के अपमान के विरुद्ध कानूनों की तरफदारी यह कहते हुए करते हैं कि भेदभाव, असहिष्णुता, हिंसा रोकने और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए ऐसे कानून जरूरी हैं। अगर हम दुनिया भर में ऐसे कानूनों के अंतर्गत की गयी कार्रवाइयों के आंकड़ों पर नजर डालें, तो एक भयावह तस्वीर उभरती है। यहां मैं उन प्रताड़नाओं की लंबी सूची नहीं दे रहा हूं, जिनमें मौत और लंबे कारावास की सजाएं शामिल हैं। इनकी संख्या हर साल सैकड़ों में है। कुछ चुनिंदा मामलों के जिक्र भर से ईश-निंदा के विरुद्ध कानूनों की कलाई खुल जाती है।

पिछले साल पाकिस्तान में आठ साल की ईसाई बच्ची को स्कूल से निकाल कर मुकदमा कर दिया गया। उसका 'अपराध' यह था कि उसने उर्दू की परीक्षा में पैगंबर की प्रशंसा में कविता लिखते हुए एक जगह वर्तनी की गलती कर दी थी। सुरक्षा कारणों से बच्ची और उसका परविार अज्ञात स्थान पर छुप कर रह रहे हैं। सितंबर की चौबीस तारीख को जब इस बच्ची को स्कूल से निकाला जा रहा था, उसी दिन कुवैत में सुन्नी मुबारक अल-बथाली को ट्विटर पर शिया विरोधी पोस्ट करने के कारण तीन साल के कैद की सजा दी जा रही थी। अगस्त में दो हिंदू शिक्षकों को पैगंबर के अपमान के आरोप में नौकरी से निकाल दिया गया। भीड़ ने इनके घरों पर हमला कर इन्हें भागने पर भी मजबूर कर दिया। जुलाई में एक पाकिस्तानी अदालत ने एक युवक को मोबाइल पर धर्मविरोधी बात करने और संदेश भेजने के आरोप में मौत की सजा सुनायी।

ऑस्ट्रिया की एलिजाबेथ इस्लाम पर दिये भाषणों के कुछ अंशों के कारण धार्मिक अवमानना और विद्वेष के आरोप में दर्ज मुकदमे का सामना कर रही हैं। फलस्तीन के ब्‍लॉगर वालीद नास्तिक होने के कारण डेढ़ साल से कैद हैं और उन्हें वकील नहीं करने दिया जा रहा है। यदि उन पर नास्तिकता का आरोप साबित हो जाता है, तो उन्हें उम्रकैद की सजा हो सकती है। ईरान के ब्‍लॉगर हुसैन दरख्शां को 2010 के सितंबर में उन्नीस साल से अधिक कैद की सजा दी गयी। उल्लेखनीय है कि हुसैन फारसी में ब्‍लॉग की शुरुआत करनेवालों में से हैं। पोलैंड की संगीतकार दोरोता पर एक टेलीविजन इंटरव्यू में बाइबिल के अपमान का आरोप है, जिसके साबित होने पर उन्हें जुर्माने के साथ दो साल की सजा हो सकती है।

मार्च 2010 में मलेशिया में मुस्लिम महिलाओं के एक संगठन सिस्टर्स इन इस्लाम ने तीन महिलाओं को कोड़े मारे जाने के खिलाफ बयान दिया कि यह असंवैधानिक है। मलेशिया में शरिया के अनुसार कोड़े की सजा का प्रावधान है। इस बयान के बाद संगठन के खिलाफ पचास से अधिक मुकदमे दर्ज किये गये और इसके नाम से इस्लाम शब्द हटाने की मांग की गयी। इसी समय एक अखबार के खिलाफ कोड़े की सजा पर सवाल उठाने के लिए मुकदमा चलाया गया। जॉर्डन के युवा कवि इस्लाम समहाम को धर्म-विरोधी कविताएं लिखने के आरोप में 2009 में गिरफ्तार किया गया। इसी साल मिस्र में कवि सालेम को ब्लासफेमी का दोषी पाया गया और उनकी कविता छापने वाली लघु साहित्यिक पत्रिका इब्दा को बंद कर दिया गया। इसी साल प्रसिद्ध ईरानी गायक और संगीतकार मोहसिन नम्जू को पांच साल की सजा दी गयी, हालांकि देश के बाहर होने के कारण वह बचे हुए हैं। 2009 में ही अफगानिस्तान के दो पत्रकारों को धर्म-विरुद्ध कार्टून छापने के लिए मौत की सजा दी गयी लेकिन देश छोड़ने के बदले उस पर अमल नहीं किया गया।

