बहुत हुआ SC ST OBC आरक्षण, अब हिस्सेदारी दीजिए
http://mohallalive.com/2010/09/07/new-formula-of-reservation-by-dilip-mandal/7 September 2010 16 Comments
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♦ दिलीप मंडल
अगर आरक्षण का उद्देश्य देश के संसाधनों, अवसरों और राजकाज में समाज के हर समूह की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, तो यह बात अब निर्णायक रूप से कही जा सकती है कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था असफल हो गयी है। सामाजिक न्याय का सिद्धांत दरअसल वहीं लागू हो सकता है, जहां लोगों (खासकर प्रभावशाली लोगों) की नीयत साफ हो। विशिष्ट सामाजिक बनावट की वजह से भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय के सिद्धांत को असफल होना ही था और यही हुआ।
आजादी के पहले से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण लागू है। 1993 के बाद से अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण है। 2006 के बाद से केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया। राज्यों के स्तर पर ओबीसी का आरक्षण काफी समय से चला आ रहा है। लेकिन इस तरह के तमाम आरक्षण का नतीजा क्या निकला? भारतीय संविधान के मुताबिक अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण लागू होने के साठ साल बीत चुके हैं और इसी साल 7 अगस्त को मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के दो दशक पूरे होने पर छिटपुट कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैं। इस मौके पर देश में आरक्षण नीति और उसके असर की गहन समीक्षा की जानी चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि आरक्षण की नीति दरअसल अपने उद्देश्यों में कहां तक कामयाब रही है।
सरकार और सत्ता अपने कारणों से आरक्षण की नीति का समीक्षा नहीं करती। अन्य पिछड़े वर्गों पर आरक्षण नीति के असर की समीक्षा तो इसलिए भी नामुमकिन है कि किसी को भी यह नहीं मालूम कि ओबीसी का आंकड़ा क्या है। इस देश में ओबीसी के लिए आरक्षण है, ओबीसी वित्त आयोग है, ओबीसी के लिए सरकार की ओर से मामूली सा ही सही लेकिन बजट है, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय ओबीसी आयोग है, लेकिन ओबीसी का कोई आंकड़ा नहीं है। चूंकि आकड़ा नहीं है इसलिए योजनाओं का कोई लक्ष्य भी नहीं है। किस राज्य को ओबीसी विकास के लिए कितनी रकम देनी है और कितनी स्कॉलरशिप देनी है, यह सब ओबीसी की संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि राज्य की कुल आबादी के अनुपात में तय होता है। यह बात सरकार लोकसभा और राज्यसभा में कई बार दोहरा चुकी है। कब तक किसी जाति को आरक्षण मिलना चाहिए और किसे नहीं मिलना चाहिए जैसे सवाल भी बिना आंकड़ों के बेमानी हैं। ऐसे सवाल सत्ता के नियंता न पूछते हैं न पूछे जाने पर इनके जवाब देते हैं।
आंकड़ों के अभाव में इस देश के संसाधनों, अवसरों और राजकाज में किस जाति और जाति समूह की कितनी हिस्सेदारी है इसका तुलनात्मक अध्ययन संभव नहीं है। सैंपल सर्वे यानी नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े इसमें कुछ मदद कर सकते हैं, लेकिन इतने बड़े देश में चार पांच हजार के नमूना सर्वेक्षण से ठोस नतीजे नहीं निकाले जा सकते। इन सीमाओं के बावजूद हम इस देश के अलग अलग क्षेत्रों में विविधता के होने या न होने के बारे में बहुत कुछ जानते-देखते हैं।
मिसाल के तौर पर केंद्र सरकार खुद यह बता चुकी है कि केंद्र सरकार की शीर्ष नौकरशाही में सचिव पद के अधिकारियों में एक भी दलित नहीं हैं और सिर्फ चार आदिवासी हैं। सरकार की ओर से दी गयी जानकारी की वजह से हम यह भी जानते हैं कि केंद्र सरकार के ग्रुप 'ए' पदों पर सिर्फ 4.7 फीसदी ओबीसी हैं। हम यह जानते हैं कि के जी बालाकृष्णन के सेवानिवृत होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति का कोई न्यायाधीश नहीं है। अनुसूचित जनजाति का भी कोई न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट में नहीं है। हम अपने अनुभवों या अंदाजे के आधार पर यह अनुमान लगा सकते हैं कि इस देश के अकादमिक क्षेत्र, विश्वविद्यालय के शैक्षणिक और अशैक्षणिक पदों से लेकर कला-संस्कृति-फिल्मों तक में दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्गों के लोग नाम मात्र के ही हैं। राज्यपालों और राजदूतों की लिस्ट उठा लें तो भी ऐसी ही तस्वीर मिलेगी।
