पलाश विश्वास
रीटेल एफ डी आई से कारोबार पर विदेशी पूंजी काबिज और किसान बंधुआ मजदूर।
सरकारकी मेहरबानियों का लाभ उठाते हुए दैत्याकार अमरीकी बहुराष्ट्रीय खुदरा व्यापारी वालमार्ट के 2006 में सुनील मित्तल की कम्पनी भारती इन्टरप्राइजेज के साथ गठजोड़ करके भारत के बाजार में दाखिल होने का ऐलान किया था। चूंकि खुदरा दुकान खोलने की इजाजत विदेशी कम्पनी को नहीं थी। इसलिए वालमार्ट को पृष्टभूमि में रहकर आपूर्ति और अन्य जिम्मेदारियाँ निभानी थी। इन देशी-विदेशी सरमायादारों ने आजादी की 60वीं वर्षगाँठ पर 15 अगस्त 2007 को ही देश के विभिन्न शहरों में लगभग 100 खुदरा बिक्री केन्द्रों की शुरूआत करने का फैसला लिया था।
लगभग पाँच वर्ष पहले ही वालमार्ट ने भारत में अपना बिजनेस डेवलमेन्ट एण्ड मार्केट रिसर्च ऑफिस खोला था। इसका मकसद भारत के खुदरा व्यापार में मुनाफे का अनुमान लगाने के अलावा यहाँ नेताओं, मंत्रियों, आला अफसरों, अर्थशास्त्रिायों और मीडिया से तालमेल बिठा कर खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना था। साथ ही, अमरीकी सरकार भी भारत सरकार पर लगातार इसके लिए दबाव देती रही। इन सारी बातों को देखते हुए सरकार का यह फैसला कोई अप्रत्याशित नहीं।
योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेकसिंह अहलूवालिया ने कहा कि देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और शेयर बाजार में विदेशी पूँजी प्रवाह को फिलहाल नियंत्रित करने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि विदेशी पूँजी प्रवाह और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश इस स्तर पर नहीं है जिसे लेकर चिंता की जाए।
अहलूवालिया औद्योगिक और विकासशील देशों के संगठन जी-20 के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल पहुँचे हैं।
अमेरिकी फेड रिर्जव की ओर से 600 अरब डॉलर के सरकारी बौंड खरीदने से अमेरिका जैसी विकसित अर्थव्यवस्था की सस्ती पूँजी भारत और ब्राजील जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ओर मुड़ने का खतरा पैदा हो गया है। ऐसे में जी 20 सम्मेलन में कई देशों की ओर से अमेरिकी फेड रिजर्व के कदम पर विरोध जताने की आंशका है।
अहलूवालिया ने कहा कि जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत राय है देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी पूँजी प्रवाह को नियंत्रित करने के मौजूदा नियमों में बदलाव की आवश्यकता नहीं है।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बुधवार को कहा कि विदेशी संस्थागत निवेशकों की ओर से देश के शेयर बाजारों में किया जा रहा भारी मात्रा में निवेश कोई चिंता का विषय नहीं है और यदि इससे कोई विकृति दिखी तो ही उसके खिलाफ कदम उठाए जाएँगे।
भारत का कुल खुदरा व्यापार लगभग 25,00,000 करोड़ रुपये है जिसमें भारी हिस्सा छोटे-बड़े किराना दुकान, फड-खोखा, ठेला-खोमचा, हाट-व्यापार या फेरी वालों का है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2009-10 के अनुसार थोक और खुदरा व्यापार में 4 करोड़ 40 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है जो कुल श्रमशक्ति के 10 फीसदी से भी अधिक है। इनमें से बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो स्वरोजगार में लगे हुए हैं। इन लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए तेजी से फलफूल रहे खुदरा व्यापार पर पहले ही बड़ी कम्पनियों के मेगामार्ट, सुपर बाजार और बडे़ मॉल की घुसपैठ शुरू हो गयी थी। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में मित्तल, अम्बानी, टाटा, बिड़ला जैसे इजारेदार घरानों की दिलचस्पी काफी बढ़ी है। इसके बीच कई खुदरा कम्पनियों के विलय और गठजोड़ भी हुए हैं।
विदेशी पूंजी निवेश को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है – पोर्टफोलियो निवेश और प्रत्यक्ष निवेश (FDI ) । विदेशी पूंजी का लगभग आधा हिस्सा पोर्टफोलियो निवेश के रूप में आ रहा है,अर्थात यह हमारे शेयर बाजार में शेयरों की खरीद-फरोख्त करने और सेयरों की सट्टेबाजी से कमाई करने आती है । अभी जब सेन्सेक्स दस हजार से ऊपर पहुंचता है,वह इसीका कमाल है । इस प्रकार,यह पूंजी तो सही अर्थों में देश के अन्दर आती ही नहीं है । इससे देश में कोई नया रोजगार नहीं मिलता या नई आर्थिक उत्पादक गतिवि्धि चालू नहीं होती है। बल्कि , शेयर बाजार में आई यह विदेशी पूंजी बहुत चंचल और अस्थिर होती है । यह कभी भी वापस जा सकती है और पूरी अर्थव्यवस्था को संकट में डाल सकती है ।
नील की खेती के तर्ज पर विदेशीकंपनियों के मर्जी मुताबिक फसलें तैयार होंगी। नकदी के लिए अनाज की उपज बंद और भुखमरी की नौबत । इस पर तुर्रा यह कि दूसरी हरित क्रांति की वजह से खेती की लागत इतनी ज्यादा बढ़जाएगी कि किसान निवेशक कंपनियों और कर्जदाताओं के हुक्म के पाबंद होंगे।दरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत का निर्णय केंद्र सरकार ने ऐसे समय किया जिस समय वह मूल्यवृद्धि और काले धन पर संसद में घिरी हुई थी।इसके साथ ही उसने विपक्ष के साथ टकराव का एक और मोर्चा खोल दिया है। उसके इस निर्णय की दो व्याख्याएं हो सकती हैं। पहली यह है कि केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि संसद सही तरीके से चले और वह टकराव के लिए विपक्ष को उकसाने की नीति अपना रही है। खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी निवेश की इजाज़त दिए जाने के केंद्रीय मंत्रिमंडल के फ़ैसले के बादपचासी फीसद मूलनिवासी किसान खेती से बेदखल होकर बेरोजगार होकर भूखों मरेंगे और उपभोक्ताओं को वालमार्ट से खाना तो नहीं मिलेगा? छोटाकारोबार और हाट बाजार,हाकर और ठेले रेहड़ बंद हो जाएंगे। सत्तावर्ग के हितों के बलि होंगेसौ करोड़ लोग। विरोध करने वाले ब्राह्मणवादी पार्टियों की संसदीय नौटंकी या हड़ताल और अन्ना ब्रिगेड का अनशन दरअसल इसी एजंडे को अंजाम देने का खेल है।
मनमोहन सिंह सरकार ने आखिरकार खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत दे दी। सरकार का यह फैसला इस कारोबार से अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले करोड़ों परिवारों के लिए तबाही और बर्बादी का फरमान है। अनेक ब्राण्ड वाले खुदरा व्यापार में पहले विदेशी पूँजी का प्रवेश वर्जित था, वहाँ अब 51 फीसदी पूँजी निवेश के साथ विदेशी नियंत्रण की छूट हो गयी। एक ब्राण्ड वाली दुकानों में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा 51 फीसदी थी जिसे हटा कर अब 100 फीसदी पूँजी निवेश की इजाजत दे दी। विपक्षी पार्टियों और खुद अपने ही गठबन्धन के कुछ सहयोगी पार्टियों के विराध को पूरी तरह नजरन्दाज करते हुए सरकार ने यह फैसला मंत्रीमंडल की बैठक में लिया। संसद का सत्र जारी होने के बावजूद उसने इस मुद्दे पर बहस चलाने की औपचारिकता भी पूरी करना भी जरूरी नहीं समझा। सरकार की साम्राज्यवाद परस्ती और विदेशी पूँजी के प्रति प्रेम को देखते हुए यह कोई अचरज की बात नहीं।
गौरतलब है कि खुदरा में विदेशी निवेश की इजाजत से संसद सात दिनों से ठप है। आज सड़क पर भी पूरी ताकत से इसका विरोध होगा। अमरीका और यूरोप के विकसित देशों में और चीन जैसे विकासशील देशों में ऐसा कई वर्षों से लागू है. लेकिन क्या इससे भारतीय उपभोक्ता, छोटे दुकानदार, छोटे किसान को भी फ़ायदा होगा?
