कुमार प्रशांत
जनसत्ता, 21 नवंबर, 2011 : अब प्रधानमंत्री ने यह कह कर रास्ता बनाने की नाकाम कोशिश की है कि महंगाई हमारी आर्थिक प्रगति की निशानी है। यह ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि ये जो बहुत सारी मौतें हो रही हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे श्मशान-घाट कितने सुंदर बने हैं! प्रधानमंत्री चाहें तो देश से ही पूछ कर देख लें कि उसे महंगाई से लदा-फदा उनका यह तथाकथित विकास चाहिए कि जीने की आम सूरत वाला समाज चाहिए। इस जवाब में ही वह राज छिपा है जो सत्ता वालों को दिखाई और सुनाई नहीं देता है। राज-दरबार से देश-ए-चमन का जो हाल दिखाई देता है वह हकीकत से उतना ही दूर होता है जितना अटल बिहारी वाजपेयी का शाइनिंग इंडिया, जो उस वक्त के असली इंडिया से अलग था।
हमारा किसान और हमारी खेती वह बैरोमीटर है जिससे किसी भी वक्त देश का तापमान जाना जा सकता है और किसी भी सरकार की कुंडली तैयार की जा सकती है। आज हालत यह है कि इस किसान की दुनिया तबाह हो चुकी है और सरकार करीब-करीब किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसे किसान को दी जाने वाली हर सुविधा नागवार गुजर रही है लेकिन वह समझ नहीं पा रही है कि इस बोझ से छुटकारा कैसे पाया जाए। वर्ष 1999-2000 और 2004-05 हमारे किसानों पर सबसे भारी पड़ा था। सबसे ज्यादा आत्महत्याएं इसी दौर में हुर्इं और इसी दौर में किसानों ने व्यापक तौर पर समझा कि आत्महत्या भी उनके लिए एक रास्ता है।
धरती, हवा-पानी आदि की विभिन्नता के कारण सारे देश में किसान और किसानी का हाल एक जैसा नहीं है। उनकी जरूरतें भिन्न हैं और उनका कैलेंडर भी भिन्न हैं। इसलिए भी सरकार परेशान है कि उसका एक ही फार्मूला सबको मुफीद क्यों नहीं होता है। वह अपनी तरफ से जो बांट सकती है वह है पैसा, और वह उसने बांटा है। कितना बांटा है इसके आंकडे हालांकि सरकार की नीयत की ही पोल खोलते हैं, फिर भी धरती पर जो नोट उड़े हैं वे तो उड़े ही हैं। इधर हालात कुछ काबू में लग रहे हैं तो उसकी सबसे बड़ी वजह है कि मानसून ने लगातार हमारा साथ दिया है। 2009 में मानसून थोड़ा भटका जरूर था और कुछ हजार किसानों को लील गया था, लेकिन फिर वह संभला तो अभी तक हमारा साथ निभा रहा है।
वर्ष 2004-05 के बाद सरकार ने खेती में निवेश बढ़ाया है और किसानों को मिले कर्ज में कोई तीन गुना की वृद्धि हुई है। सरकारी समर्थन मूल्य जो किसान को कुछ भी नहीं देते थे, अब कुछ बदले हैं। 2004-05 के बाद गेहूं और धान के समर्थन मूल्य में कोई सत्तर फीसद का इजाफा हुआ। दूसरी तरफ सरकार ने कर्ज-माफी में कोई सत्तर हजार करोड़ रुपए डाले हैं। किसान मांग रहा था, और मांग रहा है कि उसे समय पर और सस्ती दर पर पानी मिले, बीज मिले, खाद मिले; सरकार उसे देती है पैसा। पैसे से किसानी नहीं होती, पैसे से राहत मिलती है। राहत किसान को भी मिली है और सरकार को भी। लेकिन बोझ बढ़ता जा रहा है और सरकार का दम फूलता जा रहा है।