अनुभव और अंदाज के आधार पर यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि इस देश के करोड़पतियों-लखपतियों में भी इन समुदायों की हिस्सेदारी कम होगी। देश के बड़े उद्योगपति, ठेकेदार, कॉन्ट्रेक्टर और सप्लायर में भी दलित, आदिवासी नाम मात्र के होंगे और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग भी संख्या के अनुपात में काफी कम होंगे। पद्म पुरस्कारों की हर साल जारी होने वाली सूची हो या कोई भी राष्ट्रीय पुरस्कार, आप पाएंगे कि वंचित समुदाय इस सूची से लगभग अनुपस्थित हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि इस देश के पुस्तकालयों में भी इन समुदाय के लोगों की लिखी किताबें बेहद कम होंगी। कोई यह जानकर खुश हो सकता है कि कॉमनवेल्थ खेल आयोजित करने वाली शिखर समिति में न कोई दलित है, न आदिवासी, न ओबीसी और न ही कोई मुसलमान।
दिल्ली विश्वविद्यालय में इस साल ओबीसी की 5400 सीटें योग्य कैंडिडेट न मिलने के नाम पर जनरल कटेगरी को ट्रांसफर कर दी गयीं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी लगभग ढाई सौ ओबीसी सीटें जनरल छात्रों से भरी गयीं। विश्वविद्यालयों में दलित, आदिवासी और ओबीसी कोटा किसी न किसी बहाने खाली रखा जाता है। आईआईटी और आईआईएम में यह समस्या और गंभीर है। समुदायों के स्तर पर यह असंतुलन लोकजीवन के अलग-अलग और लगभग सभी क्षेत्रों में देखा जा सकता है। राजनीति और सफाई के पेशे को अपवाद के तौर पर देख सकते हैं, जहां वंचित समुदायों के लोग अच्छी संख्या में हैं।
इनमें से ज्यादातर बातें अनुमान या अनुभव के आधार पर इसलिए भी कहने की जरूरत पड़ती है क्योंकि इस देश में कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की जाती कि देश के अलग अलग समुदायों की वास्तविक स्थिति क्या है और किन समुदायों को कितना और किस तरह से विशेष अवसर देने की जरूरत है। इस बात को छिपाने पर जोर इतना ज्यादा है कि देश में समाजशास्त्रीय महत्व के आंकड़े जुटाने का खुद समाजशास्त्री (अकादमिक क्षेत्र में वंचित समुदायों के लोग नाम मात्र ही हैं) ही विरोध करते हैं। मिसाल के तौर पर, अभी आंकड़ा संग्रह की जो स्थिति है, उसकी वजह से आप यह कभी नहीं जान पाएंगे कि इस देश में कितने लोग जाति से बाहर शादी करते हैं। बहरहाल ठोस आंकड़े न होने पर भी यह बात भरोसे के साथ कही जा सकती है कि देश के ज्यादातर संसाधनों, अवसरों और राजपाट (विधायिका को छोड़कर) पर दलित-आदिवासी और ओबीसी उपस्थिति सुनिश्चित करने में आरक्षण का मौजूदा स्वरूप असफल रहा है।
ऐसे में बहुजन डायवर्सिटी मिशन के अध्यक्ष एच एल दुसाध ने समाज में विविधता लाने के लिए एक नया फॉर्मूला दिया है। एच एल दुसाध प्रमुख चिंतक और विचारक हैं और उनकी 38 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके प्रस्ताव को एक नयी पहल के तौर पर देखा जाना चाहिए। उनकी मान्यता है कि आरक्षण देकर कमजोर तबकों को आगे लाने की कोशिशें अब तक अपेक्षित परिणाम नहीं दे पायी हैं, इसलिए अब आरक्षण को नये तरीके से लागू किया जाना चाहिए। उनका प्रस्ताव है कि इस देश में जितने भी अगड़े हैं (यानी दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़े वर्ग और अहिंदू पिछड़े वर्गों को छोड़कर) उनको संख्यानुपात में आरक्षण दिया जाए। मिसाल के तौर पर, अगर जनगणना से यह पता चलता है कि इस देश में 10, 20 या 30 फीसदी सवर्ण हैं तो इस समूह को संख्या के हिसाब से 10,20 या 30 फीसदी आरक्षण दिया जाए। आरक्षण की यह अधिकतम सीमा हो।
