न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल: परमाणु त्रासदियों को न्यौता
http://mohallalive.com/2010/07/01/an-article-on-nuclear-liability-bill/
♦ राजीव कुमार सुमन और पीके सुंदरम
न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल बन कर तैयार है। सिर्फ संसद में पेश होने और पास होने की औपचारिकता भर बाकी है। हालांकि इस बिल पर संसद की स्टैंडिंग कमिटी ने 9 जुलाई तक आम लोगों की राय मांगी है। हम अपील करते हैं कि लोग सरकार को लिखें : मॉडरेटर
भोपाल गैस-कांड पीड़ितों को इतने सालों में इंसान के दुख और खून के रंग के साथ-साथ इस व्यवस्था के कसाईपन की भी पहचान हो गयी है। इसीलिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर खुद के लिए इंसाफ मांगने के साथ-साथ वे प्रस्तावित परमाणु उपादेयता विधेयक (न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल) पर भी सरकार से जवाब मांग रहे हैं। जुलेखा बी उन 35 भोपाल-पीड़ितों में से हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से इस विधेयक पर सूचना मांगी है। उनका कहना है कि हम यह जानना चाहते हैं कि इस बिल में उन बातों का ध्यान रखा गया है, जिनकी भोपाल में अनदेखी हुई। इस प्रस्तावित कानून में मिल रहा मुआवजा तो उतने से भी कम है, जितना 25 साल पहले भोपाल में दिया गया, जबकि परमाणु भट्ठियों में होनेवाली दुर्घटना भोपाल से कई गुना भयावह होगी।
दरअसल, पिछले महीने भोपाल पर आये कोर्ट के फैसले और इस सिलसिले में इस मुद्दे पर फिर से घूमी मीडिया की नजर ने ही परमाणु उपादेयता विधेयक को भी व्यापक चर्चा का विषय बना दिया है, वरना इस कानून के पारित होने में कुछ तकनीकी कदम ही बाकी थे। संसद में विपक्ष लगभग अस्तित्वहीन है और सपा-राजद जैसे दलों की मजबूरी है कि शुरुआती शोरगुल के बाद अंततः कांग्रेस के साथ जाएं। लेकिन हाल में इस मुद्दे पर हलचल में आये मीडिया और आंदोलनकारियों के दबाव में सरकार ने इस विवादास्पद विधेयक को विज्ञान और तकनीक मामलों से जुड़ी संसद की स्टैंडिंग कमेटी के हवाले कर दिया है। इस समिति ने अब तक विशेषज्ञों और नागरिक संगठनों से बात की है और हाल में आम जनता को अपने सुझाव भेजने के लिए 15 दिन का नोटिस दिया है।
परमाणु उपादेयता विधेयक पर उठ रही चिंताएं बिलकुल वाजिब हैं। सरकार की पूंजीपरस्ती का पता इसी बात से चलता है कि इस बिल की आम जानकारी सरकार के माध्यम से नहीं, बल्कि औद्योगिक हितों की रक्षक FICCI (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industries) की मार्फत हुई जब पिछले नवंबर में पता चला कि FICCI सरकार द्वारा लाये जा रहे इस बिल की समीक्षा कर रही है। अभी भी, इस बिल के पक्ष में सरकार का मूल तर्क यही है कि इस कानून के तहत मुआवजे का ज्यादा बोझ पड़ने पर निवेशकर्त्ता परमाणु क्षेत्र में पैसा लगाने से पीछे हट जाएंगे। वैसे, इस बिल में प्रस्तावित मुआवजा राशि के साथ-साथ अन्य कई मुद्दे हैं, जिन पर बात होना जरूरी है। बिल के विवादास्पद पहलुओं का एक संक्षिप्त विवरण कुछ इस प्रकार है –
1. यह बिल परमाणु-बिजली जैसे संवेदनशील क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों के बतौर 'ऑपरेटर' प्रवेश के लिए दरवाजे खोलता है, जिनकी प्राथमिकता सुरक्षा नहीं पैसा कमाना होता है। बिल में 'ऑपरेटर' के लिए और सरकार के लिए देय अलग-अलग मुआवजा राशियों का प्रावधान है, इससे साफ है कि 'ऑपरेटर' सरकार से अलग एक इकाई होगी – जाहिर है यह देसी या विदेशी निजी कंपनियां ही होंगी। हकीकत यह है कि परमाणु बिजली-उद्योग की संवेदनशीलता को देखते हुए खुद अमेरिका और युरोप के देशों में सरकार ही 'ऑपरेटर' होती है और भारत में भी अब तक ऐसा ही चलता आया है।