सरकार खाद की सबसिडी से परेशान है। फरवरी में जब केंद्रीय बजट आया तब अनुमान था कि सरकार को पचासी हजार करोड़ रुपयों की सबसिडी देनी पड़ेगी। ताजा अनुमान है कि यह आंकड़ा पंचानवे हजार करोड़ रुपयों से आगे जाएगा। एक तरफ पेट्रोलियम पदार्थों की सबसिडी से सरकार की कमर टूटी जा रही है। वह न तो कमर सीधी कर पा रही है न इस बोझ को उठा ही पा रही है। जैसे उसने महंगाई के आगे हथियार डाल दिए हैं, उसी तरह उसने तेल कंपनियों को कीमतों में मनमानी वृद्धि की आजादी दे दी है और तेल की कीमतों में मासिक आधार पर वृद्धि होती जा रही है। इससे यह जाहिर हो गया है कि सरकार के पास कोई वैकल्पिक सोच नहीं है। अब खाद की सबसिडी का आंकड़ा उसे मुंह चिढ़ा रहा है।
हमारा किसान जितना रासायनिक खाद इस्तेमाल करता है वह जरूरत से ज्यादा है, अनियोजित है और उससे उत्पादन में कुछ खास हासिल नहीं हुआ है। पंजाब, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि के आंकडेÞ थोडेÞ-बहुत अंतर के साथ एक-सी ही कहानी कहते हैं। लेकिन सरकारी कोशिश की तरफ देखें या कंपनियों के व्यवसाय की तरफ, सब यही कर रहे हैं और यही कह रहे हैं कि रासायनिक खाद का किसान अधिकाधिक इस्तेमाल करे। हमारा किसान जितना रासायनिक खाद इस्तेमाल करता है उसमें आधे से अधिक यूरिया होता है। इस यूरिया का कोई अस्सी फीसद हमारा देशी उत्पादन है। बीस फीसद के करीब हम आयात करते हैं। यूरिया के अलावा दूसरे सभी प्रकार के खाद और इसी तरह के पदार्थ हमें बाहर से आयात करने पड़ते हैं, जिसका सीधा बोझ सरकार पर पड़ता है।
अभी तक की व्यवस्था ऐसी है कि यूरिया की कीमत सरकार ही निर्धारित करती है। बाजार की कीमत और उत्पादन लागत के बीच का अंतर ही है, जो सरकार सबसिडी के रूप में देती है। यहां सरकार पर दुहरी मार पड़ती है। न तो बाजार की कीमत उसके हाथ में होती है और न उत्पादन की लागत वह संभाल सकती है। वह तो इन दोनों ताकतों के हाथ में कठपुतली भर बनी रह जाती है और सबसिडी का आंकड़ा बड़े से बड़ा होता जाता है।
पिछले साल यूरिया पर सबसिडी 23,900 करोड़ रुपयों की थी, जो इस साल 25,000 करोड़
ऐसे में पिसता कौन है? वह जो उपभोक्ता है। इसी उपभोक्ता को बाजार की शातिर चालों से बचाने के लिए हमने सरकार नाम की व्यवस्था खड़ी की थी और माना था कि यह नागरिक के लिए ढाल का काम करेगी। अब वह व्यवस्था खुद मैदान छोड़ रही है और नागरिकों को पेट्रोल कंपनियों, खाद कंपनियों के सामने एकदम निहत्था कर दे रही है। इसलिए यह सवाल खड़ा होता है कि अगर सरकार अपनी ऐसी सारी जिम्मेवारियों से मुक्त होना चाहती है तब हमें उससे क्यों नहीं मुक्त हो जाना चाहिए? हम इनके शानो-शौकत का बोझ उठाएं क्यों? सरकारी बजट ही बताता है कि सरकारी खर्च कितना अधिक है और कैसे लगातार बढ़ता जा रहा है। जब सरकार अपने दायित्वों से इसलिए मुक्त हो रही है कि वह बाजार का मुकाबला नहीं कर सकती, तब हम अपने बोझ से मुक्त क्यों नहीं हो सकते कि यह सफेद हाथी बन गया है?
