हाँ, दस साल हो गये हैं राज्य बने
By नैनीताल समाचार on December 24, 2010
http://www.nainitalsamachar.in/uttarakhand-state-is-ten-years-old-now/
दस साल!
दस साल का होने जा रहा है उत्तराखंड इस 9 नवम्बर को। एक बच्चा बचपन पार कर किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा है। एक समाज के लिये कितना महत्वपूर्ण पड़ाव है यह ?
लेकिन कहीं कोई उत्साह है क्या ?
9 नवम्बर आयेगा….राज्य का स्थापना दिवस। सब कुछ उसी कर्मकांड की तरह होगा। हमारी पीढ़ी ने देश की आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया था। बचपन से, स्कूल में पाँव रखने के बाद देखते रहे कि 'पन्द्रह अगस्त' ऐसा होता है। सब कुछ यन्त्रवत। हमारे लिये इसलिये महत्वपूर्ण कि उस दिन मिठाई खाने को मिलती है। काफी उम्रदराज हो जाने तथा थोड़ा पढ़-लिख जाने के बाद ही महसूस हुआ कि अच्छा इसलिये लड़ी गई थी आजादी की जंग। यह होता है आजादी का मतलब… और यह है आजादी का मोहभंग।
1994 की बरसात और शरद् में जो बच्चे आठ-दस साल के रहे होंगे, जो अब वोट देने की जिम्मेदार उम्र में पहुँच गये हैं….उन्हें क्या याद होगा ? बहुत से बहुत यही कि वे अपनी माँ की उंगली पकड़ कर जलूसों में जाया करते थे। बड़े-बड़े जलूस होते थे और जोर-जोर से नारे लगते थे। उन्हें क्या मालूम कि वह जज्बा क्या था,… उसके पीछे कितने सालों की वंचना और दर्द छुपा हुआ था। क्या यों ही उनके माँ-बाप सब कुछ छोड़-छाड़ कर सड़कों पर उतर आये होंगे ?
मुजफ्फरनगर का दंश अब किसे दर्द देता है ? मुझे याद है, हम उस वक्त तल्लीताल डांठ पर 'उत्तराखंड बुलेटिन' का वाचन करने जा रहे थे, जब गोपेश्वर से हरीश मैखुरी ने फोन पर नारसन में 'कुछ हो जाने' की सूचना दी थी। सही सूचनायें मिल पाना भी कितना कठिन होता था उन दिनों ? वह मोबाइल का जमाना तो था नहीं। बहुत कुछ असमंजस में ही, कुछ अस्पष्ट ब्यौरों के साथ हमने वह समाचार पढ़ा था। श्रोताओं में सन्नाटा फैल गया था….एक बेचैनी के साथ। और बुलेटिन खत्म होते ही कुछ नौजवानों ने उग्र जलूस निकाल दिया था…छिटपुट तोड़फोड़ करते हुए। वह दो अक्टूबर की शाम थी। उग्र प्रतिरोध तो 3 अक्टूबर को हुआ था, जब रैपिड एक्शन फोर्स ने एकदम सामने से गोली मार कर प्रताप सिंह की हत्या कर दी थी।…पहाड़ के न जाने कितने नगरों-कस्बों में कफ्र्यू लगा था। भोले-भाले पहाड़ी ग्रामीण यह भी नहीं जानते थे कि कर्फ्यू क्या होता है। वे 'कर्फ्यू' को सरकस जैसी कोई चीज समझ कर घरों से बाहर निकल आते थे और फिर पुलिस के डंडे खाकर घरों में दुबक जाते थे।
मुजफ्फरनगर कांड ने हमको बहुत बेचैन कर दिया था। अखबारों से खबरें ढूँढ कर हम बुलेटिन तैयार करते और उसे तल्लीताल क्रांति चौक तथा मल्लीताल बड़ा बाजार में श्रोताओं के सामने पढ़ते तो एक गुस्सा धीमी आँच की तरह हर किसी के दिल में सुलगने लगता। मुझे याद है कि मल्लीताल में हम गन्ने के खेतों में महिलाओं के अन्तर्वस्त्र मिलने का समाचार पढ़ रहे थे कि गुस्से में उबलती एक महिला कहीं से आ गई थी हमें रोकने कि बन्द करो यह वीभत्स विवरण। अन्य श्रोताओं ने उसे समझा बुझा कर शान्त किया था।
अब किसी को याद है मुजफ्फरनगर कांड….. उसके वे वीभत्स विवरण ? महीनों हो गये हैं। मैं चाहता हूँ कि अखबार के किसी कोने में कोई छोटी सी खबर हो कि फलाँ ने मुजफ्फरनगर कांड के अपराधियों को जल्दी दंडित करने की माँग की है। लेकिन वैसी खबर अब कहीं से नहीं आती। अन्तिम बार शायद हमने ही नैनीताल में मोर्चा निकाला था, 1 सितम्बर 2003 को उत्तराखंड हाइकोर्ट के खिलाफ, जब हमारे दो न्यायाधीशों ने मुजफ्फरनगर कांड के एक प्रमुख आरोपी अनन्त कुमार सिंह को दोषमुक्त कर दिया था। वह फैसला तो बहरहाल अदालत ने वापस ले लिया, लेकिन हमारे दिल में जो चोट लगी थी कि हमारे अपने प्रान्त की सबसे बड़ी अदालत हमारे साथ यह सलूक कर सकती है, वह कहाँ दूर होनी थी। उस प्रदर्शन के बाद हाईकोर्ट के वकीलों ने हमारे खिलाफ एक निन्दा प्रस्ताव पारित किया और उक्त दो न्यायाधीशों में से एक रिटायरमेंट के बाद भी एक बहुत बड़े पद पर आसीन हैं।