2. इस बिल में दुर्घटना की स्थिति में पीड़ितों को दिये जानेवाले मुआवजे की अधिकतम सीमा तय कर दी गयी है जो किसी भी कानूनी और इंसानी लिहाज से आपत्तिजनक है। 'ऑपरेटर' के लिए यह राशि अधिकतम 500 करोड़ रुपये है और उससे ऊपर की 300 SDR (460 मीलियन डॉलर या लगभग 2100 करोड़ रुपये) तक की राशि सरकार देगी। यह कुल राशि भी 1989 में भोपाल के मामले में यूनियन कार्बाइड द्वारा दिये गये 470 मीलियन डॉलर से भी कम है। इससे अधिक मुआवजे की स्थिति में प्रस्तावित बिल में CSC (Convention on Supplimentary Compensation) से 300 SDR की अतिरिक्त राशि के लिए अनुरोध करने का जिक्र किया गया है। CSC में परमाणु-दुर्घटनाओं से निपटने के लिए एक साझा अंतरराष्ट्रीय कोश की व्यवस्था है, लेकिन खुद CSC का कोश इस बात पर निर्भर करता है कि इसमें कितने देश शामिल होते हैं और स्वेच्छा से कितनी राशि जमा करते हैं। खुद भारत और अमेरिका समेत कई महत्त्वपूर्ण देश CSC का हिस्सा नहीं हैं और CSC के अस्तित्व और इसके आर्थिक स्वास्थ्य पर गंभीर शंकाएं हैं। ऐसे में, CSC से मुआवजा दिलवाने की बात कोरी लफ्फाजी है।
3. 'ऑपरेटर' के लिए तय 500 करोड़ रुपये को भी अनुच्छेद 6(2) में स्थिति के अनुसार 100 करोड़ रुपये तक कम करने का प्रावधान है, जो असल में एक घिनौना मजाक है। अमेरिका में निर्धारित मुआवजा राशि 10 अरब डॉलर है, जिसके परमाणु उद्योग की विभिन्न कंपनियों के एक साझा फंड से दिये जाने का प्रावधान है।
4. परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए मशीनें, ईंधन अथवा तकनीक की आपूर्त्ति करने वाले 'सप्लायर' द्वारा दिये जाने वाले मुआवजे का तभी प्रावधान है, जब 'ऑपरेटर' और 'सप्लायर' के बीच उस खास संयंत्र को लेकर हुए इकरारनामे में इस बात का जिक्र हो (अनुच्छेद 17 – a, b और c)। जाहिर है, ऐसे में सभी विदेशी 'सप्लायर' इस बिल की जद से बाहर हैं और 'ऑपरेटर' से अपने अनुबंधों में वे मुआवजे से मुक्त रहना पसंद करेंगे। साथ ही, 'सप्लायर' की मुआवजा राशि 'ऑपरेटर' से कम ही होगी। इस प्रकार, असल में विदेशी या देशी 'सप्लायर' उस 500 करोड़ रुपये के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं, जिस पर पूरी बहस चल रही है। इस बिल में 'सप्लायर' की जवाबदेही को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
5. प्रस्तावित विधेयक किसी प्राकृतिक दुर्घटना अथवा आतंकवादी हमले की स्थिति में मुआवजे से मुकर जाता है (अनुच्छेद 5 – ii और ii)। यह औद्योगिक जिम्मेवारी के न्यूनतम सिद्धांतों से पीछे हटना है।
6. अध्याय 3 के अनुच्छेद 9(2) में दावा आयोग (Claims Commission) के गठन, उसकी जिम्मेवारियों और अधिकारों पर विस्तार से चर्चा की गयी है। इस दावा आयोग में सिर्फ सेवानिवृत्त जजों और सरकारी अफसरशाहों को शामिल करने का प्रावधान है, जबकि दावा आयोग समेत पूरे मुआवजा प्रणाली के हरेक स्तर पर स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों को अनिवार्यतः शामिल किया जाना चाहिए जिससे मुआवजा तय करने की प्रक्रिया पीड़ित-केंद्रित हो पाये।
7. अनुच्छेद 18 में यह प्रावधान है कि पीड़ित अपने मुआवजे की मांग दुर्घटना के दस साल के अंदर ही कर सकते हैं। यह प्रावधान पूरी तरह हटाया जाना चाहिए क्योंकि रेडिएशन-जनित बीमारियां सामने आने में अधिकतर लंबा समय लेती हैं और इनके लक्षण अगली पीढ़ी में भी दिख सकते हैं। इसी अनुच्छेद के अगले पैरा में यह कहा गया है कि अगर दुर्घटना किसी चोरी अथवा गायब हुए उपकरण से होती है, तो यह अवधि उस चोरी की तारीख से गिनी जाएगी। मतलब, अगर कंपनी यह साबित कर दे कि दुर्घटना किसी बीस साल पहले चोरी हुए उपकरण से हुई थी, तो उसे कोई मुआवजा नहीं देना पड़ेगा !