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कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि भारत का खुदरा बाज़ार विदेशी बाज़ारों से अलग है. भारत के 450 अरब डॉलर की लागत के खुदरा बाज़ार का 90 फ़ीसदी से भी ज़्यादा असंगठित है.
दोसौसाल पहले नील की खेती के जरिए भारत ने यह तबाही देखी थी और तब किसानों ने इसके खिलाफ जबरदस्त विद्रोह किया था। १८११ में जनमें मूलनिवासी महापुरूष हरिचांद ठाकुर नें इस किसान आंदोलन का पूर्वी बंगाल में नेतृत्व किया था और नीलकोठी के खिलाफ मोर्चा संभाला था। इन्हीं हरिचांद ठाकुर ने ब्राहमणवादी धर्म को खारिज करके मूलनिवासी धरम की स्तापना स्थापना की थी मतुआ धर्म। इनके चे गुरुचांद ठाकुर ने भी किसानों की समस्याओं पर आंदोलन किया था। जिस भूमि सुधार का श्रेय बंगाली माक्सवादियों को दिया जाता था. उसके लिए दरअसल गुरुचांद ठाकुरने ही आंदोलन चलाया था, जिन्होंने स्वराज आंदोलन में शामिल होने का गांधी का न्यौता यह कहकर ठुकरा दियाथा कि यह ब्राह्मणोकी आजादी और मूलनिवासियों को गुलाम बनाने का आंदोलन है। हरिजांद ठाकुर ने समकालीन महात्मा ज्योतिबा फूले की तरह अस्पृश्यताविरोधी और शिक्शा आंदोलन चलाया तो गुरुचांद ठाकुर ने मशहूर चंडाल आंदोलन। चंडाल आंदोलन की वजह से बंगाल में सबसे पहले अश्पृश्यता उन्मूलन हो गया। इन्ही गुरुचांद ठाकुर के दो चेलो महाप्राण जोगेन्द्र नाथ मंडल और मुकुमद बिहारी मल्लिक ने बाबा साह बअंबेडकर संविधान सभा में चुनकर भेजा।
खुदरा क्षेत्र में सीधे विदेशी निवेश की इजाजत संबंधी केंद्र सरकार के फैसले के विरोध में गुरुवार को देशभर में कारोबार बंद रखने का आह्वान किया गया है। बंद का आह्वान कन्फैडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) ने किया है। इसे 10 हजार व्यापारिक संगठनों ने समर्थन दिया है। इसे भाजपा, बसपा आदि राजनीतिक संगठनों ने भी समर्थन दिया है। खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के विरोध में व्यापारियों की ओर से भारत बंद के मद्देनजर पूरे देश के बड़े नगरों में इसका व्यापक असर देखा गया। राजधानी दिल्ली, कोलकाता, मुंबई समेत सभी राज्यों में दुकानें बंद देखीं गईं। व्यापारियों के इस विरोध प्रदर्शन में भाजपा भी शामिल है। भाजपा कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में कम से कम 20 स्थानों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुतले ...फुंके।
खुदरा व्यापार में विदेशी सरमायादारों की हिस्सेदारी और नियंत्रण की पूरी तरह इजाजत देने के लिए सरकार पर लम्बे अरसे से विदेशी दबाव पड़ रहा था। अमरीका और यूरोप में मंदी और संकट के गहराते जाने के साथ ही यह बेचैनी और भी बढ़ती गयी। जॉर्ज बुश की भारत यात्रा के समय दुनिया का विराट खुदरा व्यापारी कम्पनी वालमार्ट का प्रतिनिधि भी यहाँ आया था और दोनों देशों के पूँजीपतियों के साझा प्रतिनिधि मंडल ने उस वक्त सरकार को जो माँगपत्र पेश किया था, उसमें खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी निवेश की जबरदस्त सिफारिश की गयी थी। सरकार उस दौरान ही इसके लिए तत्पर थी। लेकिन अपने गठबन्धन के प्रमुख सहयोगी, वामपंथी पार्टियों के विरोध को देखते हुए इस काम को एक झटके में कर डालना उसके लिए आसान नहीं था। इसी लिए सरकार ने इस एजन्डे को टुकड़े-टुकड़े में और कई चरणों में पूरा करने की रणनीति अपनायी। अनाज और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की थोक खरीद-बिक्री में विदेशी पूँजी लगाने की छूट देना, कोटा-परमिट-लाइसेंस की समाप्ति, वैट लागू करके पूरे देश में बिक्री कर को सरल और समरूप बनाना, सीलिंग के जरिये आवासीय इलाकों से दुकानें हटवाना, छोटे-बड़े शहरों में मॉल, मार्केटिंग कॉमप्लेक्स और व्यावसायिक इमारतों के लिए पूँजीपतियों को सस्ती जमीनें मुहैया कराना और ऐसे ही ढेर सारे उपाय इसी दिशा में उठाये गये कदम हैं। इसी के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के उपभोक्ता वस्तुओं के थोक व्यापार, रखरखाव, भंडारण, कोल्डस्टोरेज, फूड प्रोसेसिंग, माल ढुलाई और आपूर्ति जैसे खुदरा व्यापार के लिए जरूरी और सहायक कामों में सरकार ने सौ फीसदी विदेशी पूँजी निवेश की पहले ही इजाजत दे दी थी।
खुदरा व्यापार में केंद्रीय मंत्रिमंडल के 51 प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश को इजाज़त देने के फ़ैसले पर सरकार और विपक्ष के बीच गतिरोध जारी है और संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही लगातार छठे दिन नहीं चल पाई है.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येजुरी, त्रिणमूल कांग्रेस के सूदीप बंदोपाध्याय और बहुजन समाज पार्टी के सतीश मिश्र ने पत्रकारों को बताया कि पूरे विपक्ष ने एकजुट होकर कहा कि सरकार इस फ़ैसले को वापस ले.
उन्होंने ये भी बताया कि सरकार की ओर से वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का कहना था कि वे प्रधानमंत्री और केबिनेट को इन आपत्तियों के बारे में अवगत कराएँगे लेकिन इस बारे में फ़ैसला लेने में कुछ देर लग सकती है.
एनडीए के घटक दलों और वाम दलों समेत विपक्ष एकजुट दिखा तो यूपीए के सहयोगी दलों में दरारें नज़र आईं.