आरक्षण न सिर्फ सरकारी और निजी नौकरियों तथा शिक्षा में बल्कि जीवन के तमाम क्षेत्रों जैसे न्यायपालिका, बैंक से दिये जाने वाले कर्ज, कला, जन-संचार, फिल्म, खेल, कंपनियों के निदेशक बोर्ड, ठेके, सप्लाई आदि में दिया जाए। इस संबंध में एचएल दुसाध दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण देते हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वाले दलों में भी सामाजिक विविधता का ध्यान रखा जाता है। संख्यानुपात में सवर्णों को आरक्षण देना हर दृष्टि से न्यायसंगत है, इसलिए इसका कोई विरोध भी नहीं करेगा। इस व्यवस्था से किसी को भी शिकायत नहीं होगी।
डायवर्सिटी मिशन का प्रस्ताव है कि इस तरह सवर्ण समुदायों को आरक्षण देने के बाद बाकी समुदायों को वैधानिक समूहों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, कई राज्यों में अति पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यकों में पिछड़े आदि) के हिसाब से संख्यानुपात में आरक्षण दिया जाए। इस तरह इस देश में "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" का फॉर्मूला लागू किया जा सकता है। कुछ बुद्धिजीवियों को इस बात की काफी शिकायत होती है कि अभी आरक्षण का फायदा संपन्न लोग उठा लेते हैं। इसका समाधान यह है कि सवर्ण कोटा समेत हर तरह के कोटे में आधी सीटें उन लोगों के लिए हों, जो क्रीमी लेयर यानी मलाईदार तबके में नहीं आते। इस तरह हर समुदाय के गरीबों को अवसरों में बेहतर हिस्सेदारी का मौका मिल पाएगा। लेकिन इस व्यवस्था में किसी भी कारण से एक समुदाय की सीट या अवसर दूसरे समुदाय को नहीं दी जाएगी। और किसी वजह से ऐसा करना जरूरी भी हो जाए तो ऐसी सीटों को दलित या अनुसूचित जाति के प्रार्थी से भरा जाए। नयी आरक्षण पद्धति में सिर्फ इस एक भेदभाव की गुंजाइश रखी जा सकती है क्योंकि अगर भेदभाव करना ही है तो उसके हित में किया जाए, जो अब तक सबसे ज्यादा वंचित रहे हैं।
अभी कई जगहों पर जब सिर्फ एक पद हो, तो उसे जनरल यानी सामान्य श्रेणी का माना जाता है और ऐसे मामलों में आरक्षण लागू नहीं होता। मिसाल के तौर पर, विश्वविद्यालयों में कुलपति या रजिस्ट्रार का पद ऐसा ही है। नयी आरक्षण नीति में देश भर के सभी विश्वविद्यालयों को एक इकाई मान कर आरक्षण लागू किया जाएगा। इसी तरह सभी अस्पतालों को निदेशकों या सभी देशों में नियुक्त राजदूतों, या सभी राज्यपालों को एक इकाई माना जाएगा। जहां सीटों की संख्या सचमुच कम हो, वहां ज्यादा पिछड़ापन होने को अवसर दिये जाने का आधार बनाया जाएगा। मिसाल के तौर पर, किसी जगह सिर्फ एक पद हो तो उसे दलित या आदिवासी से भरा जाए। अगर सिर्फ दो पद हों तो दूसरे पद को अन्य पिछड़ा वर्ग से भरा जाए और तीन पद हों तो तीसरे पद को सवर्ण से भरा जाए। हालांकि 1-2-3 के इस फॉर्मूले में दलित-आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग और सवर्ण को बराबर वजन दिया गया है जो समूहों के संख्यानुपात के हिसाब से सही नहीं है और सवर्णों को इससे लाभ होगा, फिर भी समाज में विविधता लाने के लिए खासकर पिछड़ों को यह कुर्बानी देनी चाहिए।
इस आरक्षण व्यवस्था के अंदर महिलाओं और शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों को भी आरक्षण दिया जा सकता है। हर जाति समूह यानी दलित, आदिवासी, ओबीसी और सवर्ण के अंदर एक खास अनुपात में (मिसाल के तौर पर 33 फीसदी) स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किया जा सकता है। वैसे ही हर समुदाय के कोटे में शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को भी आरक्षण दिया जा सकता है। इस तरह हर संस्थान में या क्षेत्र में हर जाति समूह के लोग होंगे, हर जाति समूह की महिलाएं होंगी और हर जाति समूह के शारीरिक रूप से असमर्थ लोग होंगे।
इस तरह भारत के संसाधनों ओर अवसरों पर देश के विभिन्न सामाजिक समूहों की सुसंगत भागीदारी बेहतर ढंग से सुनिश्चित हो पाएगी। यह सच है कि इस देश में अवसर कम हैं और संसाधन भी सीमित हैं लेकिन सीमित अवसरों और संसाधनों के असमान बंटवारे से बेहतर है कि बंटवारा समान हो। जब संसाधन और अवसर पर्याप्त हो जाएंगे तो इस तरह के बंटवारे की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन वह समय जब तक नहीं आ जाता, तब तक न्यासंगत समाज बनाने के लिए डायवर्सिटी मिशन के इस प्रस्ताव पर सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक चिंतकों को विचार करना चाहिए। समाजवादियों, गांधीवादियों, वामपंथियों, महिला अधिकार की समर्थकों जैसी प्रगतिशील धाराओं की ओर से इस प्रस्ताव को व्यापक समर्थन मिल सकता है।
