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Saturday, October 16, 2010

एक बड़ी ज़िम्मेदारी गिरदा हम पर छोड़ गए हैं : रुपिन By नैनीताल समाचार on October 15, 2010

गिर्दा पर आधारित नैनीताल समाचार का विशेष अंक 2 अक्टूबर से वैब पर प्रकाशित किया जा रहा है। आप सभी से निवेदन है कि गिरदा पर आधारित इस अंक पर विशेष ध्यान दें और अपने परिचितों को भी पढ़वायें। यदि आप इस अंक को संग्रहीत करना चाहते हैं या बंटवाना चाहते हैं तो हमें लिखें।

गिर्दा अंक के लिये आयी बहुत सारी सामग्री अभी बची है। हम स्थानाभाव के कारण इन्हें तत्काल प्रकाशित नहीं कर पा रहे हैं। आगामी अंकों में इन्हें तथा इस बीच आयी अन्य सामग्री को क्रमशः प्रकाशित करते रहेंगे। हमारी सीमाओं को देखते हुए रचनाकार हमें क्षमा करेंगे, ऐसा विश्वास है। यदि आप भी गिर्दा से जुड़ी कोई सामग्री भेजना चाहते हैं, या कोई फोटो, वीडियो शेयर करना चाहते हैं तो जरूर भेजें।

संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com

एक बड़ी ज़िम्मेदारी गिरदा हम पर छोड़ गए हैं : रुपिन

http://www.nainitalsamachar.in/tribute-to-girda-by-rupin-maitreyee/

गिरदा ताऊजी का नाम आये वक्त घर पर लिया जाता था। उनसे मुलाकात होती रहती थी, लेकिन कभी कोई खास बातचीत का मौका नहीं मिला। शायद मैं ही यह मौके नहीं बना पाई। फिर भी, उनकी बिखरी हुई आँखों में हमेशा कुछ झलकता था। उनसे थोड़ी देर बात कर, सिर्फ हाल-चाल पूछ कर, एक बहुत गहरा भाव महसूस होता था। ऐसा लगता था कि इन रोज़ के सवालों में भी बड़ी गंभीरता है और इनका आदर करना चाहिए। जैसे इन आम सवालों और जवाबों में एक साधारण लेकिन स्पष्ट सच्चाई है, जो हम सब को जोडती है। इस गहराई में ताऊजी का सौहार्द हमेशा महसूस होता था। एक धैर्य भरा प्रेम, खुला, अपार-सा। और इस तरह उन हाल-चाल की बातों में बिना कहे बहुत बात हो जाती थी।

ऐसी कई यादें हैं। फ़ोन उठाते ही उनका 'हाँ जी' कहना, मिलते ही हाथ मिलाना। उनके बिखरे हुए बाल, बीड़ी और झोला। उनकी आवाज़, उसका लय, उसका खिंचाव, उसका दर्द। उनके गाने और कवितायेँ। इन यादों और बातों के गिर्दा ताऊजी का साया बहुत बड़ा है। कुछ लोगों के दिल इतने बड़े होते हैं कि उन्हें इस तरह पूरी सहजता के साथ अपना लिया जाता है। ताऊजी वैसे थे। अंत के वर्षों के सिमटे हुए शरीर से भी उनका जीव चमकता था।

ताऊजी की पहचान के कई लोग इसी तरह उनकी कमी को अपनी यादों के ज़रिये सह रहे हैं। बीते वक्त से यथार्थ के खालीपन को भर रहे हैं, लेकिन अगर हम इस पल को जीना चाहते हैं तो हम उनकी कमी को क्या रूप दे सकते हैं ? गिरदा का अर्थ अब हमारे लिए क्या होना चाहिए ? यह बड़ी ज़िम्मेदारी गिरदा हम पर छोड़ गए हैं।

- रूपिन मैत्रेयी


संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com

गिर्दा की कुछ कविताऐं

ऊँ, हम और उ

उनरि नौणि है लै चुपाड़ छन हमार यों जाट girda-at-naini-jheel
दै कि पराई है लै चुपाड़ छन चैंक खुस्याल

उनार सुकिला लुकुड़ाँ भितर चाऔ धैं
कदुक काव छू
हमार आँख उधाड़ियै निभै
उनार आँखन बड़वौक जाव छू

पै खबरदार रे ! होशियार हाँ !!
बखताक पेटन भाउ छू
जैक हाथन मैं अगिनि छू
जैक आँखन मैं उज्याव छू

वीक लिजी
उँ धिकमुर्कनैकि नौणि है लै चुपाड़ छन
हमार यौं जाट
उनार आँखन बड़वौक जाव छू

(य़ही कविता अब हिन्दी में)

ये,हम और वो

उनकी नवनीत से भी चिकनी है हमारी जटायें
और दही की मलाई से भी मुलायम है सर में पड़ी 'डन्ड्रफ'

उनके सफेद लिबास के भीतर देखिये
कितना काला है
हमारी आँखें तो खुली ही नहीं
मगर उनकी आँखों में मकड़जाला है

पर खबरदार रे ! होशियार हाँ !!
समय के गर्भ में है संतति
जिसके हाथों में अग्नि है
जिसके आँखों में उजाला है

उसके लिये
उन दुष्टों की नवनीत से भी चिकनी है
हमारी ये जटायें।

परिचय

गौं-गाड़ को पत पाणी दीण तो भई हमरी पुराणी परिपाटी-
जिल्ल अल्म्वाड़, गौं- ज्योलि, पट्टी- तल्लास्यूनरा में हलबागै की घाटी।
भुस्स पहाड़ को जन्म मेरो चून-चून बसी भै हिलालै की माटी,
सीस मेरे असमान पुजी काखि में लोटी रूँनी मेरी डांडी-काँठी ।।

(हिन्दी अर्थ : कि अपने गाँव-इलाके का अता-पता देना हमारी पुरानी परिपाटी रही है-जिला-अल्मोड़ा, गाँव – ज्योली, पट्टी- तल्लास्यूनरा पता है मेरा। गर्व है मुझे कि इस सुदूर पहाड़ी गाँव में जन्मा ठेठ पहाड़ी हूँ मैं। कि मेरे रोम-रोम में हिमालय की मिट्टी बसी है। कि शीश मेरा चूमता है असमान और मेरी गोद में खेलती हैं पर्वत श्रृंखलायें।)

हिमालय सौन्दर्य

उत्तरकाशी बै काली-कुमूँ जाँलै
क्या सुन्दर छाजि रै मेरी बाड़ी,
क्या कुनु खिच हँसैं पारबती
जो लाल बुरूँशी का ओट पिछाड़ी।
तराई-माल-हिमाल-बुग्याल
मोत्यूँ जैसा फोकी द्यूँ ऊ हँसी प्यारी,
ज्ञान-ध्यान धरिये रै जाँ जोगी को
खितकनी ह्यँयूँ की लली का अघ्याड़ी ।।

(हिन्दी अर्थ : कि उत्तर की काशी से लेकर काली-कुमाऊँ तक क्या सुन्दर फुलवारी सजी है। कि क्या कहें उस अनुपम दृश्य के बारे में जब लाल बुराँश की ओट शैलसुता पार्वती अनायास ही खिलखिला पड़ती है। अद्भुद, प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच ध्यान मग्न 'जोगी' को देखकर। कि तराई-भाबर-हिमाल और बुग्यालों में वही हँसी तो बिखरती है अनमोल मोती बनकर। कि अन्ततः सारा ज्ञान-ध्यान धरा का धरा रह जाता है 'जोगी' (शिव) का खिलखिलाती हिम लली (पार्वती) की उनमुक्त हँसी के सामने। )

सम्पादकीय : अहिंसक प्रतिरोधों की अनदेखी की जायेगी तो माओवाद पनपेगा

loharinag-pala-hydropower-projectउत्तराखंड में लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना का निर्माण बंद कर दिया गया है। उड़ीसा में वेदान्ता कम्पनी को खनन करने से रोक दिया गया है। उ.प्र. में किसानों के जबर्दस्त प्रतिरोध के बाद केन्द्र सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिये विवश हो गई है। पन्द्रह साल पहले बहुत जोर-शोर से जिस आर्थिक उदारीकरण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की भयंकर लूट शुरू हो गई थी, उसमें एक बहुत बड़ा अवरोध आ गया है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के जैकारा लगाने वाले मुख्यधारा के मीडिया की जबर्दस्त घुसपैठ के कारण भारत की जनता पहले भ्रमित थी। अब वह काफी सतर्क हो गई है। इसीलिये जी.डी.पी. को खुशहाली का पैमाना मानने वाली सरकार तमाम दमन के बावजूद जनता के प्रतिरोधों के सामने अपने आप को विवश महसूस कर रही है। यह तय है कि जनता के प्रतिरोध अभी बढ़ेंगे। अहिंसक प्रतिरोधों की अनदेखी की जायेगी तो माओवाद पनपेगा।

यह द्वन्द्व निकट भविष्य में बहुत तेज होगा। तेजी से बढ़ते खरबपतियों और उससे कई गुना तेजी से बढ़ते कंगालों की संख्या के बीच सरकार निश्चित रूप से असमंजस में है। विकास का जो रास्ता उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद लिया गया है, उससे लाभान्वित होने वाले लोग हर राजनैतिक पार्टी में हैं और गाँव-गाँव तक फैले हैं। वे हाथ में आ रही मलाई को कैसे छोड़ दें ? यहाँ उत्तराखंड में ही अपने को राज्य आन्दोलन का अलमबरदार बतलाने वाला उत्तराखंड क्रांति दल लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना का निर्माण रोके जाने के विरोध में ताल ठोक कर खड़ा हो गया है। जब उत्तराखंड ही मानसखंड और केदारखंड के बदले ठेकेदार खंड बन गया हो तो इस महादेश की परिस्थितियों की तो सिर्फ परिकल्पना ही की जा सकती है।

श्रद्धान्जलियाँ : वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये

उनके जाने से यह नदी समाप्त हो चुकी है

'गढ़ गौरव' के अगस्त 2010 के अंक से जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिरदा' के निधन का समाचार पढ़कर मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। मैंने नैनीताल स्थित कई मित्रों को फोन मिलाया, किन्तु इस संचार क्रांति के युग में भी किसी से सम्पर्क न हो सका। गिरदा को मैं लगभग 40 वर्षों से जानता था। इधर दो बार कई दशकों के बाद नैनीताल में उनके कैलाखान आवास पर भेंट भी हुई थी। एक बार तो वे मेरे नगर श्रीनगर में किसी कवि सम्मेलन में भी आये थे। उनकी हिमालय पर लिखी कविता श्रोताओं को खूब भाई थी। आकाशवाणी लखनऊ में वे कई सुन्दर मधुर गीत रिकार्ड कर चुके थे। एक नहीं सैकड़ों गीत उनके मधुर कण्ठ से प्रसारित हुए। उत्तराखण्ड की संस्कृति में तो मैं उन्हें नदी के रूप में मानता था। ब्रजेन्द्र, अनुरागी व गिरदा, ये तीनों गीत भी लिखते थे और उन्हें गाते भी थे। अब यह नदी समाप्त हो चुकी है। एक विख्यात रंगकर्मी के रूप में वे सदैव याद किये जायेंगे।

- नित्यानन्द मैठाणी

वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये

गिरदा से मेरा सम्पर्क राज्य आंदोलन के दिनों में हुआ। उनके ओजस्वी एवं हृदय की गहराइयों से निकले हुए स्वरों ने हम सब को उत्प्रेरित किया। घरों की चारदिवारी से हजारों की संख्या में निकली मातृशक्ति, बालक, युवा व वृद्धजनों के सैलाब में उनकी वाणी ने प्रयाण गीत की भूमिका निभाई। पर्वतीय अंचल की लोक कलाओं व लोक गीतों में उनकी गहरी पैठ थी। अपनी कविताओं में उन्होंने पर्वतीय अंचल के जनजीवन का सटीक चित्रण किया है, जिसमें माटी की महक, वृक्षाच्छादित वनों से आई बयार की सरसराहट व गाड़ गधेरों का सुसाट-भुभाट है। वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये। मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !

- गिरिजा शरण सिंह खाती

वह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गये

गिरीश भाई के साथ कई वर्ष गीत एवं नाटक प्रभाग में कार्य करते रहे। वे देश, काल परिस्थिति के अनुसार पद रचना करते, मैं उनकी संगीत रचनाएँ करता। कभी-कभी एक दूसरे की रचनाओं को समझने में वाद-विवाद भी होता, लेकिन वे सही चीज को अवश्य स्वीकारते। तब संगीत रचनाएँ मंच में तदनुरूप प्रभाव छोड़तीं। फिर कहते, हरदा का संगीत कुछ देर से सही समझ में आता है। मैं गाँव-गाँव व स्कूलों में सितार व संगीत को छोटे-छोटे भजन कीर्तन व लोकधुनों के माध्यम से समझाता। उन्हें बहुत हर्ष होता कि जन-जन में कुछ जागरूकता तो हो रही है, क्योंकि 40-50 वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड की परिस्थितियाँ भिन्न थीं। इस प्रकार कार्यक्रमों के दौरान जन-जन में जुड़ाव होने लगा। उन्होंने देखा कि उत्तराखण्ड की वही विषम परिस्थितियाँ हैं। सरकारी तन्त्र व्यवस्था, उत्तराखण्ड की जनता का दुःख-दर्द उनसे नहीं देखा गया। वे चिपको आन्दोलन, नदी बचाओ आन्दोलन, चुनावों पर व्यंग करती हुई कविताएँ इस प्रकार हुड़का लेकर गीतों के माध्यम से जन-जन में जोश भरते रहे। ऐसा समाजसेवी व्यक्ति प्रेरणा का स्रोत व आदर्श रूप में हमारे सामने आया। समाज के दुख दर्द में आखिरी दम तक जूझता हुआ अमरत्व को प्राप्त हो गया और हम व हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गया।

- हरिकृष्ण लाल शाह

गिरीश तिवारी 'गिरदा' सशरीर अब हमारे बीच नहीं रहे। समाचार पत्र से यह जानकर मुझे बड़ा आघात लगा। जैसा कि समाचार में बताया गया है कि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था, परन्तु अचानक मौत ने झपट्टा मारकर उन्हें हमसे छीन लिया।

मुझे उनसे मिलने और प्रत्यक्ष संवाद का बहुत कम अवसर मिला, परन्तु जितना कुछ मैं उनको समझा वह आंदोलनकारी, सामाजिक कार्यकर्त्ता की अपनी एक अलग पहचान रखते थे- जनकवि और गायक की उनकी अलग छवि अपनी जगह तो है ही। उनकी हमसे विदाई ऐसे समय हुई, जबकि उनकी और अधिक जरूरत हम सबको और हमारे पहाड़ी समाज को कुछ अधिक ही थी। एक-एक करके ऐसे संघर्षशील व्यक्तित्व बिछुड़ते जा रहे हैं, उनकी जगह लेने को अभी दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा है।

हम सब बहुत व्यथित हैं। परन्तु आप लोग, नैनीताल-अल्मोड़ा की अपनी टीम जो आपस में ऐसे एकजुट थे, घर परिवार और समाज के स्तर पर वे सब कुछ अधिक ही व्यथित होंगे। उनके घर-परिवार को संभालने को आप अपने को अकेला न समझें, हम सब आपके साथ हैं। गिरदा के क्रांतिकारी, संघर्षशील व्यक्तित्व को मेरा विनम्र प्रणाम।

- धूमसिंह नेगी

याद आते हैं लखनऊ के वे दिन कि जब पहले-पहल मेरी भेंट दारूलशफा में गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' से हुई थी। मैं तब लखनऊ में पढ़ता था और मेरे गार्जियन चन्द्र सिंह रावत विधायक हुआ करते थे। मेरी कविता, जो मैंने चीन के आक्रमण के दौरान बनाई थी, की उन्होंने मुग्ध कंठ से प्रशंसा की थी। कविताओं के आदान-प्रदान से पहली ही मुलाकात में घनिष्ठता हो गई थी। उन दिनों गिरदा क्ले स्क्वायर में अपने किसी संबंधी के घर में रहा करते थे। हम हजरतगंज की सैर करते और लाल बाग में आकर चाय-समोसे खाते। यह बात सन् 1966-67 की होगी। इसी बीच उन्होंने लखीमपुरखीरी के कुछ मित्रों से मिलाया और कहा कि ये लोग भी जनपक्षीय रुझान के हैं। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे लखीमपुरखीरी में चल रहे आंदोलन के बारे में बताया। इसके काफी अरसे बाद हमारी मुलाकात नैनीताल में तल्लीताल पर हुई।ं उन्होंने बताया कि वे साउन्ड एण्ड ड्रामा डिवीजन में बतौर कलाकार चयनित हुए हैं। कहने लगे, उमा भाई, कुछ समय बाबूगिरी वर्कचार्जी में बिताया अब मुक्ति पाकर जो मेरा बचपन से शौक रहा उसमें आ गया हूं। एक बार टिहरी मेला प्रदर्शनी में आयोजित कवि सम्मेलन में भेंट हुई। जिला परिषद बंगले में पहुंचकर वहां पहले से कवि जीवानन्द श्रीयाल, घनश्याम सैलानी, सरदार प्रेमसिंह, भूदेव लखेड़ा ने हमारा गर्मजोशी से अभिवादन किया और हम को राम-लक्ष्मण की जोड़ी की संज्ञा दे डाली।

मेरी उनकी पहली मुलाकात लखनऊ में हुई थी, जिसका अंत भी 25 मार्च 2009 को लखनऊ में ही हुआ। वहां हम उमेश डोभाल की शहादत दिवस पर गए हुए थे।

- उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी'

गिरदा का मेरा परिचय विगत 22 वर्षों से है। गिर्दा का सपना है समाज बदले, सब समान हों और महिलाओं का इसमें प्रमुख योगदान हो, जिससे सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलनों को बल मिले। इसके लिए जो परम्परायें हैं, उन्हें टूटना चाहिए। मैं चाहती हूँ कि उनके सपनों को साकार किया जाये, आन्दोलनो को बढ़ाया जाये। परम्पराओं को तोड़ा जाये तभी समाज बदलेगा। इन सपनों को साकार करने के लिए आओ मिलकर सब आगे बढें।

- चम्पा उपाध्याय

साथी गिरदा के असायमिक निधन का समाचार पाकर मन को बहुत दुःख हुआ। कृपया मेरी संवेदना उनके परिवार तक पहुँचा दीजियेगा।

- राधाकृष्ण कुकरेती

अलविदा प्रताप भय्या

इसे मात्र सहयोग कहें या भाग्य का लेख कि अभी आम जन की अभिव्यक्ति कहे जाने वाले गिर्दा की चिता ठण्डी भी नहीं हो पाई थी कि 22 अगस्त की रात पूर्व मंत्री प्रताप भैय्या के देहान्त की खबर ने सबको स्तब्ध कर दिया।

सात साल के शरारती प्रताप (जन्म: 30 दिसम्बर 1932, ग्राम च्यूरीगाड़) के दूध के दाँत भी अभी ठीक से नहीं टूटे थे कि वे आजादी के आंदोलन में शामिल हो गये। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन पिछड़े पहाड़ी ओखलकांडा ब्लॉक का यह बालक उत्तर प्रदेश की विधान सभा में सबसे कम उम्र का विधायक और फिर कम उम्र में मंत्री बन गया। हालाँकि बचपन से ही राजनीति के प्रति उनके जुनून को देखते हुए मंत्री पद उनके लिये प्रत्याशित ही था। अपने स्कूली दिनों से ही उन्होंने राजनीति में गहरी रुचि लेना आरम्भ कर दिया था। वे जहाँ खड़े हो जाते, उनके पीछे जन सैलाब उमड़ पड़ता था।

बहुआयामी प्रतिभा के धनी प्रताप भैय्या राजनीतिज्ञ ही नहीं विधिवेत्ता एवं शिक्षाविद भी थे। अधिवक्ता के रूप में उन्होंने सरोवर नगरी में सैकड़ों विधिवेत्ताओं को बुलाकर सैकड़ों विधि गोष्ठियों का आयोजन किया। उनकी विधि-गोष्ठियों में वकीलों के अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्तियों से लेकर सिविल क्षेत्र के मुनसिफ तक भाग लेते थे। 'भैय्या जी' नाम उनके गुरु, महान समाजवादी आचार्य नरेन्द्र देव ने दिया था। नरेन्द्र देव के नाम पर ही भैय्या जी ने शैक्षिक निधि का गठन किया। इसके तहत वर्तमान में यूपी तथा उत्तराखण्ड में सैकड़ों विद्यालय चल रहे हैं, जिनमें सरोवर नगरी का भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय व खटीमा का थारू इण्टर कॉलेज प्रमुख हैं।

अपनी धुन के पक्के भैय्या जी जब कोई गोष्ठी करते तो उन्हें भाग लेने वाले वक्ताओं तथा श्रोताओं की संख्या से भी कोई सरोकार नहीं होता था। कभी चन्द ही वक्ता और श्रोता होते थे। एक बार उनके सहित केवल 5 श्रोता ही एक गोष्ठी में उपस्थित थे, जिनमें उनके पुत्र के अतिरिक्त केवल उनके जूनियर ही थे। उन्होंने पाँच पाण्डव कह कर गोष्ठी करा डाली। वह अपनी कामयाबी का श्रेय अपनी पत्नी बीना जी को बराबर देते थे। पत्नी बीना जी की मृत्यु के बाद उन पर प्रकाशित पुस्तक का विमोचन राष्ट्रपति भवन में कराया। इसके अतिरिक्त पत्नी के संस्मरणों पर आधारित उनकी जीवन गाथा पर एक छोटी फिल्म के सम्पादन का कार्य भी किया। भैय्या जी ने कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने के अतिरिक्त जाति प्रथा के विरुद्ध सामाजिक लड़ाई भी लड़ी। विपुल प्रतिभा के धनी प्रताप भैय्या की ख्याति उत्तराखण्ड के बाहर सम्पूर्ण भारत तक फैली थी। देश के कई राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से उनके निजी रिश्ते रहे।

संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com

तुम हर एक उत्तराखण्डी के दिल में हो : गीता गैरोला

1988 का सितम्बर माह। 'नैनीताल समाचार' में उमा दी ने गिरदा से मिलवाया। गिरदा ये गीता गैरोला है, जिसने उत्तरा के लिये कविता भेजी है। मैंने दोनों हाथ जोड़, झुक कर अभिवादन किया। गिरदा अपनी जगह से उठकर मेरे पास आये। मेरे दोनों हाथ स्नेह से पकड़े और बोले, अरे ये तो छोटी लड़की है। कविताओं को पढ़ कर ऐसा लगा कि सयानी होगी। मेरे सिर पर बहुत हौले से दोनों हाथो से सहलाया और बोले, ऐसे ही लिखती रहना। बहुत अच्छी कवितायें लिखी हैं। ये थी मेरी गिरदा से आमने-सामने पहली मुलाकात। इससे पहले उनके गीत केवल पढ़े थे, गाये भी नही थे। मिलते समय डर था। इतने प्रसिद्ध व्यक्ति हैं, बात भी करेंगे या नहीं। गिरदा का वही स्नेह वही प्यार, वही प्रोत्साहन तब से लगातार बना रहा।