8. अनुच्छेद 35 में यह प्रावधान है कि दावा आयोग के फैसलों पर देश की कोई दूसरी स्थानीय या उच्च-स्तरीय अदालत में पुनर्विचार नहीं किया जा सकेगा। यह प्राकृतिक न्याय के आधारभूत नियमों का उल्लंघन है। इस अनुच्छेद को पूरी तरह हटाया जाना चाहिए।
9. अनुच्छेद 39(1) के अंतर्गत मुआवजा राशि देने से मुकरने वाले व्यक्ति को अधिकतम 5 साल की सजा अथवा आर्थिक-दंड का प्रावधान है। हजारों लोगों पर आयी विभीषिका की जिम्मेवारी के मद्देनजर यह सजा बहुत कम है।
10. अनुच्छेद 40(1) के अनुसार अगर कंपनी का उच्च-स्तरीय अधिकारी यह साबित कर दे कि दुर्घटना उसकी जानकारी के बगैर हुई तो उसे कोई सजा नहीं होगी। यह औद्योगिक जिम्मेवारी के स्थापित मानदंडों के बिल्कुल खिलाफ है।
11. अनुच्छेद 47 के अंतर्गत केंद्र सरकार के अधिकारियों को सजा से बाहर रखा गया है, यह सर्वथा नाजायज है और इससे समस्याओं की अनदेखी को ही बढ़ावा मिलेगा।
12. अनुच्छेद 49(1) के दूसरे पैरा में यह जिक्र है कि इस विधेयक के कानून बनने के तीन साल के बाद इसमें कोई संशोधन नहीं किया जा सकेगा। यह निहायत बेतुकी और खतरनाक बात है। जब देश का हर कानून जरूरत के मुताबिक संशोधित किया जा सकता है तो यह कानून क्यों नहीं?
इन अनुच्छेदों के अतिरिक्त इस विधेयक की प्रस्तावना में परमाणु-दुर्घटनाओं की स्थिति में होने वाले पर्यवरणीय नुकसान की भी चर्चा है लेकिन विधेयक के प्रावधानों में इसका कोई जिक्र नहीं किया गया है – पर्यावरणीय नुकसान की क्षतिपूर्ति कैसे की जाएगी, पंचायत अथवा किन संस्थाओं के माध्यम से पर्यावरणीय मुआवजे की राशि सुनिश्चित की जाएगी।
जाहिर है, वर्तमान स्वरूप में यह बिल भोपाल से कई गुना बड़े विध्वंसों को न्यौता देता है। सिर्फ अमेरिकी कंपनियों को नहीं बल्कि हाल में भारत से परमाणु समझौता करने वाली फ्रांसीसी, कनैडियन और रूसी कंपनियों और देसी औद्योगिक घरानों को भी इस बिल में संयंत्रों की सुरक्षा व्यवस्था की अनदेखी करने की पूरी छूट है और दुर्घटना की स्थिति में यह गारंटी है कि मुआवजा कंपनियां नहीं बल्कि सरकार के पैसे से दिया जाएगा जो कि अंततः खुद जनता का पैसा है। ऐसी स्थिति में, इस बिल के वर्तमान स्वरूप का विरोध हमारी सुरक्षा, अस्तित्व और आने वाली नस्लों के प्रति हमारी जिम्मेदारी का सवाल है।
(यह आलेख दो शोध छात्रों ने मिल कर तैयार किया है। राजीव कुमार सुमन वर्धा विश्वविद्यालय में पीस स्टडीज़ के रिसर्च स्कॉलर हैं और पीके सुंदरम जेएनयू से इंटरनेशनल स्टडीज में पीएचडी कर रहे हैं। जैसा कि दोनों लेखकों ने मोहल्ला लाइव को जानकारी दी है, यह लेख समयांतर के जुलाई में प्रकाशित होने वाला है।)
भेड़ के बीच भेड़ियों (नक्सलियों) को कैसे पहचानें?