खेती और किसानी के बारे में हमारा नजरिया बदले तभी हम इसे सही संदर्भ में समझ सकेंगे। हमें यह समझना ही होगा कि प्रकृति में किसान का खेत ही एकमात्र ऐसी जगह है जहां उत्पादन होता है। हमारे तमाम कल-कारखानों में प्रकृति के उत्पादनों का रूप-परिवर्तन भर होता है, पैदा कुछ भी नहीं होता। दूसरी तरफ यह सच्चाई भी दर्ज करें कि खेतों में जो उपजता है वह जीने के लिए आवश्यक है, विकल्पहीन है। खेती ही वह आधार है जिसके ऊपर समृद्धि के महल खड़े हैं। इसलिए जब भी हम किसान, खेती आदि के बारे में विचार करते हैं तो हमारे तर्क के आधार बदल जाते हैं। उन्हें बदलना ही चाहिए। अगर किसानी और किसान टूटते हैं तो जीवन का आधार ही टूटता है।
किसान को दी जाने वाली सबसिडी उस पर कृपा नहीं है। यह सबसिडी उसका अधिकार भी है और हमारा दायित्व भी, ताकि हमारा जीवन और पीढ़ियों की निरंतरता बनी रहे। हम बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में पैदावार में वृद्धि का जितना भी दबाव बनाते हैं, किसान उसे छाती पर झेलता है। उसकी छाती टूट ही न जाए, यह देखना सरकार और समाज का धर्म है। अगर आपने खेती का तंत्र यांत्रिक बनाने का बेहद अमानवीय दबाव उस पर डाल कर उसे हर तरह से पराश्रित और लाचार बना दिया है, उसे भी कागज के नोटों की तरफ भागना और शहरी जीवन की नकल में पगलाए रहना सिखा दिया है तो उसकी कीमत भी आपको ही अदा करनी होगी।
इसलिए यह सबसिडी हमारी मूर्खताओं की कीमत है जो हमें अदा करनी पड़ रही है और अगर हमने यहां से भी कोई रास्ता बदला तो कहना होगा कि यह अपार धनराशि हमारी शिक्षा पर खर्च हुई। सीखना यह है कि खेती को अधिकाधिक प्राकृतिक रहने दिया जाए। आधुनिक बनाने की होड़ में उसे मांसाहारी न बनाया जाए। खेती एक रासायनिक खेल नहीं, जीवन-प्रणाली है। इसलिए हमारे पास रासायनिक खाद का जो विकल्प था, उसकी तरफ वापस लौटना होगा। वापसी हमेशा पराजय नहीं होती, कई बार वह विवेक की तरफ आरोहण भी होती है।
खेती में प्राकृतिक खाद का चलन बढ़ाने का व्यापक आंदोलन चलाना होगा। सबसे मजे की बात यह है कि खेती अपने लिए खाद भी खुद ही बना लेती है। वह चाहती है तो सिर्फ इतना कि उसे उसका भोजन जरा व्यवस्थित परोस कर दिया जाए। क्या जो हमारा जीवन हमेशा के लिए संभालता है, हम उसके लिए इतना भी नहीं कर सकते? प्राकृतिक खाद की कई-कई किस्में हैं जो खेती की जरूरत और उसकी सेहत के आधार पर तैयार हुई हैं। उन सबको पुनर्जीवित करना आज सबसे बड़ी वैज्ञानिक यात्रा है, जिसे पूरा करना, न करना हम पर ही निर्भर करता है।
रासायनिक खाद के कारण सबसिडी का जो बोझ बढ़ता जा रहा है और जिससे हमारा दम फूल रहा है, उसे कम करते जाने का एक राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाना होगा। प्राकृतिक खाद खेती को स्वस्थ भी बनाती है और संतुलित भी करती है। कुछ लोग कहते हैं कि प्राकृतिक खाद से उत्पादन कम हो जाता है। यह सच नहीं है और अगर सच है तो उसी तरह का सच है जो हमें बताता है कि सच बोलने से मुसीबतें बढ़ती हैं, कि भ्रष्टाचार से काम आसानी से और जल्दी हो जाता है।
खेती भूख मिटाने की व्यवस्था है, तिजोरी भरने की नहीं। इसे धनतंत्र का हिस्सा बना कर जो अपनी तिजोरी भर रहे हैं, उन्हें रोकना होगा और हमें यह स्वीकार करके चलना होगा कि धरती के साथ सदाचार का व्यवहार ही मनुष्यता है, वैज्ञानिकता है। इससे जितना कुछ पैदा होता है उसमें ही जीने की शैली विकसित करनी होगी। सबसिडी का रोना व्यर्थ का रोना है, क्योंकि इसमें खोना ही खोना है।
खेती और किसानी आज की हमारी इस सारी व्यवस्था के खिलाफ उठा असहमति का हाथ है। हम इसे स्वीकार करें तो नई संभावनाएं खुलेंगी, न स्वीकार करें तो 95,000 हजार करोड़ रुपयों की सबसिडी जल्दी ही बढ़ कर एक लाख करोड़ रुपयों की हो जाएगी। फिर तो हमारे पास हाथ उठाने के अलावा दूसरा रास्ता भी नहीं होगा। वैसे करें या ऐसे, रास्ता तो बदलना ही है।
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