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महंगाई और काले धन के बाद आज बहस का मुद्दा था खुदरा व्यापार क्षेत्र में एक से ज़्यादा ब्रांड के लिए एफ़डीआई को दी गई मंत्रिमंडल की मंज़ूरी.
इस मुद्दे पर सरकार की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में मामला सुलझाने का प्रयास हुआ लेकिन विपक्ष अपनी बात पर अड़ा रहा.
बंगाल में हरिचांद गुकुचांद ठाकुर, केरल में अय्यनकाली और महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबा फूले और लोखांडे ने जिसतरह किसानों मजदूरों को संगछित करके हुकूमत को झककने को मजबूर करके बामहणों के हर मकसद को नाकाम किया, उसी तरह आर्थिक सुधार, विनिवेश, विदेशी पूंजी और एफडीआई के खिलाफ राष्ट्रीय मूलनिवासी किसान मजदूर आंदोलन के जरिए ही हम इस तबाही को रोक सकते हैं। बाहमणों के संसदीय फरेब में फंसकर हम महज अपनी बेदखली और तबाही को अनिवाऱय बना रहे हैं।
देशप्रेम के स्थान पर विदेश प्रेम तथा आम जनता के स्थान पर कंपनियों के हितों को बढ़ाना – यही भूमंडलीकरण की नई व्यवस्था का मर्म है । इस अंधे विदेश प्रेम ने हमारे मंत्रियों , अधिकारियों , विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की सोचने की शक्ति को भी कुंद कर दिया है । पिछले पन्द्रह वर्षों से उन्होंने मान लिया है कि देश का विकास विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों से ही होगा । विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए और खुश करने के लिए भारत की सरकारों ने पिछले पन्द्रह वर्षों में सारी नीतियाँ और नियम-कानून बदल डाले । पिछले पन्द्रह वर्षों में हमारी संसद तथा विधानसभाओं ने कानूनों में जितने संशोधन किए हैं और नए कानून बनाए हैं , उनकी जाँच की जाए तो पता लगेगा कि ज्यादातर परिवर्तन विदेशी कंपनियों के हित में तथा विदेशी कंपनियों के कहने पर किए गए हैं । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष , विश्व बैंक , एशियाई विकास बैंक , विश्व व्यापार संगठन , अमरीका सरकार या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर ये परिवर्तन किए जा रहे हैं । देश की जनता कोई मांग करती है तो सरकार को साँप सूँघ जाता है या या वह लाठी – गोली चलाने में संकोच नहीं करती है । लेकिन विदेशी कंपनियों की मांगें वह एक – एक करके पूरी करती जा रही है ।
गौरतलब है कि जिस विदेशी पूँजी को लाने और खुश करने के लिए नीतियों-कानूनों में ये सारे परिवर्तन किए जा रहे हैं और जिस पर ही सरकार की , योजना आयोग की , सारी आशाएं केन्द्रित हैं,वह विदेशी पूंजी अभी भी देश में बहुत मात्रा में नहीं आ रह है । उसकी मात्रा धीरे-धीरी बढ़ी है ,लेकिन पिछले पांच वर्षों का भी औसत लें , तो भारत के कुल घरेलू पूंजी निर्माण में उसका हिस्सा ४-५ प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पाया है । मात्र ४-५ प्रतिशत पूंजी के लिए हम अपनी सारी नीतिय्यँ कानून बदल रहे हैं और देश को विदेशियों के कहने पर चला रहे हैम , क्या यह उचित है? यह सवाल पूछने का सम्य आ गया है।
'मल्टी-ब्रांड' खुदरा व्यापार में एफ़डीआई को हरी झंडी
वालमार्ट जैसी कंपनियों को भारत में कारोबार की इजाज़त मिल सकती है
भारत के मंत्रिमंडल ने आर्थिक सुधारों में एक बड़ा फ़ैसला करते हुए खुदरा व्यापार क्षेत्र में एक से ज़्यादा ब्रांड के लिए विदेशी पूँजी निवेश (एफ़डीआई) को हरी झंडी दिखा दी है.
भारत के सरकारी टेलीविज़न दूरदर्शन के मुताबिक कैबिनेट की बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है.
इस फ़ैसले के बाद दुनिया के कई बड़े खुदरा ब्रांड जैसे वालमार्ट, टेस्को इत्यादी को भारत में अपनी दुकानें खोलने का मौक़ा मिल सकता है.
जहाँ कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने एनडीटीवी के साथ बातचीत में इस फ़ैसले को 'वाजिब' ठहराया है, वहीं विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने इसी चैनल के साथ बातचीत में इसकी कड़ी आलोचना की है.
इससे सुपरमार्केट्स को भारत के अनुमानित 450 अरब डॉलर के इस क्षेत्र में काम करने का मौक़ा मिल जाएगा.
भीषण बहस
पर्यवेक्षकों के मुताबिक भारतीय अर्थव्यव्स्था में पहले की तुलना में आ रही सुस्ती और महँगाई को देखते हुए पिछले दिनों इस विषय पर बहस तेज़ हो गई थी.कुछ जानकारों कहते हैं कि सरकार का मानना है कि इस फ़ैसले से विदेशी निवेश बढ़ेगा और आपूर्ति भी बढ़ेगी. इससे महँगाई पर काबू पाने में सरकार को मदद मिल सकती है.
उनका मानना है कि इस क़दम से आने वाले समय में महंगाई पर रोक लगाने मदद मिलेगी.
लेकिन भारत के खुदरा व्यापारी इस कदम का विरोध करते रहे हैं. उन्हें डर है कि बड़ी कंपनियों के आने से उनकी दुकानें बंद हो सकती है और रोज़गार पर भी असर पड़ सकता है.
छोटे व्यापारियों और किसानों के संगठनों इस फ़ैसला का कड़ा विरोध किया है. इन दोनों वर्गों के लाखों लोगों को चिंता है कि उनकी रोज़गार प्रभावित हो सकती है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक भारत के खुदरा व्यापार के वार्षिक 450 खरब ड़ॉलर में लगभग 90 फ़ीसदी हिस्सा परिवारों द्वारा चलाए जा रही छोटी दुकानों का होता है.
रायटर्स के अनुसार व्यवस्थित खुदरा व्यापारियों के पास सिर्फ़ दस प्रतिशत का हिस्सा है लेकिन भारत के बढ़ते मध्यम वर्ग को देखते हुए इस श्रेणी में तेज़ी से विकास हो रहा है.
जयललिता ने सरकार से इस फैसले को वापस लेने की मांग की और कहा कि ये बड़ी खुदरा कंपनियों के दबाव में लिया गया अविवेकपूर्ण फैसला है.
यूपीए सरकार के सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुदीप बंधोपाध्याय ने लोकसभा से बाहर आकर पत्रकारों के बताया, "हम लोग अध्यक्ष की कुर्सी तक नहीं गए, लेकिन अपनी सीटों से थोड़ा आगे खड़े होकर हमने भी शोर मचाया, हमारी पार्टी सरकार के इस फ़ैसले का विरोध करती है और हम चाहते हैं कि ये फ़ैसला वापस ले लिया जाए".
साथ ही डीएमके प्रमुख के करुणानिधि ने भी एक बयान जारी किया जिसमें कहा गया है कि उनकी पार्टी इस फ़ैसले का विरोध करती है और सरकार से इसे वापस लेने की मांग करती है.