ऐसे हजारों मामले हैं और सैकड़ों मामले ऐसे हैं, जिनमें हिंसक भीड़ ने आरोपियों और उनके रिश्तेदारों पर हमला किया और उनके घर तबाह किये। समय-समय पर मानवाधिकार संगठन ऐसे मामलों का विवरण देते रहते हैं, जो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।

इससे पहले कि हममें से कुछ इस बात पर खुश होने लगे कि हमारे यहां ऐसा नहीं होता, यह जानकारी देते चलें कि 2010 में मायावती सरकार के चार मंत्रियों और पांच अन्य लोगों पर हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मुकदमा दर्ज किया। उन पर आरोप है कि उनकी पत्रिका अंबेडकर टुडे में हिंदू रीति-रिवाजों की आलोचना की गयी। इसी साल केरल में प्राध्यापक टीजे जोसेफ का हाथ काट लिया गया और पुलिस ने उन पर मुकदमा भी कर दिया। यह भी जानना दिलचस्प है कि पाकिस्तान में ब्लासफेमी के अपराध धारा 295 के अंतर्गत आते हैं, भारत में भी धारा 295 के अंदर ही उनकी व्यवस्था है। हद देखिए, श्रीलंका में बौद्ध धर्म के अपमान पर कठोर दंड का प्रावधान है।

ऐसे मामलों की पड़ताल से साफ होता है कि इन कानूनों का उपयोग अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने, राजनीतिक विरोधियों का दमन करने, बदला लेने आदि के लिए किया जाता है। पिछले साल मार्च में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने सराहनीय कदम उठाते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें धर्म या धार्मिक विचारों के बहाने की जा रही हिंसा और दमन को रोकने की बात कही गयी है। इसमें धार्मिक अवमानना के सारे संदर्भों को हटाते हुए व्यक्ति और खुले बहस-विमर्श के रक्षा का आह्वान है। प्रस्ताव का संकल्प है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोशिश होनी चाहिए कि मानवाधिकारों और धार्मिक वैविध्य पर आधारित शांति और सहिष्णुता को मजबूती मिले। इसमें नेताओं से खुलकर आगे आने और विभिन्न विचारों के बीच आदान-प्रदान को बढ़ावा देने की जरूरत पर बल दिया गया है। सवाल रश्दी के लेखन और पैंतरे पर नहीं है। सवाल हमारी चुप्पी और चालाकी पर है।

(प्रकाश कुमार रे। सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के साथ ही पत्रकारिता और फिल्म निर्माण में सक्रिय। दूरदर्शन, यूएनआई और इंडिया टीवी में काम किया। फिलहाल जेएनयू से फिल्म पर रिसर्च। उनसे pkray11@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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3 Comments »

  • sujit sinha said:

    ish ninda jaise shabdon ka prayog hamesh satta varg ne apni majbooti ko banaye rakhne ke liye hi kiya hai. itihas gawah hai ki abhivyakti ki hawa kabhi bhi shashak varg ko raash nahi aayee. hamesha ishwar aur aastha ke naam per kewal noutanki hui hai. tajatarin ghtna bas usi kari ki ek bangi hai. aam janta chahe we kisi bhi desh ko ho unehe basic subidhawon ki jaroorat hoti hai n ki dherm aur darshan ki. kachre chunne wale bache me hindu bhi hote hain aur muslman bhi ya anya dherm ke log bhi. unehe in baaton se kya sarokar? ye chutiye wali baaten to wahi kar sakte hain jiske pet me pahle se hi malpua pare ho aur apne pote -potiyon ke liye Mac-d ke treat ki bhi vyawastha karni hai aue "ELITE" kahlna hai.

  • meenu jain said:

    …..vaise Vinid Mehata or Sheeba Fehami ne kaha kyaa thaa Jaipur Lit festival ke douraan Rushdie ke baare mein . media mei Mehta or Fehami ke bayaan padhane ko nai mile

  • dr anurag said:

    यही विडंबना है समकालीन सन्दर्भ को समझे बगैर अतिरिक्त उत्साह ओर अधीरता से विषय या उससे जुडी पहली प्राथमिकता को जरूरी बहस से मोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण परम्परा है ..या कहूँ बुद्धिजीवियों में फैशन है .अरुंधति इससे पहले ग़ुलाम नबी फाई के सिलसिले में ये कारनामा कर चुकी है .ऐसा लगता है बहुत से लोगो के पूर्वाग्रह अनुपस्थित रहते हुए भी उपस्थित रहते है ओर वे उनके विचारो का हाईजेक करते है ओर वे ",इस्तेमाल"हो जाते है .

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