15 अगस्त 2010 को करीब 2 बजे 'समय साक्ष्य' से सुप्रिया का फोन आया। दीदी गिरदा आये हैं। बात करना चाहते हैं। मैने गिरदा को प्रणाम कहा। कहाँ हो बैणी, यहाँ आया हूँ। नराई लगी तो फोन कर दिया। वे उसी दिन रात को नैनीताल लौटने वाले थे। उस दिन मैंने आखिरी बार उनकी आवाज सुनी थी। मैं चाह कर भी उन से मिल नहीं पाई। ये फाँस जिंदगी की आखिरी साँस तक मन मे अटकी रहेगी कि उस दिन मिल लेती तो ? अभी तुम्हारे जाने की बात तो नहीं थी गिर्दा। जब भी हम तुम से पूछते थे स्वास्थ्य कैसा है तुम जवाब देते मैं तो ठीक हूँ शरीर साथ नहीं देता । हमसे ही भूल हो गयी गिरदा हम अपने लोगो को समय पर सम्भाल नहीं पाते। हम तुम्हारे ऋणी रहेंगे हमेशा स्नेह और प्रेरणा के साथ दिल को छू लेने वाले गीतों के लिये। तुम हर एक उत्तराखण्डी के दिल में हो।

- गीता गैरोला


वे सवाल हमेशा के लिये अनुत्तरित रह गये : विनीता यशस्वी

मैं नैनीताल समाचार के कम्प्यूटर पर 'गौर्दा' की एक कविता टाइप कर रही थी। 'गिरदा' और 'गौर्दा' के बीच फर्क न मालूम होने के कारण मैंने हरीश पंत जी से पूछा- मैं जिनकी कविता टाइप कर रही हूँ, क्या यही हैं जो बाहर बैठे हैं ?'' पंत जी ने कहा- नहीं ! गौर्दा मेरे परनाना हुए और बाहर बैठे गिरदा हमारे दोस्त। उस पहली मुलाकात में जब मैं गिरदा से मिली तो उन्होंने हाथ मिलाया और पूछा- कैसी है बब्बा ? कुछ ही दिन बाद उन्हें समाचार की निबंध प्रतियोगिता के पुरस्कार वितरण समारोह में 'कैसा हो स्कूल हमारा' कविता को पूरे हाव-भाव और लयात्मकता के साथ सुनाते देखा। मैं स्कूल से निकली ही थी, इसलिये लगा कि उन्होंने वह कविता बच्चों की जगह खुद को रख कर ही लिखी होगी।

फिर तो अक्सर समाचार कार्यालय में गिरदा से मुलाकात होती। वे हमेशा प्यार से मिलते। कितने बार तो कम्प्यूटर के कैबिन में ही मिलने चले आते। स्वास्थ्य बिगड़ने के साथ उनका ऑफिस आना कम हो गया। हम ही उनके पास जनमबार अंक, होली अंक या हरेला अंक के विषय में बातचीत करने जाते थे। जब भी वे नया सुझाव देते तो साथ में यह जरूर कहते- 'मेरी बात सुनी जाये पर मानी न जाये'। अपनी बात को जबरदस्ती मनवाने की कोशिश उन्होंने कभी नहीं की, न ही प्रकाशित हो चुके अंकों पर किसी तरह की टीका-टिप्पणी मैंने उनके मुँह से कभी सुनी।

इस साल पहली जनवरी को उनसे मिलने उनके घर गये थे। उनका स्वास्थ्य कुछ ढीला था, पर उन्होंने हमें अपनी कई कवितायें सुनाईं। दूसरे विषयों पर भी बातें करते रहे। 'मेरी तबियत खराब है' या 'मैं बीमार हूँ' कहते हुए मैंने उन्हें कभी नहीं सुना। हमेशा कहते- 'मैं बिल्कुल ठीक हूँ वीना बेटा।' पिछले कई समय से वे मुझे वीना बेटा कहकर ही बुलाते थे।

मेरे लिये दिल को छू जाने वाला पल वह है, जब उन्हें पता चला कि मेरी तबियत खराब है और उन्होंने मुझसे मिलने मेरे घर तक आने की जिद की। मुझे जवाब भिजवाया कि वीना से कहो मेरे घर आ जाये। बाद में जब मैं उन्हें बाज़ार में मिली तो उन्होंने बार-बार यही उलाहना दिया कि तू हमारे घर क्यों नहीं आ गयी ?

हमारी अंतिम मुलाकात 17 अगस्त को हुई जब मैं और हरीश पंत जी मॉर्निंग वॉक करते हुए उनके घर गये। हम आठ बजे से पहले ही पहुँच गये थे। पंत जी कह रहे थे, पता नहीं गिरदा उठे भी हैं या नहीं। इन दिनों वे बहुत देर से बिस्तर छोड़ पाते थे। लेकिन उस दिन गिरदा दूर से ही बरामदे में टहलते हुए दिख गये। हमें देख कर बहुत खुश हुए। लेकिन बीच-बीच में घड़ी में झाँकते रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा कि इतनी बेचैनी क्यों हो रही है तो बोले- ''अरे यार ! अभी मैंने एक दवा खाई है। उसके बाद एक घंटे तक न कुछ खाना है और न सोना है। अब बस 2 मिनट ही और बचे हैं।'' दो मिनट पूरे होने पर वे हमारे साथ बैठे और चाय पी। आदतन 2-3 बीड़ियाँ भी सुलगाई। पंत जी ने मजाक में कहा- तिवाड़ी जी, नाश्ते में बीड़ी जरूर पीनी हुई ? गिरदा अपने अंदाज में हँस दिये। उस दिन गिरदा ने पहली बार मुझसे मेरी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारे में बात की। स्वतंत्रता दिवस पर देहरादून में हुए कवि सम्मेलन, जो उनका आखिरी सार्वजनिक कार्यक्रम रहा, के बारे में बताया। फिर उदासी के साथ बोले- ''बब्बा, सब पैसों का खेल है, और कुछ नहीं।'' लौटने से पहले मैंने कहा- गिरदा, मुझे आपसे विस्तार से बातचीत करनी है। मैं फिर आउँगी।'' मैं ज़हूर दा, अरुण रौतेला जी, पंत जी और संपादक जी के साथ मिलकर गिरदा के लिये एक प्रश्नावली तैयार कर रही थी, ताकि हर विषय पर उनके विचार जान सकूँ। उन्होंने स्नेह से मेरे दोनों हाथों को दबाया और बोले- ''वीना बेटा, तेरा ही घर है जब चाहे आ जाना।'' …

वे सवाल हमेशा के लिये अनुत्तरित रह गये


संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com

उनकी बात ही अनोखी थी : अमीनुर्रहमान

1992 में हमने सांप्रदायिक सद्भाव के लिये अल्मोड़ा में 'युवा शांति मंच' के गठन उपरान्त कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन करने का निर्णय लिया गया। मगर सभी तैयारियों के बाद भी अधिकांश कवि-शायरों की शिरकत न होने से हम आयोजनकर्ता मायूस हो गये। तब आयोजन से एक दिन पूर्व साथी पी.सी. तिवारी ने गिरदा को फोन कर कहा कि आप आ जाते तो साथियों का प्रयास सफल हो जाता। गिरदा ने फौरन सहमति दे दी। हमारी चिन्ता दूर हो गयी।

थोड़े से श्रोता रैमजे इंटर कॉलेज के हॉल में थे। इक्का- दुक्का कवि व शायर भी। हर साथी मुँह लटकाये था। पहला प्रयास था, सफल नहीं होगा तो सबका हौसला टूटेगा, इसी की चिन्ता हो रही थी। कंधे में झोला टाँगे, वास्कट पहने, टोपी लगाये गिरदा सामान्य व्यक्ति की तरह दर्शक के रूप में मंच के सामने कुर्सी में बैठ गये। अचानक मेरी नजर उन पर गयी तो मैं उनके पास गया। उन्होंने तुरंत अपनी आदत के मुताबिक गले से लगा लिया। वे बड़ी मुश्किल से मंच पर मुख्य अतिथि की हैसियत से बैठने को राजी हुए। श्रोता, जो वापस जाना चाह रहे थे, उनका नाम सुन कर रुक गये। बल्कि, कार्यक्रम की शुरूआत में ही गिर्दा ने अपनी मधुर आवाज में जो कविता पाठ किया उसे सुनकर बाहर से भी लोग भारी संख्या में अंदर हॉल में आ गये। फिर लोगों के आग्रह व उत्साह को देखते हुए गिरदा ने एक के बाद दूसरी रचनायें प्रस्तुत कीं। हॉल फुल हो गया और तालियों की गड़गड़ाहट होने लगी। कवि सम्मेलन रात्रि दो बजे तक चला।

हम लोग उन्हें नैनीताल से अल्मोड़ा आने-जाने का मामूली सा किराया दे रहे थे, पर उन्होंने लेने से इंकार कर दिया। कार्यक्रम में बिना नखरे के एक दम आना व अपनी जेब के पैसे खर्च करना फिर पूरी दिलचस्पी से कविता पाठ करना अपने आप में अनोखी बात थी।

- अमीनुर्रहमान

धोखेबाज तिवाड़ी जी !!

तेवाड़ी जी, तुम तो बहुत धोखेबाज निकले यार ….बड़े ही बेमुरव्वत!

altउस रोज जब तुम पाईंस के नया घाट में चिता पर लेटे थे, बगल में टिन शेड  के नीचे औरतें कोरस में 'हम ओड़, बारुड़ि, ल्वार, कुल्लि कभाड़ि….' गा रही थीं और भीड़ में धँसकर तुम्हारे करीब पहुँच कर तुम्हारा चेहरा मलासते हुए मैं तुमसे 'बाई' कह रहा था, तब यही तो सोच रहा था कि अब तो तुम्हारी जरूरत नहीं पड़ेगी। अपने हिस्से का इतना सारा तो निपटा गये हो तुम…..

तुम्हें मालूम है कि शेखर….हाँ-हाँ तुम्हारा 'चना'……'प्रोफेसर' रातों को सो नहीं पा रहा है उस दिन से और यहाँ यह अंक…..?

बार-बार हाथ 238430 नंबर डायल करने को आगे बढ़ जाता है कि उधर से तुम ''हाँ….जीऽऽ'' कहते हुए फिर आश्चर्य से पूछोगे कि ''आज बेवक्त…..क्या बात ?'' मैं तुम्हें बताउँगा कि यह स्साला अंक गले में फँस गया है। उमा ने न जाने कहाँ-कहाँ फोन कर लिखवाया है, नब्बू ने पूरी लिस्ट भेजी है समाचार में छपे तुम्हारे लिखे की, हरीश पंत हर तीसरे दिन आ जाता है हल्द्वानी से कि आज मैटर फाइनल कर ही देते हैं करके…….और तो और दिनेश उपाध्याय भी कई बार आकर टोपटाल मार गया है……..मैं कई चक्कर लगा चुका हूँ पवन राकेश की दुकान के कि 'आओ, अब आकर निपटा ही दो' कहने। मगर यह सामग्री इतनी फैल और बिखर गई है कि दिमाग ही काम नहीं कर रहा है। पेज भी बढ़ायें तो कितने ? आखिर अखबार के इन पन्नों की औकात जो क्या हुई जो तुम्हें समेट सकें। हालाँकि हमने तय किया है कि कम से कम साल भर तक तुम्हारे बारे में लगातार, हर अंक में सामग्री देते रहेंगे। मगर अपने लेखकों का क्या करें ? सभी का तुम पर बराबर का हक हुआ, जिसके भी हरफ न छपें उसी के दिल पर चोट लगेगी। वैसे ही इल्जाम लगाते हैं कि जो सबसे महत्वपूर्ण था मेरे लिखे में, वही काट दिया सम्पादक जी ने करके। इस बार तो तुम्हें लेकर उनकी घनीभूत भावनायें उन्हें और जल्दी क्रुद्ध कर देंगी। गोविन्द पहले ही बिफरा पड़ा है कि 'पिछले अंक का कबाड़ा कर दिया…….इतना पर्फेक्शनिस्ट था गिरदा…….उस पर ऐसा अंक! लानत है! इससे बेहतर है कि ताला ठोंक दो समाचार में।'…….अब बताओ बन्द भी कैसे करें ? तुम मान जाओगे क्या ?