सुदीप बंधोपाध्याय, सासंद, तृणमूल कांग्रेस
"हम लोग अध्यक्ष की कुर्सी तक नहीं गए, लेकिन अपनी सीटों से थोड़ा आगे खड़े होकर हमने भी शोर मचाया, हमारी पार्टी सरकार के इस फ़ैसले का विरोध करती है और हम चाहते हैं कि ये फ़ैसला वापस ले लिया जाए."बयान में लिखा है, "अगर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति दी गई तो इससे भारत को बहुत नुकसान होगा और छोटे व्यापारियों की जीविका छिन जाएगी".
यूपीए को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह ने भी अपना विरोध साफ करते हुए कहा, "हमारी पार्टी सरकार के इस फ़ैसले के ख़िलाफ है और ये विरोध हम सड़कों तक ले जाएंगे ताकि छोटे व्यापारियों और किसानों को इस बारे में समझा सकें".
अमरीका की क्रेडिट रेटिंग घटाए जाने से दुनिया भर के बाज़ारों पर हो रहे असर के बीच भारतीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि अन्य देशों के मुक़ाबले में भारत बेहतर स्थिति में है.
उन्होंने सोमवार को कहा कि अमरीका और यूरोज़ोन में अनिश्चितता के माहौल है लेकिन भारत की आर्थिक स्थित मज़बूत है और विकास यात्रा जारी है.
उधर सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि जून 2011 में (पिछले साल उसी समय के मुक़ाबले में) भारत में विदेशी पूँजी निवेश में 310 प्रतिशत की वृद्धि हुई और ये 5.65 अरब डॉलर तक पहुँच गया.
ये पिछले 11 वर्ष में किसी एक महीने के लिए सबसे अधिक विदेशी पूँजी निवेश है.
जून 2010 में भारत में विदेशी पूँजी निवेश का आंकड़ा 1.38 अरब डॉलर था.
भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया, "इन आंकड़ों से पता चलता है कि इस वित्त वर्ष की शुरुआत से ही भारत में विदेशी पूँजी निवेश की वृद्धि का रुझान बना हुआ है."
लेकिन क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर के मुताबिक जापान, भारत, मलेशिया, ताईवान और न्यूज़ीलैंड की वित्तीय क्षमताएँ 2008 के वित्तीय संकट से पहले के मुक़ाबले में घटी हैं.
इस एजेंसी के अनुसार एशिया-प्रशांत क्षेत्र में देशों की कर्ज़ लेने और लौटाने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और यदि दोबारा आर्थिक मंदी का दौर चलता है तो उसका ज़्यादा गंभीर और लंबे समय तक चलने वाला असर दिखेगा.
यह साल हरिचांद ठाकुर की दोसौवीं जयंती का है। एळपीजी माफिया मनुस्मृति शासन के खिलाफराष्ट्रव्यापी आजादी आंदोलन ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
'पहले बाज़ार को तो तैयार करें'
विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत के ख़ुदरा व्यापार में निवेश के विरोध में बने संगठन इंडिया एफ़डीआई वॉच के संयोजक धर्मेंद्र कुमार के मुताबिक निवेश की अनुमति से पहले बाज़ार को उसके लिए तैयार करना ज़रूरी है."ग़रीब उपभोक्ता जहां से सामान ख़रीदता है यानी हमारा किराना व्यापारी और रेड़ी-पटरी वाले दुकानदार को ख़तरा है. साथ ही उस बाज़ार को माल देने वाली मंडियों को और किसानों को ख़तरा है. अगर सही कायदे ना बनाए गए तो हमारे मौजूदा असंगठित क्षेत्र को ही ख़तरा है"
इंडिया एफ़डीआई वॉच
धर्मेंद्र ने बीबीसी को बताया, "ग़रीब उपभोक्ता जहां से सामान ख़रीदता है यानी हमारा किराना व्यापारी और रेड़ी-पटरी वाले दुकानदार को ख़तरा है. साथ ही उस बाज़ार को माल देने वाली मंडियों को और किसानों को ख़तरा है. अगर सही कायदे ना बनाए गए तो हमारे मौजूदा असंगठित क्षेत्र को ही ख़तरा है."
धर्मेंद्र के मुताबिक सरकारी नियंत्रण किसानों और छोटे ख़ुदरा व्यापारियों के लिए बेहद अहम है और अन्य देशों में कारगर भी रहा है.
उनका मानना है कि इसके लिए विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्टोर्स की संख्या और उनके बनाए जाने की जगहों की सीमा होनी चाहिए.
साथ ही वे कहते हैं कि मंझले और छोटे किसानों से माल लेने के क़ायदे को लागू करने का तरीका होना चाहिए, वर्ना बड़े किसानों, बड़े विक्रेता और बड़े ख़रीददार के बीच छोटे किसान और असंगठित खुदरा व्यापार टिक नहीं पाएगा.
उपभोक्ता की चांदी
खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश लाने की पहल कर रही सरकार का मानना है कि वॉलमार्ट और टेस्को जैसी कंपनियों के आने से उपभोक्ता को एक ही छत के नीचे, बेहतर दाम पर बेहतर सामान मिलेगा.खुदरा व्यापारियों के संगठन, रीटेलर्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, कुमार राजगोपालन का कहना है कि भारत में खुदरा बाज़ार आधुनिक चरण की ओर बढ़ रहा है और विदेशी निवेश इसमें उसकी सहायता करेगा.
राजगोपालन कहते हैं, "कम से कम अगले दस वर्षों तक छोटे खुदरा व्यापारी और बहुराष्ट्रीय कंपनिया बिना एक दूसरे को नुकसान पहुंचाए काम कर सकती हैं. हो सकता है इसमें कुछ अपवाद हों लेकिन वो इसलिए होंगे क्योंकि कुछ व्यापारी उपभोक्ता की बदलती ज़रूरतों के मुताबिक अपने काम करने के तरीके को नहीं बदल पाएँगे."
कुमार राजगोपालन, रीटेलर्स फेटरेशन ऑफ इंडिया
"कम से कम अगले दस वर्षों तक छोटे खुदरा व्यापारी और बहुराष्ट्रीय कंपनिया बिना एक दूसरे को नुकसान पहुंचाए काम कर सकती हैं. हो सकता है इसमें कुछ अपवाद हों लेकिन वो इसलिए होंगे क्योंकि कुछ व्यापारी उपभोक्ता की बदलती ज़रूरतों के मुताबिक अपने काम करने के तरीके को नहीं बदल पाएँगे."उनका मानना है कि छोटे व्यापारी के काम करने का तरीका ऐसा होता है जिसमें उसके पास थोक बाज़ार से बेहतर दाम पर माल ख़रीदने और उपभोक्ता के घर तक पहुंचाने के स्थानीय प्रलोभन होते हैं.
थोक बाज़ार का अनुभव
भारत में फ़िलहाल एक ब्रांड बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे रीबॉक और नोकिया को खुदरा बाज़ार में 51 फ़ीसदी निवेश के साथ काम करने की इजाज़त है.साथ ही थोक बाज़ार में 100 फ़ीसदी तक निवेश की इजाज़त है. वॉलमार्ट कंपनी भारत की भारती कंपनी के साथ क़रार के तहत थोक बाज़ार में काम भी कर रही है.
वर्ष 2003 में थोक बाज़ार में ये अनुमति देने के समय कहा गया था कि इससे बड़ी कंपनियां सीधे किसानों से उनका उत्पाद लेंगी और उन्हें बेहतर दाम मिलेगा.