(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्ट। कई टीवी चैनलों में जिम्मेदार पदों पर रहे। अख़बारों में नियमित स्तंभ लेखन। दलित मसलों पर लगातार सक्रिय। यात्रा प्रिय शगल। इन दिनों अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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वर्धा ब्यूरो ♦ छात्र-छात्राओं ने अपने प्रतिरोध के चौथे दिन एक कतार बना कर पूरे वर्धा शहर की परिक्रमा की। करीब सौ छात्र-छात्राओं की इस मौन यात्रा में आहत छात्र-छात्राओं के हाथ में पोस्टर व बैनर थे।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
मीडिया मंडी »
सिद्धार्थ वरदराजन ♦ नीता शर्मा वह रिपोर्टर थी, जिसने 2002 में हिंदुस्तान टाइम्स में एक झूठी स्टोरी की थी, जिसमें वरिष्ठ और सम्मानित पत्रकार कश्मीर टाइम्स के दिल्ली ब्यूरो चीफ इफ्तिखार गिलानी को आईएसआई का एजेंट बताया था। पुलिस और इंटेलिजेंस अधिकारियों द्वारा प्लांट करवायी गयी उसकी स्टोरी ने इफ्तिखार को कैद किये जाने में भूमिका निभायी और उनकी अंतहीन परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया। खासकर वे परेशानियां जो उन्हें तिहाड़ के भीतर हिंसक कैदियों और जेलरों से झेलनी पड़ीं। एक रिपोर्टर होने के नाते उसने कभी भी अपनी स्टोरी के लिए माफी नहीं मांगी। जब तक वह माफी नहीं मांगती, मैं उसे अपने पेशे पर एक दाग मानता रहूंगा।
नज़रिया »
दिलीप मंडल ♦ आरक्षण न सिर्फ सरकारी और निजी नौकरियों तथा शिक्षा में बल्कि जीवन के तमाम क्षेत्रों जैसे न्यायपालिका, बैंक से दिये जाने वाले कर्ज, कला, जन-संचार, फिल्म, खेल, कंपनियों के निदेशक बोर्ड, ठेके, सप्लाई आदि में दिया जाए। इस संबंध में एचएल दुसाध दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण देते हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वाले दलों में भी सामाजिक विविधता का ध्यान रखा जाता है। संख्यानुपात में सवर्णों को आरक्षण देना हर दृष्टि से न्यायसंगत है, इसलिए इसका कोई विरोध भी नहीं करेगा। इस व्यवस्था से किसी को भी शिकायत नहीं होगी।
विश्वविद्यालय »
डेस्क ♦ दो सितंबर को छात्रों के साथ वीसी विभूतिनारायण राय द्वारा किये गये गाली-गलौज और लाठी चार्ज से आहत विद्यार्थियों ने 5 सितंबर को सेवाग्राम स्थित गांधी के ऐतिहासिक आश्रम में धरना दिया। हालांकि कल रात कई विभागाध्यक्षों ने अपने विभाग के नये-पुराने छात्र-छात्राओं को फोन पर धमकी दी कि अगर कोई भी इस मामले को तूल देते हुए प्रदर्शन करता है, तो समझ लें कि उनका भविष्य अंधकारमय है, उनको बख्शा नहीं जाएगा। धरना के दौरान विद्यार्थियों ने कविताओं का पाठ करते हुए यह संदेश दिया कि यह गुंडई के खिलाफ बौद्धिकता का प्रतिरोध है। ये विश्वविद्यालय में मौजूदा तानाशाही के बरअक्स लोकतंत्र बहाली की जद्दोजहद है।
नज़रिया, स्मृति »
अरविंद शेष ♦ लेखन और जीवन-व्यवहार में भयानक स्तर पर पाखंड जीने वाले ऐसे लोगों के लिए यही 'पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी' में गिनती होना हर बार संजीवनी साबित होता है। जरा कल्पना कीजिएगा कि जब किसी स्लम या गंदी कही जाने वाली बस्ती में कोई व्यक्ति अपनी पत्नी-बेटी को मां-बहन की वीभत्सतम गालियां देता हुआ पीटता रहता है या बीवी-बच्चों के सामने खुदकुशी कर लेने की स्थितियां पैदा करता है तो आपको कैसा लगता है? उस व्यक्ति के प्रति कैसे विचार आते हैं और क्या उसका व्यवहार आपको अपराध लगता है? अगर हां, तो उसे किस तरह की सजा दिये जाने का आपका मन करता है? क्या कभी आपको यह भी लगता है कि आप उसके साथ खड़े होकर सम्मानित महसूस करेंगे?