अब मुजफ्फरनगर कांड की बात कोई नहीं करता। जबकि राज्य गठन के दौरान हर कोई कहता था कि मुजफ्फरनगर कांड के अपराधियों को सींखचों के पीछे डाले बगैर इस राज्य का बनना या न बनना बेमतलब है। एक डर सा भी बना रहता कि शहीद उधमसिंह की तरह कोई नौजवान हथियार उठा कर कहीं स्वयं इन अपराधियों को सजा देने न पहुँच जाये।
गैरसैंण राजधानी के रूप में कहीं न कहीं जनता के जेहन में अभी भी अवश्य है। लेकिन उस माँग के पीछे वह तीव्रता नहीं रही। आन्दोलनकारियों की वह पीढ़ी बुढ़ाने लगी है। और यह भी सच है कि आन्दोलनकारी को भी रोजी-रोटी की जरूरत होती है। उसे आन्दोलन करने की तनख्वाह नहीं मिलती। वह हर समय आन्दोलन करता नहीं रह सकता। इस जरूरत का फायदा उठा कर ही अब तक सत्ता में आयी सभी सरकारों ने आन्दोलनकारियों को लालच में डाल दिया है कि वे अपने अधिकार की लड़ाई में उलझ जायें और उत्तराखंड की दुर्गत से पीठ फेर लें। इसीलिये गैरसैंण एक ठण्डे बस्ते में सा जाता दिखाई देता है। भले ही मलाईदार ठेके खाने में मस्त उत्तराखंड क्रांति दल के नेता कभी-कभी अपने अस्तित्व के लिये गैरसैंण का शोशा छेड़ देते हों या फिर 'उत्तराखंड महिला मंच' की किसी जमाने में जबर्दस्त ढंग से जुझारू रही महिलायें थक-हार कर कर इस मुद्दे को जीवित रखने का प्रयास करती रही हों। पिछले सप्ताह महिला मंच द्वारा नैनीताल में इस मुद्दे पर आयोजित एक गोष्ठी में किसी कार्यक्रम का न निकल पाना ही साबित करता है कि व्यक्तियों-संगठनों के निजी हित जनता के व्यापक हितों पर भारी पड़ने लगे हैं। 1994 में जो भी मीडिया था, उसने राज्य के मुद्दों को बहुत जोर-शोर से उछाला था। पृथक राज्य की माँग को इतनी व्यापकता मिलने के पीछे मीडिया के योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता। लेकिन अब हम उन्हीं पत्रकारों, जो उस वक्त जबर्दस्त ढंग से उत्तराखंडी थे, की पड़ताल करें तो मालूम पड़ जायेगा कि उनके हित सत्ताधारियों से कितने जुड़ गये हैं। किस तरह वे अपने छोटे-छोटे काम करवाने की एवज में सत्ताधरियों की जय-जयकार करने में व्यस्त हो गये हैं। बुद्धिजीवी सबसे बड़े धोखेबाज निकले, जबकि उनकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है।
एक बहुत बड़ी आपदा से होकर अभी हमारा प्रदेश गुजरा है। कहीं लगता है कि संवेदनायें कहीं बची हैं ? पटवारी उसी तरह रिश्वत लिये बगैर सही रिपोर्ट नहीं दे रहा है। लोग खुले आसमान के नीचे रहने को अभिशप्त हैं और वे लोग, जो शताब्दी की इस सबसे अधिक वर्षा के झटके से मार खाने से बच गये, उत्सव मनाने में व्यस्त हैं। गनीमत है कि शरदोत्सव नहीं हुए इस साल प्रदेश में!
दस साल कम नहीं होते। दस साल बहुत ज्यादा भी नहीं होते। लेकिन हमारे सामने एक मौका है कि हम सोचें। सत्ताधारियों को गलियाने से कुछ हासिल नहीं होगा। सत्ता का चरित्र सर्वत्र ऐसा ही होता है… हर युग, हर काल में ऐसा ही होता रहा है। हम किसी भाजपा, किसी कांग्रेस, किसी उक्रांद, किसी सपा, किसी बसपा से कोई उम्मीद क्यों करें…. वह भी तब जब राजनीति पूरी तरह ठेकेदारी हो गई है। लाखों रुपये 'इनवेस्ट' कर करोड़ों कमाने का धंधा। लेकिन जनता की ताकत तो हमेशा सबसे शक्तिशाली रही है। हमें जनता को जगाना है। उस दिशा में हम क्या कर सकते हैं, इस पर सोंचें। राज्य की दसवीं वर्षगाँठ पर आपको बधाई!
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