लेकिन भारतीय कृषक संघ के अध्यक्ष कृष्णबीर चौधरी के मुताबिक इस नियम के आने के आठ वर्ष बाद भी कुछ नहीं बदला है.
कृष्णबीर कहते हैं,"बड़ी कंपनियों ने भी किसानों का उत्पाद खरीदने के लिए एजंट का ही इस्तेमाल किया है और वो एजंट भी स्थानीय दलाल ही हैं, तो इससे किसानों को कोई फ़ायदा नहीं हुआ है चाहे भारतीय कंपनी हो या विदेशी."
कृष्णबीर का मानना है कि विदेश में किसान ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं और उनकी औसत ज़मीन भारत के किसानों से कई गुणा बड़ी है. लेकिन उनके मुताबिक विदेश में भी किसानों को बड़ी कंपनियों से परेशानी का सामना करना पड़ा है.
वो बताते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां उत्पाद का बेहद ऊंचा मानक रखती हैं लेकिन भारत के किसान, जिनमें से ज़्यादातर को बेहतर संसाधन उपलब्ध नहीं हैं, अपना उत्पाद उस स्तर तक नहीं ला पाते. ऐसे में उन्हें फ़ायदा नहीं नुकसान होता है.
साफ़ है कि खुदरा बाज़ार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश लाने का फ़ैसला करते हुए सरकार को उपभोक्ता, उत्पादक और व्यापारी, सभी वर्गों के हित को ध्यान में रखना होगा.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/11/111124_fdi_retail_da.shtml
खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के खतरे
शरद यादव
जनसत्ता, 30 नवंबर, 2011: खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत का निर्णय केंद्र सरकार ने ऐसे समय किया जिस समय वह मूल्यवृद्धि और काले धन पर संसद में घिरी हुई थी।
इसके साथ ही उसने विपक्ष के साथ टकराव का एक और मोर्चा खोल दिया है। उसके इस निर्णय की दो व्याख्याएं हो सकती हैं। पहली यह है कि केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि संसद सही तरीके से चले और वह टकराव के लिए विपक्ष को उकसाने की नीति अपना रही है। दूसरी वजह पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से हुई मुलाकात हो सकती है, जिसमें भारत की ओर से परमाणु सुरक्षा दायित्व कानून पर किसी तरह की राहत न दे पाने में प्रधानमंत्री ने ओबामा से अपनी असमर्थता जताई होगी। केंद्र की सरकार संसद में अल्पमत में है। लोकसभा में वह समय-समय पर बहुमत का जुगाड़ कर लेती है, पर राज्यसभा में स्पष्ट रूप से अल्पमत में है। यही कारण है कि सरकार अपने बूते कोई कानून संसद से पारित नहीं करवा सकती।
लगता है कि परमाणु सुरक्षा दायित्व कानून अपने हिसाब से बनाने में विफल सरकार ने खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की इजाजत देने का कोई वादा अमेरिका को दे रखा है और इसी वादे को निभाने के लिए उसने यह निर्णय जल्दबाजी में कर डाला। अब कारण जानबूझ कर विपक्ष से टकराव लेना रहा हो या अमेरिकी राष्ट्रपति से किया गया कोई वादा, खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को निवेश की इजाजत देने का एक ही परिणाम होना है और वह है बहुसंख्यक लोगों को बेरोजगार बना देना।
देश की एक बहुत बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र में खुदरा दुकान खोल कर अपनी आजीविका का प्रबंध करती है। खुदरा क्षेत्र खेती के बाद देश में रोजगार का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है। खेती से जुड़े लोग भी इस तरह के व्यापार में लगे हुए हैं। इससे जुडेÞ लोग उद्यमी नहीं, बल्कि मजदूर तबके के ही कहे जा सकते हैं। एक-एक दुकान में परिवार के सारे लोग लगे होते हैं और किसी तरह अपनी आजीविका चलाते हैं।
लेकिन केंद्र सरकार को यह मंजूर ही नहीं कि ये लोग अपनी मजदूरी पर आधारित स्वरोजगार पर आश्रित हों, इसलिए विदेशी कंपनियों के लिए दरवाजा खोला जा रहा है। जिन देशोें की कंपनियां भारत में खुदरा दुकानें खोलने आ रही हैं उन देशों ने अपने प्रकार की बंदिशें लगा कर भारत और अन्य विकासशील देशों के लोगों को अपने यहां आने पर बहुत सारे नियंत्रण लगा दिए हैं। वे देश तरह-तरह के अवरोध खड़े करके विदेशी प्रतिस्पर्धा से अपने बाजारों को बचा रहे हैं। ओबामा ने खुद अनेक ऐसे निर्णय लिए हैं जिनसे भारत का आईटी उद्योग प्रभावित हो रहा है। अपने देश में रोजगार बचाने के लिए अमेरिका और अन्य विकसित देश हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। उससे संबंधित नीतियां तैयार कर रहे हैं। उन नीतियों से भारत जैसे देशों का नुकसान हो रहा है, साथ ही विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा को भी।
पर हमारे देश की सरकार उस सेक्टर को विदेशी कंपनियों के लिए खोल रही है, जो असंगठित क्षेत्र में कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार लोगों को उपलब्ध कराता है और जिसमें विदेशी निवेश की कोई जरूरत नहीं है। भारत के खुदरा व्यापार में पहले से ही सब कुछ ठीकठाक चल रहा है। न तो इसके लिए किसी प्रकार के विदेशी वित्तीय निवेश की जरूरत है और न ही किसी प्रकार की टेक्नोलॉजी के निवेश की। इसके बावजूद अगर सरकार इसके लिए उतावली हो रही है, तो उसे बताना चाहिए कि आखिर उसका इरादा क्या है।
केंद्र सरकार कह रही है कि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को फायदा होगा; कम कीमत पर उनको सामान मिलेंगे। यानी सरकार कह रही है कि इससे महंगाई कम होगी। इस तरह का विचार तथ्यों से परे है। खुदरा व्यापार में देश के बड़े औद्योगिक घराने पहले से ही सक्रिय हैं। कुछ साल पहले जब सरकार ने बड़े औद्योगिक और व्यापारिक घरानों को खुदरा व्यापार में आने की इजाजत दी थी, तो हमने इसका विरोध किया था।
सरकार उस समय भी यही कह रही थी कि बड़े औद्योेगिक घरानों के खुदरा व्यापार में आने से बाजार में कीमतें कम होंगी। हम सब जानते हैं कि सरकार का वह दावा गलत साबित हुआ है। सच तो यह है कि बड़े घरानोें के खुदरा बाजार में आने के बाद हमारे देश में कीमतें और भी बढ़ी हैं। सच कहा जाए तो कीमतों का तेजी से बढ़ना उसी समय से शुरू हुआ है, जब से कॉरपोरेट घरानों को खुदरा व्यापार में आने की इजाजत दी गई। सब्जियों के दाम भी उसके बाद से ही तेजी से बढ़ने शुरू हुए। भारत का कॉरपोरेट क्षेत्र असंगठित खुदरा कारोबारियों से कम लागत पर काम नहीं कर सकता। फिर वह सस्ती कीमत पर उपभोक्ता वस्तुओं को कैसे बेच सकता है? ज्यादा से ज्यादा वह कुछ समय के लिए कीमतें कम कर सकता है। अपनी ज्यादा पूंजी की ताकत से वह ज्यादा दिनों तक घाटा सह कर काम कर सकता है और इस बीच असंगठित क्षेत्र के अपने प्रतिस्पर्धियों की दुकानें बंद करवा सकता है। लेकिन उसके बाद वह उपभोक्ताओं को दुहना शुरू कर देता है।