नज़रिया, मोहल्ला लाइव »
अविनाश ♦ वेब एक ऐसा मीडियम है, जिस पर आप अपनी आदिम जिद के साथ पत्रकारिता कर सकते हैं। अगर एक वीसी ने अपशब्द कहा है कि तो टेलीविजन में उसको दिखाते हुए हम उसकी आवाज को पिंग कर सकते हैं, अखबार में उसे रिमूव कर सकते हैं या उस वीसी की किसी भी किस्म की प्रदर्शित अश्लीलता को दोनों ही माध्यमों में मोजैक कर सकते हैं – लेकिन वेब हमें उस आदमी की कुंठा को वैसे ही सार्वजनिक कर देने का साहस देता है। एक बात और जो मैं जहां मौका लगता है, कहता हूं – वेब का उपयोग हम अपनी छिपी हुई भावनाओं के साथ कर सकते हैं। मसलन हमारी प्रकृति मूलत: अफवाह फैलाने की है और तो वेब का इस्तेमाल ऐसे ही करेंगे।
नज़रिया »
शशि भूषण ♦ भागती हुई दिन भर की कक्षाएं हैं, शाम रात की मंहगी पड़ती कोचिंग हैं, प्रोजेक्टस और असाइनमेंट्स की व्याकुल तैयारी है… कुल मिलाकर बेस्ट रहने के अनुशासन का दुख है, जिसे बच्चे साफ-साफ टेंशन कहते हैं। क्योंकि दुख का शब्दकोश उन्हें मिला ही नहीं। वे खुशहाल घरों से आते हैं। मां-बाप के दुलारे हैं। उन्होंने घर में कभी मार नहीं खायी। नियमत: स्कूलों में पीटे नहीं जा सकते। वे बच्चे कैसे दुखी होंगे? उन्हें सिर्फ तनाव होता है। इसे सुनिए तो रहा नहीं जाता कि बच्चों को टेंशन है। तनाव जो सिर्फ खोखला करता है। आंसू तो ताकत भी बख्शते हैं। पर अच्छी स्कूलों के बच्चों को रोने का अभ्यास नहीं है। वे उस दुनिया में अपनी उमर जी रहे हैं, जहां तनाव ही दुख है।
विश्वविद्यालय »
वर्धा ब्यूरो ♦ छात्र-छात्राएं दिन भर परिसर के मुख्यद्वार पर धरने पर बैठे रहे। शाम के वक्त विश्वविद्यालय के कुलसचिव कैलाश खामरे, विशेष कर्तव्याधिकारी राकेश और साहित्य विद्यापीठ के डीन प्रो सूरज पालीवाल के साथ मुख्यद्वार पर पहुंचे। इस वक्त धरना-स्थल पर छात्र-छात्राएं शांतिपूर्ण तरीके से अपने गुस्से और आक्रोश को आपस में मिल-बांट कर शांत कर रहे थे। छात्र-छात्राओं की बातचीत में व्यवधान पैदा करते हुए राकेश लगभग टांग अड़ाते हुए बोले कि भाषण देना मुझे भी आता है और ऊलजलूल आरोप लगाते हुए उन्होंने बार-बार कहा कि विद्यार्थी दस बजे के बाद यदि परिसर में गाली-गलौज करते पाये गये, तो उन पर बार-बार लाठी चार्ज होगा और उन्हें गालियां भी दी जाएंगी।
मोहल्ला दिल्ली, शब्द संगत, स्मृति »