……मैं खामख्याली में उम्मीद करता हूँ कि तुम बोत्याते हुए जवाब दोगे, ''फिकर मत कर बब्बा……मैं आ रहा हूँ…….डाक्टर के पास आना ही है आज…….वहीं होटल में बैठ कर थोड़ी देर बकबक करेंगे……..कुछ न कुछ निकल ही आयेगा।''

altमगर तत्काल ही सच्चाई झटका मारती है। मुझे ध्यान आ जाता है कि तुम नहीं आओगे…….कहा न…….तुम
धोखेबाज जो निकले तेवाड़ी जी! …….
चलो फिर ऐसे ही सही! जितना छपेगा, जो छपेगा उतना ही सही। मना लेंगे बाकी लोगों को बाद में। हाथ जोड़ लेंगे। बाद में धीरे-धीरे सभी को छापेंगे। तुम्हें याद रखने का एक तरीका यह भी तो हुआ। फिलहाल तुम्हें 'इन्ट्रोड्यूस' तो करें अंक में। मेरे विचार से 15 से 31 दिसम्बर 1977 के 'नैनीताल समाचार' में छपा, मेरा लिखा यह फीचर ठीक रहेगा। उससे पहले तुम कवि, रंगकर्मी, राजनीतिक कार्यकर्ता जो भी रहे होगे, सड़क पर उतर कर 'गिरीश तिवाड़ी' से 'गिरदा' बनने की शुरूआत तो तुम्हारी वहीं से हुई ठहरी…..और 1 से 14 जनवरी 2010 के अंक में प्रकाशित 'नये साल का एहतेराम', जो शायद तुम्हारी अन्तिम कविता साबित हुई…….

किस्सा गौर्दा, गिरदा और हुड़के का….

राजीव लोचन साह

हुड़के से हर पहाड़ी व्यक्ति परिचित है। डमरू की तरह का विशुद्ध पहाड़ी वाद्य यंत्र। गिरदा यानी एक बत्तीस साला दढ़ियल, कवि, नाटककार, गायक और हर ईमानदार मुद्दे को लेकर लड़ने-मरने को तत्पर एक घोर दुर्गुणी इन्सान- गिरीश तिवाड़ी। और गौर्दा ? कुमाउंनी के प्रसिद्ध कवि स्व. गौरीदत्त पांडे, जिन्होंने 1926 में लिखी अपनी कविता 'वृक्षन को विलाप' में जंगल को जिस समग्रता के साथ महसूसा है, ठेकेदारों से घिरे वन मंत्री उसे 1977 में भी नहीं महसूस पा रहे हैं। यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं कि पिछले दिनों नैनीताल वन आन्दोलन में गौर्दा, गिरदा और हुड़का एकाकार हो गये।

27 नवम्बर की उस रात हम आगे के लिये सोच रहे थे। कुमाऊँ वि. वि. में इतिहास के प्रवक्ता शेखर पाठक, पिथौरागढ़ से आये जनता पार्टी के नेता महेन्द्र मटियानी और उनके भाई दीवान मटियानी, गिरदा और मैं। विश्वसनीय सूत्रों ने बताया था कि लखनऊ से प्रशासन पर जबर्दस्त दबाव पड़ रहा है और हम लोग रात में ही किसी वक्त गिरफ्तार किये जा सकते हैं। बेहतर था कि हम भूमिगत हो जाते और वही हमने किया। अन्य आन्दोलनकारी पता नहीं कहाँ-कहाँ छुपे रहे, पर हम उस वक्त खुले आसमान के नीचे घुटने पर सिर दिये बैठे थे। आसमान में बादल थे, झील के शान्त पानी में नैनीताल की रोशनियाँ झिलमिला रही थीं और हम सोच रहे थे कि रात कहाँ काटी जाये।

तभी हुड़के, यानी गिरीश तिवाड़ी की आवाज आई, ''यार दाज्यू, हम कब तक चोरों की तरह भागते रहेंगे ?'' मैं खुद
तनाव में था, झल्ला पड़ा, ''नहीं, चलो थाने में चलते हैं और कहते हैं कि हमें गिरफ्तार कर लो।''

हुड़का फिर शान्त हो गया।

लेकिन हम जो यह सोच रहे थे कि यह हाथ-पाँव छोड़ देने की शांति है, वह गलत साबित हुई। वह गिरदा की आंतरिक उथल-पुथल थी। अगले दिन सुबह जागने तक गौर्दा की कविता 'वृक्षन को विलाप' का हुड़का संस्करण तैयार
हो गया था और मेरे मुँह-हाथ धोने तक भाई लोग रिहर्सल करने लगे थे।

पौने दस बजे हुड़का शैले हॉल के आगे गूँजने लगा था, ''नी कर दियो हमरी निलामी, नी करण दियो हमरो हलाल।'' वह 28 नवम्बर का घटनापूर्ण दिन था। उस वक्त तक ठेकेदार आने लगे थे और हम प्रदर्शनकारी उन्हें मना रहे थे कि वे नीलामी में भाग न लें। पहाड़ के जंगल हमारी जिन्दगी हैं और इनसे छेड़छाड़ कर हमें खुद को तबाह नहीं करना चाहिये। हुड़का गूँज रहा था। लोग कुछ समझ रहे थे, कुछ नहीं समझ रहे थे।

तभी खबर आयी कि तल्लीताल में हमारे साथी गिरफ्तार हो गये हैं। बस फिर क्या था ? हुड़के को जोश आया। उसने सामने बने बैरीकेड और पुलिस की विशाल सेना की परवाह न कर शैले हॉल के अन्दर घुस जाने का प्रयास किया। लेकिन बेचारा गिरफ्तार हो गया।

जब गिरफ्तार हुड़का नैनीताल के बड़ा बाजार से ले जाया जा रहा था, तब भी वह गूँज रहा था, ''हिमालय के लाल, आज हिमालय तुझे पुकार रहा है।'' हम भाग लगाते हुए चाँचरी नृत्य नाचते हुए, बाजार से गुजर रहे थे और नैनीताल के नागरिक कुतूहल के साथ हमें देख रहे थे। जब रिक्शा स्टैण्ड पर हुड़के को पी.ए.सी. के ट्रक पर लादने की कोशिश की गई, तब उसने प्रबल विरोध किया। उसकी माँग सिर्फ यह थी कि वह जहाँ भी जायेगा, पैदल जायेगा और अपने देशवासियों को पेड़ का दर्द सुनायेगा।

मगर जब हुड़के को घसीटते हुए पी.ए.सी. के ट्रक पर जबरन फेंक दिया गया, तब वहाँ मौजूद हजारों नागरिकों
की आँखों में आक्रोश था- शुद्ध और जमा हुआ। बेचारे! उन्हें क्या मालूम था कि यह तो जुल्म की सिर्फ शुरूआत है।

हवालात में गिरदा ने हुड़का, दो जनेऊ, बीड़ी का बंडल और एक रुपये का नोट- मतलब अपनी समस्त जमापूँजी
थानेदार को सौंप दी। हुड़का बाहर रह गया। मगर हवालात के अन्दर कैदी चने खाते हुए गिरदा से धूमिल की कवितायें सुनते रहे।

लगभग छः घंटे बाद जब हुड़के को यह कह कर हल्द्वानी की हवालात से रिहा किया गया कि नैनीताल में नीलामी
स्थगित कर दी गई है तो वह आश्चर्यचकित रह गया। कैसा चमत्कार ? यह तो बाहर आकर पता चला कि नैनीताल में भयंकर हिंसाकांड हो गया है। नैनीताल क्लब जल गया है और पाँच लोग मारे गये हैं। हाँ, हल्द्वानी में अफवाह यही थी कि पाँच लोग मारे गये हैं।

हुड़का बहुत मायूस था। उसके होंठ बन्द थे और आँखों में कातरता थी। बहुत देर बाद अस्फुट से स्वर उसकी जबान
से निकले, ''यार दाज्यू, अब मैं किस मुँह से नैनीताल जाऊँ ? मैं लखनऊ जाउँगा और वन मंत्री से कहूँगा लो मेरी भी गर्दन काट लो।''

हुड़के की ही नहीं, उस रात सबकी मनःस्थिति ऐसी ही थी। यह तो बहुत देर बाद मालूम पड़ा कि मरा कोई नहीं
है। हुड़का अगले दिन प्रातः पुनः बहुत दुःखी दिखाई दिया। उसे बताया गया कि उसे नैनीताल पहुँचाने की व्यवस्था
नहीं की जा सकती। जबकि उसकी माँग थी कि जिस तरह उसे हल्द्वानी लाया गया है, उसी तरह नैनीताल पहुँचाया जाये।

जब उसकी बातें नहीं मानी गईं तो उसे क्रोध आ गया, ''ये आई.ए.एस.! हमारी ही किताबें पढ़ कर एम.ए. करते हैं और अफसर बन जाते हैं। हमारे साथ यह सलूक क्या इसलिये किया जा रहा है कि हम ढंग के कपड़े नहीं पहनते, अंग्रेजी में नहीं बोलते ?''

अपनी माँग मनवाने के लिये हुड़का फिर सड़क पर बैठ गया। हल्द्वानी के नागरिक एक के बाद एक आते रहे और
हुड़के की आपबीती सुन कर अफसरशाही को कोसते रहे। अन्ततः हुड़के की माँग स्वीकार हुई। उस शाम हुड़का मल्लीताल के रामलीला मैदान में फिर गूँज रहा था और पिछले दिन की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से सहमी हुई नैनीताल की जनता, हजारों स्त्री-पुरुष हुड़के को सुन रहे थे, समझ रहे थे।

लोगों की दृष्टि में अब कुतूहल नहीं था। हुड़का उनके सुख-दुःख का साथी हो गया था।

हुड़का आजकल अल्मोड़ा, रानीखेत, बागेश्वर, कर्णप्रयाग, जोशीमठ तथा गोपेश्वर की यात्रा पर है। गौर्दा के शब्दों में, गिरदा के गीतों में तथा चंडीप्रसाद भट्ट के भाषणों में वह बतला रहा है कि जंगल क्यों नहीं कटने चाहिये। हमारा शोषण क्यों बन्द होना चाहिये और हमें क्यों सम्मानित नागरिकों की तरह रहने का अधिकार होना चाहिये।

पहाड़ को जगाने के लिये हुड़का अभी भी गूँज रहा है…………ल गा ता र!

साल का एहतेराम

वक्त का सिलसिला यों ही चलता रहा
और करता रहा बागियों  को सलाम !

यों  गुजरता रहा रात-दिन जुल्म से happynewyear-2010
हर बगावत से पाता नया इक मुकाम।

अपने–अपने समय के मेरे बागियो
इस समय का तुम्हारे समय को सलाम !

हर बगावत ने जो भी नया कुछ रचा-
गीत, नग्मा, रुबाई, गजल को सलाम !

सिलसिलों को सलाम, मंजिलों को सलाम
आने वाले तेरे-मेरे कल को सलाम !

साल का एहतेराम

'गिर्दा' गिरीश तिवाड़ी


खुद को बटोरे बिना ही चल दिये, गुरू!