यही हमारेदेश में भी हुआ। कॉरपोरेट सेक्टर की अनेक खुदरा दुकानें खुलीं और कुछ समय के लिए उन दुकानों ने कुछ चीजों की कीमतें कम रखीं। कुछ दुकानोें को
बंद करवाया और फिर कीमतें बढ़ा दीं। कॉरपोरेट सेक्टर के पास देश का पूरा बैंकिंग सेक्टर उपलब्ध है और वह वहां से पैसा लेकर ज्यादा से ज्यादा दिनों तक घाटे में भी अपना व्यापार चला सकता है। अगर उसका व्यापार ठप भी हुआ तो असली नुकसान बैंकों का होगा और अगर अपने प्रतिद्वंद्वियों को समाप्त कर बाजार में प्रतिद्वंद्विता खत्म करने में वे सफल हो गए तो फिर उपभोक्ताओं को चूसना शुरू कर देंगे।
बडेÞ कॉरपोरेट घरानों के खुदरा व्यापार में आने से उपभोक्ताओं को राहत नहीं मिली। उलटे बढ़ती महंगाई के कारण वे लगातार आहत हो रहे हैं। इसलिए केंद्र सरकार द्वारा यह प्रचारित करना कि विदेशी पूंजी को खुदरा क्षेत्र में लाकर महंगाई कम की जा सकती है, लोगों को गुमराह करने वाला प्रचार है।
हम जानते हैं कि उपभोक्ता कोई अलग जीव नहीं है। हम सभी उपभोक्ता हैं। जो उत्पादक हैं वे भी उपभोक्ता हैं। जो वितरक हैं, वे भी उपभोक्ता हैं। जो खुदरा दुकान चलाते हैं और जो उन पर आश्रित हैं वे भी उपभोक्ता हैं। ऐसे लोगों की संख्या देश की आबादी की बीस फीसद से ज्यादा होगी। कुछ साल पहले देश में चार करोड़ खुदरा दुकानें होने का अनुमान लगाया गया था। अगर एक दुकान पर पांच लोगों के अपने जीवनयापन के लिए निर्भर होने की बात मान लें तो उस समय बीस करोड़ लोग खुदरा व्यापार पर आश्रित थे। तब देश की आबादी सौ करोड़ मानी जाती थी। आबादी बढ़ने के साथ खुदरा व्यापार पर आश्रित लोगों की तादाद भी बढ़ गई होगी।
केंद्र सरकार कह रही है कि विदेशी कंपनियों के खुदरा व्यापार में आने के बाद एक करोड़ लोगों को उनमें रोजगार मिलेगा। सरकार यह आंकड़ा बढ़ा-चढ़ा कर बता रही है। पर अगर इसे सच मान भी लिया जाए तो सवाल यह उठता है कि कॉरपोरेट विदेशी खुदरा दुकानों में एक करोड़ लोगों को नौकरी कितने करोड़ लोगों को बेरोजगार बना कर मिलेगी? सरकार इसका आंकड़ा क्यों नहीं पेश करती है?
सरकार कह रही है कि किसानों को विदेशी कंपनियों से बहुत फायदा होगा। उन्हें अपनी उपज पर बेहतर आमदनी होगी। लेकिन क्या यह सच है? भारत में गन्ना किसानों की हालत देख कर हम कह सकते हैं कि जब बड़े उद्योगपति किसानों के माल के खरीदार बनते हैं, तो किसानों को किस तरह का फायदा मिलता है! जब किसानों के अपनी फसल बेचने के लिए आर्थिक रूप से बहुत मजबूत और संगठित खरीदार ही रह जाएंगे तो फिर उनकी मोलभाव करने की ताकत भी घट जाएगी। किसान उनके सामने अपने आपको असहाय समझेंगे। ये विदेशी कंपनियां अपने हिसाब से किसानों को उत्पादन करने के लिए भी मजबूर करने लगेंगी।
जब भारत में अंग्रेजों का शासन था, तो नील की खेती किसान करते थे। नील के खरीदार शक्तिशाली उद्योगपति ही हुआ करते थे। किसानों की हालत तब कैसी थी, हम सब जानते हैं। निलहे साहबों के सामने उस समय की सरकार की नीतियों के तहत किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर थी। उस समय नील खरीद कर वे उद्योगपति कपड़े रंगने और अन्य औद्योगिक कामों में इस्तेमाल किया करते थे। बदले संदर्भ में किसानों की हालत ब्रिटिशकालीन निलहा युग के समान हो जाएगी।
हम जानते हैं कि गांधीजी ने भारत में पहला आंदोलन निलहों के खिलाफ ही किया था। गांधीजी के नाम की कसम खाने वाली कांग्रेस आज फिर उसी निलहा युग को वापस लाना चाहती है। इसलिए उसने विदेशी कंपनियों को दुकान खोलने की इजाजत देने का फैसला किया है। वह उपभोक्ताओं की तरह किसानों को भी सब्जबाग दिखा रही है।
वालमार्ट कंपनी की दुकान खोलने वाली जगहों का अध्ययन करने के बाद एक एजेंसी ने पाया कि कुछ समय के लिए तो चीजें सस्ती हो गर्इं और उपभोक्ताओं को फायदा भी हुआ, लेकिन बाद में वहां उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें सामान्य से सत्रह फीसद ज्यादा हो गर्इं। यानी वालमार्ट जैसी कंपनियां पहले कीमत कम करके अपने प्रतिद्वंद्वी को समाप्त करती हैं, फिर एकाधिकार प्राप्त करने के बाद कीमतें बढ़ा देती हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिससे हम सभी परिचित हैं। फिर भी कहा जा रहा है कि इन विदेशी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को फायदा होगा? सवाल उठता है कि कितने दिनों या कितने महीने फायदा होगा? एक समय तो आएगा ही जब ये कंपनियां उपभोक्ताओं को दुहेंंगी और किसानों का भी शोषण करेंगी।
छोटे उद्योगों को फायदा पहुंचाने का भी डंका सरकार पीट रही है। कह रही है कि इन कंपनियों को अपना माल छोटे और मझोले उद्योेगों से कम से कम तीस फीसद खरीदना होगा। कोई सरकार से पूछे कि अगर वह चाहे तो यह निर्णय बदलने में कम से कम और ज्यादा से ज्यादा कितना समय लगाएगी। एक बार विदेशी कंपनियां हमारे देश में आ गर्इं तो फिर वे सरकार पर दबाव डाल कर उन सारी बंदिशों को हटवा लेंगी जिनसे उनका व्यापार बाधित होता हो या मुनाफा कम होता हो। वे स्थानीय प्रशासन को भ्रष्ट बना कर असंगठित क्षेत्र के अपने प्रतिस्पर्धियों की दुकानें बंद करवाने के लिए कुछ भी कर सकती हैं। जाहिर है इसके कारण भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलेगा।
हमारे प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री हैं। वे जानते हैं कि विदेशी कंपनियां खुदरा व्यापार के क्षेत्र में भारत आकर क्या-क्या गुल खिला सकती हैं। इसके बावजूद वे इस तरह का निर्णय ले रहे हैं। सवाल उठता है कि एक अर्थशास्त्री होकर वे इस तरह का अनर्थ क्यों कर रहे हैं।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/5163-2011-11-30-04-45-47
क्या ये यूपीए सरकार की नई शुरुआत है?