डेस्क ♦ दिलीप मंडल ने गिरदा के बारे में बज्ज पर लिखा है, अफसोस कि उत्तराखंड के बाहर के लोगों को इस शानदार इनसान के बारे में कम जानकारी है। हमारे समय के महानायक हैं गिरदा। शेखर पाठक ने कहा उन्होंने नैनीताल की निर्ममता को इस तरह बदला कि पूरा नैनीताल सड़क पर आने को विवश हो गया। उन्हें केवल हिमालयी अंचल का मानना उन्हें छोटा करके देखना होगा। उन्होंने अपनी बाहर की खिड़कियां हमेशा खुली रखी। युगमंच, नैनीताल समाचार, उत्तरा जैसी कई शुरुआतें उनके बिना न हुई होती। गिरदा एक छुपे हुए पत्रकार भी थे। भागीरथी में आयी बाढ़ के दौर में उनका वो पत्रकार बाहर आया। बाबा नागार्जुन और उनके बीच एक फक्कड़ दोस्ती हुआ करती थी। वो दोनों एक ही बीड़ी को चूस चूस कर पीते।
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
आप मुगालते में हैं दिलीप भाई ,अगर आप सिर्फ sc की बात कह रहे हैं तो हमें कुछ नहीं कहना है लेकिन जहाँ तक जनजातियों का सवाल है नौकरियों में आरक्षण से मिलने वाले लाभ की बात तो दूर उन्हें देश के लोकतंत्र में भी हिस्सेदारी नहीं मिल पायी है ,और इस बारे में कोई भी आरक्षण समर्थक ज्यादा नहीं बोलता क्यूंकि इसके अपने खतरे हैं ,[अहले उन्हें जल जमीन जंगल से जुडी बुनियादी जरूरतों पर हक़ मिल जाने दीजिये (जो कि फिलहाल दूर दूर तक मुमकिन नजर नहीं आटा )तब बड़ी हिस्सेदारी से जुड़े सब्ज ख्यालों का टोकरा पेश कीजियेगा |
suresh kalmadi obc ke hain bhai , jaati ke gwaala hai n
ARTICLE BAHUT ACCHA LIKHA MAINE BHI MASTER IN BROADCASTING JOURNALISM KIYA HAI.10 YEARS TAK CHANNEL AUR PRINT ME KAAM KIYA HAI ABHI CENTER GOVT ME PRO HU.JANAB MAI KHUD KAA OWN PROFESSIONAL MEDIA COLLEGE OPEN KARNAA CHAHATAA HU.JAHA AUDIO-VISUALS LAB,EDITING LAB,NEWSROOM,WEB LAB HO AUR SABHI COURSES PROFESSIONAL HO LEKIN FUNDS…….PAISA NAHI HONE KE KAARAN KUCH NAHI KAR PATAA.AAP NE SAHI SAVAAL UTHALYA.KI 1 POST KE LIYE RESERVATION NAHI HAI SUPREM COURT KE DIRECTION SE.LEKIN VO BADHE HODE KI POST HOTI HAI VO 1 HI HOTI HAI AISE ME SUPREME COURT KI JUDGEMENT PE PHIR SE VICHAR HONAA CHAHIYE.Q KI RESERVATION KEVAL 4TH GRADE KE LIYE HI NAHI HAI.
SURESH KALMAADI KARNATAKA KE BRAHAMIN HAI PAHALE ACCHE SE JAANKARI RAKHO
दिलीप जी भी अजब-गजब मजेदार बातें कर लेते हैं।
बहुत बढिया आलेख है. दिलीप जी को मुबारकबाद. वंचित समुदायों के लिए दिलीप जी ने रास्ता दिखा दिया है, इस रास्ते पर आगे तो उन्हें ही बढना है. आशा है बीच-बीच में दिलीप जी तथा हमारे अन्य बुद्धिजीवी मार्गदर्शन करते रहेंगे.