'नैनीताल समाचार' की फाइलें पलट रहा था। पीले और भुरभुरे हो चुके पन्नों से गिर्दा महकने लगे। 'अच्छा ऐसा ऽऽऽ!' कहकर गिर्दा किसी पन्ने के बीच से चहकने लगते, 'हड़ि ' कहकर जैसे पूरी व्यवस्था को दुत्कारने लगे। 'शिबौ-शिब' उच्चार कर सत्ताधारियों की खिल्ली उड़ाने लगते। किसी शीर्षक से उनका रौद्र रूप प्रकट होता तो होली के बोलों पर आधारित कोई हेडिंग हिया में कुरकुताली लगाने लगती। नंदप्रयाग में गोली चलती तो गिर्दा की गजल-गोली 'समाचार' के पन्नों से जवाबी फायर करने लगती- 'गोलियाँ कोई निशाना बाँधकर दागी थीं क्या/खुद निशाने पर पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें।' कहीं फैज, कहीं साहिर, कहीं कबीर, कहीं नजीर, कहीं गौर्दा, कहीं सीधे लोक से बनाए गए प्रयोग-'जब से दशरथ ललन एम पी हो गए, हुए कृष्ण एमएलए तो मैं क्या करूं…।' अभिव्यक्ति को सटीक और मारक बनाने के लिए कहाँ-कहाँ उड़ जाता था गिर्दा और क्या-क्या चुन लाता था….। ट्रेडिल प्रेस पर छपने वाले अखबार में पीतल के रूल को मोड़-मरोड़ कर देश का नक्शा छापने की जिद वही सफल करा सकता था।

पर यह तो बहुत बाद की बातें हैं।

मैंने पहले-पहल गिरीश तिवाड़ी को 1971 में आकाशवाणी, लखनऊ के स्टूडियो में देखा था। कुमाउंनी-गढ़वाली बोली का 'उत्तरायण' कार्यक्रम, स्वतंत्रता दिवस, वसंत पंचमी आदि मौकों पर आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष लोक कवि गोष्ठी आयोजित किया करता था। वह ऐसी ही एक कवि गोष्ठी थी, जिसके बारे में मुझे चन्द्रशेखर पाठक नामक उस लम्बे-पतले युवक ने बताया था जो पीडब्ल्यूडी में दिहाड़ी पर क्लर्की करते हुए संयोग से हमारी कैनाल कालोनी में सनवाल जी के कमरे में रहने आ गए थे और जो कुछ समय बाद दफ्तर में किसी बात से आहत होकर, अस्थाई नौकरी को लात मार कर वापस अल्मोड़ा लौट गए थे और कालान्तर में इतिहासविद प्रो. शेखर पाठक के नाम से विख्यात हुए।

aisey-bhi-they-girdaखैर, तो 'उत्तरायण' की कवि गोष्ठी में उस शाम बृजेन्द्र लाल साह, पार्वती उप्रेती, चारु चन्द्र पाण्डे, लीलाधर जगूड़ी, जीवानन्द श्रीयाल, गोपाल दत्त भट्ट आदि के बीच एक गिरीश तिवाड़ी नाम्ना सुदर्शन कवि भी थे, जिन पर तब तक द्य्ना नहीं गया था जब तक कि कविता सुनाने की उनकी बारी नहीं आ गई। उन्होंने उस दिन अपनी 'वसंत' कविता सुनाई, बल्कि गाई- 'रात उज्याली, घाम निमैलो, डान-कानन में केसिया फुलो। हुलरी ऐगे वसंत की परी, फोकीगो जाँ-ताँ रंग पिंहलो ऽऽऽ…।' उनके मीठे गले ने, गीत ने, शब्दों को उच्चारने, हाथों को नचाने और चेहरे पर वसंत का उल्लास उतार लाने के अंदाज ने उस दिन आकाशवाणी, लखनऊ के पुराने स्टूडियो के कक्ष नंबर एक में बीस-पच्चीसेक श्रोताओं के बीच वह समाँ बाँध दिया था जिसे कहते हैं-महफिल लूट लेना!

मुझे याद है, उस दिन आमंत्रित कवियों को दो दौर में अपनी कविताएँ पढ़नी थीं। रिकॉर्डिंग का समय निर्धारित था। वंशीधर पाठक जिज्ञासु और जीत जड़धारी की जोड़ी बारी-बारी से संचालन कर रही थी। 40-45 मिनट की निर्धारित अवधि में रिकार्डिंग पूरी कर गोष्ठी का औपचारिक समापन कर दिया गया था, लेकिन अपनी बोलियों के काव्य-रस से सराबोर प्रवासी श्रोता और भी सुनना चाहते थे। सो, रिकार्डिंग बन्द करने के बाद देर तक गोष्ठी चलती रही। चारु चन्द्र पाण्डे, जगूड़ी, जीवानन्द श्रीयाल और गोपाल दत्त भट्ट की उस दिन सुनी कुमाउंनी-गढ़वाली कविताओं की मुझे आज थोड़ी-थोड़ी याद है। लेकिन गिरीश तिवाड़ी की कविताएँ ही नहीं, उनका उस दिन का पूरा गेट-अप भी स्मृति में जस का जस टँगा हुआ है। इसका एक कारण यह भी जरूर होगा कि कालान्तर में उनसे संबंध प्रगाढ़ होने पर वे कविताएँ कई बार सुनीं लेकिन उस दिन काली टोपी, गोरे मुखड़े पर करीने से बनी घनी काली दाढ़ी और काली शेरवानी में सबसे अलग और खूब फब रहे गिरीश तिवाड़ी की वह छवि मन से कभी उतरी ही नहीं। तब भी नहीं जबकि बाद में वे बिल्कुल अराजक, बल्कि अघोरी जैसा जीवन जीने लगे थे और हम सबके आत्मीय हो चुके फक्कड़ गिर्दा का उस सुदर्शन कवि गिरीश तिवाड़ी से रिश्ता जोड़ना अकल्पनीय जैसा लगने लगा था। हाँ, अपने फक्कड़पन के शुरूआती दिनों में भी गिर्दा को अपनी दाढ़ी से कुछ-कुछ लगाव रह गया था और तल्लीताल डाँठ के नुक्कड़ वाली नाई की दुकान में कभी-कभार वे लखनउवा खत बनवा लिया करते थे। नाई की दुकान के ठीक बगल में कबाब की दुकान भी हुआ करती थी, जहाँ से गाहे-ब-गाहे कबाब खाना-खिलाना भी उन्हें पसंद था।

तो, 1971 की उसी कवि गोष्ठी में गिर्दा ने अपनी 'चिट्ठी' कविता भी सुनाई थी, जिसने पहाड़ की नराई में व्याकुल रहने वाले मुझ किशोर को भीतर तक छू लिया था। अपने घर-गाँव और इजा-दीदी की नराई फेरने के लिए मैं तब अपने कमरे के एकान्त में कागज काला किया करता था। कविता, कहानी, उपन्यास से मेरा कोई वास्ता पड़ा न था। उस दिन जब गिर्दा ने सुनाया-'पै के करूँ, पापी पेटैल् छोड़ै दे म्योर मुलुक मैथैं/नन्तर क्वे काटि लै दिनो मैं कैं ताँ नि छोड़न्यू मैं' तो मेरी नराई को जैसे किसी ने वाणी दे दी हो। वहाँ उतने लोग न होते तो मैं शायद रो ही पड़ता।

कवि गोष्ठी के बाद सब लोग कवियों को बधाई दे रहे थे, बात कर रहे थे। परम संकोची मैं एक कोने में खड़ा गिरीश तिवाड़ी को देखे जा रहा था और उनसे बात करना चाहता था। चन्द्रशेखर पाठक शायद उस शाम वहाँ पहुँच नहीं पाए थे। किसी तरह हिम्मत करके गिरीश तिवाड़ी के पास गया और 'चिट्ठी' कविता की बाबत पूछने लगा। वे बहुत स्नेह से मिले थे, जैसा कि उनका स्वभाव अन्त तक सबके लिए बना रहा। प्यार से बोले थे-''भुला, एक किताब छपी छु-शिखरों के स्वर। वी में छु ये चिट्ठी। तु जिज्ञासु ज्यु थैं माँगि ल्हिये। उनार पास छन किताब।''

जिज्ञासु जी से भी इतना परिचय कहाँ था। उस कवि गोष्ठी की मीठी स्मृतियाँ और 'चिट्ठी' कविता की कसक मन में भरे लौट गया था। उस दिन से मैं भी उसी तरह की कविताएँ-गीत लिखने की कोशिश करने लगा था, हालाँकि एक भी पंक्ति कायदे की नहीं बनती थी। लेकिन तब तो यही लगता था कि बस, अब बन ही गया कवि…..।

कुछ समय बाद जिज्ञासु जी से परिचय भी चन्द्रशेखर पाठक ने ही करवाया, जो तब तक मेरा शेखर दा या ददा बन चुका था। शेखर दा तब दफ्तर से बचे समय में कहानी-कविता लिखता, दिनमान पढ़ता और नाक की डण्डी में उग आए एक दाने को अंगुली से लगातार घिसता हुआ अरविन्दो या चे ग्वेवारा की, मेरे लिए अबूझ-सी किताबों, में डूबा रहता था। बीच-बीच में मैं उसे अपने रचे 'महान साहित्य' से तंग किया करता था। शेखर दा का साल भर या शायद आठ-दस महीने ही लखनऊ के हमारे मुहल्ले में रहना मेरे लिए दिशा-निर्देशक बन गया।

जब शेखरदा पहाड़ लौट गया और अल्मोड़ा महाविद्यालय से इतिहास में एम.ए. करने लगा तब भी 'लक्ष्मेश्वर, अल्मोड़ा' से उसके पोस्टकार्ड बराबर आते रहते। जब भी वह लखनऊ आता मुझसे मिलने कैनाल-कालोनी जरूर आता। एक बार उसके साथ युवकों की पूरी टोली ही थी। अपने ही अंदाज में शेखरदा ने परिचय कराया-'ये शमशेर सिंह बिष्ट, अध्यक्ष हैं अल्मोड़ा डिग्री कालेज छात्र संघ के। ये विनोद जोशी-महामंत्री, ये हरीश जोशी…।' पहाड़ के उन ऊर्जावान युवकों से मिलना रोमांचक अनुभव था। वे पहाड़ के किसी विधायक के यहाँ रॉयल होटल में रुकते थे, जो आकाशवाणी भवन के पड़ोस में ही था। मैं अधिक से अधिक समय उन युवकों के साथ बिताता।

shikharon-ke-swar-ka-pahla-pageएक बार ऐसा संयोग हुआ कि गिरीश तिवाड़ी आकाशवाणी के कवि सम्मेलन में आए और अल्मोड़ा से शमशेर आदि भी विधायक निवास में ठहरे थे। उस पहली कवि गोष्ठी को दो-तीन बरस हो गए थे। 'चिट्ठी' कविता मन में गूँजती रहती थी और जिज्ञासु जी से 'शिखरों के स्वर' माँगने की हिम्मत पड़ी न थी। उस बार मैंने अपने प्रिय कवि से ही कहा-'गिर्दा, शिखरों के स्वर मुझे मिली नहीं।' उन्होंने क्या कहा मुझे याद नहीं। कवि सम्मेलन के तुरन्त बाद मैं शमशेर के साथ कहीं चला गया। गिर्दा बाद में शमशेर से मिलने गए होंगे मगर कमरे में कोई नहीं मिला। गिर्दा को उसी रात वापस लौटना था। दो चार दिन बाद जब मेरी जिज्ञासु जी से भैंट हुई तो वे मुझे अपने घर ले गए और एक किताब मुझे दी। किताब का नाम था-'शिखरों के स्वर।' मैं बहुत खुश हो गया। किताब खोली तो उसके भीतर एक छोटा सा पत्र रखा था-

'प्रिय नवीन! शम्भू कैं चाँण हूँ वीक कमार में गैयाँ, उ नि मिल। उ थैं कै दियै गिरदा न्है गो कै। त्वील 'शिखरों के स्वर' जिज्ञासु दाज्यू थैं मांङी न्हैं। मांङि ल्हियै। बाँकि फिर भैंट हुण पर। पहाड़ आलै तो भैंट करियै।'