दिव्या आर्यबीबीसी संवाददाता
शुक्रवार, 25 नवंबर, 2011 को 18:13 IST तक के समाचार
पिछले महीनों में कॉर्पोरेट जगत ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार पर कोई ठोस फ़ैसले ना ले पाने के आरोप लगाए हैं.
भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी और अपने कार्यकाल में संसद में बेहद कम कामकाज करवा पाई यूपीए सरकार ने भारी राजनीतिक विरोध के बीच आर्थिक सुधार का ऐतिहासिक फैसला लिया है.
भारत के मंत्रिमंडल के खुदरा व्यापार क्षेत्र में एक से ज़्यादा ब्रांड के लिए विदेशी पूँजी निवेश (एफ़डीआई) को हरी झंडी दिखाने के बाद, फ़ाइनेन्शियल एक्सप्रेस अख़बार के कार्यकारी संपादक एमके वेणु को लगता है कि यूपीए सरकार का सबसे बुरा दौर ख़त्म हो गया है और अब हालात बेहतर ही होंगे.
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उनका मानना है कि सरकार ने ये अहम् फ़ैसला इस व़क्त बहुत सोच समझ कर लिया है ताकि दो साल से बन रही 'लचर सरकार' की अपनी छवि को वो सुधार सकें.
एमके वेणु ने बीबीसी से विशेष बातचीत में कहा, ''ये फ़ैसला जो राजनीतिक तौर पर बेहद विवादास्पद था, एक मुश्किल फ़ैसला था, उसे लेकर सरकार अंतरराष्ट्रीय निवेषकों को ये साफ संदेश देना चाहती है कि भारत में सुधार लाने की प्रक्रिया दोबारा शुरू हो गई है''
पिछले महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की दर धीमी हुई है और साढ़े आठ फ़ीसदी से घटकर इसके क़रीब सात फ़ीसदी के पास पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है.
मुश्किल फ़ैसला
"ये फ़ैसला जो राजनीतिक तौर पर बेहद विवादास्पद था, एक मुश्किल फ़ैसला था, उसे लेकर सरकार अंतरर्राष्ट्रीय निवेषकों को ये साफ संदेश देना चाहती है कि भारत में सुधार लाने की प्रक्रिया दोबारा शुरू हो गई है."एमके वेणु, फाइनेन्शियल एक्सप्रेस
साथ ही क़रीब एक वर्ष से महंगाई भी दस फ़ीसदी के आसपास ही रही है. पिछले हफ्ते अमरीकी डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत भी बहुत गिर गई.
वेणु के मुताबिक अर्थव्यवस्था की इस स्थिति में ऐसी समझ बन रही थी कि सरकार एक संकट से दूसरे संकट को सुलझाने में ही फंस गई है और उसी को सुधारने की कोशिश की गई है. हालांकि इसके लिए वो बैंकिंग और कारोबार से जुड़े अन्य सुधारों को जल्द किए जाना भी ज़रूरी समझते हैं.
'अरबों डॉलर निवेश की उम्मीद'
मंत्रिमंडल के फ़ैसला लेने के बाद वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने इस नीति के बारे में जानकारी देने के लिए एक पत्रकार वार्ता की.आनंद शर्मा ने कहा, ''हमारी ऐसी समझ है कि आने वाले एक वर्ष में ही खुदरा व्यापार में एक ब्रांड की श्रेणी में लाखों डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश भारत आएगा और क्योंकि एक से ज़्यादा ब्रांड की श्रेणी में दस करोड़ डॉलर के न्यूनतम निवेष का नियम है, हमें उम्मीद है कि इसमें भी भारी मात्रा में निवेश किया जाएगा''.
उन्होंने दावा किया कि ये नीति किसानों, उपभोक्ताओं और छोटे व्यापारियों सभी के हित में है और इससे देश के मूलभूत ढांचे को बेहतर करने का अवसर मिलेगा.
आनंद शर्मा ने ये भी कहा कि इससे उत्पादन क्षेत्र और ऐगेरो-प्रोसेसिंग क्षेत्र में क़रीब एक करोड़ नौकरियों के अवसर भी आएंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि विदेश निवेशक को अपने माल का 30 फीसदी छोटे व्यापारियों से लेना होगा और कुल निवेश के 50 फीसदी को भंडार बनाने और माल की ढुलाई करने में लगाना होगा.
राजनीतिक विरोध
खुदरा व्यापार
"हमारी ऐसी समझ है कि आने वाले एक वर्ष में ही खुदरा व्यापार में एक ब्रांड की श्रेणी में लाखों डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश भारत आएगा और क्योंकि एक से ज़्यादा ब्रांड की श्रेणी में दस करोड़ डॉलर के न्यूनतम निवेष का नियम है, हमें उम्मीद है कि इसमें भी भारी मात्रा में निवेश किया जाएगा"आनंद शर्मा, वाणिज्य मंत्री
लेकिन विपक्षी पार्टियां सरकार की इन दलीलों से सहमत नहीं. इससे पहले वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने इस नीति के बारे में संसद में एक बयान पेश करने की कोशिश की तो दोनों सदनों में इसके विरोध में नारे लगाए गए.
आखिरकार कोई कामकाज नहीं हो सका और दोनों सदनों को स्थगित कर दिया गया.
वाम नेता सीताराम येचुरी ने कहा, ''कई बार इस मुद्दे पर चर्चा हुई है और उसका विरोध भी हुआ है, संसद के अंदर भी और बाहर भी, पहले ये फ़ैसला वापस लिया जाए तब हम इस मुद्दे पर चर्चा करेंगे.''
वहीं भारतीय जनता पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, ''हम इसका विरोध कर रहे हैं क्योंकि आम जनता को ठगा गया है, इस नीति से रोज़गार नहीं बल्कि बेरोज़गारी बढ़ेगी.''
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार एमके वेणु का मानना है कि विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे पर लंबे समय तक विरोध नहीं करेंगी क्योंकि वो भी जानती हैं कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत में भारत को विदेशी निवेष की ज़रूरत है और पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारत में इसके अवसर बी ज़्यादा हैं.
वो कहते हैं कि विपक्ष इस व़क्त अपने विरोध को काला धन और महंगाई पर केन्द्रित रखना चाहेगा ताकि सरकार को सचमुच घेर सके.
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रीटेल में एफ़डीआई: कुछ सवाल-जवाब
अविनाश दत्तबीबीसी संवाददाता, दिल्ली
गुरुवार, 1 दिसंबर, 2011 को 00:26 IST तक के समाचार
भारत सरकार ने जब से मल्टी ब्रांड रीटेल के क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने की बात की है तब से देश में एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है. घोषणा होते ही राजनेता, उद्योग जगत या फिर मीडिया- हर कोई इस मुद्दे पर बँटा लगने लगा. ऐसे में एक नज़र देश में खुदरा व्यापार से जुड़े महत्वपूर्ण सवालों पर-
भारतीय रीटेल बाज़ार कितना बड़ा है?