aakhr aap kab samajhenge dilip ji ki aarakshn yaa jabaradasti hissedaari koi hal nahi hai..ab kahenge ki kala jagat me bhi aarakshan ho yaa ye bhi kahenge ki wyawasaay jispe adhikansh pichhade warg kaa swaamitwa hai usame sawarno aur dalito ko hissedaari mile…wikaas ko neece tak pahunchaane ki baat kare to behatar hoga
आपको ज्यादा तो नहीं जानता .लेकिन इतना जरूर जानता हूँ कि आप जातिगत आधार पर ही किसी सामाजिक पहलु की विवेचना करते रहते हैं . इसी एक दायरे में रहकर कोई भी सवाल उठाते हैं . एक और चीज़ जो हाल में दिखा कि भारत में लोगों को बुद्धिजीवी लेखक , बिना ओरिजिनल सोच के , बनने की होड़ है .अच्छा है …कुछ तो काम है . मेरा एक सीधा सवाल है कि आप जैसे लोग सिर्फ बैशाखी से ही वो भी चलने नहीं दौड़ने की वकालत क्यों करते रहते हैं . आरक्षण कभी अमर्त्य सेन जैसा इकोनोमिस्ट नहीं पैदा कर सकता ये बात आपके समझ में तो जरूर आती होगी . हाँ ,मैं सहमत हूँ कि इसके शुरुवाती फायदे हैं और किसी खास एक वर्ग को इसका थोड़ा बहुत लाभ मिलता है . अब दलित ,ओ बी सी या सवर्ण कोई भी बिना योग्यता के ऊंचे ओहदे पर पहुंचे तो उस संस्था का तो बेड़ा गर्क ही करेगा .इसीलिए कृपया फ़ालतू चीजों की वकालत न करें . योग्यता बढ़ाये ,जहां आप पढ़ते -पढ़ाते हैं वहां उन छात्रों को और मेहनत से पढ़ाएं जो पिछड़े वर्ग से आते हैं . अन्यथा आपको भी उसी दौड़ में मान जाएगा ,वो बुद्धिजीवी ,बिना ओरिजिनल सोच के .मेरा एक सपना है कि भारत से जातिगत समाज समाप्त हो .किसी भी हालत में .और जो इसकी वकालत करता है .वो मुझे समाज का गद्दार लगता है . विकास हर किसी का हो और आधुनिक भारत में विकास करने का आधार बदलना चाहिए . दिक्कत ये है कि मनु ने ऐसा बीज बो दिया कि आप जैसे लोग बस उसी के दिए नाम को ढोते जा रहे हैं और इसकी आड़ में वास्तव में आप अपने लेख का एक फ्री मार्केट तैयार कर रहे हैं. की भाई मैं तो फ्री में लिख रहा हूँ तुम मुझे जानो ,देखो मैं तुम्हारा कितना बड़ा हितेषी हूँ. कुछ लोग आपके इस चुंगल में फस सकते हैं .लेकिन जो वास्तिवकता को समझते हैं वो क्यों आप जैसों के चक्कर में पड़ेगें. .आप कितने लचर हैं तर्कों में .वैसे मेरा पुरस्कार देने वाली किसी संस्था पर कोई भरोसा नहीं है .फिर भी यार अब इसमें भी आप जातिगत आधार चाहते हैं या फिर ऐसी हालात के लिए जातिगत आधार पर ही पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हैं .फिर कुछ नहीं हो सकता है आपका ,आप पढ़ने- पढ़ाने में भी लेखों और विद्यार्थियों का चुनाव भी जात देख कर करते हैं क्या .अगर ऐसा है तो .आप समझ लीजिये आपका विकास ही रुका पड़ा है .पहले वो ही कर लीजिये
क्या योग्यता का copyright सिर्फ सवर्ण जातियों के पास है? नहीं सच तो यह है कि दलित व्यक्ति कि योग्यता को सवर्णों ने कभी स्वीकार ही नहीं किया है/ मै Information Technology में B.Tech. (1st Div.), M.Tech. (1st Div.)और अब Ph.D. कर रहा हूँ फिर भी देश के जाने माने शंस्थान interview के लिए नहीं कॉल करते है/ वही M.Sc. डिग्री वालो को जगह दी जा रही है/ थू है ऐसी ब्यवस्था पर/
मै इस बात से पूरी तरह सहमत हूं. और साथ ही मै तो यह भी मानता हूं कि जहां सच ना सही वहां झूठ सही जहां हक ना सही वहां लूट सही ……हम सब युवा वर्ग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं और आपके साथ हैं.
सर,
आपने लिखी हुई बातों से मै सहमत हु अपने आप को होशियार समझने वाले यह लोग पिछले ढ़ाई हजार वर्षोँसे आज तक इस देश पर राज कर रहे है लेकिन आज भी यह देश दुनिया का सबसे बड़ा भूखा व नंगा देश है देश की 80 प्रतिशत लोग आज भी अपने मुलभूत जरुरतों को भी पुर्ण नही कर पाए इतने ही यह लोग होशियार होते तो सभी प्रकार के प्राकृतिक साधनसंपत्ती के साथ यह देश दुनिया पर राज कर रहा होता लेकीन इस देश के उच्चवनिर्य शासक बला के बेवकूफ है.
सर, आपतो हिस्सेदारी कि बात कर रहे है मैं तो बोल रहा हू कि इस देश की सभी प्रकार की सत्ता अपने हाथ में लेने का वक्त आ गया है. हम कब तक इन अल्पसंख्य़ांक व बेवकुफ शासकों से मांगते रहेंगे अब वक्त आ गया है कि हम मांगनेवाले नही देनेवाले बने.
सर, इस देश के 85 प्रतिशत जनता व युवा वर्ग आपके साथ है.
जय फुले- जय शाहु- जय भीम- जय भारत
80 प्रतिशत लोग आज भी अपने मुलभूत जरुरतों को भी पुर्ण नही कर पाए!
na hi koi Inke liye lad hi raha hain!