पत्र के नीचे हस्ताक्षर थे जो मैंने पहले कभी नहीं देखे थे लेकिन समझना भी मुश्किल नहीं था कि किसके हैं। 'ग' में खूब लहरदार होकर काफी ऊपर तक चली गई छोटी 'इ' की मात्रा से शुरू हुए वे हस्ताक्षर बाद में हमारे बहुत अजीज दस्तखत बने। वह चिट्ठी 'शिखरों के स्वर' की उस प्रति में आज तक मेरे पास सुरक्षित है। उसमें तारीख नहीं पड़ी है लेकिन यह शायद 1975 की बात है।

girda-signatureआज वह चिट्ठी देखता हूँ तो पाता हूँ कि अंत तक गिर्दा का हस्तलेख और हस्ताक्षर वैसे के वैसे बने रहे। सिर्फ 'गिरीश' हस्ताक्षर में भी बदल कर 'गिर्दा' हो गया, बस। लम्बी चिट्ठियाँ तो उसने शायद ही कभी लिखी हों, लेकिन छोटी-छोटी चिट वह खूब लिखता था। बिल्कुल जुदा अंदाज में 'अ' लिखना और मात्राएँ खींचना। लिखता बहुत तबीयत से था वह और हाँ, कलम भी बहुत प्रिय थे उसे। कलम की भैंट वह बहुत लाड़ से स्वीकार करता था और नए कलम से कागज में इधर-उधर अपने हस्ताक्षर करके खुश हो जाता था। उसकी जेब में कलम न लगा हो, ऐसा शायद ही कभी हुआ हो।

इतने वर्षों में उसके लिखे चिटों में सिर्फ एक फर्क आया था-'प्रिय नवीन' का संबोधन 'नबुवा' या 'नब्बू' में बदल गया था। ज्यादा लाड़ में हो तो 'स्साले नबुवा!' काफी दिनों बाद मिलने पर कस कर गले लगाते हुए 'तुमर नष्ट है जौ, तुमर' तो उसने कहना ही ठैरा! यह उसके लाड़ जताने का तरीका था। यह अद्भुत बात है कि रचनाकार गिर्दा का मूल स्वर प्रखर प्रतिरोधी और बेमुरव्वत था लेकिन इन्सान गिर्दा के भीतर बेपनाह मुहब्बत का दरिया बहता था और कोई एक या कुछेक ही उसके दावेदार न थे। वह सबको हासिल था। और इश्क ? हाँ, उसे इश्क भी हुआ था और उसकी चोट उसमें बहुत गहरे टीसती रहती थी लेकिन इसका जिक्र करना तो दूर, वह अपने बारे में ही कहाँ कुछ बताता था। यह बात फिर कभी।

बाद के वर्षों की तो बेशुमार यादें हैं, एक-दूसरे में गुँथी और झंझावात की तरह दिमाग में बवण्डर मचाती हुईं। इस बवण्डर के शांत होने में काफी समय लगेगा।

अभी तो एक रील सी है। एक कोलाज, एक मोन्ताज सा। नैनीताल में पहले प्रमोद साह के साथ का कमरा, फिर नैनीताल क्लब के नीचे वाली वह ऐतिहासिक कोठरी और उसमें भी राजा की रसोई और रात गए तक गिर्दा का हारमोनियम, हारमोनियम तक पहुँचने से पहले की बेहिसाब बहसें और मयनोशी। 'नैनीताल समाचार' की उत्तेजक और झगड़ा-मचाऊ बैठकें, तर्क-वितर्क, 'नशा नहीं रोजगार दो' आन्दोलन के दौर की यात्राएँ, अल्मोड़ा में शमशेर की कोठरी का रात्रिवास, नाटक की वे रिहर्सलें और अभिनव प्रयोग। नाटक या कविता या लोकगीतों की किताबें छापने की ऐसी योजनाएँ जो उनके गीत-संगीत का कैसेट बनाकर आखिरी जिल्द की जेब में रखने की कल्पना तक जाती थी, हालाँकि तब तक ऐसे प्रयोग हमारे देखने में नहीं आए थे। हर प्रस्तुति को उसके सभी पक्षों में सम्पूर्णता तक ले जाने की उसकी जद्दोजहद। कभी अचानक, गीत-नाटक प्रभाग के दौरों के बीच से उसका आधी-आधी रात को लखनऊ आना, बदहवासी में थोड़े-बहुत पैसे का जुगाड़ और उसी तरह लौट जाना।

कभी फुर्सत से लखनऊ आना तो सारी-सारी रात बैठे-लेटे-पसरे भीतर के रचनात्मक बाँध का फूटते जाना। 'उठो, अब चलो,' कहने पर वह शायराना अंदाज '…..जरा खुद को बटोर लूँ तो चलूँ…। जाने कहाँ-कहाँ बिखरा पड़ा हूँ …..लेकिन समेटू कैसे, नबू'। पहाड़ी होलियों की एक विशद मंचीय प्रस्तुति लखनऊ में करने की वह तमन्ना, जिसमें मंच तीन स्तरीय होना था। एक स्तर बैठी होली का, दूसरा खड़ी होली का और तीसरा महिला-होली का और तीनों की प्रस्तुतियों का सिंक्रोनाइजेशन…..। रचनात्मकता की ऐसी उड़ानें जो कभी बहुत अव्यावहारिक लगतीं तो कभी दुस्साध्य और कभी खिझाने वाली भी। मगर साथ में यह टेर भी-'गो कि हमारी बात मानना कतई जरूरी नहीं, हाँ!……रिजेक्ट करो स्साले को अगर बात में दम नहीं है तो…।' अपने समय से बहुत आगे का उसका चिंतन!

इन बिन्दास बैठकों-बातों में वह जितना डूबता जाता, उतना ही उसका कलाकार, उसका विचारक, उसके भीतर बैठा आलोचक प्रखर होता जाता वह बोलता-बजाता-गाता जाता और हम जैसे लहरों पर तैरते रहते। नशा गिर्दा को डबल गिर्दा बना देता था। दरअसल वह सिर्फ नशा करना नहीं होता था। शराब उसकी रचनात्मकता को भड़का देती थी हालाँकि अति तक भी जाती थी। तब उसको रोकना-टोकना बेकार ही जाता। हम अक्सर सोचते, इस समय टेप रिकार्डर होना चाहिए था। लेकिन हर बार हम चूक जाते। गिर्दा इतना करीब था कि कभी उसका ठीक-ठाक इण्टरव्यू भी करने की हमने नहीं सोची। उसके पास इतना खजाना था कि उसे सँजोने की अच्छी से अच्छी योजनाएँ ही बनती रह गईं। हमेशा लगता था, गिर्दा तो यहीं है। जा कहाँ रहा है!

वह लखनऊ में ही था, दस साल पहले जब उसे दिल का दौरा पड़ा था। सुबह 10 बजे उसे दिखाने पीजीआई ले जाना तय था। नौ बजे प्रेस क्लब से फोन आया कि गिर्दा जी के सीने में बहुत दर्द है, आप फौरन आइए। वह प्रेस क्लब में ही ठहरना पसन्द करता था। घरबारी हो जाने के बावजूद घरों के लिहाज और बंदिशें उसे पसन्द न थे। प्रेस क्लब में भी पत्रकारों से कहीं ज्यादा वहाँ के कर्मचारियों से उसका याराना रहता था। सो, उस सुबह रंगलाल ही उसे रिक्शे पर लाद कर अस्पताल ले गया था, हमारे पहुँचने से पहले।

दिल अच्छा-खासा घायल हो चुका था और शरीर कुछ शिथिल पर गिर्दा का दिमाग और भी तेज चलने लगा था। 'रयूमेटाइड आर्थ्राइटिस' ने उसे बहुत तंग किया, पंगु बना देने की हद तक। दवाओं के दुष्प्रभावों ने उसे जितना हो सकता था, सताया परन्तु वह शरीर की गुलामी मानने वाला जीव था ही नहीं। वह विचारों की स्वच्छन्द और रचनात्मक उड़ान वाला परिन्दा था, हमेशा चैतन्य और रचनारत। इसीलिए हम सबको लगता था कि वह कमजोर तो है पर ठीक है। हीरा भाभी की सेवा-टहल ने उसे जिस तरह सँभाला था, उससे भी हमारी आश्वस्ति बढ़ती ही थी।

पेट में अल्सर फटने से वह बेहद तकलीफ में रहा होगा लेकिन एम्बुलेंस में नैनीताल से हल्द्वानी ले जाए जाते समय भी फोन पर मुझसे कह रहा था-'ठीक हूँ….चिंता मत करना…दास बाबू ( लखनऊ मेडिकल कालेज के डा. सिद्धार्थ दास जो उसकी गठिया का इलाज कर रहे थे) को बता देना…..।'

हम सबकी तरह खुद उसे भी अस्पताल से ठीक-ठाक लौट आने का पक्का भरोसा रहा होगा। वह यूँ चला जाने वाला जीव था ही नहीं। लेकिन देखो, एकदम सटक गया। पिछले कुछ समय से फोन पर बात खत्म करते हुए वह कहा करता था-'घर में सबको मलास देना, पलास देना। मेरे हाथों से अपने गाल मलास लेना। नबुआ, मैं ठीक हूँ। मेरी चिंता मत करना। फिर बात होगी। ओक्के। ' ओक्के, गिर्दा। ओक्के।

अब क्या कहें, सृष्टि के नियम से परे तो तुम भी नहीं थे न!


श्रद्धान्जलियाँ : वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये

उनके जाने से यह नदी समाप्त हो चुकी है

'गढ़ गौरव' के अगस्त 2010 के अंक से जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिरदा' के निधन का समाचार पढ़कर मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। मैंने नैनीताल स्थित कई मित्रों को फोन मिलाया, किन्तु इस संचार क्रांति के युग में भी किसी से सम्पर्क न हो सका। गिरदा को मैं लगभग 40 वर्षों से जानता था। इधर दो बार कई दशकों के बाद नैनीताल में उनके कैलाखान आवास पर भेंट भी हुई थी। एक बार तो वे मेरे नगर श्रीनगर में किसी कवि सम्मेलन में भी आये थे। उनकी हिमालय पर लिखी कविता श्रोताओं को खूब भाई थी। आकाशवाणी लखनऊ में वे कई सुन्दर मधुर गीत रिकार्ड कर चुके थे। एक नहीं सैकड़ों गीत उनके मधुर कण्ठ से प्रसारित हुए। उत्तराखण्ड की संस्कृति में तो मैं उन्हें नदी के रूप में मानता था। ब्रजेन्द्र, अनुरागी व गिरदा, ये तीनों गीत भी लिखते थे और उन्हें गाते भी थे। अब यह नदी समाप्त हो चुकी है। एक विख्यात रंगकर्मी के रूप में वे सदैव याद किये जायेंगे।

- नित्यानन्द मैठाणी

वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये

गिरदा से मेरा सम्पर्क राज्य आंदोलन के दिनों में हुआ। उनके ओजस्वी एवं हृदय की गहराइयों से निकले हुए स्वरों ने हम सब को उत्प्रेरित किया। घरों की चारदिवारी से हजारों की संख्या में निकली मातृशक्ति, बालक, युवा व वृद्धजनों के सैलाब में उनकी वाणी ने प्रयाण गीत की भूमिका निभाई। पर्वतीय अंचल की लोक कलाओं व लोक गीतों में उनकी गहरी पैठ थी। अपनी कविताओं में उन्होंने पर्वतीय अंचल के जनजीवन का सटीक चित्रण किया है, जिसमें माटी की महक, वृक्षाच्छादित वनों से आई बयार की सरसराहट व गाड़ गधेरों का सुसाट-भुभाट है। वे अलबलाट में हमसे बिछड़ गये। मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !

- गिरिजा शरण सिंह खाती

वह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गये

गिरीश भाई के साथ कई वर्ष गीत एवं नाटक प्रभाग में कार्य करते रहे। वे देश, काल परिस्थिति के अनुसार पद रचना करते, मैं उनकी संगीत रचनाएँ करता। कभी-कभी एक दूसरे की रचनाओं को समझने में वाद-विवाद भी होता, लेकिन वे सही चीज को अवश्य स्वीकारते। तब संगीत रचनाएँ मंच में तदनुरूप प्रभाव छोड़तीं। फिर कहते, हरदा का संगीत कुछ देर से सही समझ में आता है। मैं गाँव-गाँव व स्कूलों में सितार व संगीत को छोटे-छोटे भजन कीर्तन व लोकधुनों के माध्यम से समझाता। उन्हें बहुत हर्ष होता कि जन-जन में कुछ जागरूकता तो हो रही है, क्योंकि 40-50 वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड की परिस्थितियाँ भिन्न थीं। इस प्रकार कार्यक्रमों के दौरान जन-जन में जुड़ाव होने लगा। उन्होंने देखा कि उत्तराखण्ड की वही विषम परिस्थितियाँ हैं। सरकारी तन्त्र व्यवस्था, उत्तराखण्ड की जनता का दुःख-दर्द उनसे नहीं देखा गया। वे चिपको आन्दोलन, नदी बचाओ आन्दोलन, चुनावों पर व्यंग करती हुई कविताएँ इस प्रकार हुड़का लेकर गीतों के माध्यम से जन-जन में जोश भरते रहे। ऐसा समाजसेवी व्यक्ति प्रेरणा का स्रोत व आदर्श रूप में हमारे सामने आया। समाज के दुख दर्द में आखिरी दम तक जूझता हुआ अमरत्व को प्राप्त हो गया और हम व हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप गया।

- हरिकृष्ण लाल शाह

गिरीश तिवारी 'गिरदा' सशरीर अब हमारे बीच नहीं रहे। समाचार पत्र से यह जानकर मुझे बड़ा आघात लगा। जैसा कि समाचार में बताया गया है कि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था, परन्तु अचानक मौत ने झपट्टा मारकर उन्हें हमसे छीन लिया।

मुझे उनसे मिलने और प्रत्यक्ष संवाद का बहुत कम अवसर मिला, परन्तु जितना कुछ मैं उनको समझा वह आंदोलनकारी, सामाजिक कार्यकर्त्ता की अपनी एक अलग पहचान रखते थे- जनकवि और गायक की उनकी अलग छवि अपनी जगह तो है ही। उनकी हमसे विदाई ऐसे समय हुई, जबकि उनकी और अधिक जरूरत हम सबको और हमारे पहाड़ी समाज को कुछ अधिक ही थी। एक-एक करके ऐसे संघर्षशील व्यक्तित्व बिछुड़ते जा रहे हैं, उनकी जगह लेने को अभी दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा है।

हम सब बहुत व्यथित हैं। परन्तु आप लोग, नैनीताल-अल्मोड़ा की अपनी टीम जो आपस में ऐसे एकजुट थे, घर परिवार और समाज के स्तर पर वे सब कुछ अधिक ही व्यथित होंगे। उनके घर-परिवार को संभालने को आप अपने को अकेला न समझें, हम सब आपके साथ हैं। गिरदा के क्रांतिकारी, संघर्षशील व्यक्तित्व को मेरा विनम्र प्रणाम।

- धूमसिंह नेगी

याद आते हैं लखनऊ के वे दिन कि जब पहले-पहल मेरी भेंट दारूलशफा में गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' से हुई थी। मैं तब लखनऊ में पढ़ता था और मेरे गार्जियन चन्द्र सिंह रावत विधायक हुआ करते थे। मेरी कविता, जो मैंने चीन के आक्रमण के दौरान बनाई थी, की उन्होंने मुग्ध कंठ से प्रशंसा की थी। कविताओं के आदान-प्रदान से पहली ही मुलाकात में घनिष्ठता हो गई थी। उन दिनों गिरदा क्ले स्क्वायर में अपने किसी संबंधी के घर में रहा करते थे। हम हजरतगंज की सैर करते और लाल बाग में आकर चाय-समोसे खाते। यह बात सन् 1966-67 की होगी। इसी बीच उन्होंने लखीमपुरखीरी के कुछ मित्रों से मिलाया और कहा कि ये लोग भी जनपक्षीय रुझान के हैं। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे लखीमपुरखीरी में चल रहे आंदोलन के बारे में बताया। इसके काफी अरसे बाद हमारी मुलाकात नैनीताल में तल्लीताल पर हुई।ं उन्होंने बताया कि वे साउन्ड एण्ड ड्रामा डिवीजन में बतौर कलाकार चयनित हुए हैं। कहने लगे, उमा भाई, कुछ समय बाबूगिरी वर्कचार्जी में बिताया अब मुक्ति पाकर जो मेरा बचपन से शौक रहा उसमें आ गया हूं। एक बार टिहरी मेला प्रदर्शनी में आयोजित कवि सम्मेलन में भेंट हुई। जिला परिषद बंगले में पहुंचकर वहां पहले से कवि जीवानन्द श्रीयाल, घनश्याम सैलानी, सरदार प्रेमसिंह, भूदेव लखेड़ा ने हमारा गर्मजोशी से अभिवादन किया और हम को राम-लक्ष्मण की जोड़ी की संज्ञा दे डाली।

मेरी उनकी पहली मुलाकात लखनऊ में हुई थी, जिसका अंत भी 25 मार्च 2009 को लखनऊ में ही हुआ। वहां हम उमेश डोभाल की शहादत दिवस पर गए हुए थे।

- उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी'

गिरदा का मेरा परिचय विगत 22 वर्षों से है। गिर्दा का सपना है समाज बदले, सब समान हों और महिलाओं का इसमें प्रमुख योगदान हो, जिससे सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलनों को बल मिले। इसके लिए जो परम्परायें हैं, उन्हें टूटना चाहिए। मैं चाहती हूँ कि उनके सपनों को साकार किया जाये, आन्दोलनो को बढ़ाया जाये। परम्पराओं को तोड़ा जाये तभी समाज बदलेगा। इन सपनों को साकार करने के लिए आओ मिलकर सब आगे बढें।

- चम्पा उपाध्याय

साथी गिरदा के असायमिक निधन का समाचार पाकर मन को बहुत दुःख हुआ। कृपया मेरी संवेदना उनके परिवार तक पहुँचा दीजियेगा।

- राधाकृष्ण कुकरेती

वे बात-बहस से शब्द चुनते थे

('नशा नहीं रोजगार दो' आंदोलन के दौरान गिरदा के आसपास एक शख्सियत प्रायः मौजूद रहती थी। बनियान के अन्दर एक कमीज और बनियान के बाहर वास्कट जैसा कुछ। पीठ और सिर के बीच कॉलर पर लटका स्टील के हैण्डिल वाला छाता। इस शख्स का नाम है राम सिंह……यानी रमदा। आज के दिन एक नाव के मालिक हैं तथा पैडल बोट कोऑपरेटिव में उनका हिस्सा है। – सम्पादक)

प्रश्न:- आप गिरदा को कब से जानते थे ?

उत्तर:- क्लब के डांठ पर चीना मन्दिर के सामने जब वे रहते थे तब से जानता हूँ। तब व तो मुझे नहीं जानते थे, पर मुझे उनके गीत आकर्षित करते थे।

प्रश्न:- उनसे घनिष्ठता कब हुई ?

उत्तर:- नाव आंदोलन के दौरान राजा बहुगुणा ने परिचय कराया। फिर साथ उठना-बैठना, आना-जाना शुरू हो गया। बैठने की अधिकांशतः दो जगहें होती थीं। एक उनका कमरा और दूसरा जहाँ अब हाइकोर्ट है उसका गार्डन। गार्डन में ज्यादातर चाँदनी रात मे देर रात तक बैठते थे और बातचीत होती थी।

प्रश्न:- बातचीत किस बारे में ?

उत्तर:- अधिकांशतः आंदोलनों के बारे में और आन्दोलनों से जुड़े गीतों के बारे में।

प्रश्न:- गीतों के बारे में ? आप तो संगीत नहीं जानते…

उत्तर:- हाँ। पर वे जब किसी हिन्दी या उर्दू के गीत का कुमाँउनी में अनुवाद करते तो कई शब्द हमारी बातचीत से ही निकलते थे।

प्रश्न:- जैसे……

उत्तर:- जब फैज की रचना 'हम मेहनतकश जग वालों से…' का अनुवाद हुआ तो 'ओढ़-बारुड़ि ल्वार' तथा 'हांग-फांग' जैसे शब्द बात-बहस से ही मिले। बात-बहस इसलिए कि गिरदा को उन्हें संगीत में बैठाना होता था। ……पर उनके साथ ज्यादा जुड़ाव 'नशा नहीं रोजगार दो' आन्दोलन के दौरान हुआ। तब उनसे व अन्य साथियों से लम्बी चर्चाएँ होती थीं। मेरा बहुत सा वक्त उनके साथ गुजरता। तब निर्मल जोशी भी साथ होते थे। साथ-साथ बैठ कर मजमून तैयार होता था और निर्मल की प्रेस में भवाली में छपता था। मैं निर्मल के साथ रामगढ़ होते हुए बागेश्वर पदयात्रा में भी गया था। हम पदयात्रा में गिरदा के जनगीत गाते थे।

प्रश्न:- गिरदा आज होते तो ?

उतर:- अपना काम करते रहते। वे जुझारू आदमी थे।

प्रस्तुति : दिनेश उपाध्याय

संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com

गिर्दा आखिर क्या था ?

एक वाक्य में कहूँगा- 'गिरदा मैक्सिम गोर्की की कहानियों का एक साधारण सा पात्र था, जो अपने जीवन में एक ऐसा असाधारण कर जाते हैं कि दुनिया उन्हें सदा याद रखती है।'

गोस्वामी तुलसीदास के राम हर इन्सान के हृदय में ईश्वर की मूर्ति बन कर विराजमान हैं। अर्थात् हम ये स्वीकार करते हैं कि 'हे ईश्वर तू ही हमारा उद्धार कर सकता है।' 'मैं सेवक तुम स्वामी' की स्वीकारोक्ति के साथ हम उसे मनाने के लिए अगरबत्ती, घंटी,शंख, फूल, दिया-बत्ती, तिलक, चन्दन का प्रयोग करते हैं और उसके और अपने बीच में एक बहुत बड़ा फासला स्थापित कर लेते हैं। जब कि गोर्की के पात्र आम आदमी की तरह शराबी, जुआरी सभी कुछ हमारी तुम्हारी ही तरह हैं, जो हमें सही अर्थों में प्रेरणा देते हैं कि ऐसे गिरे हुए पात्र यदि महान कार्य कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं ?