दिवाकर मुक्तिबोध ♦ पुलिस का सूचना तंत्र कमजोर है, नक्सलियों का मजबूत। पुलिस जब तक इसे ठीक नहीं कर पाएगी, नक्सलियों के खिलाफ जंग जीतना मुश्किल है। लड़ाई लंबी है। इसे जीतना है तो पुलिस के जवानों को आम आदमी बनकर गांवों में आदिवासियों के बीच रहना होगा।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
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विकास वैभव ♦ शशि की मृत्यु के बाद जो कुछ हुआ, उसमें एनएसडी की भूमिका हमेशा ही संदिग्ध रही है। एनएसडी ने हमेशा यही कोशिश की कि किसी भी तरह से इस प्रकरण को जल्द से जल्द समाप्त किया जाए। एक तरह से उसकी भूमिका पल्ला झाड़ने वाली ही रही है क्यूंकि इस प्रकरण में अगर जांच बढ़ती, तो एनएसडी और अस्पताल प्रशासन की सांठ-गांठ के कच्चे-चिठ्ठे सामने आने का डर था। इसके अलावा भी एनएसडी में जिस तरह की धांधलियां निरंतर चलती रहती हैं, उसका भी बाहर आने का खतरा था। यही कारण रहा कि एनएसडी प्रशासन और उसके निदेशक ने पूरे प्रकरण पर पानी डालने की कोशिश की और इसे सामान्य मौत बताया और पोस्टमार्टम करवाने की भी जरूरत नहीं समझी।
नज़रिया, मोहल्ला दिल्ली »
रंग प्रसंग ♦ हिंदी अपने विकास-क्रम में एक केंद्रीय स्थान ग्रहण कर चुकी है, इसलिए हिंदी रंगकर्म पर कोई भी विचार दूसरी देशी-विदेशी भाषाओं पर विचार किये बिना अधूरा ही रहेगा। हिंदी के नाटक भले ही दूसरी भाषाओं में अनूदित हो कर मंचित न हुए हों, लेकिन दूसरी भाषाओं के अनगिनत नाटक हिंदी में तर्जुमा करके खेले गये हैं। और इसके साथ-साथ उन भाषाओं में जो नाट्य-चिंतन हुआ है, उसका असर हिंदी रंगमंच पर पड़ा है। हिंदी रंगकर्म की इन्हीं विशेषताओं को देखते हुए यह जायजा लेने की जरूरत शिद्दत से महसूस होती है कि हिंदी नाटक और रंगमंच के डेढ़ सौ साल के मौजूदा दौर में आज इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के आखिरी साल में हम कहां खड़े हैं।
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अब्राहम हिंदीवाला ♦ विक्रमादित्य मोटवाणी की 'उड़ान' कान फिल्म फेस्टिवल के 'अनसर्टेन रिगार्ड' खंड के लिए चुनी गयी थी। सात सालों के बाद किसी भारतीय फिल्म को यह अवसर मिला था। मजेदार तथ्य यह है कि उन दिनों कान में मौजूद हमारे स्टारों को इतनी फुर्सत भी नहीं मिली कि वे 'उड़ान' के शो में जाकर भारत के गौरव में शामिल हों। और मीडिया… उसकी आंखें तो कंगूरों (लंगूरों) से हटती ही नहीं… इसलिए 'उड़ान' की कोई खबर और फुटेज नहीं दिखी। निराश न हों अनुराग, संजय और विक्रमादित्य… आप अपने दर्शकों का नया समूह तैयार कर रहे हैं। (किसी भी मीडिया में पहली बार पेश है उड़ान की एक्सक्लूसिव तस्वीरें)
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डेस्क ♦ इन तस्वीरों को पूरी दुनिया ने देखा है। ये तस्वीरें 17 और 18 जून को अख़बारों में छपी थीं। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले में सुरक्षाबलों ने अपने अभियान में जिन लोगों को मारा था, उनके शवों भेड़-बकरियों की तरह टांग कर ले गये थे। इन्हीं तस्वीरों के आधार पर अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को नोटिस भेजा है। आयोग ने मंत्रालय से इस मसले पर 27 जुलाई तक अपनी रिपोर्ट सौंपने को कहा है। मानवाधिकार आयोग की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि अख़बारों में छपी रिपोर्ट सही हैं तो यह एक गंभीर मसला है।
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हिमानी दीवान ♦ समाज में फैली तमाम बुराइयों को अपने बर्ताव में शामिल कर लेने के बाद भी मां बाप बच्चे को अपनी आंचल में छुपा लेते हैं। बल्कि ऐसे कामों में कई बार उनका साथ भी देते हैं और उन्हें बचाने के लिए तमाम हथकंडे भी अपनाते हैं। हंगामा मचता है तो सिर्फ इस बात पर कि उसने इस जात की… उस गोत्र की… ऐसे खानदान की… लड़की से प्यार कर लिया। शादी कर ली। इस गुनाह के लिए जोड़ियों की हत्या तक कर दी जाती है। फिर अचरज ये कि इसे ओनर किलिंग का नाम दिया जाता है। इज्जत के नाम पर की गयी हत्या। क्या तब इज्जत बढ़ती है, जब बच्चा गैरकानूनी काम करता है?
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डेस्क ♦ प्रबंधन की आपसी लड़ाई का खामियाजा कुछ पत्रकार भी भुगत रहे हैं। इनकी कमी यह है कि उनका इंटरव्यू और सेलेक्शन ज्योति नारायण ने किया था। इसके बाद बाकायदा उन्हें ऑफर लेटर भी दिये गये। उनमें से तीन-चार को 17 मई को पी7 के दफ्तर बुलाया भी गया। उन्हें सम्मानपूर्वक चाय-पानी भी दिया गया। कंपनी की ओर से कर्मचारी को ज्वाइनिंग के वक्त भरवाया जाने वाला फॉर्म भी भरवाया गया। इसके बाद सिर्फ औपचारिकता ही रह गयी थी। इसी दौरान विधुशेखर और पी दत्ता ने ज्वाइन करने जा रहे पत्रकारों को एक-एक करके बुलाया और उनसे तीन-चार दिनों का वक्त मांगा और फिर उन्हें बाहर जाने को कह दिया गया। ये सभी पत्रकार अपने दफ्तरों से इस्तीफे देकर आये थे।
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महाश्वेता देवी ♦ मैं यह देखकर विस्मित हूं कि जिन्होंने मेरे साथ मिलकर 'परिवर्तन चाहिए' का नारा दिया था, वे भी लालगढ़ के सवाल पर प्रतिवाद नहीं कर रहे। ममता बनर्जी क्यों खामोश हैं? इससे जनता में गलत संदेश जा रहा है। हर क्षेत्र में बुद्धदेव विफल रहे, इसीलिए उनकी सरकार के परिवर्तन की मांग हमने की थी। ममता से बंगाल की जनता को बड़ी उम्मीदें हैं। कहीं-कहीं वह उम्मीदों पर खरा भी उतर रही हैं। रेल बस्तियों के बाशिंदों को वह निःशुल्क मकान बनाकर दे रही हैं। पंचायतों की तरह कई पालिकाओं पर भी उनकी पार्टी का बोर्ड बना है। ममता को हर जगह कड़ी निगरानी रखनी होगी कि काम ठीक ढंग से हो रहा है या नहीं? उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि बुद्धदेव ने जनता को लंगड़ी मारी, तो जनता क्या जवाब दे रही है?
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जनहित अभियान ♦ सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर रहा सीएसडीएस इन दिनों भारतीय लोकतंत्र में जनता के विचारों की सबसे महत्वपूर्ण और प्रामाणिक संस्था लोकसभा में जाति जनगणना पर बनी आम सहमति के खिलाफ अभियान चला रहा है। सामाजशास्त्रीय शोध के लिए चलाया जा रहा यह संस्थान सामाजिक विविधता के आंकड़े जुटाये जाने के खिलाफ अभियान क्यों चला रहा है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। सीएसडीएस पर भारतीय समाज के कथित रूप से उच्च वर्ण कहे जाने वालों का वर्चस्व स्पष्ट नजर आता है और जो अवर्ण लोग वहां मौजूद हैं वो फौरी फायदे, सरकारी समितियों में जाने की हड़बड़ी या दब्बूपन की वजह से प्रभावी विचार के साथ हां में हां मिलाते हैं।
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अब्राहम हिंदीवाला ♦ सभी अपनी जिद में मुंबई आते हैं। सपने सजाते हैं। संघर्ष करते हैं। कुछ हासिल करने की कोशिश में सबसे पहले वे दोस्त और रिश्ते गंवाते हैं। गलाकाट स्पर्धा में उन्हें पुराने मित्रों पर भी भरोसा नहीं रहता। कहीं न कहीं परिवार की इच्छा के विरुद्ध होने के कारण उन्हें फैमिली का इमोशनल सपोर्ट भी नहीं मिलता। वे शोहरत के सफर में तनहा होते जाते हैं और यह तनहाई की एक शाम इतनी भारी हो जाती है कि भविष्य के लिए अगला कदम भी उठाना मुश्किल हो जाता है। विवेका की मौत सबक है। मुंबई आये सभी ख्वाहिशमंदों से एक ही गुजारिश है कि कुछ पाने की उम्मीद में दोस्तों और रिश्तों को न खोएं। अपने पास कुछ दोस्तों और संबंधियों को रखें, जिनसे अपनी हार शेयर करने में शर्मिंदगी न हो।
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मुकेश कुमार ♦ लोग यह समझने लगे हैं कि प्रेस ऐसी ताकत है, जिसके सहारे दूसरों के गलत कामों की तरफ उंगली उठायी जा सकती है, और अपने गलत कामों पर पर्दा डाला जा सकता है। भारत में अंग्रेज छापाखाना लेकर आये ताकि गुलामी की जंजीर को और मजबूती से जकड़ा जाए। लेकिन हमारे जुझारू नेताओं ने छापाखाने को हथियार की तरह प्रयोग किया। पिछले लोकसभा चुनावों में मीडिया के एक बड़े हिस्से ने जिस तरह बड़े पैमाने पर पैसे लेकर विज्ञापनों को खबर की शक्ल में छापा, उसे एक मिशन की नीलामी नहीं, तो और क्या कहा जाएगा? तब प्रभाष जोशी और विनोद दुआ जैसे कुछ पत्रकारों ने इस मसले को जोर-शोर से उठाया था। लेकिन आंदोलन से व्यवसाय बन चुकी पत्रकारिता के कथित कर्णधारों को कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
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नवीन कु रणवीर ♦ रवीश कुमार जवाब दें? एनडीटीवी इंडिया में शुक्रवार 25 जून 2010 को रात 9:30 बजे रवीश की रिपोर्ट में जातिसूचक शब्दों के इस्तेमाल को लेकर डिस्क्लेमर भी दिखाया था, परंतु उसके बावजूद भी देश के हर राज्य का वो वर्ग इतना सक्षम नहीं है कि सवर्ण समाज के द्वारा दी गयी इस घृणा पर गर्व कर सके। पंजाब में दलितों की आर्थिक स्थित अच्छी है। कैसे है, ये भी आप जानते हैं। उन्होंने समाज के उस वर्ग का ही बहिष्कार किया, जिसने उनसे घृणा की। पंजाब में डेरा संप्रदाय हमेशा से एक ताकत और पहचान का प्रतीक रहा है। आपकी रिपोर्ट का असर ये पड़ेगा कि जिन राज्यों का हमने जिक्र किया, वहां के सवर्ण अब खुले तौर पर लोगों को इन जाति-सूचक शब्दों के उच्चारण से बुलाएंगे, गाने गाकर चिढ़ाएंगे।
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
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