दिलीप मंडल को जवाब देना चाहिये .देश में मुगलों का शासन रहा , उसके बाद अंग्रेज़ो का. आज़ादी के बाद अम्बेदकर जी का संविधान लागू है ,अब ज़रा सोचिये…कोइ आगे क्यों है
मंडल जी
नमस्ते !
बढ़िया लिखे हैं – ऐसा ही लिखते रहिये – लेकिन 'ओबीसी , मुसलमान और दलित / आदिवासी ' को एक साथ मत सानिये ! बिहार और उत्तरप्रदेश में २० साल से आपके लोगों का राज है – मुसलमान / दलित को आप क्या दिए ?? सिर्फ उनका वोट लिए
बी पी मंडल खुद बहुत ही बड़े जमींदार थे
खैर लिखते रहिये !
बुद्धिजीवी लिखते रहेँ, पर जबतक सरकारी कार्यालयोँ मेँ जाति-प्रमाण पत्र बनते रहेँगे, भारत से जातिवाद नहीँ मिटेगा। हाँ ऐसी बातोँ से अन्ततः फायदा सवर्णोँ को ही है। वे सँभलकर अपनी क्षमता और बढ़ाने मेँ लग गये हैँ। खासकर बिहार मेँ सवर्णोँ के लिए लालूजी की यह सौगात भविष्य मेँ रंग लायेगी और दूसरी ओर बिना पढ़े, बिना योग्य बने जाति के नाम पर रोटी खानेवालोँ की फौज तैयार होगी।
'हिंदुस्तान'के सवर्ण हिंदू,हालाँकि इतिहास देखें तो एकगले तो बेशक ही नहीं दोगले या अधिक गले हैं ,सो इस तबके के बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी वंचितों के हक-अधिकार का प्रश्न आने पर अपनी नस्लीय प्रतिभा की दुहाई देकर वंचितों के आरक्षण वगैरह के मसले पर या तो स्वर्ण तरफदारी करने लगते हैं या फिर देश के रसातल में चले जाने का रोना रोने लगते हैं.वे ब्राह्मण-परम्परा पोषक शूद्र रामदेव यादव यानि कथित बाबा रामदेव को स्वीकार सकते हैं पर परम्परा भंजक साहित्यकार राजेंद्र यादव की प्रतिभा को हरगिज नहीं,सवर्ण हितों को सहलाने वाले पिछड़े नीतीश की वाहवाही मे आँख मूँद कर उतर सकते हैं पर
मंडल कमीशन के प्रावधानों को लागू करने वाले वी पी सिंह को पानी पी पी कर गरियाएंगे.
रिजर्वेशन की बात करें तो धर्म-कर्म का ठेका ले समाज को रसातल में पहुँचाने का सबसे बड़ा धत्कर्म तो ब्राह्मणों का ही है.हमारे गुणवान सवर्ण विकसित देशों के अ-सवर्ण से खेल-कूद और अनेक अन्य मोर्चों पर क्यों काफी पीछे रह जाते हैं.क्यों सवर्ण सीधी भागेदारी वाले गंदे कार्यों-नोकरियों में हमारे शत-प्रतिशत आरक्षण पर सवाल नहीं उठाते और अपनी प्रतिभा वहाँ नहीं दिखाना चाहते. हाँ, वहाँ जा भी रहे वे अब. पर तनख्वाह खुद उठा रहे हैं और तुच्छ मजदूरी देकर कम पर दलितों को लगा दे रहे हैं. अब जाति-गौरव को जूते में टांग कर वे स्वीपर बनने को भी तैयार हैं क्योंकि परम्परा से हेय समझे जाने वाले इस नौकरी मे भी कम पैसे नहीं हैं.मिथिलांचल के कॉलेज-यूनिवर्सिटी व अन्य सरकारी संस्थानों में सवर्णों की यह कारस्तानी चल निकली है.
बिहार के कुछेक मंदिरों में अपने हिसाब से क्रन्तिकारी काम करते हुए धर्म-मन पूर्व आई पी एस कुणाल ने दलित पुजारी नियुक्त किए,पर कोई बताएगा कि कितने सवर्णों के मन से दलित-घृणा का प्रक्षालन हो पाया!पटना स्थित हनुमान मंदिर के दलित पुजारी को तो अन्य पुजारियों ने 'पुजारी विदाउट प्रोफोलियो' बना कर साइड लाइन कर रखा है.
इस अकेले मौके पर कितना सवर्ण-पुराण सुनियेगा.ज्यादा मन करे तो अबके हंस,सितम्बर १० में आया शीबा फहमी का लेख 'साहित्य की इजारेदारी' पढ़ लीजै,दिमाग दुरुस्त हो जायेगा.