अनुमानों के मुताबिक भारत का रीटेल या खुदरा बाज़ार 400 से 500 अरब डॉलर का है. अभी तक इस बाज़ार पर आधिपत्य असंगठित क्षेत्र का ही है. भारत के रीटेल क्षेत्र के सटीक आँकड़ों के उपलब्ध न होने के सबसे बड़े कारणों में से यह एक मुख्य कारण है.भारत में अभी रीटेल व्यवसाय मुख्यतः किस तरह से बँटा है?
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मुख्यतः दवा, संगीत, पुस्तकें, टीवी फ़्रिज जैसे उपभोक्ता उत्पाद, कपड़े, रत्न और गहने के अलावा खाद्य सामग्रियों को अलग-अलग बाजारों में वर्गीकृत किया जा सकता है. अभी इन सभी बाज़ारों में असंगठित क्षेत्र का कब्ज़ा है. लगभग हर बाज़ार में संगठित क्षेत्र की कंपनियाँ पैठ बनाने की कोशिश कर रही हैं.
दवा के क्षेत्र में रेलिगेयर, अपोलो फ़ार्मेसीज़, और गार्डियन की तरह की कई श्रृंखलाएँ बाज़ार में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं. इसी तरह से संगीत का बाज़ार भी पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र के हाथों में हैं. इस बाज़ार की सबसे बड़ी समस्या नक़ल है.
भिन्न-भिन्न बाज़ारों को एक छत के नीचे लाने की कोशिश कई भारतीय कंपनियों ने की है लेकिन अभी तक किसी ने बाज़ार का नक़्शा बदलने में सफलता नहीं पाई है.
क्या रीटेल के क्षेत्र में मल्टीब्रांड रीटेल भारत के लिए नया है?
नहीं. भारत में मल्टीब्रांड रीटेल के क्षेत्र में पिछले कुछ सालों से निजी कंपनियाँ चल रही हैं. अभी तक के अनुमानों के मुताबिक क़रीब 90 फ़ीसदी बाज़ार पर छोटे व्यापारियों का कब्ज़ा है.भारतीय मल्टीब्रांड रीटेल में कौन हैं बड़े खिलाड़ी ?
टाटा बिरला जैसे समूहों के बड़े प्रयासों के बावजूद असंगठित क्षेत्र का कब्ज़ा बाज़ार पर बरक़रार हैपेंटालून रीटेल सबसे बड़े मल्टीब्रांड व्यापारियों में से एक है. बिग बाज़ार के नाम से चलने वाली विशाल दुकानों के साथ यह कंपनी संगठित बाज़ार में सबसे ऊपर है. फ़्यूचर समूह जो पेंटालून रीटेल की मालिक है वह कपड़ों, जूतों सहित कई और बाज़ारों में भी मज़बूत खिलाड़ी है. इस समूह की देश भर में क़रीब 500 से ऊपर छोटी-बड़ी दुकानें हैं. दुनिया की सबसे बड़ी रीटेल कंपनियों में से एक फ़्रांस की कारफ़ोर से फ़्यूचर समूह के तार जोड़ कर देखे जाते हैं.
इस क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा समूह है रिलायंस रीटेल. मुकेश अंबानी समूह की यह कंपनी भारत में छोटे-बड़े क़रीब एक हज़ार स्टोर चलाती है. रिलायंस मार्ट से लेकर, रिलायंस फ़्रेश और रिलायंस फ़ुटप्रिंट की तरह की कई दुकाने इस समूह द्वारा चलाई जाती हैं.
के रहेजा समूह की शॉपर्स स्टॉप, क्रॉसवर्ड, हायपर सिटी की नामों से कई तरह की रीटेल दुकानें चलती हैं.
कुल मिलाकर टाटा, आदित्य बिरला समूह से लेकर आरपीजी, भारती और महिन्द्रा तक भारत के सभी बड़े औद्योगिक समूह रीटेल के क्षेत्र में किसी न किसी तरह से अपनी मौजूदगी रखते हैं.
वैश्विक स्तर पर रीटेल के क्षेत्र के सबसे बड़े खिलाड़ी कौन हैं और वह सब क्या भारत से गायब हैं?
वॉलमार्ट: यह कंपनी भारत के भारती समूह के साथ मिलकर छह बड़ी दुकानें चलाती है. इन दुकानों में किसानों से सामान लेकर थोक विक्रेताओं को बेचा जाता है.टेस्को: ब्रिटेन की सबसे बड़ी रीटेल कंपनी टेस्को भारत में टाटा समूह की रीटेल कंपनी ट्रेंट के साथ मिल कर काम करती है.
मेट्रो: जर्मनी की रिटेल कंपनी मेट्रो एजी भारत में छह थोक दुकानें चलाती है.
कारफोर: फ़्रांस की यह कंपनी दिल्ली में दो थोक दुकानें चला रही है.
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भारत को ज्यादा विदेशी पूँजी की दरकार: मनमोहन
नई दिल्ली, सोमवार, 13 सितंबर 2010( 20:29 IST )
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सलाना नौ से दस प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर के लिए देश में विदेशी निवेश का प्रवाह बढ़ाने पर जोर देते हुए सोमवार को कहा कि देश को एशिया प्रशांत क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देना होगा और इसके साथ ही उन्होंने स्पष्ट कहा कि इसके लिए देश की 'रणनीतिक स्वायत्तता' से कोई समझौता नहीं किया जाएगा।
रक्षा बलों के शीर्ष कमांडरों को आज यहाँ संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत के लिए 'सबसे कठिन चुनौती' अपने पड़ोस में ही है। उन्होंने कहा कि देश के विकास की महत्वाकांक्षा को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता स्थापित नहीं होती है।
मनमोहन ने कहा कि जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, प्रौद्योगिकी क्षमताओं का भी विस्तार होना चाहिए ताकि जिससे रक्षा बलों के आधुनिकीकरण के लिए उच्च मानक स्थापित हो सकें। उन्होंने कहा कि युद्ध के सिद्धान्तों की भी समय के साथ समीक्षा होती रहनी चाहिए कि देश के समक्ष किसी भी तरह के नए खतरे आ रहे हैं, तो उनका सामना किया जा सके।
प्रधानमंत्री ने कहा कि देश की मजबूती उसके संस्थानों की मजबूती, उसके मूल्यों और आर्थिक प्रतिस्पर्धा पर निर्भर करती है।
उन्होंने कहा कि यदि हमें नौ से दस फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर को कायम रखना है, तो हमें इसके लिए शेयर बाजारों में विदेशी निवेश के साथ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, दोनों की जरूरत होगी। उन्होंने कहा कि साथ ही हमें सर्वश्रेष्ठ आधुनिक प्रौद्योगिकी और विकसित अर्थव्यवस्थताओं तक पहुँच की जरूरत होगी।
प्रधानमंत्री ने कहा कि इसके लिए भारत को दुनिया के सभी शक्तिशाली देशों से मजबूत रिश्ते रखने होंगे, पर साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि इसके लिए देश की रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता नहीं किया जाएगा। उन्होंने कहा कि भारत इतना बड़ा देश है कि उसे किसी गठजोड़, क्षेत्रीय या उप क्षेत्रीय व्यवस्था, चाहे व्यापार हो या आर्थिक या राजनीतिक, में बांधा नहीं जा सकता।
उन्होंने कहा कि वैश्विक तरीके से देखा जाए, तो आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का एशिया को हस्तांतरण हुआ है। भारत को दक्षिण पूर्व एशिया के साथ एशिया प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देने की जरूरत है। (भाषा)
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Palash Biswas
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