गिरदा शराबी था

गिरदा और हम पाँच-छः लोग रात को गीत और नाटक प्रभाग के कार्यालय में बैठे हैं। बोतल गिलास, चना-चबेना, हारमोनियम,तबला, पैन-कलम सब हमारे पास है। गिरदा खड़ज में कहते है 'आराम से'……….'एक बात फेंक रहा हूँ मानी न जाए' और फिर 'माँ शेराँवाली, श्री कृष्ण, जयद्रथ वध, लव-कुश आदि ऐसी बहुत सी रचनाएँ रात के दो-दो बजे तक होती रहीं। ये था उनके साथ पीना कि पीकर अपनी ऊर्जा को सृजनात्मक कार्य में झोंक देना।

गिरदा जुआरी था

काशीपुर के किसी गाँव में रात को दल के हम कई लोग जुआ खेल रहे हैं। मैं दल सचिव। अपना दौरे का टी.ए.-डी.ए. तो हारा ही, ऑन एकाउण्ट भी हार गया। जीत रहे हैं सिर्फ गिरदा। पत्ता शेर। कभी 3-2-5, कभी ट्रेल, कभी टॉप। खेल खत्म होने से पहले उन्होंने मेरी चाल आने पर धुप्पल चलना शुरू कर दिया और जब मेरा सारा पैसा जब मेरे पास आ गया तो बोले, चलो, अब सो जाओ। मैंने पूछा, ''यार गिरदा तुमने ऐसा क्यों कर दिया ?'' गिरदा बोले, ''यार, वो तो तुम्हें लौटाने ही ठहरे बाबू। मनोरंजन हो गया, ठीक ही ठहरा।''

ओछा था गिरदा

कैरम बोर्ड खेलते हुए गिरदा कहते, 'अरे ऽ ऽ रे…रे…रे। फिर रह गई कुतिया स्याली (क्वीन) देखता हूँ मुझसे बच कर कहाँ जाएगी। ऐसा शॉट खेलूँगा, देखा नहीं होगा किसी ने।'मैं कहता गिरदा का ओछापन किसी ने इसलिए नहीं देखा, क्योंकि वो बेचारे कभी गिरदा के साथ कैरम नहीं खेले।

लीडरशिप की भावना नहीं थी

एक बार शुरू-शुरू में जबरदस्ती ड्रामा डिवीजन के दौरे में उन्हें दल सचिव बना दिया गया। दौरा किसी तरह पूरा करने के लिए उन्हें अपना ट्रांजिस्टर तक बेचना पड़ा। वैलीरियोज होटल में उन दिनों हम साथ-साथ रहते थे। एक रात बोले, ''यार, साह जी (श्री बी.एल. शाह) कह रहे हैं कि मैं उनसे सब लोकगीतों की धुन सीख लूँ, फिर वो मुझे प्रशिक्षक बना देंगे। यार वो तो लोकगीत वाली बात तो ठीक ठहरी, पर बंधु ये प्रशिक्षक और मैं ?… मैं कभी नहीं बनूँगा।'' बड़ी मुश्किल से सुबह तक मैं उन्हें मना पाया कि वो प्रशिक्षक अवश्य बनें।

वास्तव में वो बुनियाद का पत्थर ही रहना चाहते थे, जो अन्दर से बिना दिखाई दिए बिल्डिंग को मजबूती प्रदान करती है न कि बाथरूम की चमचमाती टाइल्स-जिसको सभी देखते हैं तारीफ करते हैं।

गिरदा बड़ा स्वार्थी था

'परमार जी, लोगों का स्वार्थ मेरा बच्चा, मेरा घर, मेरा परिवार तक ही सीमित है। पर मेरा स्वार्थ इन सब से कहीं बड़ा है। मैं पूरे उत्तराखण्ड के विकास के बारे में सोचता हूँ।' बस…यही बात है जहाँ एक साधारण सा आदमी असाधारण बन जाता है। यदि हम भी टाइल्स की तरह चमचमाना छोड़कर नींव का पत्थर बन अपनी माटी के प्रति अपने-अपने माध्यमों से कुछ जीवन में करने की ठान लें यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

अन्त में धूमिल जी के शब्दों में कहूँ तो-

बाबू जी
असल बात तो ये है,
यदि जिन्दा रहने के पीछे
सही तर्क नहीं है
तो राम-नामी बेचकर
या रण्डियों की दलाली कर
रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है।

- धरमबीर परमार

उनके गीतों को सुनके धौ नहीं होती : कमल नेगी

गिरदा का नाम आते ही जेहन में उभरता है कुर्ता पायजामा पहने, कंधे में झोला लटकाये किसी बात पर मनन करता सा एक शान्त व्यक्तित्व। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान की वे बैठकें याद आती हैं, जिनमें गिरदा की अनिवार्य उपस्थिति रहती थी। बैठकें चलती रहतीं, सब लोग अपने विचार रखते। सबकी बातों को ध्यान से सुनते हुए गिरदा किसी ख़्याल में डूबे से दिखाई देते, मगर वास्तव में लोगों की बातों पर मनन करते हुए होते। अंत में बैठक की कार्यवाही समेटते तो कोई भी पक्ष ऐसा नहीं बचता, जो उनसे छूट गया हो। घर की चहारदीवारी से निकलकर पहली बार आंदोलन में कूदे हम लोगों को उनका बहुआयामी व्यक्तित्व आश्चर्यचकित कर देता था।

आंदोलन के दौरान 'नैनीताल समाचार' द्वारा प्रतिदिन शाम को तल्लीताल के क्रान्ति चौक और मल्लीताल बाजार में साध्यकालीन उत्तराखंड बुलेटिन प्रसारित किया जाता था। उसमें भी सबसे पहले गिरदा का कोरस होता, जिसमें समसामयिक घटनाओं का वर्णन होता था। इसका हमें बेसब्री से इंतजार रहता। उत्तराखंड के संघर्षों को वे बड़ी मार्मिकता से पेश कर एकत्र भीड़ को मंत्रमुग्ध कर देते। तल्लीताल में उन गीतों को एक बार सुनकर 'धौ' नहीं होती और हम दोबारा उन्हें सुनने मल्लीताल की दौड़ लगा देते। हर बार उनका गीत नया सा लगता और हममें नई स्फूर्ति भर देता।

पूरे छः साल तक चले उत्तराखंड आंदोलन में हम कई दौर से गुजरे। कई बार निराशा में डूब जाते, कभी गुस्सा आता और कभी भटकाव। जब-जब ऐसी स्थितिर्याँ आइं, हम हमेशा गिरदा की शरण लेते और उनके सुझावों से हमारा संकल्प और मजबूत हो उठता। उनके जनगीतों के साथ उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल होकर और उन्हें अनन्त में विलीन होता देखकर भी मुझे नहीं लगता वे हमारे बीच नहीं है। लगता है अपने चिरपरिचित अंदाज में अभी कैंट की ओर से आते दिखाई देंगे।

- कमल नेगी

होली और रामलीला में वह जरूर याद आयेंगे : के.के.साह

गिरदा से मेरा परिचय 1970 के आसपास मेरे पूर्व अध्यापक कवीन्द्र शेखर उप्रेती जी के माध्यम से हुआ। तदोपरान्त 'नैनीताल समाचार' या अन्यत्र उनसे भेंट हो जाया करती थी। 'नैनीताल समाचार' एक ऐसा मंच था, जिसमें हर तरह के लोग जुड़ते गये। गिरदा को भी समाचार के रूप में एक अच्छा संगठन मिला, जिससे वे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते गये। उनसे घनिष्ठता सांस्कृतिक परम्परा को लेकर ही रही। होली, रामलीला व लुप्त होते अमूल्य लोकगीत व उनकी धुनों को लेकर उनसे वार्ता होती थी। उन्होंने व्यक्तिगत रुचि लेकर इस क्षेत्र में सभी को उत्साहित और प्रेरित किया। उदाहरणार्थ लगभग 25-30 वर्ष पूर्व इस क्षेत्र की होली गायन का ह्रास होने लगा था, जबकि हमें अपने बुजुर्गों से होली की सम्पन्न धरोहर मिली है। तब सभी ने संगठित रूप से होलियों को नवजीवन देने का बीड़ा उठाया। गिरदा ने एक ओर 'नैनीताल समाचार' परिवार तथा दूसरी ओर गीत एवं नाटक प्रभाग के कलाकारों व स्थानीय होलियारों को साथ लेकर भव्य आयोजन कर अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इसी प्रकार विभिन्न राग-रागिनियों पर आधारित परम्परागत कुमाउँनी रामलीला के गिरते हुए स्तर की ओर भी उनका ध्यान गया। उन्होंने लोगों में रुचि व आशा की लहर पैदा की। एक बार नवरात्रि से पूर्व अधिमास पड़ जाने के कारण रामलीला मंचन में कुछ दिनों का विलम्ब हो गया। गिरदा व रामलीला प्रेमी लोगों ने 14-15 दिन तक घर के बैठक में ही प्रतिदिन सायं मिलकर साधारण वस्त्रों में साधारण ढंग से रामलीला नाटक का मंचन किया, जिसमें अन्य कलाकारों के साथ गिरदा ने भी कुछ पात्रों का अभिनय किया। बीच-बीच में वे बृजेन्द्र लाल शाह द्वारा रचित कुमाउंनी भाषा की रामलीला के गीत गाकर आनन्दित कर देते। एक गोष्ठी में बृजेन्द्र लाल शाह ने गिरदा के सम्मान में बोलते हुए कहा भी था कि ''गिरीश में जो टेलेंट है वह असाधारण है। यहाँ के सभी लोकगीतों, जो कि अलग-अलग स्थानों पर कुछ बदलती धुनों में पाये जाते हैं, को गिरदा प्रस्तुत करने की क्षमता रखते हैं।''

- के.के.साह


संपर्क : ntl_samachar@merapahad.com

उनकी श्रद्धा और स्नेह का स्मरण आते ही आँखें भर आती हैं: चारु चन्द्र पाण्डे

22 अगस्त को चन्दन डांगी जी का फोन आया कि गिरीश चन्द्र तिवारी 'गिरदा' नहीं रहे। मैं हतप्रभ था- कुछ ही दिन पूर्व वे अपनी श्रीमती व पुत्रवधू के साथ मुझसे मिलने यहाँ आये थे। अचानक यह कैसा वज्रपात हो गया। इतनी जल्दी यह सब कैसे हुआ। अभी भी लग रहा है जैसे यहाँ मेरे सामने दीवान पर बैठे मुस्कुरा रहे हैं। कुछ देर तो मैं इस हृदयविदारक खबर से स्तब्ध रह गया।

गिरीश के निधन से एक अपूरणीय क्षति हुई है। उनका मेरे प्रति असीम प्रेम था। उनकी श्रद्धा और स्नेह का स्मरण आते ही आँखें भर आती हैं। जी.आई.सी. अल्मोड़ा में वे मेरे एक होनहार छात्र थे। विद्यालय के कार्यकर्ताओं में एक उदीयमान छात्र के रूप में उनकी लगन, परिश्रम, विनम्रता और समर्पण की उदात्त भावनाओं ने मुझे बहुत आकर्षित किया। विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यों में वे सदा सक्रिय रूप से भाग लेते थे। विद्यालय के नाट्य प्रदर्शनों एवं लोक संगीत के कार्यक्रम में उनका अभूतपूर्व योगदान रहा था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के 'विसर्जन' नाटक में मैंने उन्हें हिंसा बलिदान समर्थक पुजारी की भूमिका सौंपी, जिसका निर्वाह अभूतपूर्व कौशल से उन्होंने किया। उनमें उत्कृष्ट अभिनयक्षमता बचपन से ही विद्यमान थी- 'गीत नाटक प्रभाग' में आने पर उन्होंने बड़े मनोयोग से समस्त कार्यकलाप सम्पन्न किये। स्व. ब्रजेन्द्र लाल साह के भी बहुत प्रिय रहे।

जनकवि के रूप में गिरीश चन्द्र जी ने विशद कीर्ति अर्जित की। अपनी व्यंग्यात्मक शैली में कवितायें लिखकर, गाकर वे देशद्रोही, भ्रष्टाचारियों की खूब भर्त्सना करते रहते थे। होलियों के जलूस में भी उनका रूप रंग, संगीत देखते ही बनता था। राजीव जी की 'नैनीताल समाचार' टीम के वे अमूल्य रत्न थे। उक्त अखबार को सजाने-संवारने में उनकी निष्ठा अनुकरणीय रही। कुमाउंनी सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रखने, उसका सही आकलन करने में उनकी सूझबूझ अप्रतिम थी। उन्हें लोग कभी नहीं भूल सकते। वे 'शिखरों के स्वर', 'हमारी कविता के आंखर' में सहलेखक के रूप में, 'रंग डालि दियो हो अलबेलिन में' के गीत संकलनकर्ता के रूप में सदा याद रहेंगे। कई नाटकों का लेखन/निर्देशन भी उनके द्वारा सुचारु रूप से किया गया। झूसिया दमाई के दुर्लभ लोकगीतों की रिकॉर्डिंग एक प्रशंसनीय उपलब्धि रहेगी। उनकी 'नगाड़े खामोश हैं' आदि मंचकृतियाँ अविस्मरणीय हैं।

- चारु चन्द्र पाण्डे

rowse: Home / , , / 'उत्तरायण को आवाज दे गया वह'

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS BLASTS INDIANS THAT CLAIM BUDDHA WAS BORN IN INDIA

THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER

http://youtu.be/NrcmNEjaN8c The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today. http://youtu.be/NrcmNEjaN8c Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program ______________________________________________________ By JIM YARDLEY http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk