हर कीमत पर चाहिए शांति
http://www.janatantra.com/news/2010/07/08/editorials-on-kashmir-violence/नवभारत टाइम्स
कश्मीर घाटी की तनावपूर्ण स्थितियों में पिछले कुछ दिनों से लगातार अलगाववादी शक्तियों के निशाने पर रह रही सीआरपीएफ के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने हाल में कुछ नए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन निर्देशों का केंद्रबिंदु यह है कि सिर्फ अपने कैंप, कार्यालय या बैरक पर हुए हमले को छोड़कर बाकी सभी स्थितियों में वे केवल राज्य पुलिस की सहायक भूमिका में काम करें और मैजिस्ट्रेट के स्पष्ट आदेश को छोड़कर अन्य किसी भी स्थिति में फायरिंग न करें।
और तो और, अपने किसी पिकेट या नाके पर उग्र भीड़ का हमला होने की स्थिति में भी वे अपने बचाव के लिए एक भी गोली या मोर्टार न चलाएं और भीड़ से निपटने का काम स्थानीय पुलिस पर छोड़कर किसी तरह वहां से हट जाएं।
जम्मू-कश्मीर की कानून-व्यवस्था संभालना अगर वहां की स्थानीय पुलिस के ही बूते की बात होती तो वहां सेना और केंद्रीय अर्धसैनिक बल तैनात करने की नौबत ही नहीं आती। लेकिन यह समय की मांग है और सीआरपीएफ को इसको इसी रूप में लेना चाहिए। सीआरपीएफ एक सशस्त्र बल है और उसे हमले पर उतारू भीड़ को खदेड़ने, पस्त कर देने और जरूरत पड़ने पर मार कर गिरा देने के लिए ही तैयार किया गया है। खुद पर हमला होने की स्थिति में कोई जवाबी कार्रवाई किए बगैर घटना स्थल से हट जाने की बात उसके गले उतारना आसान नहीं होगा। लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय का यही आदेश है और उसे हर हाल में इसे मानना पड़ेगा।
जम्मू-कश्मीर में एक अतिरिक्त समस्या यह है कि प्रशिक्षित आतंकवादी और पाकिस्तानी एजेंट उग्र भीड़ में आसानी से घुल-मिल जाते हैं। अर्धसैनिक बलों के लिए अक्सर यह तय करना मुश्किल होता है कि अकारण उन पर पत्थरबाजी करने लगी भीड़ में वहां की आम जनता शामिल है, या जनता की आड़ में वे दरअसल किसी आतंकवादी हमले का सामना कर रहे हैं। इसके बावजूद अभी की स्थितियों में हमारे सैनिक और अर्धसैनिक बलों के लिए ज्यादा से ज्यादा एहतियात बरतने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
राज्य के हालात डेढ़ साल पहले भी काफी नाजुक हो गए थे, जब अमरनाथ यात्रियों के पड़ाव के लिए अस्थायी तौर पर ली गई भूमि को राज्य की अलगाववादी ताकतों के अलावा नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने भी व्यापक आंदोलन का मुद्दा बना दिया था। लेकिन पिछले तीन हफ्तों में घाटी के लगभग सभी शहरों में सड़कों पर जारी हिंसा में हुई दस से ज्यादा मौतों ने जम्मू-कश्मीर को पिछले दो दशकों की सबसे ज्यादा खतरनाक हालत में ला खड़ा किया है। पाकिस्तान के सत्तारूढ़ राजनेता इसे काफी हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं क्योंकि इसमें उन्हें मुंबई हमलों के बाद बनी अपनी घेरेबंदी तोड़कर उलटे भारत को कठघरे में ला खड़ा करने का सुनहरा मौका नजर आ रहा है। जम्मू-कश्मीर में बने तनाव को फिलहाल किसी भी कीमत पर ठंडा करके भारत उन्हें इस सुख से वंचित कर सकता है।
हिंदुस्तान
कश्मीर घाटी में फिर सेना को उतारने का फैसला चिंताजनक है। केंद्र सरकार इसके उपयोग के तरीके पर विशेष बैठक जरूर कर रही है लेकिन एक बात साफ है कि आतंकवाद को काबू करने के बाद नागरिकों से टकराव से बचती सेना को फिर वही काम करना पड़ेगा। जाहिर है यह काम रातोंरात नहीं होगा और न ही शांतिप्रद होगा।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दस दिनों से चली आ रही गड़बड़ी के बाद जब सामान्य स्थिति बहाल होने की उम्मीद बन रही थी तब मंगलवार को चार लोगों के मारे जाने और करीब 70 के घायल होने के बाद हालात और बिगड़ गए। असंतोष का आलम यह है कि मारे जाने वालों में ज्यादातर बच्चे और युवक हैं और उनकी उम्र नौ से 25 साल के बीच है।
दूसरी तरफ अमरनाथ यात्र के चलते जम्मू से लगातार सेना की व्यापक तैनाती की मांग उठ रही है । अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति ने पिछले साल की तरह बैठकों और बयानों का सिलसिला तेज कर दिया है। हालांकि इस बारे में स्थिति बहुत साफ नहीं है कि वहां से सेना वास्तव में हटा ही ली गई थी। पिछले साल दिसंबर में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने कहा था कि घाटी से 35000 सैनिक हटा लिए जाएंगे।
उसके बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बड़ी संख्या में सेना के हटने की घोषणा विधानसभा में कर दी थी और यह भी उम्मीद जताई थी कि हालात इतने बेहतर हो गए हैं कि अब धीरे-धीरे कानून और व्यवस्था का काम पुलिस संभाल लेगी।
लेकिन थोड़े दिनों बाद सेना के अधिकारी का यह कहना ज्यादा व्यावहारिक लगता है कि सेना कश्मीर से कभी हटाई नहीं गई बल्कि उसे एक जगह से हटाकर दूसरी जगह पर तैनात कर दिया गया। रही विशेष अधिनियम को हटाने की बात तो उस पर कोई फैसला नहीं हो पाया था क्योंकि सेनाध्यक्ष ऐसे किसी कदम का विरोध करते रहे हैं।
उनकी दलील थी कि जिस तरह पुलिस की सुरक्षा के लिए सीआरपीसी जैसा कानून है, वैसे ही अशांत इलाकों में सेना को सुरक्षा देने के लिए विशेष सुरक्षा अधिनियम भी है। मौजूदा स्थितियों में सेना की यह दलील सही लगती है और उसे अल्पकालिक उपायों के लिए छूट और कानूनी सुरक्षा तो देनी ही होगी।
यह समय कश्मीर में दीर्घकालिक समाधान पर चर्चा करने का है भी नहीं। लेकिन एक बात हमें स्वीकार करनी होगी कि दीर्घकालिक उपायों का अवसर हाथ से खोकर ही हम सेना तैनात करने के अल्पकालिक उपायों पर मजबूर हुए हैं।
डेढ़ साल पहले कश्मीर की जनता ने जिस उम्मीद से सरकार चुनी थी, उसे पूरा करने में न तो राज्य सरकार कामयाब हो सकी न ही केंद्र सरकार। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उनके विधायक अपनी जनता से वह तालमेल नहीं रख पाए जो उन्हें चुनावी जीत के रूप में हासिल हुआ था। दूसरी तरफ केंद्र सरकार न तो हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं से संवाद शुरू कर पाई न ही पाकिस्तान से।
पाकिस्तान से संवाद तो मुंबई की आतंकी वारदात के चलते टूट गया लेकिन हुर्रियत नेताओं और घाटी के अन्य बौद्धिक वर्ग से सरकार क्यों कटी रही, यह बात समझ के परे है। आज जब पाकिस्तान से बातचीत शुरू हुई है तो घाटी को अशांत करने में आतंकियों की साजिश हो सकती है लेकिन ऐसा कहकर केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। साजिशों पर शोर मचाने के बजाय उसे नाकाम करने से ही कश्मीर का समाधान निकलेगा।
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